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वेलेंटाइन डे का सच

विजय कुमार

बाजार भी बड़ी अजीब चीज है। यह किसी को भी धरती से आकाश या आकाश से धरती पर पहुंचा देता है। यह उसकी ही महिमा है कि भ्रष्टाचारी नेताओं को अखबार के पहले पृष्ठ पर और समाज सेवा में अपना जीवन गलाने वालों को अंदर के पृष्ठों पर स्थान मिलता है। बाजार के इस व्यवहार ने गत कुछ सालों से एक नये उत्सव को भारत में लोकप्रिय किया है। इसका नाम है वेलेंटाइन दिवस।

हर साल 14 फरवरी को मनाये जाने वाले इस उत्सव के बारे में बताते हैं कि लगभग 1,500 साल पहले रोम में क्लाडियस दो नामक राजा का शासन था। उसे प्रेम से घृणा थी; पर वेलेंटाइन नामक एक धर्मगुरु ने प्रेमियों का विवाह कराने का काम जारी रखा। इस पर राजा ने उसे 14 फरवरी को फांसी दे दी। तब से ही यह ‘वेलेंटाइन दिवस’ मनाया जाने लगा।

लेकिन यह अधूरा और बाजारी सच है। वास्तविकता यह है कि ये वेलेंटाइन महाशय उस राजा की सेना में एक सैनिक थे। एक बार विदेशियों ने रोम पर हमला कर दिया। इस पर राजा ने युद्धकालीन नियमों के अनुसार सब सैनिकों की छुट्टियां रद्द कर दीं; पर वेलेंटाइन का मन युद्ध में नहीं था। वह प्रायः भाग कर अपनी प्रेमिका से मिलने चला जाता था। एक बार वह पकड़ा गया और देशद्रोह के आरोप में इसे 14 फरवरी को फांसी पर चढ़ा दिया गया। समय बदलते देर नहीं लगती। बाजार के अर्थशास्त्र ने इस युद्ध अपराधी को संत बना दिया।

दुनिया कहां जा रही है, इसकी चिंता में दुबले होने की जरूरत हमें नहीं है; पर भारत के युवाओं को इसके नाम पर किस दिशा में धकेला जा रहा है, यह अवश्य सोचना चाहिए। भारत तो वह वीर प्रसूता भूमि है, जहां महाभारत युद्ध के समय मां विदुला ने अपने पुत्र संजय को युद्ध से न भागने का उपदेश दिया था। कुन्ती ने अपने पुत्रों को युद्ध के लिए उत्साहित करते हुए कहा था –

यदर्थं क्षत्रियां सूते तस्य कालोयमागतः

नहि वैरं समासाक्ष्य सीदन्ति पुरुषर्षभाः।। (महाभारत उद्योग पर्व)

(जिस कारण क्षत्राणियां पुत्रों को जन्म देती हैं, वह समय आ गया है। किसी से बैर होने पर क्षत्रिय पुरुष हतोत्साहित नहीं होते।)

भारत की एक बेटी विद्युल्लता ने अपने भावी पति के युद्धभूमि से लौट आने पर उसके सीने में कटार भौंक कर उसे दंड दिया और फिर उसी से अपनी इहलीला भी समाप्त कर ली थी। गुरु गोविंद सिंह जी के उदाहरण को कौन भुला सकता है। जब चमकौर गढ़ी के युद्ध में प्यास लगने पर उनके पुत्र किले में पानी पीने आये, तो उन्होंने दोनों को यह कहकर लौटा दिया कि वहां जो सैनिक लड़ रहे हैं, वे सब मेरी ही संतानें हैं। क्या उन्हें प्यास नहीं लगी होगी ? जाओ और शत्रु के रक्त से अपनी प्यास बुझाओ। इतिहास गवाह है कि उनके दोनों बड़े पुत्र अजीतसिंह और जुझारसिंह इसी युद्ध में लड़ते हुए बलिदान हुए।

हाड़ी रानी की कहानी भी हम सबने पढ़ी होगी। जब चूड़ावत सरदार का मन युद्ध में जाते समय कुछ विचलित हुआ, तो उसने रानी से कोई प्रेम चिन्ह मंगवाया। एक दिन पूर्व ही विवाह बंधन में बंधी रानी ने अविलम्ब अपना शीश काट कर भिजवा दिया। प्रसिद्ध गीतकार नीरज ने अपने एक गीत ‘थी शुभ सुहाग की रात मधुर…. ’ में इस घटना को संजोकर अपनी लेखनी को धन्य किया है।

ऐसे ही तानाजी मालसुरे अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण देने जब शिवाजी के पास गये, तो पता लगा कि मां जीजाबाई ने कोंडाणा किले को जीतने की इच्छा व्यक्त की है। बस, ताना जी के जीवन की प्राथमिकता निश्चित हो गयी। इतिहास बताता है कि उस किले को जीतते समय, वसंत पंचमी के पावन दिन ही तानाजी का बलिदान हुआ। शिवाजी ने भरे गले से कहा ‘गढ़ आया पर सिंह गया’। तबसे ही उस किले का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया।

करगिल का इतिहास तो अभी ताजा ही है। जब बलिदानी सैनिकों के शव घर आने पर उनके माता-पिता के सीने फूल उठते थे। युवा पत्नियों ने सगर्व अपने पतियों की अर्थी को कंधा दिया था। लैफ्टिनेंट सौरभ कालिया की मां ने कहा था, ‘‘मैं अभिमन्यु की मां हूं।’’ मेजर पद्मपाणि आचार्य ने अपने पिता को लिखा था, ‘‘युद्ध में जाना सैनिक का सबसे बड़ा सम्मान है।’’ लैफ्टिनेंट विजयन्त थापर ने अपने बलिदान से एक दिन पूर्व ही अपनी मां को लिखा था, ‘‘मां, हमने दुश्मन को खदेड़ दिया।’’

ये तो कुछ नमूने मात्र हैं। जिस भारत के चप्पे-चप्पे पर ऐसी शौर्य गाथाएं बिखरी हों, वहां एक भगोड़े सैनिक के नाम पर उत्सव मनाना क्या शोभा देता है ? पर उदारीकरण के दौर में अब भावनाएं भी बिकने लगी हैं। महिलाओं की देह की तर्ज पर अब दिल को भी बाजार में पेश कर दिया गया है। अब प्रेम का महत्व आपकी भावना से नहीं, जेब से है। जितना कीमती आपका तोहफा, उतना गहरा आपका प्रेम। जितने महंगे होटल में वेलेंटाइन डिनर और ड्रिंक्स, उतना वैल्यूएबल आपका प्यार। यही है वेलेंटाइन का अर्थशास्त्र।

वेलेंटाइन की इस बहती गंगा (क्षमा करें गंदे नाले) में सब अपने हाथ मुंह धो रहे हैं। कार्ड व्यापारी से लेकर अखबार के मालिक तक, सब 250 रु0 से लेकर 1,000 रु0 तक में आपका संदेश आपकी प्रियतमा तक पहुंचाने का आतुर हैं। होटल मालिक बता रहे हैं कि हमारे यहां ‘केंडेल लाइट’ में लिया गया डिनर आपको अपनी मंजिल तक पहुंचा ही देगा। कीमत सिर्फ 2,500 रु0। प्यार के इजहार का यह मौका चूक गये, तो फिर यह दिन एक साल बाद ही आयेगा। और तब तक क्या भरोसा आपकी प्रियतमा किसी और भारी जेब वाले की बाहों में पहुंच चुकी हो। इस कुसंस्कृति को घर-घर पहुंचाने में दूरदर्शन वाले भी पीछे नहीं हैं। केवल इसी दिन भेजे जाने वाले मोबाइल संदेश (एस.एम.एस तथा एम.एम.एस) से टेलिफोन कम्पनियां करोड़ों रु0 कमा लेती हैं।

वेलेंटाइन से अगले दिन के समाचार पत्रों में कुछ रोचक समाचार भी पढ़ने का हर बार मिल जाते हैं। एक बार मेरठ के रघुनाथ गर्ल्स कालिज के पास जब कुछ मनचलों ने जबरदस्ती छात्राओं को गुलाब देने चाहे, तो पहले तो लड़कियों ने और फिर वहां सादे वेश में खड़े पुलिसकर्मियों ने चप्पलों और डंडों से धुनाई कर उनका वेलेंटाइन बुखार झाड़ दिया। जब उन्हें मुर्गा बनाया गया, तो वहां उपस्थित सैकड़ों दर्शकों ने ‘हैप्पी वेलेंटाइन डे’ के नारे लगाये।

ऐसे ही लखनऊ के एक आधुनिकवादी सज्जन की युवा पुत्री जब रात में दो बजे तक नहीं लौटी, तो उनके होश उड़ गये। पुलिस की सहायता से जब खोजबीन की, तो वह एक होटल के बाहर बेहोश पड़ी मिली। उसके मुंह से आ रही तीखी दुर्गन्ध और अस्त-व्यस्त कपड़े उसकी दुर्दशा की कहानी कह रहे थे। वेलेंटाइन का यह पक्ष भी अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है। इसलिए इस उत्सव को मनाने को आतुर युवा वर्ग को डांटने की बजाय इसके सच को समझायेें। भारत में प्रेम और विवाह जन्म जन्मांतर का अटूट बंधन है। यह एक दिवसीय क्रिकेट की तरह फटाफट प्यार नहीं है।

वैसे वेलेंटाइन का फैशन अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। चंूकि कोई भी फैशन सदा स्थायी नहीं रहता। बाजार की जिस आवश्यकता ने देशद्रोही को ‘संत वेलेंटाइन’ बनाया है, वही बाजार उसे कूड़ेदान में भी फंेक देगा। यह बात दूसरी है कि तब तक बाजार ऐसे ही किसी और नकली मिथक को सिर पर बैठा लेगा। क्योंकि जबसे इतिहास ने आंखें खोली हैं, तबसे बाजार का अस्तित्व है और आगे भी रहेगा। इसलिए विज्ञापनों द्वारा नकली आवश्यकता पैदा करने वाले बाजार की मानसिकता से लड़ना चाहिए, युवाओं से नहीं।

वेलेंटाइन : मैकाले से बड़ी लकीर खीचनी होगी !

आर. एल. फ्रांसिस

मीडिया और बाजार वेलेंटाइन-डे के प्रचार-प्रसार में जुट गए है। आर्थिक मामलों के जानकारों का मानना है कि देश में वेलेंटाइन डे मार्किट 1200 करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर गया था। बढ़त का यह सिलसिला पिछले कई वर्षों से 20 प्रतिशत से भी ज्यादा की दर से बढ़ रहा है। देश की आधी से ज्यादा आबादी युवा है और मंदी के इस दौर में भी इसे आगे बढ़ाने के प्रयासों के तहत ही वेलेंटाइन डे समर्थक इसका विरोध करने वालों को मीडिया की मदद से आम भारतीयों की नजर में खलनायक बनाने में जुटे हुए है।

पिछले कुछ वर्षो से 14 फरवरी वाले दिन भारतीय संस्कृति के कुछ तथाकथित झंडाबरदार धमाचौकड़ी मचाकर खुश होते आ रहे है। आधुनिक सभ्यता की विकृतियों का मुकाबला धमाचौकड़ी मचाकर नहीं किया जा सकता। संसार के सभी धर्म और सुधार आंदोलन स्वच्छंद यौनाचार का समर्थन नहीं करते। लेकिन आज देश के अंदर व्यतिगत स्वातंत्रय और आधुनिकीकरण के नाम पर उच्छृखल जीवनशैली की वकालत करना फैशन बनता जा रहा है। आज भी पूरे विश्‍व में नारी पुरुष संबधों में पवित्रता का आर्दश पूरी तरह मान्य है। परिवारों में टूटन से पश्चिमी समाज में गहन चिंतन हो रहा है।

हाल ही में आए कुछ सर्वो के मुताबिक विवाह के संबध टूटने के मामले लगातार बढ़ रहे है लेकिन सुखद पहलू यह है कि भारत में यह बहूत कम है क्योंकि यहा शादी को जन्मों का रिश्‍ता माना गया है। सर्वे के मुताबिक स्वीडन 54.9 अमेरिका 54.8 ब्रिटेन 42.6 जर्मनी 39.4 फ्रांस 38.3 कनाडा 37.0 भारत 1.1 है। लेकिन आज भारत का मीडिया भारी अन्तर्विरोध में फंसा हुआ है एक तरफ वह रोजाना अनैतिक कार्यो के दुष्टपरिणामों वाले समाचार प्रकाशित एवं प्रसारित करता है वहीं दूसरी और वह नये-नये लव गुरु ढूंढकर फैशन और सेक्स को बेशर्मी के साथ बेचता है। लव से लेकर लिव-इन रिलेशनशिप तक के फायदे गिनाता है।

