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कांग्रेसः बदहाली से उबरने की चुनौती

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में दरकते जनाधार को बचाना आसान नहीं

– संजय द्विवेदी

कांग्रेस के बारे में कहा जाता है कि उसे उसके कार्यकर्ता नहीं, नेता हराते हैं। पिछले दस सालों से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पस्तहाल पड़ी कांग्रेस के लिए भी यह टिप्पणी नाजायज नहीं है। लंबी खामोशी के बाद आखिरकार आलाकमान ने दोनों सूबों में नए प्रदेश अध्यक्षों को कमान दे दी है। मध्यप्रदेश में वरिष्ठ आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया और छत्तीसगढ़ में मप्र-छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में गृहमंत्री रहे वरिष्ठ विधायक नंदकुमार पटेल की ताजपोशी की गयी है। दोनों राज्यों में कांग्रेस का संगठन पस्तहाल है इसलिए दोनों प्रदेश अध्यक्षों के सामने चुनौतियां कमोबेश एक सरीखी ही हैं।

 

मप्र और छत्तीसगढ़ दोनों राज्य कांग्रेस के परंपरागत गढ़ रहे हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं रविशंकर शुक्ल, द्वारिका प्रसाद मिश्र से लेकर श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, दिग्विजय सिंह, अरविंद नेताम, कमलनाथ, स्व.माधवराव सिंधिया तक एक लंबी परंपरा है जिसने अविभाजित मध्यप्रदेश को कांग्रेस का गढ़ बनाए रखा। खासकर आदिवासी इलाकों में कांग्रेस का जनाधार अविचल रहा है। पर कहानी इस एक दशक में बहुत बदल गई है। कांग्रेस के परंपरागत गढ़ों में भाजपा की घुसपैठ ने उसे हाशिए पर ला दिया है। राज्य विभाजन के बाद के बाद नए बने छत्तीसगढ़ राज्य में भी भाजपा की तूती बोलने लगी। जबकि छत्तीसगढ़ का परंपरागत वोटिंग पैर्टन हमेशा कांग्रेस के पक्ष में रहा है। आखिर इन सालों में ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को कांग्रेस के गढ़ों में बड़ी सफलताएं मिलने लगीं। बात चाहे छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके की हो, सरगुजा इलाके की या मप्र के आदिवासी क्षेत्रों की, भाजपा हर जगह अपना जनाधार बढ़ाती नजर आ रही है। शायद इसी के मद्देनजर इस बार मप्र कांग्रेस संगठन की कमान एक आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को दी गयी है।

 

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में भाजपा लगातार दूसरी बार सत्ता में हैं। इन राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और डा. रमन सिंह दोनों जनता के बीच एक लोकप्रिय नाम बन चुके हैं। जनता ने दोनों को दोबारा चुनकर दो संदेश दिए हैं एक तो इन मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता कायम है दूसरा कांग्रेस का संगठन दुरूस्त नहीं है। कांग्रेस के दोनों नवनिर्वाचित अध्यक्षों को इस मामले में बहुत काम करने हैं। दोनों राज्यों में विपक्ष की आवाज बहुत दबी-दबी सी लगती है। विधानसभा से लेकर सड़क तक एक सन्नाटा है। मध्यप्रदेश में विधानसभा के नए नेता प्रतिपक्ष बने अजय सिंह राहुल ने भी माना है कि पार्टी का प्रदर्शन विधानसभा में बहुत अच्छा नहीं रहा और इसके लिए हम सब जिम्मेदार हैं। अब यह देखना है कि मध्यप्रदेश जहां नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष दोनों पदों पर नया नेतृत्व दिया गया है, वहां किस तरह से कांग्रेस अपनी ताकत का विस्तार करती है। माना जा रहा है कि ये दोनों नेता दिग्विजय सिंह के समर्थक हैं और इस बहाने राज्य में अब पूर्व मुख्यमंत्री का संगठन और विधानसभा में एक बार फिर प्रभाव बढ़ेगा। सुरेश पचौरी के अध्यक्ष रहते दिग्विजय सिंह ने अपने आप को मध्यप्रदेश संगठन से अलग सा कर लिया था। इस बिखराव का ही कारण था कि कांग्रेस को हाल के विधानसभा उपचुनावों में अपनी कुक्षी और सोनकच्छ जैसी परंपरागत सीटें भी गंवानी पड़ीं। जाहिर तौर पर यह एक बड़ा झटका था। जहां वरिष्ठ नेता स्व. जमुना देवी की परंपरागत सीट भी कांग्रेस के हाथ से निकल गयी। तभी से कयास लगाए जा रहे थे कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन होगा। अब जबकि कांतिलाल भूरिया के रूप में पार्टी को एक नया अध्यक्ष मिला है तो देखना है कि गुटों में बिखरी कांग्रेस को वे कैसे एक सूत्र में बांधकर उसे राज्य में पुर्नजीवन देते हैं। मप्र का संकट यह है कि यह राज्य अनेक दिग्गज कांग्रेस नेताओं की लीलाभूमि है। सो इतने बड़े राज्य को एक साथ संबोधित करने वाला नेतृत्व आसान नहीं है। इनमें शायद दिग्विजय सिंह ही अकेले हैं जो पूरे मप्र में अपनी पहचान रखते हैं। कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरूण यादव केंद्रीय मंत्री जरूर हैं पर किंतु इनकी अपने क्षेत्रों को छोड़कर राज्य में बहुत सीमित रूचि है। बावजूद इसके इनके आसपास सक्रिय लोग एक गुट या दबाव समूह तो बना ही लेते हैं। ऐसे में यह बहुत साफ है मध्यप्रदेश की राजनीति अब दिग्विजय सिंह के हिसाब से चलेगी। कई मायनों में यह कांग्रेस के लिए ठीक भी है।

 

इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की स्थितियां बहुत बेहतर नहीं हैं। यहां भी कांग्रेस गुटों में बंटी हुयी है। अजीत जोगी समर्थक विधायक विधानसभा में अलग सुर में दिखते हैं तो नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे अलग-थलग पड़ जाते हैं। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे धनेंद्र साहू भी इस बिखरे परिवार में कोई उत्साह नहीं फूंक सके, बल्कि खुद भी विधानसभा का चुनाव हार गए। हाल में हुए दो विधानसभा सीटों के उपचुनावों में भी कांग्रेस को मात खानी पड़ी। ऐसे में भाजपा का उत्साह चरम पर है। अब पूर्व गृहमंत्री नंदकुमार पटेल जो पिछड़ा वर्ग से आते हैं और खरसिया क्षेत्र से लगातार पांचवी बार विधायक बने हैं, से बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। भाजपा ने इस कांग्रेस प्रभावित इलाके में तेजी से अपनी संगठनात्मक शक्ति का विस्तार किया है। खासकर आदिवासी इलाकों में उसे बड़ी सफलताएं मिली हैं, जो कभी कांग्रेस के गढ़ रहे हैं। इन दिनों चल रहा बस्तर लोकसभा का उपचुनाव भी इसकी एक परीक्षा साबित होगा। यह सीट भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के निधन से खाली हुयी है। यहां भाजपा ने बलिराम कश्यप के बेटे दिनेश कश्यप और कांग्रेस ने अपने वर्तमान विधायक कवासी लखमा को चुनाव मैदान में उतारा है। देखना है कि इस उपचुनाव के संकेत क्या आते हैं। कुल मिलाकर नंदकुमार पटेल के सामने चुनौतियां बहुत हैं और कांग्रेस संगठन को खड़ा करना आसान नहीं है। बावजूद इसके वे अगर अपने दल में प्राण फूंककर उसे पुर्नजीवन दे पाते हैं तो ये बड़ी बात होगी। छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी यहां एक बड़ी ताकत हैं। मुश्किल यह है कि उनके विरोधी भी उतने ही एकजुट हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा भी इसी राज्य से हैं। सो दिल्ली में दोनों गुटों को पैरवीकार मिल ही जाते हैं। इस जंग में कांग्रेस आपसी सिर फुटौव्वल से भी काफी नुकसान उठाती है। यह साधारण नहीं था कि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के कई दिग्गज नेता महेंद्र कर्मा, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू, भूपेश बधेल चुनाव हार गए। जिसका श्रेय कांग्रेस की आपसी गुटबाजी को ही दिया गया। सन 2000 में नया राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ के समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं। राज्य का परंपरागत नेतृत्व पूरी तरह हाशिए पर है। नए नेतृत्व ने राज्य में अपनी जगह बना ली है। कांग्रेस में अजीत जोगी और भाजपा में डा. रमन सिंह दोनों ही राज्य गठन के बाद बहुत महत्वपूर्ण हो उठे। इन नेताओं के विकास ने राज्य में सक्रिय रहे परंपरागत नेतृत्व को झटका दिया और सारे समीकरण बदल दिए। भाजपा संगठन केंद्रित दल था सो उसे तो बहुत झटके नहीं लगे किंतु कांग्रेस इस बदलाव को स्वीकार नहीं पायी और उसकी रही-सही ताकत भी दो चुनाव हारने के बाद जाती रही। अब नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नंदकुमार पटेल के सामने चुनौतियां बहुत बड़ी हैं। एक तो उन्हें बिखरे परिवार को एकजुट करना है साथ ही भाजपा की संगठित शक्ति का मुकाबला भी करना है। विधानसभा में तो एक विधायक के नाते पटेल, सरकार को अक्सर घेरने में सफल रहते हैं किंतु एक संगठन के मुखिया के तौर उनकी परीक्षा अभी शेष है। फिलहाल मध्यप्रदेश और छ्त्तीसगढ़ राज्यों में बदले नेतृत्व से कांग्रेस को क्या हासिल होगा इस पर अभी कुछ कहना बहुत आसान नहीं है।

भ्रष्टाचार मुक्ति आन्दोलन

नरेश भारतीय

अन्ना हजारे ने भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़ते हुए आमरण अनशन किया. लोकपाल विधेयक के लिए अड़े और अन्ततः एक समिति के गठन पर सरकार से अपनी मांगे मनवाने में सफलता हासिल की. जंतरमंतर में जब ये सब चल रहा था मैं दिल्ली में ही था और स्थितिविकास पर ध्यान धयान केंद्रित किए हुए था. लगा कि देश ने एक बार फिर संघर्ष का दामन थाम लिया है. सैंकड़ों वर्षों तक भारत ने विदेशी आक्रांताओं के चंगुल से आज़ाद होने के लिए इसलिए संघर्ष किया था क्योंकि उनके द्वारा की जाने वाली लूटपाट और जनशोषण से आम लोग तंग आ चुके थे. अनेक बलिदानों के पश्चात जब आजादी मिली तो उन्हें उम्मीद थी कि शोषण की यह प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी. गरीब को लूट कर अपनी जेबें भरने की उनके द्वारा कायम की गयी कुप्रवृत्तियों से हम निजात पा लेंगे, लेकिन देश का दुर्भाग्य कि ऐसा नहीं हुआ.

देश बंटा, क्योंकि आजादी की यही पूर्व शर्त थी जो हमारे तत्कालीन नेतृत्व द्वारा स्वीकार कर ली गयी थी. सहज स्वाभाविक सामाजिक समरसता सत्ताबुभुक्षा की भेंट चढ़ कर टूट बिखर कर रह गयी थी. उसके बाद जिस कांग्रेस के सिर पर देश को आज़ादी दिलाने का एकछत्र सेहरा बाँधा गया उसने अंग्रेजों से सत्ता की कमान अपने हाथ में ले ली. आम आदमी की उम्मीद जगी थी कि उसे स्वच्छ शासन मिलेगा, क्योंकि अब विदेशियों का नहीं उनके अपनों का शासन कायम हुआ था. परन्तु दिन, महीने और वर्ष पर वर्ष बीतते चले गए और जिस तरह का शासन तंत्र पनपा उसकी सब उमीदें एक के बाद एक ढहती चली गयीं.

गरीब और अमीर के बीच की खाई निरंतर और चौड़ी होती चली गयी. आज देश का बच्चा बच्चा जनता है कि सरकार तंत्र में जिस तरह से भ्रष्टाचार ने अपने कदम जमा रखे हैं वह दासताकाल में विदेशियों के द्वारा किए गए शोषण से कहीं अधिक क्रूर और व्यापक है. अपनों के द्वारा अपनों का ही रिश्वतों के माध्यम से शोषण, घपले घोटालों से लदी देश की राजनीति और काले धन का प्रछन्न साम्राज्य जिसमें विदेशी बैंकों में जमा धन देश के लिए नितांत अहितकर और उसके अभूतपूर्व शोषण की पुष्टि करता है. देश की जनता सहती ही रही है और इस उम्मीद के साथ सांस रोके प्रतीक्षा करती रही है कि कभी तो उन्हें होश आयेगी जिन्हें अपने प्रतिनिधि चुन कर वह संसद और राज्य विधान सभाओं में भेजती है.

करोड़ों रूपये खर्च करके चुनाव में विजयी हो कर जब कोई भी राजनीतिज्ञ सांसद, विधायक और उसके बाद मंत्री पद पाने के लिए लालायित रहता है तो किस लिए? क्या देश और जनता की निस्वार्थ सेवा के लिए? क्या वह सही मानों में जनता का सेवक प्रतिनिधि बन पाता है? या फिर सबसे पहले उसका ध्यान इस विषय पर केंद्रित होता है कि उन करोड़ों रुपयों की वापसी का इंतजाम कैसे करे जो उसने चुनाव पर खर्च किए हैं और उसके बाद अपने घर को जितना भी और जिस भी तरीके से भर सके उसका प्रबंध करे? माना कि सभी राजनीतिज्ञ ऐसे नहीं हैं, लेकिन जो ऐसे नहीं हैं उनके द्वारा भी देश की आजादी के बाद से अब तक, मात्र चुनावी नारों के, वस्तुतः क्या और कैसे प्रयत्न किए गए जिससे भ्रष्टाचार को महामारी का रूप ग्रहण करने से रोका जाता?

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है. आज भारत विश्व की एक महा शक्ति बनने का स्वप्न साकार करने कि चेष्ठा में है. विश्व भर के अर्थ वित्त विशेषज्ञों का ध्यान भारत पर केंद्रित है. लेकिन इसके साथ ही वे भारत में सर्व व्याप्त भ्रष्टाचार की दुखद गाथा से अनभिज्ञ नहीं हैं. हाल ही में कुछ ऐसे प्रसंग उभर कर सामने आये हैं जिससे देश विदेश में गहरी हलचल मची है. भारत की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा है. उसकी विश्वसनीयता को आंच आई है. क्या इससे उसके एक विश्व शक्ति बनने के स्वप्न को साकार करने में बाधाएं खड़ी नहीं होंगी?

अनेक वर्षों से जो लोग भारत से विदेश में जा बसे हैं उन्हें आश्चर्य होता है कि कथित विकास के पथ पर अग्रसर उनका अपना मूल देश भारत चेत क्यों नहीं रहा है? यह क्यों नहीं कर पा रहा कि भ्रष्टाचार की दलदल से स्वयं को निकाल सके और विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा होने का अपना सही सामर्थ्य सिद्ध कर सके. रामदेव का सतत आह्वान और अन्ना हजारे का अनशन भारत की जनशक्ति का प्रदर्शन बखूबी कर चुके हैं. दैनंदिन भ्रष्टाचार ग्रस्त परिवेश में घुटन भरा जीवन जीते हुए आम लोगों के मन में आशा उभरी है कि अन्ना के अनशन से उपजी जन जाग्रति और रामदेव के ओजस्वी उद्बोधनों के फलस्वरूप देश भर में ऐसा आंदोलन छिडेगा जो तब तक नहीं थमेगा जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती. समय की आवश्यकता को महत्व देते हुए किस तरह की कुशल रणनीति के साथ यह आंदोलन आगे बढ़ता है इस पर सबकी दृष्टि बनी हुई है. आंदोलन के नेतृत्व का बीड़ा उठाने वाले योग्य एवं साहसी दोनों व्यक्तित्वों को धयान देना होगा कि आम आदमी की इस तरह जगी आशाओं पा तुषारापात न हो.

देश की आज़ादी के संघर्ष में एक तरफ विदेशी शासन से मुक्ति के लिए जहां गांधीजी ने एक व्यापक जन आंदोलन खड़ा किया था, वहीं भगत सिंह सरीखे शिखर क्रांतिकारी ने एक सशक्त वैचारिक क्रांति को जन्म दिया था जिसमें उन्होंने अंग्रेजों को अदालत में ललकारते हुए भारत के उनके द्वारा शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी. एक ऐसे समाज की परिकल्पना प्रस्तुत की थी जिसमें एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे के शोषण के लिए कोई स्थान न हो. आज पुनरपि शोषण के विरुद्ध एक संघर्ष का आह्वान किया गया है जिसमें राष्ट्रहित सर्वोपरि वैचारिक अहिंसक क्रांति की आवश्यकता महसूस की जा रही है. जनता संघर्ष हेतु तत्पर है उसे कटिबद्ध, सशक्त एवं एकीकृत नेतृत्व चाहिए.

