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प्रकृति की गोद में बसा है मध्यप्रदेश का ‘मिनी कश्मीर’

लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

किले से दिखाई देता कस्बे के मध्य स्थित तालाब...

नरसिंहगढ़ मध्यप्रदेश का मिनी कश्मीर कहलाता है। इस उपमा ने मेरे मन में नरसिंहगढ़ के लिए खास आकर्षण बनाए रखा। 2006 में मैंने पहली बार नरसिंहगढ़ के सौंदर्य के बारे सुना था। तभी से वहां जाकर उसे करीब से देखने का लोभ मन में था। मेरी यह इच्छा इस माह (मार्च 2011) की शुरुआत में पूरी हो सकी। जिस सुकून की आस से में नरसिंहगढ़ में पहुंचा था, उससे कहीं अधिक पाया। वैसे कहते हैं कि नरसिंहगढ़ बरसात के मौसम में अलौकिक रूप धर लेता है। यहां के पहाड़ हरी चुनरी ओढ़ लेते हैं। धरती तो फूली नहीं समाती है। नरसिंहगढ़ का अप्रतिम सौंदर्य देखकर बादलों से भी नहीं रहा जाता, वे भी उसे करीब से देखने के मोह में बहुत नीचे चले आते हैं। सावन में वह कैसा रूप धरता होगा, मैं इसकी सहज कल्पना कर सकता हूं। क्योंकि मार्च में भी वह अद्वितीय लग रहा था।

किले पर स्थित मंदिर..

शाम के वक्त मैं और मेरे दो दोस्त किले पर थे। किले से कस्बे के बीचोंबीच स्थित तालाब में बीचोंबीच स्थित मंदिर बहुत ही खूबसूरत लग रहा था। इस तालाब की वजह से निश्चित ही कभी नरसिंहगढ़ में भू-जलस्तर नीचे जाने की समस्या नहीं होती होगी। तालाब की खूबसूरती के लिए स्थानीय शासन-प्रशासन के प्रयास जारी हैं। एक बात का क्षोभ हुआ कि खूबसूरत किले का बचाने का प्रयास होता कहीं नहीं दिखा। नरसिंहगढ़ का किला बेहद खूबसूरत है। फिलहाल बदहाली के दिन काट रहा है। एक समय निश्चित ही यह वैभवशाली रहा होगा। तब यह आकाश की ओर सीना ताने अकड़ में रहता होगा। संभवत: उसकी वर्तमान दुर्दशा के लिए स्थानीय लोग ही जिम्मेदार रहे होंगे। खिड़की-दरवाजे की चौखट गायब हैं। कई भवनों से लोग पत्थर निकाल ले गए हैं। पूरे परिसर में झाड़ खड़े हैं। एक बात उल्लेखनीय है कि इस पर ध्यान न देने के कारण यह अपराधियों की शरणस्थली भी रहा है। दो-तीन बार यहां से सिमी के मोस्ट वांटेड आतंकी पकड़े गए हैं। किले में आधुनिक स्नानागार (स्विमिंग पुल) भी है।

नरसिंहगढ़ की एक खास बात यह भी है कि यहां अधिकांश स्थापत्य दो हैं। जैसे बड़े महादेव-छोटे महादेव, बड़ा ताल-छोटा ताल, बड़ी हनुमान गढ़ी-छोटी हनुमान गढ़ी आदि। नरसिंहगढ़ के समीप ही वन्यजीव अभयारण्य है। जिसे मोर के लिए स्वर्ग कहा जाता है। सर्दियों में प्रतिवर्ष नरसिंहगढ़ महोत्सव का आयोजन किया जाता है। यह भी आकर्षण का केन्द्र है।

 

नरसिंहगढ़ फिलहाल पर्यटन के मानचित्र पर धुंधला है। मेरा मानना है कि नरसिंहगढ़ को पर्यटन की दृष्टि से और अधिक विकसित किया जा सकता है। इसकी काफी संभावनाएं हैं। इससे स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर तो बढ़ेंगे ही, साथ ही निश्चित तौर पर मध्यप्रदेश के कोष में भी बढ़ोतरी होगी। बरसात में नरसिंहगढ़ के हुस्न का दीदार करने की इच्छा प्रबल हो उठी है। कोशिश रहेगी कि इसी सीजन के दौरान मैं मिनी कश्मीर की वादियों का लुत्फ उठा सकूं।

नरसिंहगढ़ किले पर डबरा निवासी मित्र हेमंत सोनी के साथ...

 

 

नरसिंहगढ़ किले से डूबते सूरज का नजारा...

 

 

बदहाल नरसिंहगढ़ का खूबसूरत किला...

 

नियोजित ढंग से बसा है लश्कर

लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

 

“पत्रिका के ग्वालियर संस्करण ने १२ मार्च माह से एक नया प्रयोग किया है। नगर संस्करण के छह पेजों में से आधा पेज प्रतिदिन शहर के दो उपनगरों लश्कर और मुरार की खबरों के लिए समर्पित किया है। सप्ताह के तीन दिन यह स्थान लश्कर के लिए आरक्षित है और बाकी के तीन दिन मुरार के लिए। चूंकि मैं उपनगर लश्कर में रहता हूं तो इसके लिए गठित टीम में मैं भी शामिल हूं। लश्कर पत्रिका के नाम से पहली बार आधा पेज १४ मार्च को प्रकाशित हुआ था। उस अवसर पर मैंने लश्कर के संदर्भ में निम्न आलेख लिखा था। वह अब आप लोगों को समर्पित है।”

 

वर्तमान में ग्वालियर तीन उपनगरों से मिलकर बना है, उपनगर ग्वालियर, लश्कर और मुरार। लश्कर, ग्वालियर का मुख्य उपनगर है। लश्कर में प्रमुख व्यापारिक, राजनीतिक संगठनों के साथ ही प्रशासनिक दफ्तर हैं। बड़े और प्रमुख बाजारों से भी लश्कर समृद्ध है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लश्कर योजनाबद्ध ढंग से बसने वाला जयपुर के बाद दूसरा शहर है। हालांकि इससे पहले ग्वालियर विद्यमान था। जो किले की तलहटी और स्वर्ण रेखा नदी के आसपास बसा था। इसमें तंग, छोटी और पतली गलियां हुआ करती थीं। शायद कोई नियोजित बस्ती या बाजार की बसाहट नहीं थी। १८१० में दौलतराव सिंधिया ने अपनी राजधानी उज्जैन से हटाकर ग्वाल्हेर स्थापित की। उस समय यहां चारों तरफ पहाड़ और जंगल ही थे। नदी बहती थी। जंगली जानवर विचरण करते थे। तब दौलतराव सिंधिया ने अपने लाव लश्कर के साथ वर्तमान महाराज बाड़े के निकट तंबू लगाकर पड़ाव डाला। सन् १८१८ तक यह लगभग सैनिक छावनी जैसा ही रहा। सिंधिया के लाव-लश्कर के पड़ाव स्थापित होने के कारण ही इस स्थान का नाम ‘लश्कर’ पड़ गया। दौलतराव से पूर्व लश्कर का यह क्षेत्र अम्बाजी इंगले के पास था।

दौलतराव सिंधिया ने अपनी रानी गोरखी के नाम पर सबसे पहले १८१० में गोरखी महल का निर्माण करवाया। राजा की सुरक्षा सुदृढ़ रहे, इसलिए उनके सरदारों को गोरखी महल के आसपास ही बसाया गया। गोरखी के आसपास सरदार शितोले, सरदार जाधव, सरदार फालके और सरदार आंग्रे की हवेलियां बनीं। इसके बाद दौलतराव सिंधिया ने बाजारों के निर्माण पर जोर दिया। उन्होंने सबसे पहले सराफा बाजार का निर्माण करवाया, यहां बसने के लिए राजस्थान के जोहरियों को बुलावा भेजा गया। लश्कर में सबसे पहली सड़क भी सराफा बाजार में ही बनी थी। यह काफी चौड़ी थी। दोनों ओर नगरसेठों की नयनाविराम हवेलियां थीं। दशहरे के लिए इसी सड़क से सिंधिया की शोभायात्रा निकलती थी। सड़क के दोनों ओर हवेलियों के नीचे बने चबूतरों पर खड़े होकर प्रजा पुष्पवर्षा कर शोभायात्रा का स्वागत करती थी। समय के साथ इस बाजार की राजशाही रौनक अतिक्रमण की मार से धुंधली पड़ गर्ई थी। जो शायद अब फिर से देखने को मिले। सराफा बसने के बाद लश्कर का विस्तार होना शुरू हो गया। इसके बाद दौलतराव सिंधिया के नाम पर ही दौलतगंज बसा। इसके बाद ही कम्पू कोठी (महल) और जयविलास पैलेस बने।

माधौराव सिंधिया (१८८५-१९२५) को ग्वालियर का आधुनिक निर्माता कहा जाता है। उन्होंने भी अनेक बाजारों का योजनाबद्ध ढंग से निर्माण कराया। उनमें लश्कर के दाल बाजार, लोहिया बाजार, नया बाजार आदि प्रमुख हैं। इन बाजारों में भी नगर के तत्कालीन कारीगरों की हुनरमंदी आज भी देखने को मिलती है। अनेक झरोखे, पत्थरों की कलात्मक जालियां, दरवाजों पर उकेरी गईं मूर्तियां और बेलबूटे आज भी बरबस ही ध्यान आकर्षित कर लेते हैं।

वर्तमान में लश्कर के प्रमुख स्थापत्य

१. महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय उत्कृष्ट कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय ।

२. महाराज बाड़ा।

३. शासकीय गजराराजा कन्या विद्यालय।

४. जयारोग्य अस्पताल समूह।

५. केआरजी कालेज और पद्मा कन्या विद्यालय।

६. जलविहार, फूलबाग।

७. डरफिन सराय।

८. मोती महल।

९. आरटीओ कार्यालय।

१०. गोपाचल पर्वत।

 

नरसिंहगढ़ का फुन्सुक वांगडू ‘हर्ष गुप्ता’

लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

 

खूबसूरत और व्यवस्थित खेती का उदाहरण है नरसिंहगढ़ के हर्ष गुप्ता का फार्म। वह खेती के लिए अत्याधुनिक, लेकिन कम लागत की तकनीक का उपयोग करता है। जैविक खाद इस्तेमाल करता है। इसे तैयार करने की व्यवस्था उसने अपने फार्म पर ही कर रखी है। किस पौधे को किस मौसम में लगाना है। पौधों के बीच कितना अंतर होना चाहिए। किस पेड़ से कम समय में अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। किस पौधे को कितना और किस पद्धति से पानी देना है। इस तरह की हर छोटी-बड़ी, लेकिन महत्वपूर्ण जानकारी उसके दिमाग में है। जब वह पौधों के पास खड़ा होकर सारी जानकारी देता है तो लगता है कि उसने जरूर एग्रीकल्चर में पढ़ाई की होगी, लेकिन नहीं। हर्ष गुप्ता इंदौर के एक प्राइवेट कॉलेज से फस्र्ट क्लास टैक्सटाइल इंजीनियर है। उसने इंजीनियरिंग जरूर की थी, लेकिन रुझान बिल्कुल भी न था।

सन् २००४ में वह पढ़ाई खत्म करके घर वापस आया। उसने फावड़ा-तसल्ल उठाए और पहुंच गया अपने खेतों पर। यह देख स्थानीय लोग उसका उपहास उड़ाने लगे। लो भैया अब इंजीनियर भी खेती करेंगे। नौकरी नहीं मिल रही इसलिए बैल हाकेंगे। वहीं इससे बेफिक्र हर्ष ने अपने खेतों को व्यवस्थित करना शुरू कर दिया। इसमें उसके पिता का भरपूर सहयोग मिला। पिता के सहयोग ने हर्ष के उत्साह को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। बेटे की लगन देख पिता का जोश भी जागा। खेतीबाड़ी से संबंधित जरूरी ज्ञान इंटरनेट, पुराने किसानों और कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से जुटाया। नतीजा थोड़ी-बहुत मुश्किलों के बाद सफलता के रूप में सामने आया। उसके फार्म पर आंवला, आम, करौंदा, शहतूत, गुलाब सहित शीशम, सागौन, बांस और भी विभिन्न किस्म के पेड़-पौधे २१ बीघा जमीन पर लगे हैं। हर्ष की कड़ी मेहनत ने उन सबके सुर बदल दिए जो कभी उसका उपहास उड़ाते थे। उसके फार्म को जिले में जैव विविधता संवर्धन के लिए पुरस्कार भी मिल चुका है। इतना ही नहीं कृषि पर शोध और अध्ययन कर रहे विद्यार्थियों को फार्म से सीखने के लिए संबंधित संस्थान भेजते हैं।

 

हर्ष का कहना है कि मेहनत तो सभी किसान करते हैं, लेकिन कई छोटी-छोटी बातों का ध्यान न रखने से उनकी मेहनत बेकार चली जाती है। मेहनत व्यवस्थित और सही दिशा में हो तो सफलता सौ फीसदी तय है। मैं इंजीनियर की अपेक्षा किसान कहलाने में अधिक गर्व महसूस करता हूं। हर्ष कहते हैं कि खेती के जिस मॉडल को मैं समाज के सामने रखना चाहता हूं उस तक पहुंचने में कुछ वक्त लगेगा…….

