प्रवासी भारतीयों में घटती शांत प्रक्रिया।

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youthडॉ. मधुसूदन

***अमरिकन भारतीय समाज की एक शांत प्रक्रिया।
***स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, और स्वैराचार का फल।
***मिलियन डालर पाए, पर संतान खोए।
***व्यक्ति स्वातंत्र्य व्यक्ति को अलग कर देता  है।
***इत्यादि आगे पढें।

(१) अमरिका निवासी  भारतीय समाज में, एक शांत प्रक्रिया उभरते देख रहा हूँ। यह शान्त, मौन और धीमी प्रक्रिया है। और दिन प्रति दिन शनैः शनैः बढते बढते उग्र रूप धारण कर रही है। हमारे प्रवासी भारतीय समाज का ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ। पश्चिम के अनुकरण से, भारत में भी, ऐसी प्रक्रिया छोटे रूप में, देखी जाती है; तो गौण उद्देश्य भी है, कि, उन्हें भी इस प्रक्रिया के, घटिया परिणामों से, चेताना चाहता हूँ। साथ साथ, राष्ट्र हितैषियों का ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ।
इस प्रक्रिया के, मेरी दृष्टि में, काफी नकारात्मक परिणाम है। जो अगली पीढियों को अधिकाधिक मात्रा में, भुगतने पडेंगे।  जो लाभ पहली पीढी को अनायास, दृढ संस्कारों के कारण, जाने-अनजाने  हुआ, वैसा लाभ अगली पीढी को नहीं होगा। और उसके पश्चात की पीढी और भी क्षीण होती चली जाएगी।

(२)  पास जो होता है, उसकी उपेक्षा होती है। जो नहीं होता उसका मूल्य ऊंचा आँका जाता है। इसी भ्रांन्ति के कारण काफी भारतीय धन के पीछे दिन-रात लगे रहे। संतानों के संस्कार की ओर ध्यान देने का समय नहीं निकाल पाए। फलस्वरूप  उनके जीवन में, इस उपेक्षा का फल भोगने की बारी आयी है।

एक विवेकी मित्र से सुना, कि मिलियन डालर पाए, और, अपनी संतान खोए, तो क्या पाए? बात सच है। पर ऐसी अभिव्यक्ति भी सामान्यतः कोई करता नहीं। सारे मुठ्ठी बाँधे मौन है। दूसरा कुछ नहीं, यह अपनी गलती स्वीकार न करने की विवशता है;  लाज बचाने का प्रयास है।

(३) सारांश में, यहाँ वैयक्तिक स्वातंत्र्य की अति  व्यक्ति को अकेला कर देती है। जब आप स्वतंत्रता के कारण अलग हो जाते हैं, तो अधिक स्वतंत्र हो जाते हैं।
ऐसी अलगता आप को अधिक स्वातंत्र्य देती है। यह कुचक्र बढते बढते आप की स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में परिवर्तित कर सकता है। और इसी के आगे बढते बढते स्वच्छंदता  स्वैराचार में परिणत हो  सकती है।

(४) कुछ वर्ष पहले, एक विवाह में जाना हुआ, जहाँ निमंत्रक परिवार नें अतिथियों का निःशुल्क प्रबंध एक तीन सितारा होटल में किया था।एक आमंत्रित भारतीय जो आए, तो, उन्हें होटल का प्रबंध घटिया लगा।कुछ क्रोधित ही होकर, वें, स्वयं अपनी श्रीमंताई को शोभा देनेवाली होटल में जाकर ठहरे। जब, दूसरे दिन सबेरे वे सज धज  कर विवाह में सम्मिलित हुए, तो सभी के सामने समस्या खडी हुयी। अन्य अभ्यागत जन उनसे वार्तालाप करने से सकुचाए।और वे भी अकेले रिक्त दिशा में देखते, दोनों हाथों को सामने, बाँधे बैठे  रहे।