आज भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए आंदोलन में ऐसे ढांचे का निर्माण करते हुए दिशा निर्धारण की आवश्यकता है जिसमें भ्रष्टाचार के विषबीज कहाँ कहाँ और कितने गहरे ज़मीन में पैठे विषवृक्ष बनते जा रहे हैं उन्हें जड़ से उखाड़े जाने की प्रक्रिया शुरू की जा सके. उस सोच को बदले जाने की आवश्यकता है जो अपने हक से अधिक दूसरे का हक मारते हुए सुगम धन बनाने को प्रवृत्त करती है. उस तंत्र को बदलने की आवश्यकता है जो भारत के लोकतंत्र को भोगतंत्र बनाता है और जनप्रतिनिधियों को जनता के सेवक नहीं स्वामी बनाता है. मात्र नारेबाजी से अब देश की इस महती समस्या का समाधान संभव नहीं है. निस्वार्थ भावना के साथ इसकी सफलता के लिए सशक्त, बहुआयामी एवं कुशल रणनीति अपनाये जाने की आवश्यकता है.

स्पष्ट है कि एक लोकपाल विधेयक बन जाने से भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं होगा, लेकिन उसके उन्मूलन की दिशा में यह पहला कदम अवश्य सिद्ध हो सकता है. बशर्ते, कि लोकपाल किसी राजनीतिक दबाव से मुक्त रहे, उसे व्यापक अधिकार हों और उसके निष्कर्षों और निर्णयों को लागू करने का प्रावधान हो. अन्ना हजारे ने आज़ादी के इतिहास के पन्नों को पलट परख कर गांधीजी का अहिंसा मार्ग अपनाने के साथ साथ भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपने अभियान में जोड़ा है. शिवाजी की युद्धनीति का बखान तक किया है. प्रकटत: यह देश के समस्त समाज को जोड़ने के उद्देश्य से है. यही उचित भी है. बाबा रामदेव भी यही करते आए हैं जिससे उनके सामर्थ्य को अपूर्व विस्तार मिला है.

निस्संदेह, आज सशस्त्र क्रांति नहीं, अपितु निशस्त्र एवं सशक्त वैचारिक जन जागरण के साथ इस आन्दोलन को दिशा दी जाने की आवश्यकता है. देश अपना है, देश की सम्पति अपनी है, देश के राजनीतिक अपने हैं जो जनता की उभरती शक्ति की उपेक्षा नहीं कर सकते. आज जनता और उसके प्रतिनिधियों के बीच खाई को पाटने की आवश्यकता है. लेकिन इसके लिए भारत की जनता को अपनी शक्ति का सही अहसास होना भी समय की मांग है. वह जनता जिसे चुन कर सत्ता के गलियारों तक पहुंचाती है उसे निश्चय ही यह अधिकार भी होना चाहिए कि काम सही न होने से उन्हें वापस बुला सके. इसलिए राजतन्त्र में बदलाव की आवश्कता है. देश में न तो अन्ना हजारों की कमी है और न ही रामदेवों की. देश के भावी कर्णधार युवाओं की शक्ति देश को इस भ्रष्टाचार मुक्ति संघर्ष में विजयी बना सकती है. अनेक आगे आकर जूझने के लिए तत्पर प्रतीत होते हैं. इस वातावरण को बनाए रखने की आवश्यकता है.

कदम उठे हैं अब थमने नहीं चाहिएं. एक आंशिक विजय के बाद यदि थम गए तो फिर उठाने में मुश्किल आयेगी क्योंकि देश की जनता अब परिणाम चाहती है. जैसा उत्साह अन्ना अभियान और रामदेव के आह्वान संबोधनों में दिखा है उसे बनाए रखना और आगे बढ़ाने का उपक्रम करते रहना समस्त समाज के लिए आज इस मुक्ति आन्दोलन की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक है. भ्रष्टाचार मुक्त भारत ही विश्व अग्रणी बन सकता है अन्यथा नहीं.

 

मोदी की तारीफ पड़ सकती है मंहगी

अवनीश सिंह

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ अच्छे-अच्छे धर्मनिरपेक्षों को शर्मनिपेक्ष बनने पर मजबूर कर देती है। चाहे वो कट्टरपंथियों के गले की फांस बने दारुल उलूम (देश में शिया मुस्लिम समुदाय की सबसे बड़ी संस्था) के नए कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तनवी हों या भारतीय फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन। अब इस कड़ी में जो नया नाम जुड़ा है वो है नक्सलियों के दलालों से घिरे प्रख्यात समाजसेवी गांधीवादी अन्ना हजारे।

अन्ना ने नरेंद्र मोदी की तारीफ क्या कर दी इटलीपरस्त वफादारों को मानो हिस्टीरिया का दौरा पड़ गया हो। गाँधी के नाम पर रोटी तोड़ रहे कांग्रेसियों ने अपनी आका (मैडम सोनिया) को खुश करने के लिए मोर्चा संभाल लिया। अब ऐसे समय में भला दिग्गी राजा कैसे चुप रहते। दिग्गिलिक्स के खुलासों ने अन्ना हजारे जैसे लोकतंत्र के नए वाहक (मिडिया की नज़रों में आधुनिक गांधी) को भी भीगी बिल्ली बनने पर मजबूर कर दिया।

अंततः अन्ना को धर्मनिरपेक्ष का तमगा हासिल करने के लिए पत्रकार वार्ता कर कहने पर मजबूर होना पड़ा कि उन्होंने विकास की तारीफ की थी मोदी की नहीं, जब अन्ना हजारे जैसा मजबूत रीढ़ का आदमी कांग्रेसी हमले पर कोना पकड़ जाता है तो वाकई शर्म की बात है। लगता है अन्ना में भी तुष्टिकरण वाला गांधीवादी विषाणु प्रत्यारोपित कर दिया गया है।

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात से पहले ही वाकिफ हो चुके हैं, उन्होंने उसी समय समाजसेवी अन्ना हजारे से कहा कि ‘अन्ना आपने मेरे बारे में अच्छा क्यों बोला? आपको अब उन सामाजिक कार्यकर्ताओं का गुस्सा झेलना पड़ेगा जिन्हें गुजरात के नाम से ही चिढ़ है। ये लोग आपके खिलाफ दुष्प्रचार की मुहिम शुरू कर देंगे।’ यह बात उन्होंने हजारे को लिखे अपने खुले खत में कही है। मोदी ने लिखा है, ‘ कल मैंने मुझे और मेरे राज्य को दिए आपके आशीर्वाद के बारे में सुना। मुझे डर है कि अब आपके खिलाफ निंदा अभियान शुरू हो जाएगा। गुजरात के नाम से ही चिढ़ जाने वाला एक खास ग्रुप आपके प्यार, बलिदान, तपस्या और सच के प्रति समर्पण पर कालिख पोतने का मौका नहीं छोड़ेगा। वे आपकी छवि खराब करने की पूरी कोशिश करेंगे,सिर्फ इसलिए कि आपने मेरे और मेरे राज्य के बारे में कुछ अच्छा कहा।’

लोकतंत्र में अपने विचार प्रकट करने की सुविधा हर इंसान को है। अगर अन्ना हज़ारे ने मोदी के काम की तारीफ की तो किसी भी वर्ग (खासकर राजनीति को घर की खेती समझने वाली कांग्रेस पार्टी) को गुस्सा आने की जरूरत क्या है। अन्ना हज़ारे ने नीतीश कुमार के काम की भी तारीफ की है, अगर उनकी तारीफ से लोगों को एतराज़ नही है तो मोदी की तारीफ से क्यूँ? आज देश का विकास चाहने वाला यही कहेगा आप विकास कीजिए सारा देश आपके साथ है। जिन्हें कुछ नहीं करना है उन्हें केवल बोलने दीजिए।

एक खास वर्ग है जिसे देशभक्ति में कट्टरवाद दिखता है, केसरिया रंग के कपड़े पहनने वाले भगवा आतंकी के रूप में नज़र आते हैं, अलगाववादिओं के साथ कश्मीर को पाकिस्तान को देने की वकालत करते है, पेज 3 की पार्टी और शराब मे डूबकर रोज घर जाना, उनकी आदत में शुमार है। ऐसे लोगों को नीतीश, मोदी जैसे नेता ओर उनका विकास नही चाहिए, उनको राजनैतिक चुहलबाजी के लिए लालू (नौटंकी बाज़), अमर सिंह (शायरीबाज़), मुलायम जैसे लोग, या फिर अपनी छवि निखारने के लिए इन मीडिया के दलालों को ऐश करवाने वाले नेता (युवा गांधी), अभिनेता और राजनेता चाहिए। राष्ट्रवाद और विकास की बात करने वालों के खिलाफ तथाकथित सेकुलर लोग ज़रूर बोलते हैं, लेकिन जब देशद्रोही लोग सरे आम अलगाववाद, और पाकिस्तान के गीत गाते है तब ये अपने बिलों में घुसे रहते हैं और मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीतिक बिसात बिछाने में लग जाते है।

श्री रामजन्मभूमि अभियान : मंदिर निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर

रामनवमी पर विशेष

 

भारत की आत्मा श्रीराम – भारत एक धर्मप्राण देश है। समय-समय पर अनेक अवतारों ने यहां आकर इस देश और इसके निवासियों को ही नहीं, तो स्वयं को भी धन्य किया है। ऐसे ही एक महामानव थे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम। महर्षि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम श्रीरामकथा का उपहार हमें दिया। इसके बाद दुनिया की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में श्रीराम की महिमा लिखी गयी है। संविधान के तीसरे अध्याय में, जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख है, सबसे ऊपर श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण के चित्र बने हैं। इससे स्पष्ट है कि श्रीराम भारत की आत्मा हैं।

अयोध्या प्रकरण पर न्यायालय का निर्णय – यों तो अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के लिए हिन्दुओं द्वारा तब से संघर्ष जारी है, जब 1528 ई0 में उसे तोड़ा गया था; पर स्वराज्य प्राप्ति के बाद यह विवाद न्यायालय में चला गया। गत 30 सितम्बर, 2010 को इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने संविधान में मान्य हिन्दू कानून तथा पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर बहुत महत्व का निर्णय दिया है। इसमें सुन्नी बोर्ड के दावे को पूरी तरह निरस्त कर तीनों न्यायाधीशों ने एकमत से माना है कि –

-यह स्थान ही श्रीराम जन्मभूमि है।

-1528 में बाबरी ढांचे से पूर्व वहां एक गैरइस्लामिक (हिन्दू) मंदिर था।

एक न्यायाधीश ने तीनों गुम्बद (लगभग 1,500 वर्ग गज) वाला पूरा स्थान हिन्दुओं को, जबकि शेष दो ने 1/3 भाग मुसलमानों को भी देने को कहा है। यह विभाजन अव्यावहारिक, अनुचित और असंभव है। अतः पूरा स्थान हिन्दुओं को मिलना चाहिए। अयोध्या में कई मस्जिदें हैं; पर श्रीराम जन्मभूमि केवल यही है। पूरा स्थान मिलने से ही जन-जन की आकांक्षा और प्रभु श्रीराम की प्रतिष्ठा के अनुरूप भव्य मंदिर बन सकेगा।

इतिहास में अयोध्या – त्रेतायुग में श्रीराम का जन्म परम पावन सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या में हुआ। अयोध्या को लाखों साल से मोक्ष प्रदान करने वाली नगरी माना जाता है। यह आदिकाल से करोड़ों भारतवासियों की मान्यता है।

 

अयोध्या मथुरा माया, काशी कांची अवन्तिका

पुरी द्वारावती चैव, सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

 

अयोध्या सदा से भारत के सभी मत-पंथों के लिए पूज्य रही है। यहां जैन मत के पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ। भगवान बुद्ध ने यहां तपस्या की। गुरु नानक, गुरु तेगबहादुर एवं गुरु गोविंद सिंह जी भी यहां पधारे। दुनिया भर के इतिहासकारों और विदेशी यात्रियों की पुस्तकों के हजारों पृष्ठ अयोध्या की महिमा से भरे हैं। विश्व में प्रकाशित सभी प्रमुख मानचित्र पुस्तकों (एटलस) में अयोध्या को प्रमुखता से दर्शाया गया है।

 

 

इस्लाम का उदय और मंदिर पर आक्रमण – 712 ई0 से मुस्लिम सेनाओं के आक्रमण शान्त और सम्पन्न भारत पर होने लगे। 1526 ई0 में बाबर भारत और 1528 ई0 में अयोध्या आया। उसके आदेश पर उसके सेनापति मीरबाकी ने श्रीराम मंदिर पर आक्रमण किया। 15 दिन के घमासान युद्ध में मीरबाकी ने तोप के गोलों से मंदिर गिरा दिया। इस युद्ध में 1.74 लाख हिन्दू वीर बलिदान हुए। फिर उसने दरवेश मूसा आशिकान के निर्देश पर उसी मलबे से एक मस्जिद जैसा ढांचा बनवा दिया। चूंकि यह काम हड़बड़ी और हिन्दुओं के लगातार आक्रमणों के बीच हो रहा था, इसलिए उसमें मस्जिद की अनिवार्य आवश्यकता मीनार तथा नमाज से पूर्व हाथ-पांव धोने (वजू) के लिए जल का स्थान नहीं बन सका।

मंदिर-प्राप्ति के प्रयत्न – इस घटना के बाद मंदिर की प्राप्ति हेतु संघर्ष का क्रम चल पड़ा। 1528 से 1949 ई0 तक हुए 76 संघर्षों का विवरण इतिहास में मिलता है। राजा से लेकर साधु-संन्यासी और सामान्य जनता ने इन युद्धों में भाग लिया। पुरुष ही नहीं, स्त्रियों ने भी प्राणाहुति दी। इस बीच कुछ मध्यस्थों के प्रयास से वहां बने ‘राम चबूतरे’ पर हिन्दू पूजा करने लगे। लोग ढांचे वाले उस परिसर की परिक्रमा भी करते थे। अंग्रेजी शासन में अंतिम बड़ा संघर्ष 1934 में बैरागियों द्वारा किया गया। उसके बाद वहां फिर कभी नमाज नहीं पढ़ी गयी।

समाधान का असफल प्रयास – 1857 के स्वाधीनता संग्राम के समय सरदार अमीर अली के नेतृत्व में स्थानीय मुसलमान यह स्थान छोड़ने को तैयार हो गये थे। इस वार्ता में हिन्दुओं के प्रतिनिधि बाबा राघवदास थे; पर अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाये रखने के लिए दोनों को फांसी दे दी। इससे मामला फिर लटक गया।

श्रीरामलला का प्राकट्य एवं तालाबन्दी – इस मामले में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भक्तों ने 23 दिसम्बर, 1949 को ढांचे में श्रीरामलला की मूर्ति स्थापित कर पूजा-अर्चना प्रारम्भ कर दी। प्रधानमंत्री नेहरू जी ने मूर्ति को हटवाना चाहा; पर प्रबल जनभावना को देख मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत यह साहस नहीं कर सके। जिलाधिकारी श्री नायर ने वहां ताला डलवा कर शासन की ओर से पुजारी नियुक्त कर पूजा एवं भोग की व्यवस्था कर दी।

न्यायालय में वाद – जनवरी, 1950 में दो श्रद्धालुओं के आग्रह पर न्यायालय ने श्रीरामलला के नित्य दर्शन, पूजन एवं सुरक्षा की व्यवस्था की। 1959 में निर्मोही अखाड़े ने तथा 1961 में केन्द्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड ने स्वामित्व हेतु वाद दायर किये। न्यायालय में सुनवाई के बीच वहां पूजा, अर्चना और भक्तों का आगमन जारी रहा।

आंदोलन के पथ पर हिन्दू – 1983 में मुजफ्फरनगर (उ0प्र0) में हुए हिन्दू सम्मेलन में दो वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं, पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री गुलजारीलाल नन्दा तथा उ0प्र0 शासन के पूर्व मंत्री श्री दाऊदयाल खन्ना ने केन्द्र शासन से कहा कि वह संसद में कानून बनाकर श्रीराम जन्मभूमि, श्रीकृष्ण जन्मभूमि तथा काशी विश्वनाथ मंदिर हिन्दुओं को सौंप दे, जिससे देश में स्थायी सद्भाव स्थापित हो सके; पर शासन ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