हर्ष गुप्ता और उसके फार्म के बारे में बात करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना सा ही है कि कामयाबी के लिए जरूरी नहीं कि अच्छी पढ़ाई कर बड़ी कंपनी में मोटी तनख्वा पर काम करना है। लगन हो तो कामयाबी तो साला झक मारके आपके पीछे आएगी। यह कर दिखाया छोटे-से कस्बे नरसिंहगढ़ के फुन्सुक वांगडू ‘हर्ष गुप्ता’ ने।

युवा और राजनीति

विजय कुमार

 

राजनीति में युवाओं की भूमिका कैसी हो, इस पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। पिछले दिनों राहुल गांधी ने विभिन्न माध्यमों से युवा पीढ़ी से सम्पर्क किया। विश्वविद्यालयों में जाकर उन्होंने युवाओं से राजनीति को अपनी आजीविका (कैरियर) बनाने को कहा; पर उनका यह विचार कितना समीचीन है, इस पर विचार आवष्यक है।

 

 

यह तो सच ही है कि भारत एक युवा देश है। पिछले लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी बनाम राहुल गांधी की लड़ाई में युवा होने के कारण राहुल भारी पड़े। यद्यपि पर्दे के आगे मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं; पर सरकार में सबसे अधिक सोनिया और राहुल की ही चलती है। राहुल की इस सफलता से सब दलों को अपनी सोच बदलनी पड़ी। सबसे बड़े विपक्षी दल भाजपा ने तो अपना अध्यक्ष ही 52 वर्षीय नितिन गडकरी को चुन लिया। अब सब ओर युवाओं को आगे बढ़ाने की बात चल रही है। भावी राजनीति के एजेंडे पर निःसंदेह अब युवा आ गये हैं।

 

 

लेकिन युवाओं का राजनीति से जुड़ना और उसे आजीविका बनाना दोनों अलग-अलग बातें हैं; पर राहुल गांधी दोनों को एक साथ मिलाकर भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं।

 

 

सबसे पहली बात तो यह है कि राजनीति नौकरी, व्यवसाय या खेती की तरह आजीविका नहीं है। नौकरी शैक्षिक या अनुभवजन्य योग्यता से मिलती है, जबकि खेती और व्यापार प्रायः पुश्तैनी होते हैं। यद्यपि कांग्रेस और उसकी देखादेखी अधिकांश दलों ने राजनीति को भी पुश्तैनी बना लिया है; पर यह सैद्धान्तिक रूप से गलत है। प्रत्याशी भी चुनाव में हाथ जोड़कर वोट मांगते समय यही कहते हैं कि इस बार हमें सेवा का अवसर दें। जनता किसे यह अवसर देती है, यह बात दूसरी है; पर इससे स्पष्ट होता है कि राजनीति आजीविका न होकर समाज सेवा का क्षेत्र है।

 

 

भारतीय लोकतंत्र एवं संविधान लगभग ब्रिटिश व्यवस्था की नकल है। उसी के अनुरूप यहां जन प्रतिनिधियों को वेतन तथा अन्य भत्ते दिये जाते हैं। जन प्रतिनिधि लगातार अपने क्षेत्र में घूमते हैं। सैकड़ों लोग उनसे मिलने हर दिन आते हैं, जिनके चाय-पानी में बड़ी राशि व्यय होती है। यह राशि सरकार दे, इसमें आपत्ति नहीं है; पर राजनीति किसी के घर चलाने का एकमात्र साधन बन जाए, यह नितांत अनुचित है।

 

 

राजनीति में उतार-चढ़ाव आते ही हैं। लोग चुनाव हारते और जीतते रहते हैं। यदि राजनीति ही आजीविका का एकमात्र साधन होगी, तो चुनाव हारने पर व्यक्ति अपना घर कैसे चलाएगा ? यह बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे किसी की नौकरी छूट जाए, या उसे व्यापार में घाटा हो जाए या खेती धोखा दे जाए। ऐसे में व्यक्ति अपने मित्रों, परिजनों या बैंक के कर्ज आदि से फिर काम को जमा लेता है; पर राजनीति में तो ऐसा सहयोग नहीं मिलता। फिर उसके परिवार का क्या होगा ? या तो वह चोरी-डकैती करेगा या आत्महत्या। और यह दोनों ही अतिवादी मार्ग अनुचित हैं।

 

 

एक दूसरे दृष्टिकोण से इसे देखें। यदि सब जन प्रतिनिधि युवा ही बन जाएं, तो भी कुल मिलाकर कितने युवा आजीविका पा सकेंगे। लोकसभा, राज्यसभा, देश भर की विधानसभा और विधान परिषद को मिला कर संभवतः 10,000 स्थान बनते होंगे। यदि इसमें जिला और नगर पंचायतों के प्रतिनिधि मिला लें, तो संख्या 25,000 होगी। यदि इसमें देश की पांच लाख ग्राम पंचायतें और जोड़ लें, तो यह संख्या सवा पांच लाख हो जाएगी। यदि हर युवा राजनीति को ही आजीविका बनाने की सोच ले, तो शेष 40-45 करोड़ युवा क्या करेंगे ?

 

 

कौन नहीं जानता कि राजनीति और चुनाव का चस्का एक बार लगने पर आसानी से छूटता नहीं है। व्यक्ति चाहे हारे या जीते; पर वह इस क्षेत्र में ही बना रहना चाहता है। आजकल राजनीति पूर्णकालिक काम हो गयी है। इसमें अत्यधिक पैसा खर्च होता है, जिसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति भ्रष्ट साधन अपनाता है। इसीलिए स्थानीय नेता प्रायः ठेकेदारी करते मिलते हैं। इस दो नंबरी धंधे से वे एक झटके में लाखों-करोड़ों रु0 पीट लेते हैं। कई नेता एन.जी.ओ बनाकर सेवा के नाम पर घर भरते हैं। क्या राहुल गांधी ऐसे ही भ्रष्ट युवाओं की फौज देश में तैयार करना चाहते हैं ?

 

 

यदि किसी को भ्रम हो कि युवा लोग भ्रष्ट नहीं होते, तो राजीव गांधी को देख लें। प्रधानमंत्री बनते ही देश ने उन्हें ‘मिस्टर क्लीन’ की उपाधि दी थी। उन्होंने कांग्रेस को सत्ता के दलालों से दूर करने का आह्नान किया था। सबको लगा था कि राजनीतिक उठापटक से दूर रहा यह व्यक्ति सचमुच कुछ अच्छा करेगा। इसीलिए सहानुभूति लहर के बीच जनता ने उसे संसद में तीन चौथाई बहुमत दिया; पर कुछ ही समय में पता लग गया कि वह भी उसी भ्रष्ट कांग्रेसी परम्परा के वाहक हैं, जिस पर उनके नाना, मां और आम कांग्रेसी चलते रहे हैं। मिस्टर क्लीन बोफोर्स दलाली खाकर अंततः ‘मिस्टर डर्टी’ सिद्ध हुए।

 

 

अपनी अनुभवहीनता और देश की मिट्टी से कटे होने के कारण राजीव गांधी के अधिकांश निर्णय नासूर सिद्ध हुए। उन्होंने ही अंग्रेजीकरण को अत्यधिक बढ़ावा दिया, जिससे ग्राम्य प्रतिभाओं के उभरने का मार्ग सदा को बंद हो गया। पहले गरीब व्यक्ति अपने बच्चों को पाठशाला में भेजकर संतुष्ट रहता था; पर आज अंग्रेजी बोलने वाले ही नौकरी पा सकते हैं। इसलिए अपना पेट काटकर भी लोग बच्चों को महंगे अंग्रेजी विद्यालय में भेजने को मजबूर हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण भारत में स्थानीय भाषा और बोलियों का मरना जारी है। यह सब राजीव गांधी की ही देन हैं।

 

 

विदेश नीति के मामले में भी राजीव गांधी अनाड़ी सिद्ध हुए। उन्होंने तमिलनाडु की राजनीति में कांग्रेसी प्रभाव बढ़ाने के लिए श्रीलंका में लिट्टे को बढ़ावा दिया; पर जब लिट्टे सिर पर सवार हो गया, तो उन्होंने वहां शांति सैनिकों को भेज दिया। इससे भारत के सैकड़ों सैनिक मारे गये और विश्व भर में हमारी थू-थू हुई। श्रीलंका जैसे मित्र देश की एक बड़ी जनसंख्या के मन में भारत के प्रति स्थायी शत्रुता का भाव पैदा हो गया। राजीव की हत्या भी इसीलिए हुई। स्पष्ट है कि राजनीति में यौवन की अपेक्षा देश-विदेश के मामलों का अनुभव अधिक महत्वपूर्ण है।

 

 

लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि युवा पीढ़ी राजनीति से अलिप्त हो जाए; उसे देश के वर्तमान और भविष्य से कुछ मतलब ही न हो ? यदि ऐसा हुआ, तो यह बहुत ही खतरनाक होगा। इसलिए उन्हंे भी राजनीति में सक्रिय होना चाहिए; पर उनकी सक्रियता का अर्थ सतत जागरूकता है। ऐसा हर विषय, जो उनके आज और कल को प्रभावित करता है, उस पर वे अहिंसक आंदोलन कर देश, प्रदेश और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को अपनी नीति और नीयत बदलने पर मजबूर कर दें। ऐसा होने पर हर दल और नेता दस बार सोचकर ही कोई निर्णय लेगा।

 

 

स्वाधीनता के आंदोलन में हजारों युवा पढ़ाई छोड़कर कूदे थे। क्या भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, आजाद आदि राजनीतिक रूप से निष्क्रिय थे, चूंकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा ? 1948 में गांधी हत्या के झूठे आरोप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे प्रतिबंध के विरुद्ध लगभग 70,000 स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। उनमें से अधिकांश युवा थे। सत्तर के दशक में असम में घुसपैठ विरोधी आंदोलन हुआ। 1974-75 में इंदिरा गांधी के भ्रष्ट प्रशासन, आपातकाल और फिर संघ पर प्रतिबंध के विरुद्ध भी एक लाख लोग जेल गये। श्रीराम मंदिर आंदोलन में लाखों हिन्दुओं ने कारावास स्वीकार किया। यद्यपि इनमें से दस-बीस लोग सांसद और विधायक भी बने; पर क्या शेष लोग राजनीतिक रूप से निष्क्रिय माने जाएंगे, चूंकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा ?

 

 

स्पष्ट है कि राजनीतिक सक्रियता का अर्थ चुनाव लड़ना नहीं, सामयिक विषयों पर जागरूक व आंदोलनरत रहना है। बहुत से लोगों के मतानुसार वोट देने की अवस्था भले ही 18 वर्ष कर दी गयी हो; पर चुनाव लड़ने की अवस्था 50 वर्ष होनी चाहिए। जिसे नौकरी, खेती, कारोबार और अपना घर चलाने का ही अनुभव न हो; जिसने जीवन के उतार-चढ़ाव न देखें हों, वह अपने गांव, नगर, जिले, राज्य या देश को कैसे चला सकेगा ?

 

 

भारतीय जीवन प्रणाली भी इसका समर्थन करती है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ के बाद 25 वर्ष का वानप्रस्थ आश्रम समाज सेवा को ही समर्पित है। इस समय तक व्यक्ति अपने अधिकांश घरेलू उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाता है। उसे दुनिया के हर तरह के अनुभव भी हो जाते हैं। काम-धंधे में नयी पीढ़ी आगे आ जाती है। यही वह समय है, जब व्यक्ति को समाज सेवा के लिए अपनी रुचि का क्षेत्र चुन लेना चाहिए, जिसमें से राजनीति भी एक है। हां, यह ध्यान रहे कि उसे 75 वर्ष का होने पर यहां भी नये लोगों के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए।

 

 

यदि युवा पीढ़ी तीन सी (बपदमउंए बतपबामज – बंतममत . सिनेमा, क्रिकेट एवं कैरियर) से ऊपर उठकर देखे, तो सैकड़ों मुद्दे उनके हृदय में कांटे की तरह चुभ सकते हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, कामचोरी, राजनीति में वंशवाद, महंगी शिक्षा और चिकित्सा, खाली होते गांव, घटता भूजल, मुस्लिम आतंकवाद, माओवादी और नक्सली हिंसा, बंगलादेशियों की घुसपैठ, हाथ से निकलता कश्मीर, जनसंख्या के बदलते समीकरण, किसानों द्वारा आत्महत्या, गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई आदि तो राष्ट्रीय मुद्दे हैं। इनसे कहीं अधिक स्थानीय मुद्दे होंगे, जिन्हें आंख और कान खुले रखने पर पहचान सकते हैं।

 

 

आवश्यकता यह है युवा चुनावी राजनीति की बजाय इस ओर सक्रिय हों। उनकी ऊर्जा, योग्यता, संवेदनशीलता और देशप्रेम की आहुति पाकर देश का राजनीतिक परिदृश्य निश्चित ही बदलेगा।

नया साल जो आया है

विजय कुमार

लीजिये, हंसता और मुस्कुराता, खिलखिलाकर नव उल्लास बिखराता, निराशा को भगाता और आशा को बटोरता नया वर्ष फिर से आ गया। चारों ओर देखिये, पेड़ नये पत्तों और कलियों के आगमन से कैसे झूम रहे हैं। पेड़-पौधे मुक्तहस्त होकर सुगंध बांट रहे हैं। भला कौन वह मूर्ख होगा, जो परिवार में आ रहे नये सदस्यों को देख खुश न हो। पशु हो या पक्षी, मानव हो या वनस्पति; सब पुराने के जाने पर दुखी होते हैं; पर वह दुख नवआगत के स्वागत के कारण धूमिल भी हो जाता है। यही सृष्टि का नियम है, इसलिए आज सब खुश है। आखिर क्यों न हों, नया साल जो आया है।

 

 

पर फिर एक जनवरी क्या है ? हां, वह भी नया साल है; पर वह विदेशी है। कुछ लोग कहते हैं कि ईसा के जन्म से नया साल प्रारम्भ हुआ; पर यह बात आज तक कोई नहीं समझा पाया कि यदि यही सत्य है, तो फिर नया साल 25 दिसम्बर से क्यों नहीं होता; या फिर एक जनवरी को ईसा का जन्म क्यों नहीं मनाया जाता ? और हां, वे 25 दिसम्बर को बड़ा दिन कहते हैं। जबकि भूगोल बताता है कि मकर संक्रांति (14 अप्रैल) से दिन बढ़ने लगता है और सबसे बड़ा दिन 21 जून होता है। सच तो यह है कि अंग्रेजी वर्ष अवैज्ञानिक ही नहीं, अनैतिहासिक भी है।

 

 

असल में पश्चिम में अधिकांशतः सर्दी रहती है, इसलिए उन्होंने अपनी कालरचना सूर्य को केन्द्र मानकर की। दूसरी ओर अरब के रेगिस्तान प्रायः तपते ही रहते हैं। इसलिए उनके जीवन में चन्द्रमा की शीतलता का अधिक महत्व है। यही उनके कैलेंडर के साथ भी हुआ। इस कारण ये दोनों कैलेंडर अधूरे रह गये। पहले तो वे साल में 10 महीने ही मानते थे। फिर पश्चिम ने भूल सुधार कर इनकी संख्या 12 कर ली; पर मुस्लिम कैलेंडर आज भी वहीं है। इसीलिए कभी ईद सर्दी में आती है, तो कभी गर्मी या बरसात में।

 

 

एक अजब बात और; उनका दिन रात के अंधेरे में बारह बजे प्रारम्भ होता है। शायद ऐसे लोगों के लिए ही शास्त्रों में निशाचर शब्द आया है। निशाचरी अपसंस्कृति के प्रभाव से ही सब ओर चरित्रहीनता और अपराध बढ़ रहे हैं। जब वे 10 महीने का वर्ष मानते थे, तो सितम्बर (सप्त अम्बर: सातवां महीना), अक्तूबर (अष्ट अम्बर: आठवां महीना), नवम्बर (नवम अम्बर: नवां महीना) और दिसम्बर (दशम अम्बर: दसवां महीना) यह गणना सही थी। भूल पता लगने पर उन्होंने प्रारम्भ में जनवरी और फरवरी जोड़ दिये; पर सितम्बर से दिसम्बर वाले महीनों के नाम नहीं बदले।

