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सपा अधिवेशन में दिखी ‘चिंता’ की लकीरें

संजय सक्सेना

मुलायम कब कौन सी चाल चलते हैं, इस बात का अंदाजा किसी को नहीं रहता। समय के अनुसार उनके रहन-सहन, बोलचाल और यहां तक की सोच में भी बदलाव देखा जा है। मुलायम के बारे में कहा जाता है कि वह दोस्तों के दोस्त और दुश्मनों के दुश्मन हैं। अगर वह किसी को गले लगाते हैं तो उसकी खामियां नहीं देखते और अगर दुश्मनी करते है तो फिर उसकी अच्छाई नहीं। मुलायम के यह गुण उनकी राजनीति में भी हमेशा देखने को मिले। लोग भूले नहीं होंगे कि अगस्त 2009 में आगरा के राष्ट्रीय अधिवेशन में मुलायम के बगलगीर हिन्दुत्व के प्रहरी समझे जाने वाले कल्याण सिंह सिंह समाजवादी टोपी पहने बैठे थे और सात समुंदर पर सिंगापुर में अपना इलाज करा रहे अमर सिंह ने सीडी भेज कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। तब मुलायम, कल्याण के सहारे पिछड़ों और मुसलमानों का गठजोड़ बनाकर अपनी स्थिति मजबूत करने का सपना देख रहे थे, वहीं आजम खॉ सपा से बाहर अपने गृह जनपद रामपुर में बैठ कर सपा को नेस्ताबूत कर देने की कसम खा रहे थे।उस समय आजम अपने आप को मुसलमानों का ‘रहनुमा’ और मुलायम को सबसे बड़ा ‘छोखेबाज’ साबित करने में लगे थे। तो आगरा में जुटे सपाई अपने नेता जी के सुर में सुर मिलाते हुए आजम को मौकापरस्त साबित करने की मुहिम छेड़े थे, लेकिन गोरखपुर आते-आते सब कुछ बदल गया। कल्याण फिर दुश्मन नंबर वन बन गए तो आजम वफादारों की जमात में शामिल हो गए।

करीब डेढ़ साल के अंतराल के बाद गोरखपुर में जुटे सपाईयों के बीच नजारा बदल-बदला नजर आया। भले ही गोरखपुर में समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय की जगह राज्य स्तरीय अधिवेशन था, लेकिन सपाइयों और मुलायम में सत्ता के लिए छटपटाहट एक जैसी दिखी। आगरा के राष्ट्रीय अधिवेशन में सपाइयों की नजरें संसद में परचम फहराने की थी तो गोरखपुर के राज्य स्तरीय अधिवेशन में ‘निशाना’ उत्तर प्रदेश की सीएम की कुर्सी थी। आगरा से लेकर गोरखपुर तक नेता जी और उनके चाहने वालों में उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी।हॉ, मंच का स्वरूप जरूर बदल गया था। कल्याण को अपने साथ जोड़ना सबसे बड़ी भूल मान कर मुसलमानों से माफी मांग चुके मुलायम ने गोरखपुर में अपने पुराने राजनैतिक सखा आजम खॉ को अपने बगलगीर कर लिया था। आजम भी चहक-चहक कर मुलायम के कसीदे पढ़ने में लग थे।आगरा के राष्ट्रीय अधिवेशन में जहां मुलायम की राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर पुन: ताजपोशी हुई थी, वहीं गोरखपुर में बेटे अखिलेश सिंह को एक बार फिर प्रदेश की बागडोर सौंपने का एलान किया गया।सपा के महासचिव आजम खॉ ने अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर सौंपने का प्रस्ताव रखा तो राजनीति के गलियारें में कानाफुसी शुरू होने में देर नहीं लगी। गौरतबल हो आजम सपा से दूर रहने के दौरान कई मौकों पर सपा को एक परिवार की पार्टी बता कर निशाने पर लिया करते थे,लेकिन गोरखपुर में अखिलेश का नाम बढ़ाते समय उन्होंने अपने अतीत के बयानों और सोच को तवज्जो देना कोई जरूरी नहीं समझा।अधिवेशन के दौरान कभी आजम की आंखों में आंसू दिखे तो कभी अमर के प्रति नफरत का भाव।

सपा खेमें में अधिवेशन के दूसरे दिन अमर सिंह मामले में नो ‘कर्मेट’ की बात पीछे छूट गई। आजम ने अमर का नाम लिए बिना कई बार उन पर निशाना साधा और बोले सरेआम पतलून उतारना फ्रस्टेशन नहीं तो और क्या है ? उन्होंने अमर सिंह की ‘पूर्वांचल स्वाभिमान पद यात्रा’ को प्रदेश को कमजोर करने की साजिश करार दिया। सम्मेलन से एक दिन पूर्व गोरखपुर में पत्रकारों को संबोधित करते हुए मुलायम ने पूर्वांचल की मांग को सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि बडे राज्य होने से केन्द्र दबाव में रहती है।उन्होंने पूर्वांचल राज्य के गठन से अधिक उसके विकास पर जोर दिया ।मुलायम की ही भाषा अधिवेशन के दूसरे दिन आजम खॉ और प्रो रामगोपाल यादव भी बोलते दिखे।अमर सिंह के बारे में सपा की जो सोच निकल कर आई उसके अनुसार अमर सिर्फ तोड़फोड़ वाले इंसान हैं। पहले अम्बानी परिवार को तोड़ा फिर बच्चन परिवार को। मुलायम के परिवार को भी तोड़ने की कोशिश की।अब यूपी के जरिए देश तोड़ने की साजिश कर रहे हैं। सम्मेलन में कई राजनैतिक और आर्थिक प्रस्ताव पास किए गए।इसके साथ ही तय किया गया कि केन्द्र की कांग्रेस और प्रदेश की बसपा सरकार के ‘गुनाह’ होगें सपा के मारक अस्त्र।मायावती सरकार का भ्रष्टाचार, बढ़ते अपराध,पत्थरों-स्मारकों पर सरकारी खजाना लुटाया जाना आदि सपा के मुख्य मुद्दे होगें। किसानों की बदहाली,खाद-बीज संकट,पानी बिजली और सिंचाई की सुविधाओं का अभाव जैसे मुद्दों के जरिए गांवों में सरकार के खिलाफ माहौल तैयार किया जाएगा। सपा नेताओं के उत्पीड़न और बसपाइयों की गुंडागर्दी के खिलाफ भी जनता को जागरूक किया जाएगा। वहीं कांग्रेस के प्रदेश में पैर पसारने के मंसूबों पर लगाम लगाने के लिए मंहगाई को तो धारदार हथियार बनाएगी ही इसके अलावा ‘ टू जी स्पेक्ट्रम’ और ‘कॉमनवेल्थ गेम्स’ जैसे महाघोटालों को भी हाईलाइट किया जाएगा।सीमाओं पर बढ़ता खतरा, आतंकवाद और नक्सली हिंसा रोकने में असफलता को भी सपा अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करेगी। मुसलमानों और पिछड़ों को आरक्षण का शिगूफा भी एक बार फिर सपा के मंच से छोड़ा गया।

कहते हैं कि राजनीति के भी खेल निराले होते हैं।आगरा अधिवेशन में स्वास्थ्य कारणों से अमर ने हिस्सा नहीं लिया था, लेकिन तब अधिवेशन स्थल और उसके आस-पास लगे उनके बड़े-बड़े कटआउट के साथ उनके सीडी के माध्यम से सिंगापुर से भेजे गए संदेश ने अमर की कमी महसूस नहीं होने दी थीं।लेकिन आगरा में मुलायम की ‘नाक के बाल’ बने अमर का गोरखपुर अधिवेशन में कोई नाम लेने वाला भी मौजूद नहीं था। शाायद इस बात की कसक अमर सिंह को भी रही होगी, नहीं तो वह उसी दिन,उसी समय जब समाजवादी पार्टी का तीन दिवसीय अधिवेशन चल रहा था, ‘पूर्वांचल स्वाभिमान पद यात्रा’ के बहाने अपनी ताकत दिखाने की जुगत नहीं करते। समाचार पत्रों में पूरे पृष्ठ के विज्ञापन में अमर अपनी तस्वीर छपवा कर अमर शायद अपने ‘मुंहबोले बड़े भाई’ मुलायम को यह जताना चाहते थे कि भले ही वह उनके साथ न हो लेकिन ‘अमर’ को लाइमलाइट में रहने का अमृत्व प्राप्त है। इसे इतिफाक नहीं कहा जा सकता है कि मुलायम और सपाइयों की मौजूदगी में अमर ने कभी गोरखपुर की ही तहसील रहे महाराजगंज(अब जिला) से पदयात्रा निकालने की घोषणा की। एक तरफ अधिवेशन में सपा अमर की स्वाभिमान पद यात्रा का विरोध कर रही थी तो दूसरी तरफ अमर सिंह ने मुलायम को चुनौती देते हुए यहां तक कह दिया कि वे मुलायम को पूर्वांचल का हमदर्द तभी मानेगें, जब सैफई जैसा स्टेडियम यहां भी बनेगा। कल्याण सिंह को सपा के साथ जोड़ने के आरोपों से आहज अमर ने कहा कि 2012 के चुनाव से ठीक पहले मुलायम द्वारा कल्याण को सपा की लाल टोपी पहनाने सहित कुछ अन्य आरोपों का विजुअल जनता के सामने लाएंगे।

बहरहाल, समाजवादी पार्टी के गोरखपुर से शुरू हुए तीन दिनके राज्य सम्मेलन में मुलायम के चेहरे पर पार्टी के जुझारू तेवर में कमी का दर्द साफ उभरा। उनके चेहरे पर संघर्ष की चिंता झलकी। अपनों की बेवफाई को लेकर बेचैनी को मुलायम छिपा नहीं पाए। मुलायम सिंह यादव ने अपने लंबे उद्धाटन भाषण में केंद्र की कांग्रेस और सूबे की बसपा सरकार दोनों को ही निशाने पर रखा।2012 के विधानसभा चुनाव के पहले होने वाले इस सम्मेलन के जरिए सपा नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं ने ऊर्जा का संचार करने की भरसक कोशिश की।दागियों को टिकट नहीं दिए जाने का भी अधिवेशन में संकल्प लिया गया। बसपा छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले नेताओं ने समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को नई उर्जा प्रदान करने का काम किया। पडरौना के पूर्व सांसद बालेश्वर यादव तथा वहीं से तीन बार लोकसभा का चुनाव लड़ चुके बसपा नेता बी एन सिंह,बसपा नेता और सांसद बृजेश पाठक के भाई राजेश पाठक ने भी सपा का दामन थाम लिया।

अधिवेशन में मुलायम ने कांग्रेस को कटघरे में किया तो माया सरकार पर भी निशाना साधा। उन्होंने कांग्रेस और माया के बीच कुछ सांठगांठ की बात भी हवा में उछाल दी। मुलायम को इस बात का मलाल था कि क्यों कांग्रेस ने सपा से दूरी बना रखी है। मुलायम का यह कथन कि ‘हम तो केंद्र की सरकार चलवा भी रहे हैं फिर भी पता नहीं सपा से क्या चिढ़ है।’ उनके दर्द को उजागर कर रहा था। सीमा की सरुक्षा को लेकर केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने के साथ उन्होंने कहा कि हम लोग सामूहिक रूप से प्रधानमंत्री से मिलकर उन्हें ताकत और हिम्मत देंगे, ताकि वह सीमा पर बुरी नजर रखने वालों को मजबूती से ललकार सकें। मंहगाई के मुद्दे पर केंद्र से ज्यादा उन्होंने कृषि मंत्री शरद पवार को निशाने पर लिया ।

मायावती को खरी खरी: प्रदेश में खुद को सत्ता का विकल्प साबित करने में मुलायम कोई कोर कसर बाकी नहीं रखीं।शायद वह समझ रहे थें कि सत्ता पर उनका हमला जितना तेज होगा, कार्यकर्ताओं में जोश उतना ही हिलोरे लेगा।उन्होंने मायावती को सीधे निशाने पर लेते हुए कहा कि हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा मामलदार नेता उप्र की मुख्यमंत्री हैं। बसपा अध्यक्ष के प्रति केंद्र सरकार के नरम रवैए से भी मुलायम आहत दिखे। उन्होंने कहा कि बसपा प्रमुख के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति जैसा गंभीर मामला बन रहा है, पर पता नहीं, क्यों दिल्ली की सरकार सीबीआई को मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दे रही।उन्होंने माया पर अन्य कई घोटालो में भी शामिल होने का अरोप लगायां। मुलामय का कहना था कि सीबीआई ने माया के खिलाफ आय से अधिक सम्पति सहित अन्य कई मामलों में काफी प्रमाण भी जुटा रखे हैं, लेकिन ककेंद्र का मकसद है कि किसी तरह खुद की सरकार बची रहे भले ही आम जनता लुटती रहे।

विकास के नाम पर भुखमरी भुगतते लोग

-राखी रघुवंशी

बिसाली गांव के पूनमसिंह ने जीवन जीने के लिए कड़ा संघर्ष किया। बचपन से ही मजदूरी की, बंधुआ मजदूर रहा और अभावों में पला। किन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी और कठोर परिश्रम, सूझबूझ तथा पाई-पाई की बचत से गांव के आटा चक्की लगाई। जिससे वह हर रोज 50-60 रूपए कमा लेता। इस तरह 4 बच्चों सहित 6 सदस्यों वाले इस परिवार की आसानी से गुजर-बसर होने लगी। पूनमसिंह ने यह तरक्की आज से तीन साल पहले बगैर किसी सरकारी सहायता के हासिल की थी।

बिसाली गांव मध्यप्रदेष के देवास जिले के उदयनगर आदिवासी क्षेत्र का एक गांव है, और पूनमसिंह खुद एक भूमिहीन आदिवासी है। सरकार द्वारा आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए पिछले साल यहां कई विकास योजनाएं शुरू की गई, जिसके तहत कई लोगों को क्रास ब्रीडिंग व जर्सी नस्ल की गायें कर्ज के रूप में दी गई। पूनमसिंह बताते हैं कि ”दुग्ध संघ, बैंक और सरकारी अधिकारी गांव आए और उन्होंने मुझे भी गाय पालने के लिए कहा। मैने इसके लिए इंकार कर दिया। किन्तु उन्होंने जोर देकर कहा कि ये गायें खूब दूध देगी, जिससे ज्यादा आमदनी होगी। उनकी बातों से प्रभावित होकर मैंने दो गायें ले ली, जिनकी कीमत 28000 रूपये है। शुरू के एक-दो महीने तो इन गायों ने 10-12 लीटर दूध हर रोज दिया, किन्तु बाद में दूध की मात्रा कम होकर हर रोज 5-6 लीटर ही रह गई। इनका दूध पतला होने से डेयरी वालों ने 6 रूपए लीटर के भाव से खरीदा। जबकि इन गायों के आहार में 60-70 रूपए हर रोज खर्च होने लगे। जब पैसे कम पड़ने लगे तो मै चक्की की आमदनी से गायों का पेट भरने लगा, जिससे बिजली का बिल नहीं भर पाया और बिजली विभाग वालों ने बिजली काट दी।” इस तरह कड़ी मेहनत और बचत से शुरू की गई आटा चक्की बंद हो गई। बिजली बिल का ज्यादा पैसा बकाया होने के कारण कुछ दिनों बाद बिजली विभाग वालों ने चक्की की विद्युत मोटर भी जब्त कर ली। अब न तो चक्की चल रही है और न ही गायें दूध दे पा रही है। कमाई का कोई और साधन न होने से उसकी आर्थिक दषा बहुत खराब हो चुकी है। अपनी मेहनत से आत्मनिर्भर होने वाले पूनमसिंह की हालत यह है कि उसके पास परिवार के छह लोगों का पेट भरने के लिए अनाज तक नहीं है। जबकि बैंक से 6000 रूपए की वसूली के नोटिस आ चुके हैं, जो गायों के कर्ज की पहली किष्त है।