यह देखकर हिन्दुओं को ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ के बैनर पर आंदोलन का मार्ग अपनाना पड़ा। अक्तूबर, 1984 में ‘श्रीराम जानकी रथ’ की यात्रा द्वारा जन जागरण प्रारम्भ कर सबसे पहले रामलला को ताले से मुक्त करने की मांग की गयी। दबाव बढ़ते देख शासन ने 1 फरवरी, 1986 को ताला खोल दिया।

जन जागरण द्वारा मंदिर निर्माण की ओर – इसके बाद हिन्दुओं के सभी मत-पंथ के धर्मगुरुओं ने ‘श्रीराम जन्मभूमि न्यास’ का गठन किया। जुलाई, 1989 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री देवकीनंदन अग्रवाल ने न्यायालय से सम्पूर्ण परिसर को श्रीरामलला की सम्पत्ति घोषित करने को कहा। न्यायालय ने सब वाद लखनऊ की पूर्ण पीठ को सौंप दिये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद की प्रमुख भूमिका के कारण यह अभियान जनांदोलन बन गया। सितम्बर, 1989 में भारत के 2.75 लाख गांवों व नगरों के मंदिरों में श्रीराम शिलापूजन सम्पन्न हुआ। 6.25 करोड़ लोगों ने इसमें भागीदारी की। विदेशस्थ हिन्दुओं ने भी शिलाएं भेजीं।

जनदबाव के चलते केन्द्र तथा राज्य शासन को झुकना पड़ा और 9 नवम्बर, 1989 को प्रमुख संतों की उपस्थिति में शिलान्यास सम्पन्न हुआ। पहली ईंट बिहार से आये वंचित समाज के रामभक्त कामेश्वर चौपाल ने रखी। मंदिर आंदोलन समरसता की गंगोत्री बन गया।

1990 में कारसेवा – जून, 1990 में हरिद्वार के हिन्दू सम्मेलन में पूज्य सन्तों व धर्माचार्यों ने मंदिर निर्माण हेतु कारसेवा की घोषणा कर दी। 30 अक्तूबर को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की गर्वोक्ति के बाद भी कारसेवकों ने गुम्बदों पर भगवा फहरा दिया। बौखला कर उसने 2 नवम्बर को गोली चलवा दी, जिसमें कई कारसेवक बलिदान हुए। इस नरसंहार से पूरा देश आक्रोशित हो उठा। मुलायम सिंह को हटना पड़ा। नये चुनाव में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा ने सत्ता संभाली। हिन्दू मंदिर निर्माण की ओर क्रमशः आगे बढ़ रहे थे।

भूमि का समतलीकरण – प्रदेश शासन ने तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए विवादित स्थल के पास 2.77 एकड़ भूमि अधिग्रहित कर ली। उसे समतल करते समय अनेक खंडित मूर्तियां तथा मंदिर के अवशेष निकले।

1992 में कारसेवा – अक्तूबर, 1992 में दिल्ली में हुई ‘धर्म संसद’ में पूज्य धर्माचार्यों ने गीता जयन्ती (मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, छह दिसम्बर, 1992) से फिर कारसेवा का निर्णय लिया। दीपावली पर अयोध्या से आई ‘श्रीराम ज्योति’ से घर-घर दीप जलाये गये।

प्रदेश शासन के अधिग्रहण को मुसलमानों द्वारा न्यायालय में दी गयी चुनौती की याचिका पर नवम्बर 1992 में सुनवाई पूरी हो गयी। दोनों हिन्दू न्यायमूर्तियों ने निर्णय लिख दिया; पर तीसरे श्री रजा ने इसके लिए 12 दिसम्बर, 1992 की तिथि घोषित की। इससे अयोध्या आये दो लाख कारसेवकों के आक्रोश से वह जर्जर बाबरी ढांचा धराशायी हो गया। इस प्रक्रिया में 1154 ई0 का वह शिलालेख भी मिला, जिस पर गहड़वाल राजाओं द्वारा मंदिर निर्माण की बात लिखी थी। कारसेवकों ने एक अस्थायी मंदिर निर्माण कर रामलला की पूजा प्रारम्भ कर दी।

केन्द्र शासन द्वारा हस्तक्षेप – अब केन्द्र सरकार की कुंभकर्णी निद्रा खुली। उसने 7 जनवरी, 1993 को विवादित क्षेत्र तथा उसके पास की 67 एकड़ भूमि अधिग्रहीत कर ली। इसी समय महामहिम राष्ट्रपति डा0 शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से पूछा कि क्या 1528 से पूर्व वहां कोई हिन्दू मंदिर या भवन था ? सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रश्न प्रयाग उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को सौंप दिया।

इधर केन्द्र के अधिग्रहण को इस्माइल फारुखी ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस पर बहस में शासन ने लिखित शपथ पत्र में कहा कि अंतिम निर्णय के बाद उस स्थान पर यदि हिन्दू मंदिर या भवन सिद्ध होगा, तो वह उसे हिन्दुओं को लौटाने को प्रतिबद्ध है। ऐसा न होने पर मुसलमानों की इच्छा का सम्मान किया जाएगा।

राडार सर्वेक्षण एवं उत्खनन – न्यायालय ने कहा कि यदि किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी है, तो उसके अवशेष धरती के नीचे अवश्य होंगे। उसके आदेश पर कनाडा के वैज्ञानिकों ने राडार सर्वेक्षण से भूमि के नीचे के चित्र लिये। प्राप्त चित्रों तथा इनकी पुष्टि के लिए हुए उत्खनन से वहां प्राचीन मंदिर था, यह सिद्ध हुआ। न्यायालय का 30 सितम्बर, 2010 का निर्णय इन प्रमाणों पर ही आधारित है।

वार्ताओं का क्रम – पूज्य सन्तों, विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह इच्छा थी कि भारतीय मुसलमान स्वयं को बाबर जैसे विदेशी आक्रामकों से न जोड़ें और प्रेम से वह स्थान हिन्दुओं को दे दें। गांधी जी ने भी अपने समाचार पत्र ‘नवजीवन’ में 27.7.1937 को यही कहा था। सब समझदार मुसलमान भी इस पक्ष में थे; पर बात नहीं बनी। अतः प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और फिर नरसिंह राव ने दोनों पक्षों को वार्ता के लिए बुलाया। वार्ता की असफलता से न्यायालय का मार्ग ही शेष बचा, जिसके निर्णय से सत्य की जीत हुई है।

चुनौती और संकल्प – आज भी प्रभु श्रीराम बांस और टाट के उस अस्थायी मंदिर में विराजित हैं। हर दिन हजारों भक्त उनके दर्शन करते हैं। हमारी मांग है कि सोमनाथ मंदिर की तरह ही संसद कानून बना कर श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं को सौंपे, जिससे वहां भव्य मंदिर बन सके।

मंदिर निर्माण से राष्ट्र निर्माण – श्रीराम केवल हिन्दुओं के ही नहीं, भारतीय मुसलमान और ईसाइयों के भी पूर्वज हैं। भारत माता सबकी माता है। सब एक संस्कृति के उपासक और एक ही समाज के अंग हैं। न्यायालय का निर्णय मुसलमानों को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार का अवसर देता है। मंदिर निर्माण में सब मत, पंथ और मजहब वालों के सहयोग से स्थायी सद्भाव का निर्माण होगा और देश तेजी से प्रगति करेगा। इससे भारत में रामराज्य की कल्पना साकार होगी, जो आज भी विश्व में आदर्श माना जाता है। आइये, श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए हम सब संकल्प लें। जय श्रीराम।

अन्ना के विचार यदि किसी एक संगठन से ज्यादा मिलते हैं तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

 

हाल के दिनों में अन्ना हजारे के बारे में तरह तरह के मिथों का प्रचार करके कारपोरेट मीडिया ने किया है। कारपोरेट मीडिया की अति सक्रियता ने पहला संदेश यह दिया है कि कारपोट मीडिया अब बुद्धिहरण और विवेकहरण का औजार बन गया है। वे एक ऐसा काल्पनिक जगत बनाने में लगे हैं और उस जगत में आम जनता को ठेलने की कोशिश कर रहे हैं जो प्रतिगामी है।

अन्ना हजारे के तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की परतें खोलने के साथ साथ अन्ना हजारे के आसपास निर्मित वातावरण पर भी हमें नजर रखनी चाहिए। अन्ना को जो लोग देवता मान रहे हैं और उनके जरिए लोकतंत्र का सुंदर भविष्य देख रहे हैं वे नहीं जानते कि अन्ना की राजनीति क्या है ?

अन्ना की राजनीति ,खासकर पर्यावरण राजनीति के आधार पर उनके वास्तव स्वरूप को जाना जा सकता है। दुख की बात है कि अन्ना की राजनीति को कारपोरेट मीडिया भारत की भावी राजनीति बनाना चाहता है। अन्ना के प्रति व्यक्तिगत आग्रहों-पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर हमें गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए कि अन्ना ने अपने कर्मक्षेत्र वाले गांवों में आखिरकार कैसी राजनीतिक संस्कृति रची है ? मीडिया ने सारे देश में किन लोगों को अन्ना के पीछे गोलबंद किया है ?अन्ना अंततः किस तरह की राजनीतिक शक्तियों के हाथों में खेल रहे हैं और जमीनी स्तर पर किस तरह की राजनीति कर रहे हैं ? इन सवालों के उत्तर अन्ना के कर्मक्षेत्र के माहौल में छिपे हैं। अन्ना के राजनीतिक सोच में छिपे हैं।

अन्ना की एनजीओ राजनीति का आधार लोकतंत्र नहीं संघ मार्का हिन्दू धर्म है। इसका वे अपने हरित गांवों में इस्तेमाल कर रहे हैं। अन्ना की राजनीति को खासकर भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को जो लोग जाति, धर्म, राष्ट्र, लिंग, राष्ट्रवाद, अतिवादी राष्ट्रवाद आदि से परे मानते हैं वे विभ्रम के शिकार हैं। प्रसिद्ध पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता मुकुल शर्मा ने अपने एक लेख में यह बात कही है। यह लेख काफिला डॉट कॉम पर छपा है।

इस लेख का महत्व यह है कि इसमें मुकुल शर्मा ने व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर अन्ना हजारे का विश्लेषण किया है। अन्ना हजारे के विचारधारात्मक चरित्र को जानना इसलिए भी जरूरी है कि उससे हमें उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की संभावनाओं को समझने में मदद मिल सकती है। अन्ना हजारे को सैलीब्रिटी के रूप में मीडिया ने पेश किया है। मुकुल ने पर्यावरण और संकीर्णतावाद के अन्तस्संबंध के संदर्भ में अन्ना ङजारे का विवेचन किया है। इससे यह भी अंदाजा लगेगा कि अन्ना किस तरह का नागरिक समाज बनाना चाहते हैं।

अन्ना हजारे के महाराष्ट्र स्थित रेलीगन सिद्धी गांव के पर्यावरण संबंधी कामों की बड़ी प्रशंसा हुई है और उसे सत्ता की खास किस्म की वर्चस्वशाली विचारधारा से भी खुराक मिलती रही है और बदले में वे शासकीय विचारधारा की सेवा करते रहे हैं। मुकुल शर्मा ने लिखा है –

“The rural environmental works by Anna Hazare in Ralegan Sidhi village in Maharashtra have been hailed widely, which are fed by, and feed into, certain dominant political cultures of the state. Though developmental and environmental works form the core of his ideological structures, they include other important issues. A belief system of force and punishment, liberal use of Hindu religious symbols, strict rules and codes, evocation of nationalism and ultra-nationalism, ‘pure’ morality and caste hierarchies, with a marginalisation of women, Muslims and Dalits, form the core of his village regeneration. The basis for the authority of Anna comes from a belief system, where the people following him consider it their natural duty to obey, and the exercising person thinks it a natural right to rule. Thus a former village sarpanch of the region states: ‘Whatever Anna says, we do. The whole village follows his words. Anna’s orders work like the army.’ For another villager, ‘Annajee is like God.’ The absolute recognition of an authority locally works in several internalised ways.”

 

“In the process of social transformation, Anna believes that advice, persuasion or counselling do not always work and occasionally force has to be applied. Force can be applied in many forms, physical and social, and often the simple persistent fear of its application regulates society. Force gives a safe and solid grounding to socially accepted values. It is not only Anna Hazare who proposes flogging and fear as essential parts of a green village; it has its wide audience in the village.”

 

आज अन्ना का एक ईमेल मीडिया में आया है जो उन्होंने मल्लिका साराभाई के लिए लिखा है जिसमें अन्ना ने कहा है कि मैं जातिप्रथा को नहीं मानता। लेकिन मुकुल ने साफ लिखा है कि अन्ना अपने कर्मक्षेत्र में ग्राम्य निर्माण की आड़ में हिन्दू धार्मिक प्रतीकों , उनके कठोर नियमों और कोडस का व्यापक इस्तेमाल करते रहे हैं। साथ ही राष्ट्रवाद और अति राष्ट्रवाद को उभारते रहे हैं। शुद्ध नैतिकता की आड़ में वे जाति श्रेष्ठत्व और हायरार्की को भी उभारते रहे हैं और इस क्रम में उन्होंने दलित, स्त्री, अल्संख्यकों आदि को हाशिए पर डाल दिया है।

अन्ना के गांवों में उनकी आवाज अंतिम आवाज होती है। मुकुल की बात मानें तो अन्ना ने एकदम फासिस्टों की राजनीति से मिलता जुलता वातावरण इस क्षेत्र में बनाया है। हिन्दू धर्म, भय और ताकत इन तीन तत्वों का वे अपने हरे गांवों के निर्माण के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है मुकुल शर्मा , भारत के उन चंद पत्रकारों में आते हैं जिनकी रिपोर्टिंग विश्वसनीय और लोकतांत्रिक राजनीति के पैराडाइम पर आधारित रही है। विकासमूलक पत्रकारिता में मुकुल शर्मा का क्षेष्ठतम योगदान रहा है। वे इन दिनों एमनेस्टी इंटरनेशनल के भारत में प्रधान हैं।

मुकुल ने रेखांकित किया है अन्ना की हरे गांव की राजनीति जिन इलाकों में हैं वहां पर वास्तव में अन्ना का तालिबानी शासन चलता है। मुकुल के शब्दों में-

 

” environmentally sound Ralegan Sidhi, religious symbols are core vehicles for transformation and imposition. Its embodiment in certain places/people legitimises them. The command-obedience relationship also gets its rationale from the belief that a God or a temple is ‘supreme’ and any decision taken in front of them must be obeyed. According to Hazare, Lord Rama set an ideal before every citizen of how to conduct everyday life by his own example. There is need for Lord Shri Krishna to reincarnate and save the country.”

 

” It is not only environmental rules, but also rules governing the entire socio-political life of people that make an authority acceptable. Those who make these rules and those who obey them are legitimate; others illegitimate/illegal. Anna Hazare is deeply concerned with rules and norms with a definite model: “The daily routine enforced in the army such as getting up early in the morning, jogging and physical training thereafter, cleanliness of body, clothing, living quarters and the neighbourhood etc. led to development of a disciplined life, benefits of which I am availing of even today. The habit of giving due respect and regard to the seniors by age, post, or competence was inculcated in us…. This has helped me in conducting the village development work at Ralegan Siddhi according to the rules and regulations decided by us by common consent.” ”

 

अन्ना के गांव की वास्तविकता यह है कि इस इलाके की अनेक मायनों में तालिबानी सांस्कृतिक परिस्थितियां हैं। मुकुल ने आगे लिखा है-

 

“Villagers normally say that their village works like an army. As a commandant, Anna orders and we follow. Army discipline is the ideal. The path of rural development here depends in a large measure on many other ‘dos’ and ‘don’ts’. No shop in Ralegan can sell bidis or cigarettes. Film songs and movies are not allowed. Only religious films, like Sant Tuka Ram, Sant Gyaneshwar can be screened. Only religious songs are allowed on loudspeakers at the time of marriages. It is emphasised in the village that the villagers themselves decided not to sell bidis in their shops; they themselves do not watch films or listen to film songs. However, the language of acquiescence can be highly brahaminical and hegemonic.”

 

हरित गांवों में अन्ना का जो सांस्कृतिक नजरिया व्यवहार में लागू किया जा रहा है उसमें साम्प्रदायिक कठमुल्लेपन और फासिज्म के अनेक तत्व सक्रिय हैं। मुकुल ने आगे लिखा है- “The concept of morality and subsequent codes/behaviours/practices based on it are important elements in the notion of development. Anna’s concern with the moral is couched in his discourse of the nation that exercise control over the private and the public, the personal and the political. For school children there is moral education and practice, comprising physical training, body building, patriotism, obedience, samskars and Hindu culture. Doing surya namaskar and chanting Om is regular for the students. For women, it is stressed that they should certainly look after the household but they must also participate in activities intended to help their community and country. It is stated, ‘Woman is the Universal Mother, The Great Mother. Many such Great Mothers have given birth to Great Sons — Chhatrapati Shivaji Maharaj, Swami Vivekananda for instance.’ She is also a symbol of purity, sublime as well as innate strength. It is significant that much of the problematisation of morality of children, youth and village is done in the context of influence of western, modern culture. ‘Western lifestyle’, ‘modern development’ and ‘invasion of western culture’ invariably emerge as repeated expressions, signifying the collapse of morality in modern India.”

