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1924 : जब महात्मा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने

लालकृष्ण आडवाणी

पिछले दिनों रामकृष्ण मिशन, बेलगांव ने मुझे वहां पर निर्मित एक विशाल सभागार का औपचारिक उद्धाटन करने के लिए निमंत्रित किया, जहां पर स्वामी विवेकानन्द दक्षिण भारत की अपनी पहली यात्रा के दौरान रूके थे।

इस कार्यक्रम के लिए कलकत्ता स्थित मिशन के मुख्यालय वेल्लुर मठ के प्रमुख सहित सारे देश से रामकृष्ण मिशन ट्रस्ट के सभी ट्रस्टी वहां पहुंचे थे।

बेलगांव की मेरी यात्रा अक्षरश: इतिहास के साथ एक साक्षात्कार थी। जिस स्थान पर स्वामी विवेकानन्द नौ दिन रूके वह आज भी पर्याप्त श्रध्दा के साथ व्यवस्थित है, ऐसे स्थान पर जाकर कोई भी अपने को कृतार्थ समझेगा। यह स्थान बेलगांव किले के भीतर है, जिसके लिए एक बड़ा क्षेत्र रामकृष्ण मिशन को दिया गया है।

स्वामीजी 1892 में बेलगांव आए थे और अगले वर्ष 1893 में उन्हें विश्व धर्म संसद में भाग लेने हेतु शिकागो जाना चाहिए, का विचार भी यहीं फलीभूत हुआ माना जाता है।

इसी बेलगांव में 1924 में कांग्रेस का सेशन हुआ था, बेलगांव के निकट कित्तुर की रानी चेन्नमां द्वारा ठीक एक सौ वर्ष पूर्व ब्रिटिश शासन के विरूध्द विद्रोह करने के बाद जोकि 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से पहले की घटना है। 1997 में स्वर्ण जयंती यात्रा के दौरान कित्तुर स्थित रानी चेन्नमां को अपनी श्रध्दांजलि देने आने का मुझे स्मरण हो आया।

महात्मा गांधी का जीवनभर कांग्रेस पर असाधारण प्रभाव बना रहा। लेकिन 1924 में ही सिर्फ एक बार वह पार्टी के अध्यक्ष बने।

बेलगांव स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। लोकमान्य तिलक ने 1916 में बेलगांव से ही अपना ‘होम रूल लीग‘ आन्दोलन छेड़ा था। इस शहर को 1924 में ऑल इण्डिया कांग्रेस के 39वें सेशन को आयोजित करने का सम्मान प्राप्त हुआ, और यही एकमात्र ऐसा सेशन था जिसकी अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की और कर्नाटक में भी यही एकमात्र सेशन हुआ। इस सेशन की स्मृति में ‘वीरसौधा‘ स्मारक बनाया गया है। कैम्पस में मौजूद कुआं, कांग्रेस कुएं के नाम से प्रसिध्द है क्योंकि इसे सेशन के दौरान पीने के पानी की आवश्यकता के लिए बनाया गया था। कुएं का नाम पम्पा सरोवर और सेशन के स्थान का नाम हम्पी साम्राज्य के नाम पर विजयनगर रखा गया था।

इण्डियन नेशनल कांग्रेस के इस सेशन में अनेक ऐसे व्यक्ति एकसाथ आए थे जिन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष को गति दी तथा हमारे देश पर अपनी छाप छोड़ी। महात्मा गांधी के अलावा, मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू, लाला लाजपत राय और राजगोपालचारी, डा0 एन्नी बसेंट और सरोजिनी नायडू, चित्तरंजनदास और पण्डित मदन मोहन मालवीय, सैफुद्दीन किचलु और अबुल कलाम आजाद, राजेन्द्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल और ऐसे अनेक अन्य महारथी इसमें उपस्थित थे।

कांग्रेस का बेलगांव सेशन प्रसिध्द संगीतज्ञ विष्णु दिगम्बर पलुसकर द्वारा गाए गए वंदेमातरम के साथ शुरू हुआ। तत्पश्चात् कन्नड के दो गीत गाए गए, इनमें से एक को एक छोटी लड़की गंगूबाई हंगल ने गाया जिसके आत्मीय स्वर ने गांधीजी को भाव विभोर कर दिया। बाद में गंगूबाई देश की सर्वोत्कृष्ट संगीतज्ञों में एक बनीं।

उन दिनों में प्रत्येक वर्ष कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुना जाता था। तब से कितना बदल गया है! आजकल पार्टी का अध्यक्ष पद लगता है एक परिवार का एकाधिकार बन गया है और वह भी जीवनभर के लिए!

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अपने राजनीतिक जीवन में, मैंने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। 1980 की शुरूवात में जनता पार्टी के अंतिम दिनों वाले दौर को मैं सर्वाधिक पीड़ादायक मानता हूं। जनता पार्टी बुरी तरह चुनाव हार चुकी थी। पार्टी के जनसंघ सदस्यों को नेतृत्व द्वारा बोझ समझा जाने लगा था और दोहरी सदस्यता के नाम पर हमें बाहर करने के प्रयास चल रहे थे। और यह पीड़ा अप्रैल 1980 में ही तब समाप्त हुई जब जनसंघ से सम्बन्ध रखने वाले हम लोगों ने जनता पार्टी से किनारा कर भाजपा की नींव रखी।

इसी ‘पीड़ादायक दौर‘ के दौरान एक बार मैंने कहा था ”यह जनता पार्टी लगता है आत्महत्या करने की मन:स्थिति में है!” एक मित्र ने टिप्पणी की कि ”यह साधारणतया माना जाता है कि आत्महत्या करना सिर्फ मनुष्य की ही विशेषता है न कि पशुओं की। लेकिन स्केनडिनेवियन देशों में एक चूहे जैसा जीव पाया जाता है जिसे ‘लेम्मिंग‘ नाम से पहचाना जाता है, के बारे में कहा जाता है कि यह अपने आप में अलग प्रजाति है: बगैर किसी स्पष्ट कारण के ये ‘लेम्मिंग‘ सामूहिक आत्महत्या करते हैं। अपने लेखन में उन दिनों अक्सर मैं जनता पार्टी के बारे में कहा करता था कि यह ”लेम्मिंग कॉम्पलेक्स” से ग्रसित है। हालांकि बाद में मुझे पता चला कि यह मात्र ऐसा माना जाता है, वैज्ञानिक रूप से सही नहीं है।

गत् सप्ताह मुझे ‘हिन्दू‘ समाचारपत्र में सम्पादकीय पृष्ठ पर इसके सुपरिचित पत्रकार पी0 साईनाथ का ”दि लर्च ऑफ लेम्मिंग्स” शीर्षक से लेख पढ़ने को मिला। साईनाथ ने लेख को इन शब्दों में समाप्त किया है: 2 जी, राडिया, अवैध फण्ड और एक जिद्दी सीवीसी, यूपीए सरकार के घोटाले लेम्मिग्ंस की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ते जा रहे हैं।” इससे किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि क्या यू.पी.ए. सरकार भी आत्महत्या के मूड में आती दिख रही है्!

‘हिन्दू‘ में ही घोटाले विषय पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल स्टडीज के सेंटर फॉर इकानॉकिक्स स्टडीज़ एण्ड प्लानिंग के चेयरमैन अरूण कुमार का ‘ऑनेस्टी इज़ इंडीविसिवल‘ शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ है। वे शुरूवाती पैराग्राफ में लिखते हैं:

”भारतीय सत्ताधारी वर्ग को 2010 में विश्वसनीयता के गंभीर संकट का सामना करना पड़ा है। उनका अतीत उजागर हुआ है और इसके घोटाले तथा घपले सामने आते जा रहे हैं। घोटालों का काली अर्थव्यवस्था से प्रतीकात्मक सम्बन्ध है।

घोटालों की संख्या बढ़ती जा रही है और इसी तरह काली अर्थव्यवस्था का आकार भी, जोकि दंग कर देने वाले सकल घरेलू उत्पाद के 50 प्रतिशत स्तर तक पहुंच गई है और इससे प्रति वर्ष 33 लाख करोड़ रूप्ये की काली कमाई होती है। 1980 के दशक में आठ मुख्य घोटाले देखने को मिले, 1991 से 1996 की समयावधि में 26 और 2005-08 के बीच इनकी संख्या करीब 150 है।”

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पेट्रिक फ्रेंच की भारत पर ताजा पुस्तक ”इण्डिया: एन इंटीमेट बायोग्राफी ऑफ 1.2 बिलियन पीपुल” शीर्षक से प्रकाशित हुई है। पुस्तक पर मिश्रित समीक्षाएं प्रकाशित हुई हैं। लेकिन लेखक द्वारा प्रस्तावना में वर्णित एक घटना मुझे काफी रोचक लगी। यह इस प्रकार है:

न्यूयार्क शहर के बैंक में एक भारतीय गया और उसने ऋण अधिकारी के बारे में पूछा। उसने ऋण अधिकारी को बताया कि वह व्यवसाय के लिए दो सप्ताह हेतु भारत जा रहा है तथा उसे 5,000 डॉलर ऋण की जरूरत है। ऋण अधिकारी ने बताया कि इसके लिए बैंक को किसी किस्म की गारण्टी की जरूरत पड़ेगी। इस पर भारतीय ने बैंक के सामने की गली में खड़ी अपनी नई फेरारी कार की चाबियां उसे सौंप दी। उसने सम्बन्धित सभी कागजात उसे दिए जिसे बैंक ने जांचा। ऋण अधिकारी कार की गारण्टी के बदले ऋण देने को तैयार हो गया।

बैंक के अध्यक्ष और उसके अधिकारी इस भारतीय द्वारा 5000 डॉलर ऋण के लिए 2,50,000 डॉलर की फेरारी का उपयोग करने पर खूब हंसे।

ऋण अधिकारी ने कहा, ”श्रीमान, हम आपके साथ व्यवसाय करने से खुश हुए और यह लेन-देन अच्छे ढंग से सम्पन्न हो गया, लेकिन हम थोड़े असमंजस में हैं। जब आप यहां नहीं थे तो हमने जांच करने पर पाया कि आप करोड़पति हैं। हमें यह असमंजस है कि फिर भी आपने 5000 डालर का ऋण क्यों लिया?”

भारतीय ने जवाब दिया: ”सिर्फ 15.41 डॉलर में दो सप्ताह तक और कहां मैं न्यूयार्क शहर में अपनी गाड़ी पार्क कर सकता था। और वापसी पर इसके मिलने की भी?”

वाह, क्या भारतीय दिमाग है!

जन्मी और अजन्मी कन्याओं की रक्षा कैसे हो ?

