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गीतालेख/ गौ माता, तेरा ये ”वैभव” (?) अमर रहे

गिरीश पंकज

गाय के सवाल पर मैं निरंतर कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ. यह बता दूं कि मैं धार्मिक नहीं हूँ. पूजा-वगैरह में कोई यकीन नही करता. मंदिर भी नहीं जाता. भगवान् के सामने हाथ जोड़ने की ज़रुरत ही नहीं पडी, क्योंकि मेरा मानना है, कि ”जिसका मन निर्मल होता है/जीवन गंगाजल होता है” मैं केवल भले कर्म करने कि विनम्र कोशिशें करता रहता हूँ, लेकिन गाय के मामले में कुछ भावुक हो जाता हूँ. एक हिन्दू होने के नाते नहीं, एक मनुष्य होने के नाते. गाय को वेद-पुरानों में माँ कह कर बुलाया जाता है. कहते हैं कि गाय के शरीर में अनेक देवता विराजते है. मगर यह माँ रोज़ कितनी दुर्दशा भोगती है, यह हम सब जानते है. इस आलेख के साथ जो दो चित्र आप देख रहे है, ये चित्र केवल रायपुर के नहीं हैं, देश के किसी भी चहेते बड़े शहर में नज़र आ जायेंगे. इस चित्र की खासियत यह है, कि दो गाय कचरे के ढेर पर खड़ी है, और दीवाल पर के नारा लिखा है- ”गौ माता तेरा वैभव अमर रहे”. क्या यही है गाय का वैभव कि वह कचरे के ढेर में खाना तलाश रही है?रायपुर की एक सरकारी कालोनी से रोज़ गुज़रता हूँ मैं. रोज़ नारे पर नज़र पड़ती और उसी के ठीक सामने गायों को कचरे के भीषण नरक में पालीथिन चबाते या ज़हर पचाते हुए देखा करता था. आज मन नहीं माना. रुक कर एक तस्वीर उतर ली. तभी मैंने देखा कोई आया और उसने कचरे में आग लगा दी. उसने इस बात की परवाह नहीं की कि गाय जल सकती है. जाहिर है, मुझे दौड़ना पडा. वह तो आग लगा कर भाग खडा हुआ. तस्वीर उतार कर मैं फ़ौरन गाय को हटाने आगे बढ़ा. वैसे गाय आग की बढ़ती तपिश के कारण गाय खुद किनारे होने लगी थी.

ये हाल है हमारे इस समय का. दीवार देख कर किसी महानुभाव ने नारा लिख दिया, अपना नाम-पता भी लिख मारा लेकिन उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की कि गायें कचरे के ढेर में खड़ी न हों. गाय के साथ यही हो रहा है इस देश में. लोग नारे लगाते हैं, गाय-गाय चिल्लाते हैं, मगर गो सेवा के नाम पर चंदे खाने के सिवा कुछ भी नहीं करते. सबकी नज़र गो सेवा आयोग के फंड पर रहती है. सब यही चाहते है, कि उनकी गौशाला को चंदा मिले, अनाज मिले. और वे गौशाला के पैसे से मालामाल होते रहे. इस समाज में ऐसे लोग भी हैं,जो गाय को प्रणाम करेंगे और वक़्त आने पर लात भी मरेंगे. अजीब है लोग, गाय बीमार पड़ जाये, या बाँझ हो जाये तो उसे बेच कर नोट कमाने में पीछे नहीं रहेंगे. ऐसे भयंकर निर्मम समय में गाय होना खतरनाक है. गाय जब दीवारों पर लिखे नारे देखती है, कि ”तेरा वैभव अमर रहे माँ”, तो खूब हंसती है और कहती है-”अरे मनुष्य, तू बड़ा पाखंडी हो गया है रे. मैं तेरे छल-छंदर को प्रणाम करती हूँ. मनुष्य तू बड़ा महान है. तेरे चरण कहाँ है, मै तुझे नमन करती हूँ. ले..तू मेरा ये गीत सुन ले…-

गाय हूँ, मैं गाय हूँ, इक लुप्त -सा अध्याय हूँ।

लोग कहते माँ मुझे पर मैं बड़ी असहाय हूँ।।

दूध मेरा पी रहे सब, और ताकत पा रहे।

पर हैं कुछ पापी यहाँ जो, माँस मेरा खा रहे।

देश कैसा है जहाँ, हर पल ही गैया कट रही।

रो रही धरती हमारी, उसकी छाती फट रही।

शर्म हमको अब नहीं है, गाय-वध के जश्न पर,

मुर्दनी छाई हुई है, गाय के इस प्रश्न पर।

मुझको बस जूठन खिला कर, पुन्य जोड़ा जा रहा,

जिंदगी में झूठ का, परिधान ओढ़ा जा रहा।

कहने को हिंदू हैं लेकिन, गाय को नित मारते।

चंद पैसों के लिये, ईमान अपना हारते।

चाहिए सब को कमाई, बन गई दुनिया कसाई।

माँस मेरा बिक रहा मैं, डॉलरों की आय हूँ।। गाय हूँ….