 

क्या अन्ना हजारे के बारे में इतने व्यापक एक्सपोजर के बाद भी यह कहने की जरूरत है कि अन्ना स्वभाव से लोकतंत्र में नहीं हिन्दूतंत्र में विश्वास करते हैं और हिन्दूतंत्र के भी सबसे संकीर्ण और पिछड़े हुए विचारों, व्यवहार, संस्कार आदि का अभ्यास करते रहे हैं। उनके इस तरह के विचारों का विवेकानन्द , गांधी, आम्बेडकर , विनोवा भावे आदि के विचारों के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अन्ना के विचार यदि किसी एक संगठन से ज्यादा मिलते हैं तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।

हिन्दू संस्कृति का विशाल वट वृक्ष

विजय कुमार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में एक गीत प्रायः बोला जाता है –

हिन्दू संस्कृति के वट विशाल

तेरी चोटी नभ छूती है, तेरी जड़ पहुंच रही पाताल।।

इस गीत की भावना के अनुरूप आज संघ एक विराट वट वृक्ष बन गया है। संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी रुचि, प्रवृत्ति एवं आवश्यकता के अनुरूप समाज जीवन के हर क्षेत्र में संस्थाएं तथा संगठन बनाये हैं, जिनसे पूरी दुनिया में हिन्दुत्व का विचार क्रमशः तेजी पकड़ रहा है। अरबों-खरबों रुपये और सत्ता की शक्ति झोंकने के बावजूद देशी-विदेशी षड्यन्त्रकारी मुंह की खा रहे हैं। इसका एकमात्र कारण है संघ का शास्त्रशुद्ध विचार तथा वटवृक्ष की गहरी जड़ों की तरह फैले उसके सैकड़ों समविचारी संगठन।

प्रतिवर्ष मार्च मास में होने वाली अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में इन संगठनों के प्रतिनिधि अपने कार्य की जानकारी सबको देते हैं। इस वर्ष भी 11 से 13 मार्च, 2011 को पुत्तूर (कर्नाटक) में ऐसे सब कार्यकर्ता आये। वहां संघ शाखाओं की जानकारी देते हुए सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने बताया कि इस समय देश भर के 27,078 स्थानों पर 39,908 दैनिक शाखाएं, 7,990 स्थानों पर साप्ताहिक मिलन तथा 6,431 स्थानों पर मासिक संघमंडली चल रही हैं।

गत वर्ष में देश भर में कुछ विशिष्ट कार्यक्रम भी सम्पन्न हुए। संघ के कुछ कार्यकर्ता घोष (बैंड) बजाना सीखते हैं। नगर, जिला, प्रांत आदि के अनुसार इनके शिविर समय-समय पर होते रहते हैं। इस वर्ष घोष का केन्द्रीय शिविर लखनऊ में हुआ, जिसमें 298 कार्यकर्ता उपस्थित हुए। मेरठ में डिग्री तथा उससे आगे पढ़ने वाले 2,247 छात्रों का एक तीन दिवसीय शिविर भी उल्लेखनीय है। ये छात्र मेरठ और उसके निकटवर्ती 15 जिलों के ही थे। पंजाब में महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालयों के अध्यापकों के सम्मेलन में 248 लोग सहभागी हुए। इनमें अनेक विभागाध्यक्ष, डीन तथा उपकुलपति भी थे।

मध्य प्रदेश में इंदौर के आसपास मालवा प्रांत में पांच स्थानों पर हुए पथसंचलन में 43,600 पूर्ण गणवेशधारी स्वयंसेवक तथा वहां के 20 जिलों में हुए शीत शिविरों में 10,387 स्वयंसेवक सहभागी हुए। भारत में गंगा की तरह नर्मदा नदी के प्रति भी बहुत आदर व श्रद्धा का भाव है। फरवरी मास में नर्मदा जयंती पर हुए तीन दिवसीय मां नर्मदा सामाजिक कुंभ में हजारों प्रतिष्ठित संत, धर्माचार्य तथा 30 लाख लोग आये। स्वयंसेवकों ने पांच लाख से भी अधिक परिवारों से सम्पर्क कर कुंभ के लिए 386 टन अनाज एकत्र किया।

कर्नाटक के उत्तरी भाग में आई बाढ़ के कारण विस्थापित हुए 180 गांवों में स्वयंसेवकों ने सहायता सामग्री पहुंचाई। सेवाभारती ने वहां नौ ग्रामों में 1,680 मकान बनाने का निर्णय लिया है। हिन्दू समाज के सभी मत, पंथ, सम्प्रदाय व समुदायों में परस्पर सामंजस्य बना रहे, इस नाते देश भर में प्रयास चल रहे हैं। महाराष्ट्र में इन प्रयासों मंे विशेष सफलता मिली है। मिशनरियों द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण के षड्यन्त्रों को विफल करने के लिए अनेक साधु संत प्रवास करते हैं। देवगिरी में करवीरपीठ के पूज्य शंकराचार्य की पदयात्रा से इस क्षेत्र में भरपूर लाभ हुआ। प्रायः सभी प्रांतों में इस प्रकार के कुछ विशेष कार्यक्रम सम्पन्न हुए।

कश्मीर की स्थिति लगातार चिंताजनक बनी है। इस बारे में देश को जागरूक करने के लिए कश्मीर विलय दिवस (26 अक्तूबर) को शाखाओं पर तथा सार्वजनिक रूप से लगभग 10,000 कार्यक्रम हुए। ग्राम्य विकास में लगे कार्यकर्ताओं का सम्मेलन कन्याकुमारी तथा मथुरा में हुआ। हिन्दू आतंकवाद के नाम पर किये जा रहे षड्यन्त्र के विरोध में 10 नवम्बर, 2010 को देश भर में 750 स्थानों पर हुए धरनों में 11 लाख लोगों ने भाग लिया।

30 सितम्बर, 2010 को न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि के पक्ष में निर्णय दिया। अब विश्व भर के हिन्दुओं की इच्छा है कि अयोध्या में शीघ्र ही भव्य श्रीराम मंदिर बने। इस निर्णय से पूर्व पूज्य साधु-संतों के नेतृत्व में 11, 467 स्थानों पर हनुमत शक्ति जागरण यज्ञ सम्पन्न हुए, जिनमें 64 लाख लोग सहभागी हुए।

संस्कृत भाषा के प्रति जागृति लाने हेतु विभिन्न संस्थाएं प्रयासरत हैं। इनके साथ मिलकर सात से दस जनवरी, 2011 को बंगलौर में विश्व संस्कृत पुस्तक मेला सम्पन्न हुआ। इसमें 14 संस्कृत वि0वि0, 128 प्रकाशकों तथा चार लाख लोगों ने भाग लिया। इसमें 12 अन्य देशों के प्रतिनिधि भी आये। अपनी आजीविका के लिए विदेश में रहने वाले स्वयंसेवकों के लिए 29 दिसम्बर, 2010 से तीन जनवरी, 2011 तक पुणे में विश्व संघ शिविर सम्पन्न हुआ। इसमें 35 देशों के 330 स्वयंसेवक सपरिवार आये। पूरी दुनिया को पांच क्षेत्रों (अमरीका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका तथा एशिया) में बांटकर, जिन देशों में हिन्दू हैं, वहां साप्ताहिक, मासिक या उत्सवों में मिलन के माध्यम से काम हो रहा है।

स्वयंसेवक शाखा के अतिरिक्त अनेक सामाजिक क्षेत्रों में भी काम कर रहे हैं। निस्वार्थ भाव एवं लगन के कारण ऐसे सब कार्यां ने उस क्षेत्र में अपनी एक अलग व अग्रणी पहचान बनाई है।

भारत के वनों व पर्वतों में रहने वाले हिन्दुओं को अंग्रेजों ने आदिवासी कहकर शेष हिन्दू समाज से अलग करने का षड्यन्त्र किया। दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी यही गलत शब्द प्रयोग जारी है। ये वही वीर लोग हैं, जिन्होंने विदेशी मुगलों तथा अंग्रेजों से टक्कर ली है; पर वन-पर्वतों में रहने के कारण वे विकास की धारा से दूर रहे गये। इनके बीच स्वयंसेवक ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ नामक संस्था बनाकर काम करते हैं। इसकी 29 प्रान्तों में 214 इकाइयां हैं। इनके द्वारा शिक्षा, चिकित्सा, खेलकूद और हस्तशिल्प प्रशिक्षण आदि के काम चलाये जाते हैं।

संघ का कार्य केवल पुरुष वर्ग के बीच चलता है; पर उसकी प्रेरणा से महिला वर्ग में ‘राष्ट्र सेविका समिति’ काम करती है। इस समय देश में उसकी 5,000 शाखाएं हैं। इसके साथ ही समिति 750 सेवाकार्य भी चलाती है। ‘क्रीड़ा भारती’ निर्धन, वनवासी व ग्रामीण क्षेत्र में छिपी हुई प्रतिभाओं को सामने लाने का प्रयास कर रही है। यह विद्यालयों में सूर्यनमस्कार को भी लोकप्रिय कर रही है। इस वर्ष सूर्य सप्तमी पर करोड़ों छात्रों ने सूर्यनमस्कार किये। संस्था खिलाड़ियों के माता-पिता को भी सम्मानित करती है।

धर्मान्तरण के षड्यन्त्रों को विफल करने के लिए धर्म जागरण के प्रयासों के अन्तर्गत 110 जाति समूहों में सेवा कार्य प्रारम्भ करने की योजना बनी है। इसमें से 70 जाति समूहों में यह कार्य प्रारम्भ हो गया है। इसके साथ ही वंशावली संरक्षण एवं संवर्धन संस्थान भी काम कर रहा है। सेवा के कार्य में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ भी लगा है। गोंडा एवं चित्रकूट का प्रकल्प इस नाते उल्लेखनीय है।

राजनीतिक क्षेत्र में ‘भारतीय जनता पार्टी’ की छह राज्यों में अपनी तथा तीन में गठबंधन सरकार है। पिछले कुछ समय से कार्यकर्ता प्रशिक्षण तथा बूथ समिति बनाने पर आग्रह किया जा रहा है।

समाज के प्रबुद्ध तथा सम्पन्न वर्ग की शक्ति को आरोग्य सम्पन्न, आर्थिक रूप से स्वावलम्बी तथा समर्थ भारत के निर्माण में लगाने के लिए ‘भारत विकास परिषद’ काम करती है। परिषद द्वारा संचालित देशभक्ति समूह गान प्रतियोगिता तथा विकलांग सहायता योजना ने पूरे देश में एक विशेष पहचान बनायी है। इसके अतिरिक्त परिषद 1545 सेवा कार्य भी चला रही है।

1975 के बाद से संघ प्रेरित संगठनों ने सेवा कार्य को प्रमुखता से अपनाया है। ‘राष्ट्रीय सेवा भारती’ के बैनर के नीचे इस समय लगभग 400 संस्थाएं काम कर रही हैं। सेवा कार्य करने वाली अन्य संस्थाओं को भी प्रशिक्षण दिया जाता है। विकलांगों में कार्यरत ‘सक्षम’ नामक संस्था की 102 नगरों में इकाई गठित हो चुकी है। नेत्र सेवा के क्षेत्र में इसका कार्य उल्लेखनीय है।

आयुर्वेद तथा अन्य विधाओं के चिकित्सकों को ‘आरोग्य भारती’ के माध्यम से संगठित किया जा रहा है। इनके द्वारा आरोग्य मित्रों को प्रशिक्षित कर सस्ती और घरेलू चिकित्सा का प्रचार करने का प्रयास जारी है। जहां एक ओर विद्यालयों में स्वास्थ्य परीक्षण कराया जाता है, वहां स्वास्थ्य ज्ञान परीक्षा द्वारा छात्रों को स्वास्थ्य संबंधी सामान्य जानकारी दी जाती है। इस वर्ष 45,000 छात्रों ने इस परीक्षा में भाग लिया। ‘नैशनल मैडिकोज आर्गनाइजेशन’ द्वारा ऐसे ही प्रयास एलोपैथी चिकित्सकों को संगठित कर किये जा रहे हैं।

‘चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी हो’ के स्थान पर ‘देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम’ की अलख जगाने वाले ‘भारतीय मजदूर संघ’ का देश के सभी राज्यों के 550 जिलों में काम है। अब धीरे-धीरे असंगठित मजदूरों के क्षेत्र में भी कदम बढ़ रहे हैं। ‘भारतीय किसान संघ’ ने बी.टी बैंगन के विरुद्ध हुई लड़ाई में सफलता पाई। ‘स्वदेशी जागरण मंच’ का विचार केवल भारत में ही नहीं, तो विश्व भर में स्वीकार्य होने से विश्व व्यापार संगठन मृत्यु की ओर अग्रसर है। मंच के प्रयास से खुदरा व्यापार में एक अमरीकी कंपनी का प्रवेश को रोका गया तथा जगन्नाथ मंदिर की भूमि वेदांता वि0वि0 को देने का षड्यन्त्र विफल किया गया।

ग्राहक जागरण को समर्पित ‘ग्राहक पंचायत’ का काम भी 135 जिलों में पहुंच गया है। 24 दिसम्बर को ग्राहक दिवस तथा 15 मार्च को क्रय निषेध दिवस के आयोजन को अनेक स्थानों पर अच्छा प्रतिसाद मिला। ‘सहकार भारती’ के 680 तहसीलों में 20 लाख सदस्य हैं। इसके माध्यम से मांस उद्योग को 30 प्रतिशत सरकारी सहायता बंद करायी गयी। अब सहकारी क्षेत्र को करमुक्त कराने के प्रयास जारी हैं। ‘लघु उद्योग भारती’ मध्यम श्रेणी के उद्योगों का संगठन है। इसकी 26 प्रांतों में 100 इकाइयां हैं।

शिक्षा क्षेत्र में ‘विद्या भारती’ द्वारा 15,000 विद्यालय चलाये जा रहे हैं, जिनमें एक लाख आचार्य 33 लाख शिक्षार्थियों को पढ़ा रहे हैं। इनके माध्यम से 25 लाख परिवार सम्पर्क में हैं। इसके अतिरिक्त 10,000 अन्य विद्यालय भी विद्या भारती के पाठ्यक्रम का प्रयोग करते हैं। बाल पत्रिका देवपुत्र के इस समय 3,68,000 पाठक हैं। शिक्षा बचाओ आंदोलन द्वारा पाठ्य पुस्तकों में से वे अंश निकलवाये गये, जिनमें देश एवं धर्म के लिए बलिदान हुए हुतात्माओं के लिए अभद्र विशेषण प्रयोग किये गये थे।

‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ का 5,604 महाविद्यालयों में काम है। इसके माध्यम से शिक्षा के व्यापारीकरण के विरुद्ध व्यापक जागरण किया जा रहा है। सांसदों से सम्पर्क कर इस बारे में कानून बनवाने का प्रयास भी हो रहा है। ‘भारतीय शिक्षण मंडल’ शिक्षा में भारतीयता संबंधी विषयों को लाने के लिए प्रयासरत है। सभी स्तर के 7.5 लाख अध्यापकों की सदस्यता वाले‘शैक्षिक महासंघ’ में 23 राज्यों के 37 विश्वविद्यालयों के शिक्षक जुड़े हैं।

स्वामी विवेकानंद के विचारों के प्रसार के लिए कार्यरत ‘विवेकानंद केन्द्र, कन्याकुमारी’ ने स्वामी जी की 150 वीं जयन्ती 12 जनवरी, 2013 से एक वर्ष तक भारत जागो, विश्व जगाओ अभियान चलाने का निश्चय किया है। पूर्वोत्तर भारत में इस संस्था के माध्यम से शिक्षा एवं सेवा के विविध प्रकल्प चलाये जा रहे हैं।

‘विश्व हिन्दू परिषद’ जहां एक ओर श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के माध्यम से देश में हिन्दू जागरण की लहर उत्पन्न करने में सफल हुआ है, वहां 36,609 सेवा कार्यों के माध्यम से निर्धन एवं निर्बल वर्ग के बीच भी पहुंचा है। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वालम्बन तथा सामाजिक समरसता की वृद्धि के कार्य प्रमुख रूप से चलाये जाते हैं। एकल विद्यालय योजना द्वारा साक्षरता के लिए हो रहे प्रयास उल्लेखनीय हैं। बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, गोसेवा, धर्म प्रसार, संस्कृत प्रचार, सत्संग, वेद शिक्षा, मठ-मंदिर सुरक्षा आदि विविध आयामों के माध्यम से परिषद विश्व में हिन्दुओं का अग्रणी संगठन बन गया है।

