भारतीय सिनेमा में दांपत्य जीवन का चित्रण कई स्थानों पर देखने को मिलता है। फिल्म निर्मातानिर्देशक उदारीकृत अर्थव्यवस्था में पतिपत्नी के बीच वादविवाद, टकराव, लड़ाईझगड़ा एवं तलाक(संबंध विच्छेद) को सिनेमा के सुनहले पर्दें पर उकेर रहे हैं। कुल मिलाकर निर्माताओं निर्देशकों का एक मात्र लक्ष्य भारतीय संस्कृति तथा भारतीयविवाह संस्था को श्रेष्ठ साबित करते हुए दिखाई देता है। परंतु हां, जीवन के उतारच़ाव में ये फिल्में मानवीय झंझावातों को दिखा तो रही हैं पर ये नहीं सोचती कि किस प्रकार उसे सुदृ़ किया जाए। क्या दांपत्य जीवन का भारतीय दर्शन सफल हो सकता है? क्या पतिपत्नी अलगाव होना ठीक है? भारतीय नारी मात्र पति के पदचिह्नों पर हीं चलेगी या उसका भी कुछ आस्तित्व हो सकता है क्या? क्या वैवाहिक मूल्य बदल रहे हैं? फिल्मों में प्रायः यह दिखाई देता है कि स्त्री अपने वासना तथा धन की सुख के लिए कुछ भी करने को तैयार है।
“जिस्म” की बिपासा वसु तथा “7 खुन माफ” की प्रियंका चोपड़ा बदलते भारतीयजीवनमूल्यों की निमित्त मात्र है। सुख की प्राप्ति के लिए यीशु के शरण में जाती है। उसका दांपत्य जीवन पुरूष के धोखाधड़ी तथा बचकानी आदतों से आजिज होकर कुछ गलत कदम उठाती है। मूलतः दांपत्य जीवन विश्वास तथा समर्पण का संगम है। जहां पतिपत्नी गृहस्थी रूपी गाड़ी को चलाते हैं। ‘शतरंज के मोहरे’ में यह अनमोल विवाह तथा सेक्स समस्या को लेकर है तो दीपा मेहता के ‘फायर’ में पतिपत्नी द्वारा एक दूसरे के बीच दूरी के कारण है। यह ‘आपकी कसम’ में दांपत्य जीवन में विश्वास तथा विवेक शून्यता के कारण। प्रेमशास्त्र(कामसूत्र) और ‘हवस’ में पत्नी एक ओर सेक्स समस्या से पीड़ित है तो दूसरी ओर अनमोल विवाह के कारण वह पति से पीड़ित है।
हिन्दी सिनेमा ने दांपत्य जीवन के हरेक पहलुओं को छूने का प्रयास किया है। हां, लेकिन इसमें जाति प्रथा, शैक्षणिक स्तर, असमान आर्थिक स्तर, रंगनस्ल, अनमेल विवाह, अंतर्धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय के साथ ही साथ विचार, रहनसहन तथा व्यवसाय के कारण टुटतेबिखरते दांपत्य जीवन को देखा जा सकता है।
50 से 70 के दशक में दांपत्य जीवन में उतारच़ाव को तो सामान्य स्तर पर देखा जा सकता है। परंतु 1980 से 2010 के दशक में स्त्री (की छवि) एवं दांपत्य जीवन को स्वछंद एवं उन्मुक्त दिखाने के चलन ने भारतीय जीवनमूल्यों पर होते प्रहार के तरफ इंगित करता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सिनेमा तथा साहित्य समाज का दर्पण तो है ही लेकिन अति नाटकीयता इसके स्वरूप को नष्ट कर रहे हैं जिसे निर्माताओं, निर्देशकों तथा नायकोंनायिकाओं को विचार करना होगा। अन्यथा भारतीय समाज पर गलत प्राव पड़ेगा।
जब मनुष्य अति कामुक, व्यस्त तथा अस्तव्यस्त जीवन सा हो जाता है तो ‘दिल तो बच्चा है जी’’ की स्थिति आती है। हास्यव्यंग्य से ओतप्रोत इस फिल्म के कथावस्तु में तीनों विभिन्न प्रकृति के हैं। एक तलाकशुदा, एक ऐसे पत्नी के तलाश में है जो उसके प्रति समर्पित हो तथा दूसरा भारतीयजीवन मूल्यों के नजदीक रहने वाले पत्नी की खोज में है। तीसरा, रंगीन मिजाज है जिसका एकमात्र उद्देश्यृ कई स्ति्रयों के साथ यौन संबंधों को स्थापित करना। इस प्रकार फिल्मों में दिखाई देता है। ‘मर्डर’ व ‘जिस्म’ की विपासा जीवन साथी की खोज में न रहकर यौन ईच्छाओं के संतुष्टी को ही सबकुछ मान बैठती है।
‘कोरा कागज’ में लड़की कोरा कागज पर तलाक का दस्तखत करती है उसी वक्त नौकर कहता है “बेटी तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करने से ही जीवन के संबंध टुट सकते है क्या? तुम पति को भूल पाओगी क्या?’’ लेकिन वे फिर मिल जाते हैं?
भारतीय जीवन ने दांपत्य जीवन को समझौता नहीं माना है। उसने तो उसे सात जन्मों का बंधन(संस्कार) माना है। अग्नि को साक्षी मानकर पतिपत्नी एक पत्नी व॔त का संक ल्प लेते हैं।
फिल्म साहित्य का लक्ष्य विविधताओं, कुठाओं तथा मनोविकारों से ग॔सित पतिपत्नी को त्राण दिलाने से है न कि विष घोलने से। फिल्म, लेखक, नायक, नायिका, निर्माता, निर्देशक, गीतकार, तथा सहयोगियों का लक्ष्य टुटते बिखरे दांपत्य जीवन को सबल एवं सशक्त बनाने से होना चाहिए। ती हमारे सपनों का संगठित, स्वस्थ एवं एकात्म भारतबन सकता है। पतिपत्नी का मात्र यौन संबध तक ही केंद्रित होकर जीवन साथी एवं मित्र
भव का होना परमावश्यक नहीं है तथा उसका आधार दांपत्य प्रेम के साथ ही भारतीय मूल्यों एवं मानदंडो की मान्यता पर केंद्रित होना चाहिए। आज के जमाने में जहां भारतीय समाज से मूल्य, प्रथा, परंपरा, सभ्यता और संस्कृति के नाम पर सांस्कृतिक संस्कृति विकृतिकरण के द्वारा नंगा नाच हो रहा है। ऐसे समय में भारतीय मूल्यों की स्थापना के लिए तथा सफल दाम्पत्य जीवन के स्वप्न का साकार करने के लिए सार्थक सिनेमा की अवश्यकता है जो पतिपत्नी के संबंधों को सृदृ़ कर सके।
‘लेखक, पत्रकार, फिल्म समीक्षक, कॅरियर लेखक, मीडिया लेखक एवं हिन्दुस्थान समाचार में कार्यकारी फीचर संपादक तथा ‘आधुनिक सभ्यता और महात्मा गांधी’ विषय पर डी. लिट्. कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल की फिजा एक झटके में ही बदल गयी लाल दुर्ग ढहा दिया गया है और उस पर हरे रंग का लेप लग चुका है. ममता की कई सालोकी मुख्यमंत्री बनने की आतुरता भी कुछ ही दिनों में पूरी होने वाली है. 34 सालो से सत्ता पर काबिज़ कम्युनिस्ट कैडर रास्ते पर आ चुकी है और शायद अगले 5 सालो तक इस करारे हार का कारण खोजते नज़र आयेंगे और राजनैतिक विश्लेषण से अपना गम दूर करेंगे. पर शायद बंगाल का दुर्भाग्य ही है कि दोबारा भी सरकार उन्ही शर्तो पर बन पायी है जिन शर्तो के कारण 34 साल पहले पश्चिम बंगाल वाम दुर्ग में तब्दील हुआ था. तब भी सरकार तत्कालीन नक्सलवाद ने बनवाई थी और आज भी ममता दीदी को माओवादियो ने ही सरकार में लाया तब भी उद्योग और विकास विरोधी सरकार बनी थी और आज भी ऐसी ही सरकार बनी. भारत की कभी राजधानी रही कोलकाता आज गलियों में सिमटी हुई सी नज़र आती है और उसके विपरीत दूसरे बड़े शहरों की छबि रोज बदलती जा रही है. मुझे भी अपने परिवार के साथ बचपन में बंगाल छोड़ना पड़ा था क्योंकि उस समय रोजगार की कमी ने मेरे अभिभावकों को कोलकाता छोड़ने पर मजबूर कर दिया था, पर अपने प्रदेश से जुदा होने का दर्द आज भी मेरे मन में कहीं न कहीं बसा हुआ है . क्योंकि वहां ऐसी फिजा है जिससे उद्योग प्राय:मृत हो रहे हैं और नए उद्योगों को बढ़ावा देने वाली सरकार कभी बन ही नहीं पाती है. जब कम्यूनिस्टो ने उद्योग का रास्ता अपनाना चाहा तो उन्हें भी सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया . आज बंगाल के मुख्यमंत्री तक अपना कुर्सी नहीं बचा पाए आखिरकार सिंगुर कि आंधी ने उन्हें भी हार का स्वाद चखा दिया .
ये सादगी भी किस काम की जिससे बंगाल कि उन्नति और विकास बिलकुल थम सी गयी है और दूसरे प्रदेश की तरक्की बंगाल को मुह चिढाने लगे है . आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है 100 फीसदी शिक्षित बंगाल को तरक्की और विकास के पटरी पर दौड़ने देना नहीं चाहती है . दूर की देखे तो ये बहुत बड़ी साजिश सी लगती है जो बंगाल के युवा को सर उठाने नहीं देना चाहती है और उन्हें माओवादी और नक्सलवादी गतिविधियों में धकेलना चाहती है. विकास माओवादियो की सबसे बड़ी दुश्मन और शायद इसी कारण आज माओवादी ममता को चुनावो में पिछले दो साल से खुलकर मदद करते आ रही है.
तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गटबंधन को इस बार माओवादियो ने इस विधानसभा में खुलकर मदद कि और कम्युनिस्ट जो इनके खास बनते थे बस दांतों टेल ऊँगली दबाते हुए ये खेल देखते रह गए और उससे ज्यादा उनके करने को कुछ था भी नहीं. कांग्रेस की चालाकी तो इससे ही समझ आ जाती है कि वो माओवादियो के हीरो विनायक सेन को योजना आयोग कि कुर्सी तक दे देते है. कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है जो इस देश में सही मायनों में प्रजातंत्र को पनपने ही नहीं देना चाहती है और शायद इन्ही कारणों से वो हर राज्य में नया गटबंधन करते नज़र आती है. हाल ही में मायावती जो कांग्रेस की सबसे बड़ी दुश्मन है उत्तर प्रदेश में वो केंद्र में कांग्रेस को समर्थन करते नज़र आई वो भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पे तो ये कैसा लोकतंत्र के साथ चाल है कांग्रेस का. पश्चिम बंगाल को भी आज ममता ने कही न कही कांग्रेस के साथ मिलकर छला है और माओवादियो के साथी से इससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं की जा सकती है.
ये ममता बनर्जी वही शक्शियत है जो जयप्रकाश जैसे जननेता की गाडी पर चढ़ गयी थी और एक बार तो उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष पे कागज़ भी उछाल फेका था तो आखिर ऐसी अभद्रता के बदले बंगाल के भद्र लोगो ने कैसे उन्हें कुर्सी तक पहुचाया इसे आनेवाले 5 सालो में समझ आएगा. खैर ये भी सही है कि बंगाल के लोगो के पास कोई दूसरा उपाय नहीं था और उन्हें जब लगा की अन्धो में काना राजा को चुनना है तब उन्होंने ममता को चुन लिया.