मेरे तन में देवताओं का, सुना था वास है।

पर मुझे लगता है अब तो, बात यह बकवास है।

कैसे हैं वे देव जो, कटते यहाँ दिन-रात अब,

झूठ कहना बंद हो, पचती नहीं यह बात अब।

मर गई है चेतना, इस दौर को धिक्कार है।

आदमी को क्या हुआ, फितरत से शाकाहार है।

ओ कन्हैया आ भी जाओ, गाय तेरी रो रही।

कंस के वंशज बढ़े हैं, पाप उनके ढो रही।

जानवर घबरा रहे हैं, हर घड़ी इनसान से।

स्वाद के मारे हुए, पशुतुल्य हर नादान से।

खून मेरा मत बहाओ, दूध मेरा मत लजाओ।

बिन यशोदा माँ के अब तो, भोगती अन्याय हूँ।। गाय हूँ…

मैं भटकती दर-ब-दर, चारा नहीं, कचरा मिले,

कामधेनु को यहाँ बस, जहर ही पसरा मिले।

जहर खा कर दूध देती, विश्वमाता हूँ तभी,

है यही इच्छा रहे, तंदरुस्त दुनिया में सभी।

पालते हैं लोग कुत्ते और बिल्ली चाव से,

रो रहा है मन मेरा, हर पल इसी अलगाव से।

डॉग से बदतर हुई है, गॉड की सूरत यहाँ,

सोच पश्चिम की बनी है इसलिए आफत यहाँ।

खो गया गोकुल हमारा, अब कहाँ वे ग्वाल हैं,

अब तो बस्ती में लुटेरे, पूतना के लाल हैं।

देश को अपने जगाएँ, गाँव को फौरन बचाएँ।

हो रही है नष्ट दुनिया, मैं धरा की हाय हूँ।। गाय हूँ…..

ममता के पांच काल्पनिक मिथ और यथार्थ

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

ममता बनर्जी को मिथ बनाने की आदत है वह उनमें जीती हैं। ममता बनर्जी निर्मित पहला मिथ है माकपा शैतान है। दूसरा मिथ है मैं तारणहार हूँ। तीसरा मिथ है माओवादी हमारे बंधु हैं। चौथा मिथ है हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा है और पांचवां मिथ है ‘हरमदवाहिनी’। इन पांचों मिथों का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। छद्म मिथों को बनाना फिर उन्हें सच मानने लगना यही ममता की आयरनी है। यहीं पर उसके पराभव के बीज भी छिपे हैं। ममता बनर्जी अधिनायकवादी भाषा का प्रयोग करती हैं उनकी आदर्श भाषा का नमूना है ‘हरमदवाहिनी’ के नाम से गढ़ा गया मिथ। ‘हरमदवाहिनी’ काल्पनिक सृष्टि है। यह मिथ लालगढ़ में पिट गया है। वहां के साधारण किसान और आदिवासी समझ गए हैं कि इस नाम से पश्चिम बंगाल में कोई संगठन नहीं है। यह थोथा प्रचार है। लालगढ़ में ‘हरमदवाहिनी’ के कैंपों की एक सूची तृणमूल कांग्रेस और माओवादी बांट रहे हैं। इस सूची में 86 कैंपों के नाम हैं और इनमें कितने लोग हैं उनकी संख्या भी बतायी गयी है। उनके अनुसार ये माकपा के गुण्डाशिविर हैं और माकपा के अनुसार ये माओवादी हिंसाचार से पीड़ितों के शरणार्थी शिविर हैं। सच क्या है इसके बारे में सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं। किस कैंप में कितने गुण्डे या शरणार्थी हैं यह आधिकारिक तौर पर कोई नहीं जानता।

विगत दो साल में माओवादियों ने लालगढ़ में आतंक की सृष्टि की है । 200 से ज्यादा माकपा के निर्दोष सदस्यों और हमदर्दों की हत्याएं की हैं। सैंकड़ों को बेदखल किया है। इनमें से अनेक लोग बड़ी मुश्किल से पुलिसबलों की मदद से अपने घर लौटे हैं। लालगढ़ के विभिन्न इलाके स्वाभाविक छंद में लौट रहे हैं। यह बात ममता एंड कंपनी के गले नहीं उतर रही है। ममता एंड कंपनी ने माकपा के ऊपर लालगढ़ में हमले, लूटपाट, हत्या, औरतों के साथ बलात्कार आदि के जितने भी आरोप लगाए गए हैं वे सब बेबुनियाद हैं। लालगढ़ में एक साल में एक भी ऐसी घटना नहीं घटी है जिसमें माकपा के लोगों ने किसी पर हमला किया हो ,इसके विपरीत माओवादी हिंसाचार ,हत्याकांड,जबरिया चौथ वसूली और स्त्री उत्पीडन की असंख्य घटनाएं मीडिया में सामने आई हैं।

असल में ममता बनर्जी और माओवादी ‘हरमदवाहिनी’ के मिथ के प्रचार की ओट में लालगढ़ के सच को छिपाना चाहते हैं। उनके पास माकपा या अर्द्ध सैन्यबलों के लालगढ़ ऑपरेशन के दौरान किसी भी किस्म के अत्याचार,उत्पीड़न आदि की जानकारी है तो उसे मीडिया ,केन्द्रीय गृहमंत्री और राज्यपाल को बताना चाहिए। उन्हें उत्पीडि़तों के ठोस प्रमाण देने चाहिए। उल्लेखनीय है माकपा ने यह कभी नहीं कहा कि उनके लालगढ़ में शिविर नहीं हैं। वे कह रहे हैं उनके शिविर हैं और इनमें माओवादी हिंसा से पीडित शरणार्थी रह रहे हैं। ममता बनर्जी जिन्हें गुण्डाशिविर कह रही हैं वे असल में शरणार्थी शिविर हैं । सवाल उठता है माकपा और वामदलों को लालगढ़ में राजनीति करने हक है या नहीं ? ममता और माओवादी चाहते हैं कि उन्हें लालगढ़ से निकाल बाहर किया जाए। इसके लिए ममता बनर्जी ने माओवादी और पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी के हिंसाचार तक का खुला समर्थन किया है।