(५) ऐसा वैयक्तिक स्वातंत्र्य, हमें समाज से अलग करता है। अपना सम्मान बचाने हम दोष स्वीकार करने से डरते हैं। अन्ततोगत्वा यह हमें ग्रस ही लेगा, और समाज को विगठित कर देगा। इस प्रक्रिया का, प्रारंभ वैयक्तिक स्वातंत्र्य के लुभावने नाम से होता है।ऐसा वैयक्तिक स्वातंत्र्य कुछ मात्रा में आवश्यक अवश्य है। कुछ, निजता भी आवश्यक है।
दूसरी ओर, शायद ऐसे प्रवासी भारतीय हैं,  जिनकी  वैयक्तिकता को दबा कुचला  गया था;तो उसकी  प्रतिक्रिया के चलते, वें अपनी संतान को स्वतंत्र  बर्ताव की छूट देते हैं।
इस पर चढता है, अमरिका का व्यक्ति स्वातंत्र्य और मुक्त  वातावरण जो, इस पर अतिशयोक्ति की सीमा तक छूट देता है।
इसके कारण, भारतीय परिवारों में भी कुछ स्वतंत्र,  स्वच्छंद, और स्वैराचारी संताने दिखाई देने लगी है। कानून से १८ की आयु तक ही माता-पिता का दायित्व होता है। सामान्यतः १८ से बडी अमरीकन सन्ताने माँ-बाप से अलग रहती है। जब मित्रों की यह अवस्था देखता है, तो, भारतीय युवा भी प्रभावित होता है।

(६) स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, और स्वैराचार की सीमा रेखाएं तो स्पष्ट होती नहीं है।
स्वतंत्रता अभिव्यक्ति है, बौद्धिक एवं वैचारिक परिपक्वता की।  स्वच्छंदता मन की लहर से संचालित होती है। पर स्वैराचार स्वयं को क्षति पहुंचाने की सीमा तक जा सकता है। जब व्यक्ति बुद्धि हीन, इंद्रियजन्य सुखों से, और विकारों से प्रेरित होती है, तो उसे स्वच्छंदता कहा जा सकता है,  स्वैराचार इसी का वह रूप है, जिसमें व्यक्ति स्वयं के स्वास्थ्य को हानि कर लेता  है।

(७) भारत की संस्कृति इसी लिए सारे संसार में अतुल्य है।  भारत नें आध्यात्मिक स्वातंत्र्य सभी को दिया है। इस के कारण भारत आध्यात्मिक जनतंत्र है।जिस किसी दर्शन से मनुष्य को ऊपर उठाया जा सकता है, सभी स्वीकार्य है। ऊर्ध्वगामी मापदण्ड है हमारा। जिसपर विस्तार से कभी चर्चा की जा सकती है। इस मापदण्ड के सूचकांक भी हैं। पर, व्यावहारिक स्तरपर हम संयम से, परम्परा को मानते है।
हमारी व्यावहारिकता सुसंवादी है; आध्यात्मिकता में हम स्वतंत्र है।
पश्चिमकी  आध्यात्मिकता रट्टामारु एकमार्गी है। पर व्यवहार में अतिशय स्वातंत्र्य देती है।

(८) मनुष्य के संस्कार के घटक होते हैं दैहिक या ऐंद्रीय, मानसिक-बौद्धिक, और आध्यात्मिक।
यदि व्यक्ति ऊर्ध्वगामिता अपने जीवन में व्यक्त करता है, तो उसकी गति, शारीरिक से मानसिक की ओर, मानसिक से बौद्धिक की ओर, और बौद्धिक से आध्यात्मिक की ओर निरन्तर होते रहती है। यह व्यक्ति की आंतरिक प्रक्रिया है। इसमें व्यक्ति को हमने स्वतंत्रता दी है। इसी कारण हमारे आध्यात्मिक विकास की अनेक विधाएं, अनेक मार्ग, अनेक पंथ इत्यादि इत्यादि अति विकसित अवस्था में पहुंच चुके है।

पर जहाँ वह समाज में रहता है; वहाँ सुचारु रूपसे बिना संघर्ष रहे, इस लिए हमारा व्यावहारिक आदर्श सुसंवादी है। वहाँपर हमने परम्परा से अनेक रूढियाँ उपजायी है।
हर व्यक्ति को सुसंवादी होकर अपने आसपास के समाज के साथ रहना है।
एक ओर, व्यक्तिगत विकास की सूचक दिशा है==>शारीरिक से==>मानसिक से==> बौद्धिक से==आध्यात्मिक।