क्या भारत को पाकिस्तान से प्रेरित होकर कुछ करना चाहिए ,निशचय ही हम में से अधिकांश का उत्तर ना में होगा |लेकिन इस विषय में कुछ ऐसा ही है कि जो पाकिस्तान ने किया है और इस बार वह नापाक नहीं नेक है और हमे उसका अनुसरण करना चाहिए | विगत दिनों हमारे देश में भी इस परिपेक्ष्य में केंद्रीय स्तर पर विचार-विमर्श हुआ |चर्चा का केंद्र पाकिस्तान का वन –डिश कानून है, जो सार्वजनिक और व्यक्तिगत समरोह में भोजन-पानी की बर्बादी रोकने का एक सटीक उपाय है | इस नियम के तहत विवाह एवं अन्य समारोहों में अतिथि और भोजन-प्रकार की मात्र निर्धारित करने पर जोर है | अब इन आयोजनों में सिर्फ एक-एक प्रकार की रसेदार सब्जी ,रोटी ,चावल ,मिठाई के साथ गर्म और ठण्ड पेय दिया जायेगा|हमारे देश कि भांति ही पाकिस्तान में भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर दवाब डालकर इस नियम का पालन सुनिश्चित करने का आदेश दिया है |
यह सब भारत के लिए भी अति अवशक है जहाँ वैश्विक संस्थाओं के आंकलन के मुताबिक लगभग चौतीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते है, ऐसे लोगों कीसबसे बड़ी चुनौती भरपेट भोजन प्राप्त करने की है ताकि अगले दिन मजदूरी पर श्रम करनेलायक शक्ती और नींद मिल सके |इस सब में पौष्टिकता क्या होती इस का भान भी नहीं होता है पहल उद्देशय भूख मिटाने के लिए दो जून की रोटी है |अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षणों में भोजन –पानी की उपलब्धता के मामले में हमारी स्तिथि बहुत अच्छी नहीं है ,हमसे सशक्त तो चीन है जहाँ भोजन –पानी की उपलब्धता भारत की तुलना में कई गुन बेहतर है,जबकि आज वो जनसँख्या के लिहाज से शीर्ष पर है |
आजादी के समय हम लगभग बत्त्तीस करोड़ थे और तब खेत ,किसान ,खलिहान सब समृद्ध थे और पर्याप्त मात्रा में भी थे |अब जबकि २०११ की जनगणना हमें एक सौ इक्कीस करोड़ के आंकडे पर ले आयी है इस संख्या में दिन दुनी रात चौगुनी तरक्क्की होना तय है |दो हजार पचीस में हम जनसँख्या के हिसाब से दुनिया में शीर्ष पर होंगे ,चीन को पीछे छोड़ कर | लेकिन चिंता इस बात की है कि अब हमरे भोजन-पानी के स्त्रोत उतने सशक्त नहीं बचे है ,कि हम आंख मूंदकर उनके भरोसे बैठे रहें | मानव शक्ती का तो विकल्प है पर मानव शक्तीस्त्रोत भोजन का कोई विकल्प नहीं है| इसलिए आज से ही हमें भोजन-पानी की बर्बादी रोकने पर ध्यान देना होगा नहीं तो हम जिस दशा में होंगे वो अति भयावह होगी |
गांव, शहर ,जिलों और राज्यों की मानसिकता में बटा यह भारत आज भी खेती किसानी और भोजन –पानी की उपलब्धता के संदर्भ में एक सर्वव्यापी एवं सर्व लाभकारी ,ऐसी नीति की खोज में है जो अखिल भारतीय स्तर पर सब को स्वीकार्य हो |अभी भी राज्यों में नदी और भूमि को लेकर इस हद तक वैमनस्यता है कि कई बार ऐसा लगता है कि दो कट्टर दुशमन देश भी ऐसे नहीं लड़ते होंगे ,जैसे हमारे राज्यों के राजनितिक दल और उनकी सरकारें लड़ती है |
इस भोजन-पानी की बर्बादी में हमारा आपका योगदान भी कम नहीं है ,पिछले पच्चीस –तीस वर्षों के दौरान हमने पंगत में बैठकर भोजन करने की भारतीय पध्दति को छोड़ कर स्वरुचि भोज के रूप में बुफे सिस्टम को अपना लिया है | यह पध्दति पंगत की तुलना में भोजन और पानी की बर्बादी ज्यादा करती है |हमें बुफे सिस्टम में पश्चिम की नक़ल तो कर ली लेकिन इस सिस्टम से होने वाली बर्बादी को रोकने की अकल नहीं जुटा पाये|
आज देश में हर आमो-खास शादी पार्टियों में लगभग बीस से तीस प्रतिशत भोजन और लगभग पैंतीस से चालीस प्रतिशत पानी बड़ी निर्लज्जता से जूठान और गंदगी के रूप में फ़ेंक दिया जाता है| इन मह्त्वपूर्ण एवं अवाशक वस्तुओं का अपव्यय करते समय हम गंभीर नहीं है और ना ही उनकी सोच रहें है जो भूखे पेट गुजर करने को मजबूर है |उनकी नियति के साथ हमारे लापरवाही और खान –पान का कुप्रबंधन इन हालातों के लिए जवाबदेह है |हम अपने धन वैभव का प्रदर्शन इतनी क्रूरता से कर रहें है कि हमें यह ध्यान भी नहीं आता कि हमारे ही कुछ देश वासी भूख से संघर्ष कर रहें किन्तु उन्हें सब प्रयासों के बाद भी रोटी नहीं मिल पा रही है| अंग्रेजी में इंसानों को मेनकाइंड कहते है पर ऐसा लगता है कि मेन अब काइंड अर्थात दयालु नहीं रहा गया है|सब को रोटी –पानी मिले यह सिर्फ सरकारों का ही जिम्मा नहीं है अपितु यह हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है,जो शायद हम नहीं निभा पा रहें है |
मांग और आपूर्ति के बढ़ता अंतर इस लापरवाही और बर्बादी का ही नतीजा है और इस बढे अंतर ने महगाई की आग में और घी डाल दिया है |अभी तो इस आग से सिर्फ गरीब वर्ग जल –झुलस रहा है,किन्तु यदि खान-पान के हमारें तौर-तरीके और आदतें नहीं बदली तो अगला क्रम देश के बहुसंख्यक मध्यम वर्ग का ही होगा |
हाल ही में भारत की शीर्ष न्यायलय ने भी सरकार से कहा है कि देश में कुपोषण और भूख से होने वाली मौतों पर रोक लगाने के लिए सरकार को शीघ्र ही उचित प्रयास करने चाहिए |
इस सम्बन्ध में कानून बंनाने से ही भोजन -पानी का अपव्यय रोका जा सकता है|अतिथियों की नियंत्रित संख्या और भोजन प्रकार की निश्चित संख्या ही इस बीमारी का ठोस इलाज है | वैभव प्रदर्शन के दौरान भोजन की बर्बादी इस देश में एक कुरीति के रूप में जड़ जमा चुकी है और इससे भी अन्य कुरितियों की भांति कानूनी हथियार से ही लड़ना पड़ेगा| देश के कानून बनाने वालों ने सही दिशा में सार्थक प्रयास किये है ,प्रतीक्षा अब परिणाम पाने की है| लेकिन जब तक सरकार कानून निर्धारण करें तब तक सामाजिक स्तर पर तो शुरुआत की ही जा सकती है यदि ऐसी हमारी आदत और सोच बन गयी तो इस पर बने कानून का पालन भी सहजता से हो सकेगा|
सभी पुराणों में महर्षि नारद एक अनिवार्य भूमिका में प्रस्तुत हैं। उन्हें देवर्षि की संज्ञा दी गई, परन्तु उनका कार्य देवताओं तक ही सीमित नहीं था। वे दानवों और मनुष्यों के भी मित्र, मार्गदर्शक, सलाहकार और आचार्य के रूप में उपस्थित हैं। परमात्मा के विषय में संपूर्ण ज्ञान प्रदान करने वाले दार्शनिक को नारद कहा गया है। महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि नारद आदर्श व्यक्तित्व हैं। श्री कृष्ण ने उग्रसेन से कहा कि नारद की विशेषताएं अनुकरणीय हैं।
पुराणों में नारद को भागवत संवाददाता के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह भी सर्वमान्य है कि नारद की ही प्रेरणा से वाल्मीकि ने रामायण जैसे महाकाव्य और व्यास ने भागवत गीता जैसे संपूर्ण भक्ति काव्य की रचना की थी। ऐसे नारद को कुछ मूढ़ लोग कलह प्रिय के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं, परन्तु नारद जब-जब कलह कराने की भूमिका में आते हैं तो उन परिस्थितयों का गहरा अध्ययन करने से सिद्ध होता है कि नारद ने विवाद और संघर्ष को भी लोकमंगल के लिए प्रयोग किया है। नारद कई रूपों में श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदर्शित करते हैं। संगीत में अपनी अपूर्णता ध्यान में आते ही उन्होंने कठोर तपस्या और अभ्यास से एक उच्च कोटि के संगीतज्ञ बनने को भी सिद्ध किया। उन्होंने संगीत गन्धर्वों से सीखा और ‘नारद संहिता’ ग्रंथ की रचना की। घोर तप करके विष्णु से संगीत का वरदान प्राप्त किया। वे तत्व ज्ञानी महर्षि थे। नारद के भक्ति सूत्रों में उनके परमात्मा व भक्त के संबंधों की व्याख्या से वे एक दार्शनिक के रूप में सामने आते हैं। परन्तु नारद अन्य ऋषियों, मुनियों से इस प्रकार से भिन्न हैं कि उनका कोई अपना आश्रम नहीं है। वे निरंतर प्रवास पर रहते हैं। परन्तु यह प्रवास व्यक्तिगत नहीं है। इस प्रवास में भी वे समकालीन महत्वपूर्ण देवताओं, मानवों व असुरों से संपर्क करते हैं और उनके प्रश्न, उनके वक्तव्य व उनके कटाक्ष सभी को दिशा देते हैं। उनके हर परामर्श में और प्रत्येक वक्तव्य में कहीं-न-कहीं लोकहित झलकता है। उन्होंने दैत्य अंधक को भगवान शिव द्वारा मिले वरदान को अपने ऊपर इस्तेमाल करने की सलाह दी। रावण को बाली की पूंछ में उलझने पर विवश किया और कंस को सुझाया की देवकी के बच्चों को मार डाले। वह कृष्ण के दूत बनकर इन्द्र के पास गए और उन्हें कृष्ण को पारिजात से वंचित रखने का अहंकार त्यागने की सलाह दी। यह और इस तरह के अनेक परामर्श नारद के विरोधाभासी व्यक्तित्व को उजागर करते दिखते हैं। परन्तु समझने की बात यह है कि कहीं भी नारद का कोई निजी स्वार्थ नहीं दिखता है। वे सदैव सामूहिक कल्याण की नेक भावना रखते हैं। उन्होंने आसुरी शक्तियों को भी अपने विवेक का लाभ पहुंचाया। जब हिरण्य तपस्या करने के लिए मंदाक पर्वत पर चले गए तो देवताओं ने दानवों की पत्नियों व महिलाओं का दमन प्रारंभ कर दिया, परन्तु दूरदर्शी नारद ने हिरण्य की पत्नी की सुरक्षा की जिससे प्रहृलाद का जन्म हो सका। परन्तु उसी प्रहृलाद को अपनी आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित करके हिरण्य कशिपु के अंत का साधन बनाया।इन सभी गुणों के अतिरिक्त नारद की जिन विशेषताओं की ओर कम ध्यान गया है वह है उनकी ‘संचार’ योग्यता व क्षमता। नारद ने ‘वाणी’ का प्रयोग इस प्रकार किया। जिससे घटनाओं का सृजन हुआ। नारद द्वारा प्रेरित हर घटना का परिणाम लोकहित में निकला। इसलिए वर्तमान संदर्भ में यदि नारद को आज तक के विश्व का सर्वश्रेष्ठ ‘लोक संचारक’ कहा जाये तो कुछ भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। नारद के हर वाक्य, हर वार्ता और हर घटनाक्रम का विश्लेषण करने से यह बार-बार सिद्ध होता है कि वे एक अति निपुण व प्रभावी ‘संचारक’ थे। दूसरा उनका संवाद शत-प्रतिशत लोकहित में रहता था। वे अपना हित तो कभी नहीं देखते थे, उन्होंने समूहों पर जातियों आदि का भी अहित नहीं साधा। उनके संवाद में हमेशा लोक कल्याण की भावना रहती थी। तीसरे, नारद द्वारा रचित भक्ति सूत्र में 84 सूत्र हैं। प्रत्यक्ष रूप से ऐसा लगता है कि इन सूत्रों में भक्ति मार्ग का दर्शन दिया गया है और भक्त ईश्वर को कैसे प्राप्त करे ? यह साधन बताए गए हैं। परन्तु इन्हीं सूत्रों का यदि सूक्ष्म अध्ययन करें तो केवल पत्रकारिता ही नहीं पूरे मीडिया के लिए शाश्वत सिद्धांतों का प्रतिपालन दृष्टिगत होता है। नारद भक्ति सूत्र का 15वां सूत्र इस प्रकार से हैः
तल्लक्षणानि वच्यन्ते नानामतभेदात ।।
अर्थात मतों में विभिन्नता व अनेकता है, यही पत्रकारिता का मूल सिद्धांत है। इसी सूत्र की व्याख्या नारद ने भक्ति सूत्र 16 से 19 तक लिखी है और बताया है कि व्यास, गर्ग, शांडिल्य आदि ऋषिमुनियों ने भक्ति के विषय में विभिन्न मत प्रकट किए हैं। अंत में नारद ने अपना मत भी प्रकट किया है, परन्तु उसी के साथ यह भी कह दिया कि किसी भी मत को मानने से पहले स्वयं उसकी अनुभूति करना आवश्यक है और तभी विवेकानुसार निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। वर्तमान में भी एक ही विषय पर अनेक दृष्टियां होती हैं, परन्तु पत्रकार या मीडिया कर्मी को सभी दृष्टियों का अध्ययन करके निष्पक्ष दृष्टि लोकहित में प्रस्तुत करनी चाहिए। यह ‘आदर्श पत्रकारिता’ का मूल सिद्धांत हो सकता है। आज की पत्रकारिता में मीडिया को सर्वशक्तिमान और सर्वगुण सम्पन्न संवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सबको मालूम है कि यह भ्रम है। मीडिया पूरे सामाजिक संवाद की व्यवस्थाओं का केवल एक अंश हो सकता है और मीडिया की अपनी सीमाएं भी है। भक्ति सूत्र 20 में नारद ने कहा है कि:
अस्त्येवमेवम् ।।
अर्थात यही है, परन्तु इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। यह पत्रकारिता की सीमा का द्योतक है। इसी प्रकार सूत्र 26 में कहा गया कि:
फलरूपत्वात् ।।
अर्थात पत्रकारिता संचार का प्रारंभ नहीं है यह तो सामाजिक संवाद का परिणाम है। यदि पत्रकारिता को इस दृष्टि से देखा जाए तो पत्रकार का दायित्व कहीं अधिक हो जाता है। सूत्र 43, पत्रकारिता के लिए मार्गदर्शक हो सकता है:
दुःसंङ्गः सर्वथैव त्याज्यः
नकारात्मक पत्रकारिता को अनेक विद्वानों और श्रेष्ठजनों ने नकारा। जबकि पश्चिम दर्शन पर आधारित आज की पत्रकारिता केवल नकारात्मकता को ही अपना आधार मानती है और ‘कुत्ते को काटने’ को समाचार मानती है। पत्रकार की भूमिका को भी प्रहरी कुत्ते (वाच डाग) के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परन्तु नारद ने इस श्लोक में कहा कि हर हाल में बुराई त्याग करने योग्य है। उसका प्रतिपालन या प्रचार-प्रसार नहीं होना चाहिए। नकारात्मक पत्रकारिता की भूमिका समाज में विष की तरह है। सूत्र 46 में:
नारद ने कहा कि बुराई लहर के रूप में आती है परन्तु शीघ्र ही वह समुद्र का रूप ले लेती है। आज समाचार वाहिनियों में अपराध समाचार की यही कहानी बनती दिखती है। सूत्र 51 में नारद अभिव्यक्ति की अपूर्णता का वर्णन करते हैं:
अनिर्ववनीयं प्रेमस्वरूपम् ।।
अर्थात वास्तविकता या संपूर्ण सत्य अवर्णनीय है इसलिए पत्रकारिता में अधूरापन तो रहेगा ही। पाठक, दर्शक व श्रोता को पत्रकारिता की इस कमी की यदि अनुभूति हो जाती है तो समाज में मीडिया की भूमिका यथार्थ को छूयेगी। इसी बात को सूत्र 52 में नारद ने अलग तरह से प्रस्तुत किया है:
मूकास्वादनवत् ।।
नारद का कहना है कि इस सृष्टि में अनेक अनुभव ऐसे हैं जिनकी अनुभूति तो है परन्तु अभिव्यक्ति नहीं है। व्याख्या करने वाले विद्वानों ने इसे ‘गूंगे का स्वाद’ लेने की स्थिति की तरह वर्णन किया है। नारद भक्ति के सूत्र 63 से मीडिया की विषय-वस्तु के बारे में मार्गदर्शन प्राप्त होता है:
स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ।।
नारद ने संवाद में कुछ विषयों को निषेध किया है। वह हैं (1) स्त्रियों व पुरुषों के शरीर व मोह का वर्णन (2) धन, धनियों व धनोपार्जन का वर्णन (3) नास्तिकता का वर्णन (4) शत्रु की चर्चा । आज तो ऐसा लगता है कि मीडिया के लिए विषय-वस्तु इन चारों के अतिरिक्त है ही नहीं। सूत्र 72 एकात्मकता को पोषित करने वाला अत्यंत सुंदर वाक्य है जिसमें नारद समाज में भेद उत्पन्न करने वाले कारकों को बताकर उनको निषेध करते हैं।
नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ।।
अर्थात जाति, विद्या, रूप, कुल, धन, कार्य आदि के कारण भेद नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता किसके लिए हो व किन के विषय में हो यह आज एक महत्वपूर्ण विषय है। जिसका समाधान इस सूत्र में मिलता है। राजनेताओं, फिल्मी कलाकारों व अपराधियों का महिमा मंडन करती हुई पत्रकारिता समाज के वास्तविक विषयों से भटकती है। यही कारण है कि जेसिकालाल की हत्या तो न केवल पत्रकारिता की लगातार ब्रेकिंग न्यूज बनती है, उसके संपादकीय लेख और यहां तक की फिल्म भी बनती है, परन्तु एक आम किसान की आत्महत्या केवल एक-दो कालम की खबर में ही सिमट जाती है। जब आत्महत्या का राजनीतिकरण होता है तो वह फिर से मुख्य पृष्ठ पर लौट आती है। आज की पत्रकारिता व मीडिया में बहसों का भी एक बड़ा दौर है। लगातार अर्थहीन व अंतहीन चर्चाएं मीडिया पर दिखती हैं। विवाद को अर्थहीन बताते हुए नारद ने सूत्र 75, 76 व 77 में परामर्श दिया है कि वाद-विवाद में समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। क्योंकि वाद-विवाद से मत परिवर्तन नहीं होता है। उन्होंने कहा:
बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ।।
भक्तिशास्त्राणि मननीयानि, तदुदृबोधककर्माण्यपि च करणीयानि ।।
सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपि व्यर्थ न नेयम्
सूत्र 78 में नारद ने कुछ गुणों का वर्णन किया है जो व्यक्तित्व में होने ही चाहिए। पत्रकारों में भी इन गुणों का समावेश अवश्य लगता है।
यह गुण है अहिंसा, सत्य, शुद्धता, संवेदनशीलता व विश्वास।सूत्र 71 अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है इसमें नारद बताते हैं कि यह सब कुछ हो जाये (अर्थात नारद के परामर्श को पूर्ण रूप से मान लिया जाए) तो क्या होगा? नारद के अनुसार इस स्थिति में आनन्द ही आनन्द होगा। पितर आनन्दित होते हैं, देवता उल्लास में नृत्य करते हैं और पृथ्वी मानो स्वर्ग बन जाती है। आज के मीडिया की यह दृष्टि नहीं है, यह हम सब जानते हैं। पत्रकारिता से ही सारे मीडिया में सृजन की प्रक्रिया होती है परन्तु सृजन के लिए किस प्रकार की प्रवृत्तियां होनी चाहिए? आज तो सारा सृजन साहित्य, कला, चलचित्र निर्माण, विज्ञापन या पत्रकारिता सभी अर्थ उपार्जन की प्रवृत्ति से होता है। जिसमें असत्य, छल, कपट, दिखावा व बनावटीपन मुख्य हैं। नारद के भक्ति सूत्र 60 में सृजनात्मक प्रवृत्तियों की चर्चा है, सृजनात्मकता की प्रक्रिया का उल्लेख इस तरह है:
शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ।।
‘सत्’ अर्थात अनुभव ‘चित्’ अर्थात चेतना और ‘आनन्द’ अर्थात अनुभूति। अर्थात पत्रकारिता की प्रक्रिया भी ऐसी ही है। वह तथ्यों को समेटती है। उनका विश्लेषण करती है व उसके बाद उसकी अनुभूति करके दूसरों के लिए अभिव्यक्त होती है परन्तु इसका परिणाम दुख, दर्द, ईष्या, प्रतिद्वंद्धिता, द्वेष व असत्य को बांटना हो सकता है या फिर सुख, शांति, प्रेम, सहनशीलता व मैत्री का प्रसाद हो सकता है। कौन सा विकल्प चुनना है यह समाज को तय करना हैं। नारद के भक्ति सूत्रों का संक्षिप्त विश्लेषण पत्रकारिता की दृष्टि से यहां किया गया है। आवश्यकता है कि इन विषयों का गहन अध्ययन हो और एक वैकल्पिक पत्रकारिता के दर्शन की प्रस्तुति पूरी मानवता को दी जाए। क्योंकि वर्तमान मीडिया ऐसे समाज की रचना करने में सहायक नहीं है। पत्रकारिता की यह कल्पना बेशक श्रेष्ठ पुरुषों की रही हो परन्तु इसमें हर साधारण मानव की सुखमय और शांतिपूर्ण जीवन की आकांक्षा के दर्शन होते हैं।
आखिर, पायनियर (20 अप्रैल) के दस दिन बाद टाइम्स आफ इंडिया (30 अप्रैल) ने तीस्ता जावेद सीतलवाड़ के विरुद्ध झूठी गवाही तैयार कराने का यास्मीन बानो शेख का आरोप छाप ही दिया। उसे और छिपाना संभव भी नहीं था, क्योंकि यास्मीन ने मुम्बई उच्च न्यायालय में उसे पेश कर दिया है। फिर भी हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू जैसे बड़े अंग्रेजी अखबार अभी तक चुप्पी साधे हुए हैं। हां, नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध उनका प्रचार जारी है। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि इंडियन एक्सप्रेस ने 1 मई को गुजरात सरकार द्वारा स्वर्णिम गुजरात महोत्सव के अवसर पर दिए तीन पृष्ठ के विज्ञापन तो छापे, किन्तु उस अवसर पर अमदाबाद के सरदार पटेल स्टेडियम में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस महत्वपूर्ण भाषण को नहीं छापा, जिसमें उन्होंने अपने विरुद्ध चलाये जा रहे अपप्रचार का तथ्यपूर्ण एवं तर्कपूर्ण उत्तर दिया था। मोदी के विरुद्ध इतनी पक्षपातपूर्ण-द्वेषी पत्रकारिता भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बन सकती है।
मोदी के विरुद्ध दुष्प्रचार
नरेन्द्र मोदी पर मुस्लिम विरोधी छवि लादने के पीछे सोनिया मंडली की रणनीति तो इन्हीं खबरों से स्पष्ट हो जाती है जिनमें एक ओर तो मोदी को भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की सूची से काटने का प्रचार है तो दूसरी ओर 10, जनपथ के व्प्रवक्ताव् संजीव भट्ट का समाचार आते ही वे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात की सर्वतोमुखी प्रगति के प्रशंसकों को यह चेतावनी देने के लिए दौड़ पड़ते हैं कि संजीव भट्ट के इस रहस्योद्धाटन के बाद वे मोदी की प्रशंसा करना बंद करें। संजीव भट्ट के शपथपत्र का इससे अधिक क्या महत्व है कि उसमें नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध इस प्रचार को ही दोहराया गया है कि मोदी ने 2002 के साम्प्रदायिक दंगों में मुसलमानों का व्कत्लेआमव् कराया। 2002 से अब तक के समस्त चुनाव परिणामों और मौलाना वस्तानवी के व्टाइम्स आफ इंडियाव् को दिये गये साक्षात्कार से भी यह स्पष्ट है कि गुजरात के मुसलमानों पर इस दुष्प्रचार का कोई असर नहीं हो रहा है, क्योंकि वे मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात की विकास यात्रा में बराबर का हिस्सा पा रहे हैं और अपने साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव महसूस नहीं कर रहे हैं। गुजरात के बाहर के मुसलमानों को वे इस एकपक्षीय झूठे प्रचार से कब तक गुमराह करते रहेंगे, यह कहना कठिन है। बिहार में लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की मोदी-विरोधी नाव पहले ही डूब चुकी है। सोनिया पार्टी की भी मोदी-विरोधी प्रचार की पतंग न तो बिहार में उड़ पायी और न ही उत्तर प्रदेश में। यदि सोनिया पार्टी के रणनीतिकार यह आशा करते हैं कि गुजरात के विकास को 2002 के दंगों में व्मुस्लिम नरमेधव् के झूठे प्रचार की आंधी उड़ाकर जन दृष्टि से छिपाया जा सकता है, यह दुष्प्रचार दस वर्ष बाद भी मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने में सहायक हो सकता है, तो भाजपा के प्रचार तंत्र को भी सन् 1969 में कांग्रेस के शासनकाल में हुए अमदाबाद के दंगे में मुसलमानों के नरमेध के काले पन्ने को देश के सामने अवश्य लाना चाहिए। इसी दृष्टि से हम यहां उस दंगे से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं।
अमदाबाद (1969) का साम्प्रदायिक दंगा
असगर अली इंजीनियर मुस्लिम बौध्दिकों में जाना-माना नाम है। उनके द्वारा संपादित एक पुस्तक का शीर्षक है व्कम्युनल राइट्स इन पोस्ट इंडिपेंडेंस इंडियाव् (स्वातंत्र्योत्तर भारत में साम्प्रदायिक दंगे)। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 1984 में और दूसरा संस्करण 1991 प्रकाशित हुआ था। अत: इसे भारतीय जनसंघ, भाजपा और नरेन्द्र मोदी के प्रभाव से सर्वथा मुक्त कहा जा सकता है। वैसे भी असगर अली इंजीनियर भाजपा और हिन्दुत्व के कटु आलोचक रहे हैं, प्रशंसक नहीं। इस पुस्तक में अमदाबाद में 1969 के दंगे पर एक 34 पृष्ठ लम्बा लेख छपा है (पृ.175-208), जिसके लेखक हैं डा.घनश्याम शाह, जो जाने-माने वामपंथी बौध्दिक हैं, लम्बे समय तक सूरत (गुजरात) स्थित सामाजिक अध्ययन संस्थान के निदेशक रहे हैं और पिछले कई वर्षों से जेएनयू में प्रोफेसर हैं। इस लेख को पढ़ने पर भी उनका कम्युनिस्ट समर्थक आवेश स्पष्ट हो जाता है। हिन्दुत्ववादी और भाजपा समर्थक होने का आरोप तो उन पर लगाया ही नहीं जा सकता। इस लेख में उन्होंने 18 से 21 सितम्बर, 1969 को चार दिनों तक के अमदाबाद से प्रारंभ हुए साम्प्रदायिक दंगों के स्वरूप और कारणों की मीमांसा प्रस्तुत की है। उनका यह वर्णन व्यक्तिगत सर्वेक्षण, दंगों पर प्रकाशित न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी आयोग की रपट एवं समकालीन दैनिक पत्रों में प्रकाशित समाचारों व अन्य साहित्य पर आधारित है। लेख के अंत में एक लम्बी संदर्भ सूची भी उन्होंने दी है।
जब यह दंगा हुआ उस समय गुजरात में कांग्रेस का शासन था। हितेन्द्र देसाई वहां के मुख्यमंत्री थे और केन्द्र में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। इसलिए इस दंगे की पूरी जिम्मेदारी उस कांग्रेस की ही है जिसका उत्तराधिकारी होने का दावा आजकल सोनिया और राहुल कर रहे हैं। इन दंगों में कांग्रेस पार्टी और सरकार की भूमिका का वर्णन करने से पूर्व उसमें हुई जान-माल की हानि का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना भी आवश्यक है। घनश्याम शाह लिखते हैं कि चार दिन तक चले इस दंगे में 1000 से अधिक लोग मारे गये और इससे कई गुना अधिक संख्या में घायल हुए। लगभग 4000 (ठीक संख्या 3,969) घरों व दुकानों को आग लगाकर भस्म कर दिया गया, 2,317 घरों-दुकानों को ढहा दिया गया। 6000 परिवार बेघर हो गये, 15000 से अधिक लोग शरणार्थी शिविरों में पहुंच गये। दंगों के कारण लगभग 34 करोड़ रुपए की दैनिक आमदनी की हानि हुई। जगमोहन रेड्डी रपट में कहा गया है कि व्मुसलमानों और मुस्लिम सम्पत्ति पर हमले पूर्णतया सुनियोजित थे। दंगाइयों और शस्त्रों को ले जाने के लिए वाहन उपलब्ध कराये गये थे। समाज का प्रत्येक वर्ग इन दंगों में सम्मिलित था, बड़ी संख्या में श्रमिक वर्ग भी हिस्सा ले रहा था। रपट कहती है कि इक्के-दुक्के कार्र्यकत्ता को छोड़ दें तो पार्टी के नाते जनसंघ का इन दंगों में कोई हाथ नहीं था।’ (पृष्ठ 192)
मुस्लिमों का नरमेध और कांग्रेस की भूमिका
घनश्याम शाह लिखते हैं कि 20 सितम्बर की शाम दंगे की लपटों ने पूरे अमदाबाद शहर को घेर लिया था। पूरा हिन्दू समाज इन दंगों में सम्मिलित था। शिक्षित मध्यम वर्ग से लेकर कपड़ा मिलों के मेहनतकश श्रमिक और सफाई कर्मचारी- सब एकजुट थे। फरसों, कुल्हाड़ी, चाकुओं और भालों का लोगों को मारने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था। औरतों के साथ बलात्कार हुआ, उनके कपड़े उतारकर उन्हें नग्न कर सड़क पर घुमाया गया। बच्चों को पत्थरों पर पटककर मार दिया गया या उनके पैरों से चीर दिया गया। शवों के अंग काट दिये गये। इस उन्माद से अमदाबाद के लोगों पर पशुभाव हावी हो गया था।व् (पृष्ठ 190) द्वंगे अमदाबाद से राज्य के विभिन्न हिस्सों में फैल गये। 20 सितम्बर की रात को जब हजारों मुसलमान अमदाबाद छोड़कर भाग रहे थे तब चार ट्रेनों को रोककर सत्रह यात्रियों को मार दिया गया। 23 सितम्बर को जब सरकार ने तीन घंटों के लिए कर्फ्यू हटाया तो 40 लोगों ने अपनी जान गंवाई।व् (पृष्ठ 191)