इस क्षेत्र में पूनमसिंह की तरह और भी कई लोग हैं, जिनके हित में लागू योजना ने उन्हें ही संकट में डाल दिया है। यहां सरकारी विकास योजना की सारी कवायतें आदिवासी असंतोष के चलते शुरू हुई, जो कई सालों पहले ”आदिवासी मोर्चा” के नाम से शुरू हुआ था, जिसकी परिणति ”मेंहदीखेड़ा गोलीकांड” के रूप में सामने आई थी। उल्लेखनीय है कि पष्चिम निमाड़ के खरगोन जिले की सीमा पर स्थित देवास जिले के इस क्षेत्र मे ंज्यादातर भिलाला और बारेला समुदाय के आदिवासी बसर करते हैं, जो अपनी थोड़ी सी खेती और कभी-कभार मिलने वाली मजदूरी के जरिए भरण-पोषण करते हैं। यह क्षेत्र मध्यप्रदेष के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में गिना जाता है, जहां पानी से लेकर स्वास्थ और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। साहूकारी ऋण्ा पर लोगों की निर्भरता इस हद तक रही है कि तीन से दस रूपए सैकड़ा प्रतिमाह, यानी 36 से 120 प्रतिषत वार्षिक ब्याज दर पर रूपए उधार लेने पड़ते हैं। इसके अलावा जंगल एवं अन्य विभागों से जुड़े कर्मचारियों के रवैये से भी लोग असंतुष्ट रहे हैं। इस सबके चलते करीब पांच साल पहले यहां के लोग ”आदिवासी मोर्चा” के नाम से इकठ्ठे हुए। लोगों को इस संगठन की प्रेरणा समीपस्त खरगोन और सेंधवा में चल रहे आदिवासी आंदोलनों से मिली। अपने शुरूआती दौर में मोर्चा ने शराब, साहूकारी ऋण तथा सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। किन्तु धीरे-धीरे आदिवासी मोर्चा का यह आंदोलन वन विभाग के साथ तनाव में बदलने लगा। मोर्चा के लोगों ने वन विभाग के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार एवं उत्तरदायित्वहीन रवैये को उजागर करने का प्रयास किया, वहीं वन विभाग ने आदिवासियों पर जंगल कटाई के आरोप लगाए। इसी के चलते सितम्बर 1999 में कटुकिया नामक गांव में वनकर्मियों द्वारा एक आदिवासी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। क्षेत्र में आदिवासी आक्रोष को बढ़ाने में इस घटना का खास योगदान रहा। किन्तु वर्ष 2001 में यहीं के एक गांव ”मेंहदीखेड़ा” में हुई पुलिस गोलीकांड की घटना ने पूरे क्षेत्र को हिला कर रख दिया, जिसमें 4 आदिवासियों की मृत्यु हो गई थी। इस घटना के बाद ”आदिवासी मोर्चा” लगभग निष्क्रिय हो गया।

मेंहदीखेड़ा गोलीकांड के बाद शासन ने आदिवासियों के विकास के कई प्रयास किए, जिसका एक उदाहरण स्वरोजगार के लिए कर्ज के रूप में गायें दिया जाना है। सरकार द्वारा स्वर्ण जयंति स्वरोजगार योजना के तहत उन्हें 28 से 30 हजार रूपये मूल्य की क्रास ब्रीडिंग एवं जर्सी नस्ल की गायें फरवरी 2002 में दी गई। कुल 6 लाख रूपए मूल्य की 40 गायें महाराष्ट्र के दोंडाईचा (जिला धुले) से खरीद कर क्षेत्र के छह गांवों मेंहदीखेड़ा, बिसाली, जमासी, नरसिंगपुरा, सीतापुरी एवं खूंटखाल के 22 आदिवासी परिवारों को दी गई। इन गायों की खास बात यह है कि ये जंगल में नहीं चरती, बल्कि एक ही जगह पर रहती है और इन्हें खाने के लिए अनाज व खली जैसे मंहगे आहार की जरूरत होती है। अत: इनके पालन-पोषण की अनुकूल परिस्थितियां न होने तथा आहार का खर्च न उठा पाने के कारण यह योजना अपेक्षित लाभ नहीं दे पाई, बल्कि नुकसानदायक ही साबित हुई है।

ग्राम नरसिंगपुरा के फूलसिंह बताते हैं कि ”हमने पहले ही बता दिया था कि हमें गाय पालना नहीं आता, किन्तु अधिकारियों ने कहा कि गाय पालना आसान है, जल्दी ही सीख जाओगे और खूब आमदनी होगी।” शासन द्वारा इसके लिए प्रयास भी किए गए। गाय पालन सिखाने के लिए क्षेत्र के आदिवासियों को बलसाड़ा (गुजरात) ले गए। किन्तु धरातल पर इसका कोई लाभ देखने को नहीं मिला। क्योंकि वहां की परिस्थिति और यहां के हालात में बहुत फर्क है। लोग बताते हैं कि ”डेयरी द्वारा कम भाव में दूध खरीदने के कारण यह योजना सफल नहीं हो पाई। क्योंकि ज्यादा दूध के लिए गायों को ज्यादा आहार देना पड़ता है, जबकि डेयरी द्वारा फैट रेट के आधार पर दूध खरीदा जाता, जो बहुत ही कम है। इन गायों के दूध का फैट कम होने के कारण साढ़े पांच से साढ़े छह रूपये प्रति लीटर का भाव ही मिल पाता है। अत: कम आमदनी के चलते ज्यादा और उचित आहार खरीदकर गायों को खिला पाना संभव नही रहा और गायें कमजोर हो गई तथा दूध भी कम हो गया।” पूनमसिंह ने एक साल में दो गायों के आहार पर 22 हजार रूपये खर्च किए, जबकि उन्हें दूध बेचकर कुल साढ़े सौलह हजार रूपये ही मिले। बिसाली गांव के ही मोहन भिलाला बताते हैं कि उन्होंने गायों के आहार मे करीब 18 हजार रूपए खर्च किए जबकि कुल 24 हजार रूपए प्राप्त हुए, यानी एक साल में 6000 रूपयों की बचत हुई। इतनी कम आमदनी से घर चलाना ही मुष्किल है तो बैंक की किष्त कैसे चुकाएं।” अब गायों ने दूध देना बंद कर दिया है और लोगों के पास बैंक की किष्त वसूली के नोटिस पहुंच रहे हैं। इसी गांव के भूमिहीन आदिवासी रामचन्द्र भिलाला कहते हैं कि ”इन गायों से हमें बहुत नुकसान हुआ है। गायों की देखभाल करने के लिए मजदूरी पर जाना छोड़ दिया और गायों से भी इतनी आमदनी नहीं हो पाई कि परिवार का पेट भर सके।” वे बताते हैं कि ”यदि दूध ज्यादा दाम पर खरीदा जाता तो कुछ लाभ हो सकता था।” दूध का भाव बढाने के लिए वे खुद देवास कलेक्टर से मिलने गए थे। कलेक्टर ने उनकी बात ध्यान से सुनी और आष्वासन भी दिया, किन्तु दूध के भाव में कोई बढ़ोतरी नहीं हो पाई। ग्राम मेंहदीखेड़ा की रीछाबाई बताती है कि ”ये गायें अब हर रोज 3-4 लीटर से ज्यादा दूध नहीं देती और दूध के भाव भी कम मिलते है। इस हालत में हम बैंक का कर्ज नहीं चुका सकते।”

जैसा कि स्पष्ट है, कोई भी आदिवासी बैंक का कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं है। उनके पास ऐसी कोई पूंजी भी नहीं है, जिससे वे कर्ज चुका सके या बैंक वाले कर्ज वसूल सके। इस दषा में आदिवासियों को दूरगामी नुकसान उठाना पड़ेगा। कर्ज न चुका पाने के कारण बैंक द्वारा उन्हें ”डिफाल्टर” घोषित कर दिया जाएगा। जिससे कोई भी बैंक उन्हें या उनके परिवार को भविष्य में किसी तरह का ऋण नहीं देगा। इस तरह इस योजना से ये लोग बैंकिंग ऋण की सुविधा से हमेषा के लिए वंचित हो जाएंगे।

लोग बताते हैं कि पहले हर रोज दुग्ध संघ की गाड़ी यहां आकर दूध ले जाती थी और दुग्ध संघ वाले ही 500 रूपए प्रति क्विंटल के भाव से पषु आहार उपलब्ध करवाते थे। किन्तु इस साल जनवरी के बाद यहां दूध बहुत कम हो गया, जिससे गाड़ी आना बंद हो गई।” बिसाली, मेंहदीखेड़ा, और नरसिंगपुरा गांव के कई लोगों ने बताया कि ”हम गाय के बजाय बकरियां पालना चाहते थे। उन्होंने बैंक के अधिकारियों को भी बकरियों के लिए कर्ज देने को कहा था। किन्तु उन्होंने इसके लिए मना कर दिया। उनका कहना था कि बकरियां जंगल में चरेगी, जिससे जंगल खत्म हो जाएगा। जबकि ये गायें जंगल के लिए नुकसानदायक नही है।” अत: बकरी पालने के लिए प्रोत्साहित न करते हुए ऐसी गायें दी गई, जिसका उन्हें कोई अनुभव नहीं था। जबकि लोगों का मानना था कि उन्हें बकरी पालन का अनुभव है तथा इस क्षेत्र के उसके लिए अच्छा बाजार है।

उचित पालन-पोषण और पर्याप्त आहार के अभाव में इन दिनों कई गायें बेहद कमजोर हो चुकी है, जिससे उनका दूध कम हो गया है। साथ ही कमजोर गायों का गर्भाधान भी नहीं हो पा रहा है, और जिनका गर्भाधान हुआ भी है उन गायों के बछड़े एक-दो माह में ही मर गए। इसके अलावा गायों के मरने की तादाद भी बढ़ रही है। ग्राम जमासी में 16 गायों में से 8 गायें मर चुकी है। इस गांव की सुकमाबाई बताती है कि ”मेरी दोनों गाये मर गई है, हमारे पास उन्हें खिलाने को कुछ नहीं था।” ग्राम सीतापुरी में 4 में से 3 गाये मर गई। इसप्रकार पूरे क्षेत्र में 40 गायों में से 16 गायें मर चुकी है, जो एक बड़ी संख्या। स्पष्ट है कि लोगों के पास खुद के खाने को अनाज नहीं है, इस दषा में वे गायों का पेट कैसे भरे? लोग बताते हैं कि ”गायों को भूखा मरते देखकर हमें बहुत दुख होता है। बैंक वाले आकर इन गायों को जब्त कर लें तो अच्छा है, कम से कम हमे इनसे मुक्ति मिलेगी।”

उदयनगर क्षेत्र की इस घटना के संदर्भ में सरकारी विकास योजनाओं की रीति-नीति पर विचार करने की जरूरत महसूस होती है। पंचायत राज और स्थानीय स्वषासन के सिध्दान्तों के अनुसार हर विकास योजना में जनभागीदारी जरूरी मानी गई है। किन्तु उक्त स्वरोजगार योजना में कितनी जन भागीदारी हुई, यह उसका हश्र देखकर आंकी जा सकती है। जर्सी नस्ल या क्रास ब्रीडिंग गाये इस क्षेत्र में किस तरह रह पाएगी? लोग उसकी देखभाल कर पायेंगे या नहीं? लोग अपने लिए क्या बेहतर समझते है? इन सब सवालों पर उन लोगों के साथ बैठकर विचार करना जरूरी था, जिनके लिए योजना बनाई गई।

जिंदगी बन गए हो तुम !

रेडिएशन के खतरों के बावजूद मोबाइल पर बरस रहा है लोगों का प्यार

संजय द्विवेदी

यह दौर दरअसल मोबाइल क्रांति का समय है। इसने सूचनाओं और संवेदनाओं दोनों को कानों-कान कर दिया है। अब इसके चलते हमारे कान, मुंह, उंगलियां और दिल सब निशाने पर हैं। मुश्किलें इतनी बतायी जा रही हैं कि मोबाइल डराने लगे हैं। कई का अनुभव है कि मोबाइल बंद होते हैं तो सूकून देते हैं पर क्या हम उन्हें छोड़ पाएगें? मोबाइल फोनों ने किस तरह जिंदगी में जगह बनाई है, वह देखना एक अद्भुत अनुभव है। कैसे कोई चीज जिंदगी की जरूरत बन जाती है- वह मोबाइल के बढ़ते प्रयोगों को देखकर लगता है। वह हमारे होने-जीने में सहायक बन गया है। पुराने लोग बता सकते हैं कि मोबाइल के बिना जिंदगी कैसी रही होगी। आज यही मोबाइल खतरेजान हो गया है। पर क्या मोबाइल के बिना जिंदगी संभव है ? जाहिर है जो इसके इस्तेमाल के आदी हो गए हैं, उनके लिए यह एक बड़ा फैसला होगा। मोबाइल ने एक पूरी पीढ़ी की आदतों उसके जिंदगी के तरीके को प्रभावित किया है।

विकिरण के खतरों के बाद भीः

सरकार की उच्चस्तरीय कमेटी ने जो रिपोर्ट सौंपी है वह बताती है कि मोबाइल कितने बड़े खतरे में बदल गया है। वह किस तरह अपने विकिरण से लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल रहा है। रेडियेशन के प्रभावों के चलते आदमी की जिंदगी में कई तरह की बीमारियां घर बना रही हैं, वह इससे जूझने के लिए विवश है। इस समिति ने यह भी सुझाव दिया है कि रेडियेशन संबंधी नियमों भारतीय जरूरतों के मुताबिक नियमों में बदलाव की जरूरत है। जाहिर तौर पर यह एक ऐसा विषय पर जिस पर व्यापक विमर्श जरूरी है। मोबाइल के प्रयोगों को रोका तो नहीं जा सकता हां ,कम जरूर किया जा किया जा सकता है। इसके लिए ऐसी तकनीकों का उपयोग हो जो कारगर हों और रेडियेशन के खतरों को कम करती हों। आज शहरों ही नहीं गांव-गांव तक मोबाइल के फोन हैं और खतरे की घंटी बजा रहे हैं। लोगों की जिंदगी में इसकी एक अनिर्वाय जगह बन चुकी है। इसके चलते लैंडलाइन फोन का उपयोग कम होता जा रहा है और उनकी जगह मोबाइल फोन ले रहे हैं।