 

 

अब जरा उनके साल को भी देखिये। किसी महीने में 28 दिन हैं, तो किसी में 31। कैलेंडर बनाते समय संत आगस्ट के नाम पर एक महीना बनाकर उसमें 31 दिन कर दिये; पर यह एक दिन कहां से लायें ? किस्मत की मारी फरवरी उनके सामने पड़ गयी। बस उसके 30 में से ही एक दिन काट लिया गया। अब तत्कालीन शासक जूलियस सीजर ने कहा कि एक महीना उनके नाम पर भी होना चाहिए। इतना ही नहीं, वह अगस्त से पहले और 31 दिन का ही हो। इसलिए उनके नाम पर जुलाई बना दिया गया; पर फिर एक दिन वाली समस्या आ गयी। गरीब फरवरी की गर्दन पर फिर छुरी चलाकर एक दिन काटा गया। वह बेचारी आज भी अपने 28 दिनों के साथ जुलाई और अगस्त को कोस रही है।

 

 

यह कार्य 532 ई0 में जूलियस सीजर के राज्य में हुआ था। अतः यह रोमन या जुलियन कैलेंडर कहलाया। इसमें चार साल में एक बार 366 दिन वाले लीप वर्ष की व्यवस्था भी की गयी; पर यह गणना भी पूरी तरह ठीक नहीं थी। इसमें एक साल को 365.25 दिन के बराबर माना गया, जबकि यह सायन वर्ष (365.2422 दिन) से 11 मिनट, 13.9 सेकेंड अधिक था। फलतः सन 1582 तक इस कैलेंडर में 10 अतिरिक्त दिन जमा हो गये। अतः पोप ग्रेगोरी ने एक धर्मादेश जारी कर 4 अक्तूबर के बाद सीधे 15 तारीख घोषित कर दी।

 

 

लोग 4 अक्तूबर की रात को सोये थे; पर वे उठे तो उस दिन 15 अक्तूबर था। एक साथ दस दिन की यह नींद अजब थी। यदि कुंभकर्ण को पता लगता, तो वह अपने इन लाखों नये अवतारों से मिलने जरूर आता; पर वहां तो लोग सड़कों पर आकर शोर मचाने लगे। जिनके जन्मदिन या विवाह की वर्षगांठ इन दिनों में पड़ती थी, वे चिल्लाकर अपने दिन वापस मांगने लगे। कुछ लोग भयभीत हो गये कि कहीं उनकी आयु एक साल कम न मान ली जाये; पर कुछ दिन के शोर के बाद सब शांत हो गये।

 

 

इस व्यवस्था से बना कैलेंडर ‘ग्रेगोरी कैलेंडर’ कहलाया। सर्वप्रथम इसे कैथोलिकों ने और 1700 ई0 में प्रोटेस्टेंट ईसाइयों ने अपनाया। 1873 में जापान और 1911 में यह चीन में भी प्रचलित हो गया। भारत में अंग्रेजों ने इसे जबरन चलवाया। यद्यपि पर्व-त्योहार आज भी भारतीय कालगणना के आधार पर ही मनाये जाते हैं।

 

 

भारत ने स्थिर सूर्य और चलायमान चन्द्रमा दोनों की गणना की। इसीलिए हमारा पंचांग तिथि, मास, दिन, पक्ष और अयन भी बताता है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही पृथ्वी का पिंड सूर्य से अलग हुआ था। अतः यह पृथ्वी का जन्मदिन है। ब्रह्मपुराण के अनुसार ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण इसी दिन सूर्योदय होने पर प्रारम्भ किया था।

 

 

चैत्र मासे जगदब्रह्मा संसर्ज प्रथमेहनि

शुक्ल पक्षे समग्रं तु तदा सूर्याेदय सति।।

 

 

इसके साथ ही इतिहास की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी यह दिन है। इस दिन से नवरात्रों में मां दुर्गा का पूजन एवं व्रत प्रारम्भ होते हैं। त्रेतायुग में श्रीराम और द्वापर में युद्धिष्ठिर का राज्याभिषेक इसी दिन हुआ था। उज्जयिनी के महान सम्राट विक्रमादित्य ने विदेशी शकों को हराकर इसी दिन राजधानी में प्रवेश किया था। उसी स्मृति में विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ। विक्रमादित्य की विशेषता यह भी थी कि उन्होंने बचे-खुचे शकों को हिन्दू समाज में ही मिला लिया। आज यह कहना कठिन है कि हममें से कौन उन शकों की संतान है। इसके बाद भी अनेक भारतीय वीरों ने शत्रुओं को धूल चटाई; पर वे उन्हें स्वयं में मिला-पचा नहीं सके। इसलिए शकारि विक्रमादित्य की विजय का महत्व सर्वाधिक है। अर्थात हिन्दू नववर्ष किसी के जन्म का नहीं, अपितु स्वदेश की विजय का पर्व है।

 

 

जब विदेशी मुसलमानों के आतंक से सिन्ध प्रदेश थर्रा रहा था, तो वरुण अवतार झूलेलाल ने चैत्र शुक्ल द्वितीया को जन्म लेकर हिन्दू समाज को त्राण दिलाया। सिख परम्परा के दूसरे गुरु अंगददेव जी का प्राक्टय दिवस भी यही है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने वैदिक मान्यताओं की पुनप्रर्तिष्ठा हेतु आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डा0 केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म भी नागपुर में इसी दिन हुआ था।

 

 

भारतीय कालगणना की एक अन्य विशेषता यह है कि प्रत्येक संवत्सर इसी दिन से प्रारम्भ होता है। भारत में सृष्टि संवत से लेकर कल्पाब्द, युगाब्द, वामन, श्रीराम, श्रीकृष्ण, युद्धिष्ठिर, बौद्ध, महावीर, शंकराचार्य, शालिवाहन, बंगला, हर्षाब्द, कलचुरी, फसली, वल्लभी आदि अनेक संवत प्रचलित हैं। शासन ने महाराजा शालिवाहन का स्मरण दिलाने वाले शक संवत को अधिकृत संवत माना है (कुछ इसे कनिष्क से जोड़ते हैं)। ईसवी सन में 57 जोड़ने पर विक्रम संवत तथा 78 घटाने से शक संवत की गणना सामान्यतः की जा सकती है। वर्ष 2011 में गणना करने पर भारतीय सृष्टि संवत (1,97,19,61,682) तथा विदेशी कालगणना में चीनी संवत (9,60,02,309) सर्वाधिक प्राचीन हैं।

 

 

इसलिए आइये, विदेशी जूठन चाटना छोड़कर अपने महान पुरखों से जुड़ें। किसी कारण से यदि अंग्रेजी तिथियों को मानना और लिखना मजबूरी बन गया हो, तो भी निजी जीवन, पत्र-व्यवहार आदि में तो अपनी कालगणना को प्रयोग किया ही जा सकता है। नयी पीढ़ी को अपनी तिथियांे और मास के बारे में जरूर बतायें। कुछ दिन यह कठिन जरूर लगेगा; पर फिर सरल हो जाएगा।

 

 

नव वर्ष वाले दिन शास्त्रों के आदेशानुसार अपने घर, बाजार और सार्वजनिक स्थानों पर भगवा पताका फहरायें। गत वर्ष के अंतिम सूर्य को विदाई देकर नव वर्ष के प्रथम सूर्योदय का सामूहिक स्वागत करें। गली-मौहल्ले और आंगन को साफ कर रंगोली बनायें। युवकों को प्रेरित कर मंदिर या सार्वजनिक स्थल पर देवी जागरण या विशेष पूजा करवायें। घर में श्रीरामचरितमानस या अन्य किसी भी धार्मिक ग्रन्थ का पाठ करें। साफ वस्त्र पहनें, यज्ञ करें और उसमें सभी पड़ोसियों को बुलायें। बाजार, बस अड्डे, रेलवे स्टेशन आदि सार्वजनिक स्थानों पर मंगलतिलक लगाकर सबको बधाई दें। मिठाई खायें और खिलायें। परिचितों और संबंधियों को शुभकामना-पत्र और सरल मोबाइल संदेश (एस.एम.एस) भेजें। बधाई के बैनर लगाकर बाजार को सजायें। कार्यालय में भी सबको शुभकामना दें। समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर सबको इस कार्य के लिए प्रेरित करें।

 

 

इस अवसर पर अपने समाज के निर्धन और उपेक्षित बंधुओं को भी न भूलें। हमारे मौहल्ले और घर में काम करने वाले सफाईकर्मी हांे या घर पर चौका, बरतन करने वाली महरी; सबके कपड़े धोने वाला धोबी हो या चरणसेवा करने वाला मोची; चौकीदार हो या हमारे दैनन्दिन जीवन से जुड़े माली, लुहार, बढ़ई या अन्य कोई श्रमजीवी; सबको आज अपने घर बुलायें; अकेले नहीं, सपरिवार बुलायें। मंदिर के पुजारी और बच्चों के अध्यापकों को भी न भूलें। सबको आदर दें; अपने साथ, अपनी रसोई और मेज पर बैठाकर प्रेम से खाना खिलायें। बच्चों को खिलौने और पाठ्य सामग्री उपहार में दें, तो बड़ों को नये वस्त्र। इसके लिए चै.शु.1 से लेकर श्रीरामनवमी (चै.शु.9) तक कभी भी समय निकाल लें।

 

 

एक बार यह करिये तो; फिर देखिये सब ओर कैसा समरसता का वातावरण बनेगा। अमीरी जब अपनी पड़ोसन गरीबी से झुककर गले मिलेगी; शिक्षा जब अपनी सहचरी अशिक्षा का बढ़कर हाथ थामेगी; अहंकार जब सद्व्यवहार को अपने पास बैठायेगा; तब न जातिवाद रहेगा, न क्षेत्रवाद; भाषा और प्रांत के झगड़े कहीं कोने में मुंह दबाये पड़े मिलेंगे। नव वर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन यह सुअवसर हमें उपलब्ध कराता है। आइये, इसका उपयोग करें। प्रेम बांटे और प्रेम पायें। नाचें और गायें, हर्षाेल्लास मनायें, क्योंकि फिर एक साल बाद आज नया साल जो आया है।

मीडिया, जनाकांक्षा और जनतंत्र

विजय कुमार

 

एक व्यक्ति से दूसरे तक या एक स्थान से दूसरे स्थान पर किसी वस्तु को पहुंचाने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। समाचारों और विचारों को फैलाने के लिए प्रयोग हो रहे माध्यम के लिए ही इन दिनों मीडिया शब्द रूढ़ हो गया है।

 

 

मीडिया को विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के साथ ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। लोग विधायिका और कार्यपालिका की खुली आलोचना करते हैं। न्यायपालिका की आलोचना करते समय शब्द प्रयोग में थोड़ी सावधानी रखनी पड़ती है, चूंकि उससे मानहानि के मुकदमे का भय रहता है। इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र के जिन नेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों या उद्योगपतियों पर मुकदमे चल रहे हैं, वे सदा यही कहते हैं कि उन्हें भारत के न्यायालय पर विश्वास है। यद्यपि न्यायालय द्वारा विपरीत निर्णय आने पर उनके मन के विपरीत भाव मुखर होते देर नहीं लगती।

 

 

पर मीडिया की आलोचना से प्रायः सब बचते हैं, मानो वह कोई मजहबी किताब है, जिसकी आलोचना से तूफान आ जाएगा। अतः मीडिया का स्तर लगातार गिर रहा है; लोगों का उससे विश्वास घट रहा है और लोकतंत्र तथा जनाकांक्षा की कसौटी पर उसकी भूमिका संदेह के घेरे में है।

 

 

भारत में समाचार प्रकाशन का इतिहास छापेखाने के आविष्कार से ही प्रारम्भ होता है। अंग्रेजी काल होने के कारण पत्र-पत्रिकाओं का उद्देश्य उस समय स्वाधीनता की अलख जगाना था। इसीलिए जान और जेल का खतरा उठाकर सैकड़ों पत्रकारों ने उस समय काम किया। कुछ पत्र खुलेआम छपते थे, तो कुछ गुप्त रूप से। कई पत्र विदेशों में छपकर भारत के साथ ही अनेक देशों में वितरित होते थे। उनका रूप कई बार एक-दो पृष्ठों के पत्रक जैसा ही होता था। ये पत्र जिसके पास मिलते थे, उस पर मुकदमा और फिर उसे कई वर्ष की जेल होती ही थी। इस पर भी ये छपते और बंटते थे। लोकप्रियता के कारण लोगों को इनकी प्रतीक्षा रहती थी। यद्यपि चाटुकार तब भी थे। फिर भी स्वाधीनता से पूर्व का अधिकांश मीडिया तंत्र जनाकांक्षा की कसौटी पर खरा उतरा था।

 

 

1947 के बाद देश के वातावरण में जो क्षरण हुआ, उसका प्रभाव मीडिया पर भी पड़ा। नेहरू जी स्वभाव से अंग्रेजी और उर्दूपरस्त थे। भारतीय भाषाओं से वे घृणा करते थे। अंग्रेजों ने षड्यन्त्रपूर्वक अंग्रेजी पत्रों को राष्ट्रीय (छंजपवदंस) तथा भारतीय भाषा वाले पत्रों को भाषायी (टमतदंबनसंत) कहा। नेहरू ने भी इसी नीति का पालन किया। अतः शासकीय विज्ञापन ऐसे ही पत्रों को मिलने लगे। अतः अंग्रेजी पत्र खूब फले-फूले। दुर्भाग्य से आज भी यही स्थिति है। शासकीय विज्ञापनों का 80 प्रतिशत अंग्रेजी पत्रों को ही मिलता है।

 

 

लेकिन जहां तक जमीनी समाचारों की बात है, अंग्रेजी पत्रों में उनका प्रायः अभाव दिखता है। यह बात 1947 की तरह आज भी सत्य है। अपने गांव और जिले के समाचार के लिए लोग अपनी भाषा में निकलने वाले पत्रों पर ही निर्भर हैं। यद्यपि बुद्धिजीवी वर्ग तथा शासन-प्रशासन के क्षेत्र में पढ़े जाने के कारण अंग्रेजी पत्रों का प्रभाव अधिक है; पर प्रसार की दृष्टि से भारतीय पत्रों से वे बहुत पीछे हैं। अर्थात अंग्रेजी पत्र भारत के शिक्षित, सम्पन्न और सम्पन्न वर्ग की मानसिक भूख भले ही शांत कर देता हो; पर जनाकांक्षा की पूर्ति तो भारतीय पत्रों से ही होती है।