और जिस समाज में आप रहते हैं, उस समाज से आप मिलके संवाद बनाके रहें। संघर्ष उकसाए बिना रहे।

दीनदयाल जी इस प्रक्रिया के लिए, व्यष्टि,से==> समष्टि से,===> सृष्टि से ===> परमेष्टि इत्यादि संज्ञाओं का
उपयोग करते हैं।
अर्थात व्यक्ति परिवार से संवाद बनाकर रहे।
परिवार समाज के साथ संवाद बनाकर रहे।
समाज देश(राष्ट्र) के साथ संवाद बनाकर रहे।
राष्ट्र विश्वके साथ संवाद बना कर रहे।
विश्व सृष्टि (प्रकृति)के साथ संवाद बना कर रहे।
और सृष्टि परम तत्व के साथ संवाद बनाकर रहे।

कभी इस विषय पर गहराई में विश्लेषण प्रस्तुत किया जाएगा।

दीनदयाल जी को जितना पढा उतना  अधिकाधिक प्रभावित ही होता गया।

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12 COMMENTS

  1. परम आदरणीय श्री मधुसूदन जी,
    आपका नवीनतम आलेख भी पूर्व की भांति सारगर्भित है और शास्वत जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना की वेदना से युक्त है!जो कुछ पश्चिम में घटित हो रहा है वही सब कुछ तेज़ी से भारत में भी घटित हो रहा है!पिछले दिनों पढ़ा था कि चीन की सरकार ने वहां के शहरों में रह रहे युवाओं को इस आशय के निर्देश दिए थे कि वर्ष में दो तीन बार उन्हें गाँवों में रह रहे अपने माता पिता के साथ कुछ समय बिताने के लिए जाना अनिवार्य होगा! उद्देश्य यही था कि परिवारों में हो रहे विघटन को रोका जा सके और बुजुर्गों में अवसाद की स्थिति न आने पाये!लेकिन भारत में देखने में आ रहा है कि गाँवों में और नगरों के पुराने मोहल्लों के घरों में तो अभी भी सामाजिकता कुछ सीमा तक बाकी है लेकिन नयी विकसित हो रही कॉलोनियों में यह भावना दिनोदिन समाप्त होती जा रही है! यह किसी एक दो तीन घरों की कहानी नहीं है! अधिकांश परिवारों में बच्चों के बड़े होते ही अकेलेपन की समस्या तेज़ी से बढ़ रही है!और इसे कम करने का कोई प्रयास किसी दिशा से नहीं हो रहा है!अमेरिका के कुछ विद्यालयों में प्रयोग किये गए कि जो बच्चे अपना कुछ समय सामाजिक कार्यों में लगाएंगे उन्हें उसके कुछ अंक दिए जायेंगे! पता नहीं उसका कितना असर सामाजिकता की भावना बढ़ाने में हुआ है.
    संघ ने परिवार प्रबोधन के नाम से कार्यक्रम प्रारम्भ किया लेकिन उसका भी परिणाम नगण्य ही है.नगरीय वातावरण में सामाजिकता का भाव कम क्यों हो जाता है और इसे किस प्रकार मजबूत किया जा सकता है इस दिशा में समाजशास्त्रियों को मिलकर चिंतन करना चाहिए और इसके निदान के उपाय सोचने चाहिए.संभवतः सामाजिकता की भावना का कम होना बढ़ते अपराधों का भी एक कारण है! प्रधान मंत्री मोदीजी १०० स्मार्ट सिटी बनाने की अपनी महत्वकांक्षी योजना को आगे बढ़ा रहे हैं! लेकिन इसके सामाजिक असर पर भी विचार होना चाहिए!और इसमें सामुदायिक जीवन विकसित करने पर ध्यान देना अपेक्षित है!
    व्यक्तिवादी पश्चिमी जीवन शैली को अपनाने से हम बहुत कुछ खो रहे हैं!लेकिन इसका एहसास तब होता है जब पानी हमारे सर से गुज़र चुका होता है!क्या आज माताएं अपनी बेटियों को अपनी ससुराल में धींग बनकर रहने की सीख नहीं देती हैं?क्या हमअपने बेटों को ‘मातृवत पर दारेषु’ का संस्कार देते हैं? बहुत कम लोग होंगे जो इन विषयों पर ध्यान देते हैं.तो ऐसे में समाज में स्वस्थ वातावरण कैसे बनेगा?
    पंडित दीन दयाल जी द्वारा प्रतिपादित ‘एकात्म मानववाद’ के सूत्र आपके द्वारा दिए गए है, लेकिन क्या आज उनके अनुयायी ही इस ओर सचेष्ट हैं?
    एक महत्वपूर्ण समस्या की ओर आपने ध्यान खींचा है, इसके लिए आपको साधुवाद!