माकपा के लोग लालगढ़ में हमले कर रहे होते,बलात्कार कर रहे होते.उत्पीड़न कर रहे होते तो कहीं से तो खबर बाहर आती। लालगढ़ से साधारण लोग बाहर के इलाकों की यात्रा कर रहे हैं। प्रतिदिन सैंकड़ों-हजारों लोग इस इलाके से बाहर आ जा रहे हैं। इसके बाबजूद माकपा के द्वारा लालगढ़ में अत्याचार किए जाने की कोई खबर बाहर प्रकाशित नहीं हुई है। कुछ अर्सा पहले ममता बनर्जी की लालगढ़ रैली में लाखों लोग आए थे। माओवादी भी आए थे। ममता बनर्जी ने माकपा के द्वारा लालगढ़ में सताए गए एक भी व्यक्ति को उस रैली के मंच पर पेश नहीं किया । माओवादियों के दोस्त मेधा पाटकर और अग्निवेश भी मंच पर थे वे भी किसी उत्पीडि़त को पेश नहीं कर पाए। नंदीग्राम में जिस तरह तृणमूल कांग्रेस ने माकपा के अत्याचार के शिकार लोगों को मीडिया के सामने पेश किया था वैसा अभी तक लालगढ़ में वे नहीं कर पाए हैं। मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि माकपा साधुओं का दल है। वह संतों का दल नहीं है। वह संगठित कम्युनिस्ट पार्टी है। उसके पास विचाराधारा से लैस कैडरतंत्र है जो उसकी रक्षा के लिए जान निछाबर तक कर सकता है। विचारधारा से लैस कैडर को पछाड़ना बेहद मुश्किल काम है। माकपा के पास गुण्डावाहिनी नहीं है विचारों के हथियारों से लैस पैने-धारदार कैडर हैं। उनके पास पश्चिम बंगाल में हथियारबंद गिरोहों से आत्मरक्षा करने और लड़ने का गाढ़ा अनुभव है। उनके साथ अपराधियों का एकवर्ग भी है। जिनसे वे सहयोग भी लेते हैं। लेकिन लालगढ़ जैसे राजनीतिक ऑपरेशन को सफल बनाने में गुण्डे मदद नहीं कर रहे वहां विचारधारा से लैस कैडर जान जोखिम में डालकर जनता को एकजुट करने और माओवादी हिंसाचार का प्रतिवाद करने का काम कर रहे हैं। माओवादी हिंसा का प्रतिवाद देशभक्ति है ,लोकतंत्र की सबसे बड़ी सेवा है।

लोकतंत्र में माकपा को अपने जनाधार को बचाने का पूरा हक है। केन्द्र और राज्य सरकार के द्वारा माओवाद के खिलाफ अभियान में माकपा के कैडर लालगढ़ में जनता और पुलिसबलों के बीच में सेतु का काम कर रहे है। वे लालगढ़ में लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रहे हैं । लोकतंत्र की खातिर मारे जा रहे हैं। वे न गुण्डे हैं और न महज पार्टी मेम्बर हैं। वे लोकतंत्र के रक्षक हैं । लालगढ़ में माकपा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है और उसका उसे राजनीतिक लाभ भी मिलेगा। ममता जानती हैं कि माओवाद प्रभावित इलाकों में विधानसभा की 46 सीटें हैं और ये सीटें तृणमूल कांग्रेस के प्रभावक्षेत्र के बाहर हैं और इन सीटों पर वे किसी न किसी बहाने सेंधमारी करना चाहती हैं जो फिलहाल संभव नहीं लगती और यही लालगढ़ की दुखती रग है।

सांसत में पाकिस्तान के अल्पसंख्यक


आर. एल. फ्रांसिस

हमेशा कश्मीर -कश्मीर चिल्लानेवाले और भारत में मानवाधिकारों के तथाकथित उल्लंघन पर घड़ियाली आँसू बहानेवाले पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ कैसा अत्याचार हो रहा है इसका उदाहरण हाल ही में पांच बच्चों की मां 45 वर्षीय ईसाई महिला आसिया बीबी को एक निचली अदालत द्वारा दी गई मौत की सजा है। पाकिस्तान में लागू ईशनिंदा कानून के तहत यह सजा सुनाई गई है। इसके पहले भी कई गैर मुस्लिमों को इस कानून के तहत सजाए दी गई है। सबसे चर्चित मामला वर्ष 1994 में एक 11 वर्षीय ईसाई युवक सलामत मसीह का है। जिसने सारी दुनिया का ध्यान पाकिस्तान के इस काले कानून की तरफ खींचा था।

पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक के शासनकाल में ईशनिंदा कानून बनाया गया था जिसमें यह प्रावधान था कि अगर कोई व्यक्ति इस्लाम या मोहम्मद साहब की निंदा करता है तो उसे आजीवन कारावास की सजा दी जाए। सन् 1992 में नवाज षरीफ ने इस आजीवन कारावास के प्रावधान को फाँसी की सजा में बदल दिया था। यह कानून मुसलमानों पर नहीं बल्कि गैर मुस्लिमों पर ही लागू होता है। इसका अर्थ यह है कि अगर कोई मुसलमान गीता, बाइबिल या गुरु ग्रंथ साहब की निंदा करता है या हिंदू देवी-देवता, ईसा मसीह अथवा गुरुनानक आदि की आलोचना करता है तो उसे कोई सजा नही दी जा सकती। हाँ कोई मुसलमान अगर अपने धर्म और मुहम्मद साहब की निंदा करता है तो वह ईशनिंदा कानून की गिरप्त में आ जाता है। जाहिर है कि ईशनिंदा कानून धार्मिक भेदभाव पर अधारित ही है और पिछले दो दशकों से इसका भीषण दुरुपयोग पाकिस्तान में हो रहा है।

पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथी लगातार उग्र होते जा रहे है वहां के राजनीतिक दलों, प्रशासन एवं सेना तक में इनकी गहरी घुसपैठ हैं। उन्होंने ईशनिंदा कानून में किसी भी तरह के बदलाव किये जाने के विरुद्ध सरकार को चेतावनी दी है। पाकिस्तान में ईसाई सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय है। इनकी इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए कट्टरपंथी इस्लामिक समूह उन्हें अपना निषाना बनाए हुए है। वर्ष 2009 में कराची शहर में ईसाइयों की एक बस्ती पर तालिबान ने धावा बोलकर कई निर्दोष ईसाइयों को मौत के घाट उतार दिया था और उन्हें धमकी दी कि वह इस्लाम ग्रहण करें। तालिबान कराची एंव पूरे सिंध में शरीया लागू करना चाहता हैं।