जब अमदाबाद शहर और गुजरात दंगे की आग में जल रहा था तब मुख्यमंत्री हितेन्द्र देसाई और उनकी कांग्रेस पार्टी क्या कर रही थी? घनश्याम शाह लिखते हैं, कोई कांग्रेसजन दंगों को रोकने के लिए सामने नहीं आया। कांग्रेस भवन ने अपने कार्र्यकत्ताओं को बड़ी संख्या में कर्फ्यू पास जारी कर दिये पर उन्हें कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए। कुछ बूढ़े, पुराने गांधीवादी चिंतित अवश्य थे, किन्तु बुढ़ापे के कारण वे कुछ करने में अक्षम थे और केवल प्रार्थना कर रहे थे। प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने बताया कि अधिकांश कांग्रेसी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण रखते हैं। वडोदरा की जिला कांग्रेस कमेटी ने दंगों की भर्त्सना करने से भी मना कर दिया। उसने प्रस्ताव पारित किया कि कुछ मुसलमानों के पाकिस्तान समर्थक रुख के कारण राज्य में तनाव की स्थिति पैदा हुई है। कांग्रेस कार्र्यकत्ताओं की लगभग सभी बैठकों में यही स्वर उठा। जिम्मेदार कांग्रेसजनों ने मुसलमानों के साम्प्रदायिक दृष्टिकोण की निंदा की और कहा कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। गुजरात के एक उच्चपदस्थ कांग्रेसी नेता ने एक जनसभा में भाषण दिया, व्हमारे देश में पाकिस्तान के प्रति निष्ठा रखने वाले राष्ट्रविरोधी तत्व सक्रिय हैं। पुलिस अपनी सीमाओं के कारण उनका पता नहीं लगा पायी। इसलिए आप लोगों का फर्ज है कि आप उनका पता लगाएं। उनके घरों में घुसकर उन्हें पकड़ना चाहिए और तब आप उनके साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करें। (पृष्ठ 198)
राज्य सरकार की नीयत
घनश्याम शाह लिखते हैं, कांग्रेसजनों ने दंगों में प्रत्यक्ष और परोक्ष- दोनों ढंग से भाग लिया। उन्होंने प्रशासन को गुमराह किया। वडोदरा में तैनात एस.आर.पी. दल को 20 सितम्बर को यह कहकर अमदाबाद भिजवा दिया कि यहां अशांति का कोई खतरा नहीं है। इस प्रकार दंगाइयों को लूटमार और मस्जिदों को ढहाने का मौका दे दिया। ऐसे समय में कांग्रेसी मुख्यमंत्री हितेन्द्र देसाई और उनकी सरकार क्या कर रही थी?व् घनश्याम शाह के अनुसार, व्मुख्यमंत्री हितेन्द्र देसाई दंगाग्रस्त क्षेत्रों में गये ही नहीं। वे पूरे समय अपने बंगले में अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और सुरक्षाकर्मियों से घिरे बैठे रहे। राज्य सरकार ने राज्य में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा होने के बारे में केन्द्र सरकार की चेतावनी को अनसुना कर दिया। 18 सितम्बर को दंगा शुरू हो जाने पर भी कोई निर्णयात्मक कदम नहीं उठाया। 19 सितम्बर को कुछ ही क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाया गया। एस.आर.पी. और सी.आर.पी. को 20 सितम्बर की प्रात: बुलाया गया, पर वे दंगों पर काबू पाने में असफल रहे। एक कैबिनेट मंत्री के त्यागपत्र देने की धमकी के बाद ही सेना को दो दिन बाद 21 सितम्बर की प्रात: बुलाया गया। पूरे दिन मंत्रिमंडल में बहस होती रही कि सेना को पूरा नगर सौंप दें या कुछ मोहल्लों तक सीमित रखें। राज्य सरकार सेना का उपयोग करने में झिझक कर रही थी, क्योंकि इसकी हिन्दू मन पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया से उसे 1972 के चुनाव में जनसंघ के सत्ता में आने का भय सता रहा था। अंतत: 21 की शाम को सेना को द्वेखते ही गोली मारनेव् का आदेश दिया गया।’
घनश्याम शाह के अनुसार, पुलिस ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया। उनकी आंखों के सामने लूटमार और हत्या होती रही, पर वे निष्क्रिय रहे। कई जगह वे दंगाइयों के लिए मैदान खुला छोड़कर वहां से भाग निकले। सी.आर.पी. और एस.आर.पी. के जवानों ने हिन्दुओं से कहा कि मुसलमानों को ऐसा ही सबक मिलना चाहिए। (पृष्ठ 204) एक कांग्रेसी नेता ने भी कहा कि व्हिन्दू पहली बार मुसलमानों को सबक सिखा पाये हैं।’ (पृष्ठ 205) ‘पुलिस वाले मन ही मन खिन्न थे क्योंकि उनसे कई बार मुसलमानों से सार्वजनिक माफी मंगवायी गयी थी।’ …कर्फ्यू को कड़ाई से लागू नहीं किया गया। अकेले कांग्रेस भवन ने 5,000 कर्फ्यू पास जारी कर दिये। इसके अलावा अन्य अनेक संस्थाओं-व्यक्तियों को कर्फ्यू पास जारी करने का अधिकार दे दिया गया। इस कारण कर्फ्यू की घोषणा बेमानी हो गयी।व् घनश्याम शाह को ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने जेब में कर्फ्यू पास रखकर दंगों में भाग लिया। घनश्याम शाह लिखते हैं, ‘जब वडोदरा शहर दंगाइयों के कब्जे में था तब वहां सरकारी अधिकारी और राजनेता आपस में गाली-गलौज कर रहे थे। वडोदरा की कर्तव्यनिष्ठ प्रशासक (जिलाधिकारी) अमदाबाद में गृहसचिव से तीन दिन तक सम्पर्क नहीं कर पायीं, क्योंकि गृहसचिव मुख्यमंत्री के पास थे।’
दंगे की पृष्ठभूमि
अब हम इन दंगों के तात्कालिक कारणों और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की पृष्ठभूमि पर आते हैं। घनश्याम शाह का मार्क्सवादी मस्तिष्क आर्थिक कारणों को खोजना चाहता है, पर वे मिल नहीं पाये। उन्हें मानना पड़ा है कि अमदाबाद ट्रेड यूनियन आंदोलन के पचास वर्ष बीत जाने पर भी वर्ग चेतना विकसित नहीं हो पायी और पूरा श्रमिक वर्ग हिन्दू-मुस्लिम आधार पर विभाजित हो गया। ट्रेड यूनियनें एवं राजनीतिक दल पूरी तरह निष्प्रभावी सिद्ध हुए। इन दंगों में हिन्दू समाज के प्रत्येक वर्ग ने भाग लिया, पूरा समाज एकजुट हो गया। उन्होंने यह भी माना कि हिन्दू-मुस्लिम तनाव शताब्दियों से चला आ रहा था। 1969 के दंगे से पहले 27-28 नवम्बर, 1968 को वेरावल में दंगा हुआ था, जिसमें 100 मुसलमान मारे गये थे। 2 करोड़ रुपये के माल की हानि हुई थी। 1969 के दंगों की पृष्ठभूमि 1965 के भारत- पाकिस्तान युद्ध से बननी शुरू हो गयी थी। उस दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता के विमान को कच्छ सीमा पर पाकिस्तान की सेना ने निशाना बनाया, जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी थी। इससे गुजरातवासियों की भावनाएं बुरी तरह आहत हुईं और उनके मन में मुस्लिमविरोध का भाव अंकुरित हुआ। जनवरी, 1960 में भावनगर में आयोजित अ.भा.कांग्रेस कमेटी के 66 वें अधिवेशन में मुसलमानों ने एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिसमें सुधार विरोधी और पृथकतावाद की गंध आती थी। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय सावधानी के तौर पर भारत सुरक्षा कानून के तहत कई मुसलमान नेताओं को नजरबंद किया गया था। इस कारण 1967 के आम चुनाव के समय मजलिसे मुशवरात ने कांग्रेस को हराने का फतवा जारी कर दिया। 2 जून, 1968 को अमदाबाद में जमीयत उल उलेमा ने एक सभा बुलायी जिसमें 16 प्रस्ताव पारित किये गए। ये सभी प्रस्ताव मुसलमानों की पृथकतावादी साम्प्रदायिक मांगों पर केन्द्रित थे। इसकी गुजरात के पंथनिरपेक्षतावादियों पर बहुत प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। उन्हें लगा कि मुसलमान समाज राष्ट्रीय धारा में आने की बजाय अपने संगठित वोट बैंक का दबाव पृथकतावाद के पक्ष में बना रहा है। 18 सितम्बर, 1969 को अमदाबाद का दंगा शुरू होने के केवल 15 दिन पहले अमदाबाद और अन्य सब शहरों-कस्बों में मुसलमानों के विशाल जुलूस अल अक्सा मस्जिद पर इस्रायली हमले के विरोध में निकले, जिनमें नारे लगे- व्जो इस्लाम से टकराएगा, दुनिया से मिट जाएगाव्, ‘मुस्लिम एकता जिंदाबाद, पाकिस्तान जिंदाबाद आदि। इसकी हिन्दू मन पर बहुत तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कई दैनिक पत्रों ने लिखा कि व्हजारों मील दूर स्थित अल अक्सा मस्जिद की तुम्हें इतनी फिक्र है तो भारत में औरंगजेब द्वारा ध्वस्त ज्ञानवापी मंदिर, सिद्धपुर में रुद्रामल शिव मंदिर को क्यों नहीं हिन्दुओं को वापस करते।’
मुस्लिम आक्रामकता ही जिम्मेदार
मार्च, 1969 में नगर पालिका चुनाव के समय एक पुलिस अधिकारी से धक्का-मुक्की के समय एक ठेले पर रखी कुरान शरीफ जमीन पर गिर गयी, जिससे क्रोधित होकर मुसलमानों ने थाने पर हमला बोलकर कई पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया और नारे लगाये, व्इससे तो पाकिस्तान ही अच्छा है।व् कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों के दबाव में आकर उस पुलिस अधिकारी को सार्वजनिक माफी मांगने को कहा। एक मुस्लिम पुलिस अधिकारी ने 12 बजे रात के बाद रामलीला को बंद कराने की कोशिश में रामायण को पैर से ठोकर मारी। एक के बाद एक हुईं इन सब घटनाओं ने हिन्दू मन को इतना अधिक आहत किया कि रामायण के अपमान के दो दिन बाद ही हिन्दू धर्म रक्षा समिति का गठन हो गया। साधु-संत उपवास पर बैठ गये। रामायण अपमान कांड की जांच की मांग की गई। अंतत: उस मुस्लिम पुलिस अधिकारी को देर से ही क्यों न हो, निलंबित किया गया। 18 सितम्बर, 1969 को दंगा शुरू होने का तात्कालिक कारण मुस्लिमबहुल जमालपुर मोहल्ले से सटे जगन्नाथ मंदिर के साधुओं का अपमान व मंदिर पर मुस्लिम भीड़ का आक्रमण बना। उर्स के लिए एकत्र मुस्लिमों की भीड़ ने मंदिर पर हमला बोल दिया, वहां रखी देव-प्रतिमाओं को क्षति पहुंचाई जिससे व्यथित होकर जगन्नाथ मंदिर के मुख्य साधु अनशन पर बैठ गये। उनके प्रति पूरे हिन्दू समाज में अगाध श्रध्दा थी। इस घटना के विरोध में हिन्दू धर्म रक्षा समिति ने जनसभा का आह्वान किया और फिर दंगे की चिंगारी सुलग उठी।
घनश्याम शाह का लेख ध्वनित करता है कि मुस्लिम आक्रामकता ही दंगे के लिए जिम्मेदार थी। उनके अनुसार बुद्धिजीवी पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता वर्ग भी मुस्लिम समाज की सुधार विरोधी एवं पृथकतावादी मानसिकता से क्षुब्ध था। उनकी यह धारणा बन गयी थी कि मुसलमानों का आधुनिकीकरण असंभव है। या तो उन्हें हिन्दू हो जाना चाहिए या पाकिस्तान अथवा किसी अन्य मुस्लिम देश में चले जाना चाहिए। कुछ सुधारवादी तो यह भी कहने लगे थे कि मुसलमानों को मताधिकार से वंचित कर द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देना चाहिए। (पृष्ठ 206) यदि प्रगतिशील बौद्धिक वर्ग इस भाषा में सोचने को विवश हो जाए तो गुजरात की पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
अन्नाद्रमुक पार्टी की नेत्री और तमिलनाडु में चौथी बार चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनी जयललिता ने शपथग्रहण के तुरंत बाद ही अपने कई चुनावी वादे पूरे किए। जयललिता ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कहा था कि वे चुनाव जीतीं तो शादी करनेवाली लड़कियों को चार ग्राम का मंगलसूत्र देंगी। अब जयललिता चुनाव जीत चुकी हैं और उन्होंने अपना यह वायदा भी पूरा कर दिया है। शादी करनेवाली लड़कियों को चार ग्राम सोने का मंगलसूत्र सरकार की ओर से दिया जाएगा।
वायदे उन्होंने और भी किए थे पर पहले पूरा होनेवाले वायदों में से एक वायदा यह भी है। इससे समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री अपने इस वायदे को लेकर गंभीर थीं। जिन सात वायदों को तुरंत पूरा किया गया है उनमें स्त्रयों से जुड़े दो वायदे हैं – एक तो यह कि शादी करनेवाली लड़कियों को जयललिता सरकार चार ग्राम सोना देगी और महिला सरकारी कर्मचारियों का मातृत्व अवकाश तीन महिने के बजाए छः महीने मिला करेगा। दोनों वायदों में दो तरह के तबके की महिलाओं की जरूरतों का ध्यान रखा गया है- घरेलू और कामकाजी। महिलाओं को मातृत्व अवकाश ज़्यादा समय का मिले- ये तमाम भारतीय और विश्व महिला संगठनों की पुरानी मांग है। निश्चित ही इस दिशा में सुधारमूलक क़दम उठाकर जयललिता सरकार ने प्रशंसनीय कार्य किया है। लेकिन इस दिशा में अभी और बहुत कुछ किया जाना बाकि है। मातृत्व के दौरान स्त्री तमाम भावनात्मक और शारीरिक बदलावों से गुजरती है। मातृत्व तो एक पूरा प्रकल्प है पर गर्भधारण की अवधि भी काफी लंबी होती है। इस लिहाज से छः महीने का अवकाश बहुत नहीं है। शिशु के थोड़ा बड़े होने और स्त्री को अपना स्वास्थ्य पुनः प्राप्त करने के लिए यह समय कम शहरों के एकल परिवार की नौकरीपेशा स्त्री के पास अबोध शिशु को ‘क्रेच’ जैसी जगहों पर जो आज भी हिंदुस्तान में ज़्यादातर अकुशल और गैर-पेशेवराना लोगों द्वारा चलाया जा रहा है , छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। है। साथ ही अपने पेशे में कुशलता को बनाए रखने के लिए स्त्री को अतिरिक्त परिश्रम करना होता है। इस समय की भरपाई भी किसी न किसी रूप में ‘इंसेंटिव’ देकर किया जाना चाहिए। यह अपनेआप में शोध का दिलचस्प विषय हो सकता है कि भारत के विभिन्न राज्यों में मातृत्व अवकाश का प्रावधान क्या है ?