  2. सभी प्रवासी भारतीयों को शंख फूँककर कहना चाहता हूँ, कि, अपने ७-८ वर्ष से बडी आयु के बालकों को हिन्दू स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बालविहार,आंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति के हिन्दी के वर्ग, बालगोकुलं इत्यादि संस्थाओं के वर्गों में भेजते जाइए। कई नगरों में, आठवले शास्त्री जी के स्वाध्याय वर्ग भी चलते है। चिनमय मिशन के वर्ग चलते है। छुट्टियों में उन्हें भारत भी ले जाइए।
    अनुभव है, कि, जिनके बालक ऐसे (वर्ष में एक सप्ताह) वाले शिविरों में गए थे; वें हीन दशाओं से बच पाए हैं। उनके विवाह भी शिविरों में परिचित हुए, किसी युवा-युवति से होने की संभावना बढ जाती है।

    फिर साथ साथ ध्यान रहे, कि, किसी भी भारतीय सांस्कृतिक संस्था से सम्बंध रखना बहुत हितकारी है।
    जब पसंदकी संस्था ना मिल पाए, तो किसी अन्य भारतीय संस्था में बालक को अवश्य भेजे।
    कहीं भरत नाट्यं, कथकली, इत्यादि भी सिखाया जाता है।
    आप अपना आलस्य त्यजकर, प्रण करे बालकों को बडा करना अमरीका में बहुत कठिन है। पहले १५ वर्ष आपको कडा परिश्रम करना पडेगा।
    उसके मीठे फल आप को अवश्य मिलेंगे।
    मात्र विषय के उपरान्त संस्कार भी प्रमुखतः करनेवाली संस्थाएं चुनिए।
    कभी सूक्ष्मताएं विचारी जा सकती हैं।
    आप स्वयं भारतीय संस्कृति में गौरव लेनेवाले होना चाहिए। लघुता ग्रंथि से पीडित यदि, हैं, तो, आप के लिए यह परामर्श काम नहीं करेगा।

    मधुसूदन

  3. कृपया मेरी टिप्पणी में ‘अकुशल’ की जगह ‘सकुशल’ शब्द लगा मेरी त्रुटि को ठीक करें| धन्यवाद|