फैशन और जरूरतः

ये फोन आज जरूरत हैं और फैशन भी। नयी पीढ़ी तो अपना सारा संवाद इसी पर कर रही है, उसके होने- जीने और अपनी कहने-सुनने का यही माध्यम है। इसके अलावा नए मोबाइल फोन अनेक सुविधाओं से लैस हैं। वे एक अलग तरह से काम कर रहे हैं और नई पीढी को आकर्षित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। ऐसे में सूचना और संवाद की यह नयी दुनिया मोबाइल फोन ही रच रहे हैं। आज वे संवाद के सबसे सुलभ, सस्ते और उपयोगी साधन साबित हो चुके हैं। मोबाइल फोन जहां खुद में रेडियो, टीवी और सोशल साइट्स के साथ हैं वहीं वे तमाम गेम्स भी साथ रखते हैं। वे दरअसल आपके एकांत के साथी बन चुके हैं। वे एक ऐसा हमसफर बन रहे हैं जो आपके एकांत को भर रहे हैं चुपचाप। मोबाइल एक सामाजिकता भी है और मनोविज्ञान भी। वह बताता है कि आप इस भीड़ में अकेले नहीं हैं। वह बेसिक फोन से बहुत आगे निकल चुका है। वह परंपरा के साथ नहीं है, वह एक उत्तरआधुनिक संवाद का यंत्र है। उसके अपने बुरे और अच्छेपन के बावजूद वह हमें बांधता है और बताता है कि इसके बिना जिंदगी कितनी बेमानी हो जाएगी।

नित नए अवतारः

मोबाइल नित नए अवतार ले रहा है। वह खुद को निरंतर अपडेट कर रहा है। वह आज एक डिजीटल डायरी, कंप्यूटर है, लैपटाप है, कलकुलेटर है, वह घड़ी भी है और अलार्म भी और भी न जाने क्या- क्या। उसने आपको, एक यंत्र में अनेक यंत्रों से लैस कर दिया है। वह एक अपने आप में एक पूरी दुनिया है जिसके होने के बाद आप शायद कुछ और न चाहें। इस मोबाइल ने एक पूरी की पूरी जीवन शैली और भाषा भी विकसित की है। उसने मैसजिंग के टेक्ट्स्ट को एक नए पाठ में बदल दिया है। यह आपको फेसबुक से जोड़ता और ट्विटर से भी। संवाद ऐसा कि एक पंक्ति का विचार यहां हाहाकार में बदल सकता है। उसने विचारों को कुछ शब्दों और पंक्तियों में बाँधने का अभ्यास दिया है। नए दोस्त दिए हैं और विचारों को नए तरीके से देखने का अभ्यास दिया है। उसने मोबाइल मैसेज को एक नए पाठ में बदल दिया है। वे संदेश अब सुबह, दोपहर शाम कभी आकर खड़े हो जाते हैं और आपसे कुछ कहकर जाते हैं। इस पर प्यार से लेकर व्यापार सब पल रहा है। ऐसे में इस मोबाइल के प्रयोगों से छुटकारा तो नामुमकिन है और इसका विकल्प यही है कि हम ऐसी तकनीको से बने फोन अपनाएं जिनमें रेडियेशन का खतरा कम हो। हालांकि इससे मोबाइल कंपनियों को एक नया बाजार मिलेगा और अंततः लोग अपना फोन बदलने के लिए मजबूर होंगें। किंतु खतरा बड़ा है इसके लिए हमें समाधान और बचत के रास्ते तो तलाशने ही होंगें। क्योंकि मोबाइल के बिना अब जिंदगी बहुत सूनी हो जाएगी। इसलिए मोबाइल से जुड़े खतरों को कम करने के लिए हमें राहें तलाशनी होगीं। क्योंकि चेतावनियों को न सुनना खतरे को और बढ़ाएगा।

तीन साल के बच्चे शिव की गर्दन काट हत्‍या और विनायक सेन की उम्रकैद

समन्वय नंद

ओडिशा- झारखंड सीमा पर माओवादियों ने एक महिला होमगार्ड कांदरी लोहार की गोली मार कर हत्या कर दी है। जनजातीय वर्ग की महिला कांदरी पहले माओवादी संगठन में रह चुकी थी। उसने वहां हथियारों का प्रशिक्षण भी लिया था। लेकिन 2004 में उसने प्रशासन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। आत्मसमर्पण करते समय उसने जो कारण बताये थे उसका यहां उल्लेख आवश्यक है। उसने कहा था कि माओवादी संगठन में महिलाओं का शोषण किया जाता है। यही कारण है कि वह माओवादियों से त्रस्त हो कर आत्मसमर्पण कर अपना जीवन नये सिरे से शुरु करना चाहती है। उसके आत्मसमर्पण के बाद उसे होमगार्ड की नौकरी प्रदान की गई और इंदिरा आवास योजना के तहत आवास उपलब्ध करवाया गया था। प्रशासन ने उसका विवाह करवाय़ा था। यह विवाह मीडिया की उपस्थिति में हुआ था। उस समय यह घटना काफी चर्चा में थी। यह 2004 की बात है।

2011 के 11 फरवरी को कांदरी की माओवादियों ने गोली मार कर हत्या कर दी। केवल उसकी ही हत्या नहीं की बल्कि उसके 3 साल के बच्चे शिव की भी माओवादियों ने हत्या की। दोनों का शब महिपाणी गांव के निकट मिला। माता कांदरी को तो माओवादियों ने गोली मार कर हत्या की लेकिन उसके बच्चे को इतनी आसान मौत माओवादी कैसे दे सकते थे। इसलिए उन्होंने मासूम बच्चे को गला रेत कर हत्या की। वैसे कांदरी जब माओवादी संगठन छोड कर समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गई थी तभी से वह उनके शत्रु बन चुकी थी । इसलिए उसकी हत्या की गई हो। इस तीन साल का बच्चा किस वर्ग में आता है। क्या माओवादियों ने उसका वर्गीकरण किया था। माओवाद को वैचारिक आंदोलन बता कर निहत्थे लोगों को मौत के घाट उतारने बालों के तर्क के अनुसार क्रांति के लिए वर्गशत्रुओं की शिनाख्त व उनका खात्मा जरुरी है। तभी क्रांति हो सकती है। इस क्रांति के लिए वे लगे हुए हैं। तो फिर उनकी दृष्टि में तीन साल का बच्चा शत्रु की सूची में आता है। तभी तो उन्होंने इस बच्चे की इतनी बेरहमी से गला काट कर हत्या की।

कांदरी होमगार्ड के रुप में काम करती थी। रिकार्ड के लिए यहां लिखा जाना जरुरी है कि होमगार्ड के पास किसी भी प्रकार का हथियार नहीं होता है। कई बार तो उनके पास लाठी भी नहीं होती है। उनका मानदेय इतना कम होता है कि उनकी आजीविका काफी कठिनाई से चलती है। लेकिन सर्वहारा की लडाई का दावा करने वाले माओवादियों की दृष्टि में कांदरी तो वर्ग शत्रु थी ही, साथ ही उसका मासूम बच्चा शिव भी वर्ग शत्रु था। बच्चा अधिक खतरनाक था, शायद इसलिए उसकी गला रेत कर हत्या करना माओवादियों ने उचित समझा। इस बच्चे को माओवादी इतना खतरनाक क्यों मानते थे इसका बेहतर जवाब गणपति या किशनजी दे सकते है। कुल मिलाकर इस घटना ने मानवता को शर्मसार कर दिया है। इस घटना ने माओवादियों के असली चेहरे को बेनकाब कर दिया है। इस घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि माओवादी किसी भी तरह का वैचारिक आंदोलन नहीं चला रहे हैं बल्कि एक ऐसा गिरोह चला रहा हैं जो पैसे वसूलता है, आतंक के बल पर एक इलाके में अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहते है।

तीन साल के बच्चे शिव के बाद अब बात करें विनायक सेन की। छत्तीसगढ में रहते हैं। माओवादियों के हर कुकृत्य का समर्थन करते हैं। उन्हें हर प्रकार का सहयोग करते हैं। माओवादियों के लिए बौद्धिक, कानूनी व अन्य सभी प्रकार के सहयोग उपलब्ध करवाते हैं। कोई बडा नक्सली नेता गिरफ्तार होता है तो उसे छुडाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाते हैं। फिर भी जमानत नहीं मिली तो जेल में जा कर उससे मिलते हैं। प्रतिदिन मिलते हैं। महीने में 30 बार मिलते हैं। भूमिगत माओवादियों का पत्र जेल में माओवादी नेता को पहुंचाते हैं। उनका संदेशवाहक का काम करते हैं। लेकिन अभी हाल ही में छत्तीसगढ के एक अदालत ने इस तथाकथित सिविल राइट्स एक्टिविस्ट विनायक सेन को माओवादियों को सहयोग करने का दोषी पाया था। इस आधार पर विनायक को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। विनायक के खिलाफ प्रमाण इतना पुख्ता है कि उच्च न्यायालय ने भी उनकी जमानत की याचिका खारिज कर दी है। वर्तमान में विनायक सेन के पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे वह एक मसीहा हों। महात्मा गांधी के साथ उनके चित्र छाप कर बितरित किये जा रहे हैं। हिंसा का खुले आम समर्थन करने वाला और दरिंदगी की सभी सीमाओं को लांघने वाले माओवादियों को हर प्रकार का सहायता प्रदान करने वाला व्यक्ति को अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के साथ तुलना की जा रही है। इससे बडा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है। विनायक के पक्ष में चलाया जा रहा अभियान सामान्य अभियान नहीं है। इसे काफी बडे पैमाने पर चलाया जा रहा है। दुर्भाग्य इस बात का है कि माओवाद प्रभावित इलाके विशेष कर छत्तीसगढ के अलावा विनायक सेन को कोई ठीक से नहीं जानता है। यही कारण है कि छत्तीसगढ के बाहर पूरे देश में विनायक की छवि एक मसीहा की बनायी जा रही है। लेकिन छत्तीसगढ के लोग विनायक सेन को ठीक से जानते हैं। यह वही व्यक्ति है कि जो बस्तर के गरीब जनजातीय लोगों की माओवादियों द्वारा हत्या का समर्थन में बौद्धिक जुगाली करता है। जो लोग विनायक सेन के समर्थन में उतरे हैं और विभिन्न स्थानों पर नुक्कड सभाएं कर रहे है उनका नक्सल प्रभावित इलाकों से कोई लेना देना नहीं है। वे दिल्ली व मुंबई के वातानुकूलित कमरों में बैठ कर माओवादियों के पक्ष में तर्क गढते हैं। विनायक सेन के पक्ष में प्रकाश करात, सीताराम येचुरी से लेकर तीस्ता सितलवाड तक हैं। विनायक के समर्थन में उतरने वालों की एक लंबी सूची है । अब तो कई नोबल पुरस्कार विजेताओं ने भी विनायक के पक्ष में पत्र लिखना प्रारंभ कर दिया है।

लेकिन तीन साल का बच्चा शिव के पक्ष में कोई नहीं है। शिव के समर्थन में व उसके हत्यारों के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर देश में कहीं प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं। भुवनेश्वर के मास्टर कैंटिन में भी नहीं और नई दिल्ली के जंतर मंतर पर भी नहीं। कोई बुद्धिजीबी उसके पक्ष में पत्र नहीं लिख रहा है। कहीं कोई गोष्ठी आयोजित नहीं हो रही है।

यह कोई अकेला शिव की कहानी नहीं हैं। ढूढने निकलेंगे तो ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ, आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र समेत सरंडा, दंडकारण्य व अन्य जनजातीय इलाकों में ऐसे अनेक शिव हमें मिलेंगे। इन शिवों को मार्कसवाद की शब्दाबली का भी ज्ञान नहीं होता है। इन बेचारों को तो यह भी नहीं पता कि उनकी हत्या क्यों की जा रही है। शिव व अन्य गरीब जनजातीय लोगों के इस पुकार को सुनने के लिए कोई नहीं है लेकिन विनायकों के लिए पूरी फौज तैयार है। केवल देश से ही बल्कि विदेशों से भी।

अब प्रश्न आता है क्या शिब के पक्ष में विनायक सेन खडे होंगे और अपनी आवाज उठायेंगे। या फिर विनायक सेन को कंधे पर उठा कर अपनी रोटियां सैंकने वाले तथाकथित मानवाधिकारवादी इस तीन साल के बच्चे के जिंदा रहने के अधिकार को समाप्त किये जाने पर भी कोई अभियान चलाएंगे।

कितने बलिदानों के बाद, चेतेगी भारत सरकार ?

विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाइस मार्शल)

हम बड़े गर्व से कहते हैं कि हैं कि हम हरित क्रांति तथा दुग्ध क्रांति के युग में जी रहे हैं। हमें नहीं मालूम कि आज मानवों और कीटों के बीच भयंकर युद्ध हो रहा है। और चाहे हमारा अहंकार यह न मानने दे, किन्तु हम यह युद्ध उन कीड़े मकोड़ों से हार रहे हैं – विश्व में लाखों टनों के प्रतिवर्ष नये नये कीटनाशकों की बमबारी इसे सिद्ध करती है। यह भी संयोग है कि यह युद्ध उसी समय प्रारंभ हुआ था जब सारे विश्व पर हिटलर आक्रमण कर रहा था। वह सिद्ध करना चाहता था कि विश्व में केवल उसकी ही जाति को रहने का अधिकार है। और उसी समय डीडीटी नामक नवीन कीटनाशक हथियार का आविष्कार हुआ था। और डीडीटी के आक्रमण से कीट संहार हुआ, सफल हुआ – अचानक उपज में वृद्धि होने लगी थी। चमत्कृत विश्व मान रहा था कि डीडीटी का असर केवल कीटों पर पड़ेगा। कशेरुकी जीवों (मानव सहित) पर नहीं। और जैसा कि तत्पश्चात बार बार सिद्ध हुआ है कि यह ‘मान्यता’ गलत है। सारे जीव एक अकाट्य जैव बन्धन से बंधे हुए हैं।