 

 

26 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में तानाशाही थोपकर सभी पत्र-पत्रिकाओं पर नियन्त्रण हेतु सेंसर लगा दिया गया। कई पत्रों ने अपनी-अपनी शैली में इसका विरोध किया; पर यह विरोध अधिक समय तक नहीं चल सका। शर्म की बात तो यह है कि बड़े कहे जाने वाले कई पत्रों के सम्पादकों ने जुलूस निकालकर इसका समर्थन किया। उस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने गुप्त रूप से 500 से लेकर 1,000 प्रसार संख्या वाले सैकड़ों पत्र प्रकाशित किये। अंगारा, सौगन्ध, स्वाधीनता…आदि नामों से ये पत्र एक नगर या जिले तक सीमित होते थे। ये हाथ से चलने वाली साइक्लोस्टाइल मशीन पर छपते थे, जबकि कुछ साहसी प्रेस मालिक रात में इन्हें बड़ी मशीनों पर भी छाप देते थे। उस समय भी जनाकांक्षा की पूर्ति इन स्थानीय पत्रों द्वारा ही हुई, तथाकथित बड़े पत्रों द्वारा नहीं।

 

 

आपातकाल हटने के बाद पत्रों को पूर्ववत स्वाधीनता मिली। तब एक कांग्रेसी नेता ने कहा था कि हमने उन्हें सिर्फ झुकने को कहा था, पर वे लेटकर दंडवत करने लगे। बड़े पत्रों की इस रीढ़विहीनता का कारण यह था कि सभी बड़े पत्र पूंजीपतियों के थे, और पूंजीपति कभी सरकार का विरोध नहीं कर सकते। जो स्थिति कल थी, वही आज भी है। बड़े कहलाने वाले अंग्रेजी या भारतीय पत्रों के मालिक आज भी बड़े व्यापारी ही हैं। उनके मुख्य कारोबार कुछ और है। पत्र उनके कारोबार को मीडिया रूपी ढाल प्रदान करते हैं।

 

 

मीडिया पूरी तरह बाजार के चंगुल में है, इसे वर्तमान पत्रों की भाषा से समझ सकते हैं। अस्सी के दशक में जब राजीव गांधी और उनकी दून मंडली सत्ता में आई, तो देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। धीरे-धीरे हिन्दी माध्यम से चलने वाले विद्यालयों ने भी अपने बोर्ड बदलकर उन पर अंग्रेजी माध्यम लिखवा दिया। आज उस बात को 25 वर्ष हो चुके हैं और एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आ गयी है, जो न ठीक से हिन्दी जानती है और न अंग्रेजी। हिन्दी अंकावली तो प्रायः पूरी तरह से ही गायब हो गयी है।

 

 

इस पीढ़ी तक पहुंचने के लिए कई हिन्दी पत्रों ने अपनी भाषा में जबरन अंग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि की घुसपैठ करा दी है। कई पत्र तो शीर्षक ही अंग्रेजी में लगाने लगे हैं। कोई समय था, जब इन पत्रों के माध्यम से लोग अपनी भाषा सुधारते थे; पर अब वही मीडिया भाषा बिगाड़ने में लगा है। दूरदर्शन के समाचारों तथा नीचे आने वाली लिखित पट्टी में हिन्दी के साथ जैसा दुर्व्यवहार होता है, उसे देखकर सिर पीटने की इच्छा होती है। स्पष्ट है कि मीडिया का उद्देश्य इस समय केवल पैसे कमाना हो गया है।

 

 

पत्र-पत्रिकाओं से लेखक व साहित्यकारों को एक पहचान मिलती है। पहले कई पत्र प्रयासपूर्वक नये और युवा लेखकों को प्रोत्साहित करते थे; पर अब अधिकांश पत्र किसी गुट से बंधे हैं। वे उस गुट के लेखकों को ही स्थान देते हैं। विरोधी या तटस्थ लेखकों की रचनाएं अच्छी होने पर भी फेंक दी जाती हैं। यहां तक कि उनको जवाब भी नहीं दिया जाता। अंग्रेजी लेखकों की अनुवादित जूठन परोसने में भी कई पत्रों में होड़ लगी है। वे भूलते हैं कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वाले कम नहीं हैं; पर जब उद्देश्य केवल पैसा हो, तो इस ओर ध्यान कैसे जा सकता है ?

 

 

अपने विचार से इतर संस्थाओं के कार्यक्रमों के बहिष्कार की प्रवृत्ति भी इसी मानसिकता के कारण बढ़ रही है। गत 27 फरवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव और अन्य समाजसेवियों को सुनने एक लाख लोग आये। सरकारी दूरदर्शन ने इसका समाचार ही नहीं दिया, तो दिल्ली के अधिकांश पत्रों ने भी दूसरे-तीसरे पृष्ठ पर इसे स्थान दिया। विज्ञापन का लालची मीडिया शासन से कितना डरता है, इसका यह एक उदाहरण है।

 

 

इस बाजारवाद ने ही ‘पेड न्यूज’ (विज्ञापन को समाचार की तरह छापने) के चलन को बढ़ाया है। चुनाव के समय यह प्रवृत्ति बहुत तीव्र हो जाती है। 100 लोगों की बैठक को विराट सभा बताना तथा विशाल सभा के समाचार को गायब कर देना, इसी कुप्रवृत्ति का अंग है। दुर्भाग्य से वे समाचार पत्र ही इस होड़ में लगे हैं, जिनके मालिकों के पास अथाह सम्पत्ति है। उनकी देखादेखी छोटे पत्र भी इसकी नकल कर रहे हैं। यद्यपि कुछ पत्रकारों और संस्थाओं ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई है, जो एक शुभ लक्षण है।

 

 

मीडिया में समाचार और विचार दो अलग धारणाएं हैं। यदि संवाददाता या संपादक किसी समाचार के पक्ष या विपक्ष में कोई विचार देना चाहे, तो उसके लिए सम्पादकीय पृष्ठ का उपयोग होता है। कुछ पत्र इस नीति का पालन करते हैं; पर अधिकांश में इसका अभाव है। संवाददाता अपने विचारों के अनुसार समाचार को तोड़-मरोड़ देता है। इससे पत्र की विश्वसनीयता कम होती है।

 

 

जब समाज में हर ओर गिरावट आती है, तो उसका प्रभाव मीडिया पर भी पड़ना स्वाभाविक है। समाचार पत्रों को शासन भरपूर विज्ञापन देता है। इस लालच में हजारों पंजीकृत पत्र केवल सौ प्रतियां छाप कर ही स्वयं को जीवित रखते हैं। जिस दल का शासन, उसकी प्रशंसा कर विज्ञापन लेना ही इनकी नीति होती है। पति सम्पादक, पत्नी प्रबंधक, बेटा मुख्य संवाददाता और बेटी विज्ञापन प्रबंधक…। ऐसे पत्र मीडिया की प्रतिष्ठा को गिराते हैं; पर कोई कठोर कानून न होने के कारण ऐसे दलाल लगातार बढ़ रहे हैं। ये पत्र लोकतंत्र और जनाकांक्षा दोनों के लिए ही हानिकारक हैं।

 

 

अंतरजाल के सहारे न्यू मीडिया की एक नई लहर भी इन दिनों जोर पकड़ रही है। बड़ी संख्या में लेखक और पत्रकार ब्ल१ग लिख रहे हैं। यह अपने विचारों को फैलाने का एक प्रबल माध्यम बन गया है। अतः सभी समाचार पत्र इन्हें स्थान देने लगे हैं; पर कोई नियन्त्रण न होने से जहां एक ओर इसकी विश्वसनीयता संदेह के घेरे में है, वहां भाषा की मर्यादा का उल्लंघन भी अत्यधिक हो रहा है। चूंकि अभी यह प्रारम्भिक अवस्था में है, इसलिए इसका भविष्य क्या होगा, कहना कठिन है।

 

 

अंतरजाल और मोबाइल के मेल ने ट्विटर और फेसबुक को एक सशक्त सामाजिक मंच बना दिया है, जहां लोग अपने विचारों को बांट सकते हैं। यह एक दुधारी तलवार है, जो दूसरों के साथ स्वयं पर भी वार करती है। भारत में पूर्व विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर और क्रिकेट के व्यापारी ललित मोदी को ट्विटर पर की गयी टिप्पणियों के कारण ही पद छोड़ना पड़ा। इन दिनों भाजपा नेता सुषमा स्वराज का एक ट्वीट चर्चा में है।

 

 

मीडिया एक सतत प्रवाहमान संस्था है। इसने अनेक बार अपने रंग और रूप बदले हैं। कोई समय था, जब उत्तर से दक्षिण तक समाचार पहुंचने में छह महीने लग जाते थे; पर आज छह सेकेंड में पूरी दुनिया में बात फैल जाती है। इस तेजी के कारण लोकतंत्र और जनाकांक्षा के प्रति इसकी जिम्मेदारी भी बढ़ी है; पर उसकी पूर्ति सही तरह से नहीं हो पा रही है। इसका दोषी केवल मीडिया तंत्र ही नहीं, पूरा समाज और राजनीतिक वातावरण है।

 

 

चुनाव में हर बार लाखों नये मतदाता बनते हैं। नये होने के कारण इनका प्रशिक्षण आवश्यक है। युवा पीढ़ी नई सोच और नई उमंग वाली होती है। अतः मीडिया इस क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभा सकता है। वह नये लोगों को जाति, क्षेत्र, भाषा और प्रांत की राजनीति से मुक्त करने तथा वंशवादी, भ्रष्टाचारी और अपराधी प्रत्याशियों का विरोध करने की प्रेरणा दे सकता है; पर प्रायः मीडिया इस बारे में चुप रहता है। कहीं विज्ञापन उसका मुंह बंद कर देते हैं, तो कहीं प्रत्याशी का भय। फलतः वह भी हर चुनाव क्षेत्र के जातीय और मजहबी समीकरण देकर ही अपने कर्तव्य की पूर्ति कर लेता है। इससे सर्वहित की बजाय जाति और मजहबी राजनीति को बल मिलता है। यही कारण है कि 60 वर्ष का होने के बाद भी भारतीय लोकतंत्र जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पा रहा है।

 

 

किसी भी वस्तु के निर्माण में कच्चे माल और मशीनों की गुणवत्ता का बहुत महत्व है। यही स्थिति मीडिया की है। पत्रकार भी इसी समाज से आ रहे हैं। भौतिकता की होड़ और राजनीति की चमक-दमक से वे भी प्रभावित होते हैं। उन्हें भी अपने परिवार के लिए कार, मकान, मनोरंजन और बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा व अन्य सुविधाएं चाहिए। खाली पेट साइकिल पर घूमते हुए अब पत्रकारिता नहीं हो सकती। ऐसे में उनका क्षरण होगा ही। पिछले दिनों राडिया-राजा प्रकरण से पता लगा कि पत्रकार जगत के कई बड़े लोग कितनी गहराई तक कीचड़ में धंसे हैं।

 

 

भ्रष्टाचार जिस तरह सर्वव्यापी, सर्वस्पर्शी और समाज में स्वीकार्य हो गया है, वह आश्चर्यजनक है। राजनीति तो काली थी ही; पर अब सेना और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के किस्से भी खुल रहे हैं। ऐसे में मीडियाकर्मियों से बहुत आशा नहीं करनी चाहिए। यद्यपि न्यायपालिका और सेना के भ्रष्टाचार को भी मीडिया ने ही उजागर किया है। इसलिए उनकी जिम्मेदारी बाकी सबसे अधिक है।

 

 

पर यह नहीं भूलना चाहिए कि मीडिया भी समाज का ही एक अंग है। उसे लोकतंत्र और जनाकांक्षा की कसौटी पर कसने से पहले समाज और उसके नेताओं को स्वयं को कसौटी पर कसना होगा। भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था, पैसा कमाने की मशीन बनाने वाली अनैतिक शिक्षा और अनुशासनहीन समाज में से 24 कैरेट वाले पत्रकारों की खोज व्यर्थ है।

व्यंग्य बाण: क्रिकेट के विशेषज्ञ

विजय कुमार

 

भारत देवी-देवताओं और अवतारों का ही नहीं, विशेषज्ञों का भी देश है। हर व्यक्ति किसी न किसी बात का विशेषज्ञ होता है। यदि कहीं दस लोग एक साथ बैठे हों, तो उनमें चिकित्सा, ज्योतिष, शिक्षा, पर्यावरण, राजनीति और फिल्म का कम से कम एक-एक विशेषज्ञ अवश्य होगा। हर गांव या बिरादरी में दो-चार रिश्ते कराने और तुड़वाने के विशेषज्ञ भी होते हैं।

 

 

कुछ विशेषज्ञ किसी विशेष मौसम में कुकुरमुत्ते की तरह उग आते हैं। आपकी रुचि न हो, तब भी वे ‘झाड़े रहो कलक्टरगंज’ की तर्ज पर जबरन विशेषज्ञता झाड़ने लगते हैं। यह देखकर कभी-कभी तो उन्हें बनाने वाले भगवान पर ही तरस आने लगता है।

 

 

खेती में सैकड़ों प्रयोग करने के बाद बर्बाद हो चुके रामलाल कृषि विशेषज्ञ हैं, तो व्यापार में सब कुछ लुटाकर चाट बेच रहे श्यामलाल उद्योगों के विशेषज्ञ। तीन पत्नियों को तलाक दे चुके जगमोहन परिवार समन्वय का बोर्ड लगाकर लोगों को सलाह दे रहे हैं, तो शादी की उम्र को 25 साल पहले पार कर चुके मनमोहन रिश्ते मिलाने की दुकान खोले हैं।

 

 

फटी चटाई पर अपने तोते के साथ जमे कालेराम धन कमाने के मंत्र बताते हैं, तो झोपड़ी में बैठे गोरेमल वास्तुशास्त्र के सिद्धांत। ऐसे लोगों के लिए ही काका हाथरसी ने कभी ‘नाम बड़े पर दर्शन छोटे’ नामक प्रसिद्ध कविता लिखी थी। आजकल विश्व कप क्रिकेट का दौर है, इसलिए उसके विशेषज्ञ रुपये में चार मिल रहे हैं।

 

 

परसों मैं किसी काम से शर्मा जी के घर गया, तो वे अपने परम मित्र वर्मा जी से गंभीर चर्चा में व्यस्त थे।

 

 

– क्यों वर्मा जी, आपका क्या विचार है, इस बार क्रिकेट का विश्व कप कौन जीतेगा ?