इस्लाम के नाम पर अस्तित्व में आया पाकिस्तान आज अपने ही फैलाये हुए धार्मिक कट्टरपन के भंवर में फंस गया है। यहां के अल्पसंख्यक डर और खौफ के साये में जी रहे है। कट्टरपंथी समूहों के बाद अब यहां इस्लाम का तथाकथित रक्षक ‘तालिबान’ खड़ा हो गया है जो बंदूक की ताकत से पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर हर हलात में ‘इस्लाम’ थोपने पर तुला हुआ है और उसके निशाने पर ईसाई समुदाय है। भारत के मामले में जिस तरह वैटिकन एवं अन्य यूरोपीय देश ईसाई मामलों को लेकर दखलअंदाजी करते है वह स्थिति पाकिस्तान के मामले में नही है। हालाकि भारत में हिन्दू एवं अन्य धर्मावलम्बी ईसाइयत के प्रति हमेशा सहज ही रहे है। यहां कोई किसी को ईसाइयत छोड़ने के लिए नही कहता। हमारे यहां छुट-पुट टकराव की नौबत तब आती है जब कुछ लोग दूसरे के धर्मो के अदरुनी मामलों में हस्तक्षेप करने लगते हैं। यहां के कुछ ईसाई नेताओं ने विश्व पटल पर भारत को एवं हिन्दू समुदाय को बदनाम करने का ठेका उठा रखा है। ऐसे नेताओं को पाकिस्तान के हलातों से सीख लेते हुए देष में तनाव बढ़ाने वाली गतिविधियों को बंद करना चाहिए।

समय की मांग है कि वेटिकन एवं अन्य यूरोपीय देश पाकिस्तान में मानवाधिकारों का हनन करने वाले काले कानूनों के विरुद्ध अपनी आवाज उठाए। पाकिस्तान के गरीब ईसाइयों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए कदम उठाये जाए। दरअसल पाकिस्तान के बहुसंख्यक ईसाई दलित जातियों से है और उन्होंने अविभजित भारत में अंग्रेजी राज के समय ईसायत की दीक्षा ली है। 1855 में साकॅटलैंड के चर्च ने पंजाब और उतर पश्चिमी इलाके पर अपना प्रभाव बढ़ाया 1880 तक इस इलाके की अछूत जाति ‘चूड़ा’ का जबरदस्त धर्मांतरण हुआ। लाल बेगी कहे जाने वाले इस समूह को ईसाइयत की तरफ खिंचने के लिए अंग्रेजों ने अपनी सेना में एक रेजीमैंट ही खड़ी कर दी थी। क्योंकि चूड़ा भी महारों की तरह लड़ने वाली जाती मानी जाती हैं। इन्हीं ईसाइयों के बलबूते ईसाई मिशनरियों ने इस क्षेत्र (आज का पाकिस्तान) में अपना कार्य शुरु किया। मिशनरियों ने नए ईसाइयों को लहोर, कराची, फैसलाबाद, हैदराबाद, मुल्तान, कोटा, पेशावर, रावलपिंडी, लायपुर, मांटगुमरी, सयालकोट और इस्लामाबाद जैसे क्षेत्रों में बसाया। यह लोग विभाजन के बाद पाकिस्तान में ही रह गये और आज यह वहा अमानवीय जीवन जी रहे है।

ईसाई ही नही हिन्दू समुदाय भी इस्लामिक कट्टरपंथी समूहों का निशाना बना हुआ है। पाकिस्तान में 1947 में जिनते हिन्दू थे उसमें अभी आधे रह गए हैं। कट्टरपंथी समूहों ने गैर मुसलमानों के अलावा उन मुसलमानों को भी नही अपनाया जो विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए थे उन्हें आज मोहाजिर कहा जाता है। जिस राश्ट्र का निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना मोहाजिर था आज उसी राश्ट्र में मोहाजिरों के खिलाफ उग्र आदोंलन है। और मोहाजिरों को अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए ‘मोहाजिर कौमी मूवमेंट’ जैसा राजनैतिक संगठन खड़ा करना पड़ा है। जिन्ना ने भले ही द्विराष्ट्र सिंद्धांत दिया हो लेकिन वे धर्म के अधार पर भेदभाव नही चाहते थे। लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने धार्मिक भेदभाव शुरु कर दिया।

सबसे पहले अहमदिया मुसलमानों को इस्लाम से बाहर किया गया फिर हिन्दू मंदिरों एवं गुरुद्वारों को तोड़ा गया। अहमदिया मुसलमानों को अपने नाम के आगे मुसलमान लिखने पर पाबंदी लगा दी गई। जनरल जिया-उल-हक ने इस्लामीकरण का जोरदार आदोंलन चलाया और ईशनिंदा कानून अस्तित्व में आया। सारे पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की कैसी दुर्दशा है यह आसिया बीबी की स्थिति को देखकर पता चलता है। ऐसे पाकिस्तान को भारत में मानवाधिकारों का मसला उठाने की नैतिक छूट कैसे दी जा सकती है? अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मामलों ने सारी दुनियां की आँखें खोल दी है। मगर पाकिस्तान की आँखें अभी नही खुली है। अब देखना होगा कि पाकिस्तान सरकार आसिया बीबी के मामले में क्या कदम उठाती है।

अंग्रेजी नववर्ष का भारतीयकरण

विजय कुमार

कुछ दिन बाद फिर एक जनवरी आने वाली है। हर बार की तरह समाचार माध्यमों ने वातावरण बनाना प्रारम्भ कर दिया है। अतः 31 दिसम्बर की रात और एक जनवरी को दिन भर शोर-शराबा होगा, लोग एक दूसरे को बधाई लेंगे और देंगे। सरल मोबाइल संदेशों (एस.एम.एस) के आदान-प्रदान से मोबाइल कंपनियों की चांदी कटेगी। रात में बारह बजे लोग शोर मचाएंगे। शराब, शबाब और कबाब के दौर चलेंगे। इसके अतिरिक्त और भी न जाने लोग कैसी-कैसी मूर्खताएं करेंगे ? जरा सोचिये, नये दिन और वर्ष का प्रारम्भ रात के अंधेरे में हो, इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है ?