जयललिता की दूसरी घोषणा है कि उनकी सरकार विवाह करनेवाली लड़कियों को चार ग्राम सोने का मंगलसूत्र देगी। यह बड़ी लुभावनी घोषणा है। हिंदुस्तान में गहने और उसमें भी सोने के गहने के प्रति स्त्री ही नहीं पुरुषों की भी आसक्ति है। गहना एक अच्छा निवेश भी है इससे इंकार नहीं। पर किसी सरकार द्वारा विवाह करनेवाली कन्याओं के लिए चार ग्राम के मंगलसूत्र की घोषणा अत्यंत लुभावनी है। सरकारें कई तरह के जनकल्याण और सामाजिक कार्य करती रहीं हैं। कई राजनीतिक पार्टियां और सामाजिक संस्थाएं सामूहिक विवाह का आयोजन करती हैं और उनमें वर-वधू को कुछ उपहार भी देती हैं। एक समय में अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए कुछ धन या वस्तु देने की घोषणा कुछ सरकारों ने की थी। पर जयललिता की यह घोषणा उन घोषणाओं से भिन्न है। इसके साथ कोई सुधारवादी या प्रगतिशील नजरिया नहीं दिखता बल्कि विवाह संस्था की पुरानी तस्वीर को ही वैधता मिलती है। चार ग्राम के मंगलसूत्र की जरूरत उन लड़कियों को होगी जो ग़रीब परिवारों से हैं। ये लड़कियां मंगलसूत्र का क्या करेंगी- परंपरित चलन के अनुसार गले में पहनेंगी और यदि आर्थिक मदद का नुक़्ता शामिल कर लें तो यह भी सोच सकते हैं कि वक्त-जरूरत यह एक संपत्ति के रूप में उनकी मदद करेगा। लेकिन हिंदू परंपरा के अनुसार यह सुहाग की निशानी है और सुहागिन स्त्री इसे अपने से अलग नहीं करती। ऐसे में जयललिता सरकार ने संपत्ति के रूप में मंगलसूत्र दी होगी, यह बात औचित्यपूर्ण नहीं लगती। यह निर्विवाद रूप से एक गहना है और सुहाग की निशानी होने का सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य भी इससे जुड़ा है।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जयललिता सरकार गहने का यह तोहफा सन् 2011 में भारत की स्त्रियों को दे रही है।
हमारे देश में एक जननायक गांधीजी हुए थे। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विभिन्न कामों के लिए धन इकट्ठा करने का अद्भुत तरीका निकाला था। वे जहां भी भाषण या सभा-सम्मेलन के लिए जाते, चंदा मांगते थे। स्त्रियों से वे विशेष तौर पर उनके गहनों का दान मांगा करते थे। यहां तक कि उन्होंने अपने हस्ताक्षर का मूल्य संपन्न परिवार की स्त्रियों के लिए एक हाथ की सोने की चूड़ी रखी थी। गांधीजी जानते थे कि स्त्रियों को अपने गहनों से बहुत मोह होता है। यह आम स्त्री मनोविज्ञान है। ध्यान रखना चाहिए कि इसी आम स्त्री मनोविज्ञान को ही भुनाते हुए जयललिता ने मंगलसूत्र देने की घोषणा की है और इसी आम स्त्री मनोविज्ञान का संज्ञान लेते हुए गांधीजी ने स्त्रियों के गहना प्रेम को लक्ष्य बनाया था और चाहा था कि स्त्रियां अपने गहनों का मोह त्याग दें। एक कुशल जननेता की तरह गांधीजी ने एक समयसीमा रखी थी कि जब तक भारत परतंत्र है भारत की स्त्रियां गहना न पहनें। पर ये प्रतीकात्मक था। इस गहना दान को ग्रहण करने की गांधीजी ने जो शर्त रखी थी वो ध्यान देने लायक और सीखने लायक है। गांधीजी स्त्रियों को विशेषकर बालिकाओं और किशोरियों को उकसाते थे कि वे अपने गहनों का दान करें। भावी पीढ़ी पर उनकी नज़र थी। लेकिन इस दान को स्वीकार करने के पहले कुछ नियम थे उनमें से पहला नियम यह था कि जो स्त्री अविवाहित है वो अपने पिता और विशेषकर माता से गहना दान करने की अनुमति लेगी, वो दोबारा उसी तरह का गहना बनवा देने का आग्रह नहीं करेगी, संभव हो तो आजीवन गहना न पहनने का व्रत लेगी। गांधीजी जानते थे हिंदुस्तानी समाज में गहना एक रोग है और यह न केवल स्त्री को बल्कि पुरुष को भी ग्रसे हुए है। इस कारण गहना दान करनेवाली और आजीवन गहना न पहनने का व्रत लेने वाली लड़की के लिए लड़का मिलना कठिन होगा। इसलिए लड़की को यह भी वचन देना पड़ता था कि वो ऐसे ही लड़के से विवाह करेगी जो उसे फिर से गहना पहनने के लिए बाध्य नहीं करेगा। स्वयं गांधीजी ऐसी व्रती लड़कियों के लिए लड़का ढूंढ़ने का आश्वासन माता-पिता को देते थे। गाधीजी के द्वारा इस काम में सहयोग के कई उदाहरण हैं।
गाधीजी ने स्त्रियों में आभूषण विमुखता की प्रक्रिया को एक नाम दिया था-‘आभूषण-सन्यास’। इस आभूषण–सन्यास के लिए स्त्रियों को उत्प्रेरित करने के पीछे गांधीजी के तर्क बहुत ठोस थे। उनका मानना था कि गहना मनुष्य की स्वाभाविकता को नष्ट करता है। उसके व्यक्तित्व को कृत्रिम बनाता है। गांधीजी का कहना था- ‘मैं जानता हूं कि लड़कियों के लिए यह त्याग कितना कठिन है। हमारे समाज में आज अनेक प्रकार के फैशन देखने में आते हैं, पर मैं तो उसी को सुंदर कहता हूं, जो सुंदर काम करते हैं।’ गांधीजी स्त्री का गहना उसके संस्कार और कर्म को मानते थे। गांधीजी की विचारधारा से प्रभावित होकर प्रसिद्ध उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने ‘गबन’ नाम का एक महत्वपूर्ण उपन्यास ही लिख डाला था। इस उपन्यास में नायिका जालपा का आभूषण प्रेम और नायक रमानाथ का गहनों के लिए गबन और अंत में नायिका का कर्ममय व्यक्तित्वान्तरण होता है। इस उपन्यास की उपलब्ध आलोचनाओं में स्त्री के आभूषण प्रेम का समस्यावादी पाठ बनाया गया है पर मेरी जानकारी में अब तक इसकी आलोचना गांधीवादी विचारधारा के इस पक्ष से नहीं की गई है।
ऐसे में सन् 2011 की भारतीय स्त्रियां चाहे वे गांव की हों या शहर की , के लिए अगर ‘अम्मा’ के नाम से मशहूर महिला नेत्री जयललिता उनके व्यक्तित्व के विकास और आर्थिक मदद के लिए कोई और लुभावना तोहफा देती तो क्या ज़्यादा मुफीद नहीं होता ! पर तोहफा तो तोहफा होता है, लेनेवाले से ज़्यादा इसमें देनेवाले की मरजी होती है। लेकिन भारत की स्त्रियों जिसका एक हिस्सा तमिलनाडु की स्त्रियां हैं को ये तोहफा क़बूल करते हुए इसके अन्य पक्षों का भी ध्यान रखना चाहिए। यह जनता के पैसे का ही जनता को तोहफा है जिसमें घरेलू से लेकर काम-काजी स्त्री का भी श्रम लगा हुआ है। क्या जनता को हक़ नहीं कि पूछे कि इससे बेहतर भी कुछ हो सकता था या नहीं ! क्यों स्त्री के मामले में लुभावनी लेकिन ख़तरनाक परंपराओं को ही पोषणा चाहते हैं, शायद स्त्रियां नहीं बोलतीं, उनके प्रतिनिधि संगठन नक्कू बनने का ख़तरा नहीं उठाते इसीलिए न!
प्रतिष्ठित समाचारपत्र जनसत्ता के सम्पादक ओम थानवी का काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 16 मई को आना कई अर्थों मंे महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है. हिन्दी पट्टी जिसमें इन दिनों हिन्दी-जगत के कई ख़्यातनाम साहित्यकारों की जन्मशती मनायी जा रही है; वहाँ ओम थानवी का महामना के परिसर में स्वयं उपस्थित होकर ‘अज्ञेय की याद’ विषयक गोष्ठी में बोलना या अज्ञेय से सम्बन्धित संस्मरण को बाँटना सुखद और प्रीतिकर दोनों है. विश्वविद्यालय के भोजपुरी अध्ययन केन्द्र की ओर से आयोजित इस विशिष्ट व्याख्यान में श्री थानवी बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित थे. उन्हें सुनने की लालसा या लोभ इसलिए भी मन में पैठी थी कि वर्तमान में जब हिन्दी पत्रकारिता अपने समस्त मानकों, कसौटियों तथा लक्ष्मण-रेखा को पूरी निर्लज्जता के साथ लाँघ रही है, जनसत्ता इन प्रवृत्तियों के उलट एक अनूठे मिसाल के रूप में हाजिर है. श्री थानवी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जनसत्ता कम लोग पढ़ते हैं, किन्तु अच्छे लोग पढ़ते हैं. मैंने अपने अख़बार में एक दक्षिणपंथी तरुण विजय को जगह दिया. यह वही तरुण विजय हैं जो 20 वर्षों तक पांन्न्चजन्य में सम्पादक रहे और अपने पत्र में किसी वामपंथी या किसी दूसरे विचाराधारा के लोगों को नहीं छापा. दरअसल, हमारे अन्दर इतनी सहिष्णुता होनी चाहिए कि गैर-विचारधारा के लोगों को भी अपने पत्र में जगह दे सकें.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधाकृष्णन सभागार में बोलते वक्त ओम थानवी काफी चुस्त दिखे. उन्होंने सीधे शब्दों में कहा कि इन दिनों हिन्दी के बौद्धिक-लोक में साहित्यकार अज्ञेय को लेकर कई तरह की चर्चाएँ पटल पर हैं. उनके प्रति कई तरह के दुराग्रह प्रचारित व प्रायोजित हैं. लांछन और आरोप के कई नगीने जुबानी आधार पर जड़े जा रहे हैं. आजकल साहित्यिक अवदान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण साहित्यकार का व्यक्तित्व हो गया है जिसका सार्वजनिक चीर-फाड़ करना आज के वरिष्ठ साहित्यकारों के लिए ‘न्यू ट्रेंड’ बन चुका है. अज्ञेय के व्यक्तित्व के बारे में चर्चाएँ बहुत होती हैं जबकि उनके लिखे का मूल्यांकन कम होता है. एक पूरी पीढ़ी अज्ञेय को न पढ़ने के लिए प्रेरित की गई. उनसे जुड़ी कई तरह की अफवाहें जैसे वे लंपट थे, कई शादियाँ की थीं, नपुंसक थे, एक अवैध संतान था आदि प्रचलित हैं. कई लोग उन्हें चुप और मनहूस कहते हैं. कुछ ने तो उन्हें चिम्पेजी तक कह डाला है. जबकि अज्ञेय का जो रेंज या कहें फलक है, वह कोई दूसरा व्यक्ति नहीं पूरा कर सकता था.
ओम थानवी के इन बातों से काफी हद तक सहमत हुआ जा सकता है. आजकल साहित्य में बौद्धिक-वितंडावाद खड़े किए जाना कोई नई बात नहीं है. अतार्किक या अपुष्ट मत-प्रत्यारोपण एक नए तरह की बौद्धिक-व्याधि है जिससे आज का हिन्दी साहित्य-जगत रोगग्रस्त है. साहित्य का प्रकाश-पुँज अन्धेरे में गुम है. साहित्य में अंकुरित नए विद्यार्थी जो साहित्य को सृजन और सात्त्विक शुद्धिकरण का जरिया मानकर इस ओर अध्ययन हेतु प्रवृत्त होते हैं; इन ‘अवांछित प्रकरणों’ से भयभीत होते हैं, ख़ौफ खाते हैं. श्री थानवी से उम्मीद थी कि वे अज्ञेय के कृतित्व और व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराएंगे, किन्तु वे अन्तिम तक श्रोताओं को यही समझाने में लगे रहे कि कैसे अज्ञेय अंग्रेजों के आदमी या फिर सीआईए के एजेण्ट नहीं थे. उनका ‘थाॅट’ नाम की उस पत्रिका से कोई वास्ता-रिश्ता नहीं था जिसे सीआईए द्वारा प्रकाशन की राशि उपलब्ध करायी जाती थी.
शुरू में ही अज्ञेय के व्यक्तित्व के दो रूपों का हवाला देते हुए श्री थानवी ने कहा कि आलोचकों की बात भी सही है. वे मौन के लिए प्रसिद्ध हैं. लेकिन उनके मौन में भी संवाद अन्तर्निहित था. उनका मौन निपट मौन था. उनकी मौन को सुनने के लिए हमारे पास धैर्य और साहस होना चाहिए. अज्ञेय के बारे में बताते हुए श्री थानवी ने कहा कि एक व्यक्ति जो साहित्य की बात करता था; उसी घड़ी, उसी समय में वह कला-संस्कृति, समाज और राजनीति की भी बात करता था. ‘दिनमान’ इसका उदाहरण है. उन्होंने इसी क्रम में कहा कि अज्ञेय की तारीफ के लिए माक्र्सवादी/वामपंथी जो किसी समय उनके विचारधारा से इत्तेफाक नहीं रखते थे, वे भी अब अज्ञेय की प्रशंसा के लिए मंच ढंूढ रहे हैं. आज कई विचारधाराओं को मानने वाले ढेरों हैं. लेकिन मेरी दृष्टि में सर्वहारा की बात करने वाला कोई एक भी ऐसा जनवादी या प्रगतिशील लेखक नहीं है जो अपने पुरस्कार का पैसा बाँटा हो. श्री थानवी के इस कथन से कई लोग असहमत दिखें. बाद में उन्हें इस बात से अवगत कराया गया कि कई ऐसे भी उच्च प्रतिष्ठा से सम्मानित और जन-मर्यादित साहित्यकार हैं जिन्होंने पुरस्कार की सरकारी राशि ग्रहण करने से ही इंकार कर दिया. एक उदाहरण तो पण्डित जानकी वल्लभ शास्त्री ही हैं जिनका हाल ही में निधन हुआ है. दूसरे लेखकों में रामविलास शर्मा से लेकर वर्तमान में पंकज विष्ट जैसे जीवित उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने पुरस्कार की समस्त राशि वंचित-पीडि़त जनता के बीच भेंट कर दिया. श्री थानवी ने मंच से बोलते हुए कहा कि यह वर्ष न केवल अज्ञेय का जन्मशती वर्ष है, बल्कि शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल का भी जन्मशती वर्ष है. मंच से याद दिलाने पर श्री थानवी ने फैज अहमद फैज का नाम अवश्य लिया, किन्तु जनकवि बाबा नागार्जुन का नाम लेना भूल गए.