 

 

– इसमें भी कोई सोचने की बात है। इस समय दुनिया भर में अमरीका की तूती बोल रही है, इसलिए वही जीतेगा।

 

 

– पर अमरीका तो इस प्रतियोगिता में भाग ही नहीं ले रहा ?

 

 

– तो फिर चीन का दावा मजबूत सिद्ध होता है। अब तो अर्थजगत में उसने जापान को भी पछाड़ दिया है।

 

 

– वर्मा जी, क्रिकेट के बारे में आप बहुत कम जानते हैं। अमरीका की तरह चीन भी गुलामों वाला यह खेल नहीं खेलता।

 

 

– देखिये, आप यह आरोप न लगाएं। क्रिकेट के बारे में जितना मैं जानता हूं, उतना शहर में कोई नहीं जानता होगा। यदि अमरीका और चीन इस बार प्रतियोगिता में भाग नहीं ले रहे, तब तो सीधी सी बात है, जो टीम अधिक गोल करेगी, वही कप ले जाएगी।

 

 

– अपने दिमाग का इलाज कराओ वर्मा जी। क्रिकेट में हार-जीत रन से होती है, गोल से नहीं।

 

 

– आप चाहे जो कहें; पर यह निश्चित है कि जो देश इस प्रतियोगिता में भाग ले रहे हैं, उनमें से ही कोई कप जीतेगा।

 

 

– पर आपने भारत की संभावनाओं के बारे में कुछ नहीं बताया ?

 

 

– इस बारे में मुझे बड़ी निराशा है। टीम में ऐसे लोग रखने चाहिए, जो आवश्यकता होने पर कप छीन सकंें।

 

 

– क्या मतलब ?

 

 

– मतलब यह कि यदि महाबली खली को टीम का कप्तान बनाया जाता, तो विपक्ष के आधे खिलाड़ी बिना खेले ही मैदान छोड़ जाते।

 

 

– कैसे ?

 

 

– उसके बल्ले की मार से गेंद इतनी दूर जाती कि दूसरी टीम वालों को उसे वापस लाने में कई घंटे लग जाते। तब तक वह सैकड़ों रन बना लेता; पर कप्तान बना दिया धोनी को।

 

 

– धोनी का लोहा तो पूरी दुनिया मान रही है वर्मा जी ?

 

 

– खाक मान रही है। इससे अच्छा तो किसी धोबी को बना देते। उसके धोबीपाट दांव के आगे सब घुटने टेक देते। खली के साथ सुशील पहलवान और मुक्केबाज विजेन्द्र को भी लेना चाहिए था।

 

 

– तुमसे तो बात करना बेकार है। तुम क्रिकेट को पहलवानी समझ रहे हो। इसमें ताकत नहीं, तकनीक काम आती है।

 

 

– नाराजगी थूक दो शर्मा जी। आजकल जमाना ताकत का ही है। भले ही वह शरीर की हो या पैसे की, सत्ता की हो या गुटबाजी की। ज्ञान की हो विज्ञान की। तकनीक का ही दूसरा नाम तिकड़म है। जिसके पास तिकड़म है, वह अंदर है और बाकी बाहर। सत्ता के गलियारों से लेकर दलाल स्ट्रीट के कारोबार और क्रिकेट की टीम से लेकर गुलाममंडल खेल के भ्रष्टाचार तक यही सत्य है।

 

 

वर्मा जी की इस ‘गुगली’ से शर्मा जी ‘क्लीन बोल्ड’ हो गये। मैं भी ‘हिट विकेट’ या ‘एल.बी.डब्ल्यू’ होने की बजाय ‘नो ब१ल’ का संकेत करते हुए ‘गली’ से निकलकर ‘बाउंड्री पार’ हो गया। मेरी रुचि भी आम जनता की तरह सस्ते राशन में है, विश्व कप में नहीं।

 

क्रांतिपर्व होली

विजय कुमार

वसंत पंचमी के आते ही गांव, नगर के चौराहों पर झंडा गाड़कर कुछ लकड़ियां रख दी जाती हैं। गांव की चौपालों पर रात में लोग एकत्रित होकर फाग गाने लगते हैं। लोकगीत, संगीत और लोकनृत्य का माहौल बन जाता है। बच्चा हो या बूढ़ा, सबके पैर स्वयमेव ही थिरकने लगते हैं। खेतों में पकता गेहूं कृषक की सांसों को महका देता है। महिलाएं भी अपना अलग समूह बनाकर तरंगित हो उठती हैं। शीत का प्रकोप कम होने लगता है। वसंत की गुनगुनी आहटें सबको साफ सुनाई देने लगती हैं। यह प्रतीक है इस बात का कि वसंत के सबसे मधुर पर्व होली ने दस्तक दे दी है।

 

 

होली के साथ जुड़ी अनेक मान्यताएं हैं। सबसे प्रमुख मान्यता अत्याचारी राजा हिरण्यकशिपु, उसकी षड्यन्त्रकारी बहिन होलिका, सरल स्वभाव वाली रानी और उनके प्रभुभक्त पुत्र प्रह्लाद का स्मरण दिलाती है। राजा ने तपस्या से भगवान से यह वरदान ले लिया था कि उसे दिन हो या रात, घर के अंदर हो या बाहर, अस्त्र हो या शस्त्र, मानव हो या पशु, धरती हो या आकाश, कोई कहीं न मार सके। इस वरदान से वह इतना शक्तिशाली हो गया कि उसने पूरे राज्य में घोषणा करा दी कि अब कोई भगवान का नाम नहीं लेगा। यदि लेना हो, तो उसका ही नाम लिया जाये; पर उसके घर में उसका पुत्र प्रह्लाद ही प्रभुभक्त निकल आया। रानी सदा उसी का पक्ष लेती थी। अतः राजा की ओर से दोनों को ही उपेक्षा और प्रताड़ना मिलती थी।

 

 

राजा ने अनेक तरह से प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया; पर वह नहीं माना। फिर उसे कई बार छल-बलपूर्वक मारने का प्रयास किया; पर वह हर बार बच जाता था। अंततः उसने अपनी बहिन के साथ मिलकर उसे जिंदा ही जला देने की तैयारी कर ली। कहते हैं कि होलिका को भी आग में न जलने का वरदान मिला था। अतः वह प्रह्लाद को लेकर चिता में बैठ गयी; पर भगवान की कृपा से वह बच गया और होलिका जल गयी।

 

 

अब राजा ने उसे खंभे से बांधकर मारना चाहा; पर तभी खंभे से नरसिंह भगवान प्रकट हुए। उनका आधा शरीर मनुष्य और आधा शेर का था। वे राजा को घसीटकर महल के दरवाजे पर ले आये और अपनी जंघाओं पर लिटाकर नाखूनों से उसका पेट फाड़ दिया। इस प्रकार भगवान के वरदान की भी रक्षा हुई और अत्याचारी राजा का नाश भी। उसी के स्मरण में आज तक होली मनाने की प्रथा है।

 

 

भारतीय इतिहास की एक विशेषता है कि बड़ी-बड़ी घटनाओं को कुछ प्रतीकों के माध्यम से कहने का प्रयास किया गया है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि कोई ऐतिहासिक घटना हजारों, लाखों साल बीत जाने पर अपने असली स्वरूप में लोगों को याद नहीं रहती; पर कुछ कहानियां बच जाती हैं। लेकिन यदि थोड़ा सा विचारों की गहराई में जाने का प्रयास करें, तो इतिहास का वह पर्दा हट जाता है और वास्तविक घटना अपने सही स्वरूप में प्रकट हो जाती है। आइये, इसी आधार पर होली का विश्लेषण किया।

 

 

यहां अत्याचारी राजा हिरण्यकशिपु, उसकी बहिन होलिका, रानी और पुत्र प्रह्लाद सब वास्तविक पात्र हैं। राजा तानाशाह था। तानाशाहों की सत्ता के आसपास एक जुंडली विकसित हो ही जाती है। होलिका उसी की मुखिया थी। जनता में से उसी का काम होता था, जो होलिका को प्रसन्न कर सकता था। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका से लेकर पुलिस और सेना तक पर इसी जुंडली का कब्जा था। इससे जनता बहुत दुखी थी; पर निरंकुश सत्ता से कौन टकराये। यही समस्या थी।

 

 

दूसरी ओर लोकतंत्र और कानून के राज्य के समर्थक भी अनेक लोग थे; पर वे प्राणभय से चुप रहते थे। लेकिन कितने समय तक ऐसा चलता ? धीरे-धीरे ऐसे लोग रानी और प्रह्लाद के आसपास एकत्र होने लगे। इस प्रकार सम्पूर्ण राज्य में दो दल बन गये। पुलिस, प्रशासन, गुप्तचर सेवा और सेना भी दो भागों में बंट गयी। एक ओर तानाशाही सत्ता की मलाई खाने वाले राजा और उसकी बहिन होलिका के समर्थक थे, तो दूसरी ओर न्याय के पक्षधर। दोनों के बीच प्रायः संघर्ष भी होने लगे। इनमें कभी राजा की सेना जीतती, तो कभी रानी की। राजा ने प्रह्लाद को कई बार मारने का प्रयास किया; पर उसे गुप्तचरों से सब षड्यन्त्रों की जानकारी पहले ही मिल जाती थी, अतः वह बच निकलता था। प्रह्लाद को जहर देने, पहाड़ से गिराने या हाथी के सामने डालने वाली घटनाओं का यही अर्थ है।

 

 

अब आइये, नृसिंह (या नरसिंह) भगवान वाली घटना का विश्लेषण करें। राजा फागुन पूर्णिमा की रात में अपने पुत्र को जलाने की तैयारी कर रहा है, यह सूचना गुप्तचरों ने रानी को कई दिन पहले ही दे दी। रानी समझ गयी कि अब निर्णायक संघर्ष की घड़ी आ गयी है। उसने सारे राज्य में अपने समर्थकों को संदेश भेज दिया कि वे अस्त्र-शस्त्र लेकर इसी दिन महल पर हमला बोल दें।

 

 

इधर राजा ने एक बड़ी चिता तैयार करा रखी थी। उसने प्रह्लाद को पकड़कर खंभे से बांध दिया और सत्ता के नशे में चूर होकर पूछा – बता कहां है तेरा भगवान, कहां हैं तेरे समर्थक, कहां है वह जनता, जिनके बल पर तू और तेरी मां मुझे काफी समय से चुनौती दे रहे हैं। राजा की बहिन भी क्रूर हंसी हंस रही थी। प्रह्लाद ने नम्रतापूर्वक कहा – पिताजी, जनता जनार्दन से डरिये। वही वास्तविक भगवान है। वह सब जगह विद्यमान है। राजा ने तलवार उठाकर पूछा – तो क्या वह इस निर्जीव खंभे में भी है ? प्रह्लाद ने कहा – हां पिताजी, वह केवल इस खंभे में ही नहीं, दीवारों, फर्श और छतों पर भी है।

 

 

इधर तो यह वार्तालाप चल रहा था, उधर रानी समर्थकों ने महल पर हमला बोल दिया। केवल सैनिक ही नहीं, तो सामान्य जनता भी आज बदला लेने को तत्पर होकर महल पर टूट पड़ी। जिसके हाथ जो लगा, लेकर चल दिया। किसानों ने अपनी खुरपी और फावड़े लिये, तो श्रमिकों ने कील और हथोड़े; व्यापारी अपने तराजू, बाट लेकर ही चल दिये। महिलाओं ने भी रसोई में काम आने वाले चिमटे और बेलन उठा लिये। जिसके हाथ कुछ नहीं लगा, उसने पेड़ की टहनी ही तोड़ ली या फिर हाथ में पत्थर ले लिया। सबके मन में एक ही आकांक्षा थी कि आज उस अत्याचारी राजा और उसकी बहिन को मजा चखाना है। शांत रहकर अपने काम में लगे रहने वाले लोगों ने सिंह का रूप ले लिया। नरसिंह अवतार हो गया।

 

 

लोगों ने द्वारपालों को मारकर महल के दरवाजे तोड़ दिये। जेलों में बंद रानी समर्थकों को मुक्त करा दिया। सब विजयी उद्घोष करते हुए उस स्थान की ओर बढ़ चले, जहां राजा अपने पुत्र को ही जलाने की तैयारी कर रहा था। पुलिस, प्रशासन और सेना ने जब जनता का रौद्र रूप देखा, तो वे भी उनके साथ ही मिल गये। सबने मिलकर राजा और उसकी बहिन को पकड़ लिया। राजा को तो सबने मुक्कों, और लातों से ही मार डाला।

 

 

यह देखकर होलिका ने भागना चाहा; पर जनता आज अपने बस में भी नहीं थी। उन्होंने उसे बांधकर उसी चिता में डाल दिया, जिसे प्रह्लाद को जलाने के लिए बनाया गया था। उसने बहुत हाथ-पैर जोड़े। नारी होने की दुहाई दी; पर जनता ने उसे माफ नहीं किया और चिता में आग लगा दी। इसके बाद लोग पूरे राज्य में फैल गये और सारी रात ढूंढ-ढंूढकर राजा समर्थकों का वध किया। इस प्रकार राजा और उसकी जुंडली का अंत हुआ।

 

 

इधर तो यह कार्यक्रम चल रहा था, उधर पूर्व दिशा में भगवान भुवन भास्कर अपनी अपूर्व छटा के साथ प्रकट हुए। कुछ ही समय में पूरे राज्य में अत्याचारी राजा और उनके समर्थकों के अंत का समाचार फैल गया। लोग सड़कों पर उतरकर नाचने लगे। अबीर और गुलाल चारों ओर उड़ने लगा। एक दूसरे से गले मिलकर बधाई देने लगे। निश्चित समय पर रानी और राज्य के प्रबुद्ध नागरिकों की सहमति से प्रह्लाद को गद्दी पर बैठाया गया। राज्य में फिर से सुशासन की स्थापना हुई।

 

 

स्पष्ट है कि होली एक अत्याचारी शासक एवं उसकी जुंडली के विरुद्ध मूक आंदोलन की कहानी है, जो अंततः सशस्त्र क्रांति में बदल गयी। कोई इसे कल्पना की उड़ान कह सकता है; पर विश्व इतिहास में ऐसी कुछ अन्य घटनाएं भी हुई हैं। 1789 में फ्रांस की राज्यक्रांति को स्मरण करें। रानी मेरी एंटोयनेट का शासन था। वह जनता के प्रति उत्तरदायित्वों से बिल्कुल विमुख रहती थी। हर दिन नये वस्त्र, आभूषण और जूते वह पहनती थी। फसल बरबाद हो जाने के बाद एक बार जब जनता ने भूख से व्याकुल होकर उसके महल पर प्रदर्शन किया, तो उसने जनता को रोटी के बदले केक और पेस्ट्री खाने की सलाह दी। ऐसी निरंकुश शासक थी वह।