भारतीय संस्कृति की चिंता करने वालो को यह समझना जरुरी है कि संत वेलेंटाइन अचानक भारत नहीं आ गए। उनको यहां लाने में 150 सालों से ज्यादा का समय लगा है और अब मैकाले को भारत में स्थापित किये जाने के प्रयास किए जा रहे है। हैरानी नहीं होगी कि आने वाले पचास-सौ सालों में मैकाले भी भारतीय युवा पीढ़ी के नायक बन जाए। मैकाले और संत वेलेंटाइन में गहरा रिश्‍ता है। 19 वीं सदी में मैकाले द्वारा भारत को दी गई शिक्षा प्रणाली ही इसकी देन है। 1835 में मैकाले द्वारा जारी मेमो में इस का उल्लेख मिलता है उसका मकसद एक ऐसे समूह का निर्माण करना था जो रक्त और रंग में तो भारतीय हो किंतु रुचि, राय, नैतिकता तथा सूझबूझ में अंग्रेज। वह अपने पिता को लिखे एक पत्र में लिखता है कि ”मैं भारत में एक ऐसी प्रणाली विकसित कर रहा हूं जो ऐसे ‘काले अंग्रेज’ पैदा कर देगी, जो अपनी ही संस्कृति का उपहास उड़ाने में गर्व महसूस करेंगे। वह भारत की प्राचीन सभ्यता को आमूल नष्ट करने में हमारे सहायक होंगे। इसके बाद हम अगर परिस्थितिवश भारत छोड़कर चले भी गए तो यह काले अंग्रेज हमारा काम करते रहेंगे।”

मैकाले के बहनोई चार्ल्स एडवर्ड ट्रेविलियन ने शिक्षा प्रणाली को सम्पूर्ण भारत में फैलाने के लिए पश्चिमी समाज से सहायता की मांग की इसके लाभदायक परिणामों की चर्चा करते हुए उसने कहा कि मैकाले की योजना रंग ला रही है बंगाल में ही संभ्रात बंगाली समुदाय ने इसे अपना लिया है और इस प्रणाली के माध्यम से हम धर्म परिवर्तन के प्रयास किए बिना, धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति तनिक भी छेड़-छाड़ किए बिना सिर्फ अपनी इस शिक्षा प्रणाली के बल पर चर्च के कार्यो को बढ़ाने एवं ईसाइयत का प्रसार करने में सफल होगे। ट्रेविलियन एक उदाहरण देते हुए कहता है कि एक ‘युवा हिन्दू’ जिसने उदार अंग्रेजी शिक्षा पाई थी, अपने परिवार के दबाव में काली मंदिर गया, मैडम काली के सामने अपनी टोपी उतारी, थोड़ा झुका और बोला : ”आ”ाा है महामहोदया सही सलामत है।’

चार्ल्स एडवर्ड ट्रेविलियन अपनी बात स्पष्ट करते हुए आगे कहता है कि शिक्षा प्रणाली अवरोध हटा सकती है लेकिन मिशनरियों को आगे बढ़कर हिन्दू दुर्ग पर कब्जा कर लेना चाहिए। भारत को धर्मातरित लोगों की संख्या से नही मापा जाना चाहिए बल्कि इस बात को समझना चाहिए कि भारत की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी हमारी संस्कृति को आत्मसात कर रही है। मैकाले की जीत के साथ अपसंस्कृति की विजय हुई है हमारे ही लोग अपने प्रचीन मूल्यों, परम्पराओं को ध्वस्त करने में लगे हुए है। आज देश दो भागों में बंटता जा रहा है एक वो है जिनके आदर्श पश्चिमी नायक है दूसरी तरफ वह है जो आज भी वैदिक भारत, उपनिषदों के दर्शन, और अपने प्राचीन ग्रथों से प्ररेणा पाते है।

एक सोची समझी साजिश के तहत राष्ट्रीय मूल्यों की वकालत करने वालों को साम्प्रदायिक और सर्कीण मानसिकता का घोषित किया जा रहा है। जबकि कई देश अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कठोर कदम उठा रहे है इसी वर्ष रुसके बेल्गोरादराज्य के प्रशासन ने ‘वेलेंटाइन डे’ मानने पर रोक लगा दी है। रुसी संवाद समिति के हवाले से रुस सरकार ने कहा है कि इस तरह के त्योहारों से युवाओं में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रोत्साहन नही मिलता इसलिए सरकार ने इस पर रोक लगाने का निर्णय लिया है। पश्चिमी सभ्यता को अपनाने की होड़ में हमारे कथित आधुनिकतावादियों का सारा जोर इस बात पर लग रहा है कि भले ही हमारे अपने राष्ट्र नायक ‘संत कबीर, तुलसी, गुरुनानक, बुद्व, मीरा, विवेकानंद आदि विस्मृत हो जाए संत वेलेंटाइन लोगों के दिमाग में रहने चाहिए, इन्हें कौन रोक सकता है। इसका अंदाजा आज आप भारतीय मीडिया के प्रचार-प्रसार के तरीके को देखकर खुद लगा सकते है। हमें इस बात का संतोष होना चाहिए कि आज भी देश का एक बड़ा वर्ग राष्ट्रीय मूल्यों को बनाये रखने के प्रति प्रतिबद्व है। राष्ट्रीय मूल्यों की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए और इसकी रक्षा हिंसक तरीकों से नही की जा सकती। पश्चिमी सभ्यता का मुकबला करने के लिए हमें मैकले से बड़ी लकीर खींचनी होगी।

उत्तर प्रदेश में छिड़ी सत्ता हथियाने की जंग

निर्मल रानी

देश का सबसे घना राज्य उत्तर प्रदेश संभवत: 2012 में विधानसभा के आम चुनावों का सामना करेगा। ज़ाहिर है इन चुनावों में सत्तारुढ़ बहुजन समाज पार्टी जहां अपने आप को सत्ता में कायम रखने के लिए साम-दाम,दंड-भेद सरीखे सारे उपायों को अपनाना चाहेगी वहीं राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टियां कांग्रेस,समाजवादी पार्टी तथा भारतीय जनता पार्टी भी बहुजन समाज पार्टी को सत्ता से बेदखल किए जाने के अपने प्रयासों में कोई कसर बाकी नहीं रहने देना चाहेंगी। बसपा प्रमुख एवं राज्य की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने जन्मदिन के अवसर पर तमाम लोकलुभावनी योजनाएं उद्घोषित कर इस बात की ओर इशारा कर दिया है कि स्वयं को सत्ता में वापस लाने के लिए यदि उन्हें राजकीय कोष खाली भी करना पड़ जाए अथवा प्रदेश को भारी कर्ज़ के बोझ तले दबना भी पड़े तो भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। इससे एक बात और भी ज़ाहिर होती है कि चुनाव की घोषणा होने से पूर्व मायावती अभी ऐसी कई घोषणाएं कर सकती हैं जो राज्य में उनकी व उनकी पार्टी की लोकप्रियता को और परवान चढ़ाएं।

राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों से पूर्व बहुजन समाज पार्टी ने अपना मीडिया हाऊस भी शुरु कर दिया है। पार्टी अब अपना दैनिक समाचार पत्र भी प्रकाशित करने जा रही है। अब यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि इस मीडिया प्रतिष्ठान को स्थापित करने तथा बाद में इसे संचालित करते रहने के लिए धन तथा नियमित विज्ञापन कहां से उपलब्ध होगा। प्रदेश में कानून व्यवस्था की बदतरी एवं अराजकता के वातावरण के आरोपों के बीच ऐसे भी कई समाचार इस राज्य से प्राप्त हो रहे हैं कि मायावती विपक्षी दलों से संबंधित बाहुबलियों तथा दबंगों को तो दबाने या उन्हें कुचलने का प्रयास कर रही है जबकि साथ ही साथ अपने ही दल के विभिन्न आरोपों से घिरे मंत्रियों व नेताओं को क्षमादान देने का भी काम किया जा रहा है। इसी बीच मायावती ने एक बार फिर अपने ‘विशेष मतदाताओं को अपनी ओर लुभाने के लिए 2007 में छोड़ा गया भावनात्मक तीर फिर से एक बार छोड़ा है। एक बार फिर उन्होंने स्वयं को जि़ंदा देवी की संज्ञा देते हुए अपनी पूजा करने तथा अपने ऊपर ‘चढ़ावा चढ़ाने का आह्वान किया है।

परंतु विपक्ष मायावती के विरुद्ध बनाए जाने वाले माहौल के किसी भी अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाह रहा है। इसी सिलसिले में गत् दिनों कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने सुल्तानपुर,कानपुर तथा बांदा के उन बलात्कार पीडि़तों से जाकर मुलाकात की जिन्हें राजनीतिज्ञों एवं क्षेत्रीय दबंगों द्वारा पिछले दिनों बलात्कार का निशाना बनाया गया था। इन बलात्कार पीडि़तों से मुलाकात करने के बाद राहुल गांधी ने कहा कि प्रदेश में इस प्रकार सरेआम होने वाली बलात्कार की घटनाएं अपने आप में इस बात की प्रमाण हैं कि उत्तर प्रदेश में सुरक्षा व कानून व्यवस्था की भी भारी कमी है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य में सुरक्षा, उद्योग, स्वास्थय तथा शिक्षा के अभाव के चलते ही यह राज्य पिछड़ा हुआ है। उधर समाजवादी पार्टी व भारतीय जनता पार्टी के विधायक गण इन दिनों राज्य में चल रहे विधान सभा सत्र को बाधित करने में लगे हुए हैं। विधान सभा सत्र शुरू होने से लेकर अब तक कई बार विपक्षी दल विधान सभा में शोर शराबा व हंगामा बरपा कर सदन को बाधित कर चुके हैं। विपक्ष सदन में यह आवाज़ उठा रहा है कि वर्तमान समय में राज्य में महिला उत्पीडऩ तथा अराजकता में भारी इज़ाफा हुआ है। सपा नेता मुलायम सिंह यादव का तो यह आरोप है कि मुख्यमंत्री मायावती के पास नोट गिनने वाली मशीन है तथा वह टीवी देखने व नोट गिनने के अतिरिक्त और कोई काम ही नहीं करतीं। जहां तक राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार का प्रश्र है तो इसमें किसी विपक्षी दल या नेता के आरोपों का क्या हवाला देना स्वयं एक समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री यह स्वीकार कर चुकी हैं कि राज्य में थाने बिक रहे हैं। ऐसा करने वालों को ब ़शा नहीं जाएगा।

दूसरी ओर चाटुकारिता की सभी हदें पार कर जाने वाले तमाम लोग मायावती के स्वयं को जि़ंदा देवी क हे जाने जैसी बातों से काफी प्रभावित होते प्रतीत हो रहे हैं। अभी देश वह नज़ारा भूल नहीं पाया है जबकि मायावती के एक मंत्रिमंडलीय सहयोगी ने मंत्री पद की शपथ लेने के पश्चात मायावती के चरणों में सिर रखकर साष्टांग दंडवत किया था। इसी प्रकार एक मंत्री मायावती के पैरों को छूने के लिए उनका पांव तलाश कर रहा था तभी मायावती को यह कहते सुना गया था कि “चल बस कर”। मायावती के जन्मदिन पर जब उन्होंने अपना बर्थडे केक काटा उस समय उसी केक की एक सलाईस तत्कालीन डी जी पी विक्रम सिंह अपने हाथों से मुख्यमंत्री को खिलाते देखे गए। और अब इन सभी चाटुकारों से आगे जाते हुए एक वरिष्ठ पुलिस उपाधीक्षक पद्म सिंह जोकि मायावती का विशेष सुरक्षा अधिकारी भी है, ने मायावती की जूती पर पड़ी धूल अपने जेब में रखे रुमाल से साफ कर यह संदेश दे दिया है कि राज्य में मायावती की चाटुकारिता करने वालों में भी भीषण प्रतियोगिता चल रही है। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि सिपाही के रूप में भर्ती होकर पुलिस उपाधीक्षक के पद तक पहुंचा पदमसिंह राज्य का राष्ट्रपति पदक प्राप्त कर चुका एक दबंग पुलिस अधिकारी है। गत् कई वर्षों से वह मायावती के एस पी ओ के रूप में तैनात है। बताया जाता है कि पद्म सिंह बसपा के राजनैतिक मामलों में भी गहरी दिलचस्पी व दखल रखता है। यह भी कहा जाता है कि पद्म सिंह की मायावती के प्रति गहन निष्ठा एवं वफादारी के चलते कई मंत्री तथा विधायक पद्म सिंह को सलाम ठोकते हैं। कुछ विश£ेषक एवं राजनैतिक समीक्षक तो यहां तक लिख रहे हैं कि पद्म सिंह के स्तर की चाटुकारिता तथा इसको लेकर मची इस होड़ का कारण दरअसल मायावती सरकार द्वारा घोषित किया गया राज्य का सबसे बड़ा स मान अर्थात् कांशीराम पुरस्कार है।