बौद्ध धर्म के बारे में अनेक मिथ हैं इनमें एक मिथ है कि यह शांति का धर्म है।गरीबों का धर्म है। इसमें समानता है। सच इन बातों की पुष्टि नहीं करता। आधुनिककाल में श्रीलंका में जातीय हिसा का जिस तरह बर्बर रूप हमें तमिल और सिंहलियों के बीच में देखने को मिला है। चीन, बर्मा,कम्बोडिया आदि देशों में जो हिंसाचार देखने में आया है उससे यह बात पुष्ट नहीं होती कि बौद्ध धर्म शांति का धर्म है। बौद्ध धर्म के प्रति आज (अन्य धर्मों के प्रति भी) सारी दुनिया में इजारेदार पूंजीपतियों और अमीरों में जबरदस्त अपील है। इसका प्रधान कारण है बौद्ध धर्म में आरंभ से ही अमीरों की प्रभावशाली उपस्थिति। एच.ओल्डेनबर्ग ने “बुद्धः हिज लाइफ ,हिज टीचिंग्स,हिज आर्डर” ( 1927) में लिखा है कि बुद्ध को घेरे रखने वाले वास्तविक लोगों और प्रारंभिक धर्माचार्यों में जो लोग थे उन्हें देखने से प्रतीत होता है कि समानता के सिद्धान्त का पालन नहीं होता था।प्राचीन बुद्ध धर्म में कुलीन व्यक्तियों के प्रति विशेष झुकाव बना हुआ प्रतीत होता है जो अतीत की देन था।
धर्म का प्रचार करने वाले विश्व के प्रथम प्रचारक तापस और भल्लिक व्यापारी वर्ग से थे। बनारस में उपदेश देने के बाद बुद्ध में आस्था रखने वालों की संख्या में इजाफा हुआ। बाद में संघ में आने वाला दूसरा व्यक्ति यसं था। जो बनारस के सम्पन्न परिवार का सदस्य था। उसके माता-पिता, बहिन आदि भी बौद्ध धर्म में आ गए। इसी यस के बहुत से मित्र व्यवसायी और परिचित,पड़ोसी आदि भी शामिल हुए।ओल्डनहर्ग ने विस्तार के साथ उन तमाम लोगों की जानकारी दी है जो सम्पन्न परिवारों से आते थे या राजा थे। इनमें मगध नरेश बिंबसार का नाम प्रमुख है।
महात्मा बुद्ध ने धर्म और धार्मिकपंथों में व्याप्त जातिभेद को चुनौती देते हुए अपने पंथ का मार्ग निचली या अन्त्यज जातियों के लिए खोला था। इससे इन जातियों में जबर्दस्त आकर्षण पैदा हुआ। बुद्ध के संघ के महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक था उपालि जो संघ के नियमों के अनुसार गौतम के पश्चात प्रमुख पद पर आसीन हुए था। वह पहले नाई था। उसके व्यवसाय को घृणित व्यवसायों में गिना जाता था। इसी प्रकार सुनीत भी एक नीची जनजाति ‘पुक्कुस’ से आया था ,जबकि वह उन बंधुओं की श्रेणी में था ,जिनकी रचना,थेरगाथा में सम्मिलित करने के लिए चुनी गई थीं। जबरदस्त नास्तिकता का प्रचारक सती नामक व्यक्ति धीवर जाति का था। नंद ग्वाला था। दो पंथक, एक कुलीन परिवार की अविवाहित कन्या के किसी दास के साथ यौन संबंधों की देन था। चापा नामक लड़की एक शिकारी की पुत्री थी। पुन्ना और पुन्निका दास पुत्रियां थीं। सुमंगलमाता सनीठे के वनों में काम करने वाले लोगों की पुत्री और पत्नी थी। सुभा एक लौहार की बेटी थी। इस तरह के असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं। यही कारण है महात्मा बुद्ध ने बड़े पैमाने पर अंत्यजों-वंचितों और अछूतों को अपनी ओर खींचा और उन्हें सामाजिक अलगाव और वंचना से मुक्ति दी। हिन्दू धर्म ऐसा करने में असफल रहा।
बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर ने ”बुद्ध और उसके धर्म की भवितव्यता” शीर्षक से एक लेख लिखा है । यह लेख महाबोधि संस्था के मासिक में 1950 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने संक्षेप में अपने नजरिए से बौद्ध धर्म के विचारों को व्यक्त किया है। उन्होंने लिखा- (1) समाज की स्थिरता के लिए कानून या नीति का आधार अवश्यंभावी है। इनमें किसी भी एक के अभाव में समाज निश्चय ही तितर-बितर हो जाएगा। अगर धर्म का अस्तित्व चलते रहना है तो उसका बुद्धि प्रामाण्यवादी होना आवश्यक है। विज्ञान बुद्धि प्रामाण्यवाद का दूसरा नाम है। (3) धर्म के लिए यह काफी नहीं है कि वह केवल नैतिक संहिता बने। धर्म की नैतिक संहिता को स्वतंत्रता ,समता,बंधुता -इन मबलभूत तत्वों को स्वीकृति देनी चाहिए। (4) धर्म के कारण दरिद्रता को पवित्र न मानें और उसे उदात्त रूप भी न दें।
उत्तर प्रदेश के भट्टा परसौल गांव में जाकर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने पीडि़तों के आंसू क्या पोंछे समूचे सियासी दल उनके पीछे नहा धोकर पड़ गए हैं। हाल ही में शिवसेना सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे ने भी राहुल गांधी को आड़े हाथों लेते हुए उनसे पूछा है कि अगर राहुल वाकई किसानों के इतने हितैषी हैं तो वे उस वक्त कहां थे, जब जैतापुर का आंदोलन चल रहा था? शिवसेना के मुखपत्र सामना में लिखी संपादकीय में बाला साहेब ठाकरे ने कहा है कि जब जैतापुर में कांग्रेस सरकार किसानों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा रही थी, जब राहुल का किसान प्रेम इटली में था या फिर कोलंबिया में भ्रमण कर रहा था। वैसे बात सच है किसानों के प्रति हमदर्दी का प्रहसन करने वाले राहुल गांधी बुंदेलखण्ड में गए हों या कलावती के घर हर जगह उनके द्वारा की गई घोषणाएं थोथी ही साबित हुईं हैं। और तो और कलावती के दमाद ने तो बाद में खुदकुशी तक कर ली थी। यह सब यूपी में सियासी जमावट के लिए हो रहा है, कहते हैं न मीठा मीठा गप्प कड़वा कड़वा थू. . .।
कंफर्म नहीं हुई उमा की बर्थ!
भाजपा की रेलगाड़ी में फायर ब्रांड साध्वी उमा भारती की बर्थ का स्टेटस अभी भी वेटिंग ही दर्शा रहा है। हाल ही में हुई भाजपा की कोर समिति की बैठक के बाद भी उनकी घर वापसी का मसला नहीं सुलझ सका है। पार्टी फोरम पर भाजपाध्यक्ष नितिन गड़करी यह मु्द्दा लेकर आए, किन्तु भाजपा के आला नेताओं ने ही इसमें विद्रोह कर दिया। कहते हैं सबसे पहले अनंत कुमार ने अपना विरोध दर्ज करवाया और कहा कि उत्तर प्रदेश में उमा का क्या काम? इसके बाद उमा विरोधी खेमे के अरूण जेतली, वेंकैया नायडू और सुषमा स्वराज ने अनंत कुमार के सुर में सुर मिलाया। सुषमा स्वराज ने तो शिवराज सिंह चैहान के कांधों पर बंदूक रखकर कह दिया कि उमा की वापसी को लेकर शिवराज के मन में कुछ शंकाएं हैं, पहले उनका निराकरण होना आवश्यक है। फिर क्या था, माहौल बिगड़ता देख गड़करी ने मामले को ठंडे बस्ते के हवाले करना ही मुनासिब समझा।
इसरो की नाकमी पर पीएम नाराज!
वजीरे आजम डॉ. मनमोहन सिंह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो से खासे खफा नजर आ रहे हैं। अरूणाचल प्रदेश के मुख्य मंत्री दोरजी खाण्डू को ले जा रहे हेलीकाप्टर के मलबे को खोजने में नाकाम रहे इसरो के वैज्ञानिकों से प्रधानमंत्री ने आखिरकार पूछ ही लिया है कि वे इसमें नाकाम क्यों रहे। दरअसल इसरो प्रमुख राधा कृष्णन के नेतृत्व में वैज्ञानिकों का दल पीएम से मुलाकात कर तीन उपग्रहों के सफल प्रक्षेपण पर अपनी पीठ थपथपाने के इरादे से आया था। दल को बधाई अवश्य मिली किन्तु पीएम डाॅ.सिंह ने अप्रत्याशित रूप से यह प्रश्न दाग ही दिया कि उपग्रह हेलीकाप्टर के दुर्घटनास्थल क बारे में सही और सटीक जानकारी क्यों नहीं दे पाया? वैज्ञानिकांे को इसकी आशा नहीं थी सो वे बगलें ही झांकते रह गए।
तमाशा खत्म पर नहीं खुली सील!
राष्ट्रमण्डल खेलों के नाम पर मची लूट की परत दर परत खुलती ही जा रही हैं। खेल समाप्त हुए आठ माह से अधिक का समय बीत चुका है किन्तु अब भी कामन वेल्थ गेम्स के नाम पर खुद की वेल्थ सुधारने का काम जारी है। दिल्ली के गोविंद वल्लभ पंत अस्पताल में करोड़ों रूपए मूल्य की सीटी स्केन मशीन बुलवाई गई थी गेम्स के मद्देनजर। खेल तमाश समाप्त हो गया किन्तु मशीन को डब्बे से नहीं निकाला गया, जबकि इसे 31 अगस्त तक लग जाना था। मजे की बात तो यह है कि साढ़े तीर करोड़ रूपए लागत की यह मशीन अस्पताल पहुंची खेल समाप्त होन के बाद 27 अक्टूबर को। इतना ही नहीं पंत और लोकनायक अस्पताल के लिए छः दर्जन नर्सिंग बेड भी खेल समाप्त होने के दो माह बाद लगवाए गए। किसी ने भी उन कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही करने की जहमत नहीं उठाई, जाहिर है चोर चोर मौसेरे भाई।
फर्जीवाड़ा पास का हलाकान यात्री!
दिल्ली परिवहन निगम के दो परिचालक सरेराह फर्जी पास बेचते पकड़े गए। दिल्ली में भारतीय रेल और अन्य चुनिंदा राज्यों के मानिंद पैसेंजर फाल्ट सिस्टम लागू है। जिसका अर्थ है कि टिकिट लेना यात्री की जवाबदारी है। बिना टिकिट पकड़े जाने पर यात्री को जुर्माना भरना होगा। डीटीसी की यात्री बस में चालीस रूपए का नान एसी और पचास रूपए का एसी बस का दैनिक पास मिलता है, जिसके माध्यम से दिन भर में असीमित यात्रा का अधिकारी होता है पासधारक यात्री। अब अगर यात्री को डीटीसी का कंडक्टर ही फर्जी पास टिका रहा हो तो इसमें यात्री की क्या गल्ति। इसी गफलत के चलते मध्य प्रदेश में राज्य सड़क परिवहन निगम बंद हो चुकी है, और अवैध निजी यात्री बस संचालकों के बल्ले बल्ले हैं। मन में आया जितना किराया उतना वसूल लिया, टिकिट देना है दिया नहीं देना नहीं दिया।
दिया तले अंधेरा!
देश के हृदय प्रदेश की राजधानी भोपाल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान सहित सारे मंत्रियों आला अफसरान की नाक के नीचे तीन साल तक के कुपोषित बच्चों की तादद देखकर केंद्र सरकार ने भी दातों तले उंगली दबा ली है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भाजपा शासित मध्य प्रदेश मंे साठ फीसदी से ज्यादा कुपोषित बच्चे हैं और तो और भोपाल मंे ही आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। एक अशासकीय संगठन द्वारा कराए गए सर्वेक्षण मंे भोपाल में बीस फीसदी बच्चे अतिकुपोषित हालत में मिले। एक तरफ भोपाल गैस कांड का दंश आज तीन दशकों बाद भी झेल रहे भोपाल के निवासियों के लिए यह दोहरी मार से कम नहीं है कि शिवराज सिंह चैहान के भांजे और भांजियां कुपोषण की जद में हैं।
यह रहा रमन राज
भारतीय जनता पार्टी द्वारा सुशासन का दावा हरदम किया जाता है। पार्टी की जहां जहां सरकार है वहां वहां कुशासन और लूट ही लूट मची हुई है। अपनी ही जमीन की पुनरीक्षण याचिका दायर करने गए दिल्ली हाई कोर्ट के एक वकील पर जमीन के कारोबारियों और माफियाओं द्वारा छत्तीगढ़ की राजधानी रायपुर में अदालत परिसर में ही रिवाल्वर तान दी। हो हल्ला होने पर लोग दौड़े तब तक आरोपी भाग निकले। दिल्ली निवासी सुनील सिंह दिल्ली उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं। वैसे कोर्ट परिसर में जरायमपेशा अपराधियों का आना जाना स्वाभाविक है, किन्तु कोर्ट परिसर में किसी भी अपराधी द्वारा वारदात करने से बचा ही जाता है। छग की राजधानी रायपुर के कोर्ट परिसर में दिन दहाड़े वकील पर रिवाल्वर तानने से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के सुशासन की छाया साफ दिखाई पड़ जाती है।
कोर्ट में मना हेप्पी बर्थ डे!
एक समय में जन्म दिन को भव्य समारोह में मनाने वाले पूर्व संचार मंत्री अदिमत्थू राजा को अपना 48 वां जन्मदिन जीवन भर याद रहेगा, इसका कारण यह है कि उनका यह जन्म दिन तिहाड़ जेल और अदालत के चक्कर काटते काटते ही मना। 10 मई को राजा को तिहाड़ जेल में नाश्ते के बाद साढ़े आठ बजे अन्य कैदियों के साथ पटियाला हाउस कोर्ट ले जाया गया। शाम साढ़े चार बजे कोर्ट की कार्यवाही समाप्त होने के बाद राजा को जेल की वेन से पुनः तिहाड़ जेल ले जाया गया। कोर्ट में राजा ने द्रमुक सांसद और करूणानिधि की बेटी कनिमोझी से बात भी की। तिहाड़ में बंद राजा के इतने बुरे दिन आ गए हैं, जिसकी कल्पना उन्होंने सपने में भी नहीं की होगी। जेल पहुंचने पर राजा का पूरा बायोडाटा जेल के रिकार्ड मंे दर्ज कराया गया है, बावजूद इसके जेल में अधिकारियों और कैदियों को भी उनके जन्म दिन की बात पता न चल सकी।
दाऊद के खौफ से मुक्त है वालीवुड!