 

 

पर उसके शासन के विरुद्ध भी आंदोलन चला। आंदोलनकारियों को जेलों में बंद कर दिया गया। जोसेफ गिलोटीन ने गिलोटीन नामक एक यंत्र का आविष्कार किया, जिस पर चढ़ाकर क्रांतिकारियों को मृत्युदंड दिया जाता था। इसमें तेज धार वाला लोहे का एक भारी फलक होता था, जो रस्सी से बंधा रहता था। रस्सी छोड़ते ही वह तेजी से गिरकर नीचे बांधकर लिटाये गये व्यक्ति की गर्दन काट देता था। हजारों लोगों को इसी तरह मारा गया।

 

 

आखिर एक समय ऐसा आया, जब जनता के सब्र का बांध टूट गया। उसने रानी के महल पर हमला बोल दिया। आंदोलनकारियों को जिस सबसे बड़ी जेल में रखा गया था, उस बैस्तील की जेल र्की इंट से ईंट बजा दी गयी। बंदियों को मुक्त करा लिया गया। सब रानी के महल की ओर चल दिये। अंततः रानी का भी वही हुआ, जो सभी तानाशाहों का होता है। उसे भी गिलोटीन पर चढ़ाकर ही मृत्युदंड दिया गया। इसके बाद फ्रांस में नये शासन की स्थापना हुई।

 

 

भारत में 1975 से 1977 के घटनाक्रम को याद करें। आपातकाल के रूप में इंदिरा गांधी की तानाशाही; जयप्रकाश नारायण तथा हजारों विपक्षी नेताओं को जेल; मीडिया पर सेंसरशिप का शिकंजा, सत्ता का दुरुपयोग करने वाली संजय गांधी, बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल आदि की जुंडली; इंदिरा गांधी की गर्वोक्ति कि आपातकाल लगाने पर एक कुत्ता भी नहीं भौंका; रेलें समय से चल रही हैं और लोग कार्यालयों में समय से आ रहे हैं; सरकारी साधु विनोबा भावे द्वारा आपातकाल को अनुशासन पर्व बताकर उसका समर्थन; राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध; और भी न जाने क्या-क्या ?

 

 

पर इसके विरुद्ध संघ के नेतृत्व में विरोधी दलों का अभूतपूर्व अहिंसक सत्याग्रह; एक लाख स्वयंसेवकों तथा 10,000 हजार अन्य लोकतंत्र समर्थकों की जेलयात्रा; चुनाव की घोषणा होते ही सभी विपक्षी दलों का एक मंच पर आना; और फिर चुनाव में इंदिरा से लेकर संजय गांधी तक सब धराशायी। उ0प्र0 की 85 में से एक सीट भी कांग्रेस को नहीं मिली। पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस पर झाड़ू लग गयी। यही है मूक क्रांति।

 

 

वस्तुतः होली के घटनाक्रम को भी इसी दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। समय बीतने के साथ-साथ दुर्भाग्य से होली के साथ इतनी कुरीतियां और कलुष जुड़ गये हैं कि कई बार तो सज्जन लोग इस दिन घर से निकलना ही पसंद नहीं करते। पेड़ पर्यावरण संरक्षण के लिए कितने उपयोगी हैं, यह सोचे बिना लाखों पेड़ों को इस दिन अपने प्राण त्यागने पड़ते हैं। कोई समय था, जब जनसंख्या बहुत कम और जंगल बहुत अधिक थे; ऐेसे में दो-चार हजार पेड़ों के जलने से कोई खास अंतर नहीं पड़ता था; पर आज तो मामला उल्टा है। यदि जनसंख्या ऐसे ही बढ़ती रही और पेड़ इसी प्रकार कटते रहे, तो आने वाले समय में पानी की बोतल की तरह हमें सांस लेने के लिए भी कृत्रिम आक्सीजन के टैंक साथ लेकर चलने होंगे।

 

 

होली जलाने के लिए महीना भर पहले से ही चौराहों को घेर लेना भी अनुचित है। इससे वाहनों को आने जाने में परेशानी होती है। कुछ वर्ष पूर्व मेरठ में होली दहन के समय एक बाजार में आग लग गयी; पर फायर ब्रिगेड की गाड़ियां लाख प्रयत्न करने पर भी वहां नहीं पहंुच सकीं। क्योंकि होली दहन के कारण हर चौराहा जाम था। होली ऊंची से ऊंची बनाने के चक्कर में न जाने कितने बिजली और टेलिफोन के तार भी जल जाते हैं। अब समय आ गया है कि धार्मिक और सामाजिक नेताओं को इन कुप्रथाओं के विकल्प देने चाहिए। अनेक संस्थाएं अब होली स्थापना और दहन के स्थान पर यज्ञ कराती हैं। यह प्रथा अच्छी है। इसका प्रचार-प्रसार होना चाहिए।

 

 

यों तो होली को प्रेमपर्व कहा जाता है; पर कुछ लोग गंदे रासायनिक रंगो और कीचड़ आदि का प्रयोग कर न जाने कितनों को अपना शत्रु बना लेते हैं। शराब और भांग ने इस पर्व के महत्व को कम ही कम किया है। आवश्यकता है कि इन सब कुरीतियों को त्यागकर होली के वास्तविक अर्थ को स्मरण करें। होली के रूप में परस्पर प्रेम बांटने का जो अवसर वसंत ऋतु ने हमें उपलब्ध कराया है, उसका भरपूर आनंद लें। प्रेम बांटे और प्रेम पायें। यही है होली का वास्तविक संदेश।

 

स्वतंत्रता आंदोलन, पत्रकारिता और गणेश शंकर विद्यार्थी

मृत्युंजय दीक्षित

 

स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में अपनी निर्भीक पत्रकारिता और लेखनी के माध्यम से अंग्रेज सरकार को हिला कर रख देने वाले महान पत्रकार एवं क्रान्तिकारी विचारक गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग के अतरसुइया मोहल्ले में 26 अक्टूबर, 1890 ई में हुआ। इनका जन्म नाना के घर हुआ था जो कि उस समय सहायक जेलर थे। लेकिन शीध्र ही इनके पिता जीवन यापन करने के उद्देश्य से मध्य प्रदेश के गंगवली कस्बें मे जाकर बस गये। इनके पिता का नाम श्री जयनारायण था जो कि अध्यापन और ज्योतिष का कार्य किया करते थे। अतः गणेश की प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में हुई। प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत वे फिर अपने बड़े भाई के पास कानपुर आ गये और कानपुर से ही हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की।इसके बाद उन्होंने प्रयाग में इण्टर में प्रवेश लिया। तभी उनका विवाह हुआ लेकिन तब तक उन्हें पत्रकारिता व लेखन का शौक लग चुका था। उन्होंने घर चलानें के लिए एक बैंक में नौकरी भी की लेकिन उनका मन नहीं लगा ।कुछ समय बाद उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी । तत्पश्चात वे प्रयाग आ गये और वहां ‘सरस्वती’ और ‘अभ्युदय’ नामक पत्रों के सम्पादकीय विभागों में कार्य किया। लेकिन स्वास्थ्य ने यहाँ भी उनका साथ नहीं दिया। अतः वे फिर कानपुर वापस आ गये और 19 नवम्बर, 1918 से कानपुर से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया और यहीं से उनके नये जीवन का प्रारंभ हुआ। ‘प्रताप’ पत्र के लिए विद्यार्थी जी ने पूरे मन और उमंग के साथ काम किया और जनता व बुध्दिजीवियों में एक नया जोश भरा एवं आजादी की लड़ाई लड़ रहे लोगों को एक नया मार्ग दिखाया । कहा जाता है कि स्वतंत्रता आंदोलन को तीव्र करने में कानपुर के प्रताप कार्यालय का योगदान स्तुत्य है। गणेश जी मात्र पत्रकार अथवा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ही नहीं थे अपितु अपने में एक महान संस्थान थे। उस समय भारत का कोई ऐसा आन्दोलन नहीं था जो कि गणेश जी से प्रेरणा न पाता हो।पं. माखन लाल चतुर्वेदी, कृष्णदत्त पालीवाल, बालकृष्ण शर्मा नवीन,दशरथ प्रसाद द्विवेदी की भांति भगत सिंह ने भी गणेश जी के द्वारा प्रेरित होकर पत्रकारिता को पेशे के रूप में अपनाया। ‘कर्मवीर’, ‘स्वदेश’, ‘प्रताप’ एवं ‘सैनिक’ के चलते अंग्रेज सरकार भयभीत हो गयी तथा वह पत्रकारों और क्रांतिकारियों पर दृष्टि रखने लगी। पराधीन भारतमाता की करूण पुकार ,स्वदेशाभिमान, अत्याचार के प्रति रोष, राष्ट्रसेवा के प्रति निष्ठा से प्रेरित होकर गणेश जी ने प्रताप द्वारा अविस्मरणीय कार्य किये। गणेश जी प्रताप में प्रतिदिन की सामग्री देखते थे और दूसरे दिन के लिए निर्देश दिया करते थे। उनकी सम्पादन कला तथा कार्य पध्दति का स्तर उच्च्कोटि का था। वे प्रायः बोलकर अग्रलेख या टिप्पणी लिखवाया करते थे। वे अपने सहयोगी सम्पादकों की सामग्री का सम्पादन करते समय लाल स्याही से सारे पन्ने रंग डालते थे। समय – समय पर विद्यार्थी जी ने पत्रकार और पत्रकारिता के विविध पक्षों पर प्रकाश भी डाला। क्रान्तिकारियों, पत्रकारों, साहित्यकारों की एक पूरी पीढ़ी के प्रशिक्षण सहयोग और विकास के द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप को गौरवान्वित किया। विद्यार्थी जी तत्कालीन पत्रकारिता के एक प्रकार से प्राणतत्व थे। क्रान्तिकारियों के प्रति विद्यार्थी जी के मन में निश्छल स्ेह था। वे क्रान्तिकारियों को त्यागशील तपस्वी मानते थे। देश में जागरण लाने के लिए उन्होंने ”प्रकाश पुस्तकमाला” का आयोजन किया। इसके द्वारा उन्होंने देश-विदेश के क्रान्तिकारियों की जीवनी प्रकाशित की। क्रान्तिकारी भगत सिंह ने भी ‘प्रताप’ में कुछ समय तक कार्य किया। स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारम्भिक दौर में मुसलमानों ने अच्छा साथ दिया लेकिन अंग्रेजों के भड़काने के कारण वे पाकिस्तान की मांग करने लग गये थे। इसी दौरान कानपुर में मुसलमानों ने भयंकर दंगा किया। विद्यार्थी जी सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े। उस समय दंगाई पुूरे जोश व गुस्से में थे अतः उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। केवल एक बांह में उनका नाम लिखा था जिससे उन्हें पहचाना जा सका। इस प्रकार भारत का सच्चा सपूत गणेश शंकर विद्यार्थी 25 मार्च, 1931 को शहीद हो गया।

 

मुंबई में घुसपैठ – एक आक्रमण

हरिकृष्ण निगम

 

क्या बंग्लादेशियों से भारत के अनेक नगरों व सीमावर्ती क्षेत्रों में अरसे से योजनाबध्द रूप से होने वाली घुसपैठ पर हमारी राजनीतिक उपेक्षा नए जनसांख्यिक दबाव डालकर असम को मुस्लिम बहुल प्रदेश बना सकती है और हमारे महानगरों को भी असुरक्षित बना देगी? सारे देश में ये घुसपैठिए जैसे-जैसे फैलते जा रहे हैं, हमारी सरकार व राजनेताओं का ढुलमुल रवैया, ऐसा प्रतीत होता है, अपने वोट बैंक बढ़ाने के कारण उन्हें भारत का नागरिक बनाने हेतु भी सक्रिय है। एक आंकड़े के अनुसार लगभग 3 करोड़ से अधिक बंग्लादेशी देश में अवैध रूप से घुसे हैं और यह सिलसिला आज भी चल रहा है। सर्वाधिक शर्मनाक बात यह है कि इस पूरी-गैर कानूनी प्रक्रिया में हमारे अनेक राजनीतिकबाज और बुध्दिजीवी उनके मानवीय संघर्ष और अच्छी जिंदगी की ललक के नाम पर इसे तर्क-सम्मत ठहरा रहे हैं और इस बात को अनदेखा कर रहे हैं कि आतंकवादी संगठन उन्हें मोहरों की तरह प्रयुक्त करते हैं। क्या विश्व के किसी भी देश में, जानने पर भी क्या किसी देश की विदेशी नागरिक को एक दिन के लिए भी रहने दिया जा सकता है? यह विडंबना है कि आज भी इस व्यापक अवैध घुसपैठ में सरकारी संगठन और व्यवस्था स्वयं आंखों पर पट्टी बांधने को तैयार हैं। चाहे आसाम का करीमगंज हो या बिहार का किशनगंज इनकी जनसंख्या का दबाव व घनत्व स्पष्ट हैं। एक आकलन के अनुसार ये अवैध बंग्लादेशी पूर्वोत्तर भारत के लगभग 20 लोकसभा क्षेत्र तथा 100 विधान सभा क्षेत्रों के चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। यहां के सामाजिक जीवन को भी ये विदेशी नागरिक प्रदूषित कर रहे हैं। उग्रवादियों से मिलकर वे बड़ी आसानी से पाकिस्तानी मुद्रित भारतीय मुद्रा और हथियार भेजते रहते हैं। सरकार तो इतनी असहाय और मूकदर्शक सी बनी हुई है कि उन्हें विदेशी नागरिकों के अधिनियम के अंतर्गत नोटिस भी नहीं दिए जाते हैं। सरकार की दृष्टि में सीमाबंद करना या बाड़ लगाकर अवैध घुसपैठ की समस्या हल की जा सकती है। पर न राजनैतिक इच्छाशक्ति है और न ही भौगोलिक दृष्टि से सीमा बंद करने का समाधान और इसलिए शायद हम कुछ कर सकेंगे जब तक पानी सिर से ऊपर न हो जाए।

 