  4. मेरी सोच में जन्म से मृत्यु तक जीवन में घटनाओं की श्रृंखला केवल मनुष्य के पूर्व निश्चित व्यक्तिगत भाग्य के अनुरूप है| लगभग चार दशक से संयुक्त राष्ट्र अमरीका में रहते इस शिरोधार्य तथ्य को समझ मैंने अच्छी बुरी परिस्थितियों के अनुकूल पुरुषार्थ करते जीवन-यापन किया है| मधुसूदन जी के विचारों के विपरीत बोल मैं उनके द्वारा उठाए मुद्दों की गंभीरता को कतई कम नहीं करना चाहूँगा| विकल्पतः अमरीका के छोटे बड़े शहरों में स्थित विशाल मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों, और गिरजाघरों में भारतीय संस्कृति और भाषाओं का प्रचार व विस्तार और भारतीय युवा प्रवासियों में धर्म व संस्कृति के प्रति उत्साह देखते संतुष्ट मन उन्हें आश्वासन दूंगा कि संयुक्त राष्ट्र अमरीका में भारतीय स्वतंत्र, स्वच्छंद, और स्वैराचारी संतानें अन्ततः भाग्य अनुसार एक एक कर अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच जाएंगी लेकिन भारतीय संस्कृति को आंच न आए गी|| स्वयं हमारे तीन बच्चे हैं| सभी धन धान्य से परिपूर्ण समाज में व्यक्तिगत व व्यावसायिक योगदान देते अपने अपने परिवारों में अकुशल जीवन-यापन कर रहे हैं| हमारे सामाजिक संपर्क में अन्य भारतीयों की स्थिति भी संतोषजनक है| स्वर्ण-सिद्धांत यह है कि मैं और मेरी पत्नी पढ़े लिखे व संपन्न बच्चों (आयु ३७-४४) को सीख देते हैं लेकिन अनुकूल अपेक्षा नहीं रखते| परस्पर प्रेम-आदर-सम्मान से लिप्त हमारे साधारण जीवन में यदि असहाय अथवा असहनीय स्थिति उत्पन्न हो भी जाए तो मैं स्वयं उसे भाग्य का अपरिहार्य दंड समझ मनोव्यथित न हो उस स्थिति से जूझने में विश्वास रखता हूँ|

    • बहुत बहुत धन्यवाद मा. इन्सान जी—आपसे सहमति व्यक्त करता हूँ।
      संस्कार प्रक्रिया पर निम्न कडी का, आलेख भी आप देख लें।
      आपकी (छोटी) टिप्पणी भी आलेख पर अपेक्षित है।
      इस विषय पर अनेक जगह (गुजराती, अंग्रेज़ी और हिन्दी इत्यादि में) प्रस्तुति करते रहता हूँ। इस लिए,अपने बिन्दू अवश्य व्यक्त करें, जिससे आगे लाभ होगा।
      कडी दे रहा हूँ। u s a में संघ की १७५ से २०० तक शाखाएं चलती है। विश्व हिन्दू परिषद और हिन्दू स्वयमसेवक संघ इत्यादि संस्थाएं कई शिविर लगाया करती हैं। यहाँ मॅसेच्युसेट्स और निकट में, न्यु जर्सी में ऐसे दो शिविर अगस्त में लगेंगे। (३०० से ४०० प्रतिभागी) दोनों शिविर एक सप्ताह तक चलते हैं। अनेक कार्यकर्ता सक्रिय योगदान देते हैं।
      https://www.pravakta.com/childrens-mental-cultivation-process

      • मधुसूदन जी, प्रवक्ता.कॉम पर प्रस्तुत “बालकों की मानसिक संस्कार प्रक्रिया” व भारतीय समाज की भलाई हेतु लिखे आपके अन्य शिक्षाप्रद निबंध पढ़ सदैव मन ही मन आपके सामाजिक प्रयास की प्रशंसा करता रहा हूँ| सामान्य मनुष्यों में विस्तृत सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता के बीच प्राकृतिक मानवीय संपर्क और संवाद की पराकाष्ठा को समझते स्वयं मेरी रुचि व्यक्तिगत व्यवहार में रही है| कोई कैसे और क्योंकर सोचता है व यदि कुछ करता है तो क्योंकर करता है; क्या यह सदैव व्यक्तिगत अथवा संगठित व्यवहार और प्रक्रिया है जैसे प्रश्न मस्तिष्क पटल पर उभर कर आते रहे हैं| मेरी समझ में उनका उत्तर स्वयं मेरे जीवन में संतुलन लाने में सहायक रहा है| इसी संदर्भ में केवल व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामाजिक स्तर पर चिरकाल से नेतृत्वहीन भारत में आधुनिक भारतीय समाज पर वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के बढ़ते प्रभाव का पर्यवेक्षण करते मैं चिंतित रहा हूँ| उदाहरणार्थ मैं गाँव में रहते उस सामान्य भारतीय बालक की बात करूँगा जो अच्छे संस्कारों से परिपूर्ण बड़ा हो कर उच्चतर विद्या अथवा जीविका के लिए शहर की ओर प्रस्थान करता है| वहां शहरी समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपर्याप्तता, अक्षमता और अन्य कुरीतियों के बीच वह अपने अच्छे संस्कारों से कोई लाभ न ले पाएगा| अच्छे संस्कार-युक्त बालक के बड़े होने से पहले ऐसे समाज की रचना करनी होगी जहां स्वयं उसके व्यक्तिगत रूप से विकसित होते वह समाज में आने वाली पीढ़ियों के लिए अपना योगदान दे सके| आप लिखते हैं तो पुण्य करते हैं| सबसे बड़ा पुण्य आपके अच्छे विचारों और उद्देश्यों को कार्यान्वित करते ऐसे कार्यक्रम व योजनाएं बनाने में है जिनका अनुसरण करते सामान्य नागरिक भारत और भारतीय समाज को सुदृढ़ और समृद्ध बना दें|