यह अंग्रेजी या ईसाई नववर्ष दुनिया के उन देशों में मनाया जाता है, जिन पर कभी अंग्रेजों ने राज किया था। यद्यपि हर देश अपने इतिहास और मान्यताओं के अनुसार नव वर्ष मनाता है। भारत में प्रायः सभी संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होते हैं; पर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका और ब्रिटेन का वर्चस्व दुनिया में बढ़ गया। इन दोनों के ईसाई देश होने से कई अन्य देशों में भी ईसाई वेशभूषा, खानपान, भाषा और परम्पराओं की नकल होने लगी। भारत भी इसका अपवाद नहीं है।

यह बात मुझे आज तक समझ में नहीं आई कि यदि ईसा मसीह का जन्म 25 दिसम्बर को हुआ था, तो जिस वर्ष और ईस्वी को उनके जन्म से जोड़ा जाता है, उसे एक सप्ताह बाद एक जनवरी से क्यों मनाया जाता है ? वस्तुतः ईसा का जन्म 25 दिसम्बर को नहीं हुआ था। चौथी शती में पोप लाइबेरियस ने इसकी तिथि 25 दिसम्बर घोषित कर दी, तब से इसे मनाया जाने लगा। तथ्य तो यह भी हैं कि ईसा मसीह के जीवन के साथ जो प्रसंग जुड़े हैं, वे बहुत पहले से ही योरोप के अनेक देशों में प्रचलित थे। उन्हें ही ईसा के साथ जोड़कर एक कहानी गढ़ दी गयी।

इससे इस संदेह की पुष्टि होती है कि ईसा नामक कोई व्यक्ति हुआ ही नहीं। वरना यह कैसे संभव है कि जिस तथाकथित ईश्वर के बेटे के दुनिया में अरबों लोग अनुयायी हैं, उसकी ठीक जन्म-तिथि ही पता न हो। जैसे भारत में ‘जय संतोषी मां’ नामक फिल्म ने कई वर्ष के लिए एक नयी देवी को प्रतिष्ठित कर दिया था, कुछ ऐसी ही कहानी ईसा मसीह की भी है।

इसके दूसरी ओर भारत में देखें, तो लाखों साल पूर्व हुए श्रीराम और 5,000 से भी अधिक वर्ष पूर्व हुए श्रीकृष्ण ही नहीं, तो अन्य सब अवतारों, देवी-देवताओं और महामानवों के जन्म की प्रामाणिक तिथियां सब जानते हैं और उन्हें हर वर्ष धूमधाम से मनाते भी हैं।

लेकिन फिर भी नव वर्ष के रूप में एक जनवरी प्रतिष्ठित हो गयी है। लोग इसे मनाते भी हैं, इसलिए मेरा विचार है कि हमें इस अंग्रेजी पर्व का भारतीयकरण कर देना चाहिए। इसके लिए निम्न कुछ प्रयोग किये जा सकते हैं।

1. 31 दिसम्बर की रात में अपने गांव या मोहल्ले में भगवती जागरण करें, जिसकी समाप्ति एक जनवरी को प्रातः हो।

2. अपने घर, मोहल्ले या मंदिर में 31 दिसम्बर प्रातः से श्रीरामचरितमानस का अखंड पारायण प्रारम्भ कर एक जनवरी को प्रातः समाप्त करें।

3. एक जनवरी को प्रातः सामूहिक यज्ञ का आयोजन हो।

4. एक जनवरी को भजन गाते हुए प्रभातफेरी निकालें।

5. सिख, जैन, बौद्ध आदि मत और पंथों की मान्यता के अनुसार कोई धार्मिक कार्यक्रम करें।

6. एक जनवरी को प्रातः बस और रेलवे स्टेशन पर जाकर लोगों के माथे पर तिलक लगाएं।

7. एक जनवरी को निर्धनों को भोजन कराएं। बच्चों के साथ कुष्ठ आश्रम, गोशाला या मंदिर में जाकर दान-पुण्य करें।

यह कुछ सुझाव हैं। यदि इस दिशा में सोचना प्रारम्भ करेंगे, तो कुछ अन्य प्रयोग और कार्यक्रम भी ध्यान में आएंगे। हिन्दू पर्व मानव के मन में सात्विकता जगाते हैं, चाहे वे रात में हों या दिन में। जबकि अंग्रेजी पर्व नशे और विदेशी संगीत में डुबोकर चरित्रहीनता और अपराध की दिशा में ढकेलते हैं। इसलिए जिन मानसिक गुलामों को इस अंग्रेजी और ईसाई नववर्ष को मनाने की मजबूरी हो, वे इसका भारतीयकरण कर मनाएं।

राजनीतिक दलों के अर्थहीन होते अधिवेशन

पंकज चतुर्वेदी

वो गुजरे जमाने की बात है, जब राजनीतिक दल और राजनेताओं को देश में सम्मान की नज़रों से देखा जाता था। मुंबई आतंकी हमले के बाद से राजनेता नाम के इस जीव की सामाजिक साख और घटी है, व दिनों–दिन और घटती ही जा रही है। इस सब के लिए भारत के राजनेता और उनकी क्रिया कलाप ही उत्तदायी है। हर घोटाले में किसी ना किसी राजनीतिक दल के नेता का नाम जरुर शामिल होता है, और कानून के तमाम कोशिशों के बाद भी आज तक कोई सजा नहीं पा सका है। राजनीतक दलों के आचरण और अधिवेशन भी अब व्यर्थ से लगने लगे, जिन में आम आदमी को कोई रूचि और सरोकार नहीं है।आजादी के पहले और बाद में भी, लोग राजनीतिक पार्टियों के अधिवेशन से उम्मीद लगाते थे और ये अधिवेशन भी जन-आकांशाओं पर खरे उतरते थे। यह अधिवेशन ही उस दल की और उस दल से जुडी सरकार की रीति –नीति निर्धारित करते थे।