सतीश सिंह

कभी लब्धप्रतिष्ठ कवि तुलसीदास ने ’नारी को तारण का अधिकारी’ माना था। 21वीं सदी में भी हमारे विचार तुलसीदास से इतर नहीं हैं। आज भी हमारे समाज में अजन्मी और जन्मी कन्याओं की हत्या धड़ल्ले से बेरोक-टोक जारी है। पर हमारा समाज इस कत्लेआम को रोकने के बजाए उसे सही साबित करने पर तुला है।

कथित तौर पर कन्या भ्रूण की हत्या को रोकने के लिए हमारी सरकार ने जन्म से पहले बच्चे के लिंग के बारे में जानकारी देने वाले डाॅक्टरों के लिए कानून में सजा का का प्रावधान किया है। किन्तु वास्तव में ऐसे डॉक्टरों को पकड़ना आसान काम नहीं है। हमारे पुलिस का सूचना तंत्र इतना कमजोर है कि वह कभी भी अपराधी डाॅक्टरों को पकड़ नहीं पाती है। अगर पकड़ती भी है तो ले-देकर मामला रफा-दफा हो जाता है। अफसोस की बात यह है कि इसतरह के कामों में सरकारी डॉक्टरों की भागीदारी भी निजी डॉक्टरों के समान है।

हाल ही में दिल्ली के सरकारी अस्तपतालों में जाँच के उपरांत पाया गया कि वहाँ अनचाहे कन्या बच्चों को आश्रय दिया जा रहा है। वैसे तो यह मामला कन्या भ्रूण की हत्या से अलग है, फिर भी जन्मी कन्याओं के हित से जुड़ा हुआ तो कदापि नहीं है। गौरतलब है कि सरकारी अस्तपतालों के द्वारा अनचाहे कन्या बच्चों को अपनाने का यह पहला मामला नहीं है। पूर्व में भी एमसीडी के बारा हिन्दु अस्तपताल और कलावती सरन अस्तपताल को इस तरह के कार्यों के लिए नोटिस भेजा जा चुका है।

ज्ञातव्य है कि जो माता-पिता अपनी बच्चियों को अपने साथ नहीं रखना चाहते हैं, उनको सरकारी अस्तपताल आश्रय दे रहे हैं। फिलहाल इस मामले में लोक नायक अस्तपताल और लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज नाम प्रकाश में आया है। अब तक ऐसे दो कन्या बच्चों को अस्तपताल के द्वारा अपनाने की बात सामने आई है।

सूत्रों के अनुसार बच्चियों के माता-पिता ने बच्चियों पर से अपने अधिकार का त्याग कर दिया है और डॉक्टरों ने गवाह के रुप में त्याग आवेदन पर हस्ताक्षर किया है।

उल्लेखनीय है कि चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्लूसी) ने अस्तपतालों के द्वारा उठाए जा रहे इसतरह के कदमों पर अपनी घोर आपत्ति दर्ज करवाई है। सीडब्लूसी के अघ्यक्ष राज मंगल प्रसाद का मानना है कि अस्तपताल बच्चों को इस प्रकार से आश्रय नहीं दे सकती है। बच्चों व किशोरों से संबंधित कानून 2009 के अनुसार बच्चों को कानूनी तौर पर गोद लेने और बच्चों के माता-पिता के द्वारा अपने अधिकारों का त्याग करने की एक निष्चित प्रक्रिया है। जोकि नियम व कानून पर आधारित है।

इस कानून की धारा 33 (4) के तहत अपने बच्चों को त्यागने वाले इच्छुक अभिभावकों को सबसे पहले सीडब्लूसी से संपर्क करना चाहिए।

घ्यातव्य है कि सीडब्लूसी परामर्ष दाताओं की मदद से ऐसे अभिभावकों को समझाने का भरपूर प्रयास करती है। स्थिति नियंत्रणहीन होने की अवस्था में ही अभिभावकों को कमेटी के समक्ष फार्म 15 को नॉन ज्यूडिशयल स्टैंप पेपर पर निष्पादित करने की अनुमति दी जाती है। इसके तदुपरांत पुनः अभिभावकों को 2 महीने का अतिरिक्त समय दिया जाता है। ताकि वे अपने निर्णय पर पुनः विचार कर सकें।

यहाँ सवाल अनचाहे कन्या बच्चों को त्यागने या फिर सरकारी अस्तपतालों के द्वारा खुलेआम कानून का उल्लंघन करने का नहीं है। अपितु सवाल यह है कि आखिर कब तक इस तरह से बच्चियों के साथ भेदभाव किया जाता रहेगा ? जाहिर है सरकारी या गैर सरकारी संगठनों के हाथों में बच्चियों को सौंप कर हम उनके भविष्य को सुरक्षित नहीं मान सकते हैं। एक रपट के अनुसार साल 2011 के फरवरी महीने तक तकरीबन 250 बच्चियों को उनके घरों से अगवा किया जा चुका है।

यह संख्या उन बच्चियों की है, जिनके अभिभावकों ने थाने जाकर रपट लिखवाई है। बच्चियों को अगवा करके उनके साथ क्या किया जाता है, इसकी कल्पना आप खुद कर सकते हैं ?

सचमुच, आज समाज की संवेदनशीलता समाप्त हो चुकी है। लिंगानुपात में आया असंतुलन भी हमारे पितृसत्तात्मक समाज की आँखें खोलने के लिए नाकाफी है। हद तो तब हो जाती है जब कई मामलों में सास बनने के बाद एक नारी खुद दूसरी नारी की हत्या करने से गुरेज नहीं करती है। कभी द्रौपदी का चीरहरण को रोकने के लिए स्वंय भगवान कृष्ण को आना पड़ा था। लगता है अब फिर भगवान कृष्ण को इस कलयुग में अवतार लेने की जरुरत है।

नेताजी से की मोहब्बत, गई जान…

– चण्डीदत्त शुक्ल

रामजी की अयोध्या के एकदम बगल बसे फैजाबाद को लोग बहुतेरी वज़हों से जानते-पहचानते हैं, लेकिन यहीं के साकेत पीजी कॉलेज का ज़िक्र एकेडेमिक एक्सिलेंस और स्टूडेंट इलेक्शंस को लेकर होता है। साकेत ने देश को कई नामी-बदनाम-छोटे-बड़े नेता दिए हैं। यहीं पर लॉ की स्टूडेंट थी शशि। कमसिन, कमउम्र, खूबसूरत शशि सबकी लाडली थी और मां-बाप की आंखों का तारा भी। 22 अक्टूबर, 2007 की सुबह शशि घर से कॉलेज जाने के लिए निकली, लेकिन साकेत तक नहीं पहुंची। कई दिन बीत गए। जगह-जगह तलाश किया गया…नाते-रिश्तेदारों के घर, सहेलियों-जान-पहचान वालों के यहां। कोई सुराग ना मिला, तब उसके पिता और बामसेफ के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व बहुजन समाज पार्टी के कैडर वर्कर योगेंद्र प्रसाद ने अयोध्या कोतवाली में बेटी के अपहरण का मामला दर्ज करा दिया।

…हालांकि यह एक छात्रा की किडनैपिंग या गुमशुदगी का कोई साधारण मामला नहीं था। इस केस की आंच प्रदेश के मौजूदा खाद्य प्रसंस्करण राज्यमंत्री आनंद सेन यादव के दामन तक पहुंची। यादव के अलावा, उनके ड्राइवर रहे विजय सेन यादव और शशि की क्लासमेट सीमा आजाद भी इस मामले में घिरे। 30 अक्टूबर, 2007 को शशि के पिता ने सीमा व विजय सेन के खिलाफ़ नामदर्ज रिपोर्ट दर्ज करा दी।

मामले में नाम आने के बाद 31 अक्टूबर को विजय सेन ने सरेंडर कर दिया। इसके साथ ही मामले का जो खुलासा हुआ, उसे जानकर लोगों की आंखें खुली की खुली रह गईं। शशि के पिता ने मायावती सरकार के तत्कालीन राज्यमंत्री आनंद सेन यादव पर बेटी की किडनैपिंग में शामिल होने का आरोप लगाया। योगेंद्र ने कहा कि उनकी बेटी को आनंद सेन के इशारे पर अगवा कर उसका मर्डर कर दिया गया है और शशि की लाश कहां ठिकाने लगाई गई है, इस बारे में आनंद, उनके ड्राइवर विजय सेन और शशि की क्लासमेट सीमा आजाद को सबकुछ पता है।

पुलिस ने विजय सेन का नार्को एनालिसिस टेस्ट कराया, ताकि मामले का पर्दाफ़ाश हो सके। टेस्ट में विजय सेन ने सनसनीखेज खुलासा करते हुए बताया कि शशि के आनंद सेन से अवैध रिश्ते थे और वह गर्भवती हो गई थी। आनंद को लगा कि उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी। विजय की मानें, तो आनंद के कहने पर ही उसने शशि की गला दबाकर जान ले ली थी। शशि की लाश तो नहीं मिली, लेकिन उसकी एक रिस्ट वाच मिली, जिसकी पहचान पिता योगेंद्र ने की।

आरोपों के घेरे में आने के बाद आनंद सेन ने 06 नवंबर को पद से त्यागपत्र दे दिया। हो-हल्ला मचने पर यूपी सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी। 14 जून 2008 को पुलिस ने आनंद सेन को लखनऊ में गिरफ्तार कर लिया। हालांकि बाद में दो महीने के पैरोल पर वो रिहा कर दिए गए। बसपा सांसद मित्रसेन यादव के विधायक पुत्र आनंद सेन यादव से रिश्ते रखने की सज़ा शशि को मिली या फिर उसकी हत्या के पीछ कुछ और कारण थे—इनका खुलासा तो वक्त करेगा, लेकिन सियासत और सेक्स की इस कॉकटेल कथा ने एक और ज़िंदगी की बलि तो ले ही ली है।

क्रमश:……..