बहरहाल इसमें कोई दो राय नहीं कि विगत् कुछ महीनों में बहुजन समाज पार्टी को उसके अपने ही कई मंत्रियों व सदस्यों के घृणित कृत्यों के चलते काफी बदनामी का सामना भी उठाना पड़ा है। और इसमें कोई शक नहीं कि विपक्ष ऐसी घटनाओं को अपने लिए एक ‘शुभ अवसर के रूप में स्वीकार कर रहा है। इन्हीं राजनैतिक उठापटक के बीच राज्य में एक नए चुनावी समीकरण के उभरने की भी संभावना व्यक्त की जा रही है। समझा जा रहा है कि बिहार के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह मात खा चुकी कांग्रेस पार्टी अब संभवत: उत्तर प्रदेश में अकेला चलो के अपने संकल्प से पीछे हट सकती है। लोकसभा में केवल उत्तर प्रदेश से 21 सीटें जीतने के बाद कांग्रेस पार्टी राज्य में अब इस स्थिति में पहुंच चुकी है कि वह समाजवादी पार्टी के साथ एक बड़े जनाधार वाले राजनैतिक दल के रूप में बराबरी से हाथ मिला सके। वैसे भी कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में राज बब्बर ने मुलायम सिंह यादव की बहु डिंपल यादव को िफरोज़ाबाद लोकसभा सीट से धूल चटाकर कांग्रेस व समाजवादी पार्टी के बीच के अंतर का एहसास बखूबी करा दिया है। पिछले दिनों आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में मुलायम सिंह यादव के प्रति केंद्र सरकार द्वारा अपनाई गई नरमी को भी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पूर्व बनने वाले नए संभावित राजनैतिक समीकरण के नज़रिए से देखा जा रहा है। यदि राज्य में कांग्रेस व समाजवादी पार्टी के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन हो जाता है तो मायावती के लिए यह गठबंधन एक बार फिर अच्छी-खासी परेशानी खड़ी कर सकता है। उत्तर प्रदेश के इन ताज़ातरीन राजनैतिक हालात को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि प्रदेश में चुनाव घोषणा से पूर्व ही सत्ता हथियाने की जंग छिड़ चुकी है।

नवगीत/तूफ़ान सड़क पर

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

जब देश लूटता राजा

कोई करे

कहाँ शिकायत ,

संसद में बैठे दागी

एकजुट हो

करें हिमायत ;

बेहयाई नहीं टूटती ,

रोज़ उठें तूफ़ान सड़क पर ।

दूरदर्शनी बने हुए

इस दौर के

भोण्डे तुक्कड़,

सरस्वती के सब बेटे

हैं घूमते

बनकर फक्कड़ ;

अपमान का गरल पी रहा

ग़ालिब का दीवान सड़क पर ।

खेत छिने , खलिहान लुटे

बिका घर भी

कंगाल हुए ,

रोटी , कपड़ा , मन का चैन

लूटें बाज़ ,

बदहाल हुए ;

फ़सलों पर बन रहे भवन

किसान लहूलुहान सड़क पर ।

मैली चादर रिश्तों की

धुलती नहीं

सूखा पानी,

दम घुटकर विश्वास मरा

कसम-सूली

चढ़ी जवानी;

उम्र बीतने पर दिया है

प्यार का इम्तिहान सड़क पर ।

-0-

पूंजीवाद जी का जंजाल… महंगाई-भ्रष्टाचार से दुनिया बदहाल…..

श्रीराम तिवारी

आधुनिकतम उन्नत सूचना एवं प्रौद्द्योगिकी के दौर में विश्व-रंगमंच पर कई क्षणिकाएं-यवनिकाएं बड़ी तेजी से अभिनीत हो रहीं हैं . २१ वीं शताव्दी का प्रथम दशक सावधान कर चुका है कि दुनिया जिस राह पर चल रही है वो धरती और मानव मात्र की जिन्दगी को छोटा करने का उपक्रम मात्र है .जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देश और देश से बाहर दुनिया के कोने-कोने में तीव्रगामी परिवर्तनों की अनुगूंज सुनाई दे रही है .मानव-निर्मित नकारात्मक परिवर्तनों से न केवल प्राणी-जगत का अपितु स्वयम मानव-जाति का भविष्य ही खतरे में पड़ता जा रहा है . सबसे ज्यादा चिंता का विषय है- विज्ञान का प्रयोग . विज्ञान के प्रयोग मानवीय मूल्यों की चिंता किये बिना, विध्वंस तथा विनाश के पक्ष में ज्यादा किये जा रहे हैं .यह प्रवृत्ति विगत शताब्दी से ही परवान चढ़ रही है ;किन्तु तब दुनिया के सामने विज्ञान का एक मानवीय चेहरा भी हुआ करता था . सोवियत-साम्यवादी व्यवस्था में विज्ञान को ,कला को, और ज्ञान की तमाम विधाओं को ,मानवता के पक्ष में प्रयुक्त किया था.

सोवियत व्यवस्था के पराभव ने सारे समीकरणों को एक झटके में उलट कर सारी मानवता के विरोध में ला खड़ा कर दिया है .तथाकथित पैरोश्त्रोइका या ग्लास्त्नोस्त के आगाज से लेकर आज तक एक ध्रुवीय विश्व-व्यवस्था के चलते न केवल समानता ,स्वतंत्रता ,बंधुत्व की शानदार मानवीय अवधारणाएँ संकुचित हुईं अपितु छद्म जन -कल्याण कारी प्रयोजनों को भी तिलांजलि दे दी गई .हालाँकि ये छद्म जन-कल्याणकारी अर्थतंत्र की व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ उठने वाले जन-उभार को रोकने के लिए सेफ्टी वाल्व का ही काम करती थी .किन्तु फिर भी यह मानवीय मुखौटा ही सही दुनिया भर में नव-स्वतंत्र राष्ट्रों को गाढे में खूब काम आया .

अब तो इस मुखौटे को भी नौचा जा रहा है .अब पूंजीवाद अपने चरम पर पहुँचने को आतुर है; इसके महाविनाश की भविष्यवाणी भले ही कभी सच हो जाये किन्तु आज तो तमाम गरीब मुल्को में ,विकासशील देशों में यहाँ तक कि कतिपय विकसित राष्ट्रों में इसका नंगा नाच देखा जा सकता है .विगत शताब्दी के उत्तरार्ध से ही पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने इस मुखौटे कि जगह कोई और विकल्प अजमाने कि राह खोजनी शुरूं कर दी थी दुनिया के दुर्भाग्य से और शैतान की करामात से उसे ’सभ्यताओं का संघर्ष ’मिल गया इसी दौरान उन्हें नव्य-उदारवादी चेहरे के पीछे अपनी पैशाचिक पहचान छिपाने की सूझी .इसी का परिणाम था कि जो अमेरिका दुनिया भर में आर्थिक नाकेबंदियों ,सैन्य-हस्तक्षेप के लिए बदनाम था और हथियारों का सबसे बड़ा निर्यातक बन बैठा था वो इस २१ वीं शताब्दी कि उषा-वेला में भयानक आर्थिक संकट में फंसता चला गया ..

अमेरिकी सब प्राइम संकट को धमाल मचाये हुए ४ साल हो चुके हैं ,सेंसेक्स के चढने-उतरने को अर्थव्यवस्था का वेरोमीटर मानने वाले अर्थशास्त्री पस्त हैं. मानव मूल्यों कि पैरवी करने वाले वाम-पंथी बुद्धिजीवी अब हासिये पर हैं ,असफल नीतियों को प्रचार माध्यमों कि विना पर कोरी लफ्फाजी से सराहा जा रहा है .भूमंडलीकरण ,वैश्वीकरण को श्रम-शक्ति से परे रखा जाता रहा है .यत्र-तत्र-सर्वत्र जन-संघर्षों को दबाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी का प्रयोग किया जा रहा है. माल्थस और एडम स्मिथ फ़ैल हो चुके हैं .जो कल तक विश्व का थानेदार था वो अब हर जगह अपने ही पालतू कुत्तों से परेशान है .

सामान्य बुद्धि बाला इन्सान भी जानता है कि महंगाई और भृष्टाचार पूंजीवादी आर्थिक-नीतियों कि असफलता हैं किन्तु हमारे देशज भारतीय नीति-निर्माता तो उन्ही सर्वनाशी दिवालिया नीतियों कि जय-जय कर कर रहे हैं .जैविक-खेती और व्युत्पन्नों के लालच ने वैज्ञानिक अनुसन्धान और सूचना-प्रौद्दोगिकी को आदमखोरों की मांद में धकेल दिया है. जब अमेरिका में खाद्यान्न संकट छाया तो जोर्ज बुश और कोंडिलीजा राईस ने भारतीयों और चीनियों पर अधिक भोजन भट्ट होने का आरोप लगाया था, अब अमेरिकी युवकों की बेतहाशा वेरोजगारी से आक्रान्त बराक ओबामा जी और सुश्री हिलेरी क्लिंटन ने ”नो टू बंगलुरु ….नो टू बीजिंग .”…..का नारा बुलंद किया है …

भारत के बारे में ,भारतीय नेताओं के बारे में , भारतीय जनता के बारे में ,भारत को संयुक-राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थाई सीट के लिए प्रस्तावित किये जाने के बारे में ,भारत के खिलाफ पाकिस्तान और अन्य दुश्मन ताकतों की साजिशों के बारे में अमेरिकन क्या सोच रखते हैं? यह जानने के लिए विकीलीक्स के खुलासे द्रष्टव्य हैं. इस सबके वावजूद की सारी दुनिया में पूंजीवादी आर्थिक उदारीकारण के दुष्‍परिणाम परिलक्षित होने लगे हैं .स्वयम भारत में अर्ध-सामंती, अर्ध-पूंजीवादी खच्चर व्यवस्था के परिणामस्वरूप एक तरफ तो देश की संपदा विदेशी एम् एन सी लूट कर ले जा रहे हैं, दूसरी ओर देश के भृष्ट नेता और पूंजीपति देश की संपदा को लूटकर विदेशी तिजोरियों में जमा कर रहे हैं. फिर भी भारत में मिस्र जैसे हालत नहीं बन पाने की वजह है की भारत में बेहतर न्यायपालिका है ,बेहतर मीडिया और बेहतर ट्रेड यूनियन आन्दोलन है . ,बेहतर लोकतंत्र है . शानदार धर्मनिरपेक्षता -अहिंसा -पर आधारित संविधान है .संसदीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में आम-चुनावों के माध्यम से भी पूंजीवादी व्यवस्था को बदला जा सकता है .इसमें देर भले ही हो पर मिस्र ,ट्युनिसिया ,अफगानिस्तान या पाकिस्तान जैसी गृह युद्ध की स्थिति भारत में कभी नहीं बन पायेगी और वो सुबह कभी तो आयेगी ….