पूर्व सैनिकों की क्षमता का समाज की सेवा में उपयोग हो, इसके लिए ‘पूर्व सैनिक सेवा परिषद’ तथा सीमाओं के निकटवर्ती क्षेत्रों में सजगता बढ़ाने के लिए ‘सीमा जागरण मंच’ सक्रिय है। कलाकारों को संगठित करने वाली ‘संस्कार भारती’ का 50 प्रतिशत जिलों में गठन हो चुका है। अपने गौरवशाली इतिहास को सम्मुख लाने का प्रयास ‘भारतीय इतिहास संकलन समिति’ कर रही है। इसी प्रकार विज्ञान भारती, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, राष्ट्रीय सिख संगत, अधिवक्ता परिषद, प्रज्ञा प्रवाह आदि अनेक संगठन अपने-अपने क्षेत्र में राष्ट्रीयता के भाव को पुष्ट करने में लगे हैं।

इस प्रकार स्वयंसेवकों द्वारा चलाये जा रहे सैकड़ों छोटे-बड़े संगठन और संस्थाओं द्वारा देश में हिन्दू जागरण का वातावरण बना है। 1925 में डा0 केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा संघ रूपी जो बीज बोया गया था, वह अब एक विराट वृक्ष बन चुका है। अब न उसकी उपेक्षा संभव है और न दमन। हिन्दू शक्ति को विश्व शक्ति बनने से अब कोई रोक नहीं सकता।

बाबा साहब ने दिया लोकतंत्र को बल

डॉ. अनुराग दीप

 

संविधान को लोकतंत्र की गीता कहा जाता है। भारत के संविधान के निर्माण में कई विधि विशेषज्ञों ने योगदान दिया जिसमें सर्वप्रमुख थे बाबा साहब अंबेडकर। उनके नेतृत्व में भारत के संविधान का निर्माण एक अतुलनीय उपलब्धि था जिस कारण उन्हें संविधानशिल्पी भी कहा जाता है। वह संविधान निर्माण की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने देश के संविधान के मसौदे में संविधान की प्रकृति को अत्यंत महत्वपपूर्ण स्थान दिया। संविधान की प्रकृति इस मामले में महत्वपूर्ण है कि यह केंद्र व राज्य के बीच संबंधों को तय करती है।

 

वर्तमान में इस बात का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है, क्योंकि गठबंधन राजनीति ने ऐसे समीकरणों को जन्म दिया है जो अंबेडकर व संविधान की भावना के विरूद्ध है। छोटे-छोटे दलों की मजबूत उपस्थिति का प्रभाव केवल चुनाव, नीति निर्माण और कानून तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे सरकार के गठन में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं। लोकतंत्र में यह अच्छा प्रतीत होता है, क्योंकि गठबंधन की राजनीति कमजोर लोगों की भागीदारी को बढ़ाती है। बहुदलीय राजनीति के उभार ने बड़े लोकतांत्रिक खिलाड़ियों के एकाधिकार को चुनौती दी है। छोटे दलों के जन प्रतिनिधियों को अब अपनी जनता के दुख-दर्द की अभिव्यक्ति के लिए ज्यादा अवसर है। शक्ति का संतुलन अब राज्य व क्षेत्रीय दलों की ओर झुक रहा है।

 

केंद्र अपने महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए छोटे दलों व राज्यों के मुखिया की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं। ए. राजा का इस्तीफा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तब ले पाए जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने हरी झंडी दिखा दी। संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल में मंत्री बनाने का एकाधिकार रखता है, लेकिन गठबंधन राजनीति ने संसदीय व्यवस्था में सेंध लगा दी है। प्रधानमंत्री अब संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार व शक्ति का प्रयोग करने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। इस प्रकार हमारे संविधान में दी गई संसदीय प्रणाली गठबंधन राजनीति का शिकार बन रही है। इसी गठबंधन राजनीति का दूसरा शिकार है केंद्र राज्य संबंधों में बदलाव। भारत के संविधान में शक्तियों को केंद्र व राज्य के बीच विभाजित किया गया है। इस विभाजन में केंद्र को ज्यादा बलशाली बनाया गया है।

 

संविधान राज्यों को जान बूझकर कम शक्ति प्रदान करता है। संविधान सृजन के समय यह बात साफ कही गई थी। नवंबर 1948 को सांविधानिक दस्तावेज के संकल्प को प्रस्तुत करते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा कि यदि कानून के किसी विद्यार्थी को संविधान दी जाए तो वह दो प्रश्न अवश्य करेगा कि संविधान के अंतर्गत किस प्रकार के शासन का (संसदीय या राष्ट्रपति) स्वरूप सोचा गया है और यह कि संविधान का स्वरूप या प्रकृति (ऐकिक या परिसंघीय) कैसा है? पहले प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि हमारा शासन संसदीय होगा, क्योंकि लंबे समय से हम इसके आदी हैं। दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि इस संवैधानिक प्रारूप में एक परिसंघीय संविधान परिकल्पित है, क्योंकि यह द्विस्तरीय शासन प्रणाली का सृजन कर रहा है।

 

इस संविधान में द्विस्तरीय शासन प्रणाली के अंतर्गत केंद्र में संघ व उसकी परिधि में राज्यों को रखा गया है। दोनों संविधान द्वारा प्रदत्त अपने-अपने क्षेत्रों में संप्रभु शक्तियों का प्रयोग करेंगे। उन्होंने भारत व अमेरिका के संविधान की भी तुलना की। कई संविधानविद् अमेरिकी संविधान को विश्व के परिसंघीय संविधानों का आदर्श मानते हैं। उनके अनुसार भारत का संविधान अमेरिका से दो प्रकार से समरूपता रखता है। एक यह कि वहां भी द्विस्तरीय व्यवस्था है तथा दूसरे कि संविधान राज्यों का लीग नहीं है और न ही राज्य संघीय सरकार की प्रशासनिक इकाई या एजेंट है। कई बिंदुओं पर दोनों में अंतर भी है। जैसे यहां द्वैध नागरिकता, दो संविधान, दो न्यायपालिका, विधिक संहिताओं (जम्मू-कश्मीर के दुर्भाग्यपूर्ण अपवाद को छोड़कर) या लोक सेवाओं में दोहरापन नहीं है, जो कि द्विस्तरीय व्यवस्था की तार्किक परिणति होती है। ऐसी दोहरी व्यवस्था के लिए भारत के संविधान में कोई जगह नही है।

 

भारत में न्यायिक स्तर पर एकल न्यायपालिका है, जो श्रृंखलाबद्ध है, जिसमें शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है। अखिल भारतीय स्तर पर एक अखिल भारतीय सेवा है। यद्यपि कि राज्यों को स्वयं की लोक सेवा बनाने का अधिकार है। इसके अलावा हमारी संविधान संशोधन की प्रक्रिया अमेरिका की तुलना में काफी लचीली है। अपने सारगर्भित भाषण में अंबेडकर ने यह स्वीकार किया कि राज्यों की तुलना में केंद्र बलशाली है, क्योंकि आधुनिक विश्व में परिस्थितियां इस प्रकार की हैं कि शक्ति का केंद्रीकरण अपरिहार्य हो गया है। उन्होंने संविधान की रचना इस बुद्धिमत्ता से की कि शक्ति के अत्यधिक व अनुचित केंद्रीकरण को टाला जा सके। इसकी विलक्षणता इस तथ्य में निहित है कि युद्ध के समय यह ऐकिक संविधान की भांति कार्य करने लगता है।

 

अंबेडकर ने स्वीकार किया कि जो दस्तावेज वह रख रहे हैं, वह संविधान के परिसंघीय ढांचे को प्रस्तुत करता है। किंतु रोचक बात यह है कि इतने बड़े संविधान में इस बात को कहीं भी साफ-साफ लिखा नहीं गया है और न ही शब्द परिसंघ या परिसंघीयता का कोई जिक्र लिखित रूप में कहीं किया गया है। इसके विपरीत जिस पदावली का प्रयोग किया गया है उसमें अनु. एक में भारत को राज्यों का संघ बताया गया है। इतना ही नहीं राज्यों की सीमा, नाम व क्षेत्र परिवर्तन करने के सिलसिले में अन्य संबंधित राज्यों की सम्मति आवश्यक थी, जबकि अब केवल उनका विचार जान लेना ही पर्याप्त है जिसे मानने के लिए केंद्र बाध्य नहीं हैं। प्रारूप समिति द्वारा संविधान के प्रथम दस्तावेज को स्वीकार नहीं किया गया जो बी.एन. राऊ ने तैयार किया था। ऐसे में किसी को भी अचरज हो सकता है कि एक तरफ तो अंबेडकर भारत को फेडरल संविधान देना चाहते थे, दूसरी तरफ भारत को राज्यों का फेडरेशन कहने की बजाय यूनियन कह रहे थे। यह अंतर्विरोध क्यों था?

 

वस्तुत: यह अंबेडकर की दूरदर्शिता व देश की एकता-अखंडता को सुनिश्चित करने लिए उठाया गया अनुपम उदाहरण है। राज्यों का परिसंघ पदावली के दो निहितार्थ हैं। पहला, हमारा परिसंघ राज्यों की किसी संधि या करार की उत्पत्ति नहीं है और दूसरा, कोई प्रदेश इससे पृथक होने के अधिकार का दावा नहीं कर सकता। इस प्रकार अंबेडकर की दृष्टि व्यापक व सोच प्रगतिपूर्ण थी। अनेकता में एकता की स्थापना के लिए संविधान की भूमिका किस प्रकार सकारात्मक होनी चाहिए, यह भलीभांति जानते थे।

 

बाबा साहब अंबेडकर को मालूम था कि एक मजबूत केंद्र ही विभाजनकारी प्रवृत्तियों को उत्तेजित करने वाली प्रेरणा को प्रारंभ में ही नष्ट करने का नैतिक व संवैधानिक साहस कर सकता है। एक शक्तिशाली केंद्र ही कठोर निर्णय ले सकता है। यदि केंद्र शक्तिशाली होता और राज्य आधारित दलों पर निर्भर नहीं होता तो कांधार कांड, आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार पर ज्यादा कठोरता से निर्णय हो पाता। हमारा देश डॉ. अंबेडकर की दूरदर्शी सोच और समग्र चिंतन को आज अधिक प्रासंगिक पाता है।

 

(लेखक दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विवि में विधि प्रवक्ता एवं विश्व संवाद केंद्र, गोरखपुर से जुड़े हैं।)

भीमराव आम्बेडकर, अन्ना हजारे और लोकतंत्र

बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर के जन्मदिन पर विशेष

(जन्म -14 अप्रैल 1891, मृत्यु – 6 दिसम्बर 1956 )

बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर को हमें आधुनिक मिथभंजक के रूप में देखना चाहिए। भारत और लोकतंत्र के बारे में परंपरावादियों,सनातनियों, डेमोक्रेट, ब्रिटिश बुद्धिजीवियों और शासकों आदि ने अनेक मिथों का प्रचार किया है। ये मिथ आज भी आम जनता में अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। बाबासाहेब ने भारतीय समाज का अध्ययन करते हुए उसके बारे में एक नया सोच पैदा किया है। भारतीय समाज के अनेक विवादास्पद पहलुओं का आलोचनात्मक और मौलिक विवेचन किया है।

भारत में भक्त होना आसान है समझदार होना मुश्किल है। बाबासाहेब ऐसे विचारक हैं जो शूद्रों के सामाजिक तानेबाने को पूरी जटिलता के साथ उदघाटित करते हैं। बाबासाहेब के भक्तों में एक बड़ा तबका है जो दलितचेतना और दलित विचारधारा से लैस है।

हाल ही में अन्ना हजारे और उनके अंधभक्तों और कारपोरेट मीडिया ने जिस तरह का उन्माद पैदा किया है उससे एक संदेश संप्रेषित हुआ है भारत में लोकतंत्र जनता की सेवा के लिए है और बस सिर्फ जनता का दबाब पैदा करने की जरूरत है और लोकतंत्र पटरी पर आ जाएगा। अन्ना हजारे और उनकी भक्तमंडली यह भी कह रही है यदि कुछ पुख्ता कानूनी नियम और संरचनाएं बना दी जाएं तो फिर लोकतंत्र को हम अमीरों की सेवा में से निकालकर गरीबों की सेवा में लगा देंगे।

इस संदर्भ में मुझे बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर का सहज ही स्मरण हो रहा है। आम्बेडकर की साफ धारणा थी कि संसदीय जनतंत्र जनता की मूल समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। सन् 1943 में इंडियन फेडरेशन के कार्यकर्ताओं के एक शिविर में भाषण करते हुए आम्बेडकर ने कहा “हर देश में संसदीय लोकतंत्र के प्रति बहुत असंतोष है। भारत में इस प्रश्न पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। भारत संसदीय लोकतंत्र प्राप्त करने के लिए बातचीत कर रहा है। इस बात की बहुत जरूरत है कि कोई यथेष्ठ साहस के साथ भारतवासियों से कहे-संसदीय लोकतंत्र से सावधान। यह उतना बढ़िया उत्पाद नहीं है जितना दिखाई देता था।” इसी भाषण में आगे कहा ‘संसदीय लोकतंत्र कभी जनता की सरकार नहीं रहा,न जनता के द्वारा चलाई जाने वाली सरकार रहा। कभी ऐसी भी सरकार नहीं रहा जो जनता के लिए हो।’

भीमराब आम्बेडकर ने 1942 के रेडियो भाषण में स्वाधीनता,समानता और भाईचारा, इन तीन सूत्रों का उद्भव फ्रांसीसी क्रांति में देखा। उन्होंने कहा “मजदूर के लिए स्वाधीनता का अर्थ है जनता के द्वारा शासन । संसदीय लोकतंत्र का अर्थ जनता के द्वारा शासन नहीं है।”

आम्बेडकर ने संसदीय लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए लिखा ” संसदीय लोकतंत्र शासन का ऐसा रूप है जिसमें जनता का काम अपने मालिकों के लिए वोट देना और उन्हें हुकूमत करने के लिए छोड़ देना होता है।” आम्बेडकर ने लोकतंत्र को मजदूरवर्ग के नजरिए से देखा और उस पर अमल करने पर भी जोर दिया।

अन्ना हजारे जिस लोकतंत्र की बात कर रहे हैं वो मालिकों का जनतंत्र है। वे जिस तथाकथित लोकशाही की बार बार दुहाई दे रहे हैं वो मालिकों की लोकशाही है। इसके विपरीत भीमराव आम्बेडकर का मानना था जब तक पूँजीवाद कायम है तब तक सही मायनों में न स्वतंत्रता संभव है और न समानता। वास्तव अर्थ में समानता हासिल करने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था को बदलना होगा उसके बाद ही वास्तविक अर्थ में समानता प्राप्त की जा सकती है।

इसके विपरीत अन्ना हजारे पूंजीवाद को बनाए रखकर ही नियमों में सुधार की बात कर रहे हैं। आम्बेडकर की नजर में वास्तविक स्वतंत्रता का अर्थ है सभी किस्म के विशेषाधिकारों का खात्मा। नागरिक सेवाओं से लेकर फौज तक,व्यापार से लेकर उद्योग धंधों तक सभी किस्म के विशेषाधिकारों को खत्म किया जाए। वे सारी चीजें खत्म की जाएं जिनसे असमानता पैदा होती है।

आम्बेडकर की धारणा थी कि ‘लोकप्रिय हुकूमत के तामझाम के बावजूद संसदीय लोकतंत्र वास्तव में आनुवंशिक शासकवर्ग द्वारा आनुवंशिक प्रजा वर्ग पर हुकूमत है। यह स्थिति वर्णव्यवस्था से बहुत कुछ मिलती जुलती है। ऊपर से लगता है कोई भी आदमी चुना जा सकता है,मंत्री हो सकता है,शासन कर सकता है।वास्तव में शासक वर्ग एक तरह वर्ण बन जाता है। उसी में से,थोड़े से उलटफेर के साथ,शासक चुने जाते हैं।जो प्रजा वर्ग है, वह सदा शासित बना रहता है।’