विनायक सेन के बहाने……

पवन कुमार अरविंद

प्रख्यात स्तंभकार 96 वर्षीय सरदार खुशवंत सिंह का कम्युनिस्टों के संदर्भ में बिल्लियों के नवजात बच्चों वाला एक हास्य बहुत प्रसिद्ध है-

प्राइमरी में पढ़ने वाली एक छात्रा ने अपने प्रधानाध्यापक से कहा- सर! मेरी बिल्ली ने कल रात में दो बच्चों को जन्म दिया है। दोनों कम्युनिस्ट हैं।

छात्रा के मुख से कम्युनिस्ट शब्द सुनकर प्रधानाध्यापक आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि यह घटना वास्तव में एक आश्चर्य है। उन्होंने इस बात की सूचना स्कूल निरीक्षक को लिख भेजी। यह जानकर निरीक्षक भी आश्चर्य में पड़ गए।

निरीक्षक ने 16-17 दिन बाद स्कूल में आकर उस छात्रा से मिलने की इच्छा व्यक्त की। प्रधानाध्यापक ने उस बच्ची को बुलाया और निरीक्षक के सामने कहा कि तुम्हारी बिल्ली के दोनों कम्युनिस्ट बच्चों को निरीक्षक साहब देखना चाहते हैं।

छात्रा ने तपाक से कहा- सर! अब वो कम्युनिस्ट नहीं रहे, अब तो वे दोनों डेमोक्रेट हो गए हैं।

प्रधानाध्यापक ने छात्रा से पूछा- तुम्हारे कहने का क्या मतलब है। अभी कुछ दिन पहले तुम कह रही थी कि वे दोनों बच्चे कम्युनिस्ट हैं। लेकिन आज कह रही हो कि वे दोनों डेमोक्रेट हो गए हैं। आखिर इसका क्या अर्थ है?

छात्रा ने कहा- अजीब सी बात है, यह कोई इतना कठिन थोड़े ही है, जो आसानी से समझ में न आ सके।

छात्रा ने कहा- सर! बिल्ली के दोनों बच्चियों को जन्म लिए 16-17 दिन हो गए, अब उन दोनों की आंखें खुल गई हैं। इसलिए अब वे दोनों कम्युनिस्ट नहीं रहे, वे डेमोक्रेट हो गए हैं। छात्रा का उत्तर सुनकर दोनों अवाक् रह गए।

खैर! यह तो हास्य है; पर जैविक नियमों के अनुसार सत्य भी है।

इसी तरह यदि देखा जाए तो साम्यवादियों व नक्सलियों के समर्थक भी बिल्ली के इन्हीं नवजात बच्चों की तरह ही प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि नक्सलियों द्वारा किए गए सैंकड़ों मासूमों और बेकसूरों के नरसंहार के बाद भी इन समर्थक महानुभावों की आंखे अभी तक नहीं खुल सकी हैं। इस कारण वे अभी तक डेमोक्रेट यानी लोकतांत्रिक नहीं हो सके। हो सकता है कि कुछ दिन बाद इनकी आंखे खुल जाएं, लेकिन नक्सलियों के हिंसात्मक व अलोकतांत्रिक क्रांति के रास्ते को मनगढ़ंत तर्कों के आधार पर सही ठहराने की इनकी प्रवृत्ति से ऐसा संभव नहीं दिखता। ये लोग किसी भी कीमत पर अपनी आंखें खोलने को तैयार नहीं हैं। आंखें खुल जाने से इन्हें दर्द शुरू हो जाता है। ये सत्य देखना ही नहीं चाहते। इन समर्थक बुद्धिजीवियों और वक्तव्यवीरों को देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ बोलते रहने में ही आनंद की अनुभूति होती है। हालांकि इनकी संख्या देश भर में चार अंकों से ज्यादा नहीं है, फिर भी इतना ऊधम मचाए हुए हैं।

नक्सलवाद के प्रबल समर्थक डॉ. विनायक सेन पर मुझे आश्चर्य होता है। वे जिस अलोकतांत्रिक व अमानवीय पथ को एक वैचारिक रास्ता कहते हैं, उस रास्ते पर चलने के कारण हुई सजा को वे स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं हैं। वह वर्तमान में देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं।

24 दिसम्बर 2010 को रायपुर की जिला अदालत ने डॉ. सेन सहित तीन लोगों को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, शेष दो लोगों में माओवादी चिंतक नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यवसायी पीयूष गुहा शामिल हैं। डॉ. सेन को मई 2007 में बिलासपुर से गिरफ्तार किया गया था। वर्ष 2009 में उच्चतम न्यायालय ने स्वास्थ्य कारणों के चलते उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया। लेकिन रायपुर अदालत के 24 दिसम्बर 2010 के फैसले के बाद डॉ. सेन को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया था।

डॉ. सेन पेशे से चिकित्सक एवं गैर-सरकारी संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। उनको लोग मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता के तौर पर जानते हैं। उन्होंने चिकित्सा क्षेत्र की एमबीबीएस और एमडी; जैसी उच्चस्तर की डिग्री ले रखी है और दो वर्ष तक दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अध्यापन कार्य भी किया।

निचली अदालत ने उनको देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने, लोगों को भ़डकाने और प्रतिबंधित माओवादी संगठन के लिए शहरों में नेटवर्क ख़डा करने का दोषी माना था। इसके अलावा उन पर बिलासपुर जेल में बंद माओवादी नेता नारायण सान्‍याल की चिट्ठियां अन्‍य माओवादियों तक पहुंचाने का भी दोषी ठहराया गया है। वहीं पीयूष गुहा पर भी सान्याल का संदेश चोरी-छिपे माओवादियों तक पहुंचाने के आरोप लगे थे। गुहा की गिरफ्तारी के दौरान उनके घर से नक्सल आंदोलन से संबंधित काफी दस्तावेज और पत्रिकाएं मिली थीं।

इस फैसले के निलंबन और ज़मानत के लिए डॉ. सेन व गुहा ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में अपील की थी। उन्होंने न्यायालय में देश के जाने-माने अधिवक्ता राम जेठमलानी को जिरह के लिए खड़ा किया, लेकिन जमानत दूर की कौड़ी ही साबित हुई। इस अपील को 10 फरवरी को हाईकोर्ट ने खारिज कर दी। यानी उनका अपराध जमानत पर भारी पड़ गया।

हाईकोर्ट में छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त महाधिवक्ता किशोर भादुड़ी ने राज्य शासन का पक्ष रखा। उन्होंने सेन और गुहा को जमानत दिए जाने का विरोध किया था। वहीं, राजनंदगांव में नक्सली हमले में मारे गए तत्कालीन पुलिस अधीक्षक वी.के. चौबे की विधवा रंजना चौबे ने भी सेन की जमानत अर्जी के खिलाफ हस्तक्षेप याचिका लगाई थी।

नक्सलवाद के समर्थक बुद्धिजीवियों और वक्तव्यवीरों को अदालत का यह फैसला रास नहीं आ रहा है। यही नहीं डॉ. सेन की पत्नी इलीना सेन अपने पति की रिहाई के समर्थन में वैश्विक मानवाधिकारवादियों को लामबंद करने में जुटी हैं। इसी कारण सेन की जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान यूरोपीय यूनियन के कार्यकर्ता भी न्यायालय परिसर में मौजूद थे। इन लोगों को रायपुर और बिलासपुर में विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक संगठनों के विरोध का सामना करना पड़ा था। 40 नोबेल पुरस्कार विजेताओं सहित विश्व के कई मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं ने सेन को छोड़े जाने का अनुरोध किया था।

हालांकि, सवाल यह नहीं है कि हर दोषी अपने को बेगुनाह बताता है और स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता है, बल्कि यह है कि अपने जिस नजरिये और गतिविधियों को ये लोग क्रांति कहते हैं उसको खुले मन से स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं।

पराधीन भारत में सरदार भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल; जैसे हजारों सेनानी सीना ठोंककर अपने किए को स्वीकार करते थे। वे इस मातृभूमि के लिए हर वक्त अंग्रेजों की लाठी-गोली भी खाने को तैयार रहते थे। उन्होंने अंग्रेजों की दरिंदगी के खिलाफ बोला। अंग्रेजों के इस धरती से वापस चले जाने के पक्ष में सतत आवाज उठाई। उनके चेहरे पर थोड़ा भी शिकन या मायूसी का भाव नहीं रहता था। हर सजा को उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। चूंकि उन लोगों का अभियान देश की रक्षा के लिए था, इसलिए वे लोग अंग्रेजी अदालतों से मिली हर सजा को भुगतने के लिए तैयार रहते थे।

लेकिन डॉ. सेन और उनके समर्थकों को न्यायालय के हर फैसले पर आपत्ति है। यदि न्यायालय ने साक्ष्यों व तथ्यों को नजरअंदाज करके उनको जमानत पर रिहा कर दिया होता तो शायद वे प्रसन्न हो जाते औऱ न्यायालय के फैसले की भूरि-भूरि प्रशंसा करते। हालांकि यह गलती सेन की नहीं बल्कि उनके वैचारिक रास्ते की है, जो केवल अपने पक्ष में आए फैसले को ही न्याय मानती है। यही है साम्यवाद और नक्सलवाद की कथा-व्यथा।

बी बी सी-हिन्दी सेवा समापन पर श्रद्धांजलि…..

श्रीराम तिवारी

आम तौर पर किसी व्यक्ति वस्तु या सुखद कालखंड के अवसान पर मातम मनाने की अघोषित परम्परा न जाने कब से चली आ रही है , किन्तु यह वैयक्तिक ,भौगोलिक , सामाजिक , आर्थिक ,गुणवत्ता और मात्रात्म्कता से अभ्प्रेरित होती हुई भी सर्व व्यापी और सर्वकालिक परम्परा है .मान लीजिये कि किसी को ठण्ड में आनंद मिलता है तो किसी को वारिस में ,अब ठण्ड वाले को शरद -शिशिर -हेमंत -वसंत के अवसान का दुःख तो होगा ही किन्तु जिस अस्‍थमा के मरीज ने ये चार महीने बड़ी मुश्किल से गुजारे हों ;वो इस शीत काल के अवसान पर शोकाकुल क्यों होगा ? जिस किसी को ऍफ़ एम् रेडियो या वैकल्पिक संचार साधनों को अजमाने का शौक है उसे बी बी सी कि हिंदी सेवा के अवसान से क्या लेना देना ?

कुछ साल पहले में अपने पैतृक गाँव पिडारुआ{सागर} मध्य प्रदेश ,गया था .तब गाँव में बिजली नहीं थी .यह गाँव तीन ओर से भयानक घने जंगलों से घिरा है ,सिर्फ इसके पश्चिम में खेती की जमीनों का अनंत विस्तार है ,जो बुंदेलखंड और मालवा के किनारों को स्पर्श करता है .इस इलाके में भयंकर जंगली जानवर और खूंखार डाकू अब भी पाए जाते हैं .यहाँ हर १० मील की दूरी पर पुराने किले चीख -चीख कर कह रहेँ कि-बुंदेले हर बोलों कि ……..यहीं पर पुराने किले कि तलहटी में एक शाम मेरी मुलाकात बी बी सी से हुई थी .