विश्व कप क्रिकेट की कहानी

ए एन शिबली

एकदिवसीय क्रिकेट का सबसे पहला मैच 5 जनवरी 1971 को ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीचखेला गया। हुआ यह कि ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच मेलबोर्न में खेले जाने वाले तीस टेस्ट मैच के पहले तीन दिन का खेल बारिश की वज़ह से नहीं हो सका। दर्शकों की निराशा को दूर करने के लिए आयोजकों ने सोचा कि इस मैंच को रद्द कर के इस की जगह एक सीमित ओवर का एक मैच खेला गया। इस मैच में ऑंस्ट्रेलिया ने टॉस जीत कर पहले इंग्लैंड को बल्लेबाज़ी की दावत दी। पहले खेलते हुए इंग्लैंड की पूरी टीम 190 रन बना कर आउट हो गयी। जॉन एडरीच ने सबसे ज्यादा 82 रन बनाए। ऑंस्ट्रेलिया ने जीत के लिए 191 रन 35 ओवर में बना लिए और इस प्रकार इतिहास का सबसे पहला एकदिवसीए मैच ऑंस्ट्रेलिया ने जीता। और इस के बाद धीरे एकदिवसीए मैचों का सिलसिला शुरू हो गया। इतिहास का दूसरा एकदिवसीए मैच 24 अग्सत 1972 को खेला गया। शुरू में कम मैच खेले जाते थे। इस का अंदाज़ा इस से लगाया जा सकता है कि 1975 में जब पहली बार एकदिवसीए क्रिकेट के विश्व कप का आयोजन हुआ तो उस समय तक सिर्फ 18 मैच खेले गए थे।

पहला विश्व कप 1975

पहले विश्व कप की मेज़बानी का मौका इंग्लैंड को मिला। पहले विश्व कप में आठ टीमों ने भाग लिया। इनमें छह टीमें ऑंस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, पाकिस्तान, न्यूज़ीलैंड, भारत और वेस्ट इंडीज़ की थी जबकि बाक़ी की दो टीमें श्रीलंका और ईस्ट अफ्रीका की थी। आठ टीमों को दो ग्रूप में बांटा गया था। ग्रूप ए में इंग्लैंड, न्युज़ीलैंड, भारत और ईस्ट अफ्रीका की टीमें थीं जबकि ग्रूप बी में ऑंस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, श्रीलंका, और वेस्ट इंडीज़को रखा गया था। पहले विश्व कप का पहला मैच इंग्लैंड और भारत के बीच खेला गया था। पहले ही मैच में भारत को 202 रनों से शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। अगले मैच में कमज़ोर टीम ईस्ट अफ्रीका को भारत ने 10 विकेट से हराया। पहले विश्व कप में ऑंस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, न्यूज़ीलैंड और वेस्ट इंडीज़ की टीमें सेमी फाइनल में पहुंचीं। पहले सेमी फाइनल में ऑंस्ट्रेलिया ने इंग्लैंड को 6 विकेट से हराया जबकि दूसरे सेमी फाइनल में न्युज़ीलैंड को वेस्ट के हाथों 5 विकेट से हार का सामना करना पड़ा। फाइनल 21 जून को लॉड्र्स में खेला गया। वेस्ट इंडीज़ ने पहले बल्लेबाज़ी की दावत मिलने के बाद पहले खेलते हुए निर्धानित 60 ओवर में 8 विकेट पर 291 रन बनाए। वेस्ट इंडीज़ के कप्तान कलाइवे लायोड ने शतक बनाया। जवाब में ऑंस्ट्रेलिया की पूरी टीम 274 रन बना का आउट हो गयी और इस प्रकार पहला विश्व कप जीतने का गर्व वेस्ट इंडीज़ को प्राप्त हुआ। लियोड को मैंन ऑफ द मैच का पुरस्कार मिला।

दूसरा विश्व कप 1979

1979 में दूसरे विश्व कप का आयोजन भी इंग्लैंड में ही हुआ। पहले विश्व कप की तरह इसबार भी इसमें आठ टीमों ने भाग लिया। इनमें ऑंस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, भारत, न्यूज़ीलैंड, वेस्ट इंडीज़ और पाकिस्तान वो टीमें थीं जिन्हें टेस्ट खेलने का दर्जा प्राप्त था जबकि श्रीलंका और कनाडा को इसलिए शामिल किया गया था क्योंकि इन टीमों ने आई सी सी ट्रॉफी में पहले दो पोज़ीशन हालिस की थी। इस बार भी टीमों को दो गरूपों में बांटा गया। ग्रूप ए में भारत, न्यूज़ीलैंड, श्रीलंका, और वेस्ट इंडीज़ को रखा गया जबकि ग्रूप बी में ऑंस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, पाकिस्तान और कनाडा की टीमें थीं। पहले विश्व कप की भांति इस बार भी सबसे पहले मैच में भारतिए टीम शरीक रही। भारत और वेस्ट इंडीज़ के बीच हुये इस मैच में भारत को नो विकटों से हार मिली। दूसरे विश्व कप में भारत की टीम एक मैच भी नहीं जीत सकी। पहले सेमी फाइनल में इंग्लैंड ने न्युजीलैंड को 9 विकेट से जबकि दूसरे सेमी फाइनल में वेस्ट इंडीज़ ने पाकिस्तान को 43 रनों से हराकर फाइनल मे खेलने का हक़ हासिल किया। 23 जून को खेले गए फाइनल मे पहले बल्लेबाज़ी करते हुये वेस्ट इंडीज़ ने विवियन रिचड्र्स के 138 रनों की मदद से 286 रन बनाए। जवाब में इंग्लैंड की पूरी टीम सिर्फ 194 रन बना कर आउट हो गयी और इस प्रकार वेस्ट इंडीज़ ने लगातार दूसरा विश्व कप जीत लिया। रिचड्र्स को मैन आफ द मैच का पुरस्कार मिला।

तीसरा विश्व कप 1983

लगातार तीसरे विश्व कप का आयोजन 1983 में इंग्लैंड में हुआ। पहली दो बार की भांति इस विश्व कप में भी आठ टीमों ने भाग लिया। सात टेस्ट खेलने वाली टीमों के अलावा आठवीं टीम ज़िम्बाब्वे की थी। इन आठ टीमों को दो ग्रुपों में बांट दिया गया।

इंग्लैंड, पाकिस्तान और श्रीलंका की टीम को ग्रूप ए में रखा गया जबकि ग्रूप बी में ऑंस्ट्रेलिया, भारत, वेस्ट इंडीज़ और ज़िम्बाब्वे की टीमें थीं। इस बार भारत की टीम सेमी फाइनल में पहुंची जहां उसने मेज़बान इंग्लैंड को हराया। दूसरे सेमी फाइनल में वेस्ट इंडीज़ की टीम ने पाकिस्तान को हराया और लगातार तीसरी बार फाइनल में पहुंची। चूंकि वेस्ट इंडीज़ की टीम एक मज़बूत टीम थी और उस समय भारत की कोई हैसियत नहीं थी इस लिए सबने यह पहले ही सोच लिया कि भारत को हार का मुंह देखना पड़ेगा। 25 जून को खेले गए फाइनल में भारत ने पहले बल्लेबाज़ी की और उसकी पूरी टीम सिर्फ 183 रन बना कर आउट हो गयी। वेस्ट इंडीज़ जैसी मज़बूत टीम के लिए यह बहुत ही मामूली लक्ष्य था। मगर इस मामूली टार्गेट को पीछा करते हुये वेस्ट इंडीज़ की पूरी टीम 140 रत के स्कोर पर आउट हो गई और इस प्रकार भारत ने सारी दुनिया को हैरान करते हुये वेस्ट इंडीज़ जैसी टीम को हरा कर कपिल देव की कप्तानी में विश्व कप जीत लिया। महिंदर अमरनाथ को मैन ऑफ द मैच का खिताब मिला।

चौथा विश्व कप 1987

1987 में चौथा विश्व कप संयुक्त रूप से भारत और पाकिस्तान की मेज़बानी में हुआ। पहले तीन विश्व कपों की तरह इस बार भी इस में आठ टीमों ने भाग लिया मगर इस बार मैच 60 ओवर के हुये। भारत और पाकिस्तान की टीमें सेमी फाइनल में तो पहुंची मगर अफसोस की बात यह रही की दोनों ही मेज़बान देश को सेमी फालनल में हार का सामना करना पड़ा। लाहोर में खेले गए पहले सेमी फाइनल में ऑस्ट्रेलिया ने पाकिस्तान को 18 रनों से हराया जबकि मुंबई में खेले गये दूसरे सेमीफाइलन में इंग्लैंड ने भारत को 25 रनों से हरा दिया। फाइनल 8 नवंबर को कोलकता के एडेन काडर्ेन में खेला गया। फाइनल में टॉस ऑस्ट्रेलिया ने जीत कर पहले बल्लेबाज़ी की और निर्धारित 50 ओवर में 5 विकेट के नुकसान पर 253रन बनाए। जवाब में इंग्लैंड की टीम ने पूरे 50 ओवर तो खेले मगर सिर्फ 246 रन ही बना सकी। इस तरह ऑस्ट्रेलिया ने 7 रनों से जीत हासिल की और पहली बार विश्व कप हासिल किया। डेविड बून को मैन ऑफ द मैच के खिताब से नवाज़ा गया।

पाँचवा विश्व कप 1992

1992 में हुये पाँचवे विश्व कप की मेज़बानी संयुक्त रूप से ऑस्ट्रेलिया और न्युजीलैंड ने की। चूंकि काफी दिनों के बाद दक्षिण अफ्रीका की भी क्रिकेट में वापसी हो चुकी थी इस बार विश्व कप में आठ के बजाये 9 टीमों ने भाग लिया। इस बार टीमों को ग्रूप में नहीं बांटा गया बल्कि लीग मैचों के बाद पहली चार पोज़ीशन पर रहने वाली टीम को सेमी फाइनल में खेलने का मौका मिला। औकलैंड में खेले गए पहले सेमी फाइनल में पकिस्तान ने न्यूज़ीलैंड को 4 विकेट से हराया जबकि दूसरे सेमी फाइनल में इंग्लैंड ने दक्षिण अफ्रीका को 19 रनों से हराया। इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका के मैच में बारिश ने रूकावट डाली और एक बार ऐसा मौका आया जब दक्षिण अफ्रीका को जीत के लिए एक गेंद पर 20 रन बनाने का लक्ष्य दिया गया। बाद में इस नियम की काफी आलोचना हुई। फाइनल पाकिस्तान और इंग्लैंड के बीच खेला गया। टॉस पाकिस्तान ने जीता और पहले बल्लेबाज़ी करके 247 रनबनाए। जवाब में इंग्लैंड की पूरी टीम 227 रन बना कर आउट हो गयी और इस प्रकार इमरान ख़ान की कप्तानी में पकिस्तान विश्व कप जीतने में सफल हो गया। वसीम अकरम को मैन ऑफ द मैच का पुरस्कार मिला। इस विश्व कप से मैन ऑफ द सिरीज़ अवार्ड देने का सिलसिला भी शुरू हुआ और यह पुरस्कार न्यूज़ीलैंड के मार्टिन करो ने जीता।

छठा विश्व कप 1996

1996 में आयोजित छठे विश्व कप में पहली बार ऐसा हुआ जब विश्व कप की मेज़बानी तीन देशों ने मिल कर की। भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका में संयुक्त रूप से आयोजित इस विश्व कप में इस बार 12 टीमों ने भाग लिया। इन 12 टीमों को दो गुरूपों में बांटा गया। ग्रूप ए में ऑस्ट्रेलिया, भारत, श्रीलंका, केन्या, वेस्ट इंडीज़ और ज़िम्बाब्वे को रखा गया जबकि ग्रूप बी में इंग्लैंड, पाकिस्तान, न्यूज़ीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, संयुक्त अरब अमीरात और नीदरलैंड को रखा गया। कोयार्टर फाइनल में जीत हासिल करने के बाद श्रीलंका, भारत, वेस्ट इंडीज़ और ऑस्ट्रेलिया की टीमें सेमी फाइनल में पहुंचने में सफल हुई। कोलकता में खेले गए पहले सेमी फाइनल में श्रीलंका ने भारत को हरा दिया जबकि मोहाली में खेले गये दूसरे सेमी फाइनल में ऑस्ट्रेलिया ने वेस्ट इंडीज़ को हरा दिया। 17 मार्च को लाहोर में खेले गए फाइनल में ऑस्ट्रेलिया ने टॉस जीत कर पहले बल्लेबाज़ी की और निर्धारित 50 ओवर में 7 विकेट के नुक्सान पर 241 रन बनाए। जवाब में अरविंद डेसिलवा के शान्दार शतक से श्रीलंका ने बड़ी आसानी से जीत हासिल कर ली। डेसिलवा को मैन ऑफ द मैच खिताब से नवाजा गया। सनाथ जयसुरिया मैन ऑफ द सिरीज़ चुने गए।

सातवाँ विश्व कप 1999

पहले तीन विश्व कप की मेज़बानी के बाद इंग्लैड को 1999 में एक बार फिर सातवें विश्व कप की मेज़बानी का मौका मिला। इस बार भी इस में 12 टीमों ने भाग लिया। टीमें दो ग्रूपो में बांटी गईं। ग्रोप ए में इंग्लैंड, भारत, केन्या, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका और ज़िम्बाब्वे को रखा गया। ग्रूप बी में ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान, न्यूज़ीलैंड और वेस्ट इंडीज़ को रखा गया। दोनों ग्रूप से पहली तीन पोज़ीशन हासिल करने वाली टीम सुपर सिक्स में आई और फिर सुपर सिक्स के बाद टॉप पर रहने वाली चार टीमों को सेमी फाइनल में जगह मिली। मैंचेस्टर में खेले गए पहले सेमी फाइनल में पाकिस्तान ने न्यूज़ीलैंड को 9 विकेट से हरा दिया जबकि दूसरे सेमी फाइनल में ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका का मैच टाई रहा। विश्व कप में एक बार फिर किस्तमत ने दक्षिण अफ्रीका का साथा नहीं दिया और चूंकि लीग मैचों में खेले गये फाइनल में पकिस्तान ने पहले बल्लेबाज़ी की और उसकी पूरी टीम सिर्फ 132 रन बनाकर आउट हो गयी। बाद में जीत के लिए जरूरी रन ऑस्ट्रेलिया ने 21 ओवर में ही बना लिए। शेन वार्न को मैन ऑफ द मैच का खिताब मिला। 1987 के बाद ऑस्ट्रेलिया की टीम दूसरी बार विश्व कप चंपियन बनी। दक्षिण अफ्रीका के हरफनमौला खिलाड़ी लांस क्लूजनर मैन ऑफ द सिरीज़ चुने गये।