रूपहले सिनेमा को अपने दामन में समेटने वाली मायानगरी मंुबई का वालीवुड़ अब अंडरवल्र्ड डान दाऊद इब्राहिम के खौफ से पूरी तरह मुक्त हो चुका है, यह दावा गुजरे जमाने की अभिनेत्री पूनम ढिल्लन ने फरीदाबाद के एस्कोर्टस फोर्टिज अस्पताल में आरंभ किए जाने वाले ब्लूम फर्टिलिटी सेंटर के उद्घाटन के अवसर पर किया। पूनम का कहना था कि एक समय था जब सितारों को दाऊद के खौफ के चलते मजबूरी में उसकी देहरी पर जाकर ठुमके लगाने पड़ते थे। बीस साल पुरानी यादें ताजा करते हुए उन्होंने कहा कि उस वक्त एक फोन काल ही दहशत के लिए पर्याप्त थी, अब समय बदल चुका है अब अगर किसी को धमकी मिलती है तो वह पुलिस की मदद लेने से नहीं चूकता है।
गंगा यमुना के बाद अब नर्मदा भी प्रदूषित
जीवन दायनी पवित्र पावन गंगा और यमुना नदी को तो प्रदूषण लील ही चुका है किन्तु अब मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलने वाली नर्मदा नदी भी प्रदूषण की चपेट में आ चुकी है। अमृतस्य नर्मदा का प्याला इन दिनों प्रदूषण से छलछला रहा है। इसमें मिले केमिकल्स के कारण नर्मदा का जल बिना शोधन संयंत्र के अब पीने योग्य नहीं बचा है। यह बात मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मण्डल की हालिया रिपोर्ट में उजागर हुआ है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायायल के निर्देश पर पीसीबी ने नर्मदा के विभिन्न तटों से जल एकत्र कर उसका परीक्षण किया था। परीक्षणोपरांत पाया गया कि नर्मदा का जल बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका है। एक तरफ केंद्र सरकार द्वारा नदियों के संरक्षण के लिए करोड़ों अरबों रूपए खर्च किए जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर जीवन दायनी नदियों के हाल बेहल हो रहे हैं।
अब क्या होगा आरक्षण का!
प्रकाश झा की बहुप्रतिक्षित फिल्म आरक्षण की शूटिंग अब खटाई में पड़ गई है। भोपाल में एक निजी बिल्डर और स्थानीय निकाय के बीच चल रही तनातनी के चलते आरक्षण का अस्थाई सेट भी झमेले में पड़ गया है। इस सेट पर सैफ अली खान और दीपिका पादुकोण के कुछ दृश्यों को फिल्माना बाकी है। बताते हैं कि भोपाल नगर निगम ने कुछ सेट को ढहा दिया है, जिससे अब फिल्म का अगला शेड्यूल प्रभावित हो गया है। कहते हैं कि लगभग एक एकड़ में बने सेट को ढहाया गया है, जिसमें एक बंग्ला भी है, जो अमिताभ बच्चन के चरित्र से संबंधित था। बताते हैं कि प्रकाश झा अब उसी तरह के सेट को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के नोएडा में तलाश कर रहे हैं किन्तु जमीन अधिकग्रहण की आग के चलते वे नोएडा या ग्रेटर नोएडा आगर कोई रिस्क लेना नहीं चाहते हैं।
शीला जी अब तो जागिए!
देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में महिलाएं अब सुरक्षित नहीं दिख रही हैं। कभी कहीं चैन स्नेचिंग हो जाती है तो कहीं चलती कैब में ही युवती का शील भंग कर दिया जाता है। हाल ही में मंडावली इलाके में चार मनचले युवकों ने बारहवीं कक्षा की एक बाला के कपड़े इसलिए फाड दिए क्योंकि उसने इन शोहदों को मोबाईल नंबर देने से इंकार कर दिया था। छात्रा की मदद को आए एक युवक की इन शोहदों ने जमकर पिटाई कर दी। जैसे ही भीड़ जमा हुई वे भाग खड़े हुए किन्तु उनका तमंचा वहीं गिर गया। दिन दहाड़े जब छात्राओं और युवतियों को इस तरह शर्मसार कर आतंकित किया जाएगा तो कौन पालक अपने बच्चों को अकेले घर से निकलने देगा? दिल्ली की निजाम शीला दीक्षित खुद एक महिला और मां हैं, वे इस व्यथा को बेहतर समझ सकतीं हैं, हालात देखकर कहना होगा कि शीला इसे जानबूझकर ही समझना नहीं चाह रही हैं।
पुच्छल तारा
दुनिया भर में आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अपने आंचल मंे छुपाकर रखा था पाकिस्तान ने। पाकिस्तान में बिना किसी की जानकारी के रह रहे लादेन और पकिस्तानी सेना पर इन दिनों जोक्स की बौछारें हो रही हैं। नोएडा से योगिता वर्मा ने एक मेल भेजा है। योगिता लिखती हैं कि पाकिस्तान में बारहवीं कक्षा पास करने के बाद पापुलर कोर्स हैं:-
एमटेक – मास्टर्स इन टेरर टेक्नालाजी।
जेईई – जेहादी एंट्रेंस एग्जामिनेशन।
केट – केरियर इन अल कायदा एंड तालिबान।
एमबीए – मास्टर्स ऑफ बॉम्बिंग एडमिनिस्ट्रेशन।
एमबीबीएस – मास्टर्स ऑफ बॉम्ब ब्लास्टिंग स्ट्रेटेजी।
उत्तर प्रदेश में सियासत के रंग धीमे-धीमे चटक होने लगे है। वैसे तो सभी राजनैतिक दल अपने-अपने हिसाब से चुनावी माहौल को ‘रंगीन’ करने में जुटे हैं,लेकिन कांग्र्रेस इस काम में कुछ ज्याद ही तेजी दिखा रही है। माया सरकार के खिलाफ भट्टा पारसौल के किसानों ने ‘हलाहल’ क्या उगला कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी उसमें अमृत की बूंदे तलाशने लगे।बिना यह ंचिंता किए कि इसके लिए कौन बड़ा जिम्मेदार हैं। जैसा भारतीय राजनीति में होता आया है ,उसे कुछ अलग नहीं कर रहे थे राहुल गांधी।वैसे काफी समय से उत्तर प्रदेश में जमीन तलाश रहे राहुल गांधी हर वो हथकड़ा अपना रहे थे जिससे उनकी पार्टी को बढ़त मिल पाती। पिछले कुछ सालों में उन्होंने दलितों के यहां भोजन किया और रात गुजारी। पंचायत लगा कर लोगों की समस्याएं सुनी। टे्रन के जनरल क्लास में यात्रा की। लखनऊ में बच्चों के साथ समय गुजारा। कई बार अपने सुरक्षा घेरे को तोड़कर जनता से नजदीकियां बनाने और दिखाने की कोशिश की। बुंदेलखंड पहुंच कर राहुल ने आत्महत्या को मजबूर किसानों की समस्या सुनीं।विपक्ष ने अरोप लगाया कि उनके इशारे पर ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बुंदेलखंड का दौरा तय किया गया।
एक तरफ राहुल ने आम जनता के साथ जुड़ाव बनाया तो दूसरी तरफ वह कांग्रेस कार्यकर्ताओं और पार्टी के नेताओं का भी उत्साहवर्धन करते रहे। गांधी परिवार के ‘चिराग’ राहुल बिना किसी अड़चन के अपना काम करते रहे। पार्टी में गुटबाजी चरम पर पहले भी थी और आज भी है लेकिन बात जब राहुल की आती तो ऊपर से लेकर नीचे तक के नेता और कार्यकर्ता उनके सामने हाथ जोड़े खड़े रहते।एक तरफ राहुल उत्तर प्रदेश में अपनी जड़े मजबूत करने के लिए माया सरकार की नाकामयाबी को बढ़ा चढ़ाकर जनता के बीच ले जा रहे थे तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डा0 रीता बहुगुणा जोशी का उन्हें भरपूर साथ मिलता गया। अगर फिर भी कोई कमी रह जाती तो मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, कांग्रेस के महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा तो उनके पीछे ‘संकटमोचक’ की तरह खड़े ही रहते थे। राहुल गांधी के विश्वासपात्र दिग्गी राजा उत्तर प्रदेश कांग्र्रेस के लिए हमेशा स्टैपनी की तरह दिखे।अपने श्री मुख से हमेशा विवादित भाषा बोलने वाले दिग्गी राजा को अकसर आलाकमान से मुंह बंद रखने की सलाह मिलती रहती लेकिन उन्होंने अन्ना हजारे से लेकर मुख्यमंत्री मायावती और भाजपा नेताओं से लेकर साधू-संतो तक किसी को नही बख्शा। तुष्टीकरण उनका चेहरा बन गया तो अकसर वह कांग्रेस के विवादित बड़बोले दिवंगत नेता अर्जुन सिंह की कमी पूरी करते भी दिखे।
राज्य में दो दशकों से हासिए पर पड़ी कांग्रेस का यह दुर्भाग्य ही था कि कई बड़े धुरंधर नेताओं की मौजूदगी के बाद भी वह उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर पा रही थी,यहां तक की राहुल के टोटके भी काम नहीं आ रहे थे।उस पर केन्द्रीय राजनीति की मजबूरी ने उसकी बेचारगी और भी बढ़ाने का काम किया।उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पहले सपा सरकार और बाद में बसपा सरकार के खिलाफ जहर तो उगलती रही लेकिन केन्द्र में दोनों दलों को वह साधे भी रहीं। कांग्रेस के दोहरे चरित्र का ही नतीजा था जो वह राहुल की तमाम कोशिशों के बाद भी 2009 के लोकसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाई। इससे राहुल की छवि को धक्का भी लगा,लेकिन राहुल ने तो जैसे बुजुर्ग भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविता कंठस्थ कर ली थी हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,……….।’ वह अपना काम करते गए और नतीजा आज देखने को मिल रहा है।
हाल में ही भट्टा परसौल में अधिक मुआवजे की मांग कर रहे किसानों पर माया सरकार के अत्याचार और दमन के खिलाफ जिस तरह राहुल ने मोर्चा संभाला वह काबिले तारीफ तो बन ही गया । भट्टा पारसौल मामले में सपा ,भाजपा और रालोद सभी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे थे, लेकिन एक झटके में ही कांग्रेस अपने युवराज के सहारे अन्य दलों से बढ़त बना ली। गुरिल्ला शैली में भट्टा पारसौल पहुंच कर राहुल का धरने पर बैठ जाना और माया सरकार द्वारा उन्हें जबर्दस्ती धरने से उठाना ऐसा सुर्खियों मे आया कि कांग्रेस के युवराज के समर्थन में पूरी पार्टी सड़क पर आ गई। सम्भवता: माया के चार साल के शासनकाल में कांग्रेस का यह सबसे बढ़ा प्रदर्शन रहा होगा।
बात यहां तक पहुंची कि मुख्यमंत्री मायावती को राहुल के खिलाफ स्वयं मोर्चा खोलना पड़ गया। उन्होंने प्रेस कांफ्रेस करके राहुल का खूब मजाक उड़ाया लेकिन शायद समय का चक्र माया के खिलाफ घूम चुका था।राहुल अबकी 2009 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादा परिपक्त दिखाई दे रहे थे।राहुल ने माया सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला तो उनके अन्य रणनीतिकारों ने इस आग को जलाए रखने के लिए अपनी तरफ से कदम उठाने शुरू कर दिए।एक तरफ राहुल मुख्यमंत्री मायावती पर बरस रहे थे तो दूसरी तरफ कांग्रेस के अन्य दिग्गज नेताओं ने सभी विपक्षी दलों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।इसका आगाज बुंदेलखंड से हुआ था तो भट्टा पारसौल होते हुए मैनपुरी में इसका दूसरा पड़ाव डाला गया।
भट्टा में किसानों का दिल जीतने के बाद शुक्रवार 13 मई 11 को कांग्रेसी पूरे तामझाम के साथ घोषी और यादवों को लुभाने के लिए मैनपुरी पहुंच गए ।मैनपुरी सपा के मुखिया मुलायम सिंह यादव का गढ़ माना जाता है। कांग्रेस का वहां जाकर दहाड़ना मुलायम सिंह शायद ही सहन कर पाएं, लेकिन इसकी परवाह किए बिना घोषी-यादव महाकुंभ में प्रदेश के बाहर से आए कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं ने भी शब्दबाण चलाकर सपा के साथ-साथ बसपा-भाजपा को निशाने पर लिया। इस मौके पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी दिग्विजय सिंह,यूपी कांग्रेस अध्यक्षा रीता बहुगुण्ाा जोशी आदि नेताओं ने बसपा कुशासन, मुलायम सरकार के गुंडाराज, भाजपा की साम्प्रदायिक नीति की खूब बखिया उखाड़ी। मंच पर बैठे नेता बोल अपनी जुबान से रहे थे लेकिन दिमाग में राहुल का मिशन 2012 ही दिखा। हरियाणा के मुख्यमंत्री हुड्डा ने भीड़ से वोटिंग करते समय नेता, नियत और नीति देखने की बात कही तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने तो यहां तक कह दिया कि माया के कुशासन को देख कर आंखों में आंसू आ जाते है। रीता बहुगुणा जोशी भी मंच पर विराजमान थी।उन्होंने तो प्रदेश की दुदर्शा के लिए गैर कांग्रेसी सरकारों को ही पूरी तरह से जिम्मेदार ठहरा दिया। मंच घोषी और यादवों को मनाने के लिए तैयार किया गया था लेकिन यहां भी दिग्गी राजा मुसलमानों का दिल लुभाने की कोशिश करते दिखे। आतंकवादी ओसामा के लिए सम्मानित भाषा बोलने वाले दिग्गी राजा इस बात से काफी राहत महसूस कर रहे थे कि मालेगांव में एक साध्वी की गिरफ्तारी के बाद देश में बम फूटने बंद हो गए। हालांकि अभी तक साध्वी के ऊपर आरोप तय नहीं हुए हैं लेकिन दिग्गी राजा ने एक जज की तरह उन्हें अपराधी करार देते हुए यहां तक कह दिया कि देश में संघी लोग बम फोड़ते हैं और जेल जाना पड़ता है अल्पसंख्यकों को।
सामाजिक एकता मंच द्वारा इस आयोजिस इस कार्यक्रम में आए नेताओं ने जैसी भाषा बोली उससे तो यही लग रहा था कि उनको सामाजिक एकता से अधिक उन्हें अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने की चिंता हैं।बहरहाल, यह सभा एक आगाज थी।बसपा-भाजपा और सपा के दिग्गज नेताओं के गढ़ में कांग्रेस की आगे भी अभी इसी तरह की जनसभाएं देखने को मिलेगी।कांग्रेस विरोधियों को उनके घर में ही जाकर पटकनी देने की कोशिश मे हैं। कांग्रेस जो केन्द्र में सभी मोर्चो पर विफल रही है, वह नहीं चाहती है कि उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा चुनाव में मंहगाई, भ्रष्टाचार कोई मुद्दा बने। इसके लिए वह ऐसे-ऐसे हथकंडे अपना रही है जो न तो गांधीवादी हैं न ही देशहित में कहे जा सकते हैं।
अप्रैल-मई -२०११ में पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव संपन्न हुए; इन चुनावों के परिणामों से न केवल सम्बन्धित राज्यों का बल्कि सम्पूर्ण भारत का राजनैतिक परिदृश्य चिंतनीय बन गया है.देश और दुनिया के राजनैतिक विचारक ,हितधारक अपने-अपने चश्में से इस वर्तमान दौर की बदरंग तस्वीर को अभिव्यक्त कर रहे हैं.राजनीति विज्ञान का ककहरा जानने वालों को मेरे इस आलेख में नया और रोमांचक कुछ भी भले ही न मिले;किन्तु यथार्थ दृष्टिकोण वाले सुधीजन कतई निराश नहीं होंगे.