पाँचवे दशक के प्रारंभ की बात है। अमेरिका में कपास की खेती का विशेष महत्त्व था, डीडीटी ने कपास के तथाकथित शत्रु ‘कीट’ मारे, कपास की उपज बढ़ी और कम्पनियों ने उसके विजय गीत सारे विश्व में गाये। किन्तु दूसरे वर्ष ही कपास का एक नया शत्रु – एक छोटा सा अनजान पतंगा हेलिओथिस विरेन्सिस लाखों की संख्या में आ धमका। हुआ यह था कि डीडीटी से न केवल कपास के शत्रु–कीट मरे थे, अन्य कीट भी मरे थे और साथ साथ असंख्य पक्षी भी। ‘हेलियोथिस विरेन्सिस’ भी काफी संख्या में हताहत हुए थे, किन्तु उन छोटे से कुछ पतंगों में डीडीटी से लड़ने की क्षमता भी थी तो वे बच गये, तथा उन प्रभावित क्षेत्रों में डीडीटी की कृपा से उनकी संख्या पर नियंत्रण रखने वाले अन्य कीट और विशेषकर पक्षी भी लगभग नगण्य बचे थे। अतएव ‘हेलियोथिस विरेन्सिस’ का अब अक्षत साम्राज्य स्थापित हो गया था। फलस्वरूप इधर कपास की फसल का बहुत नुकसान हुआ, और उधर हिटलर का अन्त हुआ और इधर वैज्ञानिकों तथा किसानों की खुशी का अन्त। इस युद्ध की हार में किसान का सर्वाधिक नुकसान हुआ। कम्पनियों ने तो लाखों डालर बना लिये थे, और भविष्य में उनसे भी दुगने चौगुने बनाने की योजना भी तैयार थी।

कीटनाशक कम्पनियों ने एक के बाद एक तीव्र से तीव्रतर कीटनाशकों का उत्पादन किया, जीत का विश्वास दिलाया और ‘साइक्लोडियोनैस’, ‘आर्गेनोफास्फेट’, कार्बामेट्स इत्यादि इत्यादि आयुधों का निर्माण किया। किन्तु हमेशा, जुए के प्रारम्भिक खिलाड़ी की तरह प्रारम्भ में उनकी जीत होती थी और फिर वह उससे भयंकर हार में बदल जाती थी। लगभग साठ वर्षों के अनवरत युद्ध में हारों के भुगतने के बाद भी, इस अजेय (?) समझी जाने वाली मानव जाति द्वारा तीव्रतर आयधों का निर्माण हो रहा है – इस समय ‘पाइरेथ्राइड्स’ का जबर्दस्त प्रचार हो रहा है। किन्तु इस तथाकथित ‘अटमबम’ का भी वही हस्र हो रहा है। किसान अब हताश हो रहे हैं किन्तु वे कीटनाशकों के दुष्चक्र में बुरी तरह फँसे हैं।

मानव का अहंकार आसानी से पराजय मानने वाला नहीं। वैज्ञानिकों ने एक विशेष निर्देशित प्रक्षेपास्त्र–विष का आविष्कार किया है। उन्होंने गहन अध्ययन कर पता लगाया कि मस्तिष्क की नाड़ियों में ‘सिग्नलों’ (संकेतों) के वहन के लिये एक विशेष पथ होता है जिसे ‘सोडियम–पथ’ कहते हैं। जीवन की विकास यात्रा में इस सोडियम–पथ का विकास करोड़ों वर्ष पूर्व हुआ था। इसलिये यह सभी जीवों में समानरूप से कार्य करती है। वैज्ञानिकों ने सोचा कि इस सोडियम–पथ पर आक्रमण करने से, एक तो, उन्हें ऐसा आयुध मिल जायेगा जो सभी कीटों पर आक्रमण करेगा। और दूसरे, इस अत्यंत प्राचीन विकास कार्य के प्रतिरोध में, कीट गुण–क्रांति (म्यूटेशन) कर नये विजेता–जीन्स (वंशाणु) पैदा नहीं कर पायेंगे। इस ध्येय–पूर्ति के लिये विकसित ‘पाइरैथ्राइड’ नामक विष एक ऐसा ही शक्तिशाली निर्देशित प्रक्षेपास्त्र है। इस ब्रह् मास्त्र के द्वारा वे मामूली सी अदना ‘घरेलू मक्खी’ पर आक्रमण कर रहे हैं, क्योंकि इस अदना मक्खी पर वे एक से एक तीव्र हथियारों – डीडीटी, ‘डियेल्ड्रिन’, ‘आर्गेनोफॉस्फेट’ आदि का आक्रमण कर निराश हो चुके हैं। और इन मक्खियों ने, प्रारम्भिक हार के बाद, इन सब का प्रतिरोध पैदा कर, अपने आपको निरापद (अजेय ?) सिद्ध कर दिया है। दृष्टव्य है कि रसायनज्ञों तथा कम्पनियों का यह ब्रह्मास्त्र भी हार गया।

हो यह भी रहा था कि जैसे जैसे ये कीटनाशक यूएसए में न केवल असफल सिद्ध होते, वरन हानिकारक भी, वैसे वैसे वहां उनके विक्रय तथा उपयोग पर प्रतिबन्ध लग जाता था। किन्तु ये पूंजीवादी कम्पनियां उनका विक्रय विकासशील देशों में करने लगीं। इस समय भारत में लगभग चार हजार कारखाने विभिन्न कीटनाशकों का निर्माण करते हैं। और हम मूर्ख खुश रहते हैं जबकि इन कारखानों के दस हजार से अधिक कार्मिक प्रतिवर्ष भयंकर बीमारियों – कैंसर, )दय रोग, प्रजनन क्षमता में कमजोरी, गर्भस्थ शिशु में विकृतियां, दुर्बलता, रोगों से लड़ने की क्षमता में ह्रास आदि आदि – से पीड़ित होते हैं, और प्रतिवर्ष औसतन 30–40 श्रमिकों की मृत्यु भी होती है। भारत सरकार कितने बलिदानों के बाद चेतेगी? वैसे तो हम भोगवाद में अमेरिका की नकल कर खूब नाचते हैं, किन्तु इस जीवन–मरण प्रश्न के ऊपर हम उनसे सीखेंगे कब?

हमारे प्राकृतिक पर्यावरण के लिये तो ये कीटनाशक पर्यावरण विनाशक सिद्ध हो रहे हैं– चारों तत्त्व – आकाश, पृथ्वी, जल तथा वायु – प्रदूषित हो रहे हैं। वायु प्रदूषित होने से बीमारियां न केवल प्रयोक्ताओं को होती हैं, वरन दूर दूर तक मार करती हैं। मैने गौर किया कि दिल्ली के आसपास आजकल गिद्धों की संख्या कम हो गई है। पता चला कि सारी जगहों में जहां जहां कीटनाशकों का उपयोग हो रहा है गिद्ध संकट में हैं। ये गिद्ध जो हमारे निशुल्क सफाई कर्मचारी हैं, जो मृत जानवरों का सड़ा गला मांस खाते हैं, उनमें अत्यधिक मात्रा में कीटनाशक विष पाया जाता है। उनके अंडों के छिलके इन कीटनाशकों के कारण इतने पतले हो जाते हैं कि जब भी मादा उन पर सेने बैठती है, वे टूट जाते हैं। यह कीटनाशक विष भोले भाले जानवरों को उनकी खाद्य वनस्पति से मिलता है जिसपर ये कीटनाशक विषों की बम वर्षा की जाती है। यहां तक भारतीय माताओं के दूध में भी डीडीटी मिलने लगा है। किन्तु भारतीय इतने सहनशील हैं कि सब बरदाश्त करते रहते हैं। तभी तो विश्व में भारतीय अपने शरीर में पाए जाने वाले कीटनाशकों की मात्रा में सर्वप्रथम हैं – चलिये कहीं तो भारत प्रथम है!!

खैरियत है कि अब रसायनज्ञों ने कीट नाशकों के साथ इस युद्ध में अपनी हार मान ली है। उन्होंने विकास–जैववैज्ञानिकों (एवाल्यूशनरी बायोलाजिस्ट) से सहायता माँगी है। एक ऐसे जैव वैज्ञानिक डा. मार्टिन टेलर ने इस पतंगे के युद्ध के फलस्वरूप क्रमशः उन्नततर होते उसके विकास का अध्ययन किया है और उस पतंगे -‘हेलियोथिस’ – की एक अद्भुत शक्ति का पता लगाया है। जब भी उस पतंगे पर किसी भी कीटनाशक का आक्रमण होता है, उसके जीन्स (वंशाणु) उस विष का ‘काट’ पैदा कर निरापद (इम्म्यून) हो जाते हैं। उसके बाद उनकी संतान में यह शक्ति पैदायशी हो जाती है। यह पढ़कर मुझे रामायण के पात्र बाली की याद आ रही है – उसे यह वरदान था कि युद्ध करते समय सामने के शत्रु की आधी शक्ति स्वयं ही उसमें (बाली में) आ जाती थी।

यहां ऐसी कोई बात नहीं है कि ऐसा वरदान केवल ‘हेलियोथिस’ पतंगे को ही मिला हो। यह अद्भुत वरदान असंख्य कीटों को प्राप्त है। अर्थात अब यह युद्ध रसायन–युद्ध न होकर, जैव–युद्ध हो गया है। हम शायद इसे जैव–आतंकवाद कहना पसन्द न करें।

इस ‘वरदान’ के अनेकों उदाहरण दिये जा सकते हैं, किन्तु यहां कुछ ही पर्याप्त होना चाहिये। ‘फ्लाइंग स्केल’ कीटों ने मात्र छः संततियों में ‘ब्यूक्विनोलेट’ नामक भयंकर विष का प्रतिरोध पैदा कर लिया है। भेड़ की आँतों में रहने वाली ‘नेमाटोड’ कृमियों ने तो मात्र तीन संततियों में ‘थियाबैंडाज़ोल’ विष का प्रतिरोध पैदा कर लिया है। और भेड़ के ऊपर आवासी ‘चिंचड़ियों’ (‘टिक्स’) ने तो मात्र दो ही à ��ंततियों में शक्तिशाली (एच सी एच ‘डियेल्ड्रिन’ का प्रतिरोध पैदा कर लिया है।

मानव हैरान है कि राई बराबर इन मच्छड़–पहलवान कीटों के पास कौन–कौन से अचूक दाँव–पेँच हैं कि उन सरीखा सर्वबुद्धिमान, सर्वशक्तिमान तथा सर्वश्रेष्ठ मानव उन क्षुद्र जन्तुओं से युद्ध में हार जाता है।

पहला तो यही कि अधिकाश कीट विषाक्त क्षेत्रों से दूर ही रहते हैं। दूसरे, ‘डायमन्ड बैक’ पतंगों सरीखे कीट, यदि विषाक्त पौधों पर बैठ जाएं तो वे अपनी विष–प्रभावित टाँगों का ही परित्याग कर देते हैं। क्या हम कीटनाशक विषों से प्रभावित सब्जियों, फलों आदि का त्याग कर सकते हैं? नहीं न, तब तो हमें तब तक रुकना पड़ेगा जब तक गर्भस्थ शिशु अपनी माँ का त्याग कर दे, या क्रोध में विकृत हो जाए। फिर, ‘क्यु�¤ �ैक्स पिपिएन्स’ जाति के मच्छड़ सरीखे कीट अपने विशेष किण्वों (एन्ज़ाइम्स) ‘एस्टरेसीज़’ की सहायता द्वारा ‘आर्गेनोफॉस्फेट’ सरीखे तीव्र विषों को पचा डालते हैं। किंतु पक्षी तथा मानव उन विषों के कारण रोगों से ग्रस्त होते रहते हैं।

डा. मार्टिन टेलर ने खोज की है कि जब भी किसी कीट पर आत्यन्तिक खतरा आता है, उनके वंशाणुओं (जीन्स) में गुणक्रान्ति (म्यूटेशन) की गति भी बहुत अधिक बढ़ जाती है, और वे नये–नये जीन्स पैदा करते हैं। अधिकांश नये जीन्स असफल ही होते हैं किन्तु अन्ततः कोई नया जीन्स उस आत्यन्तिक खतरे के विरोध में सफल हो जाता है, और फिर उसके वंश वाले पुनः फलने–फूलने लगते हैं। पक्षिवैज्ञानिक पीटर तथा रोज़मैरी ग्रा�¤ �्ट तथा उनके शिष्यों ने ‘दाफ्नि मेजर’ नामक द्वीप में ‘डारविन–फिन्चों’ (‘डारविनी चटक’) के विकास पर लगातार वर्षों शोध किया है (पुस्तक – द बीक आफ़ द फ़िन्च – जोनैथन वाइनर)। यह द्वीप गैलापैगस द्वीप समूहों का एक द्वीप है। इस द्वीप समूह में चाल्र्स डारविन ने चटकों (फ़िन्चैज़) पर शोध किया था, अतएव इन चटकों के कुल का नाम ही ’डारविनी–चटक’ रखा गया है। शोधकर्ताओं ने अथक दुष्कर शोधकार्य कर यह वैज्ञानिक सत्य खोजा है कि आत्यन्तिक खतरा, प्राणघातक प्राकृतिक या मानव कृत खतरा, होने पर इन चटकों के वंशाणुओं (जीन्स) में गुणक्रांति (म्यूटेशन) की दर एकदम बढ़ जाती है। ऐसे खतरे आने पर अनेक पुरानी तथा नयी जातियां या तो बहुत कम बचती हैं या नहीं बचती हैं। किन्तु कुछ पुरानी जातियां तथा कुछ नई जातियां बच जाती हैं और उन खतरों के बावजूद पनपती रहती हैं।डा . टेलर की, अपनी खोज के आधार पर, यह निश्चित मान्यता है कि जैव–वैज्ञानिक ऐसा विष नहीं बना सकते जो उस कीट के भविष्य के जीन्सों को भी मार सके। निर्देशित प्रक्षेपास्त्र विमान को सफलतापूर्वक मार सकते हैं क्योंकि वे उस विमान की भविष्य की स्थिति का सही अनुमान लगा सकते हैं। इस तरह कीट के भविष्य के जीन्स का सही पता या अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वह नया जीन्स तो टक्कर के बाद पैदा होता है। और उसकी दिशा या ‘स्वरूप’ का विकास ‘यादृच्छिक’ (रैन्डम) होने के कारण नहीं मालूम किया जा सकता। अर्थात कीटों से युद्ध करने में हमारी हार अन्ततः निश्चित है। तब हम क्यों पक्षियों तथा मानवों पर उन विषों द्वारा संकट पैदा करते जा रहे हैं?

हमारी कीटों से यह हार दुहरी या तिहरी हार है। उन विषों से पक्षी अवश्य संकटग्रस्त होते हैं, ये पक्षी ही वास्तव में उन कीटों पर नियंत्रण कर, प्रकृति में संतुलन बनाये रखते हैं। अर्थात कीटों को मारने के स्थान पर हम इन रासायनिक कीटनाशकों के द्वारा कीटों को भोजन बनाने वाले पक्षियों का ही नाश कर रहे हैं। यह भी सिद्ध हो चुका है कि इन कीटनाशकों ने, सारी सावधानी के बावजूद, मानव स्वास्थ्य पर हमला किया है तथा कैन्सर जैसे अनेक रोगों को बढ़ावा दिया है। चौथे, कीटनाशक विष पृथ्वी को उसकी मिट्टी को, जल को, वायु को, यहां तक कि उसके आकाश को प्रदूषित कर रहे हैं – अर्थात समस्त जीवन को विषाक्त कर रहे हैं।

अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि कीटनाशकों के प्रयोग से पहले, अमरीकी किसानों की फसल का ७ प्रतिशत ही कीट खा रहे थे! और आठवें नौवें दशक में जब कीटनाशक छाए हुए थे, तब यह नुकसान, घटा नहीं, वरन बढ़कर १३ प्रतिशत हो गया था!! साथ में कीटनाशकों का खर्च अलग और उनके द्वारा पैदा संकट अलग!