आठवाँ विश्व कप 2003

2003 में आयोजित आठवाँ विश्व कप संयुक्त रूप से दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे और केन्या में हुआ। इस बार इस टुर्नामेंट में 14 टीमों ने भाग लिया। 14 टीमें दो ग्रूप में बांटी गईं। हर ग्रूप से पहला दो स्थान हासिल करने वाली टीम सेमी फाइनल में पहुंची। पहले सेमी फाइनल में ऑस्ट्रेलिया ने पहले बल्लेबाज़ी करते हुए कप्तान रिकी पोंटिंग के शतक की बदौलत निर्धारित 50 ओवर में 2 विकेट के नुकसान पर 359 रन बनाए। जवाब में भारत की पूरी टीम 234 रन बना कर आउट हो गयी। ऑस्ट्रेलिया ने लगातार दूसरी और कुल मिला कर तीसरी बार विश्व कप पर कब्ज़ा किया। रिकी पोंटिंग को मैन ऑफ द मैच के खिताब से नवाज़ा गया जबकि सचिन तेंदुलकर मैन ऑफ द सिरीज़ का पुरस्कार हासिल करने में सफल हुए।

नौवाँ विश्व कपा 2007

2007 में नौवें विश्व कप का आयोजन पहली बार वेस्ट इंडीज़ में हुआ। इस बार इस में 16 टीमों ने भाग लिया जिन्हें चार ग्रूप में बांटा गया। हर ग्रूप से पहले दो नंबर पर रहने वाली टीम सुपर एट में पहुंची और फिर उसके बाद चार टीमें सेमी फाइनल के लिए बची रहीं। पहला सेमी फाइनल श्रीलंका और न्यूज़ीलैंड के बीच खेला गया जिसमें श्रीलंका ने 81 रनों से जीत हासिल की। दूसरे सेमी फाइनल में ऑस्ट्रेलिया ने दक्षिण अफ्रीका को सात विकेट से हराया। 28 अप्रैल को खेले गए फाइनल में ऑस्ट्रेलिया ने पहले बल्लेबाज़ी की और बारशि के कारण 38 ओवर के इस मैच में 281 रन बनाए। जवाब में श्रीलंका ने 36 ओवर में 8 विकेट के नुकसान पर 215 रन बनाए। डाकवार्थ लूइस नियम का इस्तेमाल करते हुये ऑस्ट्रेलिया को 53 रनों से विजेता घोषित किया गया। 149 रनों की तूफानी इननिंग खेलने वाले एडम गिलक्रिस्ट को मैन ऑफ द मैच का पुरस्कार मिला। पूरे टूर्नामेंट में 26 विकेट लेने वाले ग्लेन मेकग्रथ मैन ऑफ दे सिरीज़ पुरस्कार के लिए चुने गए।

भारतीय रेल की “ममता”

विजय सोनी

भारतीय रेल दुनिया की सबसे बड़ी और व्यस्ततम रेलवे है। जापान, चीन या कई देश चाहे कितनी भी द्रुतगामी हवा से बात करनेवाली रेल भले ही चलाये किन्तु इंडियन रेलवे की दुनिया में अपनी ख़ास विशेषता है, हमारी रेलवे कई कई देशों की कुल आबादी संख्या से भी ज्यादा यात्रियों को प्रतिदिन यात्रा “कराने” और लगभग इतने ही लोगों को “प्रतीक्षारत” रखने की क्षमता भी रखती है, सरकारी क्षेत्र का ये सबसे बड़ा उपक्रम हमारे लिए ना केवल गर्व का बल्की जीवन को चलने चलाने का भी महान साधन है ,हर यात्री भगवान् को स्मरण कर अपने शुभ-अशुभ सभी लक्ष्यों तक पहुचने के लिए इस पर आश्रित है, टिकिट की मारामारी, तत्काल की उहापोह, दलाल और दलाली जैसी कठिन से कठिन परिस्थितयों से जैसे तैसे निपट कर कन्फर्म टिकिट मिल जाए तो किस्मत को धन्यवाद देकर, ट्रेन तक सही समय पहुँचने रेलवे इन्क्वारी १३९ का आभार मान कर यात्री स्टेशन पहुंचकर ट्रेन में अंततोगत्वा सवार हो ही जाता है, फिर अपने सामन-जान-माल की सोचते सोचते ईश्वर को धन्यवाद देते हुवे आगे और आगे स्टेशन दर स्टेशन अपने गंतव्य तक सकुशल पहुँचने की प्रार्थना करते करते हुए इसके माध्यम से चलता रहता है इसीलिए कहा गया है की “चलती का नाम गाड़ी”. सकुशल मंजिल तक पहुंचकर फिर अपनी घर वापसी के लिए उक्त जद्दोजेहद का क्रम फिर दोहराया जाता है, इस प्रकार की आदत और बेबसी के हम आदि हो गए हैं, किन्तु एक अत्यंत दुर्भाग्यजनक ट्रेन एक्सीडेंट “ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस”का ७-८ महीने पहले हुवा इस हादसे के ज़िम्मेदार नक्सली में से कुछ गिरफ्तार भी हुए पुलिस अपना काम कर रही है, ममता जी रेल मंत्री हैं ,वो बंगाल से हैं, हादसा और नक्सली वारदात भी उन्ही के प्रदेश जिसमे वामपंथियों का शासन आज तक कायम है, में ही हुआ ,ममता जी भी एक कद्दावर नेता होते हुवे भी बेबस हैं, लाचार हैं या क्या हैं समझ से बाहर है, सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम की जिम्मेवारी केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की है, किन्तु दोनों अपनी अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रहे हैं, यात्रियों को होनेवाली परेशानियों से उनका कोई लेना देना नहीं है, दोनों का अहम् टकरा रहा है, कहने के लिए कुछ समय के लिए टाइम शेदुल बदल कर रात्री में रेलों का परिचालन सुरक्षा के अभाव में बंद कर दिया गया,ऐसा लगा बहुत जल्द सब कुछ सामान्य हो जाएगा किन्तु ८-९ महीने तक आज भी वैसी ही हालत है, बंगाल से होकर चलने वाली सभी रेल गाड़ियाँ रात्री रोक दी जाती हैं या रात्री चलने वाली सभी गाड़ियों को सुबह ८-९ घंटे लेट रवाना किया जाता है, देश की जनता इस प्रकार के परिवर्तित शेदुल से परेशान हैं, जनता सोच रही है की क्या कारण है? ये लेट लतीफी कब तक चलेगी? केंद्र की सरकार कब तक मजबूर रहेगी? क्या राज्य की सरकार निक्कमी है? क्या दोनों सरकारों में इतनी क्षमता भी नहीं है? क्या मजबूरी है की दोनों सरकारों ने अपने अपने घुटने विध्वन्स्कारियों के सामने टेक दिए या तोड़ लिए हैं? क्या भारत “आज़ाद भारत” की अक्षम सरकारें कुछ कर सकेगी ?ममता जी की ममता कब बरसेगी? इन सुलगते सवालों का ज़वाब कौन देगा? फ़ुटबाल की गेंद की तरह दोनों एक दूसरे के पाले में गेंद को लुढका लुढका कर शाबाशी लुटने का प्रयास कर रहें है,सरकार यदि कोई “चीज़” है तो उसे चाहिए के कठोर से कठोर कदम उठा कर शीघ्र तय शेदुल पर गाड़ियों का परिचालन प्रारंभ कर यात्रियों पर “ममता” रस की बारिश करे .

लोकतंत्र चाहती है मिस्र की जनता

कल सारी रात बीबीसी वर्ल्ड पर टीवी पर मिस्र का लाइव प्रसारण देख रहा था। उसमें दो भाषण भी सुने। पहला भाषण था राष्ट्रपति हुसैनी मुबारक का और दूसरा था उपराष्ट्रपति सुलेमान का। दोनों ही भाषण सत्ता और दमन के मद में भरे हुए थे। इन दोनों के प्रसारण के बाद जनता का आक्रोश सातवें आसमान पर है आज मिस्र की जनता शुक्रवार की नवाज के बाद राष्ट्रपति प्रासाद की ओर जा सकती है ?टीवी में जनता एकदम निहत्थी और दोनों शासक सत्ता के नशे में चूर थे।

मैं मुबारक का भाषण सुनते हुए एक बात सोच रहा था कि तानाशाह के कान नहीं होते। लाखों जनता का हुजूम पिछले 18 दिनों से आंदोलन कर रहा है। विश्व में चारों ओर थू-थू हो रही है इसके बाबजूद मुबारक साहब की हेकड़ी कम नहीं हुई है। वे लोग भी इस जनांदोलन से परेशान हैं जो आंदोलन को सीमित दायरे में रखकर चलाना चाहते थे।अमेरिकी गुर्गे चंद संवैधानिक संशोधनों के जरिए सत्ता हथियाना चाहते हैं। जनता उनकी भी सुनने को तैयार नहीं है।

जैसाकि हमने लिखा भी है कि इस आंदोलन में मजदूरवर्ग की बड़ी भूमिका है। इसकी प्रतिध्वनियां कल के लाइव प्रसारण में सुनाई दे रहीं थीं मिस्र की आम जनता के मुख से नारा निकल रहा था हमें धर्मनिरपेक्ष मिस्र चाहिए। लोकतांत्रिक मिस्र चाहिए। ये वे नारे हैं जिन्हें मिस्र में मजदूर लगाते हैं । मजदूरों का मुस्लिम ब्रदरहुड पर भी असर पड़ा है उन्होंने अपनी अनेक फंडामेंटलिस्ट बातों को फिलहाल त्याग दिया है,इससे एक पुख्ता और लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष मिस्र की संभावनाएं प्रबल हो उठी हैं।

आम जनता संविधान संशोधन नहीं चाहती बल्कि नये लोकतांत्रिक शासक और नया लोकतांत्रिक संविधान चाहती है और ये ही बातें अल -अहराम की संवाददाता ने भी लाइव प्रसारण के दौरान कही। मुबारक के भाषण के तत्काल बाद अलबरदाई ने कहा कि मुबारक के भाषण के बाद जनता और भड़केगी।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा सामान्य अधिकारों के हस्तांतरण से जनता शांत होने वाली नहीं है। लोकतंत्र की कैसे स्थापना होगी इसके बारे में साफ तौर पर कार्यक्रम की घोषणा की जानी चाहिए। मिस्र के राष्ट्रपति ने सत्ता हस्तांतरण की बात कही है लेकिन क्या यह तत्काल होगा ? क्या सत्ता हस्तांतरण अर्थपूर्ण और पर्याप्त होगा ?

दूसरी ओर उपराष्ट्रपति सुलेमान को कुछ अधिकार सौंपे जाने की बात कही है राष्ट्रपति ने ।जिसे जनता ने ठुकरा दिया है। उल्लेखनीय है सुलेमान साहब उपराष्ट्रपति बनने के पहले मिस्र की जासूसी संस्था के प्रधान रहे हैं और सीआईए के लिए सीधे काम करते रहे हैं। विकीलीक के 2007 के केबल में साफ कहा गया है कि मिस्र में मुबारक का उत्तराधिकारी कौन हो सकता है।यह केबल अमेरिका के किसी राजनयिक ने भेजा है और यह डिप्लोमेटिक केबल है। केबल 14 मई 2007 को भेजा गया था।शीर्षक था- ‘Presidential Succession in Egypt’, देखें विकीलीक क्या कहता है- ”Egyptian intelligence chief and Mubarak consigliere, in past years Soliman was often cited as likely to be named to the long-vacant vice-presidential post. In the past two years, Soliman has stepped out of the shadows, and allowed himself to be photographed, and his meetings with foreign leaders reported. Many of our contacts believe that Soliman, because of his military background, would at least have to figure in any succession scenario.”
उपराष्ट्रपति सुलेमान सन् 1993 से मिस्र की जासूसी संस्था के प्रधान रहे हैं। और हाल में जनांदोलन के बाद हुए सत्ता परिवर्तन में उन्हें राष्ट्रपति पद दिया गया है और उनके ही हाथों में राष्ट्रपति के कुछ अधिकार स्थानांतरित करने की बात हो रही है। मीडिया का एक हिस्सा उन्हें ही भावी राष्ट्रपति के रूप में देख रहा है। ये जनाब सीआईए के लिए काम करते रहे हैं। यह बात अलजजीरा ने एक्सपोज की है।