हाल में बंग्लादेश से मुंबई तक के अवैध सफर की प्रक्रि्रया और इस महानगर पर पड़नेवाले संभावित खतरे का आकलन एक सर्वेक्षण में किया गया था। उसी का सारांश देने का प्रयास किया गया है। मुंबई में आनेवाले 90 प्रतिशत से अधिक बंग्लादेशी यहां पहले से रह रहे बंग्लादेशी, उनसे जुड़े दलालों और भ्रष्ट शासन के सहयोग से आकर अपनी रिश्वत देने की क्षमता के कारण राशनकार्ड अथवा पहचान-पत्र आदि बनवाने में भी सफल हो जाते हैं। उनकी प्रारंभिक यात्रा दलालों के संपर्क से जैसे ही वे पश्चिम बंगाल की सीमा में पहुंचते है, हावड़ा स्टेशन से सीधे मुंबई आनेवाली ट्रेनों में सवार होकर थाणे या क्षत्रपति शिवाजी टर्मिनल के लिए रवान होने से शुरू होती है।

 

मुंबई में रह रहे कई बंग्लादेशियों ने पुलिस को बताया कि दलाल प्रति व्यक्ति 2.5 हजार रूपये लेता है। यह रेट हाल ही में बढ़ा है। पहले दो हजार था। दलाल एक अकेले व्यक्ति की बजाय ज्यादा से ज्यादा लोगों को ले जाना पसंद करता है। ज्यादा लोग ज्यादा दलाली। सात से आठ साल की कम उम्र के बच्चों का कोई पैसा नहीं लगता क्योंकि इनका ट्रेन टिकट नहीं लगता। अपने बार्डर पर यह दलाल पहले बंग्लादेशी राईफल्स को 600 रूपये देता है। इसके बाद हीं बंग्लादेशी बॉर्डर पार करने दिया जाता है। अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर वह इन लोगों को सीमा पार करवाने में कामयाब हो जाता है। भारत में पहुचकर स्थानीय बसों द्वारा ये लोग हावड़ा तक पहुंचते हैं। यहां से ये मुंबई आने वाली ट्रेनों में सवार हो जाते हैं। मुंबई पहुचकर दलाल इन लोगों को ऐसे इलाकों तक पहुंचा देता है जहां पहले से ही बंग्लादेशी मुस्लिम बहुल इलाके में होते हैं। पहले से बसे ये बंग्लादेशी नए आये लोगों को रोजगार दिलवाने में पूरी मदद करते हैं। जिन इलाकों में बंग्लादेशी रहते हैं वहां दलाल नियमित रूप से चक्कर लगाते रहते हैं ताकि जिन्हें वापस जाना हो उनको दलाल आसानी से मिल जाए। बंग्लादेश से मुंबई तक के पूरे सफर के दौरान ये दलाल लगातार इनके साथ ही रहता है। एक और दलाल है जो इनके द्वारा यहां कमाए हुए रूपये इनके घर(बंग्लादेश)तक पहुंचाता है। किसी तरह की मुसीबत पड़ने पर ये दलाल इनके घरों से पैसा यहां तक पहुंचाते हैं। ये पूरा लेन-देन हवाला के जरिए संपन्न होता है। हवाला की जरूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि ये गैर-कानूनी बांग्लादेशी भारत के किसी भी बैंक में खाता नहीं खुलवा सकते। हवाला की प्रक्रिया इतनी मजबूत और तीव्र है कि मुंबई से बंग्लादेश या बंग्लादेश से मुंबई यह पैसा केवल 10 मिनट में पहुंच जाता है।

 

नई दिल्ली में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ विषय पर कई वर्ष पहले हुए सम्मेलन में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ध्यान महाराष्ट्र में बढ़ रही बंग्लादेशियों की जनसंख्या की ओर खींचने का पूरा प्रयास किया था ऐसा करते हुए उन्होंने कहा कि जिस तरह हमें आतंकवादी और आई.एस.आई के एजेंटों की गतिविधियों पर पूरा ध्यान देना चाहिए(जो मौका मिलते ही देश की आर्थिक राजधानी को निशाना बनाते हैं) उसी तरह हमें बंग्लादेशियों के मसले को नजर-अंदाज नहीं करना चाहिए। मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार से इस मसले पर गुहार लगाई थी। इसी तरह महाराष्ट्र के पूर्व उप मुख्यमंत्री आर. आर. पाटिल ने भी डांस बारों का बंद कराना जायज ठहराया था और सफाई दी थी कि इन बारों में अधिकांशतः बांग्लादेशी लड़कियां काम करती है। भाजपा चाहती है कि केंद्र सरकार इस समस्या को हल करने हेतु कोई ठोस कदम उठाये हालांकि कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया मिली जुली रही है। कांग्रेस के अधिक तर नेता बांग्लादेशी समस्या से वाकिफ हैं पर कुछ ऐसे नेता भी हैं जिनका मानना है कि इससे पार्टी की छवि अल्पसंख्यकों में खासतौर पर मुसलमानों में खराब होगी।

 

महाराष्ट्र में बांग्लादेशियों की धरपकड़ सिर्फ सांकेतिक और सतही रही है। यद्यपि उनसे खतरे से वे अवगत हैं। महाराष्ट्र गृह मंत्रालय ने बताया कि वर्ष 2004 में मुंबई में सिर्फ 626 बंग्लादेशी पक ड़े गये थे। स्पेशल ब्रांच के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 सालों में मात्र 5 हजार बांग्लादेशियों को पकड़कर वापस बांग्लादेश भेज दिया गया था। सन् 1995 से 2007 तक मात्र एक हजार के आसपास बांग्लादेशी पकड़े गये थे। इसमें सर्वाधिक संख्या 897 बांग्लादेशियों को 1996 में पकड़ा गया था और न्यूनतम संख्या में 266 को 2001 में पकड़ा था। कुछ समय पहले पुलिस ने भांयखाला स्टेशन से पकड़ा था इसमें से अधिकांश को वे बांग्लादेश लौटाने का दावा करते हैं पर तुरंत बाद उनमें से ही अनेक और दूसरे अनेक बांग्लादेशी बेहिचक फिर मुंबई, ठाणे व पूणे आ जाते हैं।

 

कुछ प्रसिध्द सक्रिय समाजसेवी हैं, उन्होंने बताया कि इनकी बढ़ती आबादी के खिलाफ सत्ता में कांग्रेस तथा एनसीपी ने आवाज उठाई है। शिवसेना तो समय-समय पर बोलती ही है। बांग्लादेशी उन जगहों को अपना अड्डा बनाते हैं जहां मुसलमान समुदाय की आबादी अधिक होती है। तो क्या इसका मतलब है कि बांग्लादेशियों क ो भारतीय मुसलमान शरण दे रहे हैं? लेकिन यह भी सच है कि लोकशाही में भ्रमों को ज्यादा और सच्चाई को कम महत्व मिलता है। इस बात का बोध हमारे नेता मंत्रियों को सबसे ज्यादा हैं जिस तरह शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे, मनसे नेता राज ठाक रे के साथ मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मुंबई में स्वयं बांग्लादेशियों के खिलाफ औपचारिक बयानबाजी करते हैं पर लगता है कुछ करना नहीं चाहते। इनके कारण देश में इनकी भीड़ लगातार बढ़ रही है। हालांकि ऐसा कहीं होता हुआ नजर नहीं आता लेकिन हमारी चिंता करने वाले नेताओं को साफ नजर आता है। ऑफिशियल रिकॉर्ड बताते हैं कि सन् 2004 में 626 बांग्लादेशी मुंबई में थे। मुंबई की 1 करोड़ की आबादी सिर्फ 626 बांग्लादेशी? और नेताओं की मानें तो यह संख्या बहुत ही खतरनाक है। दरअसल, सच्चाई यह है कि बांग्लादेशी तो नहीं लेकिन हमारे भ्रष्ट सरकारी अधिकारी देश के लिए असली खतरा हैं ।

 

आज मुंबई की सन् 2006 में पश्चिमी रेलवे के सीरियल बम विस्फाेंटों की शृंखला को लोग भूल चुके हैं पर उसमें भी उस समय के समाचार पत्रों में बांग्लादेशी आतंकवादियों की बात उठी थी। 11 जुलाई, 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेन में हुए बम विस्फोटों में लगभग 200 लोगों की जान चली गई थी। कहते हैं कि इन विस्फोटों में बांग्लादेशी आतंकवादियों का भी हाथ था। मुंबई पुलिस एंटी-टेरेरिस्ट स्क्वॉयड के प्रमुख के. पी. रघुबंशी ने बताया था कि कई बांग्लादेशी नागरिक कानूनी तौर पर भारत घूमने आते हैं और फिर अचानक गायब हो जाते हैं ओर फिर उनका कोई सुराग नहीं मिलता। इन्होंने यह भी बताया था कि 11 जुलाई बम विस्फोट की तफतीश में पकड़े गए कमल अंसारी और मोहम्मद मजीन ने आतंकवदियों को भारत-बंग्लादेश बॉर्डर पार कराकर मुंबई तक पहुंचाया था। इन्हीं आतंकवादियों का हाथ 11 जुलाई के बम विस्फोटों में भी था।

 

मुंबई में झोपड़ी का फैलाव एक नासूर है। यहां झोपड़ियों की समस्या इतनी जटिल है कि आजादी के बाद से आज तक कोई भी सरकार इसे खत्म नहीं कर सकी है। ऐसे में गैर-कानूनी तौर पर रह रहे बांग्लादेशियों के लिए झोपड़पटि्टयां फायदे का सौदा साबित होता है। जिन लोगों ने सरकारी और निजी जमीन पर कब्जा करके 1995 से पहले झोपड़ियां बनाई थी उन लोगों को वहां से हटाकर सरकार पुनर्वसन करने की तैयारी में रहती है। इन जगहों पर एक बड़ा प्रतिशत बांग्लादेशी रहता है। गैर-कानूनी ढंग से रहने वाले बांग्लादेशियों के जिन ठिकानों पर छापे पड़े थे उनमें डोंगरी, पायधुनी, मस्जिद रोड, चीता कैं प, ट्रांबे, लालभाटी और वडाला मुख्य थे पर हाल में नए दर्जनों स्थानों का नाम भी लिया जा रहा हैं। जिनमें उत्तर-पूर्वी मुंबई के एकता नगर, चिखलवाड़ी, साईबाबा नगर, गोंवडी और मानखुर्द भी है।

 

केंद्र जानता है कि जो स्थिति मुंबई में है, अवैध बांग्लादेशी कि उपस्थिति दूसरे प्रांतों में उससे कहीं बुरी है। भारत और बांग्लादेशी के बीच करीब 1600 कि. मी. की खुली सीमा है। समुद्री सीमा भी बांग्लादेश के साथ लगती है। बांग्लादेश के अलावा पश्चिम में बंगाल की सीमा नेपाल, भूटान और सिक्किम से भी सटी हुई है। उत्तर पूर्व के भारत विरोधी तत्वों को हथियार प्राप्त करने के लिए यह सुरक्षित अभयारण्य है। इस चौराहे पर पशु तस्कर, आई. एस. आई. एजेंट, हथियारों के सौदागर, मादक पदार्थों और जाली नोटों के तस्कारों के साथ-साथ आतंकवादियों की सरगर्मी भी चलती रहती है। बिहार, नेपाल सीमा के दोनों ओर मुस्लिम जनसांख्यिक दबाव स्पष्ट है और रक्सौल, जयनगर, निर्मली, पूर्णिया, किशनगंज तथा जोगबनी, अटरिया, कटिहार आदि जगह में नए मुस्लिम पाकेट बन चुके हैं। वहां के स्थानीय प्रशासन द्वारा स्वीकार किया जा चुका हैं कि वहां कुल 15 लाख बंग्लादेशी मुसलमान बस गए हैं। उनके संबंध महानगरों के कई आपराधिक संगठनों से भी जुड़ते जा रहे हैं। एक ओर तुष्टीकरण की नीति तो दूसरी ओर वोटबैंक की लोलुपता ने आज भी राजनीतिबाजों की आंखों पर पटि्टयां बांध दी हैं।

 

गोधरा पर निर्णय-धर्मनिरपेक्ष साजिशों का भण्डाफोड़

मृत्युंजय दीक्षित

 