’जी एम’ अर्थात आनुवंशिक संवर्धित बीज, जिनका बड़ा गाना गाया गया है, की भी विशेषता तो कीटों से लड़ने की ही होती है। यह बीज भी एक या दो मुख्य कीटों का ही प्रतिरोध कर सकते हैं। जब मुख्य कीटों को खाने का अवसर नहीं मिलेगा तब कुछ ही अवधि में अन्य कीट बढ़ेंगे और उस जीएम बीज को असफ़ल कर देंगे। जीएम बीज की रणनीति कीटों से युद्ध करने की कोई नितान्त नई रणनीति नहीं है, कीट ऐसी रणनीति के लिये पहले से ही तैयार रहते हैं। जी एम बीज भी पश्चिम की औपनिवेशिक नीति का हथियार है। तब हम अपने प्राणदायक बीजों के लिये पश्चिम की प्रौद्योगिकी पर निर्भर करने लगेंगे या कहना चाहिये उनके गुलाम हो जाएंगे। हमारे यहां अन्य सब्जियों की तरह बैंगन की भी सैकड़ों जातियां हैं। शायद बैंगन को बेचारा समझकर हमारे वैज्ञानिक तथा शासक पश्चिम के दबाव में आकर बीटी (आनुवंशिक संवर्धित) बैंगन को भारत में लाना चाहते हैं। बीटी काटन ने भी किसानों की हत्या की है। हमें‌ नहीं भूलना चाहिये कि प्रथम हरित क्रान्ति कालान्तर में हत्या क्रान्ति साबित हो रही है। इसने न केवल वायु, जल और पृथ्वी का विनाश किया है वरन किसानों की भी हत्या कर रही है। अपने अनुभवों से तथा वैज्ञानिकों के ज्ञान से ही सीखकर हमें इसका पुरजोर विरोध करना चाहिये।

विषों द्वारा प्रकृति के हो रहे विनाश को देखते हुए एक प्रकृति प्रेमी अमेरिकी वैज्ञानिक आल्डो लियोपोल्ड ने मानव जाति, विशेषकर अमेरिकियों से अभ्यर्थना की है, “हम अपनी सामाजिक चेतना में इस ग्रह पृथ्वी को भी सम्मिलित करें।” हजारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने इस रहस्य को समझकर ‘माता भूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः’ की प्रकृति प्रेमी संस्कृति को स्थापित किया था। क्या हम भारतवासी इस मंत्र को तोते की ही तरह नहीं दुहराते हैं। जिस तरह से हम ‘गंगा’ का (!) प्रदूषण कर रहे हैं, हिमालय को, भारतमाता को निर्ममता पूर्वक वृक्ष काटकर नग्न कर रहे हैं, उससे तो यही सिद्ध होता है।

अभी भी बहुत देर नहीं हुई है क्योंकि प्रकृति के रक्षक पक्षी अभी भी पर्याप्त जातियों मे तथा संख्या में जीवित हैं। इस समय सैकड़ों जाति के पक्षी ‘संकट ग्रस्त’ हैं, जो देर करने पर डोडो के समान इस पृथ्वी से हमेशा के लिये लुप्त हो जाएंगे। जापान से प्राकृतिक खेती का आन्दोलन प्रारम्भ हो चुका है, प्रयाग के पास भी यह आन्दोलन प्रारम्भ हो चुका है। स्वयं फसलों में कुछ शत्रुकीटों को मारने की शक्ति होती है, अतः इष्टतम (कुछ योग्य चुनिंदा फसलें) फसल–चक्र का उपयोग करें ताकि एक फसल के स्थान पर अनेक फसलें अनेक कीटों का नाश करें। फसल कटने के बाद जो भी वनस्पति वहां बची रहती है उसमें भी कीट रहते हैं, अतः उन्हें जला दिया जाना चाहिये। नीम तो प्राकृतिक कीटनाशक है और अन्य प्राणियों तथा मानव को हानि भी नहीं पहुँचाता लाभ ही पहुँचाता है। भारत के वैज्ञानिकों को नीम के द्वारा उपयुक्त कीटनाशक निर्माण करना चाहिये, और सारे विश्व को बचाना चाहिये। हम सब इस आन्दोलन में भाग लें और पृथ्वी माता की, पक्षियों की, और अन्ततः मानव जाति की रक्षा करें। इस शस्य श्यामला भूमि को रेतीला मरूस्थल बनाने से बचें। विकसित देश की गलतियों से सीखें, न कि उन्हें दुहराएं। उनकी कम्पनियां जो कीटनाशक अपने देश में नहीं बेच सकतीं, वे विकासशील देशों को बेचती हैं!

केरल से मेंढकों का निर्यात करने पर जो चावल का अकाल प्ड़ा था उसे हमने भोगा है। अमेरिकन व्यापारियों ने भारत में लम्बे असफल प्रयास के बाद, अन्ततः केरल की साम्यवादी सरकार (मुख्य मंत्री नम्बूदरीपाद) को मना लिया था कि वे केरल से मेंढकों का निर्यात करें। मिलियनों डालरों की लालच में हिंदू संस्कृति से अज्ञान साम्यवादी सरकार ने, विदेशी मुद्रा कमाने के लिये मेंढकों का निर्यात किया। दूसरे ही वर्ष चावल की फसल सारे कीड़े खा गए। तब कीड़ों पर नियंत्रण करने के लिये कीटनाशकों का आयात किया गया। तब भी फसल खराब रही क्योंकि कीटनाशकों ने मिट्टी पानी को विषाक्त कर दिया था। तब कुछ उर्वरकों का भी आयात किया गया। तब स्थिति कुछ सुधरी किन्तु वह पुरानी बात नहीं हुई। यदि उन्होंने ऋग्वेद का मण्डूक सूक्त पढ़ा होता तो वे कभी भी मेंढकों का निर्यात न करते। या मात्र अपनी संस्कृति पर भरोसा कर जीवों की हत्या न करते, तो चावल के दाम प्रति रुपये दो किलो से बढ़कर दो वर्षों में ही दो रुपये प्रति किलो न हो जाते। मण्डूक सूक्त में वर्षा ऋतु में आश्रम के चारों ओर जब मेंढक अपना गान करते हैं, तब ऋषि उनसे प्रार्थना करते हैं – “हे मण्डूक तुम ऋषियों की तरह ऋचाओं का गान करते हो, तुम हम पर कृपा बनाए रखो, हमारी समृद्धि करो, गौओं की समृद्धि करो, स्वास्थ्य की रक्षा करो।” किन्तु मात्र पाश्चात्‍य पद्धति में पढ़े लोग या साम्यवादी तो इस पर हँसेंगे, या इसे ‘ग्वालों का गान’ कहकर अपनी अहंतुष्टि कर लेंगे। अब मेरा भी मन उन ऋषियों के साथ गाने का मन करता है। किन्तु मैं मेंढकों के साथ पक्षियों से भी वैसी ही प्रार्थना करता हूं। तब हम कम से कम उन अनुभवों से तो सीखें और फिर उस मंत्र को सिद्ध करें – ‘माता भूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः’।

एक अंग्रेज की ईमानदार स्वीकारोक्ति

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

जहां तक मुझे याद है, मैं 1977 से एक बात को बड़े-बड़े नेताओं से सुनता आ रहा हूँ कि भारतीय कानूनों में अंग्रेजी की मानसिकता छुपी हुई है, इसलिये इनमें आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है, लेकिन परिवर्तन कोई नहीं करता है| हर नेता ने कानूनों में बदलाव नहीं करने के लिये सबसे लम्बे समय तक सत्ता में रही कॉंग्रेस को भी खूब कोसा है| चौधरी चरण सिंह से लेकर मोरारजी देसाई, जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, चन्द्र शेखर, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह, मुलायम सिंह, लालू यादव, रामविलास पासवान और मायावती तक सभी दलों के राजनेता सत्ताधारी पार्टी या अपने प्रतिद्वंद्वी राजनेताओं को सत्ता से बेदखल करने या खुद सत्ता प्राप्त करने के लिये आम चुनावों के दौरान भारतीय कानूनों को केवल बदलने ही नहीं, बल्कि उनमें आमूलचूल परिवर्तन करने की बातें करते रहे हैं|

परन्तु अत्यन्त दु:ख की बात है कि इनमें से जो-जो भी, जब-जब भी सत्ता में आये, सत्ता में आने के बाद वे भूल ही गये कि उन्होंने भारत के कानूनों को बदलने की बात भी जनता से कही थी|

अब आजादी के छ: दशक बाद एक अंग्रेज ईमानदारी दिखाता है और भारत में आकर भारतीय मीडिया के मार्फत भारतीयों से कहता है कि भारतीय दण्ड संहिता में अनेक प्रावधान अंग्रेजों ने अपने तत्कालीन स्वार्थसाधन के लिये बनाये थे, लेकिन वे आज भी ज्यों की त्यों भारतीय दण्ड संहिता में विद्यमान हैं| जिन्हें देखकर आश्‍चर्य होता है|

इंग्लेंड के लार्ड एंथनी लेस्टर ने कॉमनवेल्थ लॉ कांफ्रेंस के अवसर पर स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारतीय दण्ड संहिता के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिये पर्याप्त और उचित संरक्षक प्रावधान नहीं हैं| केवल इतना ही नहीं, बल्कि लार्ड एंथनी लेस्टर ने यह भी साफ शब्दों में स्वीकार किया कि भारतीय दण्ड संहिता में अनेक प्रावधान चर्च के प्रभाव वाले इंग्लैंड के तत्कालीन मध्यकालीन कानूनों पर भी आधारित है, जो बहु आयामी संस्कृति वाले भारतीय समाज की जरूरतों से कतई भी मेल नहीं खाते हैं| फिर भी भारत में लागू हैं|

भारतीय प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया अनेक बेसिपैर की बातों पर तो खूब हो-हल्ला मचाता है, लेकिन इंगलैण्ड के लार्ड एंथनी लेस्टर की उक्त महत्वूपर्ण स्वीकारोक्ति एवं भारतीय दण्ड संहिता की विसंगतियों के बारे में खुलकर बात कहने को कोई महत्व नहीं दिया जाना किस बात का संकेत है?

इससे हमें यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि मीडिया भी भारतीय राजनीति और राजनेताओं की अवसरवादी सोच से प्रभावित है| जो चुनावों के बाद अपनी बातों को पूरी तरह से भूल जाता है| लगता है कि मीडिया भी जन सरोकारों से पूरी तरह से दूर हो चुका है|

इंग्लेंड के लार्ड एंथनी लेस्टर ने सवा सौ करोड़ भारतीयों को अवसर प्रदान किया है कि वे देश के नकाबपोश कर्णधारों से सीधे सवाल करें कि भारतीय दण्ड संहिता में वे प्रावधान अभी भी क्यों हैं, जिनका भारतीय जनता एवं यहॉं की संस्कृति से कोई मेल नहीं है?

आधुनिक भारत के मंदिरों की रक्षा कौन करेगा ?

श्रीराम तिवारी

वर्तमान २१ वीं शताब्दी के इस प्रथम दशक की समाप्ति पर वैश्विक परिदृश्य जिन्ह मूल्यों ,अभिलाषाओं और जन-मानस की सामूहिक हित कारिणी आकांक्षाओं – जनक्रांतियों के लिए मचल रहा है ,वे विगत २० वीं शतब्दी के ७०वें दशक में सम्पन्न तत्कालीन शीत युद्धोत्तर काल के जन -आन्दोलनों की पुनरावृति भर हैं .तब सोवियत व्यवस्था के स्वर्णिम प्रकाशपुंज ने एक तिहाई दुनिया को महान अक्टूबर क्रांति के मानवतावादी मूल्यों से अभिप्रेरित करते हुए सामंतवाद और पूंजीवाद को पस्त करने में आश्चर्यजनक क सफलता हासिल की थी . वियतनाम में महाशक्ति अमेरिका का मानमर्दन हो चुका था.कामरेड हो-चिन्ह-मिन्ह के नेतृत्व में वियेतनाम के नौजवानों, किसानो और मजदूरों ने अमेरिका से चले उस भीषण युद्ध में न केवल विजय हासिल की थी; बल्कि मार्क्सवाद -लेनिनवाद -सर्वहारा अंतर राष्ट्रीयतावाद का परचम फहराकर दुनिया भर के श्रमसंघों ,मेहनतकशों ,मजूरों ,किसानो और साक्षर युवाओं को नयी रौशनी -नई सुबह से रूबरू कराया था. लेकिन अमेरिका ने इस हार को वाटरलू के रूप में लेने से इंकार कर दिया था. सोवियत-क्रांति को विफल करने के दिन तक वो चैन से नहीं बैठा .क्रेमलिन में येल्तसिन रुपी विभीषण ने उसके इस दिवास्वप्न को साकार करने में अवर्णनीय सहयोग किया था .

पूंजीवादी व्यवस्था और साम्यवादी व्यवस्थों में द्वंदात्मक संघर्ष के परिणाम स्वरूप तीसरी दुनिया के जनमानस में सर्वहारा- क्रांती की ललक हिलोर लेने लगी थी.तत्कालीन पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों ने सोवियत-क्रांति और उसके दुनियावी प्रभाव से आतंकित होकर ;अमेरिका समेत तमाम पूंजीवादी मुल्कों को नई गाइडलाइन दी कि वे अपने-अपने मुल्कों में अपने तई श्रमिक वर्ग को ,किसानो को कुछ लालच दें ,कुछ जन-कल्याण के नाम पर ,देश की स्वतंत्रता-प्रभुता के नाम पर ,मजहब -धरम के नाम पर और दीगर -आग -लूघर के नाम पर सरकारी कोष से जनता के वंचित-वर्गों को देने दिलाने का स्वांग या नाटक करें. भारत समेत तीसरी दुनिया ने भी इन चोंचलों का अनुगमन किया जिससे उन्हें तत्कालीन जन-आंदोलनों को दबाने में महती कामयाबी मिली भी .इस जन-कल्याणकारी राज्य के नाम पर किये गए पारमार्थिक खर्चों के लिए एक ओर तो जनता से विभिन्न टेक्सों के रूप में धन वसूली की जाती रही. फिर उसमें से बकौल स्वर्गीय श्री राजीव गाँधी के अनुसार- १५ पैसा जनता तक पहुँचता है और ८५ पैसा राजनीति के शिखर से होता हुआ -नौकरशाही ,राजनीतिज्ञों ,ठेकेदारों और पूंजीपतियों में बँट जाता है. सरकारी क्षेत्रों और सार्वजानिक क्षेत्र में यह एक तथ्यात्मक सच्चाई है कि सोवियत-पराभव के उपरान्त एक ध्रुवीय -विश्वव्यवस्था के परिणामस्वरूप रातों-रात यह जन -कल्याणकारी राज्य का कांसेप्ट निरस्त क र दिया गया .क्योंकि पूंजीवाद को अब किसी का डर नहीं था ,कोई चुनौती देने वाला नहीं रहा .हालाँकि नवस्वतंत्र राष्ट्रों ने अमेरिकी झांसे में आने कि कोई जल्दी नहीं दिखाई .इसीलिये पाश्चात्य आर्थिक संकट का अखिल भूमंडलीकरण होने में देर हो रही है .