क्लिंटन के जमाने में ये साहब अमेरिका के लिए बदनाम रेंडीसन कार्यक्रम में काम करते थे। इस कार्यक्रम का लक्ष्य था संदेहास्पद आतंकियों का अपहरण और फिर उन्हें सीआईए को सौंपना।अपहरण के बाद किसी तीसरे देश में आतंकियों पर मुकदमा चलता था। डार्क साइड और जानी मयेर ने इस कार्यक्रम के बारे में लिखा है
“Each rendition was authorised at the very top levels of both governments [the US and Egypt] … The long-serving chief of the Egyptian central intelligence agency, Omar Suleiman, negotiated directly with top [CIA] officials. [Former US Ambassador to Egypt Edward] Walker described the Egyptian counterpart, Suleiman, as ‘very bright, very realistic’, adding that he was cognisant that there was a downside to ‘some of the negative things that the Egyptians engaged in, of torture and so on. But he was not squeamish, by the way’.
“Technically, US law required the CIA to seek ‘assurances’ from Egypt that rendered suspects wouldn’t face torture. But under Suleiman’s reign at the EGIS, such assurances were considered close to worthless. As Michael Scheuer, a former CIA officer [head of the al-Qaeda desk], who helped set up the practise of rendition, later testified, even if such ‘assurances’ were written in indelible ink, ‘they weren’t worth a bucket of warm spit’.”। उल्लेखनीय है यह कार्यक्रम बुश प्रशासन के दौरान आतंक के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय मुहिम के नाम से आरंभ किया गया था। मिस्र की जनता बदनाम मुबारक प्रशासन के किसी भी व्यक्ति को उत्तराधिकारी के रूप में देखना नहीं चाहती,वह मौजूदा संविधान बदलना और लोकतंत्र चाहती है और ये तेवर लगातार प्रखर हो रहे हैं।

परिचर्चा: काला धन

भ्रष्टाचार देश की जड़ों को खोखला कर रहा है। भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं लेकिन काला धन इसका सबसे भयावह चेहरा है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती है। एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी’ के अनुसार भारत के लोगों का लगभग 20 लाख 85 हजार करोड़ रूपए विदेशी बैंकों में जमा है। देश में काले धन की समानांतर व्यवस्था चल रही है। चूंकि इस धन पर टैक्स प्राप्त नहीं होता है इसलिए सरकार अप्रत्यक्ष कर में बढ़ोतरी करती है, जिसके चलते नागरिकों पर महंगाई समेत तमाम तरह के बोझ पड़ते हैं।

अपनी कमाई के बारे में वास्तविक विवरण न देकर तथा कर की चोरी कर जो धन अर्जित किया जाता है, वह काला धन कहा जाता है। विदेशी बैंकों में यह धन जमा करने वाले लोगों में देश के बड़े-बड़े नेता, प्रशासनिक अधिकारी और उद्योगपति शामिल हैं। विदेशी बैंकों में भारत का कितना काला धन जमा है, इस बात के अभी तक कोई अधिकारिक आंकड़े सरकार के पास मौजूद नहीं हैं लेकिन स्विटजरलैंड के स्विस बैंक में खाता खोलने के लिए न्यूनतम जमा राशि 50 करोड़ रुपये बताई जाती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जमाधन की राशि कितनी विशाल होगी। स्विस राजदूत ने माना है कि भारत से काफी पैसा स्विस बैंकों में आ रहा है। कुछ महीनों पहले स्विस बैंक एसोसिएशन ने भी यह कहा था कि गोपनीय खातों में भारत के लोगों की 1,456 अरब डॉलर की राशि जमा है।

पिछले दिनों विदेशों में जमा काले धन का मुद्दा और गर्मा गया जब स्विस बैंकर और ह्निसल्ब्लोअर रुडोल्फ एल्मर ने स्विस कानूनों को तोड़ते हुए स्विटजरलैंड की बैंकों में खुले 2000 खातों की जानकारी की सीडी विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे को दे दी। इस सीडी में स्विटजरलैंड की बैंकों में खाता रखने वाले अमेरिकाए ब्रिटेन और एशिया के नेताओं और उद्योगपतियों के नाम हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने विदेशों में जमा काले धन के मामले को जोरशोर से उठाया था और इसे चुनावी मुद्दा बनाया था। उस दौरान प्रधानमंत्री ने भी इसका समर्थन करते हुए प्रचार अभियान में वादा किया था कि सत्ता में आने के 100 दिनों के भीतर वे इस दिशा में ठोस कार्रवाई करेंगे लेकिन वह अपने वायदों से दूर भाग रहे हैं।

स्विस बैंक खातों की खास बात

स्विटजरलैंड में बैंकों के खातों संबंधी कानून बेहद कड़े हैं और लोगों को पूरी गोपनीयता दी जाती है। इन कानूनों के तहत बैंक और बैंककर्मी किसी भी खातें की जानकारी खाताधारक के सिवा किसी और को नहीं दे सकते। यहां तक की स्विटजरलैंड की सरकार भी इन खातों की जानकारी हासिल नहीं कर सकती। यही नहीं स्विस बैंकों में विदेशी लोगों के लिए खाता खोलना भी बेहद आसान है। खाता खोलने की एकमात्र जरूरत सिर्फ यह है कि आपकी उम्र 18 वर्ष से अधिक होनी चाहिए। यही नहीं खाता खोलने के लिए स्विटजरलैंड पहुंचने की भी कोई जरूरत नहीं है ईमेल और फैक्स पर जानकारी देकर भी खाता खुलवाया जा सकता है।

काला धन राष्ट्रीय संपति की चोरी : सर्वोच्च न्यायालय

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने विदेशी बैंकों में जमा काले धन पर चिंता जताई। न्यायालय के कड़े रुख से सरकार पर दबाव बढ़ गया है। प्रख्यात वकील श्री राम जेठमालानी द्वारा दायर एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विदेशों में जमा काला धन केवल टैक्स की चोरी मात्र नही है, यह गंभीर अपराध, चोरी और देश की लूट का मामला है। न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी और न्यायमूर्ति एसएस निज्जर वाली पीठ ने यह कड़ी टिप्पणी की।

काले धन से देश की सुरक्षा को खतरा

काले धन का इस्तेमाल आतंकवाद को बढ़ावा देने में किया जा रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भी इस ओर इशारा किया है कि विदेशों में जमा काला धन ही आतंकियों को वित्तीय मदद के रूप में भारत में आता है।

प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और राहुल गांधी का गैरजिम्मेदाराना बयान

काले धन पर यूपीए सरकार के ढुलमुल रवैये से यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार भ्रष्टाचारियों के साथ है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 30 जुलाई 2009 को राज्यसभा में बताया था कि विदेशी बैंकों से काले धन को वापस देश में लाने के लिए सरकार कदम उठा चुकी है। प्रधानमंत्री की यह टिप्पणी सदन में वित्त विधेयक पर वित्त मंत्री के बयान पर खुद दी गई थी। प्रधानमंत्री ने देश को आश्वस्त किया था कि स्विस बैंकों में जमा एक लाख करोड़ रुपये के भारतीय काले धन को सत्ता संभालने के 100 दिन में वापस देश में ले आएंगे।

वहीं दूसरी ओर, विदेशी बैंकों में जमा काले धन के बारे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कड़ा रुख अपनाए जाने पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि काले धन को तुरंत वापस लाना आसान नहीं है और इस संबंध में मिली जानकारी को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद राष्ट्रपति भवन में संवाददाताओं से बातचीत करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने काले धन के बारे में क्या टिप्पणी की है। इसकी उन्हें जानकारी नहीं है, लेकिन काले धन की समस्या का कोई तुरंत हल नहीं है। इस संबंध में विभिन्न देशों से जो जानकारी मिली है उसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय संधि के विपरीत होगा। उन्होंने कहा कि सरकार को मिली जानकारी का इस्तेमाल सिर्फ कर वसूली के लिए है। अन्य कार्यों के लिए इसका उपयोग नहीं हो सकता।

जहां प्रधानमंत्री विदेशी बैंकों में भारतीय खाताधारकों के नाम बताने से इनकार कर रहे हैं वहीं कांग्रेस महासचिव श्री राहुल गांधी कह रहे हैं कि काला धन रखने वालों पर मामला दर्ज होना चाहिए। यह बयान केवल एक मजाक है। क्योंकि उन्हें बयान जारी करने की बजाए ठोस पहल प्रारंभ करनी चाहिए।

विदित हो कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने संकल्प पारित किया है। जिसका उद्देश्य है, गैरकानूनी तरीके से विदेशों में जमा धन वापस लिया जा सके। इस संकल्प पर भारत सहित 140 देशों ने हस्ताक्षर किए और 126 देशों ने इसे लागू कर काले धन की वापसी की कार्रवाई भी शुरू कर दी है।

अभी तक विदेशी बैंकों में जमा काले धन को भारत वापस लाने के लिए हमारे पास ठोस कानून नहीं है। इसलिए इस दिशा में ठोस कानून बनाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही काले धन के मुद्दे पर राष्ट्रीय आम सहमति बनाने का प्रयास हो तथा विदेशों में भारतीय नागरिकों द्वारा जमा किए गए काले धन को वापस लाने के लिए सरकार प्रबल इच्छाशक्ति का परिचय दे।

काले धन की वापसी से भारत की अर्थव्यवस्था का कायापलट हो सकता है। अगर ये काला धन देश की अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ दिया जाए तो स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, बिजली आदि बुनियादी आवश्यकताओं को सहज ही पूरा किया जा सकता है।

माओवादियों का सच

विश्वरंजन

माओवादी दस्तावेजों में यह बात साफ है कि उनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था और इस देश की न्याय व्यवस्था में कोई आस्था नहीं है और मूलत: वे उसे हिंसा तथा अन्य तरीकों से ध्वस्त करेंगे। जब मैं एक गिरफ्तार सी.पी.आई. (माओवादी) केसेन्ट्रल कमेटी के सदस्य से पटना में बात कर रहा था, तब उसने साफ कहा था किउसे न तो इस व्यवस्था पर या इस व्यवस्था के नैतिक आधारों पर, न इस व्यवस्था में संचालित विधि व्यवस्था पर विश्वास है और माओवादी संगठन नसिर्फ युद्ध के जरिये, अपितु अन्दर से भी घुसपैठ कर इस व्यवस्था को तोड़नेकी लगातार कोशिश करेगा। वह गणतांत्रिक व्यवस्था में पनप रही हर कमजोरी काफायदा उठाएगा। बाद में इस सेन्ट्रल कमेटी के सदस्य को न्यायालय से जमानतमिल गई और वह न सिर्फ भूमिगत हो गया, बल्कि जहानाबाद जेल-ब्रेक को अंजाम देने में भी प्रमुख भूमिका निभाई।

लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा न्याय व्यवस्था की सीमा यह है कि वहलोकतांत्रिक न्यायिक अवधारणाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकती, क्योंकि यदि वह ऎसा करती है, तो उसमें तथा एक माओवादी संगठन में कोई फर्क ही नहीं रह जाएगाऔर गणतंत्र के प्राणस्रोत सूख जाएंगे, परन्तु नक्सली इसे हमारी कमजोरीमानता है और इसका इस्तेमाल लोकतांत्रिक व्यवस्था को तोड़ने में सफलता सेकरता है। वह कानून का इस्तेमाल पुलिस को तमाम न्यायिक प्रकरणों में फंसाने के लिए भी करता है। यदि किसी जिले के पुलिस अधीक्षक को रोज-रोज हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े, तो जाहिर है, वह जिले में नक्सल विरोधी अभियान में कम समय दे पाएगा।

नक्सली-माओवादी की एक खासियत यह है कि वे अपने सिद्धांत, दांव-पेंच, रणनीति, सभी कुछ अपने गोपनीय दस्तावेजों में विस्तार से अंकित कर देते हैं। दरअसल माओवादी अपने को घोर बौद्धिक मानते आए हैं और शायद सोचते है कि हरबात दस्तावेजों के सुपुर्द करना बौद्धिकता की निशानी है। पर ऎसा करते हुएवे अपने असल मनसूबों को भी उजाकर कर देते हैं। यह दूसरी बात है कि उनके दस्तावेज चूंकि गोपनीय रहते हैं और सिर्फ उनके नेता एवं कैडर के पास तथाउनके शहरी सहयोगियों के पास होते हैं, आम जनता तक वे पहुंच नहीं पाते। पुलिस के पास बहुत बार ये दस्तावेज नक्सली शिविरों पर पुलिस कार्यवाही या मुखबिरों के जरिये पहुंच जाते हैं।

इन दस्तावेजों के जरिये सी.पी.आई. (माओवादी) का उद्देश्य बहुत साफ-साफसमझा जा सकता है। उनके दस्तावेज कहते हैं कि सशस्त्र जनयुद्ध के माध्यम सेराजसत्ता की प्राप्ति ही उनका प्रमुख उद्देश्य है। एक अन्य जगह अपने दस्तावेजों में माओवादियों ने कहा है कि सशस्त्र बल द्वारा सत्ता प्राप्ति एवं युद्ध द्वारा मुद्दों का निपटारा ही नक्सलवादी क्रांति का प्रमुख कार्य एवं लक्ष्य है। यह बात साफ जाहिर हो जानी चाहिए कि गरीबों की भलाईसी.पी.आई. (माओवादी) संगठन का उद्देश्य नहीं है, सत्ता प्राप्ति है।