ममता,वाम और संस्कृतिकर्मी

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

ममता बनर्जी ने अपने दल की ओर से अनेक संस्कृतिकर्मियों को विधानसभा चुनाव में खड़ा किया है। कई कलाकार उसके पहले लोकसभा में भी चुनकर गए हैं। यह स्वागत योग्य फिनोमिना है। यह संस्कृतिकर्मियों की राजनीतिक भूमिका की लोकतांत्रिक स्वीकृति है। इसके विपरीत वामदलों का संस्कृतिकर्मियों के प्रति नकारात्मक रवैय्या रहा है। वे उन्हें विधानसभा,लोकसभा और राज्यसभा के लायक नहीं समझते। उनके लिए वे महज भोंपू हैं। हिन्दी में सक्रिय वामपंथी दलों द्वारा संचालित लेखक संगठनों जैसे जनवादी लेखक संघ,प्रगतिशील लेखक संघ आदि की सामयिक दशा को जाने बिना ममता बनर्जी के फैसले की महत्ता तब तक समझ में नहीं आएगी।

 

कडुवा सच यह है वाम संचालित सभी लेखक संगठन आज हाशिए के बाहर हैं। हाशिए पर जाना घटना है और हाशिए के बाहर चले जाना त्रासदी है। दुर्घटना है। लेखक और संस्कृति मंचों की जरूरत तब ही महसूस की जाती है तब आप शोषित महसूस करें। लेखक जब शोषित महसूस करना बंद कर देता है तो संगठन की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है। संगठन प्रतीकात्मक रह जाते हैं। लेखक संगठनों को सत्ता से कभी शक्ति नहीं मिलती। मलाई जरूर मिलती है।

 

इसी तरह लेखक संगठनों को राजनीति का अंग भी नहीं समझना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो लेखक संगठन हाशिए के बाहर जाने के लिए अभिशप्त हैं। विलक्षण आयरनी है कि लेखक संगठनों का काम करते हुए ह्रास हुआ है। सबसे ज्यादा सक्रिय लेखक संगठन आज सबसे ज्यादा निष्क्रिय हैं। कभी-कभार प्रतीकात्मक कार्यक्रम कर देते हैं,शोकसभा कर देते हैं,सम्मेलन कर लेते हैं, कभी कभार सेमीनार कर लेते हैं। लेकिन लेखकीय अधिकारों के लिए कभी संघर्ष नहीं करते। लेखक संगठन की सक्रियता प्रायोजक जैसी हो गयी है। सवाल यह है कि लेखक संगठन प्रायोजक कैसे हो गया ? प्रायोजक भाव में रहने के कारण ही उनकी प्रेरणा सीमित दायरे में सक्रिय है। जब किसी कार्यक्रम का आयोजन करता है तो प्रेरक और सक्रिय के भ्रम में रहता है। कार्यक्रम खत्म और प्रेरक का भ्रम भी खत्म। यही दशा लेखक संगठनों की है वे बगैर निवेश के लाभ लेना चाहते हैं। नाम कमाना चाहते हैं। मंच देना निवेश नहीं है। बल्कि मंच तो लाभ का स्रोत है। लेखक संगठन का निवेश आलोचनात्मक वातावरण के निर्माण पर निर्भर करता है। मंच मात्र देने से आलोचनात्मक वातावरण नहीं बनता। आलोचनात्मक वातावरण अनालोचनात्मक वातावरण को नष्ट करके बनता है। इसके लिए विचारधारात्मक और सर्जनात्मक योगदान की जरूरत होती है।मानवाधिकारों की हिमायत करने की जरूरत होती है। विचारधारात्मक-सर्जनात्मक वातावरण सीमाओं का अतिक्रमण करके ही बनता है। सीमाओं में बांधकर मंच और बहसों का आयोजन अनालोचनात्मक वातावरण को बनाए रखता है।

 

कल तक लेखक संगठन जिसे प्रेरणा,अपरिहार्य,अनिवार्य और स्वाभाविक मानते थे आज प्रेरणा लेने की बजाय उससे यांत्रिकतौर पर बंधे हैं। लेखक संगठन जितने बड़े उत्साह के साथ बनते हैं उतनी ही तेजी से उनका उत्साह ठंड़ा पड़ जाता है । कल तक जो लेखक संगठन की महत्ता पर निबंध लिखता था आज वही लेखक संगठन को अप्रासंगिक मानता है। कोई बात जरूर है जो लेखक संगठन को तमाम सक्रियता के बावजूद अप्रासंगिक बनाती है।

 

सवाल यह है कि लेखक संगठन की वर्तमान दशा और दिशा की क्या ‘विखंडनवादी’ रीडिंग संभव है ? लेखक संगठन के द्वारा विलोम निर्माण की प्रक्रिया को कभी गैर विखंडनवादी पध्दति और नजरिए के जरिए नहीं समझा जा सकता। ‘सही’ और ‘गलत’ राजनीतिक लाइन के आधार पर नहीं समझा जा सकता। ‘प्रासंगिकता’ और ‘अप्रासंगिकता’ के आधार पर नहीं समझा जा सकता। ‘श्रेष्ठ’ और ‘निकृष्ट’ के आधार पर वर्गीकृत करके नहीं समझा जा सकता।

 

मसलन् यह वर्गीकरण वैध नहीं है कि ”लेखक संगठन में काम करना ‘श्रेष्ठ’ है और जो लेखक, संगठन का काम नहीं करते वे निकृष्ट हैं।” उसी तरह ” जो लेखक संगठन का काम करते हैं वे निकृष्ट हैं और जो बाहर हैं वे श्रेष्ठ हैं।” इसी तरह ” लेखक संगठन का सोच सही है, व्यक्ति के रूप में लेखक का सोच गलत है।” अथवा ‘संगठन वैध है बाकी सब अवैध है।” ”लेखक संगठन का सत्य प्रामाणिक है ,व्यक्ति लेखक का सत्य अप्रामाणिक है”, ” साहित्यिक विधा में लिखना लेखन है और गैर साहित्यिक विधाओं जैसे मीडिया में लिखना साहित्य नहीं है।”, ”लेखक संगठन में काम करना पुण्य है और गैर सांगठनिक लेखकीय कर्म पाप है।”, ”लेखक संगठन टिकाऊ है बाकी सब नश्वर है।” इत्यादि वर्गीकरण बोगस हैं।

 

‘लेखक संगठन ही सर्वस्व है’ का नारा देने वाले यह भूल गए कि रचना का मूल स्रोत तो जीवन है। रचना का मूल स्रोत संगठन नहीं होता। अत: नारा होना चाहिए ” जीवन ही सर्वस्व है।” इस नारे को भूलकर हमारे लेखक संगठनों ने मूल्य, कृति,राजनीति,विचारधारा इत्यादि चीजों को सर्वस्व बना दिया।

 

यही वह बिंदु है जहां से लेखक संगठन अपने को हाशिए पर ले जाते हैं और अंत में सिर्फ प्रतीकात्मक उपस्थिति मात्र बनकर रह जाते हैं। लेखक संगठनों का जीवन के प्रति वाचिक लगाव है, वे जीवन की महत्ता और मर्म से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। जीवन की जटिलाओं को उन्होंने विश्वदृष्टि से देखा नहीं है। उन्होंने कभी परवर्ती पूंजीवाद ,इलैक्ट्रोनिक मीडिया,सैटलाइट के संदर्भ में लेखन को खोलकर नहीं देखा। साहित्य के दार्शनिक आयाम की कभी चर्चा तक नहीं की।

जीवन के साथ लगाव के नाम पर जीवन के इस या उस पक्ष की ही प्रतिष्ठा की गई। इस या उस पक्ष की हिमायत की गई। हिन्दी रचनाकार के लिए जीवनमूल्य महान और जीवन नश्वर रहा है। वह मानता है कि वह शाश्वत सत्य रच रहा है। अपने रचे को सत्य मानना, प्रामाणिक मानना,वैध मानना और उसी के आधार पर फतवे जारी करना मूलत: कर्मफल के सिध्दान्त का साधारणीकरण है। कर्मफल के सिध्दान्त का ही परिणाम है जो सही है वह सही है जो गलत है वह गलत है।

 

कर्मफल का सिद्धान्त स्त्री और दलित की अनुभूति और सामाजिक अस्मिता को स्वीकार नहीं करता। यही वजह है कि लंबे समय से लेखक संगठनों की कार्यप्रणाली में पितृसत्तात्मक विचारधारा हावी है। जो बड़ा है वह बड़ा है,जो छोटा है वह छोटा है। सांगठनिक हायरार्की का सब समय ख्याल रखा जाता है। ऊपर की शाखा की बातें निचली शाखा को मानना अनिवार्य है। सांगठनिक हायरार्की में चूंकि जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ में कम्युनिस्ट दलों की (क्रमश: माकपा और भाकपा) केन्द्रीय भूमिका है अत: पार्टी का आदेश अंतिम आदेश होता है और लेखक संगठनों के मुख्य पदाधिकारियों को तदनुरूप ही काम करना पड़ता है। आप कितने भी अच्छे संगठनकर्त्ता हों, कितने ही बड़े लेखक हों, यदि कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति अनुकरणात्मक भावना आपके अंदर नहीं है तो आपको संगठन में जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती। कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से लेखक संगठन को देखने वाला नेता अमूमन चुगद किस्म का व्यक्ति होता है जिसे किसी भी भाषा के साहित्य की समझ नहीं होती ऐसी स्थिति में वह सिर्फ अपने अनुयायी और विश्वस्त के हाथों ही संगठन का नेतृत्व सौंपना पसंद करता है। चाहे वह व्यक्ति कितना ही निकम्मा क्यों न हो।

 

सन् 1984-85 के बाद से समाजवाद के पराभव की जो प्रक्रिया शुरू हुई उसने महानगरीय सांस्कृतिकबोध और महानगरीय नजरिए पर ज्यादा जोर दिया है। भूमंडलीकरण के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। समाजवाद फीका पड़ा है। वफादारी का भाव प्रबल हुआ है। संकट में आलोचकों की नहीं वफादारों की जरूरत महसूस होती है। लेखक संगठन जब वफादारों से घिरे हों तो समझना चाहिए संकट की गिरफ्त में हैं।

 

लेखक संगठन आधुनिक बनें इसके लिए जरूरी है कि वे सत्ता को अपना एजेण्डा न बनाएं, राजनीति को अपना प्रधान एजेण्डा न बनाएं। यदि वह ऐसा करते हैं तो सत्ता विमर्श का अंग बन जाएंगे। साम्प्रदायिकता,धर्मनिरपेक्षता,आतंकवाद आदि सत्ता विमर्श हैं। जनता के विमर्श नहीं हैं। लेखक संगठनों को विकल्प के विमर्शों को सामने लाना चाहिए।

 

इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिन्दी और बांग्ला के वाम लेखक संगठनों की गतिविधियों की बड़ी फीकी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उनके यहां वैकल्पिक विमर्श एकसिरे से गायब हैं। वे जिन विषयों पर बहस कर रहे हैं ,सेमीनार कर रहे हैं उनमें से अधिकांश सत्ता विमर्श का हिस्सा हैं। मसलन साम्प्रदायिकता,भूमंडलीकरण आदि सत्ता विमर्श के विषय हैं।

 

कायदे से सत्ता की राजनीति से भिन्न जनता और सत्ता के विकल्पों के विषयों पर काम करना लेखक संगठनों का लक्ष्य होना चाहिए। मजेदार बात यह है कि हमारे लेखक संगठनों ने कभी विकल्पों की खोज नहीं की। लेखक संगठनों में जितनी भी विचारधारात्मक बहसें चली हैं ये वे बहस हैं जो सत्ता और राजनीतिक दलों ने थोपी हैं। इनमें लेखक संगठन प्रतिक्रिया के रूप में दाखिल हुए हैं। लेखक संगठनों का एकमात्र काम प्रतिक्रिया व्यक्त करना, प्रेस विज्ञप्ति जारी करना, सत्ताधारी वर्गों के द्वारा थोपे गए मसलों पर राय देना रहा है। उन्होंने सालों-साल इसी काम में अपनी अजस्र ऊर्जा खर्च की है। यह वैसे ही है जैसे कोई ऊर्जावान व्यक्ति अपनी ऊर्जा सही कार्यों में खर्च न कर पाए और सुबह जॉगिंग में जाकर खर्च करे। जॉगिंग में खर्च की गयी ऊर्जा बेकार में व्यय की गयी ऊर्जा है। यह ऐसे व्यक्ति की ऊर्जा है जो संतुष्ट है और अपने शरीर से दुखी है। अपने ही शरीर के बोझ को संभालने में असमर्थ है। यही वजह है कि दसियों वर्ष लेखक संगठन का काम करने वाले लेखकबंधु अंत में हताश, आलस्य के मारे अथवा लेखक संगठन की क्रमश: निष्क्रियता के आख्यानों को सुना-सुनाकर अपने मन को संतोष देते रहते हैं वे एक तरह से यह भी बता रहे होते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी ऊर्जा निरर्थक कार्यों में खर्च की और देखो अब कोई लेखक हमारी नहीं सुन रहा।

 

लेखक संगठनों की वफादारी की त्रासदी यह है कि वे जिस राजनीति के लिए अपनी सारी ऊर्जा होम कर देते हैं उस राजनीतिक दल के अंदर भी उनके लिए कोई महत्वपूर्ण जगह नहीं होती। मसलन् मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अथवा अन्य राजनीतिक दलों में उनके लेखक संगठनों की पार्टीगत तौर पर क्या हैसियत है ? बुद्धिजीवियों की क्या हैसियत है इसे बड़ी आसानी से पोलिटब्यूरो और केन्द्रीय समिति के सदस्यों को देखकर समझा जा सकता है। कभी भी इन दलों की प्रधान कमेटियों में बुद्धिजीवी होने के नाते अथवा लेखक संघ के पदाधिकारियों को चुना नहीं जाता। आप बहुत बड़े कम्युनिस्ट लेखक हो सकते हैं किंतु कम्युनिस्ट पार्टी की फैसलेकुन कमेटियों में आपका कोई स्थान नहीं होगा। जबकि सोवियत संघ,चीन आदि में ऐसा नहीं है।भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का बुद्धिजीवियों को प्रचारक के रूप में इस्तेमाल करना वस्तुत मध्यकालीन दरबारीपन का अपभ्रंश रूप है। जाने-अनजाने बुध्दिजीवी वर्ग के प्रति इससे बेगानेपन का भाव ही संप्रेषित होता है। यह भी संप्रेषित होता है कि लेखक की सत्ता को कम्युनिस्ट पार्टियां किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों में लेखकों के कामकाज की देखभाल और दिशानिर्देश का जिम्मा लेखक के पास नहीं बल्कि किसी राजनीतिज्ञ के पास होता है जिसे साहित्य-कला की कोई समझ नहीं होती। जब कम्युनिस्ट पार्टियां अपने यहां लेखक और बुद्धिजीवी को प्रधान दर्जा नहीं देती हैं तो बुर्जुआ दलों से यह कैसे उम्मीद की जाए कि वे लेखक को बड़ा दर्जा देंगी।

 

एक तथ्य गौर करने लायक है कि लेखक के नाते कांग्रेस ने कम से कम श्रीकांत वर्मा को अपने दल का महासचिव बनाया, कवि बाल कवि बैरागी को सांसद बनाया। राज्यसभा के लिए नामजद लोगों की सूची निकाली जाए तो कई लेखकों को सांसद के तौर पर नामांकित कराया। जबकि कम्युनिस्ट पार्टियों ने लंबे समय से किसी भी हिन्दी,बांग्ला,मलयालम आदि भाषा के लेखक को राज्यसभा में नामजद तक नहीं किया। किंतु किसी हिन्दी लेखक अथवा बुद्धिजीवी को कम्युनिस्ट पार्टियों ने टिकट नहीं दिया।

संचार क्रांति और तुलसीदास

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

आज यह बात बार-बार उठायी जा रही है कि आम लोगों में पढ़ने की आदत घट रही है। सवाल उठता है क्या तुलसीदास आज कम पढ़े जा रहे हैं ? क्या ‘रामचरितमानस’ कम बिक रहा है ? तुलसीदास आज भी सबसे ज्यादा पढ़े,सुने और देखे जा रहे हैं। सवाल उठता है पढ़ने की आदत पहले कैसी थी ? क्या हम पहले ज्यादा पढ़ते थे ? पढ़ने के मामले में हम पहले कोई ज्यादा बेहतर अवस्था में नहीं थे। हमारे पूर्ववर्ती कम पढ़ते थे। औपचारिक शिक्षा का प्रसार पढ़ने की संभावनाएं पैदा करता है। पहले कुछ ही लोग थे जो पढ़ते थे। संचार क्रांति के परिप्रेक्ष्य में पढ़ने की आदत को देखने पर जटिलता का आभास होता है। पढ़ने की जटिलताओं की अनुभूति साक्षरतायुग में नहीं थी।