इन चुनाव परिणामों में असम को छोड़ बाकी अन्य चारों राज्यों में परिवर्तन की लहर देखी जा सकती है.असम में कायदे से असम गणपरिषद और भाजपा के गठबंधन को सत्ता में आना चाहिए था किन्तु वे परिवर्तन की हवा अनुकूल होते हुए भी तरुण गोगोई नीति कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंकने में असमर्थ रहे.ऐसा क्यों हुआ यह आने वाले दिनों में और ज्यादा स्पष्ट हो सकेगा.इतना तय है की यु पी ऐ द्वतीय को भृष्टाचार के आरोपों के दौर में भी सत्ता सुख बदस्तूर जारी रहेगा.यह समझ बैठना कतई उचित नहीं होगा कि असम कि जनता ने अपरिवर्तन का प्रमाणीकरण किया है.जनता तो परिवर्तन के लिए न केवल असम में बल्कि पूरे देश में एक पैर पर खडी है.यह विपक्ष कि जिम्मेदारी है कि बेहतरीन आकर्षक सदाचरितऔर करिश्माई विकल्प पेश करे.यदि असम में यह नहीं हो सका तो यह भी सम्भव है कि पूरे देश के आगामी लोक सभा चुनावों में भी न हो सके!तब केंद्र कि सत्ता में यथास्थिति कि संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.
केरल विधान सभा चुनाव में तो साठ के दशक से ही वहाँ कि जनता ने एक अलिखित नियम सा बना लिया है कि प्रत्येक पांच साल में प्रदेश कि सत्ता में परिवर्तन किया जाएगा.चूँकि इस दफे बारी यु डी ऍफ़ {कांग्रेस नीट गठबंधन}की ही थी सो मात्र दो सीट की बढ़त से ही सही वही सत्ता में आ गया.इस बार वाम मोर्चे ने बेहतरीन प्रदर्शन किया और ६९ सीट पाकर एक नया कीर्तिमान बनाया की भले ही जनता ने सत्ता परिवर्तन किया हो किन्तु एल डी ऍफ़{सी पी एम् नीत गठबंधन}के अच्छे काम-काज को प्रमाणीकृत करते हुए उसे सम्मान जनक विपक्ष की भूमिका में प्रतिष्ठित किया है.जो लोग इस तथ्य से आँख मींचकर सिर्फ वाम विरोध के सिंड्रोम से ग्रस्त हैं,उन्हें केरल जाने की जरुरत नहीं वहां के विगत चुनावों का लेखा जोखा खंगालकर तस्दीक कर सकते हैं कि कांग्रेस नीत यु डी ऍफ़ गठबंधन को विपक्ष कि स्थिति में ऐंसा प्रचंड समर्थन कभी नहीं मिला.केरल में आइन्दा जब भी चुनाव होंगे वहाँ वाम मोर्चा {सी पी एम् नीत गठबंधन}ही सत्ता में आएगा.मीडिया का दकियानूसी हिस्सा और कांग्रेस के चारण यदि कहें कि अब तो भारत में वामपंथ का कोई भविष्य नहीं तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे ऐंसा १९५८ से कर रहे हैं.यह जग जाहिर है कि न केवल भारत बल्कि सारे विश्व में वह केरल कि जनता ने ही कर दिखाया था कि किसी देश के केंद्र की सरकार तो भले ही पूंजीवादी या सामंतवादी हो ,किन्तु किसी भी प्रांत विशेष में न केवल साम्यवादी या समाजवादी बल्कि अन्य वैकल्पिक विचारधारा की सरकार चलाई जा सकती है.जैसी की आज भारत में अधिकांस उपलब्ध विचारधाराओं की सरकारें विभिन्न राज्यों में चल भी रहीं हैं.यह ६० के दशक में अकल्पनीय था.जब सबसे पहले केरल में १९५८ में साम्यवादी सरकार बनी तो नेहरु -इंदिरा से ज्यादा केनेडी को तकलीफ हुई.इधर-उधर की बहानेबाज़ी से कांग्रेस ने उस प्रजातांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार की भ्रूण हत्या कर दी.उसी का परिणाम है की केरल में ई एम् एस नम्बूदिरीपाद से लेकर वी एस अचुतानंदन तक की ६० सालाना राजनैतिक यात्रा में सी पी एम् के बिना केरल का इतिहास लिखा जाना संभव नहीं.केरल की जनता ने भारत में गठबंधन राजनीती का सर्वप्रथम सूत्रपात किया था. जो राष्ट्रीय दल पहले अपने बल बूते पर देश की लानत -मलानत किया करते थे आज वे सब गठबंधन धरम निभाने के लिए ज्योति वासु या हरकिशन सिंह सुरजीत का शुक्रिया अदा करते हुए सत्ता में विराजमान हैं.कांग्रेस ,भाजपा या तीसरा मोर्चा कोई भी अब अकेले ही केंद्र की सत्ता हासिल कर पाने में समर्थ नहीं.यह वाम मोर्चे की ही देन है.इसी आधार पर ‘कामन -मिनिमम प्रोग्राम देश के हित में बनाए जाने की परम्परा चल पडी जो की लेफ्ट फ्रोंट की ही देन है.वाम मोर्चे के खाते में ढेरों उपलब्धियां हैं किन्तु केरल में सी पी एम् के बड़े नेता अपने अहंकार में और आपसी खींचतान में न उलझे होते तो इस बार भी केरल में एल डी ऍफ़ ही जीतता और यह भी उसका एक शानदार इतिहास होता.मात्र दो सीट के बहुमत पर केरल में यु डी ऍफ़ की सरकार बने जा रही है और कुछ सावन के अंधे कह रहे हैं की वामपंथ तो ख़त्म ही हो गया…
पुद्दुचेरी में विद्रोही कांग्रेसियों ने सत्ता हथिया ली,सशक्त विपक्ष के अभाव में जनता ने अपना अभिमत यों दिया मानों वह कांग्रेस को हटाना चाहती हो किन्तु विकल्प के अभाव में कांग्रेस की बी टीम को साधना कांग्रेस के खुर्राट नेताओं के बाएं हाथ का काम है.
तमिलनाडु में करूणानिधि परिवार की महाभ्रुष्ट लहरों ने जय ललित्था को बैठे बिठाये तिरा दिया.हर्रा लगा न फिटकरी रंग चोखा हो गया,जय ललिता के भृष्टाचार को तमिलनाडु के लोग भूल गए तो हम याद करके क्या भेला कर लेंगे? परिवर्तन के लिए विकल्प के रूप में जो वहां की जनता को सामने दिखा उसे ही चुन लिया ;भले ही वो ऐ राजा-कनिमोज़ी-या करुणानिधी से भी ज्यादा भृष्ट हो.भाजपा या कम्युनिस्ट तो मानों अब भी वहाँ अवांछित हैं.
पश्चिम बंगाल में १९७७ से २०११ तक लगातार वाम मोर्चा {सी पी एम् के नेतृत्वमें गठबंधन}की सरकार रही है.वर्तमान दौर के विधान सभा चुनाव में उसे जनता ने विपक्ष मैं बैठने और आत्म चिंतन का सुअवसर प्रदान किया है.चूँकि एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में यह कतई जरुरी नहीं की जनता विपक्ष को मौका ही न दे,अतः यह सुनिश्चित था कीकभी-न-कभी तो वाम मोर्चे को भी विपक्ष में बैठना ही होगा.इस नियम के अनुसार ३४ साल तो बहुत ज्यादा होते हैं,उससे से पहले ही बीच में यह सिलसिला टूटना चाहिए था ताकि जो दुर्गति विगत १० साल में ममता और उसकी वानर सेना ने बंगाल की कर डाली वो न हो पाती.लोकतंत्र-जनवाद-सामाजिक समानता और प्रगतिशील आर्थिक नीतियों की दम पर वाम मोर्चे ने बंगाल के लिए सब कुछ किया और उसी की बदौलत सात बार जीते भी किन्तु ज्योति वसु की शानदार विरासत को सँभालने के लिए जिस आभा मंडल की जरुरत थी वो बुद्धदेव नहीं जुटा पाए.उनकी ईमानदारी और जन-निष्ठां पर किसी को संदेह नहीं,घोर विरोधी ममता और कांग्रेस ने भी बुद्धदेव और उनके साथियों की ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठाया.देश और दुनिया के सुधीजन अच्छी तरह जानते हैं की वाम मोर्चा सरकार ने बंगाल के करोड़ों भूमिहीनों को आपरेशन वर्गा के तहत जमीन का मालिक बनाया.विगत ३५ साल में एक भी साम्प्रदायिक दंगा उस पश्चिम बंगाल में नहीं होने दिया जिसमें सिद्धार्थ शंकर राय के ज़माने में लाशे विछी रहती थीं.बिजली ,सब्जी ,पीने का पानी,चावल,चाय बागन ,जूट एवं मछली उत्पादन में बंगाल को पूरे देश में नंबर वन किसने बनाया?ममता ने?आनंद बाज़ार पत्रिका ने?तृण मूलियों ने ?या महाश्वेता देवियों ने?पश्चिम बंगाल में बिहार से भागकर आये भूमिहीन -रोजगार विहीन गरीवों को कलकत्ते में तांगा चलाते देख जिन भांडों ने मगर मच्छ के आंसू बहाए वे ममता के छल -छद्म और भोंडी नट-लीला को फिलवक्त वोट में बदलवाने में भले ही कामयाब हो गए हों किन्तु ‘बकरे की माँ कब तक खेर मनाएगी?कतिपय टी वी चेनल्स और तुकड्खोर अखवारों ने लगातार नेनो काण्ड ,नंदीग्राम,लालगढ़ और सिंगूर को साधन बनाया और उनका अपावन लक्ष्य क्या था?वाम मोर्चे को सत्ताचुत करना ,क्योंकि उनके आका अमेरिका ने और विश्व कार्पोरेट सेकटर ने बंगाल की वाम मोर्चा सरकार को न केवल भारतीय राजनीती में बल्कि वैश्विक आर्थिक सरोकारों में उनके हितों के विपरीत पाया था.वेशक पश्चिम बंगाल की जनता को हक है की वो जिसे चाहे सत्ता सौंप दे,किन्तु जब सम्पूर्ण यु पी ऐ +मीडिया +माओवादी+बंगाल के भूत पूर्व जमींदार+टाटा के विरोधी पूंजीपति+विकाश विरोधी+साम्प्रदायिक तत्व+दलाल वुद्धिजीवी =ममता हो जाये तो ३४ साल तक दूध का धुला वाम पंथ भी कोयले से काला नजर तो आना ही था.यह अच्छा ही हुआ कि वाम मोर्चा को जनता ने कुछ दिनों {कम से कम ५ साल}के लिए विपक्ष में कर्तव्य पालन सौंप दिया है.और उससे भी अच्छा यह हुआ कि ममता बेनर्जी {तृण मूल तो एक अस्थाई मंच है}को सत्ता सौंप दी.चूँकि जनता ने उन्हें प्रचंड बहुमत नाबाज़ा है सो उनके तानाशाह बन्ने में कोई अड़चन नहीं है.उन्हें लोकतंत्र,जनवाद,संविधान और सामूहिक नेत्रत्व जैसे अल्फाजों से नफरत है सो उनके शीघ्र ही उफनती नदी कि तरह विनाश के महासिंधु में मिल जाने की पूरी सम्भावना है.बुद्धदेव या वाम मोर्चें में कोई खोट नहीं थी .उन्हें इतिहास के इस मोड़ पर इसीलिये लाया गया है कि अबकी बार न केवल बंगाल,न केवल केरल ,न केवल त्रपुरा बल्कि पूरे देश के मेहनतकश -किसानो,मजूरों,युवाओं और गरीवों को एकजुट करें और लाल किले पर लाल झंडा फहराएं.
केंद्र कि यु पी ऐ सरकार भले ही अपनी पीठ ठोके,किन्तु ये कडवा सच है कि देश कि तीनो राष्ट्रीय पार्टियाँ इन चुनावों में खेत रहीं हैं.भाजपा ने ८५० उम्मेदवार खड़े किये थे सिर्फ ५ सीटें मिली हैं,कांग्रेश को असम से ही संतोष करना होगा क्योकि ममता तो कटी पतंग है,तमिलनाडु और पुदुचेरी में उसे नफरत से देखा जा रहा है ,केरल में सिर्फ दो सीट के बहुमत का क्या ठिकाना?वामपंथ भी फिलहाल तो बेक फूट पर ही है अतः क्षेत्रीय ताकतें बलवान होती जा रहीं हैं इससे राष्ट्र कि एकता को खतरा हो सकता है.मजूरों-किसानों और वेरोजगार युवाओं कि वेहतरी कि आशाएं जिन पर टिकी थी उन वाम पंथियों के कमजोर होने से नक्सलवाद,माओवाद,के रूप में उग्र वामपंथ देश पर हावी हो सकता है जो भारत जैसे देश कि सेहत के लिए शुभ सूचना नहीं होगी.