यह प्रक्रिया एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए नए खून के जैसी लाभदायक होती थी, जहाँ बिलकुल निचले स्तर की जनता की समस्याए और सुझाव दोनों ही संगठन के माध्यम से सत्ता तक पहुँच जाते थे।जिन पर गहन संवाद के बाद यह निर्णय लिया जाता था कि, अब सरकार इसे मूर्तरूप दे और आम जनता का भला हो। लेकिन राजनीतिक दलों का वर्तमान परिदृश्य अब इस से बिलकुल उलट है।लोक तंत्र की दुहाई देने वाले ये सब राजनीतिक दल ही एकाधिकार से ग्रासित है। पार्टियों के आंतरिक चुनाव अब सिर्फ भारत निर्वाचन आयोग को दिखने के लिये होते ताकि राजनीतिक दल के रूप में मिली मान्यता और लाभ बरक़रार रहें। भारत निर्वाचन आयोग भी इन दलों से यह नहीं पूछता कि क्या सच इनके चुनावों में आंतरिक लोक तंत्र है या महज दिखावा।

इस राजनीतिक एकाधिकारवाद को क्षेत्रीय दलों और उनके जातिगत समीकरणों ने और बल दिया है। कश्मीर, उत्तरप्रदेश, बिहार, तामिलनाडू, उड़ीसा, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र जैसे देश के प्रमुख राज्यों में क्षेत्रीय दल हर सत्ता समीकरण का महत्वपूर्ण भाग है, इन को अलग कर सरकार चलाना असंभव है। टाटा का उत्तराधिकारी परिवार के बाहर का हो सकता है, लेकिन इन दलों का अगला मुखिया कौन होगा यह सब जानते है। योग्य हो या अयोग्य महराजा के बाद युवराज या युवरानी ही इन दलों के राज सिंहासन को सुशोभित करेंगे। कांग्रेस जैसा पुराना राजनीतिक दल भी इस बीमारी से पीड़ित है, यद्यपि कांग्रेस के युवा नेता राहुल गाँधी ने बीसियों बार यह स्वीकारा है की उनकी वर्तमान राजनीतिक उपलब्धियां उनके गाँधी उपनाम के कारण है, और वे प्रयास कर रहें है की इन स्थितियों को बदला जाये।देखना यह है की राहुल गाँधी के यह प्रयास कब और कितना रंग लाते है।इन परिस्थितियों में जन विकास और जनता से जुडाव दोनों ही पीछे छूट गये है, जिन्हें सहारा देकर आगे लेन वाला इस कथित लोकतंत्र में कोई भी नहीं है।

इन सब कारणों से हर राजनीतिक दल और उसके अधिवेशन जनता के लिये किसी काम और रूचि के नहीं बचे है।क्या फायदा इन बड़े–बड़े समारोहों का जहाँ साधारणता और भारतीयता के नाम पर सम्पन्त्ता और धन –वैभव का प्रदर्शन होता है। ऐसी विलासित की आम आदमी ही घबरा जाये।प्रतिनिधियों के लिए सर्वसुविधा –युक्त आवास, शाही भोजन और इस सबके बाद जनता खाली हाथ।यह सब महज धन और समय की बर्बादी नहीं तो और क्या है?

नरसिंह राव की सरकार के बाद से आज तक केंद्र सरकारों और तमाम राज्य सरकारों ने जनहित की जो भी योजनाये दिखती है, वो किसी पार्टी अधिवेशन की नहीं अपितु पार्टी से जुड़े बुद्धजीवियों के दिमाग की उपज है फिर वो अटल जी के समय की नदी जोड़ो की बात हो या आज की मनरेगा और सूचना का अधिकार हो।

कांग्रेस का हल ही सम्पन बुराड़ी अधिवेशन हो या पिछले दिनो मध्य प्रदेश में हुआ भारतीय जनता पार्टी का अधिवेशन हो, दोनों जगह जनता के कल्याण के स्थान पर जनता पर राज कैसे हो इसकी योजना बनी। हमारी कुर्सी कैसे बची रहें या हमें कुर्सी कैसे मिले आज ये महत्वपूर्ण है, ना की आम आदमी का रोटी कपडा और मकान ना जल जंगल और जमीन। सत्ता प्राप्त करना ही अब प्राथमिकता और उद्देश्य बन गया है।

जनहित के लिए सत्ता पर नियंत्रण और कब्ज़ा जरूरी है, इस सोच को बदलना होगा और ऐसा व्यव्हार एवं आचरण प्रदर्शित करना होगा जहाँ सत्ता से जनहित साधने के बजाय जनहित से सत्ता और सत्ता में बैठे लोगों को साधा जाये और ऐसा प्रयोग सफलतापूर्वक इसी भारत में महात्मा गाँधी, विनोवा भावे और जयप्रकाश नारायण जैसे लोगो ने किया है।

लेकिन अब इस नस्ल के और सोच के राज नेता ढूंढे से भी नहीं मिलते अब तो बस कुर्सी पाने के इच्छुक नेता ही बचे है, जिनकी संपत्तियां जन सेवा में सैकडों और हजार गुना बढ़ रही है वही आम आदमी आज भी दो जून रोटी के लिए संघर्ष रत है।

राजनीति में विपक्ष की कमियां सामने लाना उचित है, पर हर राजनीतिक वार का निशान सत्ता सिंहासन ही होगा तो जल्दी ही लोकतंत्र सिर्फ सत्ता तंत्र में बदल जायेगा और शायद आजादी और मानवता जैसी बातें केवल शब्दकोष या वार्तालाप का हिस्सा भर रह जाएगी।