पूंजीवादी देशों ने खास तौर से भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों ने उन क्षेत्रों में जहाँ पूंजीपति निवेश से बचते थे वहां जनता के पैसे से देश की तरक्की में गतिशीलता के वास्ते सार्वजनिक उपक्रमों का निर्माण कराया .चूँकि रक्षा बैंक बीमा ,दूर संचार ,खनन और सेवा क्षेत्र में तब प्रारंभिक लागतों के लिए पूँजी की विरलता और उस पर मुनाफे की गारंटी के अभाव में निजी क्षेत्र से लेकर हवाई जहाज तक -सब कुछ विदेश से मंगाना और इसे खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा का अभाव होना , इत्यादि कारणों से भारत के तत्कलीन नेत्रत्व ने वैज्ञानिक अनुसंधानों ,श्रम शक्ति प्रयोजनों और आधारभूत संरचना के निमित इन केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को खड़ा किया था .तब सरकार पर जनता की जन आकांक्षा की पूर्ती का भी दबाव था- कि अब तो देश आजाद है…अब लाओ -रोटी -कपडा और मकान… हमने आपको देश का मालिक बना दिया…आ प हमें कम से कम मजूरी या रोजगार ही प्रदान करने कि कृपा करें ……तब सरकारों कि गरज थी ,इसीलिये केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम- नवरत्न -महारत्न खड़े किये थे .अब इन सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में कौड़ी मोल बेचा जा रहा है भारी कमीशनबाजी हुई .क्योंकि अब पूंजीवादी नव्य उदारवादी आर्थिक नीतियों का प्रोस्पेक्ट्स तीव्रता से लागू किये जाने का आदेश वहीं से आ रहा है ,जहाँ से जन –क्रांतियों‚ को दबाने के निमित्त जन -कल्याणकारी कार्ययोजना जारी की गई थी .इन नीतियों और कार्यक्रमों के नियामक नियंता एम् एन सी या विश्व बैंक के कर्ता-धर्ता ही नहीं बल्कि वे नाटो से लेकर पेंटागन तक और G -20 से लेकर सुरक्षा परिषद् तक काबिज हैं .

भले ही इन सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने अपनी गरज से बनाया था किन्तु अब जनता कि गरज है सो इसे बचाने के लिए आगे आये .मैं किसी क्रांति का आह्वान नहीं कर रहा .मैं सिर्फ ये निवेदन कर रहा हूँ कि जो लोग इस ध्वंसात्मक प्रक्रिया में शामिल थे या हैं उन्हें और उनके नीति निर्धारकों को आइन्दा वोट की ताकत से सत्ताच्युत किया जा सकता है .इतना तो बिना किसी उत्पात ,विप्लव या खून-खराबे के किया ही जा सकता है .यह सर्व विदित है {सिर्फ डॉ मनमोहनसिंह जी ,श्री प्रणव जी ,श्री मोंटेकसिंह जी को नहीं मालूम } कि भारतीय अर्थव्यवस्था यदि अमेरिका प्रणीत आर्थिक महामंदी कि चपेट में नहीं आयी तो इसके लिए देश का सार्वजनिक क्षेत्र .कृषि निर्भरता और बचत कि परंपरागत प्रवृत्ति ही जिम्मेदार है .विगत २० सालों से देश में मनमोहनसिंह जी के मार्फ़त उक्त सार्वजनिक क्षेत्र ध्वंसात्मक नीतियों पर जो र लगाया जाता रहा है .इसमें एन डी ए कि आर्थिक नीतियां भी शामिल हैं ,क्योंकि उनकी कोई नीति नहीं है सो मनमोहनसिंह अर्थात पूंजीवादी नीति को १९९९से२००४ तक उन्ही आर्थिक सुधारों को तवज्जो दी गई जो स्व. नरसिम्हाराव के कार्यकाल में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहनसिंह जी लाये थे .वे अमेरिका से सिर्फ यह एंटी-नेशनल वित्तीय-वायरस ही नहीं अपितु भारत में अमीरों को और अमीर बनाने और गरीवों-किसानो ं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का इंतजाम भी साथ लाये थे .आजादी के फौरन बाद टेलिकाम क्षेत्र में कोई भी पूंजीपति आना नहीं चाहता था क्योंकि तब आधारभूत संरचना कि लागत अधिक और मुनाफा कम था .विगत ५० सालों में जब देश कि जनता और दूरसंचार विभाग के मजदूर कर्मचरियों ने कमाऊ विभाग बना कर तैयार कर दिया तो देशी विदेशी पूंजीपतियों ,दलालों की लार टपकने लगी. बना बनाया नेटवर्क फ्री फ़ोकट में देश के दुश्मनों तक पहुंचा दिया .भारत संचार निगम को कंगाल बना कर रख दिया .एस -बेन्ड स्पेक्ट्रम हो या टु-जी थ्री -जी सभी कुछ दूर संचार विभाग से छीनकर उन कम्पनियों को दे दिया जिनकी न्यूनतम अहर्ताएं भी लाइसेंस के निमित्त अधूरी थी .कुछ के तो पंजीयन भी संदेहास्पद पाए गए हैं .

तथाकथित नई दूरसंचार नीति के नाम पर जितना भ्रष्टाचार हुआ उतना सम्भवत विगत ६० सालों में अन्य शेष विभागों का समेकित भ्रुष्टाचार भी बराबरी पर नहीं आता .पहले तो इस नई टेलीकाम पालिसी के तहत दूर संचार विभाग के तीन टुकड़े किये गए -एक -विदेश संचार निगम जो कि रातों रात टाटा को दे दिया .दो -एम् टी एन एल बना कर अधमरा छोड़ दिया .तीन भारत संचार निगम बनाकर -{यह पवित्र काम एन डी ए कि अटल सरकार के सम�¤ ¯ हुआ था और स्व प्रमोद महाजन जी इस के प्रणेता थे ]राजाओं ,रादियाओं ,कनिमोजिओं ,बिलालों ,स्वानों ,भेड़ियों को चरने के लिए छोड़ दिया .दूर संचार विभाग के १९९९ से ए राजा तक जितने भी मंत्री रहे हैं वे सभी महाभ्रष्ट थे.यह स्वभाविक है कि बोर्ड स्तर का अधिकारी भी भृष्ट ही होगा और चूँकि यह भृष्टाचार कि गंगा उपर से नाचे आनी ही थी, सो आ गई …अब भारत संचार निगम या अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को बीमार घोषित कर इसकी संपदा भी इसी तरह ओने पौने दामों पर देशी विदेशी दलालों को बेचीं जाने बाली है .नई आर्थिक नीति के निहतार्थ यही हैं कि सब कुछ निजी कर दो लेकिन भारत कि जनता है कि सरकारी में ही आस्था लिए डटी हुई है .२८ जुलाई -२००८ को यु पी ए प्रथम की सरकार से जब १-२-३-एटमी करार के विरोध में लेफ्ट ने समर्थन वापिस लिया था तब ,तब नोटों कि ताकत से समर्थन जुटाने वाले हमारे विद्द्वान प्रधान मंत्री जी ने भवातिरेक में कहा था -अब कोई अड़चन नहीं ,वाम का कांटा दूर हो गया …अब सब कुछ बदल डालूँगा ….. अब सब कुछ बेच दूंगा ….देशी विदेशी पूंजीपतियों को सप्रेम भेंट कर दूंगा ….क्यों कि अमिरीकी लाबी ने ठानी है …नेहरु चाचा कि हर एक निशानी मिटानी है .यही कारण है कि जब भूंख से बिलखते गरीबों को मुफ्त अनाज {जो गोदामों में सड़ रहा है }देने कि सुप्रीम कोर्ट ने सलाह दी तो केद्र सरकार ने सलाह को हवा में उड़ा दिया और अब न्याय पालिका को नसीहत दी जा रही है कि हद में रहो …खेर देश कि जनता का भरोसा अभी भी सार्वजनिक उपक्रमों पर बना हुआ है यही एक राहत कि बात है …

आज भी बीमा क्षेत्र में ८० % एल आई सी पर ही भारतीयों को भरोसा है .६० %लोगों को राष्ट्रीयकृत बैंकों के काम काज पर भरोसा है और इसी तरह बेसिक दूरभाष -ब्राडबेंड -लीज्ड सर्किट इत्यादि में ८० %लोगों को भारत संचार निगम लिमिटेड पर भरोसा है .सिर्फ मोबाइल में निजी क्षेत्र इसीलिये आगे बढ़ गया क्योंकि १९९९ में ही मोबाइल क्षेत्र के लाइसेंस सिर्फ निजी क्षेत्र को दिए गए थे ,क्योकि इसी में भारी रिश्‍वत और पार्टी फंड कि गुंजाइश थी बी एस एन एल ई यु ने ,वर्तमान दौर के सूचना और संचार माध्यमों ने ,सुप्रीम कोर्ट ने ,सुब्रमन्यम स्वामी ने ,प्रशांत भूषन ने अलख जगाई थी कि देश कि संचार व्यवस्था को बर्बाद किया जा रहा है ,भारी भ्रष्टाचार कि भी लेफ्ट ने कई बार चेतावनी दी थी .मजेदार बात ये भी है कि जो भाजपा और एन डी ए भी २-g ,स्पेक्ट्रम मामले में और विभाग को तीन टुकड़े करके बेचने के मामले में गुनाहगार है उसी ने देश कि संसद नहीं चलने दी .इसे कहते हैं चोरी और सेना जोरी .कांग्रेस ने तो मानों गठबंधन सरकार चलाने कि एवज में देश को ही खतरे में डाल दिया है और न केवल खतरे में अपितु पवित्र भारत भूमि को भ्रुष्टाचार कि गटर गंगा में ही डुबो दिया है …देश कि जनता को सार्वजानिक क्षेत्र कि चिंता करने कि फुर्सत नहीं क्योंकि उसे-बाबाओं ने, गुरु घंटालों ने , जात -धरम .क्रिकेट,मंदिर -मस्जिद भाषा और भ्रष्टाचार की बीमारियों से अशक्त बना डाला है .अब इससे से पहले कि कोई विराट जन आन्दोलन खडा हो ,पूंजीवादी निजामों द्वारा कुछ नई तिकड़म बिठाये जाने के उपक्रम किये जाने वाले हैं किन्तु ये तय है कि देश के सार्वजानिक उपक्रमों को सरकारी या जनता के नियंत्रण से छीनकर निजी हाथों में दिए जाने से तश्वीर और बदरंग होती चली जायेगी .टेलिकॉम सेक्टर में सेवाएं तभी तक सस्तीं हैं जब तक सरकारी और सार्वजनिक उपक्रमों कि बाजार में उपस्थिति है जिस दिन बी एस एन एल या एम् टी एन एल नहीं रहेगा तब निजी क्षेत्र कि दरें क्या होंगी ?इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जब १९९९ से २००५ तक मोबाइल क्षेत्र में सिर्फ निजी आपरेटर थे तो वे ने केवेल आउटगोइंग बल्कि इन कमिंग कालों के प्रति मिनिट १० से १६ रुपया तक वसूल करते थे .यही बात बैंक बीमा एल पी जी स्टील ,सीमेंट ,कोयला या बिजली क्षेत्र में दृष्टव्य है .इसीलिये सार्वजनिक क्षेत्र को बचाने के लिए उसके कर्मचारियों को भी अपनी कार्य शैली में बदलाव लाना होगा .जनता को भी इन उपक्रमों की हिफाजत इस रूप में करना चाहिए कि ये स्वतंत्र भारत के वास्तविक पूजास्थल हैं .जैसा कि पंडित नेहरु ने १९५६ में संसद में कहा था .

पते और स्टैंप के बिना एक चिट्ठी

गुज़रा हुआ प्रेम बिसार पाना मुश्किल होता है, तक़रीबन नामुमकिन। कोई जगह, कोई लमहा सबकुछ लेकर आ जाता है सामने। यादों की ऐसी ही एक पोटली…एक चिट्ठी, उसके नाम, जो जिस्म से साथ नहीं है पर यादें अश्क बनकर आंख में मौजूद हैं और धड़कन की शक्ल में दिल के बीच ज़िंदा…। फिज़ाओं में प्यार की खुशबू बिखरी हुई है। फूलों, तोहफ़ों और मुस्कराहटों के मौसम में मिला है यही खत, जो अपने पते तक पहुंच नहीं पाया अब तक…।

चण्डीदत्त शुक्ल

सुनो,

तुम्हें जो लिखी थीं, वो चिट्ठियां पुरानी हो चुकी हैं…कुछ ज्यादा ही ज़र्द। पीली पड़ गई हैं चिट्ठियां। इन पर कोई स्टैंप भी तो नहीं है। बस बिना लिफाफे के यहां-वहां रखी हैं। रजिस्टरों में, डायरियों में और हां, एक तो कोट की अंदर वाली जेब में भी रखी है। वहीं सूखे गुलाब के साथ तुमने रख दी थी। मस्त हैं ना यार हम दोनों। और चिट्ठियां भी क्या…कहीं, किसी लाइन में तो आईलवयू नहीं लिखा। कंजूस! कहीं-कहीं तो अनामिका स्याही में डुबाकर लकीर भर खींच दी। पूरा, सादा पन्ना और कोने में खिंची लकीर, लेकिन मैं सबकुछ पढ़ लेता हूं। कितनी ही लालसा, इच्छाएं, इंतज़ार और अब बस…एक ठंडी सांस।

ऐसी ही एक लकीर मैंने भी खींच दी थी तुम्हारे दाएं गाल पर। चिहुंक उठी थीं तुम—धत…ये क्या करते हो। मैं भी तो कितना शैतान था, होली है भाई होली है…और रंग नहीं तो क्या हुआ…स्केच पेन तो थी हाथ में। तुम भी ग़ज़ब…दो दिन तक स्याही धुली ही नहीं। सहेलियां चिढ़ा-चिढ़ाकर पूछतीं—क्या है ये और तुम बस मुस्करा देतीं। मुझे मौसमी चटर्जी अक्सर याद आती है। मुस्कराते हुए हंसी छलका देने वाली। तुम्हारी जुड़वा तो नहीं है ना?