  5. मधु जी
    आपका आलेख पहले भी पढ़ा था |जिस परिवर्तन से हम दुखी हो रहे हैं वह भारत में भी पैर पसार रहा है बल्कि और अधिक विकृत होकर |तथाकथित विकसित देशों में यह पहले आ चुका था |विश्व के सभी देशों में जब कृषि व्यवस्था थी तब सभी जगह संयुक्त परिवार की परस्पर अंतरनिर्भरता वाली संस्कृति थी, एक शांत जीवन था, परस्पर संवाद का समय मिल जाता था लेकिन अब मशीनी और मुनाफावादी अर्थ व्यवस्था आ गई तो सब कुछ अस्तव्यस्त हो गया |भागते-भागते भी दो रोटी का जुगाड़ कठिन होता जा रहा है |

    जैसे कहा गया है कि यथा राजा तथा प्रजा , वैसे ही जैसी अर्थव्यवस्ठा वैसी ही समाज व्यवस्था | एक भीड़ आपके पीछे आ रही जो आपके न चाहते हुए भी आपको आगे धकेल रही है | ऐसे में अपने अनुसार एक व्यवस्था बनाना और लीक से हटने का प्रयत्न करना बहुत कठिन है और एक बहुत बड़े संकल्प की अपेक्षा रखता है जो कहीं आसपास दिखाई नहीं देता |
    तुलसी दास कहते हैं
    बिनु संतोस न काम नसाहीं
    काम अछत सुख सपनेहुँ नहीं

    धन्यवाद,
    रमेश जोशी
    लेखक, कवि, पूर्व हिंदी अध्यापक, प्रधान सम्पादक, ‘विश्वा’, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति की त्रैमासिक पत्रिका

  6. एक विद्वान, डॉ. बसन्त कुमार (पी. एच. डी.) जी की ओरसे निम्न संदेश इ मैल से प्राप्त हुआ।
    ==> Excellent analysis, agree 100 %. Have gone through these issues in raising three children.
    Regards

  7. डॉ झवेरी
    आप का लेख – आप के लेख के विषय का चयन और उस की प्रस्तुति से सदैव हतप्रभ हूँ अतः टिप्पणी देने का साहस नहीं जुटा पाता। आप का आग्रह है अतः कुछ लिख रहा हूँ।

    आप ने कुछ निष्कर्ष निकाले हैं , उस बारे में आप से कोई मतभेद नहीं हो सकता।
    अमेरिकी भारतीय समाज की एक शांत प्रक्रिया है जो धीरे धीरे उग्र रूप धारण कर रही है। इस का कारण उभरता मानसिक द्वन्द है। स्वतंत्रता, स्वछँदता और स्वैराचार – कहाँ से आयी, किस ने दी और इन को एक धारा में क्यों नहीं बांधा जा सका।
    मैं यहाँ आप के विचार के लिए दो उदाहरण दे रहा हूँ – दोनों ही उदाहरण सत्य हैं।