में तब सीधी से सीधा सागर होते हुए गाँव पहुंचा था.मेरी पहली पद स्थापना सीधी में ही हुई थी ,मुझे नियमित रेडियो खबरें सुनने की लत सी पड़ गई थी .गाँव में तब दो-तीन शौकीन नव -सभ्रांत किसान पुत्रों के यहाँ रेडियो आ चुके थे .मुझे किले की तलहटी में कुंदनलाल रैकुवार के पास ले जाया गया .

कुंदनलाल जन्मांध थे ,व्रेललिपि इत्यादि का तब इतना प्रचार-प्रसार नहीं हुआ था और गाँवों तक उसकी पहुँच तो आज भी नहीं है सो कुंदनलाल जी जिन्हें लोग आदर से{?} सूरदास भी पुकारा करते थे ;नितांत निरक्षर थे .उनसे राम-राम होने के बाद रेडियो पर खबरों कि हमने ख्वाइश जताई .उन्होंने हाथ से रेडियो को टटोलकर आन किया और हमसे पूंछा कि कौनसा चैनल लगाना है ?हमने कहा कि कोई भी लगा दो ,न हो तो आल इंडिया या रेडियो सीलोन ही लगा दो .उन्होंने बी बी सी लन्दन लगा दिया .

मैंने बचपन में ही गाँव छोड़ दिया था सौ वर्षों बाद जब यह देखा कि एक नेत्रविहीन व्यक्ति न केवल अपनी वैयक्तिक दिनचर्या सुचारू ढंग से चलाता है अपितु शहरी चकाचौंध के बारे में सब कुछ जानता है .जब मुझे पता लगा कि भारत की राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक द्वंदात्मकता के बारे में वो मुझसे कई गुना और भी बहुत सी बातें जानता है ,तो मैं हर्षातिरेक से उसका मुरीद हो गया, उत्सुकतावश ही मैंने कुंदन से पूछा कि अच्छा बताओ चीन का सबसे शक्तिशाली नेता कौन है ? उसने कहा देंग सियाव पिंग, मैंने पूछा सेंटर आफ इंडियन ट्रेड यूनियन का महासचिव कौन ?जबाब था वी टी रणदिवे. मैंने सोचा कि कोई ऐसा सवाल पूंछू जिसका ये जबाब न दे सके और फिर इस पर अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता साबित कर चलता बनूँ .मैंने पूंछा कि अच्छा कुंदन बताओ दक्षिण पूर्व की दिशा का नाम क्या है ?उसने कहा आग्नेय ……और फटाफट ईशान ,वायव्य , नैरुत की भी लोकेशन बता दी .

कुंदन के ज्ञानअर्जन में हो सकता है कि उसकी श्रवण इन्द्रियाँ का कमाल ही हो जो सामान्य इंसानों से ज्यादा गतिशील हो सकतीं हैं किन्तु कुंदन ने अपनी बोधगम्यता का पूरा श्रेय ईमानदारी से रेडियो को दिया.जब मैं चलने लगा तो उसने एक सुझाव भी दिया कि बी बी सी सुना करो -सही खबरें देता है ….

इस घटना को लगभग ३५ साल हो चुके है ,तब से आज तक मैंने भी यही पाया कि बी बी सी हिंदी सेवा ने अपनी विश्वशनीयता को कभी भी दाव पर नहीं लगाया. चाहे इंदिरा जी की हत्या की खबर हो, चाहे राम-जन्म भूमि -बाबरी -मस्जिद मामला हो, चाहे गोर्वाचेव काअपहरण हो और चाहे भारत -पाकिस्तान परमाणु परीक्षण हो -हमने जब तक बी बी सी से पुष्टि नहीं की , इन खबरों को अफवाह ही माना .बी बी सी की प्रतिष्ठा समाचारों के क्षेत्र में उसके प्रतिसपर्धियों को भी एक आदर्श थी .रेडियो के स्वर्णिम युग में भी जब आकाशवाणी का ढर्रा नितांत वनावती और चलताऊ उबाऊ किस्म का हुआ करता था तब बी बी सी सम्वाददाता सुदूर गाँवों में ,पहाड़ों पर ,युद्ध क्षेत्रं में जाकर आँखों देखा हाल प्रेषित कराने में आनंदित होता था .आज जो विभिन्न न्यूज चेनल के संवाददाता ,फोटोग्राफर घटना स्थल पर जाकर लोगों की भीड़ से सवाल करते हैं ,सम्बंधित अधिकारियों ,राजनीतिज्ञों से उनका पक्ष रखने को कहते हैं ये सभी उपक्रम बी बी सी ने सालों पहले ईजाद किये थे और मीडिया की विश्वसनीयता को स्थापित करने के प्रयास किये हैं .अब यह भरोसे मंद सूचना माध्यम आगामी ३१ मार्च को खामोश हो जाएगा …सदा सदा के लिए .

११ मई १९४० को बी बी सी की हिंदी सेवा प्रारंभ हुई थी.बहुत बाद में इसकी सिग्नेचर ट्यून हिंदी फिल्म पहचान से ली गई थी .विगत ७० सालों में बी बी सी हिंदी सेवा ने अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं को कवर किया है .चाहे वह १९७१ का भारत -पाक युद्ध हो ,आपातकाल हो ,जनता पार्टी की सरकार हो , संसद पर हमला हो,तमाम एतिहासिक घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में जनता के सामने प्रस्तुत करने में बी बी सी की कोई सानी नहीं .

१९६७ से १९७९ तक विनोद पाण्डे हिंदी खबरें पढ़ा करते थे बकौल उनके -बी बी सी पर किसी किस्म का दबाव नहीं चला .उसकी तटस्थता , विश्वसनीयता ही उसकी पूँजी थी .मार्क टली, रत्नाकर भारती ,सतीश जैकब और आकाश सोनी इत्यादि नामचीन व्यक्तियों ने इसमें बेहतरीन सेवाएं दीं हैं .

बी बी सी हिंदी सेवा के अवसान से उत्तर भारतीय और खास तौर से हिंदी जगत को जो अपूरणीय क्षति होने वाली है उसका बी बी सी के हिंदी श्रोताओं को ही नहीं बल्कि -हिंदी कवियों ,साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को बेहद अफ़सोस होगा .

विश्वनाथ त्रिपाठी के अस्सीवें जन्मदिन पर बतकही का लोकार्पण

डीयरपार्क दिलशाद गार्डन में दि.16-2-11 को हिन्दी के जाने माने आलोचक और वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का 80वाँ जन्मदिन मनाया गया। पार्क के खुले आँगन मे जहाँ वे रोज सुबह सैर करते हैं वहीं के कुछ लेखक और पत्रकार मित्रो के सहयोग से यह समारोह आयोजित किया गया। इस अवसर पर डीयरपार्क के मित्रो के सहयोग से प्रकाशित बतकही शीर्षक पुस्तक का उन्हे समर्पण किया गया। इस पुस्तक का सम्पादन भारतेन्दु मिश्र ने किया। यह पुस्तक साहित्यिक अड्डेबाजी या साहित्यकारो की गप्प गोष्ठी का एक सहज दस्तावेज है। बाद मे त्रिपाठी जी ने इस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कहा- “मैं यहाँ बीस वर्षों से आ रहा हूँ ,यहाँ के हमारे सभी मित्रो ने ये जो मेरे लिए आयोजन किया है इससे बडा आयोजन मेरे लिए और हो नही सकता।हम लोग बरसों से एक साथ यहाँ बैठते है क्योकि यहाँ हम आपस मे अपनी रचनाओ की चर्चा नही करते। साहित्य से इतर केवल गप्प होती है तो इसी लिए यह चल रहा है। दूसरी तरह के महत्वाकान्क्षी बहुत से लोग जो हमारे बीच आये भी वो खुद कुछ न मिलने पर चले गये।..तो हम लोग आपस मे इसी लिए लम्बे समय से जुडे है कि हम किसी को कुछ देने की स्थिति मे नहीं हैं। इसी लिए यह हमारी गप्प गोष्ठी चल रही है।कुछ आते रहे कुछ जाते रहे। हम सबमे कमियाँ हैं-कमियाँ हैं तभी चल रहा है।“

समारोह का संचालन लखनऊ से पधारे डियरपार्क के पुराने साथी और पत्रकार विभांशु दिव्याल ने किया। संचालन करते हुए उन्होंने – बतकही को साहित्य में अपनी तरह की पहली किताब बताया जिसमे साहित्यकारों की गप्प को लिपिबद्ध किया गया है। इस अवसर पर अन्य वक्ताओ में बलराम अग्रवाल, अशोक गुजराती, भारतेन्दु मिश्र, रमेश प्रजापति, जयकृष्ण सिंह आदि ने त्रिपाठी जी को स्वस्थ और दीर्घायु होने की शुभकामनाएँ दीं। इसके साथ ही समारोह मे सुश्री काजल पाण्डेय,हरिनारायण,रमेश आजाद, अंगद तिवारी,राम कुमार कृषक,जयशंकर शुक्ल,वरिष्ठ नागरिक अवतार सिंह सहित अनेक मित्रों ने भाग लिया।

भारतीय विद्यार्थियों के साथ अमानवीय व्यवहार के लिए माफी मांगें अमेरिकी राष्ट्रपति

डॉ. प्रवीण तोगड़िया

भारतीय विद्यार्थियों की टांगों में इलेक्ट्रॉनिक पट्टे बांध कर अमेरिकी सरकार भारतीय विद्यार्थियों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार कर रही है।

जब से बराक हुसैन ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं तभी से वे और उनकी सरकार लगातार भारत और भारतीयों को किसी न किसी बहाने अपमानित करने के साथ-साथ उनके साथ अमानवीय व्यवहार करती रही है। सबसे पहले ओबामा ने भारत से होने वाली सभी प्रकार की आउटसोर्सिंग को बंद करने की बात कही, उसके बाद ओहियो राज्य ने भारतीय सूचना संस्थानों का एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया। तत्पश्चात् अपनी बहुप्रचारित भारत यात्रा के दौरान ओबामा दम्पति द्वारा यहां फूहड़ नृत्य करना तथा पुन: भारतीयों को अमेरिकीओं की नौकरी छीनने वाला देश बताया। अब जिस प्रकार ट्राई वैली विश्वविद्यालय में भारतीय विद्यार्थियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया है, वह अत्यंत निन्दनीय है।

जिन भारतीय छात्रों की टांगों में ये इलेक्ट्रॉनिक पट्टे बांधे गये हैं, उन सभी ने विश्वविद्यालय में दाखिला लेते समय वांछित प्रक्रिया का पूरा पालन किया था। उस प्रक्रिया में अमेरिकी अधिकारियों के द्वारा परीक्षा तथा साक्षात्कार आदि की सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद ही उन्हें विद्यार्थी वीजा प्रदान किया गया था। इसलिए जब विश्वविद्यालय ने अमेरिकी आव्रजन सेवा अधिकारियों के समक्ष इन विद्यार्थियों के वीजा हेतु जरूरी अन्य दस्तावेज प्राप्त करने के उद्देश्य से उनके दस्तावेज प्रस्तुत किये तो आज सवाल उठाने वाले ये अमेरिकी अधिकारी उस समय कहां थे?