आज से नौ वर्षों पूर्व गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की एस-6 बोगी में धटी वीभत्स हृदय विदारक घटना पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक हटाये जाने के बाद आखिरकार विशेष अदालत ने अपना निर्णय सुना ही दिया।अयोध्या के विवादित स्थल पर निर्णय सुनाये जाने के बाद यह देश का ऐसा महत्वपूर्ण निर्णय था जिस पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई थी। अहमदाबाद की विशेष अदालत ने साबरमती काण्ड को एक गहरी साजिश मानते हुए 11 अभियुक्तों को सजा – ए -मौत तथा 20 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। विशेष अदालत ने 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने जो यह व्यवस्था दी थी कि फांसी की सजा दुर्लभ से भी दुर्लभतम श्रेणी के तहत दी जानी चाहिए का अनुपालन करते हुए 11 प्रमुख अभियुक्तों अब्दुल रज्जाक कुक्कूर, बिलाल इस्माइल उर्फ बिलाल हाजी, रमजारी बिनयामीन बहरा, हसन अहमद चरखा उर्फ लालू, जाबर बिरयामीन बहरा, महबूब खालिद चंद्रा, सलीम उर्फ सलमान चंद्रा, सिराज मुहम्मद मेड़ा उर्फ बाला, इरफान कलंदर उर्फ इरफान भोपो, इरफान मोहम्मद पाटलिया व महबूब हसन उर्फ लती को फांसी की सजा सुनायी है। वहीं 20 अन्य अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। देश के न्यायिक इतिहास में ंऐसा पहली बार हुआ है कि इतने बड़े अपराध में 31 मिनट में 31 अभियुक्तों को एक साथ सजा सुनायी गयी। हालांकि अभी यह प्रकरण 90 दिनों के बाद हाईकोर्ट जाएगा व फिर सर्वोच्च न्यायालय होते हुए राष्ट्रपति भवन तक का सफर दया याचिका के माध्यम से लम्बा सफर तय करेगा। अतः पुरा मामला अभी काफी लम्बा चलेगा। हिंदू विरोधी व मुस्लिम तुष्टिकरण में लगे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों व वामपंथी लेखकों को अयोध्या निर्णय की तरह यह निर्णय भी अच्छा नहीं लग रह है। अदालत ने साबरमती काण्ड को एक सुनियोजित साजिश बताकर उन धर्मनिरपेक्ष नेताओं विशेष रूप से पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव सरीखे नेताओं की बोलती तो अवश्य बंद ही कर दिया है जिन्होने अपनी हिंदू विरोधी मानसिकता के चलते व मात्र मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए तथा निरापराध हिंदुओं के साथ हुए अन्याय को नजरांदाज करते हुए 4 सितम्बर, 2004 को सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज यू सी बनर्जी के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन कर दिया जिसने 12 जनवरी, 2005 को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा कि ,साबरमती एक्सप्रेस की एस – 6 बोगी में आग जानबूझकर किसी षड्यंत्र के तहत नहीं लगायी गयी। यह रिपोर्ट पूरी तरह से नानावटी आयोग के निष्कर्षों के विपरीत थी क्योकि नानावटी आयोग का मत था कि, यह पूरी घटना एक साजिश थी।आज यही कारण है कि हिंदू विरोधी मानसिकता के चलते लालू प्रसाद यादव बिहार की जनता की नजरों में अछूत हो गये हैं। उन्होंने सोचा था कि निरापराध हिंदुओं की हत्या के षड़यंत्रों में मुसलमानों को बचाकर वे बिहार की सत्ता का सुख भोग लेंगे लेकिन यह दिवास्वप्न ही रह गया। गोधरा काण्ड व उसके बाद भड़के दंगों को लेकर देश के तथाकथित सेक्यूलरों व मानवाधिकारियों ने जिस प्रकार से अपनी विकृत मानसिकता के आंसू बहाए अब उक्त निर्णय से उनके आंसुओं का पर्दाफाश हो चुका है। विशेष अदालत का निर्णय उन लोगों के लिए गहरा आघात है जो उक्त निर्मम व दुर्लभतम धृणित हत्याकाण्ड को महज राजनैतिक स्वार्थों के चलते इस बर्बर दुर्घटना को मात्र घटना करार दे रहे थे। अतः वे सभी राजनैतिक दल व्यक्ति व संगठन भी उस घटना के उतने ही बड़े आरोपी हैं जो कि उक्त घटना के आरोपियों को बचाने का घृणित खेल खेल रहे थे। यह हत्याकाण्ड आजादी के बाद देश का ऐसा शर्मनाक हत्याकाण्ड था जिसने मानवता को हिला कर रख दिया था लेकिन उसके बाद की राजनैतिक घटनाओं ने तो देश को और भी बुरी तरह से झकझोर दिया। भारतीय संविधान व धर्मनिरपेक्षता के रक्षकों ने भी अपनी सारी मर्यादाएं तोड़ दी तथा उन्हें पूरी घटनाओं में केवल एक ही व्यक्ति पर सारा दोष नजर आया वह थे नरेंद्र मोदी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने गोधराकाण्ड के फैसले पर लगी रोक हटाकर उक्त सभी लोगों की राजनीति पर ब्रेक लगा दी है। लेकिन वे लोग अब भी अपने घृणित कारनामों से पीछे नहीं हटने वाले। वामपंथी विचारधारा के लेखको ने उक्त निर्णय की आलोचना करते हुए अपनी लेखनी उठा ली है तथा ऐसे लेखक न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह उठाने लगे हैं । ऐसे लेखकों, मानवाधिकारियों व सेकुलरिस्टों को हिंदुओं के साथ घटी घटना महज कल्पना लगती है। पता नहीं क्यों ऐसे लोग अपने आप को हिंदू लिख रहे हैं। सवतंत्र भारत में अंग्रेजी मानसिकता से वशीभूत लोग ही हिंदूओं व मुसलमानों के बीच उत्पन्न होती सामाजिक समरसता को ध्वंस करने का षड़यंत्र करते हैं व फिर कोई घटना घटित होने पर विकृत रूप से अपने खेल में लग जाते हैं। आज धन्य हैं वे लोग जिन्होंने गोधरा को लेकर अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और आज उक्त दुर्लभतम ऐतिहासिक हत्याकाण्ड पर न्याय का मार्ग प्रशस्त हुआ है। आज वे सभी लोग भी उक्त हत्याकाण्ड में उतने ही दोषी हैं जो कि येन केन प्रकारेण उसे दुर्घटना करार दे रहे थे। यह निर्णय उन लोगों को भी करारा जबाब है।अतः वे सभी लोग भी लोकतांत्रिक ढंग से सजा के हकदार हैं जो उस वीभत्स घटना पर वोटबैंक की राजनीति कर रहे थे। रही बात गोधरा काण्ड के बाद भड़के दंगों की तो उसके पीछे एक बडा महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि उस समय तथाकथित सेक्यूलर मीडिया ने उक्त वीभत्स घटना को दरकिनार करके बेहद पक्षपातपूर्ण ढंग से घटनाओं का प्रकाशन-प्रसारण किया था जिसके कारण भी वहां पर तनाव बढ़ा। अतः अब चूंकि पूरा मामला न्यायपालिका में गति पकड़ चुका है तो अब इस प्रकार की घटनाओं पर विकृत राजनीति बंद होनी चाहिए तथा आशा की जानी चाहिए की अन्ततः जीत सत्य व न्याय की होगी।

 

कुलपतियों के बुते शिक्षा की बुनियाद

विश्वविद्यालय अध्ययन, अनुसंधान और अनुशासन के केन्द्र होते हैं। विद्यार्थियों के लिये अध्ययन की यह अंतिम पाठशाला होती हैं। यहां से निकलकर वे अपने जीवन के कर्म क्षेत्र में सक्रिय होते हैं। कर्मक्षेत्र और सामाजिक जीवन की कठिनाईयों से जूझने और कुछ नया करने का जज्बा उन्हें विश्वविद्यालय के गुरुजनों से मिलता है। गुरुजनों पर इन मासूम जिन्दगियों को संवारने का गहरा दायित्व है। जाहिर तौर पर विश्वविद्यालय के मेरुदंड ये गुरुजन ही हैं जिनके कंधों पर देश के नौजवानों का भरोसा और भविष्य दोनों टिका है। विश्वविद्यालय को आकार, आयाम और औदार्य देने के लिये एक कुशल नेतृत्व की जरुरत होती है, इसके लिये कुलपति नियुक्त किये जाते हैं। कुलपतियों का जिम्मा अकादमिक वातावरण के लिये उचित पृष्ठभूमि तैयार करना होता है। इन मायनों में सर्वोच्च जिम्मेदारी कुलपति की होती है कि वे अपने विद्यार्थियों, शिक्षकों और अध्येताओं से अच्छा समन्वय और विश्ववास कायम करके देश की इन पवित्र पीठों को ज्ञान, संस्कृति और शुचिता के वाहक बनाएं। कोई विश्वविद्यालय इस बात से पहचाना जाये कि उसके बनाये वातावरण में विभिन्न मुद्दों तथा विषयों पर कितनी सार्थक और सम्यक विमर्श के लिये स्थान है।

उच्च शिक्षा केन्द्रों की स्थापना का उद्दैश्य देश में ऐसे जागरुक नागरिकों और राष्ट्र सचेतकों को तैयार करना है कि समाज के किसी भाग में नागरिक अधिकारों का अतिक्रमण न हो, सामाजिक न्याय और समानता की रक्षा हो, मानवीय मूल्यों का विकास हो, मानव कल्याण की सर्वोच्च भावना को बल मिले, समाज में समरसता का वातावरण बनें, देश की प्रतिष्ठा बढे-ऐसे लोकदर्शी विचारों का पोषण हो। सबसे अहम बात ये है कि संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के प्रति जनजागरुकता आये। इसलिये जरुरी है कि शिक्षा के उच्च संस्थानों में विभिन्न मत-मतान्तरों और विमर्शों के लिये खुली जगह हो। विश्वविद्यालय की हवाएं घुटन पैदा करने वाली न हो। विश्वविद्यालयों में विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये सम्यक वातावरण उपलब्ध हो, क्योंकि इन्हीं विश्वविद्यालयों से जिम्मेदार नागरिकों और जनचेतना के बीज पैदा होते हैं।

लेकिन विडम्बना है कि विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा के उच्च संस्थान आज संख्या में तो तेजी से बढ़ रहे हैं लेकिन इनके अन्दर मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना और राष्ट्र के प्रति नैतिक बोध खत्म होता जा रहा है। डिग्री देने वाले शिक्षा संस्थानों की हमारे देश में कमी नहीं है। डिस्टिंग्निश्ड स्कालर देने में विश्वविद्यालयों के पास कोई ठोस योजना या विचार नहीं है। विद्यार्थियों में अच्छे संस्कार और राष्ट्रबोध का भाव पैदा हो ऐसा नेतृत्व विश्वविद्यालयों के पास नहीं है। जिन कुलपतियों के जिम्मे ये बात है वे विश्वविद्यालयों का उपयोग अपनी महत्वाकांक्षाओं और राजनैतिक फायदों के लिये करते हैं। विद्यार्थी और शिक्षक क्या सोचते हैं और क्या चाहते हैं, उनका दृष्टिकोण क्या है, भावी कार्यक्रम क्या हैं इससे बहुत कम सरोकार कुलपतियों का होता है। कुछ दिनों पहले छत्तीसगढ़ के रायपुर के एक विश्वविद्यालय में नेक की टीम के दौरे में एक विद्यार्थी ने कहा कि ज्यादातर शिक्षक अधिकारियों के कामों का जिम्मा लिये होते हैं उनके पास पढ़ाने का समय ही नहीं होता, ऐसे में गुणवत्ता कहां से आयेगी कमोबेश यह स्थिति भारत के सभी विश्वविद्यालयों में है, किन्तु यह नहीं होना चाहिये। कुलपति और शिक्षकों के मध्य संवाद की प्रायः कमी रहती है। कुलपति अपने भय, रौब और आतंक के जरिये व्यवस्था पर नियंत्रण रखना चाहते हैं। जबकि कुलपति अधिक शिष्ट, सौम्य और अपने विषय के विद्वान हों तो उन्हें लोगों का सम्मान और भरोसा दोनों ही मिलता है। ऐसे ही विद्वान कुलपति आगे चलकर सर्वपल्ली डा.राधाकृष्णनन की तरह ख्याति पाते हैं। किन्तु दुर्भाग्य है कि हमारे ज्यादातर विश्वविद्यालय कुलपतियों की अमानवीय कार्यशैली,  दुराग्रह एवं भ्रष्ट नीतियों के चलते विवाद के केन्द्र बनते जा रहे हैं। कुलपतियों का गांधीवादी चेहरा देखने को नहीं मिलता है जिससे विश्वविद्यालयों का सम्मान समाज में कायम हो सके। मनमानी और हठधर्मिता के चलते कुलपतियों का सम्मान लगातार घट रहा है। इसलिये विश्वविद्यालयों में आन्दोलनों और विवादों का सिलसिला खत्म नहीं होता। कुलपतियों का व्यक्तित्व विश्वविद्यालय का दर्पण होता है। कुलपति की विद्वता और ख्याति विश्वविद्यालय को समाज में लोकप्रिय दर्जा दिलाती है इसलिये कुलपति को संयमी, रचनात्मक और अधिक समझदार होने की जरुरत होती है।  

शिक्षा के स्थल अत्यन्त संवेदनशील और प्रेरणायुक्त होने चाहिये। जिस तरह परिवार में पिता का चेहरा समूचे परिवार के संस्कारों का संपृक्त करता है उसी प्रकार कुलपतियों की कार्यप्रणाली विश्वविद्यालय के संस्कारों को ढालने के लिये महत्वपूर्ण होती है। शिक्षा संस्थान किसी दरोगा की तरह हांके नहीं जाते, शिक्षा संस्थानों को चलाने के लिये उसके नेतृत्व में संवेदनशीलता और प्रेरक गुणों से भरपूर होना चाहिये। जिस संस्थान के नेतृत्व में गुस्सा, आक्रोश और प्रतिहिंसा के पाप होंगे, उन संस्थानों में कभी शांति, अनुशासन और अहिंसा का पुष्प नहीं खिलेगा। बदले की भावना से काम करने वाले कभी शिक्षा के पैरोकार नहीं हो सकते। जो शिक्षा किसी को विनम्र और समझदार न बना सके, उसका कोई अर्थ नहीं है। यह भी देखना चाहिये कि शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों का सम्मान जो प्रशासन नहीं करता है वहां कभी प्रेरणा की जमीन तैयार नहीं हो सकती। ऐसा भी नहीं है कि पूरे कुंए में भांग घुली हुई है। मै यहां गुजरात विद्यापीठ के कुलपति रहे रामजीलाल पारिख का उदाहरण रखना चाहूंगी, जिनकी सादगी, व्यवहार और विद्वता के सभी कायल रहे। ऐसे कई कुलपति रहे हैं जिन्होंने अच्छी परंपराएं देने का काम विश्वविद्यालयों में किया है। गुजरात विद्यापीठ में आज भी ये परंपरा है कि कुलपति फर्श पर आसन लगाकर बैठते हैं, मेहमानों के लिये कुर्सियां और सोफे होते हैं। गुजरात विद्यापीठ का शांत वातावरण बरबस ही अध्येताओं को अपनी ओर खींचता है। बदले वक्त में विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की कार्यशैली में ब्यूरोक्रेट की तरह काम करने का चलन बढ़ा है। कुलपति अपनी सौम्यता या विद्वता के लिये नहीं पहचाने जा रहे हैं। उनके अन्दर कुंठा, गुस्सा, आक्रोश और विरोधी सुरों को कुचल देने का अलोकतांत्रिक विष भरा हुआ है। कोई अपनी प्रार्थना लेकर न्याय के वैकल्पिक रास्तों को तलाशता है तो लगता है जैसे किसी ने उनकी सत्ता को चुनौती दे दी है। साम-दाम, दंड-भेद के सभी हथियार चल उठते हैं लेकिन यह कभी नहीं होता कि वे अपनी कमियों को पहचाने। पहले अपने में गिरेबां में झांके और तय करें कि विश्वविद्यालयों में शांतिपूर्ण, अध्ययनशील और सांस्कृतिक वातावरण बनाने में कौन से विकल्प कारगर होंगे।     

सरकार या प्रशासनिक पदों पर बैठे शीर्ष व्यक्तियों को उनके काम करने के लिये तमाम सुविधाओ और संसाधनों का अंबार लगा होता है, किन्तु सही मायनों में वे इसका इस्तेमाल जनहित और संस्थानों की प्रतिष्ठापना के लिये नहीं कर पाते। सदाश्यता, सहिष्णुता और सदभाव की कार्यशैली शीर्ष पदों पर बैठे लोगों में कम ही देखने को मिलती है। अपने आचरण और व्यवहार से लोगों को परेशान करके फिर अपनी सुरक्षा के लिये उन्हीं संसाधनों को वे कवच की तरह इस्तेमाल करते हैं। अधिकारियों को समझना होगा कि जो संसाधन और सुविधाएं उन्हें मिलते हैं वे संस्थान के विकास के लिये होते हैं। शिक्षा संस्थानों की बुनियाद तय करती है, कि उसके आंगन में खिलने वाले फूलों की खूशबू दुनिया को कितना तरोताजा करती है।