इस उद्देश्य में एक ओर उनके गुरिल्ला दस्ते, मिलिट्री प्लाटून औरकंपनियां, जो माओवादी पीपुल्स गुरिल्ला आर्मी या पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के अंग होते हैं, सक्रिय भूमिका निभाती हैं, वहीं दूसरी ओर, माओवादियों के शहरी संगठन नक्सली शहरी संगठनों का मुख्य काम है सभ्य समाज, मानवाधिकार संगठनों में घुसपैठ करना तथा जनता में ऊहापोह की स्थिति निर्मित करना। आक्रामक नेटवर्किग के जरिये मीडिया, बुद्धिजीवी, न्यायिक तथा प्रशासनिकसंगठनों में भी घुसपैठ करना या ऊहापोह की स्थितियां निर्मित करना इनके प्रमुख उद्देश्य हैं।

माओवादी दस्तावेज के अनुसार, उनके शहरी सहयोगी अंशकालिक क्रांतिकारी हैं। माओवादी संगठन के लिए पेशेवर या गुरिल्ला तथा अंशकालिक क्रांतिकारियों का मजबूत होना अतिआवश्यक है, क्योंकि पेशेवर क्रांतिकारी पार्टी की आत्मा होते हैं और अंशकालिक क्रांतिकारी पार्टी के आधार। माओवादी दस्तावेजों के अनुसार, दोनों का गोपनीय रहना आवश्यक है, ताकि संगठन की गैरकानूनी गतिविधियां आसानी से चलाई जा सके। माओवादी दस्तावेजों में बहुत जगहों परविस्तार से विभिन्न क्षेत्रों तथा संगठनों में घुसपैठ के महत्व को समझाया है और बताया गया है कि कैसे इनका इस्तेमाल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में दीर्घकालीन जनयुद्ध को शक्ति प्रदान करता है।

आम लोग बहुत जांच-पड़ताल या सोच-विचार नहीं करते हैं, सीधे-सरल होतेहैं। चीजों को, समस्याऔं को सरलीकरण करके देखने के आदी होते हैं। हम सोचते हैं – अरे! एक समाजसेवी नक्सली कैसे हो सकता है। अरे! एक डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक नक्सली या उनका निकट सहयोगी कैसे हो सकता है! हम कुछ इस तरह से भी सोचते हैं – अरे, जब मैं उस व्यक्ति से बात कर रहा था, तब तो वह बहुत सज्जन व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहा था, वह नक्सली कैसे हो सकता है! हम भूल जाते हैं कि कई लोग बहुत जटिल भी होते हैं। मात्र ऊपरी तौर पर देखकर कईलोगों को आसानी से नहीं समझा जा सकता। माओ कवि थे। उन्हें तो बहुतसंवेदनशील होना चाहिए था, परन्तु हिंसा और क्रूरता में वे हिटलर के ही समान थे।

वैसे हिटलर भी अच्छी चित्रकारी करता था और उसे भी संवेदनशील होना चाहिए था, परन्तु हिटलर ने कैसे अमानवीय जुल्म ढाए, यह सर्वविदित है। अपनी जन-अदालतों में नक्सलियों ने किस तरह की अमानवीय क्रूरता का परिचय दिया है, यह बस्तर में लोगों को मालूम है।

यदि नक्सली शहरी नेटवर्क के प्रतिनिघियोंके झूठ और अर्धसत्यों के कारण भारत की जनता बस्तर में ढाए जा रहे नक्सलीजुल्म से अनभिज्ञ है, तो दुख की बात है। तथ्यों की अनभिज्ञता तथा गणतंत्रके विषय में ऊहापोह की स्थिति लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरे की पहलीघंटी ही मानी जानी चाहिए, परन्तु आदमी एक बहुत ही जटिल चीज होता है और एक साथ बहुत सारे आयामों में जी सकता है। नक्सली के साथ जुड़े बहुत सारे लोगों के साथ भी यही स्थिति है। हमें सावधान रहना चाहिए।

आखिर कौन हैं ये सप्तऋषि?

सूर्यकांत बाली

इसमें शक नहीं कि सप्तर्षि यानी सात ऋषि (सप्त+ऋषि) हमारे दिल और हमारे दिमाग पर छाए हुए हैं। बचपन में जैसे हम लोगों को चन्द्रमा में नजर आने वाले काले धब्बे को लेकर कई तरह की कहानियां सुनाई जाती हैं, ध्रुव तारे को लेकर कई तरह की बातें बताई जाती हैं, वैसे ही सप्तर्षियों के बारे में भी कई तरह की गौरव-गाथाएं सुनाई जाती हैं।

जहां आकाश में आकाशगंगा नजर आती है, वहां सप्तर्षियों का वास है, वे तारे जिन्हें सात की संख्या तक पहुंचाया जाता है, वे ही वहां रहने वाले सात ऋषि हैं, इस तरह की अद्भुत बातें, कहानियां, गाथाएं सुनकर हमारे देश के बच्चे बड़े होते हैं। जाहिर है कि हम लोगों के जेहन में सप्तर्षि अमिट तरीके से अंकित हैं और उनके प्रति हमारे मन में अगर कोई भाव है तो सिर्फ सम्मान का है, श्रद्धा का है।

पर इसमें भी कोई शक नहीं कि हम नहीं जानते कि ये सात ऋषि हैं कौन और क्यों इनको इस कदर सम्मान का और श्रद्धा का पात्र बना दिया गया कि सातवें आसमान पर तारों के बीच हमेशा के लिए, कभी नष्ट न होने के लिए बिठा दिया जाए? इन सात ऋषियों के बारे में बहुत सी बातें हैं जिन्हें हम अभी एक-एक कर बताएंगे।

पर इनके बारे में सबसे ज्यादा गड़बड़ परम्परा यह चला दी गई कि ये ब्राह्मण कुलों के प्रवर्तक थे, और जब ब्राह्मण कुलों के कथित प्रवर्तकों के नाम गिनवाने की बारी आती है तो ब्राह्मण कहे जाने वाला हर भारतीय सबसे पहले अपने कुल और उसके ठीक या गलत प्रवर्तक का नाम गिनवा देता है और उसके बाद कोई भी छह मशहूर नाम, मसलन दुर्वासा का या परशुराम का या मार्कण्डेय का नाम गिनवा देता है।

सामने कोई दूसरा ब्राह्मण जाति वाला बैठा हुआ हो और उसके कुल प्रवर्तक का, मसलन किसी कश्यप का, या किसी कौशिक का या किसी पराशर का नाम न गिनवा सका हो तो क्षमायाचना पूर्वक कह देगा कि फलां-फलां कारणों से आपके कुल प्रवर्तक सप्तर्षियों की गिनती में नहीं आ पाए।

जिसके प्रति इतना सम्मान हो, श्रद्धा हो पर उसके बारे में ठीक-ठीक पता न हो, पता लगाने की कोशिश भी अब बन्द कर दी गई हो, इसका कोई दूसरा उदाहरण कभी मिलेगा तो बताएंगे। पर फिलहाल इसमें यह बात जोड़नी जरूरी लग रही है कि उन सप्तर्षियों के नामों के साथ लिबर्टी, यह रिआयत हजारों सालों से ली जा रही है। महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं।

एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वसिष्ठ वही रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है।

इसके अलावा एक धारणा यह भी है कि चारों दिशाओं के अलग-अलग सप्तर्षि हैं और इस प्रकार अट्ठाइस ऋषियों के नाम मिल जाते हैं। बल्कि पुराणों में तो मामला इस हद तक खिंच गया है कि चौदह मन्वन्तरों के अलग-अलग सप्तर्षि माने गए हैं और यह संख्या कुल अट्ठानवे तक चली जाती है और वहां भी तुर्रा यह कि नामों में कई बार बदल हो जाता है। नहुष ने जिन सप्तर्षियों को अपनी पालकी ढोने के काम में लगाया था उनमें अगस्त्य भी एक थे, जिनके बारे में विवाद लगातार रहा है कि वे सप्तर्षि हैं या नहीं।

तो कैसे बात बनेगी? सप्तर्षियों के नामों के बारे में बेशक इस कदर विविधता रही हो, पर जैसे यह तय है कि हमारे हृदय में उनके प्रति अपार सम्मान और श्रद्धा बसी है वैसे ही दो बातें और भी तय हैं। एक, कि अपने देश में कोई न कोई वक्त ऐसा था जब सप्तर्षि शब्द बेशक प्रचलित न हुआ हो पर कोई सात ऋषिकुल ऐसे थे जो शेष ऋषिकुलों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण थे और दो, कि ये सात ऋषिकुल ऐसे थे जिन्होंने देश की सभ्यता के विकास में, विचारों के प्रवाह में, बौद्धिक योगदान में अपना नाम जरूर कमाया था। तो क्यों न इन्हीं दो तार्किक आधारों पर अपने सप्तर्षियों के पास पहुंचने की एक उम्दा कोशिश की जाए?

सप्तर्षि शब्द और इसके आभामण्डल के तले पनपी महनीय सप्तर्षि अवधारणा का विकास महाभारत और खासकर उस के बाद पुराणों के काल में हुआ तो जाहिर है कि इसका आधारकाल इससे काफी पहले का रहा होगा। कौन सा रहा होगा? इस सवाल के जवाब में फिर से ऋग्वेद हमारी सहायता करता है। कभी हमने बताया था कि ऋग्वेद में करीब एक हजार सूक्त हैं, करीब दस हजार मन्त्र हैं (चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं) और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। पर यह नहीं बताया था कि वे ऋषि कौन थे। आज वह बताने का वक्त है।

बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों (कह सकते हैं कि खण्डों) में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं। एक बार नाम जान लिए जाएं तो तर्क का सिलसिला आगे बढ़े। मंडल संख्या दो – गृत्समद वंश या ऋषिकुल, तीन-विश्वामित्र, चार-वामदेव, पांच-अत्रि, छह-भारद्वाज, सात-वसिष्ठ।

इस तरह छह नाम तो साफ-साफ मिल जाते हैं। इस नामावली के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण सूचनाएं हमारे पाठकों को पता रहनी चाहिए। एक कि इनमे गृत्समद ऋषि ने अपना गोत्र बदलकर शौनक कर लिया था और इसलिए आगे अब इन्हें शौनक कहना इतिहास की दृष्टि से ज्यादा स्वाभाविक रहेगा। दूसरी महत्वपूर्ण सूचना यह है कि इन छह कुलों के अलावा एक और कुल भी था, कण्वकुल जिसके अनेक ऋषियों ने कई पीढ़ी तक मन्त्र रचे और वे सभी मन्त्र ऋग्वेद में हैं।

फिर क्यों नहीं वेदव्यास ने ऋग्वेद के मन्त्रों का संकलन (मौजूदा) तैयार करते समय उनके मन्त्रों को कण्वकुल का एक पृथक वंशमंडल देने का वैसा गौरव नहीं दिया जैसा शेष छह कुलों को दिया? जवाब आसान नहीं। अनुमान ही लगाया जा सकता है कि चूंकि कण्वकुल के अनेक ऋषियों ने अपने मन्त्र कुछ दानदाताओं की प्रशंसा में बना डाले इसलिए वेदव्यास ने इन्हें पसंद न कर, काव्यकर्म के विरूद्ध मानकर, पृथक वंशमंडल का गौरव न दिया हो। कण्वों के इस तरह के मन्त्रों को ‘नाराशंसी’ कहते हैं और दाता राजाओं की प्रशंसा में होने के कारण ये मंत्र पुराने राजाओं के बारे में हमारी जानकारी बढ़ाने में खासी सहायता करते हैं। पृथक वंशमंडल बेशक न मिला हो, पर कण्वकुल तो है।

तो सात ऋषिकुल सामने आ गए-वसिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। इनका कालक्रम भी करीब-करीब इसी श्रृंखला में है। जिस ग्रंथ का नाम ऋग्वेद है, जो ग्रन्थ हमारे देश की बौद्धिक प्रखरता का पर्यायवाची और दुनिया भर में हमारी पहचान का अभूतपूर्व प्रतीक बना हुआ हो और जिसके प्रति विद्वानों का आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा हो और पढ़ने वालों की मांग बढ़ती जा रही हो, उस ऋग्वेद के मंत्रों का अधिकतम भाग जिन सात ऋषिकुलों ने पीढ़ी दर पीढ़ी रचा हो, उन सात कुलों का कितना अद्वितीय सम्मान इस देश के लोगों के बीच रहा होगा, क्या इसकी कल्पना कर सकते हैं?