इसी प्रकार अमेरिकी विश्वविद्यालय द्वारा उपलब्ध कराये गये और अमेरिकी आव्रजन अधिकारियों द्वारा सत्यापित दस्तावेज लेकर जब ये छात्र भारत स्थित अमेरिकी दूतावास गये थे तो भारतीय दूतावास ने विश्वविद्यालय की सत्यता और उन दस्तावेजों की प्रामाणिकता की उस समय जांच क्यों नहीं की? इसके बाद जब उन छात्रों ने विश्वविद्यालय में कुछ सेमेस्टर पास किये और मेडिकल बीमे तथा अन्य सेवाओं हेतु आवश्यक राशि का भुगतान किया तो उस समय अमेरिकी अधिकारी कहां थे? इसलिए अब इन भारतीय विद्यार्थियों पर क्यों आरोप लगाया जा रहा है?

ये छात्र तो वास्तव में अमेरिका स्थित अमेरिकी अधिाकारियों की मिलीभगत से ट्राई वैली यूनिवर्सिटी द्वारा की गयी धाोखाधाड़ी के शिकार हुए हैं। दोषी विश्वविद्यालय तथा अपने अधिकारियों की टांगों में ये अपमानजनक पट्टे बांधने की बजाए इन निर्दोष भारतीय विद्यार्थियों की टांगों में पट्टे बांधना पूरी तरह अन्याय और भारतीय विद्यार्थियों के मानवाधिकारों का सरासर उल्लंघन है।

मेरी भारतीय अभिभावकों और विद्यार्थियों से अपील है कि वे विदेशों में पढ़ने का मोह छोडकर भारत स्थित अच्छे शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेकर पढ़ाई करने का प्रयास करें। अमेरिकी विश्वविद्यालय भारतीय विश्वविद्यालयों की अपेक्षा बहुत अधिक फीस वसूल करते हैं। इन विद्यार्थियों से ज्यादा फीस लेकर वे वास्तव में अपने अमेरिकी विद्यार्थियों को सस्ती शिक्षा प्रदान करते हैं। भारत सदैव ही बेहतरीन शिक्षा एवं संस्कृति का केन्द्र रहा है। इसलिए भारतीय विद्यार्थियों द्वारा खोखले अमेरिकी स्वप्न देखना उनके स्वयं के लिए ही खतरनाक सिध्द हो रहा है। खासतौर से अमेरिका द्वारा किये इस प्रकार के घिनौने मानवाधिकारों के उल्लंघन के मद्देनजर और अमेरिका की धवस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था को देखते हुए इस बात पर गौर करना जरूरी है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को हिन्दू विद्यार्थियों के साथ किये गये इस अमानवीय व्यवहार के लिए तुरन्त मॉफी मांगनी चाहिए तथा उनकी टांगों में बांधे गये इलेक्ट्रॉनिक पट्टों को अविलम्ब हटाया जाए।

इसी के साथ सभी प्रभावित भारतीय विद्यार्थियों को अमेरिका के अन्य अधिकृत विश्वविद्यालयों में दाखिला दिलवाना चाहिए। यदि अमेरिकी सरकार ऐसा करने में असफल रहती है तो विश्व हिन्दू परिषद लोकतांत्रिक तरीके से सभी भारतीयों का आह्वान करेगी कि वे तुरन्त अमेरिकी कंपनियों के बनाये गये उत्पादों का बहिष्कार करना आरम्भ करें।

ऐसे अमेरिकी उत्पादों में शमिल हैं-कॉलगेट टूथपेस्ट, हेड एंड शॉल्डकर शेंपू, ऐरियल एंड टाइड डिटर्जेंट, विस्पर एंड स्टे प्रफी सेनिटरी नेपकिन्स, जॉनसन्स एंड जॉनसन्स बेबी प्रोडेक्टस तथा मेडिकल प्रोडेक्टस, फिजर फार्मा द्वारा बनायी गयी दवाइयां, कोका कोला, केलॉग्स, पेप्सी, जनरल मोटर्स एंड फॉर्ड वाहन, कॉम्पैक, एप्पल, आईबीएम एंड डेल कम्प्यूटर्स, माइक्रोसाफ्ट, बोइंग, डॉमिनॉस एंड पिज्जा हट पिज्जा, स्टारबक्स कॉफी, केएफसी, मॉनसेंटो और दूसरे अनेक उपभोक्ता उत्पाद।

– लेखक ख्यातलब्ध कैंसर सर्जन और विहिप के अन्तरराष्ट्रीय महामंत्री हैं।

ड्रामेबाज बिनायक सेन

अनिल बिहारी श्रीवास्तव

अब डॉ. बिनायक सेन और उनके हमदर्दों को क्या कहना है? छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 10 फरवरी को सेन की जमानत अर्जी नामंजूर कर दी। अदालत को ऐसा कोई वैध कारण नहीं दिखा जिसके आधार पर सेन को रियायत दी जाए। हाईकोर्ट की यह व्यवस्था निचली अदालत में चली कार्रवाई और सेन को सुनाई गई सजा की पुष्टि के रूप में ली जा सकती है। हाईकोर्ट की व्यवस्था को न्यायपालिका की विषयों पर दृढ़ रुख की पुष्टि भी मानी जाए। एक बात साफ हो गई है कि सेन को निचली अदालत द्वारा सुनाई गई उम्रकैद की सजा के विरुद्ध तथाकथित मानवाधिकारवादी, बुद्धिजीवियों और इसी कैटेगरी के अन्य प्राणियों द्वारा मचाई गई चिल्ल-पौं का असर न्यायपालिका पर नहीं पड़ा।

डॉ. बिनायक सेन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप था। यह देशद्रोह का मामला था। तथ्य, सबूत उनके विरुद्ध थे। अत: निचली अदालत ने उन्हें दोषी करार देते हुए सजा सुना दी। लेकिन अदालत के फैसले के बाद कुछ कानूनविद्, कुछ लेखक, कुछ डॉक्टर, कुछ समाजसेवी और कुछ अन्य लोग जिस तरह विरोध में उठ खड़े हुए; वह आश्चर्यजनक रहा। पब्लिसिटी के उद्देश्य से कुछेक राजनेता तक बिनायक को चरित्र प्रमाण पत्र देने से नहीं चूके। दुनिया भर के ४० नोबल पुरस्कार विजेताओं का बयान इस राष्ट्रद्रोही के पक्ष में आ गया। लंदन से एमेनेस्टी इंटरनेशनल नामक मानव अधिकारों की ठेकेदार फर्म बिनायक सेन के समर्थन में कूद पड़ी। कंधे पर झोला लटकाये और आमतौर पर कुर्ता-पैजामा धारण करने वाले बिनायक सेन ने तक आशा नहीं की होगी कि उसके समर्थन में दुनिया भर में इतने गाल बज सकते हैं।

बिनायक की सजा के विरोध में वक्तव्यवीरों की सक्रियता हैरानी वाली रही है। इस लोकतांत्रिक देश में जहां कानून का शासन है, आप किस मुंह से निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध जुबान दौड़ा रहे हैं? फिर दोषी साबित हो चुके व्यक्ति को इसलिए आजाद कर दिया जाए क्योंकि आप मांग कर रहे हैं? ऐसे माहौल में कानून के शासन का मतलब क्या रह जाएगा? बात तिलमिला देने वाली; लेकिन सच है। गिनती लगा लें बिनायक सेन के समर्थन में सवा अरब आबादी वाले इस देश में कितने लोग सामने आए? संभवत: आंकड़ा चार अंक को तक पार नहीं कर पाएगा।

माना कि बिनायक एक बढिय़ा बाल रोग विशेषज्ञ हैं, उसने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में गरीबों की बहुत सेवा की है। फिर भी पेशे की योग्यता और गरीबों की सेवा के आधार पर उसे राष्ट्रद्रोह पर उतारू माओवादी नक्सलियों के साथ साठगांठ करने का अधिकार नहीं मिल जाता है। बिनायक सेन एक तरफ का माओवादी ही है। फर्क इतना है कि वह जंगलों में सक्रिय हथियारबंद तत्वों के संदेशवाहक और सम्पर्क अधिकारी जैसी भूमिका अदा करता रहा है। इसी प्रजाति के लोग भुवनेश्वर, हैदराबाद, वारंगल, कोलकाता, नई दिल्ली, रांची और गढ़चिरौली आदि में मिल सकते हैं। जंगलों में मौजूद माओवादी मरने-मारने पर उतारू होते हैं। शहरों में बुद्धिजीवी और मानव अधिकार समर्थक होने का बिल्ला लगाये घूमने वाले न मरने पर उतारू रहते न मारने पर। हां, उन्हें मरने-मारने का खेल देखने में आनंद आता है। बिनायक सेन अव्वल दर्जे का कायर और धूर्त है। उसमें दम है तो सीना ठोंककर कहना चाहिए कि हां वह माओवादियों का साथ देता रहा है। कायरों जैसी चुप्पी, स्वयं के बेकसूर बताने की ड्रामेबाजी और अदालती फैसले को निराशाजनक बताकर बिनायक कानून को मूर्ख नहीं बना सकता।

(लेखक भोपाल में ईएमएस न्यूज एजेंसी के सम्पादक हैं)

व्यंग्य बाण : दर्द का हद से गुजरना है…

विजय कुमार

दुनिया में शायद ही कोई हो, जिसे कभी दर्द का अनुभव न हुआ हो। बूढ़ों में सिर, हाथ, पैर या पूरे शरीर का दर्द, बच्चों में विद्यालय न जाने के लिए पेट का दर्द और युवाओं के दिल में दर्द प्रायः देखने में आता हैं; पर लेखकों को एक विशेष प्रकार का दर्द होता है, जिसके लिए कोई नाम अब तक निर्धारित नहीं हुआ।

बात कुछ दिन पहले की है। कवि अखंड जी हांफते हुए एक हाथ में कागज और दूसरे में बुद्धिप्रकाश (मोटा डंडा) लिए कवि प्रचंड जी के पीछे दौड़ रहे थे। काफी प्रयास के बाद उन्होंने प्रचंड जी का क१लर पकड़ ही लिया।