हम अमूमन शिकायत सुनते हैं कि बच्चे टीवी के सामने बैठे रहते हैं या इंटरनेट में उलझे रहते हैं और कम पढ़ते हैं। सच क्या है ? जब भी संचार माध्यमों का विस्तार होता है तो उससे वर्तमान और भविष्य के बारे में जागरूकता पैदा होती है, वर्तमान और भविष्य सुंदर नजर आता है। अतीत को नए सिरे से सजाने का काम करते हैं। मीडिया के विस्तार के कारण जिस तरह वर्तमान के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियां पाते हैं वैसे ही अतीत के बारे में भी जानकारियां पाते हैं। मीडिया का प्रसार वर्तमान और भविष्य को ही समृद्ध नहीं करता बल्कि अतीत के प्रति हमारी समझ को भी समृद्ध करता है। जो लोग वर्तमान के प्रति उपेक्षाभाव रखते हैं उनमें अतीत के प्रति भी अचेतनता होती है। सवाल उठता है क्या लेखन के विकसित होने के पहले मनुष्य के जीवन को जानना संभव था ? जी नहीं, अतीत का वास्तव रुप हम नहीं जानते थे। अतीत के बारे में दावे के साथ जो भी कहा जा रहा है वह लेखन के उदय के बाद ही सामने आया है। यह सारा का सारा निर्मित है। साक्षरता-पूर्व युग तुलसीदास का युग था। इस युग की वे ही बातें कमोबेश विश्वसनीय हैं जिन्हें किसी न किसी तरह लिपिबद्ध कर लिया गया था। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह घोड़े के बिना ऑटोमोबाइल की कल्पना संभव नहीं है। उसी तरह लेखन के बिना संस्कृति की कल्पना संभव नहीं है।

वाचिकयुग कान-मुँह की संस्कृति का युग है। वाचिक संस्कृति में मनुष्य क्रमश: अपने अतीत के साथ बौद्धिक संपर्क खोता चला जाता है। वाचिक संस्कृति इतिहास को वैसे नहीं जानती जैसे इतिहास को हम आज जानते हैं। किसी भी वास्तविक घटना के विवरण और ब्यौरे चश्मदीद लोग बताते हैं अथवा वे लोग बताते हैं जो चश्मदीद के करीबी हों। लेकिन जो घटना बहुत समय पहले घटी हो तो उसके बारे में ,जैसे तुलसीदास का जन्म और लेखन तो इसके बारे में किसी भी बात को दावे के साथ कहना संभव नहीं है। यही स्थिति अन्य मध्यकालीन लेखकों की है। उनके जीवन प्रसंगों के बारे में विवाद हैं। वाचिकयुग में छात्र पढ़ते थे। शिक्षक पढ़ाते थे। किसी भी किस्म की परीक्षा नहीं होती थी। कोई लिखित अभ्यास नहीं करना पड़ता था। शिक्षक के सभी व्याख्यान मौखिक होते थे। शिक्षा की जितनी भी व्यवस्था थी वह मौखिक थी। छात्र को अपनी शैक्षणिक क्षमता का मौखिक ही प्रदर्शन करना पड़ता था। संगठित मौखिक बहस होती थीं। इसे हम शास्त्रार्थ के रूप में जानते हैं। इसमें प्रभाव ही बड़ी शक्ति था। इसके कारण इस युग को ”वाचिक-प्रभावयुग’ के नाम से जानते हैं।

भारत में दो किस्म की परंपराएं थीं। यहां सीखने-पढ़ने की परंपरा थी साथ ही पाण्डुलिपि की भी परंपरा थी। पाठ का यहां पर बड़े ही कौशल के साथ इस्तेमाल किया जाता था। तुलसीदास ने जिस समय लिखना आरंभ किया था उस समय भारत में लेखन संस्कृति का व्यापक विकास हो चुका था। पाण्डुलिपि संस्कृति के कारण ही हम संस्कृति को जान पाए। संस्कृति का संरक्षण संभव हो पाया।मनुष्य के विचारों पर अक्षर के उदय का व्यापक असर हुआ किंतु सबसे ज्यादा गंभीर असर तब हुआ जब छापेखाने के अक्षर का निर्माण हुआ। यह काम 15वीं शताब्दी में ही आरंभ हो गया था। भारत में 16वीं शताब्दी में छापे की मशीन आ गयी थी। तुलसीदास की कविता पुराने किस्म की कविता से अनेक अर्थों में भिन्न है। कमोबेश यह फिनोमिना सभी भक्ति आंदोलन के कवियों में मिलता है। तुलसीदास की कविता में कविता से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसमें व्यक्त ‘तर्क’। यह ‘तर्क’ द्वंद्वात्मक है। इसको हम सहज रूप में विमर्श के अर्थ में भी परिभाषित कर सकते हैं। तुलसीदास अपनी कविता के माध्यम से विमर्श तैयार करते हैं। विमर्श की कला का विकास करते हैं। यह ऐसा विमर्श है जो ‘संप्रेषणीयता’ और ‘सामाजिकता’ के गुण को अपने अंदर समेटे हुए है। तुलसीदास की कविता में ‘तर्क’ सीधे ‘रेटोरिक’ के रूप में आता है। यही वजह है कि तुलसी के मानस पर व्याख्यान ज्यादा अच्छे लगते हैं।

रामकथा को काव्य के रूप में सुनने से ज्यादा रामचरित मानस पर व्याख्यान ज्यादा सुखद लगता है, ज्यादातर समय तुलसीदास की रामकथा का भाषण के जरिए अथवा कथा के रूप में आनंद तब ही मिलता है जब उस कविता को वार्ताकार ‘रेटोरिक’ में तब्दील कर देता है। निश्चित रूप से रामकथा तुलसीदास के जमाने में कविता के रूप में ही जनप्रिय रही होगी, आज भी समाज में रामचरितमानस के अखण्ड पाठ व्यापक जनप्रिय हैं। किंतु छापे की मशीन आने के बाद रामकथा का तार्किक तौर पर रेटोरिक अथवा प्रवचन के रूप में तेजी से प्रसार होता है। छापे की मशीन के आने के बाद तुलसीदास के ‘तर्क’ को ज्यादा से ज्यादा व्याख्यायित करने की परंपरा का विकास होता है। ‘तर्क’ के विकास का अर्थ है प्रवचन परंपरा का ज्यादा प्रसार । रामकथा के वाचिकयुगीन परिप्रेक्ष्य का ही यह प्रभाव है कि आज हमारे बीच में रामकथा के प्रवचन जितने जनप्रिय हैं, उतने किसी नेता के भाषण जनप्रिय नहीं हैं।छापे की मशीन आने के बाद तुलसीदास के पाठ का पाठक के साथ निजी संबंध गहरा हुआ है। छपा पाठ व्यक्ति को निजी तौर पर पढ़ने और पाठ की प्राइवेसी की ओर ठेलता है। तुलसीदास के साथ इस मामले में उलटा हुआ है। छापे की मशीन और बाद में इलैक्ट्रोनिक मीडिया आने के बाद तुलसीदास का पाठ प्राइवेट पाठ नहीं बन पाया है। तुलसीदास का पाठ निजी पाठ क्यों नहीं बन पाया ? अन्य पुराने धार्मिक पाठ छापे की मशीन के आने बाद प्राइवेट पाठ बनकर रह गए हैं। पुराने पाठों में ‘रामचरितमानस’ और ”श्री मद्भागवत कथा” ही ऐसे पाठ हैं जो निजी पाठ नहीं बन पाए हैं। ये दोनों पाठ रेटोरिक कला के आदर्श उदाहरण हैं। इन दोनों के प्रवचनों में जितने व्यापक संदर्भों का कथावाचक इस्तेमाल करते हैं उतना अन्यत्र नजर नहीं आता। प्रवचनों में व्यापक स्तर पर संदर्भों का आना इस बात का संकेत भी है कि अब हम वाचिक संदर्भ की बजाय मुद्रित संदर्भ में आ गए हैं। किताब के युग में आ गए हैं। प्रवचन,भाषण,व्याख्यान कला के विकास का गहरा संबंध रैनेसां के साथ है। रैनेसां के आने के बाद रेटोरिक का तेजी से विकास होता है। पुराने किस्म का रेटोरिक नयी ऊर्जा प्राप्त करता है। छापे के युग में पाठ का ज्यादा सुसंगत संचय होता है। तथ्यों को ज्यादा व्यवस्थित ढ़ंग से संचित कर सकते हैं। अब तथ्यों को याद करने की नहीं बल्कि खोजने अथवा देखने की जरूरत होती है। पाण्डुलिपि के युग में तथ्यों को स्मृति में रखते थे किंतु छापे की मशीन के आने के बाद तथ्यों के दृश्य पर जोर है। मध्यकाल में प्राचीनकाल की तुलना में ज्यादा साक्षर थे और मध्यकाल की तुलना में आधुनिककाल में ज्यादा साक्षर हैं। रैनेसां की तुलना में आज ज्यादा साक्षर हैं। यानी रैनेसां की तुलना में आज के साइबरदौर में रीडिंग की आदत में इजाफा हुआ है।आज किताबें ज्यादा बिकती हैं, किताबों का प्रकाशन ज्यादा हो रहा है। अखबार और पत्रिकाएं ज्यादा पढ़ी और खरीदी जा रही हैं। लिखित पेज ने स्मृति के विकल्प के तौर पर अपने को विकसित कर लिया है। लिखित पेज के आगे अब हम डिजिटल पेज में दाखिल हो चुके हैं। डिजिटल पेज लिखित पेज से भी ज्यादा सुंदर ,उदार,गतिशील और प्रभावोत्पादक है। जिस तरह मौखिक परंपरा को शब्द ने लिपिबध्द किया वैसा ही शब्द की परंपरा को छापे की मशीन और अब छापे की मशीन की परंपरा को डिजिटल किताब रूपान्तरित कर रही है फलत: आज हम प्राचीनकाल से भी ज्यादा मौखिक काम करने लगे हैं। डिजिटल में ज्यादा बातें करने लगे हैं। डिजिटल ने वाचिक परंपरा को नए सिरे से जीवित कर दिया है। पहले वाचिक आख्यान को संरक्षित नहीं कर सकते थे किंतु आज ऐसा नहीं है। आज वाचिक आख्यान संरक्षित किया जा सकजा है। इसका आप वार्ताकार की अनुपस्थिति में भी आनंद ले सकते हैं। यह ऑडियो-वीडियो संस्कृति के विकसित होने के बाद ही हो पाया है। उसकी असंख्य प्रतियां तैयार कर सकते हैं। तुलसीदास के जमाने में सब कुछ बोलता था,यहां तक कि भगवान भी बोलता था। किंतु छापे की मशीन के आने के बाद से ‘चुप्पी’ या साइलेंस का युग शुरू होता है। अब कोई नहीं बोलता। चुप्पी के युग में मनुष्य सबसे बड़े संप्रेषक के रूप में सामने आता है। अब प्रत्येक चीज उस रूप में ही दिखाई देती है जिस रूप में मनुष्य उसे पैदा करता है। वाचिक परंपरा ने महान रचनाएं दीं हैं ,इनमें वेद हैं, महाकाव्य हैं,गीता है,रामचरितमानस है वहीं आधुनिकयुग में वाचिक परंपरा के जरिए नयी महान चीजें आयी हैं। भगवान के बारे में जितनी बेहतरीन रचनाएं मनुष्य ने वाचिकयुग में दीं वैसी रचनाएं आज दुर्लभ हैं। वाचिक संस्कृति बहुत ही समृद्ध संस्कृति है। हमारी समस्त कथाएं वाचिक परंपरा की ही देन हैं। प्राचीन दर्शन का समस्त श्रेष्ठतम रूप वाचिक की देन है। इसको ही कालान्तर में हमने उपदेश,प्रवचन,भाष्य, संवाद, विमर्श आदि में रूपान्तरित करके वर्गीकृत किया गया। हम जितना आगे जाना चाहते हैं उतनी ही तेज गति से अतीत भी अपनी ओर खींचता है। फलतःअतीत को खोले बिना भविष्य में जाना संभव ही नहीं है। आप ज्यों ही नए मीडिया को जन्म देते हैं पुराना मीडिया और भी चुस्त-दुरूस्त और सुंदर रूप में सामने आ जाता है। पुराना हमारा पीछा ही नहीं छोड़ता। यही वजह है वाचिक भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है। हम अपने भविष्य का जितना विस्तार करते जाते हैं अतीत का भी उतना ही विस्तार होता है। भविष्य में जाते समय आपका अतीत से संबंध नहीं कटता। वाचिक परंपरा के जो निर्माता थे,जो मौखिक परंपरा में जीते थे उन लोगों ने ही अक्षर परंपरा को जन्म दिया। जो ज्यादा बोलते थे उन्होंने ही लिखने की परंपरा को जन्म दिया। सड़कों पर काम करने वाले बातें करना बंद नहीं करते। यह सच है कि लेखन ने संप्रेषण को नयी दिशा दी। किंतु इससे बोलना कम नहीं हुआ। आज संदेश पहले की तुलना में ज्यादा आते हैं, आज पहले के किसी भी युग की तुलना में ज्यादा बातें करते हैं। आप जितना पढ़ते हैं उससे ज्यादा बातें करते हैं। वाचिकयुग का साहित्य आधुनिक किताबयुग आने के बाद और भी ज्यादा समृद्ध होता है,अर्थविस्तार पाता है। इलैक्ट्रोनिक मीडिया के जमाने में अब सब कुछ संचित करके रख सकते हैं। ज्ञान का सार्वभौम की बजाय स्थानीय उत्पादन कर सकते हैं। अपने कम्प्यूटर में छापें और मुद्रित करें। छापे की मशीन ने ज्ञान की स्थानीयता पैदा की थी। इसे नयी ऊँचाई पर कम्प्यूटर ने पहुँचाया। आज हम बिजली की तेज गति से आगे जा रहे हैं। आज हमें लेखन और मुद्रण से भी परे जाने की जरूरत है। आज जरूरी हो गया है कि प्रत्येक व्यक्ति लिखना सीख ले। जिससे हम तेजी से इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परे जा सकें। आज प्रत्येक को प्रिंट करना आना चाहिए, टाइप करना आना चाहिए। इलैक्ट्रोनिक मीडिया ने मुद्रण और लेखन दोनों को ही बदल दिया है। साथ ही मीडियम को भी बदल दिया है।

लोगों को सावधान रहने की जरूरत है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ’निरंकुश’

जो लोग हमेशा ‘‘सामाजिक न्याय’’ और‘‘दमित तबके के उत्थान’’ का लगातार विरोध करते रहे हैं, वे हजारे के नाम पर रोटी सेकते नज़र आ रहे हैं| केवल कुछ दिखावटी चेहरे, जो भी पूरी तरह से निर्विवाद नहीं बताये जा रहे हैं, देश की सवा सौ करोड़ आबादी का प्रतिनिधित्व करने का दावा करके देश के अस्सी प्रतिशत से अधिक लोगों के असली मुद्दों (जो भ्रष्टाचार से कहीं अधिक गम्भीर हैं) से लोगों का ध्यान हटाकर सफल होने का दावा कर सकते हैं| जिनकी ओर ध्यान देने या आन्दोलन करने की किसी को फुर्सत नहीं है, बल्कि अधिक और कड़वा सच तो ये है कि लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दों के बारे में किसी भी दल या वर्ग को सोचने की फुर्सत नहीं है| विदेशी धन से समाज सेवा करने वालों से तो ऐसी आशा करना अपने आप को धोखे में रखना है!

 

देश में जिसे ‘‘हजारे आन्दोलन (?)’’ का नाम दिया गया, वह अपनी परिणिती पर पहुँच कर इस घोषणा के साथ समाप्त हो गया कि यदि जरूरत हुई तो फिर से ऐसा ही, बल्कि इससे भी भयंकर आन्दोलन किया जायेगा| स्वयं हजारे को भी जन्तर-मन्तर पर बैठने से पूर्व ज्ञात नहीं था कि वे इतने सफल हो जायेंगे और अपनी सफलता से बोरा जायेंगे और अपने होश-ओ-हवास खोकर देश के निचले तबके के मतदाता को गाली देते नजर आयेंगे| मतदाता को सौ रुपये या शराब की बोतल में बिकने वाला करार देकर अपनी बनावटी गॉंधीवादी छवि (?) को दिल्ली छोड़ने से पहले ही उतार फेंकेंगे! वैसे गॉंधी ने भी तो निचले तबके को मूर्ख बनाकर सैपरेट इलैक्ट्रोल का हक छीनकर दमित लोगों को हमेशा-हमेशा के लिये इस देश में गुलाम बनाये रखा है| ऐसे में इस देश के अधिसंख्य लोगों के लिये गॉंधीवाद या गॉंधीवाद का ढोंग कभी भी न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता|

 

जन्तर-मन्तर और मीडिया के मंच पर हजारे के नाम पर जो कुछ हुआ, उससे यदि सबसे अधिक लाभ में कोई रहा है तो वो है-मीडिया, जिसने जमकर खबरों को ऊटपटांग तरीके से विज्ञापनों में लपेटकर बेचा|

 

यहॉं पर ये बात भी विचारणीय हैं की लोकपाल बिल के बहाने ऐसे लोग भी (सभी नहीं) भ्रष्टाचार के विरोध में बातें करते नजर आ रहे हैं, बल्कि अधिक सही है तो ये होगा कि मीडिया द्वारा उन्हीं को दिखाया और छापा जा रहा है, जिन्होंने जीवन भर सिवाय भ्रष्टाचार, शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार के कुछ किया ही नहीं| जो न्याय और जो ईमानदारी को तो जानते ही नहीं, जिन्होंने शराब की तस्करी और अफसरों की चमचागिरी से अथाह दौलत कमाई है, जिन्होंने देश में धार्मिक एवं साम्प्रदायिक उन्माद फैलाया है, जिन्होंने निचले तबके के लोगों से आजादी के बाद भी बेगार करवाई है और व्यभिचार एवं अत्याचार करना जो आज भी अपना जन्मजात हक़ समझते हैं!