    १. अमेरिकी निवासी भारतीय – ‘क’ परिवार के अध्यक्ष ‘ख’ परिवार के घर अपने बेटे के परिणय का कार्ड (कंकोत्रि) देने गए।
    ‘ख’ ने खुले तौर पर प्रसन्नता व्यक्त की लेकिन सहमे/ डरे तौर पर पूछा –
    ‘ सब ठीक है ना ?
    क – हाँ ठीक है भी और नहीं भी।
    ख – क्यों – क्या हुआ क्या अंतर्जातीय है ?
    क – हाँ –
    ख – कोई बात नहीं – भारतीय तो है ?
    क – नहीं।
    ख – कोई बात नहीं – क्या अफ्रीकन ( अश्वेत ) से हो रही है ?
    क – नहीं – गोरे रंग से है
    क – कोई बात नहीं – चलो यह भी ठीक है /
    ख -शाकाहारी तो होंगे।
    क – नहीं –
    ख – (अच्छा अब अगला प्रश्न कैसे पुच्छू ?)
    अच्छा – यह बताओ – तुम्हारे बेटे की शादी लड़की से ही हो रही है ना ?
    क – नहीं – मेरे लड़के का होने वाला जीवन साथी एक गोरा लड़का ही है – और मेरा बेटा ज़िद्द पर अड़ा है की शादी करेगा तो इसी लड़के से। लेकिन यह लड़का स्वभाव का बहुत ही अच्छा है।
    ख – चलो ठीक है – यदि तुम खुश हो तो ठीक है।
    क -लेकिन मेरे पास क्या विकल्प है ?
    ख – हाँ – विकल्प भी नहीं है। वे दोनों पहले से ही एक अलग घर में रह रहे हैं। हमें तो प्रसन्न भी होना है। निमंत्रण पत्र भी छपा दिया और अब शादी की औपचारिकता भी निभानी पड़ेगी ।
    xxxxx
    यह कोई मन गढंत कहानी नहीं है – अमेरिकी और कनेडियन जीवन की सत्यता है।
    आप कहते हैं मिलियन डॉलर पाये पर संतान खोएं – डॉलर पाएं या न पाएं – संतान तो आप खो ही रहे हैं और इसे रोकना मुश्किल है। पिछली पीढ़ी के जो भारतीय परिवार अमेरिका – कनाडा में जा कर बस गए, उन के जीवन स्तर में परिवर्तन आ गया – वे सर्व सुख सुविधा संपन्न हो गए लेकिन जब उन्होंने अपनी संतान को बड़े होते देखा तब वे संतान के भविष्य के प्रति चिंतिंत हुए। उन के समक्ष जीवन का एक बड़ा चौराहा था।

    इस सम्बन्ध में मैंने अमेरिका की सभी लाइब्रेरी में एक पुस्तक देखी – अनिता जैन के विवाह के बारे में। अनिता नाम की लड़की ने अपने विवाह के बारे में यह पुस्तक लिखी है। यह एक प्रकार से आत्म कथात्मक उपन्यास है। अनिता उत्तर प्रदेश के एक पुरातन शहर ग़ाज़ियाबाद के एक मध्यम वर्गीय परिवार से है। मध्यम वर्गीय परिवार की कुछ विशेषतायें होती हैं जिन्हें हम सीमायें, बंधन, कठिनाइयां, मर्यादा, रीति रिवाज, रूढ़ियाँ परम्पराएँ अथवा विवशताएँ कहते हैं। अनिता इन सब से निकलते हुए युवा होने तक पूर्णतया अमेरिकी हो जाती है – खान पान, रहन सहन, वेश भूषा, होटल क्लब, पिकनिक , ड्राइविंग सभी कुछ आ जाता है। अब उसे किसी तरह की भाषा अथवा शब्दों से कुछ बुरा नहीं लगता। शील अथवा अश्लील का अंतर मिट जाता है। इस प्रकार माता पिता का दुविधापूर्ण जीवन – बच्चों के प्रति मोह और आधुनिकता से गुरेज़ – इन दो पाटों के बीच चलता रहता है। आप ने लेख के अंत में दीन दयाल जी के शब्दों में समस्या का समाधान दिया है लेकिन वह तो एक आदर्श समाज की कल्पना है। एक मृग तृष्णा की तरह है। सत्य अभी कोसों दूर है।

  8. Great, Professor Madhusudan ji.

    Your experience is very true. Indians who came here 40 yrs ago got their children filthy rich but the culture, family etc. etc is all lost. Specially their grand children got away from them. They are totally free, dating someone from any part of the world because America is a melting pot of the world.