उफ़…अब क्या हुआ। फिर तुनक गईं। दो-चार महीनों का साथ कितना छोटा था। देखो, गुज़र गया। रूठने-मनाने में। कल शाम की बात बताऊं। बस स्टैंड पर खड़ा था। तेज़ हवा चली, लगा जैसे—शॉल उतारकर ढक दोगी। पर कहां हो तुम…। ठिठुरते हुए खड़ा रहा…कानों में गूंज रही थी खनकती हंसी। बिना बात के हंसने की कला कोई तुमसे सीखे। उल्लुओं और पाजियों की तरह…। देखो, मैं भी तो हंस पड़ा हूं तुम्हारे साथ-साथ।

लो…गुज़र गई एक बस। टूटी-फूटी, इसकी खिड़कियों पर कांच नहीं हैं। हवा के साथ कदम मिलाते हुए उड़ी जा रही है। आज तुम होतीं, तो हम दोनों फिर बैठ जाते ना इसमें। ऐसे सफ़र पर चलने के लिए, जिसका कोई ठिकाना ना हो। बस जेब में जितने पैसे होते, उतने कंडक्टर को थमाकर और जब थक जाते, तो बीच राह में उतर जाते। सस्ते से किसी ढाबे में कुछ खाने और उससे ज्यादा बातें करने।

हूं, याद आया उस कॉफी का टेस्ट। कड़वी कॉफी। उसके भी हम सत्रह रुपए चुकाते थे, लेकिन ग़ज़ब की दोस्ती निभाई। हम घंटों उसी सहारे तो जमे रहते थे। और चाय भी तो…किचन में तुम घुसतीं और मैं बुलाता—सुनो, लिपटन की चाह है क्या? तुम तुनकतीं—दादा कोंडके मत बनो, समझे।

कैसी-कैसी तो बेगैरत रातें थीं। जब आतीं, तो सता जातीं। सारी रात मोबाइल पर…पता नहीं कैसी-कैसी बातें। मूवीज़, लिट्रेचर, पोएट्री, मंटो-किशोर कुमार…ग़ज़ब-ग़ज़ब के कॉम्बिनेशन, ना ओर ना छोर…लेकिन तुम भी ना…आई लव यू नहीं बोला बस। लगातार डिस्चार्ज होती बैट्री और सॉकेट में चार्जर लटकाकर बस बातें करते जाना। यार-दोस्त पूछते भी—क्या बातें करते हो तुम दोनों? क्या जवाब देता उन्हें?

हमारी शादी नहीं हुई। चलो, अच्छा ही हुआ। नहीं क्या? हो जाती, तो तुम मेरे ड्रेसिंग सेंस पर खूब चुटकुले सुनाती। कमेंट्स पास करतीं…लेकिन ऐसा क्यों कहूं…तुमने ही तो मुझे बताया था—कपड़े सुंदर नहीं होते, इंसान होता है। मैं खुद को गांव वाला कहता और तुम हंस पड़तीं—बहुत चालू हो। ये सब इमोशनल ब्लैकमेलिंग है बस्स। थैंक्यू बोलूं क्या? सॉरी-सॉरी, यूं ही मुंह से निकल गया। पिटने का मेरा कोई इरादा नहीं है।

एक कन्फेशन करूं। तुम्हारे जाने के बाद मुझे फिर प्यार हो गया है। नहीं-नहीं, कुछ ऐसा-वैसा मत सोचना। तुम्हारी यादों से प्यार कर बैठा हूं यार। खूब रोया, मिस करता रहा। अक्सर फेसबुक प्रोफाइल पर जाकर देखता हूं तुम्हें। मोबाइल में साल भर पुरानी तुम्हारी मिस्ड कॉल्स पड़ी हैं। उन्हें देखता हूं, तारीख़ वाले कोने पर से झट आंख भर हटा लेता हूं। सोचता हूं—कल ही तो तुमसे बातें हुईं थी रात भर।

तुम नहीं हो। तारीखें गुज़रती जा रही हैं। सच बोलूं, तो ज़िंदगी के बारे में सोचते ही जी कहता है…हूं…कुछ तो है जो अपनी-सी रफ्तार से गुज़र रहा है। कितनी ही प्रेम-पातियां लिखीं तुम्हारे लिए पर कभी पोस्ट नहीं कीं, ज़रूरत ही नहीं पड़ी। अब पता है, तुम्हें भेज सकता हूं, लेकिन कहां…कोई ठिकाना नहीं, जहां कोई रिसीव कर ले ये लेटर्स…। फिलहाल, चिट्ठियां बैरंग हैं, इन पर नेह का टिकट लगाया नहीं जा सका। अब जिसे भी मिलेंगी, वो मेरी नहीं है, कह के लौटा ही तो देगा…।

ऐसे हाल में कुछ तो सलाह दो। शायद फूट-फूटकर रोना चाहिए, लेकिन मैं अक्सर हंस पड़ता हूं। कल ही खूब हंसी आई। तुम्हारी बॉलकनी के नीचे से गुज़रते हुए ऊपर निगाह डाली। तुम नहीं थीं वहां, तभी किसी ने पुकारा। पता है—चाय वाला था। हमने बहुत से कप भर-भरकर चाय पी थी ना वहां। कुल 115 रुपए का हिसाब बना था। ख़ैर, मैंने दे दिए हैं। अब बकाया नहीं है। वैसे ही, तुम पर भी मेरा कुछ शेष नहीं है। हम दोनों चुका चुके हैं, जो कुछ लेन-देन था। हां, प्यार नहीं चुका। उसे चुकने भी ना देना। हर बार प्यार का मतलब साथ तो नहीं होता…और फिर साथ तो हम हैं ही। जिस्म की भला क्या बिसात…दूर है तो दूर सही…।

सिर्फ एक दिन प्यार करें !

वेलैंटाइन डे (14फरवरी) पर विशेषः

-संजय द्विवेदी

क्या प्रेम का कोई दिन हो सकता है। अगर एक दिन है, तो बाकी दिन क्या नफरत के हैं ? वेलेंटाइन डे जैसे पर्व हमें बताते हैं कि प्रेम जैसी भावना को भी कैसे हमने बांध लिया है, एक दिन में या चौबीस घंटे में। पर क्या ये संभव है कि आदमी सिर्फ एक दिन प्यार करे, एक ही दिन इजहार-ए मोहब्बत करे और बाकी दिन काम का आदमी बना रहे। जाहिर तौर पर यह संभव नहीं है। प्यार एक बेताबी का नाम है, उत्सव का नाम है और जीवन में आई उस लहर का नाम है जो सारे तटबंध तोड़ते हुए चली जाती है। शायद इसीलिए प्यार के साथ दर्द भी जुड़ता है और शायर कहते हैं दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।

प्रेम के इस पर्व पर आंखों का चार होना और प्रेम प्रस्ताव आज एक लहर में बदल रहे हैं। स्कूल-कालेजों में इसे खासी लोकप्रियता प्राप्त है। इसने सही मायने में एक नई दुनिया रच ली है और इस दुनिया में नौजवान बिंदास घूम रहे हैं और धूम मचा रहे है। भारतीय समाज में प्रेम एक ऐसी भावना है जिसको बहुत आदर प्राप्त नहीं है। दो युवाओं के मेलजोल को अजीब निगाह से देखना आज भी जारी है। हमारी हिप्पोक्रेसी या पाखंड के चलते वेलेंटाइन डे की लोकप्रियता हमारे समाज में इस कदर फैली है। शायद भारतीय समाज में इतने विधिनिषेध और पाखंड न होते तो वेलेंटाइन डे जैसे त्यौहारों को ऐसी सफलता न मिलती। किंतु पाखंड ने इस पर्व की लोकप्रियता को चार चांद लगा दिए हैं। भारत की नौजवानी अपने सपनों के साथ जी रही है किंतु उसका उत्सवधर्मी स्वभाव हर मौके को एक खास इवेंट में बदल देता है। प्रेम किसी भी रास्ते आए उसका स्वागत होना चाहिए। वेलेंटाइन एक ऐसा ही मौका है , आपकी आकांक्षाओं और सपनों में रंग भरने का दिन भी। सेंट वेलेंटाइन ने शायद कभी सोचा भी न हो कि भारत जैसे देश में उन्हें ऐसी लोकस्वीकृति मिलेगी।

बाजार में त्यौहारः

वेलेंटाइन के पर्व को दरअसल बाजार ने ताकत दी है। कार्ड और गिफ्ट कंपनियों ने इसे रंगीन बना दिया है। भारत आज नौजवानों का देश है। इसके चलते यह पर्व एक अद्भुत लोकप्रियता के शिखर पर है। नौजवानों ने इसे दरअसल प्रेम पर्व बना लिया है। इसने बाजार की ताकतों को एक मंच दिया है। बाजार में उपलब्ध तरह-तरह के गिफ्ट इस पर्व को साधारण नहीं रहने देते, वे हमें बताते हैं कि इस बाजार में अब प्यार एक कोमल भावना नहीं है। वह एक आतंरिक अनूभूति नहीं है वह बदल रहा है भौतिक पदार्थों में। वह आंखों में आंखें डालने से महसूस नहीं होता, सांसों और धड़कनों से ही उसका रिश्ता नहीं रहा, वह अब आ रहा है मंहगे गिफ्ट पर बैठकर। वह महसूस होता है महंगे सितारा होटलों की बिंदास पार्टियों में, छलकते जामों में, फिसलते जिस्मों पर। ये प्यार बाजार की मार का शिकार है। उसे और कुछ चाहिए, कुछ रोचक और रोमांचक। उसकी रूमानियत अब पैसे से खिलती है, उससे ही दिखती है। यह हमें बताती है कि प्यार अब सस्ता नहीं रहा। वह यूं ही नहीं मिलता। लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की बातें न कीजिए, यह प्यार बाजार के उपादानों के सहारे आता है, फलता और फूलता है। इस प्यार में रूह की बातें और आत्मा की रौशनी नहीं हैं, चौधिंयाती हुयी सरगर्मियां हैं, जलती हुयी मोमबत्तियां हैं, तेज शोर है, कानफाड़ू म्यूजिक है। इस आवाज को दिल नहीं, कान सुनते हैं। कानों के रास्ते ये आवाज, कभी दिल में उतर जाए तो उतर जाए।

इस दौर में प्यारः

इस दौर में प्यार करना मुश्किल है और निभाना तो और मुश्किल। इस दौर में प्यार के दुश्मन भी बढ़ गए हैं। कुछ लोगों को वेलेंटाइन डे जैसे पर्व रास नहीं आते। इस अवसर पर वे प्रेमियों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं। देश में अनेक संगठन चाहते हैं कि नौजवान वेलेंटाइन का पर्व न मनाएं। जाहिर तौर पर उनकी परेशानियों हमारे इसी पाखंड पर्व से उपजी हैं। हमें परेशानी है कि आखिर कोई ऐसा त्यौहार कैसे मना सकता है जो प्यार का प्रचारक है। प्यार के साथ आता बाजार इसे प्रमोट करता है, किंतु समाज उसे रोकता है। वह चाहता है संस्कृति अक्षुण्ण रहे। संस्कृति और प्यार क्या एक-दूसरे के विरोधी हैं ? प्यार, अश्ललीलता और बाजार मिलकर एक नई संस्कृति बनाते हैं। शायद इसीलिए संस्कृति के रखवाले इसे अपसंस्कृति कहते हैं। सवाल यह है कि बंधन और मिथ्याचार क्या किसी संस्कृति को समर्थ बनाते हैं ? शायद नहीं। इसीलिए नौजवान इस विधि निषेधों के खिलाफ हैं। वे इसे नहीं मानते, वे तोड़ रहे हैं बंधनों को। बना रहे हैं अपनी नई दुनिया। वे इस दुनिया में किसी के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं। वे चाहते हैं प्यार जिए और सलामत रहे। प्यार की जिंदाबाद लगे। बाजार उनके साथ है। वह रंग भर रहा है, उन्हें प्यार के नए फलसफे समझा रहा है। प्यार के नए रास्ते बता रहा है। इस नए दौर का प्यार भी क्षणिक है ,वह एक दिन का प्यार है। इसलिए वन नाइट स्टे एक हकीकत बनकर हमें मुंह चिढ़ा रहा है। ऐसे में रास्ता क्या है ? सहजीवन जब सच्चाई में बदल रहा हो। महानगर अकेले होते इंसान को इन रास्तों से जीना सिखा रहे हों। एक वर्चुअल दुनिया रचते हुए हम अपने अकेले होने के खिलाफ खड़े हो रहे हों तो हमारा रास्ता मत रोकिए। यह हमारी रची दुनिया भले ही क्षणिक और आभासी है, हम इसी में मस्त-मस्त जीना चाहते हैं। नौजवान कुछ इसी तरह से सोचते हैं। प्यार उनके लिए भार नहीं है, जिम्मेदारी नहीं है, दायित्व नहीं है, एक विनिमय है। क्योंकि यह बाजार का पैदा किया हुआ, बाजार का प्यार है और बाजार में कुछ स्थाई नहीं होता। इसलिए उन्हें झूमने दीजिए, क्योंकि इस कोलाहल में वे आपकी सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्हें पता है कि आज वेलेंटाइन डे है, कल नई सुबह होगी जो उनकी जिंदगी में ज्यादा मुश्किलें,ज्यादा चुनौतियां लेकर आने वाली है- इसलिए वे कल के इंतजार में आज की शाम खराब नहीं करना चाहते। इसलिए हैप्पी वेलेंटाइन डे।

एक प्रेमी के नोट्स

चण्डीदत्त शुक्ल

प्यार ना प्यास है, ना पानी। ना फानी है, ना रूहानी। मिठास है, तो कड़वाहट भी। बेचैनी है तो राहत भी। पहला प्यार अक्सर भोला होता है। भले ही उम्र पंद्रह की हो या फिर पचपन की। कैसे-कैसे अहसास भी तो होते हैं पहले प्यार में। एक प्रेमी के नोट्स पढिए, इस वैधानिक चेतावनी के साथ-इनसे इश्क का इम्तिहान हल नहीं होगा, क्योंकि हर बार नए सवाल पैदा होते हैं-

संयोग के दिन

तुमसे मिलने के बाद पहला जाड़ा

सुबह के चार बजे हैं। बाहर तेज हवा चल रही है, फिर भी खिड़कियों पर टंगे परदे हिल नहीं रहे। थमे हैं। सन्नाटा अक्सर रह-रहकर शोर के आगोश में गुम हो जाता है। तेज हवा का शोर। दरवाजा खटखटाए बिना ठंड कमरे में घुस आई है पर मैं तो गर्म हूं…एक शोर मुझमें भी है। सीना धक-धक के साथ गूंजता है पर रजाई पुरानी पड़ जाने के बाद भी सर्दी नहीं लग रही। कल शाम तुम्हारी हथेलियों में जकड़ा मेरा दाहिना हाथ अब तक तप रहा है, जैसे!

लाल रंग का वो छोटा-सा छाता

सुबह से बारिश हो रही है। मैं भीग रहा हूं एक बस स्टैंड की ओट में खड़े होकर। कपड़े सब सूखे हैं पर अंदर कहीं कुछ बहुत गीला हो चुका है। यकायक घड़ी देखता हूं- तीन बज चुके हैं। तुम जाने वाली होगी। मैं भागता हूं। फिसलता हूं। कीचड़ में गिर गया हूं मैं और अब मिट्टी से लबालब। हाथों से अपना चेहरा पोंछने की नाकामयाब कोशिश करता हूं। मिट्टी महक रही है, तुम्हारे बालों में लगे चमेली के तेल सी। मेरा दौड़ना जारी है और घड़ी की सुइयों का भी। सवा तीन बज चुके हैं। तुम्हारी बस रेंगने लगी है। खिड़की से झांकतीं तुम्हारी लालची आंखें। तुम हाथ बढ़ाती हो और थमा देती हो—एक छोटी-सी लाल रंग की छतरी!