लोगों ने पूछा, तो वे भड़क कर बोले- पिछले दो घंटे से यह मुझे अपनी कविता सुना रहा है। तीन कप चाय और चार पंराठे खा चुका है यह पापी; पर जब मेरा कविता सुनाने का नंबर आया, तो भाग खड़ा हुआ।

– पर अखंड जी, इसे दोपहर का खाना भी बनाना है। बीवी-बच्चे भूखे बैठे होंगे। – मैंने समझाने का प्रयास किया।

– जी नहीं, इसे दोपहर का ही नहीं, चाहे रात का खाना भी खिलाना पड़े; पर मैं कविता सुना कर ही रहूंगा।

तो साहब, यह है कवियों का दर्द। ‘जाके पैर न पड़ी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई.’…शायद ऐसे लोगों के लिए ही कहा गया है।

गद्य लेखकों के दर्द कुछ दूसरे हैं। कोई कहानी, व्यंग्य, लेख, निबन्ध, संस्मरण आदि लिखने के बाद यदि वह प्रकाशित न हो, तो उनका रक्तचाप बढ़ जाता है। किसी पत्र-पत्रिका को भेजने के बाद यदि महीने भर तक उसका उत्तर न आये, तो वह बौराने लगते हैं। डाकिये को देखकर कुछ आशा बंधती है; पर जब वह बिना इधर देखे निकल जाता है, तो अपना ही मुंह नोचने की इच्छा होने लगती है। रचना छपने के बाद यदि पारिश्रमिक न मिले, तो दिल के साथ जेब भी दर्द करने लगती है।

आजकल लिखने के लिए कम्प्यूटर और पत्र-पत्रिकाओं में भेजने के लिए अतंरजाल (इंटरनेट) का भी उपयोग होने लगा हैं; पर कई बार याद दिलाने पर भी जब उत्तर नहीं आता, तो लेखक की आंखें और उंगलियां दर्द करने लगती हैं; लेकिन क्या करे ? आदत से मजबूर लेखक फिर पिल जाता है और शाम तक एक नयी रचना तैयार।

कुछ लेखक कविता या कहानी की बजाय सीधे पुस्तक लिखना ही पसंद करते हैं। ऐसे लोगों के भी अपने दर्द हैं।

बात बहुत पुरानी है। एक प्रकाशन की पत्रिका में एक विवादित साक्षात्कार प्रकाशित हुआ। कई बड़े लेखकों ने उसकी आलोचना करते हुए वहां से छपी अपनी पुस्तकें वापस लेने की घोषणा कर दी। प्रकाशक कुछ दिन तो चुप रहे; पर बात बढ़ने पर उन्होंने एक लेखक को फोन किया।

– आप अपनी पुस्तक वापस लेना चाहते हैं ?

– जी हां, मैं क्या बहुत से लेखक वापस ले रहे हैं।

– ठीक है, तो कल कार्यालय में आकर हिसाब कर लें।

अगले दिन लेखक जी सीना चौड़ा कर कार्यालय पहुंच गये। हर बार तो प्रकाशक उन्हें चाय के साथ समोसा खिलाता था; पर आज उसने खाली चाय ही मेज पर रखवा दी।

– महोदय, आपकी पुस्तक के लिए हमने 20,000 रु0 अनुबंध राशि दी थी। चूंकि आप किताब वापस ले रहे हैं, तो कृपया वह राशि भी वापस कर दें।

लेखक को लगा, मानो कुर्सी के नीचे बम रखा हो। वे बोले – वह तो खर्च हो चुकी है। फिर भी धीरे-धीरे वापस कर दूंगा।

– ठीक है। पुस्तक की 1,000 प्रतियां छपी थीं। उसमें से 200 बिकी हैं। शेष आप ले जाएं। यों तो पुस्तक का मूल्य 150 रु0 है; पर आपको 100 रु0 में ही दे देंगे। कृपया 80,000 रु0 देकर उन्हें उठवा लें।

लेखक को कुर्सी में कांटें से लगने लगे। वे उठते हुए बोले – यह तो बड़ा झंझट है। मैं पुस्तकें कहां बेचता फिरूंगा ? चलिए छोड़िए, मैं अपना निर्णय वापस लेता हूं।

– पर हम अपना निर्णय वापस नहीं ले सकते। यदि एक महीने में आपने हिसाब नहीं किया, तो आपकी पुस्तकें रद्दी में बेचकर शेष राशि के लिए आप पर न्यायालय में दावा ठोक दिया जाएगा।

लेखक जी तब से घर पर ही हैं। उनके सिर से लेकर पैर तक हर अंग में दर्द है। शरीर कांपने और जीभ लड़खड़ाने लगी है। हर रात सपने में कबाड़ी नजर आता है। लिखने में भी अब मन नहीं लगता। काश, उन्हें यह पता होता कि चाकू और खरबूजे के युद्ध में कटता सदा खरबूजा ही है।

किसी ने कहा है- दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना। ऐसे दर्द के लिए हमदर्द वालों ने कोई झंडू बाम बनाया हो, तो दस-बीस डिब्बे मुझे भी भिजवाइये, क्योंकि मैं और मेरे कई मित्र इस दर्द से परेशान हैं।

तापी गैस पाइपलाइन: एक महत्वाकांक्षी परियोजना

समीर जाफ़री

मध्य एशिया, भू-राजनैतिक दृष्टिकोण से हमेशा से ही विश्व का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है. सोवियत संघ के पतन के बाद इस क्षेत्र का महत्व और अधिक बढ़ गया है क्योंकि यह आधुनिक “सिल्क रोड” का एक भाग होने के साथ-साथ 21 वीं सदी के शक्ति केन्द्र समझे जाने वाले रूस, भारत और चीन के पड़ोस में भी स्थित है. दूसरी ओर अमेरिका भी अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति के माध्यम से इस क्षेत्र में अपने पैर जमाने का पूरा प्रयास कर रहा है. इस क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिए वह एशियाई विकास बैंक द्वारा प्रस्तावित ट्रांस अफ़ग़ान गैस पाइपलाइन अथवा तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-इंडिया (तापी) पाइपलाइन का सक्रिय रूप से समर्थन कर रहा है.

1680 किलोमीटर लंबी पश्चिम देशों के समर्थन वाली प्रस्तावित तापी पाइपलाइन को ईरान- पाकिस्तान भारत (आईपीआई) पाइपलाइन की प्रतिद्वंद्वी परियोजना के रूप में भी देखा जा रहा है. यह पाइपलाइन अपने मुख्य स्रोत, तुर्कमेनिस्तान के दौलताबाद क्षेत्र से भारतीय सीमा स्थित पंजाब राज्य के फाज़िल्का तक गैस पहुंचाएगी. 7.6 अरब डॉलर की यह परियोजना इन सभी चारों देशों की ऊर्जा सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है बशर्ते कि यह परियोजना इस विशाल निवेश पर होने वाली भारी लागत और इसके रास्ते में आने वाले अस्थिर एवं अशान्त क्षेत्रों से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों पर काबू पा सके.

युद्ध से लगभग तबाह हो चुके अफगानिस्तान के लिए यह पाइपलाइन रोज़गार और राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत हो सकती है, जिससे कि अफगानिस्तान के विकास में सहयोग मिलेगा. तापी भारत और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्थाओं के लिए ऊर्जा का एक स्वच्छ स्रोत होने के साथ-साथ इन दोनों देशों के बीच शांति स्थापित करने में भी सक्षम है. और तो और, इस परियोजना से मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के बीच अंतर-क्षेत्रीय सहयोग का एक नया अध्याय शुरू होने की भी प्रबल संभावना है.

हालांकि शीत युद्ध खत्म हो चुका है और सोवियत उत्तराधिकारी रूस का प्रभाव इस क्षेत्र में काफी सिकुड़ गया है. इसके बावजूद चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए तथा पांव पसारते रूस को नियंत्रित करने हेतु, अमेरिका के लिए मध्य एशिया का अभी भी बहुत महत्व है. इसके अलावा क्षेत्रीय विकास परियोजनाओं में अमेरिका की भागीदारी, उसके सैनिकों और सैन्य अड्डों की उपस्थिति को वैधता प्रदान करेगी. इस परियोजना के लिए वॉशिंगटन का समर्थन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अमेरिका ने अपने कूटनीतिक दबाव के चलते सफलतापूर्वक कुछ समय के लिए भारत को आईपीआई पाइपलाइन से दूर कर दिया है.

दिलचस्प बात यह है की तापी को रूस की भी हरी झंडी प्राप्त है और उसने अपनी गैस कंपनी गाज़प्रोम के माध्यम से इस परियोजना में भाग लेने की दिलचस्पी ज़ाहिर की है. तापी परियोजना के साझेदार देशों ने भी सुझाव दिया है कि अज़रबैजान, कजाकिस्तान और उजबेकिस्तान के साथ-साथ गाज़प्रोम भी पाइपलाइन के लिए एक सप्लायर बन सकती है. यदि मास्को इस परियोजना का एक हिस्सा बनता है तो वह सफलतापूर्वक यूरोपीय संघ द्वारा प्रस्तावित नबुको पाईपलाइन को गैस स्रोतों से वंचित कर सकेगा, जिससे कि रूसी गैस पर यूरोपीय निर्भरता बनी रहेगी. क्षेत्र में एक बड़ी भूमिका के लिए रूस पहले से ही ताजिकिस्तान से पाकिस्तान को अधिशेष बिजली का हस्तांतरण करने वाली महत्वाकांक्षी CASA 1000 परियोजना को अंजाम दे रहा है. भारत के लिए भी तापी परियोजना ‘ऊर्जा सुरक्षा’ से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. भारत के लिए यह उस ऊर्जा संपन्न मध्य एशिया में पैर जमाने का एक माध्यम है जहां चीन पहले से ही मौजूद है. इस प्रकार मध्य एशिया सभी प्रमुख विश्व शक्तियों के लिए भू-राजनीतिक लाभ का एक अखाडा बन कर रह गया है.

क्षेत्र की राजनीतिक स्थिरता भी इस महत्वपूर्ण परियोजना का भविष्य निर्धारित करेगी . नवस्वतंत्र मध्य एशियाई देशों के जन्म के बाद से ही इस क्षेत्र ने राजनीतिक अस्थिरता और धार्मिक व जातीय संघर्ष का अनुभव किया है. अमेरिका ने जहां पश्चिमी लोकतंत्र के प्रसार की आड़ में “रंगीन क्रांतियों” को बढ़ावा दिया, वहीं रूस ने हमेशा सोवियत युग के अपने पसंदीदा तानाशाहों का समर्थन किया है ताकि वह इस क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाये रख सके. आज, तुर्कमेनिस्तान में लोकतांत्रिक शासन के बावजूद वहाँ की राजनीतिक स्थिति नाजुक बनी हुई है.