    I personally know a 93 yr old Indian, his 80 yr old wife and he look at walls in their million dollar home with many bedrooms, swimming pool and what not but no other human. Grand children go to school, children go to work and in the old age they virtually cry and suffer. True. They got million dollars but lost the family. Lost the life in a way.

    That tells me dead money is subservient to live life. But most don’t agree with me. They say money is money is money is money——.

  9. आदरणीय मधु जी,

    मैं ८ वर्ष अमेरिका में रहकर ६ मास पूर्व ही भारत लौटा हूँ । अतः आपके द्वारा इस लेख में उल्लेखित समस्या से भली भाँति अवगत हूँ । वस्तुतः यह उल्लेखित समस्या प्रवासी भारतियों के द्वारा झेली जा रही अनेक समस्याओं में से एक है । कुछ और सम्बन्धित समस्याएँ –
    १) विद्यालय परिसर के अन्दर माता पिता द्वारा वार्तालाप के लिए हिन्दी भाषा के प्रयोग किए जाने पर बालकों द्वारा लज्जा का अनुभव करना
    २) बालकों की भारतीय भोजन में प्रायः लुप्त हो चुकी रुचि, जिस कारण या तो माता पिता भी ’कचरा’ खाना खाने पर विवश, या फिर अलग अलग प्रकार का खाना खाने की प्रथा

    वस्तुतः इन्हीं समस्याओं पर दूरगामी चिन्तन मेरा भारत प्रत्यागमन का १ महत्त्वपूर्ण कारण रहा है ।

    परन्तु, इस समस्या का सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषण करके उसे शब्दों में स्पष्ट लिख देना, आपके द्वारा किया गया एक महान् परोपकार है जो कि अत्यन्त सराहनीय है । यह असरल कार्य आपकी भारतीय समाज व्यवस्था की रक्षा के प्रति कार्यरत होने के दृढ सङ्कल्प को सम्यक् दर्शाता है । मैं आपका ये लेख अमेरिका में रह रहे मित्रों को प्रेषित करूँगा ।

    धन्यवाद ।

    भवदीय मानव ।

  10. Su Shri Shakuntala ji—-Feel honored by your response. Thank you…madhusudan
    —————————————————————————–
    By e mail
    आदरणीय विद्वद्वर मधुसूदन जी,
    ” प्रवासी भारतीयों में …….” आलेख पढ़ा । आपने अगली पीढ़ी के सम्बन्ध में बहुत ही सही आकलन किया है।
    मैं भी इस परिवर्तित स्थिति को बराबर देखती रहती हूँ और न जाने क्यों मन अनायास ही चिन्तित तथा विक्षुब्ध हो जाता है । ये स्वातन्त्र्य-भाव या कहूँ कि स्वेच्छाचारिता हमारी सन्तति को कहाँ ले जाएगी ? भारतीय-संस्कृति का
    विलोप उन्हें अधकचरी संस्कृति की ओर ढकेल रहा है – जिसे वे पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण द्वारा स्वयं को अधिक बुद्धिवादी और आधुनिक मान रहे है । जिस संस्कृति को विदेशियों ने भी गौरवान्वित माना है, क्या ये नई पीढ़ी
    उस पर कभी गर्व कर सकेगी ? इस स्थिति को रोक पाना अब आसान नहीं लगता है ।
    आपने बड़ी विशदता से सभी कारणों और उसके परिणामों पर प्रकाश डाला है । आलेख सशक्त एवं प्रभावी है ।
    मन पर छाप छोड़ने वाला ये सूझ-बूझ वाला आलेख आपके चिंतनशील मस्तिष्क से उपजा है और आपके सभी आलेखों की भाँति , सराहनीय है ।। धीरे धीरे अन्य आलेख भी पढ़ूँगी ।
    सादर,
    शकुन्तला बहादुर

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