 

ऐसे लोग भी हजारे जी के समर्थन में रोड पर ‘‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’’का बैनर हाथ में लिए नज़र आये और अपने अरबपति मालिक (उद्योगपति) के शोषण के शिकार स्थानीय ‘‘अल्प वेतनभोगी पत्रकार’’ को खुश करके अपना चित्र भी समाचार पत्र में छपवाने में सफल हो गए! जो आन्दोलन (?) हुआ उसमें ऐसे लोगों के काले धन का भी जमकर उपयोग (?) हुआ| जो पत्रकार अपने शोषक मालिक के शोषण के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते, वे सत्ता के शीर्ष केन्द्र को पानी पी, पीकर कोसते नजर आये| इस श्रेणी के पत्रकारों के किसी पत्रकार संगठन ने अपना वेतन बढाने या सम्मानजक वेतन पाने के लिये आवाज उठाई हो और उसे मीडिया के माध्यम से देशभर के लोगों तक पहुँचाया हो, कम से कम मुझे तो याद नहीं आता|

 

जो लोग हमेशा ‘‘सामाजिक न्याय’’ और ‘‘दमित तबके के उत्थान’’ का लगातार विरोध करते रहे हैं, वे हजारे के नाम पर रोटी सेकते नज़र आ रहे हैं| केवल कुछ दिखावटी चेहरे, जो भी पूरी तरह से निर्विवाद नहीं बताये जा रहे हैं, देश की सवा सौ करोड़ आबादी का प्रतिनिधित्व करने का दावा करके देश के अस्सी प्रतिशत से अधिक लोगों के असली मुद्दों (जो भ्रष्टाचार से कहीं अधिक गम्भीर हैं) से लोगों का ध्यान हटाकर सफल होने का दावा कर सकते हैं| जिनकी ओर ध्यान देने या आन्दोलन करने की किसी को फुर्सत नहीं है, बल्कि अधिक और कड़वा सच तो ये है कि लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दों के बारे में किसी भी दल या वर्ग को सोचने की फुर्सत नहीं है| विदेशी धन से समाज सेवा करने वालों से तो ऐसी आशा करना अपने आप को धोखे में रखना है!

 

भ्रष्टाचार के नाम यह आन्दोलन (?) कितने दिन तक? ये करीब-करीब जनता का वैसा ही अंध बहाव लगता है, जैसा ‘‘भय, भूख और भ्रष्टाचार मुक्त भारत’’ का दावा करने वालों ने जनता को बहकाकर देश को बर्बाद किया, और अनेक राज्यों में अभी भी कर रहे हैं! जो राष्ट्रवाद के नाम पर देश पर पुरातन शोषक व्यवस्था को फिर से थोपने पर आमादा हैं, जो समानता के नाम पर देश के अस्सी फीसदी लोगों के हकों को छीनकर भी बेशर्मी से चरित्रवान और सुसंसकृत होने का दम भरते हैं| कोई आश्चयर्य नहीं होगा यदि कल को ये पता चले कि हजारे या हजारे के कुछ समर्थक इन्हीं राष्ट्रवादियों की कठपुतली निकलें? और आने वाले समय में देशहित के नाम पर इन्हीं का झंडा लिये चुनाव मैदान में उतर जाएँ| इसलिये लोगों को सावधान रहने की जरूरत है|

बीमारी क्यों हो रही है ?

सुरेन्द्र अग्निहोत्री

जन लोकपाल विधेयक के लिए दूसरी आजादी की लड़ाई जन्तर मन्तर पर जनयोद्धा अन्ना हजारे के नेतृत्व में जन की जीत के साथ कुछ सवाल जरूरी हो गये है कि देश में भ्रष्‍टाचार की बीमारी क्यों हुई है इसके पीछे छिपे कारणों को जानना और उनका परीक्षण करके उनका निदान किये बिना कोई भी फायदा नहीं मिल सकता है कानूनों के मकड़ जाल से जन यदि सुखी हो सकता होता तो कब का यह देश सोने की चिड़िया बन गया होता। कवि धूमिल जनतन्त्र में संसद की जन के प्रति भूमिका पर सवाल करते हुए यह कविता लिखते है-

एक आदमी/रोटी बेलता है/एक आदमी रोटी खाता है/एक तीसरा आदमी भी है/जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है। /वह सिर्फ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूं `यह तीसरा आदमी कौन है´.

मेरे देश की संसद मौन है। इस मौन को तोड़ने के लिये संविधान में निहित आधार तत्व को समझकर एक बार फिर दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ने का वक्त आ गया है। टयूनिशिया में हुई जनक्रान्ति की आहट हमारे देश में भी आने लगी है। इस आहट के पीछे के सच को खोजने का समय बेचैनी पैदा कर रहा है। आजादी के अनेक सालों के बाद दूसरी आजादी की परिकल्पना मन में आना कहीं न कहीं इस व्यवस्था में गुत्थमगुत्था पैदा होने का कारण है। यह विचित्र समय है जब जज से लेकर मन्त्रियों तक के दामन दागदार दिख रहे है। डगमग-डगमग होती नैय्या के पीछे छिप शैतानी हाथों और उसके रिमोड कन्ट्रोल की सच्चाईयां जानना ही होगा। वरना पश्चाताप के सिवा कुछ शेश नही रह जायेगा। दिशाहीन, दिशाहारे लोग अपने स्वार्थो के लिये आंखों पर काली पट्टी बान्ध कर मौनी बाबा बने हुये है। उन्हें जन के मन से कोई लेनादेना नही है। सारे दरवाजे अकेलेपन जैसे हो गये है। भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू की सोच को तिलाञ्जलि देकर संविधान की मूल भावना को तिरोहित कर के संसद की सेन्टर टेबल पर खुशी मनाने में मग्न है। जनता की रूलाई उन्हें दिखाई नही देती है। ऐसा लगता है कि जनता की ऑखों में उतरे शोक के ऑसू उन्हें खुशी के ऑसू नज़र आ रहे है। लगातार किसान से लेकर युवा तक पराधीन और दैयनीय जीवन जीते जीते आत्महत्या तक करने को मजबूर है। आदमी के मरते हुये चेहरे को देखने का साहस न जुटा पाने वाले लोगों के खिलाफ एक कमजोर हाथ एक मुठ्ठी में ताकत बटोर कर सब कुछ तहस नहस न कर दे इससे पूर्व संविधान को एक बार देखने का वक्त आ गया है। सरकारें अनििश्चतांओं से नहीं अपितु जनमत कराकर नीति तय करे। बाजारवाद चलेगा या संविधान में प्रदत्त उद्देिशका वाला समाजवाद।

भारतीय संविधान के आधार-तत्व तथा उसका दर्शन

किसी संविधान की उद्देशिका से आशा की जाती है कि जिन मूलभूत मूल्यों तथा दर्शन पर संविधान आधारित हो तथा जिन लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास करने के लिए संविधान निर्माताओं ने राज्य व्यवस्था को निर्देश दिया हो, उनका उसमें समावेश हो।

हमारे संविधान की उद्देशिका में जिस, रूप में उसे संविधान सभा ने पास किया था, कहा गया है: हम भारत के लोग भारत को एक प्रभुत्वसम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए उसके समस्त नागरिकों को न्याय स्वतन्त्रता और समानता दिलाने और उन सबमें बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं। न्याय की परिभाशा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के रूप में की गई है। स्वतन्त्रता में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता सम्मिलित है और समानता का अर्थ है प्रतिश्ठा तथा अवसर की समानता ।

वास्तव में, न्याय, स्वतन्त्रता, सामनता और बन्धुता एक वास्तविक लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था के अत्यावश्यक सहगामी तत्व है, इसलिए उनके द्वारा केवल लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की संकल्पना स्पष्‍ट होती है। अन्तिम लक्ष्य है व्यक्ति की गरिमा तथा राष्‍ट्र की एकता सुनिश्चित करना। इस प्रकार, उद्देशिका यह घोषणा करने का काम करती है कि भारत के लोग संविधान के मूल स्त्रोत हैं, भारतीय राज्य व्यवस्था में प्रभुता लोगों में निहित है और भारतीय राज्य व्यवस्था लोकतन्त्रात्मक है जिसमें लोगों को मूल अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की गारण्टी दी गई है तथा राष्‍ट्र की एकता सुनिश्चत की गई है। हमारे संविधान की उद्देशिका में बहुत ही भव्य और उदात्त शब्दों का प्रयोग हुआ है। वे उन सभी उच्चतम मूल्यों को साकार करते हैं जिनकी प्रकल्पना मानव-बुद्धि, कौशल तथा अनुभव अब तक कर पाया है।

42वें संशोधन के बाद जिस रूप में उद्देशिका इस समय हमारे संविधान में विद्यमान है, उसके अनुसार, संविधान निर्माता जिन सर्वोच्च या मूलभूत संवैधानिक मूल्यों में विश्वास करते थे, उन्हें सूचीबद्ध किया जा सकता है। वे चाहते थे कि भारत गणराज्य के जन-जन के मन में इन मूल्यों के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता जगे-पनपे तथा आनेवाली पीढ़ियां, जिन्हें यह संविधान आगे चलाना होगा, इन मूल्यों से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। ये उदात्त मूल्य है:

सम्प्रभुता, समाजवाद, पन्थनिरपेक्षता, लोकतन्त्र, गणराज्यीय स्वरूप, न्याय, स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुता, व्यक्ति की गरिमा, और, राश्ट्र की एकता तथा अखण्डता।

समाजवाद

संविधान निर्माता नहीं चाहते थे कि संविधान किसी विचारधारा या वाद विशेश ने जुड़ा हो या किसी आर्थिक सिन्द्धात द्वारा सीमित हो। इसलिए वे उसमें, अन्य बातों के साथ-साथ, समाजवाद के किसी उल्लेख को सम्मिलित करने के लिए सहमत नही हुए थे। किन्तु उद्देिशका में सभी नागरिकों को आर्थिक न्याय और प्रतिश्ठा तथा अवसर की समानता दिलाने के संकल्प का जिक्र अवश्य किया गया था। संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा हमारे गणराज्य की विशेशता दर्शाने के लिए समाजवादी शब्द का समावेश किया गया। यथासंशोधित उद्देशिका के पाठ में समाजवाद के उद्देश्य को प्राय: सर्वोच्च सम्मान का स्थान दिया गया है। सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न के ठीक बाद इसका उल्लेख किया गया है। किन्तु समाजवाद शब्द की परिभाषा संविधान में नहीं की गई।

संविधान (45वां संशोधन) विधेयक में समाजवादी की परिभाशा करने का प्रयास किया गया था तथा उसके अनुसार इसका अर्थ था इस प्रकार के शोषण-सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक-से मुक्त। इस विधेयक को अन्तत: 44वें संशोधन के रूप में पास किया गया, किन्तु इसमें समाजवादी की परिभाषा नहीं थी। समाजवादी की परिभाशा करना कठिन है। विभिन्न लोग इसका भिन्न-भिन्न अर्थ लगाते है और इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। शब्दकोश के अनुसार समाजवाद में उत्पादन तथा वितरण के साधन, पूर्णतया या अंशतया, सार्वजनिक हाथों में अर्थात सार्वजनिक (अर्थात राज्य के) स्वामित्व अथवा नियन्त्रण में होने चाहिए।

समाजवाद का आशय यह है कि आय तथा प्रतिष्‍ठा और जीवनयापन के स्तर में विशमता का अन्त हो जाए। इसके अलावा, उद्देशिका में समाजवादी शब्द जोड़ दिए जाने के बाद, संविधान का निर्वचन करते समय न्यायालयों से आशा की जा सकती थी कि उनका झुकाव निजी सम्पत्ति, उद्योग आदि के राष्‍ट्रीयकरण तथा उस पर राज्य के स्वामित्व के तथा समान कार्य के लिए समान वेतन के अधिकार के पक्ष में होता है। ´

भारतीय संविधान के उद्देश्यों के विरूद्ध

गुपचुप तरीके से बाजारवादी व्यवस्था को थोपने के दुस्परिणाम सामने आने लगे है। नक्सलवाद और अराजकता के जाल में उलझते भारत को बचाने के लिए सिर्फ जनलोक पाल बिल से काम चलने वाला नहीं है हमें सरकार पर दबाव डालना होगा कि आपने बिना रिफरेडम कैसे बाजारवादी व्यवस्था को अपना लिया है दूसरी आजादी तभी मिलेगी जब तक हम समाजवादी व्यवस्था लागू नहीं करवा पाते है जो संविधान की मूल भावना की उद्देशिका में सामिल किया गया है। बदलते परिवेश में क्या देश के लिऐ उचित है क्या अनुचित, यह फैसला जनमत संग्रह से होना चाहिए। यह कोई सामान्य व्यवस्था नहीं है जिसे हमारे चुने प्रतिनिधि तय कर ले, बल्कि संविधान के उद्देश्यों में परिवर्तन लाना है। वरना लगड़ी और कटपुतली सरकारें टाटा और अम्बानी जैसे बाजारवादी व्यवस्था के समर्थक लोगों की चेरी बनने को मजबूर रहेगी और बजारवादी लोग अपने लाभकारी निहतार्थ पूरे करते रहेंगे। जन लोकपाल बिल में कुछ शर्ते जोड़ना होगी जिनमें कानून के विपरीत कार्य में स्वत: रदद होना मुख्य होता है इस देश को बचाना है तो सबसे पहले कानून के विपरीतकार्य के द्वारा होने वाले लाभ को रद्द करना अनिवार्य कदम होगा। जिस तरह टू-जी स्टेम्प घोटाले में लाईसेंस होल्डरों के लाईसेंस अभी तक रद्द न होना चिन्ता का सबब बना हुआ है इसी कारण गलत कार्यो को लगातार होने को बल मिलता है। सबसे पहले टूजी घोटाले के लाभार्थियों के करार को रद्द करने के साथ ही घोटाले करने वालों की सजा के मामले में निर्णय देने की समय सीमा न्यायालय के सामने होना चाहिए। करार रद्द होने के कारण कोई भी कठिनाई पैदा हो और इस कठिनाई से जूझने के लिए भारतीय जनता को तैयार रहना चाहिए क्योकि जो भी कार्य जन्म से ही गलत था उसे कैसे न्याय उचित या देश की पूञ्जी के नाम पर पर्दा डालने का खेल खेला जा सकता है। इन कठोर निर्णय के बिना भ्रश्टाचार का सिलसिला नही रुक सकता है। ट्रांसफर प्रापर्टी एक्ट जैसे अनेक प्रावधान है जिनमें कुछ कानून के अन्तर्गत स्वत: निरस्त हो जाते है और कुछ को इंगित करने पर निरस्त किया जाता है। लेकिन जो कार्य जन्म से ही गलत है उसे खत्म होना ही चाहिए। चाहे इस कार्य को सरकार ने किया हो या पूञ्जीपति ने अथवा जनता ने यह तो तय करना ही होगा। क्योंकि आर्दश सोसायटी जैसे अनेक मामले सामने आये हैै जहां पर्यावरण को अनदेखा किया गया। कहीं नीतियों में हेरफेर किया गया। तो कहीं लाभार्थियों के नाम बदले गये है। जब जन्म से ही इन मामलों में गलत हुआ है तो उसे रद्द करना ही पड़ेगा। हमे बिमारी को दबाने के उपाय के स्थान पर बिमारी के कारणों की खोज करना जरूरी है। तभी बिमारी का समूलनाश हो पायेगा।

 

* इस आलेख में सुभाष कश्यप लिखित पुस्तक हमारा संविधान के अंश समाहित है।