पारगमन शुल्क और सुरक्षा तंत्र पर सहमति बनना एक कठिन कार्य है. चूंकि यह पाइपलाइन अफगानिस्तान के हेरात व कंधार तथा पाकिस्तान के बलूचिस्तान जैसे दुर्गम एवं अशांत क्षेत्रों से होकर गुज़रेगी, अतः यह ज़रूरी हो जाता है कि एक पूर्णत: परिभाषित संस्थागत कानूनी प्रावधान बनाया जाए. 1994 का यूरोपीय ऊर्जा चार्टर, जोकि यूरोप भर में ऊर्जा पारगमन एवं सुरक्षा के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करता है, इस विषय में मार्गदर्शन कर सकता है. इसके बावजूद भारत को आईपीआई पाइपलाइन को एक वास्तविकता बनाने के लिए अपने प्रयासों को जारी रखना चाहिए क्योंकि केवल तापी भारत की तेज़ी से बढती अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं होगी. भारत के लिए यह भी आवश्यक है कि वह विभिन्न स्रोतों से अपनी निर्बाध ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करे. साथ ही साथ भारत को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उसका इस्तेमाल मध्य एशियाई क्षेत्र में अमेरिका के मोहरे के रूप में न होने पाए. यदि इन सभी पहलुओं का ध्यान रखा जाता है तो तापी परियोजना वास्तव में सभी सम्बद्ध देशों के लिए फ़ायदे का सौदा साबित होगी.

बेहया और बदमिजाज पीढ़ी (Generation Next.???)

अमित तिवारी

अचानक से मन थोडा व्यथित हो गया. एक खबर मिली कि एक लड़के ने दो हत्याएं महज इसलिए कर दी कि लड़की ने उसके प्रेम को अस्वीकार कर दिया था. लड़की के अस्वीकार से क्षुब्ध हुआ वह सीधे उसके ऑफिस पहुँच गया, जहाँ बीच-बचाव की कोशिश करते एक लड़का भी मारा गया और लड़की का भी गला उस उन्मादी युवक ने काट दिया.

जांच पड़ताल होगी. बहुत से बयान आयेंगे-जायेंगे. उस उन्मादी युवक को शायद सजा होगी या शायद अपने रसूख के दम पर वह निश्चिन्त होकर घूमता रहेगा.

वाद का विषय यह नहीं है. जैसा भी होगा वह नया नहीं होगा. दोनों ही तरह की बातें होती रहती हैं. पकडे जाकर सजा पाने वाले भी बहुत हैं… और रसूख और पहुँच के दम पर छुट्टा घूमने वाले भी. विषय है आज के युवाओं के अन्दर पलते इस रोष का. वरन इसे रोष कहना भी गलत ही है. रोष तो एक सकारात्मक शब्द है. यह मात्र उन्माद है. पथभ्रष्ट होते युवा एक गंभीर विषय बन चुके है. एक ऐसा विषय जिस पर कोई चर्चा भी नहीं है. जिस घटना का जिक्र है वह आज के समय में एक सामान्य घटना ही है. यह ऐसा सच है आज के समय का जिस से हर रोज रूबरू होना पड़ता है. हर रोज सुबह अखबार में ऐसी अनगिन घटनाएं देखने को मिल जाती हैं. हर रोज इतना कुछ देखने को मिल जाता है अपनी इस समकालीन पीढ़ी के बारे में कि मन उखड़ जाता है. यह पीढ़ी न अपनी बुद्धि का सही इस्तेमाल करना जानती है ना अपनी शक्ति का.. बुद्धि का इस्तेमाल होता है तो द्विअर्थी संवाद करने में और शक्ति का प्रयोग होता है किसी गरीब और कमजोर पर. बात चाहे पैसा मांगने पर चाय वाले पर चाकू चलाने की हो या फिर कार से छू जाने पर रिक्शे वाले की हत्या कर देने का.. या फिर ऐसी ही किसी नृशंस घटना में उस शक्ति की परिणति होती है.

इसे शक्ति कहा जाए या फिर कायरता का ही नया रूप. जहाँ सच से सामना करने की शक्ति इतनी क्षीण हो गयी है इस पीढ़ी की कि वह उतावलेपन में कोई निर्णय नहीं ले पाने की हालत में रही है.

इस तथाकथित सभ्य और आधुनिक होती युवा पीढ़ी के और भी कई वाहियात रूप देखने को मिलते रहते हैं. शर्म आती है कि हम ऐसी पीढ़ी के समकालीन हैं. ऐसी पीढ़ी जो या तो घोर उन्मादी है या फिर फैशन के नाम पर अपाहिज और दोमुंही पीढ़ी.

ऐसी वाहियात जमात जिसे अपने समाज और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कोई सरोकार शेष नहीं है. शर्म आती है जब देखता हूँ कि एक तरफ जब मिस्र जैसे छोटे से अरब देश में जनता सड़क पर उतर कर 30 वर्षों के तानाशाही शासन को उखाड़ फेंकने में लगी है, तब यहाँ की दोगली जमात फेसबुक और ऑरकुट पर चुटकुलेबाजी और तस्वीर बांटने में लगी है. उसे गुस्सा आता है तब, जब लड़की उसका वासनाजनित प्रेम स्वीकारने से मना कर देती है या फिर कोई चाय वाला अपने हक के पैसे मांग लेता है.

जितना वक्त आज की यह तथाकथित आउन नॉर्म्‍स और सिविलाइजेशन को फॉलो करने वाली जमात खुद को संवारने और आइना देखने में बिताती है.. उतना वक्त शायद ही किसी सार्थक कार्य या चर्चा में बिताते हों.. यही कारण तो है कि आज सर्वाधिक युवाओं का देश भारत.. बीमार है.. क्रान्ति और देशभक्ति शब्द गाली जैसे लगते हैं इनके होंठों पर. अब इनका आदर्श भी फिल्मी परदे का अभिनेता होता है. क्रांति के लिए भी इन्हें अब किसी के अभिनय की ही जरूरत पड़ती है. अब ये सड़क पर तभी उतर सकते हैं जब इन्हें कोई ‘रंग दे बसंती’ या फिर ऐसी ही कोई फिल्म दिखाई जाए. कुछ ऐसी फिल्में देखकर ही इनके अन्दर क्रांति जन्म लेती है. और फिर जैसे ही दो शुक्रवार के बाद कोई हिस्स्स्स… या दबंग या तीस मारखां देख लेते हैं.. तुरंत इनके अन्दर की शीला जवान हो जाती है. सारी क्रांति ख़त्म.. इस संवेदन हीन पीढ़ी के मन में अब गजनी में आमिर खान की प्रेमिका के मरने पर तो संवेदना जागती है, लेकिन हर रोज भूख और बेबसी से मरते लाचार किसान और मजदूरों की खबर देख-पढ़कर नहीं जागती है.

बहस के लिए सबके पास इतना वक्त है.. लेकिन सार्थक विमर्श भी होना चाहिए.. इसकी किसी को चिंता नहीं है.. देश हमारा है.. लेकिन इसकी चिंता पडोसी के हाथ में है.. हम सबका चरित्रा यही रहता है.. चिंतन यही रहता है..

चेहरा देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है..

विमर्श के लिए कोई तैयार नहीं है. लोग खुद के प्रति ईमानदार होकर अपनी भूमिका का चयन नहीं कर रहे हैं आज के समय में.. इतने सब के बाद भी जब कोई कहता है कि मेरा भारत महान.. तो सच में कोफ्त होती है. जब यहाँ तरक्की के बड़े-बड़े आंकड़े सुनाये जाते हैं तब यह सब मात्रा आत्मप्रवंचना जैसा ही लगता है. लेकिन हमें सोचना होगा कि आत्मप्रवंचना करने से आत्मसंतुष्टि तो मिल सकती है.. लेकिन सत्य नहीं बदलता है…

देश की हालत क्या है? कितनी बीमार है.. ? ये तो सबको पता ही है.. लेकिन परेशानी यही है कि हम सच को स्वीकारने के बजाय आत्मप्रवंचना में लगे रहते हैं.. हम तो वो जमात है कि जिनके सामने कोई आकर देश के निवासियों को ‘स्लमडाॅग’ कहकर ‘आॅस्कर’ देकर चला जाता है और हम बेशर्मों की तरह ‘जय हो-जय हो’ कहते रहते हैं.

कभी कभी ये सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे बहुत बार थप्पड़ खाने से किसी का चेहरा लाल देखकर भी लोगों को लगता है कि उसके शरीर में खून बहुत है.. लेकिन हमें स्वीकारना चाहिए कि थप्पड़ मारकर गाल लाल कर लेने से ख़ून नहीं बन जाता है… देश की भी यही हालत है… इधर उधर के थप्पड़ से गाल लाल हो जाता है.. और सब लाल चेहरा देखकर खुश हो जाते हैं..

देश के सेहत का सच तो आज भी अस्थि-पंजर बना किसान-मजदूर ही है. और यहाँ के युवा का सच अखबारों की ऐसी ही सुर्खियाँ… बेहया और बदमिजाज पीढ़ी.

जनवादी जनतांत्रिक क्रांति के मार्ग में सभ्यताओं के संघर्ष का सूत्रपात किसने किया?

श्रीराम तिवारी

सन – २००१ में ९/११ को ट्विन टॉवर- वर्ल्ड ट्रेड सेंटर अमेरिका पर हुए आत्मघाती आतंकी हमले में जो २९९६ लोग मारे गए थे वे सभी कामकाजी और निर्दोष मानव थे .उनमें से शायद ही कोई निजी तौर पर उन हमलावरों की कट्टरवादी सोच या उनके आतंकी संगठन से दूर का भी नाता -रिश्ता रखता हो .दिवंगतों के प्रति परोक्ष रूप से इस्लामिक आतंकवाद को जिम्मेदार माना गया और इस बहाने बिना किसी ठोस सबूत के ईराक को बर्बाद कर दिया गया. क्या अब दुनिया भर के शांतिकामी लोग संतुष्ट हैं कि ट्विन टावर के दोषियों पर कार्यवाही की जा चुकी है ?