नहीं आता था पतझड़

पेड़ को छोड़ रिस रहा है एक-एक पत्ता-पत्ता। दरख्त ठूंठ बन चुके हैं, लेकिन मैं यकायक लहलहा उठा हूं। घर के सामने एक पीपल का पेड़ है। वो मुझे बुलाता है, उसे मैं छूता हूं और लगता है-तुम्हारी खुरदरी एडियों से एक लता फूटी है और मेरे इर्द-गिर्द लिपट गई है। तुम हंसती हो—बस, तुम यूं ही जड़ बने रहना।

लो मिल लो, ये हैं श्रीमान वसंत…

छोटा-सा स्टूल है और बेशुमार चिट्ठियां हैं। शायद पांच-सात साल पुरानी। बार-बार पढ़ रहा हूं। एक-एक चिटी लगता है, तुमने ही लिखी है। रात नागफनी का गमला खिड़की के बगल रखा है, उसमें खिल गई है गुलाब की कली।

जाती हुई रात, आ रहे सूरज के घोड़े

गर्मी आ गई है पर दिन भर ही रहती है। रातें उमस भरी ठंडी हैं। भोर के पांच बजे हैं और मैं तुम्हारे घर के पास लगे लैंपपोस्ट के नीचे मौजूद हूं। ना सूरज उगा है, ना चांद ढल सका है। लैंपपोस्ट का बल्ब भी टिमटिमा रहा है। आसमान पर जाती हुई रात की लाल-लाल डोरों वाली आंखें हैं और धीरे-धीरे सुनाई देने लगी है सूर्य के घोड़ों के चलने की आवाजें। अलसाई आंखों के इशारे से जैसे घर का दरवाजा हटाती हो तुम… कुछ झुंझलाई हुई सी।

वियोग की रातें…

जाने के बाद का जाड़ा

दोपहर आने को है। सुबह कई महीनों से नहीं देखी। हाथों से सिगरेट के कई बरबाद टोटों की महक आ रही है। नुक्कड़ पर अलाव जल रहा है। सोचता हूं—हाथ सेंक लूं। तुम पूछोगी कि फिर से सिगरेट पी, तो बहाना बनाऊंगा—नहीं, अलाव पर हाथ रखे थे। … पर तुम तो हो नहीं। यकायक, थरथराने लगा हूं। नसें ज्यूं जम रही हैं। खड़े-खड़े गल जाता हूं।

पिघलती हुई रूह

यह वही शहर है, जहां हम मिले। टिन की छत पर बहुत बड़ी-बड़ी बूंदें गिर रही हैं। बाहर आ जाता हूं, भीगने का मन है। तुम नहीं, तो गम नहीं, अकेले ही भीग लूंगा…पर कर नहीं पाता। बूंदें ज्यादा बड़ी हैं। सिर पर टप-टप गिर रही हैं। कानों में हवा भर रही है। सांस फूल जाती है और मैं भीगा हुआ लबालब घर के अंदर हूं…इस दफा कपड़े भीगे हैं पर मन भभक रहा है, धुआं बहुत ज्यादा नहीं हो गया क्या…और ताजा हवा बिल्कुल नहीं।

पतझड़ और वसंत की दोस्ती

वसंत बहुत दिन से नहीं आया। दगाबाज है। किसकी तरह पता नहीं। शायद हम दोनों जैसा ही साबित हुआ। उसने पतझड़ से दोस्ती कर ली है। तुमने मचलती हुई उंगलियों से धनिया के बीज रोपे थे और नींबू का पौधा लगाया था। खट्टा-खट्टा कितना अच्छा लगता था हम दोनों को। ब्रेड पकौड़े अब भी बनते हैं बुतरू की दुकान पर, लेकिन तुम्हें पता है—हमारे घर के पिछवाड़े की धनिया और नीबू, दोनों सूख चुके हैं।

जल जाऊंगा, थोड़ा-सा पानी है क्या

उमस बहुत है। सांस लेनी भारी लग रही है। लगता है—कोयले की भटी से निकली राख सीने में अटक गई है। कोला में बर्फ डालकर शराबी होने की नाकामयाब कोशि श कर रहा हूं…बेकार है, बेअसर है। गोलगप्पे भी ताजा नहीं कर पा रहे, पुदीना भी नहीं। तुम आओगी क्या…होंठों के एकदम करीब, बस अपनी सांसों से मेरी आंखों में फूंक मार देने के लिए देखो, नाराज ना होना। किचन में फुल क्रीम दूध का पूरा पैकेट पड़ा है और तुम्हारी पसंदीदा लिपटन की चाय भी। हा हा हा। खैर, ना हो तो एक ग्लास पानी ही दे दो। जल रहा हूं।

सात प्रेम कविताएँ

1

चुपके से

मैं तो चाहता था

सदा शिशु बना रहना

इसीलिए

मैंने कभी नहीं बुलाया

जवानी को

फिर भी

वह चली आई

चुपके से

जैसे

चला आता है प्रेम

हमारे जीवन में

अनजाने ही

चुपके से

2

प्रथम प्रेम

इंसान को

कितना कुछ बदल देता है

प्रथम प्रेम

उमंग और उत्साह लिए

लौट जाता है वह

बचपन की दुनिया में

कुछ सपने लिए…

दिन, महीने ,वर्ष

काट देता है

कुछ पलों में

कुछ वायदे लिए…

बेचैन रहता है

उसे पूरा करने के लिए

झूठ बोलता है

विरोध करता है

विद्रोह करने के लिए भी

तत्पर रहता है

सूख का एक कतरा लिए…

घूमता रहता है

सहेज कर उसे

अपने प्रियतम के लिए

हाँ,

सचमुच!

बावरा कर देता है

इंसान को प्रथम प्रेम।

3

याद

वैशाख के दोपहर में

इस तरह कभी छांव नहीं आता

प्यासी धरती की प्यास बुझाने

न ही आते हैं

इस तरह

शीतल फुहारों के साथ मेघ

इस तरह

श्‍मशान में शांति भी नहीं आती

मौत का नंगा तांडव करते

इस तरह

अचानक!

शरद में शीतलहरी भी नहीं आती

कलेजा चाक कर दे इंसान का

हमेशा के लिए

ऐसा ज़लज़ला भी नहीं आता

इस तरह

चुपचाप

जिस तरह

आती है तुम्हारी याद

उस तरह

कुछ भी नहीं आता

4

झूठ

जी भर के निहारा

सराहा खूब

मेरी सीरत को

छुआ, सहलाया और पुचकारा

मेरे सपनों को

जब मैं डूब गया

तुम्हारे दिखाये सपनों के सागर में

मदहोशी की हद तक

तब अचानक!

तुम्हारा दावा है

तुमने नहीं दिखाये सपने

क्या तुम

बोल सकती हो

कोई इससे बड़ा झूठ ?

5

बदल गये रिश्‍ते

पहले

मैं मछली था

और तुम नदी

पर अब हम

नदी के दो किनारे हैं

एक-दूसरे से

जुड़े हुए भी

और

एक-दूसरे से

अलग भी

6

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद

पता नहीं

मेरी आखों को क्या हो गया है

हर वक्त तुम्हीं को देखती हैं

घर का कोना-कोना

काटने को दौड़ता है

घर की दीवारें

प्रतिध्वनियों को वापस नहीं करतीं

घर तक आने वाली पगडंडी

सामने वाला आम का बगीचा

बगल वाली बांसवाड़ी

झाड़-झंकाड़

सरसों के पीले-पीले फूल

सब झायं-झायं करते हैं

तुम्हारी खुशबू से रची-बसी

कमरे के कोने में रखी कुर्सी

तुम्हारी अनुपस्थिति से

उत्पन्न हुई

रीतेपन के कारण

आज भी उदास है

भोर की गाढ़ी नींद भी

हल्की-सी आहट से उचट जाती है

लगता है

हर आहट तुम्हारी है

लाख नहीं चाहता हूँ

फिर भी

तुमसे जुड़ी चीजें

तुम्हें

दुगने वेग से

स्थापित करती हैं

मेरे मन-मस्तिष्क में

तुम्हारे खालीपन को

भरने से इंकार करती हैं

कविताएँ और कहानियाँ

संगीत तो

तुम्हारी स्मृति को

एकदम से

जीवंत ही कर देता है

क्या करुं

विज्ञान, नव प्रौद्यौगिकी, आधुनिकता

कुछ भी

तुम्हारी कमी को

पूरा नहीं कर पाते

7

मेरा प्यार

मेरा प्यार

कोई तुम्हारी सहेली तो नहीं

कि जब चाहो

तब कर लो तुम उससे कुट्टी

या कोई

ईष निंदा का दोषी तो नहीं

कि बिना बहस किए

जारी कर दिया जाए

उसके नाम मौत का फतवा

या फिर

कोई मिट्टी का खिलौना तो नहीं

कि हल्की-सी बारिश आए

और गलकर खो दे वह अपनी अस्मिता

या कोई सूखी पत्तियां तो नहीं

कि छोटी-सी चिंगारी भड़के

और हो जाए वह जलकर खाक

मेरा प्यार

सच पूछो तो

तुम्हारी मोहताज नहीं

तुम्हारे बगैर भी है वह

क्योंकि

मैंने कभी

तुम्हें केवल देह नहीं समझा

मेरे लिए

देह से परे

कल भी थी तुम

और आज भी हो

मेरा प्यार

इसलिए जिएगा सर्वदा

तुम्हारे लिए

तुम्हारे बगैर भी

उसी तरह

जिस तरह

जी रही है

कल-कल करती नदी।

– सतीश सिंह

आदिवासियों का प्रणय पर्व भगोरिया

सतीश सिंह

आधुनिकता का लबादा ओढ़कर हम धीरे-धीरे अपनी सभ्यता, संस्कृति, परम्परा और पहचान को भूलने लगे हैं। जबकि हमारे रीति-रिवाज हमारे लिए संजीविनी की तरह काम करते हैं। हम इनमें सराबोर होकर फिर से उर्जस्वित हो जाते हैं और पुन: दूगने रफ्तार से अपने दैनिक क्रिया-कलापों को अमलीजामा पहनाने में अपने को सक्षम पाते हैं।

फाल्गुन महीने में ठीक होली से पहले मध्यप्रदेष के झाबुआ जिले और उसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी प्रणय पर्व ‘भगोरिया’ को पूरे जोश-खरोश के साथ मस्ती एवं आनंद में डूबकर मनाते हैं। इस समुदाय के बीच में बाजार को हाट कहा जाता है, जो एक निश्चित अंतराल पर लगता है। इस हाट में इनके जरुरत की हर वस्तु उपलब्ध रहती है। भगोरिया पर्व का इस हाट से अटूट संबंध है। क्योंकि इस पर्व की शुरुआत फाल्गुन महीने में लगने वाले अंतिम हाट वाले दिन से होता है।

लगभग सात दिन तक चलने वाले इस पर्व में जबर्दस्त धूम-धाम रहती है। उस क्षेत्र में अवस्थित सभी गांव व कस्बे से आकर आदिवासी इस पर्व में शामिल होते हैं। युवाओं के बीच अच्छा-खासा उत्साह रहता है। उनकी मस्ती देखने लायक रहती है।

हाट में हर प्रकार के अस्थायी दुकान लगे रहते हैं। पान, गुलाल और शृंगार के दुकानों में खूब चहल-पहल रहती है। युवाओं के वस्त्र भड़कीले और अपने प्रियतम या प्रियतमा को आकर्षित करने वाले होते हैं।

मुँह में पान का बीड़ा या हाथों में कुल्फी का मजा लेते हुए युवक-युवतियों तथा किषोर-किशोरियों को आप आसानी से हाट में देख सकते हैं। पूरा माहौल हँसी-ठिठोली व मस्तीभरा रहता है। आदिवासी बालाओं से छेड़खानी करने वाले आदिवासी युवाओं को इस कृत्य के लिए कोई सजा नहीं दी जाती है। कोई इसे बुरा नहीं मानता है। सबकुछ उनके रीति-रिवाज का हिस्सा होता है।

रंग और गुलाल से लोग इस कदर एक-दूसरे को रंग देते हैं कि कोई पहचान में नहीं आता है। संगीत तथा लोक नृत्य का समां इस तरह से बंधता है कि सभी मौज-मस्ती, उमंग एवं उल्लास में अलमस्त हो जाते हैं।

व्यापक स्तर पर मिठाई व नमकीन खरीदी जाती है। घर में पकवान बनाए जाते हैं। खुले मैदान में बैठकर मांस व मदिरा का भी सेवन किया जाता है।

आदिवासियों के लिए इस पर्व की महत्ता अतुलनीय है। इस पर्व में अपनी सहभागिता के लिए दूसरे प्रदेश में या दूर-दराज में रहने वाले आदिवासी भी अपने गांव व कस्बे लौट जाते हैं।

दरअसल इस पर्व में जीवन साथी का चयन किया जाता है। इसलिए इस पर्व का महत्व बेषकीमती है। युवा सज-धजकर उसे पान का बीड़ा खिलाते हैं, जिसे वे अपना हमसफर बनाना चाहते हैं। यदि कोई युवती पान का बीड़ा खाने के तैयार हो जाती है तो माना जाता है कि वह विवाह के लिए तैयार है।

इस मूक सहमति के बाद दोनों अपने घर से भाग जाते हैं। आमतौर पर कोई इसका प्रतिवाद नहीं करता है। फिर भी परिवार द्वारा विरोध जताये जाने की स्थिति में पंचों के हस्तक्षेप के बाद ही उनका विवाह सम्भव हो पाता है।

पान का बीड़ा खिला कर अपने प्रेम का इजहार करने के अलावा इस आदिवासी समुदाय में अपने प्रेमिका को चूड़ी पहनाकर भी अपने प्रेम को दर्शाने का चलन है। अगर किसी युवती को कोई युवक चूड़ी पहना देता है तो माना जाता है कि वह उसकी पत्नी बन गई।

गौरतलब है कि 4-5 सालों से इस पर्व के प्रति आदिवासियों की उदासीनता स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर हो रही है। भगोरिया हाट के प्रति आदिवासियों का रुझान कम हो चुका है। दूसरे प्रदेश में रहकर अपनी जीविका का निर्वाह करने वाले इस समुदाय के सदस्य इस पर्व के अवसर पर अपने पैतृक गाँव व कस्बे आने से परहेज करने लगे हैं।

इतना ही नहीं अब आदिवासी युवा इन पध्दतियों से विवाह करने में हीनता महसूस करने लगे हैं। उनको लगता है कि वे अधतन जमाने के साथ कदम-से-कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं।

पर यहाँ विडम्बना यह है कि इस तरह की सोच उनको खुद अपने जड़ों से अलग कर रहा है, बावजूद इसके उनको धीरे-धीरे अपने मरने का अहसास नहीं हो पा रहा है।