कर सकते हैं, इसलिए जाहिर है कि ये सात ऋषिकुल, ये सात ऋषि हमारी विचार धरोहर के पुरोधा होने के कारण हमारी स्मृति में अमर हो गए और बाद में कभी व्यावसायिक तो कभी राजनीतिक कारणों से सप्तर्षियों के नामों में और अवधारणा में फर्क आता गया हो तो कोई क्या कर सकता है? पर अगर तर्क और इतिहास की सीढ़ी चढेंग़े तो इस अवधारणा के शिखर पर आप इन्हीं सात ऋषियों को बैठा पाएंगे। इसलिए अचरज नहीं कि किसी भी सप्तर्षि गणना में इनमें से अधिकांश नाम, कभी चार, कभी पांच तो कभी छह नाम इन्हीं में से आते हैं और इनमें से हरेक का सप्तर्षित्व आज तक सुरक्षित है।

फिर इनमें से हर कुल के प्रवर्तक ने या उसके परवर्ती ने देश की सभ्यता के विकास में अपना अनूठा योगदान किया है। आद्यवसिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो मैत्रावरूण वसिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया जिसका अनुकरण करते भविष्य में किसी से नहीं बना। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह अद्भुत योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार कर ईरान (आज का) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया तो भरद्वाजों में से एक भरद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी। वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया तो शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरूकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया।

फिर से बताएं तो वसिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक-ये हैं वे सात ऋषि, सप्तर्षि, जिन्होंने इस देश की मेधा को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारा हृदय खुद ब खुद किसी अपूर्व मनोभाव से भर जाता है।

बाद में जो अपने-अपने कारणों से अपने-अपने नाम जोड़ने की होड़ लगी तो यह सप्तर्षि के महत्व को ही दिखाता है। पर सप्तर्षि तो सप्तर्षि हैं। हमें उनके नाम तो मालूम रहने ही चाहिएं, यह भी मालूम रहना चाहिए कि वे सप्तर्षि क्यों हैं। इन्हें भूल सकते हैं भला?

वनवास और त्याग से साकार होगा रामराज्य

भारत विकास संगम के समापन सत्र में संगम के संरक्षक माननीय के.एन. गोविन्दाचार्य ने मंचस्थ पूज्य सिद्धेश्वर स्वामी, प्रमुख संतजन, सम्मानित अतिथि गण, मातृ शक्ति और देश के कोने-कोने से आई सज्जन शक्ति के अभिवादन के साथ अपने उद्बोध्न की शुरुआत की। प्रस्तुत है उसके मुख्य अंश…

भारत विकास संगम का 10 दिवसीय अधिवेशन अपने समापन की तरफ आ रहा है। इस मंच से प्रबुद्धजनों ने जो विचार प्रकट किये हैं उनके प्रति मैं पूरा सम्मान प्रकट करता हूं। यहां के आमजनों के मन में भी कार्यक्रम के आयोजन को लेकर जो सद्भाव और पवित्रता प्रकट हुई है, वही कार्यक्रम के आयोजन की सफलता का प्रेरणादायी तत्त्व है। पूरे कार्यक्रम की सफलता किसी एक विचारधारा, विद्यालय अथवा व्यक्ति के योगदान से नहीं बल्कि सम्पूर्ण जनता की ताकत तथा साहस पूर्ण पहल का परिचय देती है। पथ का अंतिम लक्ष्य नहीं है सिंहासन चढ़ते जाना यह गीत हमारे कार्य की प्रेरणा होना चाहिए। ‘समाज आगे, सत्ता पीछे, तभी होगा स्वस्थ विकास’ यह भारत विकास संगम का मूल मंत्र है। समाज में अनेकों लोग काम कर रहें हैं और एक आंकड़े के अनुसार लगभग 6 लाख गांवों में 21 लाख एनजीओ काम कर रहे हैं, फिर भी समाज में विविध समस्याओं की उपस्थिति तथा निरंतर विद्रूप होती व्यवस्था हमारे लिये एक चुनौती बन कर खड़ी है। इसलिए हमारा लक्ष्य केवल संगठन में वृदि करना नहीं होना चाहिए। इस अधिवेशन में आये हुए समस्त सज्जन शक्ति से हमारा निवेदन है कि जब हम यहां से लौटकर जायें तो यह सोच कर जायें कि हमारे केन्द्र पर अब कोई गरीबी रेखा के नीचे नहीं रहेगा, कृषि का उत्पादन दो गुना होगा, गाय-बैल की संख्या दोगुनी होगी, हम एक लाख नशामुक्त गांव खड़ा करेंगे, खून की कमी से कोई महिला नहीं मरेगी, कुपोषण का शिकार कोई बच्चा नहीं मिलेगा, यह संकल्प लेकर जाना होगा। सभी की सामूहिकता तथा संगठनों की आपसी संवाद, सहमति एवं सहकार के साथ ही ऐसी स्थिति खड़ी हो सकती है। यदि हम ठान लें तो 10 वर्षों के अन्दर इन बुराइयों का मूलोच्छेद हो सकता है। हमें इस अधिवेशन के पश्चात् अपने कार्य की एक वर्ष के अन्दर की तैयारी करनी है। समस्त जिलों में जिला विकास संगम करना है, सबको-भोजन सबको काम की योजना बना कर उसका क्रियान्वयन करना है। आप सब संगम के इस समापन सत्र से बड़ा लक्ष्य लेकर अपने-अपने क्षेत्र में जायें, यह हमारी अपेक्षा है। देश की सज्जन शक्ति के हजारों सक्रिय संगठनों/समाजसेवियों की एक ‘डायरेक्ट्री’ मार्च 2011 तक बनाई जानी चाहिए। कौन-कौन से लोग किस-किस क्षेत्रा में कैसा कार्य कर रहें हैं, ये सभी जानकारी सर्वसुलभ हो, तभी एक दूसरे के कार्य में सहकार बढ़ेगा। मैं अपील करता हूं कि अपने कार्यों व संस्थाओं का एक संक्षिप्त विवरण अवश्य उपलब्ध कराते जाएं।

हमें छोटी-छोटी पांच बातों पर भी ध्यान देने की जरुरत है- पहली यह कि जाति, क्षेत्र, भाषा आदि भेदों को छोड़कर हमें रोटी, रिहाइश और रिश्ते की नयी परिभाषा व प्रयोग अनुपादित करना होगा। दूसरा यह कि अपने जीवन के आवश्यक रोजमर्रा के सामानों का उपयोग हम चाहत से देशी, जरूरत से स्वदेशी करें तथा मजबूरी में ही विदेशी करें और मजबूरी कम होती चले, इसका निरंतर प्रयास करें। तीसरा यह कि आज सीमा के घुसपैठ पर सभी जन दिलचस्पी लेकर बातें करतें हैं और मौखिक चिन्ता प्रकट करते हैं लेकिन इसके साथ ही हमें अपने मुहल्ले व पास-पड़ोस की भी चिन्ता करनी होगी और पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध विकसित करने होंगे। चौथी यह कि गलत तरीके से अमीर बनने के लालच पर लगाम लगाना होगा। हमें यह तय करना होगा कि हमारी इमारत एक मंजिल कम बने मगर उसकी आधारशिला पवित्र, पारदर्शी और मजबूत हो। पांचवी यह कि हम जो भी करें उसे परिपूर्णता के साथ करें। हमारे छोटे-छोटे कामों में भी परिपूर्णता दिखनी चाहिए। उदाहरण के लिए हर रोटी गोल बने, इसका निरंतर प्रयास रोटी बनाने वाले हाथों को करना होगा।

यह सम्मेलन देश में तब हो रहा है जब चारों तरफ कहीं विकीलीक्स की, तो कहीं नीरा राडिया के ‘लीक्स’ की चर्चा हो रही है। ऐसे समय में सम्मेलन में 10 दिनों तक देश के प्रत्येक कोने से आये हुई सज्जन शक्ति के द्वारा भारत को दुनिया का सरताज बनाने के लिए आह्वान किया जा रहा है। देश में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है। अच्छे प्रयासों को भी समाज के पटल पर लाने की आवश्यकता है। आज समाज में चुनौतियां भी बहुत हैं, लेकिन चुनौतियां तो वीर पुरुषों के लिए अपनी क्षमता को प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान करती हैं। जिस तरह इस सम्मेलन में जुटे प्रमुख लोगों ने अपने सहयोग व समर्थन की सदाशयता दिखायी है, उससे सिद्ध है कि अच्छे कार्यों में सहयोग करने वालों की कमी कहीं भी नहीं होती है।

भारत को यदि दुनिया की महाशक्ति के रूप में देखना है तो ऐसी सोच रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस अभियान के महारथ को भगवान जगन्नाथ की रस्सी की तरह खींचने का काम करना होगा, जिसमें प्रयास तो सबका होता है परंतु रथ का संचालन ईश्वरीय सद्प्रेरणा से निरंतरता पूर्वक होता है। हम भी इस महान अभियान में बड़े कामों के लिए एक उपकरण बनें, यह सभी की इच्छा होनी चाहिए।

सार्वजनिक जीवन में गलत तरीके से पैसे लेकर सही काम किया जाना असम्भव है। गलत तरीके से पैसा अर्जित करने वालों को जीवन का वास्तविक सम्मान कभी भी नहीं मिल सकता है। कुछ दिग्भ्रमित लोगों द्वारा ऐसे लोगों को सम्मानित किये जाने का प्रयास यदि किया जा रहा हो तो उसकी सामाजिक स्तर पर निन्दा और तिरस्कार होना चाहिए। समाज में जो भी अच्छे कार्य करने वाले लोग हैं उन्हें हमें निरंतर जोड़कर चलते रहना होगा। जब एक दूसरे का सहकार होगा तभी सार्थकता भी अपनी परिपूर्णता की तरफ अग्रसर होगी।

राम महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन राम से बड़ा राम का नाम है। राम के नाम से बड़ा राम का काम है और राम का जो काम है वही रामराज्य की स्थापना है। यदि हम रामराज्य की कामना करते हैं तब रामराज्य की स्थापना के लिए हमें वनवास और त्याग करना होगा। रामराज्य की स्थापना के लिए यदि 14 वर्ष तक वनवास भोगने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम चाहिए तो भरत की तरह 14 वर्ष तक खड़ांऊ के माध्यम से त्याग का अप्रतिम उदाहरण देते हुए राज्य चलाने का साहस रखने वाला भी चाहिए। रामराज्य ऐसे नहीं आता है, रामराज्य तो तब आता है जब राम वानरों से, आदिवासियों से, शबरी से सबसे जुड़ते हैं।

व्यवस्था के परिवर्तन में तथा रामराज्य की स्थापना में हमेशा लड़ाई की शुरुआत और अन्त आम आदमी करता है। वह आम आदमी कभी हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जामवन्त आदि के रूप में भी हो सकता है। आज देश का सामान्य आदमी ही रामराज्य लाने में सक्षम है। राम-रावण युद्ध के दौरान देवतागण केवल जय हो! जय हो! का उद्घोष कर रहे थे। उन्होंने यह नहीं सुनिश्चित किया था कि किसकी जय हो? राम की अथवा रावण की? वे तब भी युद्ध के दौरान राम की जय हो, बोलने में रावण की शक्ति से भयकंपित थे। इसलिए आज हमें देवताओं की भूमिका में जय हो! करने वालों की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। जब आपके कार्यों की जय होगी तो देवतागण खुद जयगान करेंगे।

मेरा विश्वास है कि युद्ध साधनों से नहीं अपनी साधना से जीता जाता है। हमें साधन की तरफ अकर्मण्यतापूर्वक देखने की आवश्यकता नहीं। हमें अपनी साधना के द्वारा सभी साधनों को जुटा कर सम्पूर्ण परिवर्तन के युद्ध की शुरुआत करनी होगी। साधना के बल पर शुरू हुआ यह युद्ध निश्चय ही कालजयी विजय दिलाएगा। तब समाज आगे होगा और सत्ता पीछे होगी।

मंदराचल मंथन के समय बार-बार पर्वत धरातल में नीचे चला जाता था। देवताओं और दानवों को इस मंथन में जब असुविधा होने लगी तो भगवान ने कूर्मावतार लिया। मंदराचल के आधार के रूप में भगवान ने अपने को कछुए के रूप में स्थापित किया। आज जब देश में सभी सज्जन शक्तियों के सम्मेलन और सामाजिक समस्याओं पर एक वृहद् मंथन का आयोजन किया जा रहा है, ऐसे में भारत विकास संगम की भूमिका कूर्मावतार की तरह से समुपस्थित हुई है।

10 वर्ष के अन्दर भारत में समृद्ध और संस्कृति का समग्र रूप लाने में ईश्वर हम सभी को प्रेरणा, साहस तथा कौशल दे, यही प्रार्थना करते हुए मैं अपनी बात पूरी करता हूं।