क्या अब यह मान लिया जाये कि जो कुछ भी ९/११ को और ३०-१२-२००६ {सद्दाम को फांसी] को जो हुआ उसमें तादात्मयता वास्तव में पाई गई ? क्या मुद्दई, मुद्दालेह ,और गवाह सब इतिहास में चिन्हित किये जा चुके हैं ? इन सवालों के जवाब कब तक नहीं दिए जायेंगे, भावी पीढियां भी तब तलक इतिहास से सबक सीखना पसंद नहीं करेंगी .

वैसे तो यह प्राकृतिक स्थाई नियम है कि दुनिया के हर देश में ,हर समाज में ,हर मजहब-कबीले में ,हर पंथ में -उसे ख़त्म करने के निमित्त उसका शत्रु उसी के गर्भ से जन्म लेता है .यह सिद्धांत इतना व्यापक है कि अखिल-ब्रह्मांड में कोई भी चेतन-अचेतन पिंड या समूह इसकी मारक रेंज से बाहर नहीं है .इस थ्योरी का कब कहाँ प्रतिपादन हुआ मुझे याद नहीं किन्तु इसकी स्वयम सिद्धता पर मुझे कोई संदेह नहीं .भारत के पौराणिक आख्यान तो अनेकों सन्दर्भों के साथ चीख-चीख कर इसकी गवाही दे ही रहे हैं ; अपितु वर्तमान २१ वीं शताब्दी में व्यवहृत अनेकों घटनाएँ भी इसे प्रमाणित करती हुई इतिहास के पन्नों में दर्ज होती जा रहीं हैं .

मार्क्स-एंगेल्स की यह स्थापना कि सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद का जन्म होता है और यह पूंजीवाद ही सामंतशाही को खत्म करता है ..इसे तो सारी दुनिया ने देखा-सुना-जाना है , इसी तरह उनकी यह स्थापना कि पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद का उदय होगा जो पूंजीवाद को खा जायेगा यह अभी कसौटी पर खरे उतरने के लिए बहरहाल तो प्रतीक्षित है किन्तु यह एक दिन अवश्य सच होकर रहेगी. अधुनातन वैज्ञानिक भौतिक-अ नुसंधानों की रफ्तार तेज होने , संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के अति-उन्नत होते जाने, लोकतान्त्रिक,अभिव्यक्ति सम्पन्न उदारवादी पूंजीवाद के लचीलेपन ने उसे दीर्घायु तो बना दिया किन्तु अमरत्व पीकर तो कोई भी नहीं जन्मा. एक दिन आएगा तब ये व्यवस्था भी नहीं रहेगी .तब हो सकता है कि साम्यवादी व्यवस्था का स्वरूप वैसा न हो जो सोवियत संघ में था ,या जो आज चीन -क्यूबा -वियतनाम -उत्तर कोरिया मेà �‚ है .किन्तु वह जो भी होगी इन सबसे बेहतर और सबसे मानवीकृत ही होगी .साम्यवाद से नफरत करने वाले चाहें तो उसे कोई और नाम देकर तसल्ली कर सकते हैं .किन्तु बिना सोचे समझे, बिना जाने-बूझे पूंजीवाद रुपी कुल्हाड़ी का बेत बन जाने से अच्छा था कि अपेक्षित जन- क्रांति को एक अवसर अवश्य देते .

यह सर्वविदित है कि एक बेहतर शोषण-विहीन, वर्ग-विहीन, जाति-विहीन समाज व्यवस्था के हेतु से दुनिया भर के मेहनतकश निरंतर संघर्षरत हैं ,इस संघर्ष को विश्वव्यापी बनाये जाने कि जरुरत है .अभी तो सभी देशों और सभी महाद्वीपों में अलग-अलग संघर्ष और अलग-अलग उदेश्य होने से कोई दुनियावी क्रांति कि संभावना नहीं बन सकी है .इस नकारात्मक अवरोधी स्थिति के लिए जो तत्व जिम्मेदार हैं वे ’सभ्यताओ ं का संघर्ष ’, आर्थिक मंदी ’ ’लोकतंत्र ’के मुखौटे पहनकर दुनिया भर के प्रगतिशील जन-आंदोलनों कि भ्रूणह्त्या करते रहे हैं .जिस तरह कंस मामा ने इस आशंका से कि मेरा बधिक मेरी बहिन कि कोख से जन्म लेगा सो क्यों न उसको जन्मते ही मार दूं ? इसी प्रकार पूंजीवादी वैश्विक-गंठजोड़ बनाम विश्व बैंक ,अमेरिका , आई एम् ऍफ़ ,पेंटागन ,सी आई ए और चर्च की साम्राज्यवादी ताकतों ने कभी अपने पूंजीवाद- रुपी कंस को बचाने के लिए ;कभी चिली ,कभी क्यूबा ,कभी भारत ,कभी बेनेजुएला ,कभी सोवियत संघ ,कभी वियतनाम और कोरिया इत्यादि में जनता की जनवादी-क्रांतियों की जन्मते ही हत्याएं कीं हैं .हालाँकि श्रीकृष्ण रुपी साम्यवादी क्रांति अजर अमर है और पूंजीवाद रुपी कंस को यम लोक जाना ही होगा .

पूंजीवादी साम्राज्यवाद अपने विरुद्ध होने वाले शोषित सर्वहारा के संघर्षों की धार को भौंथरा करने के लिए समाज के कमजोर वर्ग के लोगों में अपनी गहरी पेठ जमाने की हर सम्भव कोशिश करता है .पहले तो वह संवेदनशील वर्गों में आपस का वैमनस्य उत्पन्न करता है ,फिर उन्हें लोकतंत्र के सपने दिखाता है ,जब जनता की सामूहिक एकता तार-तार हो जाती है तो क्रांति की लौ बुझाने के लिए फूंक भी न हीं मारनी पड़ती .पूंजीवाद का सरगना अमेरिका है ;वह पहले सद्दाम को पालता है कि वो ईरान को बर्बाद कर दे ,जब सद्दाम ऐसा करते-करते थक जाए या पूंजीवादी केम्प के इशारों पर नाचने से इनकार कर दे तो कभी रासायनिक हथियारों के नाम पर ,कभी ९//-११ के आतंकी हमले के नाम पर सद्दाम को बंकरों से घसीटकर फाँसी पर लटका दिया जाता है .आदमखोर पूंजीवाद पहले तो अफगानिस्तान में तालिबानों को पालता है ,ताकि तत्कालीन सोवियत सर्वहारा क्रांति को विफल किया जा सके ,यही तालिबान या अल-कुआयदा जब वर्ल्डट्रेड सेंटर ध्वस्त करने लगें तो ’सभ्यताओं के संघर्ष’ के नाम पर लाखों निर्दोष इराकियों ,अफगानों तथा पख्तूनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है . भले ही इस वीभत्स नरसंहार में हजारों अमेरिकी नौजवान भी बेमौत मारे जाते रहेँ. इन पूंजीपतियों कि नजर में इंसान से बढ़कर पूँजी है ,मुनाफा है ,आधिपत्य है ,अभिजातीय दंभ है .

पूंजीवादी साम्राज्यवाद कभी क्यूबा में ,कभी लातीनी अमेरिका में , कभी मध्य-एशिया में और कभी दक्षिण- एशिया में गुर्गे पालता है .हथियारों के जखीरे बेचने के लिए बाकायदा दो पड़ोसियों में हथियारों कि होड़ को बढ़ावा देता है जब दो राष्ट्र आपस में गुथ्म्गुथ्था होने लगें तो शांति के कबूतर उड़ाने के लिए सुरक्षा-परिषद् में भाषण देता है .जो उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाता उसे वो धूल में मिलान े को आतुर रहता है .व्यपारिक ,आर्थिक प्रतिबंधों कि धौंस देता है .

दक्षिण एशिया में भारत को घेरने कि सदैव चालें चलीं जाती रहीं हैं .एन जी ओ के बहाने ,मिशनरीज के बहाने ,हाइड एक्ट के बहाने अलगाववाद ,साम्प्रदायिकता और परमाण्विक संधियों के बहाने भारत के अंदर सामाजिक दुराव फैलाया जाता है . बाहर से पड़ोसियों को ऍफ़ -१६ या अधुनातन हथियार देकर , आर्थिक मदद देकर भारत को घेरने कि कुटिल-चालें अब किसी से छिपी नहीं हैं .

जो कट्टरपंथी आतंकवादी तत्व हैं वे अमेरिकी नाभिनाल से खादपानी अर्थात शक्ति अर्जित करते हैं . अधिकांश बाबा ,गुरु और भगवान् अमेरिका से लेकर यूरोप तक अपना आर्थिक-साम्राज्य बढ़ाते हैं .ये बाबा लोग नैतिकता कि बात करते हैं .देश कि व्यवस्था को कोसते हैं किन्तु पूंजीवाद या सरमायेदारी के खिलाफ ,बड़े जमींदारों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते .कुछ कट्टरपंथी तत्व चाहे वे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक अपने-अपने धरम मजहब को व्यक्तिगत जीवन से खींचकर सार्वजनिक जीवन में या राजनीति में भी जबरन घसीट कर देश कि मेहनतकश जनता में फ़ूट डालने का काम करते हैं .प्रकारांतर से ये पूंजीवाद कि चाकरी करते हैं .पूंजीवाद ही इन तत्वों को खाद पानी देता है इसीलिये आम जनता के सरोकारों को -भूंख ,गरीबी ,महंगाई ,बेरोजगारी ,लूट ,हत्या ,बलात्कार और भयानक भ्रष्टाचार इत्यादि के लिए किये जाने वाले संयुक्त संघष -को वांछित जन -समर्थन नहीं मिल पाता.यही वजह है कि शोषण और अन्याय कि व्यवस्था बदस्तूर जारी है .देश कि आम जनता को ,मजदूर आंदोलनों को चाहिए कि राजनैतिक -आर्थिक मुद्दों के साथ – साथ जहाँ कहीं धार्मिक या जातीय-वैमनस्य पनपता हो ,धर्मान्धता या कट्टरवाद का नग्न प्रदर्शन होता हो ,देश की अस्मिता या अखंडता को खतरा हो ,वहां-वहां ट्रेड यूनियनों को चाहिए कि वर्ग-संघर्ष की चेतना से लैस¸ होकर प्रभावशाली ढंग से मुकबला करें .कौमी एकता तथा धर्म-निरपेक्षता की शिद्दत से रक्षा करें .किसी भी क्रांति के लिए ये बुनियादी मूल्य हैं ,पूंजीवादी-सामंती ताकतें इन मूल्यों को ध्वस्त करने पर तुली हैं और यही मौजूदा दौर की सबसे खतरनाक चुनौती है .इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए मेहनतकश जनता की एकता और उसके सतत संघर्ष द्वारा ही सक्षम हुआ जा सकता है.