मप्र में कुपोषण के नाम पर किसका ‘पोषण’

रामबिहारी सिंह

मध्‍यप्रदेश के माथे पर लगे चुके कुपोषण के कलंग को मिटाने के लिए प्रदेश सरकार जहां पानी की तरह पैसा बहा रही है वहीं आज भी मप्र में कुपोषण के नाम पर कुपोषित का नहीं, बल्कि किसी और का पोषण हो रहा है। हाल ही में प्रदेश की भाजपा सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च कर प्रदेश में कुपोषण के खिलाफ एक मिशन के तौर पर जिस तरह से ‘अटल बाल अरोज्य एवं पोषण मिशन’ की शुरुआत की है उससे तो यही लगता है कि यह ‘पोषण मिशन’ भी प्रदेश से कुपोषितों का पोषण करने के बजाय कहीं पोषितों के पोषण का जरिया न बन जाए। मिशन की शुरुआत जिस तरह से गरीब व भूखे को धयान में रखकर इसका नामकरण पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नाम पर किया गया और शुभारंभ कार्यक्रम के दौरान प्रदेश का कोई कुपोषित बच्चों की नहीं, बल्कि प्रदेश के माननीयों और नौकरशाहों की टोली दिखी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार यदि मिशन के शुभारंभ के अवसर पर श्पोषितोंय के बजाय कुपोषितों को बुलाकर उनसे रूबरू होती तो शायद यह मिशन अपने मकसद में कामयाब होने के ज्यादा करीब रहता।

मधयप्रदेश में हर साल करीब 30 हजार बच्चे अपना पहला जन्मदिन तक नहीं मना पाते और काल के गाल में समा जाते हैं। ये वो अभागे अबोधा बच्चे हैं, जो धारती पर पैर रखने के साथ ही कुपोषण के शिकार होते हैं और जन्म के बाद पोषण आहार की कमी के चलते अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी कलंक की बदौलत मध्‍यप्रदेश देश के उन पिछड़े राज्यों में शुमार है, जहां शिशु मृत्युदर सबसे ज्यादा है। मधयप्रदेश में शिशुमृत्यु दर 70 प्रति हजार है। गरीबी, पिछड़ेपन और अशिक्षा की मार झेल रहे मध्‍यप्रदेश में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक है, जबकि प्रदेश की भाजपा सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं है। हालांकि पिछले दिनों भारत सरकार द्वारा राज्य सरकार और केंद्र के अधिकृत प्रतिवेदनों के आधार पर जारी रिपोर्ट के बाद प्रदेश सरकार को शर्म से झुकना पड़ा और उसने स्वीकार किया कि मध्‍यप्रदेश में हर साल हजारों बच्चे कुपोषण के कारण बेमौत मारे जाते हैं। और इसके बाद प्रदेश सरकार ने इससे निजात का वादा किया और जिसका आगाज अटल बाल अरोज्य मिशन के तौर पर की गई है पर देखना यह है कि यह मिशन प्रदेश के माथे से इस कलंक को मिटाने में कितना सफल हो सकेगा।

मध्‍यप्रदेश को कुपोषण की समस्या से निजात दिलाने का वायदा आश्वासन बनकर ही रह गया। आंकड़े इसके प्रमाण हैं। वर्ष 2008-09 में राज्य में कुपोषण के कारण 29 हजार 274 बच्चों की मौत होने की पुष्टि खुद राज्य सरकार ने विधानसभा में की है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में कुपोषण 54 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत पहुंच गया है। रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश में 12.6 प्रतिशत बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण का शिकार हैं, जबकि देश में औसतन 6.4 प्रतिशत बच्चे ही गंभीर रूप से कुपोषित हैं। मध्‍यप्रदेश में 13 लाख 35 हजार बच्चे (पांच वर्ष तक की आयु के) गंभीर रूप से कुपोषित हैं तो प्रदेश में पिछले 32 महीनों में 82 हजार से अधिक शिशुओं की मौत हो चुकी है। इसमें अकेले सतना जिले में इस दौरान करीब 5 हजार से अधिक शिशुओं की मौत हुई, जो कि प्रदेश में सर्वाधिक है।

विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही प्रमुख दलों ने चुनावी घोषणा पत्रों में राज्य को कुपोषण मुक्त बनाने का वायदा किया था, लेकिन कमजोर इच्दाशक्ति, उदासीन प्रशासन तंत्र, शासन-प्रशासन में भ्रष्टाचार और जनता के प्रति संवेदनहीन रवैये के कारण हर साल करोड़ों-अरबों रुपए पानी की तरह बहाने के बाद भी कुपोषण की समस्या भयावह रूप में मौजूद है। राज्य सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के ग्रोथ चार्ट के मानदंडों के अनुसार मधयप्रदेश में कुपोषित बच्चों का पता लगाने के लिए दिसंबर 2009 में एक अभियान चलाया था। अभियान के तहत 6 माह से 6 वर्ष तक के बच्चों का वजन लेकर उनमें कुपोषण के स्तर का पता लगाने लिए बच्चों की तीन श्रेणियां तय की गई। इसमें सामान्य, कम वजन और अति गंभीर कुपोषित बच्चों के आधार पर सर्वे किया गया। इस अभियान के तहत कुल 57 लाख बच्चों का वजन लिया गया, जिसमें से करीब 2 लाख 82 हजार बच्चे अति गंभीर कुपोषित पाए गए। यहीं नहीं औसत से कम वजन के बच्चों की संख्या भी करीब 18 लाख के आसपास रही, जबकि सामान्य वजन के बच्चों की संख्या मात्र 36 लाख सामने आई।

सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक पाई गई है, जिनमें राज्य के झाबुआ, अलीराजपुर, मंडला, सीधी, धार और अनूपपुर जिलों में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 7 से 15 प्रतिशत तक रही। हालांकि कुपोषण की स्थिति का पता लगाने के लिए बच्चों के वजन मापने के इस अभियान में कई तरह की खामियां और गड़बडियां भी सामने आईं, जिसके कारण प्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों की वास्ततिक स्थिति सामने नहीं आ सकी। ऐसे में इन नतीजों पर पूरी तरह से भरोसा तो नहीं किया जा सकता, किन्तु यह राज्य सरकार और इसके कर्ता-धार्ताओं के लिए आंख खोलने वाले हैं। गड़बडियों में वजन मापने की मशीनों की कमी के कारण 30 हजार से ज्यादा आंगनबाड़ी केंद्रों में दूसरे स्थानों से मशीने लाई गईं और कई मशीनें बिगड़ जाने से सुदूर ग्रामीण अंचलों में उन्हें सुधारा भी नहीं गया और मनमाने तौर पर बच्चों का वजन लिया गया। फिर भी इन ताजे परिणामों से भी यह सिध्द होता है कि मधयप्रदेश में बच्चों में कुपोषण की स्थिति काफी खतरनाक स्थिति में हैं।

कुपोषण को लेकर प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमला कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मधयप्रदेश में समेकित बाल विकास सेवाओं के लिए पूरे राज्य में जहां एक लाख 46 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है, वहां राज्य में केवल 70 हजार आंगनबाड़ी केंद्र ही संचालित हो रहे हैं, जो कि राज्य के मात्र 76 फीसदी बच्चों को ही अपनी सेवाएं दे पा रही हैं, जबकि एक चौथाई बच्चे अभी भी बाल कल्याण सेवाओं से पूरी तरह से वंचित हैं। मधयप्रदेश की केवल 13 हजार आदिवासी बस्तियों में समेकित बाल विकास सेवा का लाभ पहुंच रहा है, लेकिन तकरीबन 4200 आदिवासी बस्तियां इस सेवा से आज भी वंचित हैं। राज्य में वर्ष 2007-08 में इस सेवा के लिए जहां 1320 करोड़ रुपयों की आवश्यकता थी वहीं सरकार ने इसके लिए केवल 320 करोड़ रुपए ही उपलब्ध कराये। इसमें भी पोषण आहार के लिए तो मात्र 255 करोड़ रुपए। मधयप्रदेश सरकार 2008-09 के आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि राज्य में कुल 367 बाल विकास परियोजनाओं के अंतर्गत कुल 69 हजार 2 सौ 38 आंगनबड़ी केंद्रों से तकरीबन 49 लाख 24 हजार बच्चों तथा 10 लाख 31 हजार गर्भवती एवं स्तनपान कराने वाली माताओं को पोषण आहार सेवा का लाभ उपलब्धा कराया जा रहा है।

2010 में छाए रहे सचिन, सानिया, साइना, सुशील और सोमदेव

ए एन शिबली

बीता साल 2010 कुल मिला कर देखें तो खेलों की दुनिया में भारत के लिए अच्छा रहा। जहां वायक्तिगत तौर पर कई खिलाड़ियों ने विश्व स्तर पर भारत का नाम रोशन किया वहीं राष्ट्रमंडल खेलों का शानदार आयोजन कर भारत ने यह साबित किया की उसमें भी खेलों के बड़े बड़े आयोजन करने की सलाहियत है। यह सही है की इस बड़े आयोजन से पहले तैयारी में बड़ी कमियाँ सामने आयीं, इसमें बड़े पैमाने पर घोटाले भी सामने आए मगर कुल मिलकर जहां तक आयोजन का सवाल है तो इसका आयोजन पूरी तरह से सफल रहा और उन सभी देशों ने भारत की तारीफ की जो इसके सफल आयोजन पर शक कर रहे थे।

जहां तक खिलाड़ियों के वायक्तिगत प्रदर्शन का सवाल है तो इस बार कई नए खिलाड़ियों ने अपनी खास पहचान बनाई। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान उन खिलाड़ियों ने भी पदक जीते जिनका कभी किसी ने नाम भी नहीं सुना था। वैसे कुल मिलकर जो खिलाड़ी सालों भर छाए रहे उनमें सचिन तेंडुलकर, सानिया मिर्ज़ा, साइना नहवाल, सुशील कुमार और सोमदेव देव बर्मन के नाम खास हैं। सचिन ने न केवल इस वर्ष किरकेट में अपने दो दशक पूरे किए बल्कि कई बेहतर पारियाँ खेल कर उनहों ने यह साबित किया की उनमें अभी बहुत किरकेट बाक़ी है और वो किसी से भी बेहतर बल्लेबाज़ी कर सकते हैं।

साल जाते जाते सचिन ने टेस्ट किरकेट में अपने शतकों का अर्धशतक तो पूरा कर ही लिया इसी साल उनहों ने एकदिवसीए किरकेट की पहली डबल संचूरी भी बना दी। एकदिवस्ये किरकेट के लगभग 40 साल के इतिहास में हमेशा से यह एक प्रश्न बना हुआ था की किया कभी कोई बल्लेबाज़ इस प्रकार की किरकेट में भी डबल संचूरी बना सकता है। बीते दिनों में कई बल्लेबाजजों ने 150 या उस से अधिक रनों की पारी खेली मगर कोई दोहरे शतक तक नहीं पहुँच सका। लगभग 15 साल पहले जब पाकिस्तान के सईद अनवर ने 194 रनों की पारी खेली तो यह भी एक रिकार्ड बना रहा। हर किसी को उम्मीद थी की सहवाग, या जयसुरिया जैसा खिलाड़ी ही एकदिवसीए मैचों में दोहरा शतक बना सकता है मगर यह कमाल किसी और ने नहीं बल्कि उस खिलाड़ी ने किया जिसके नाम पहले से ही एक दो नहीं बल्कि कई रिकार्ड थे।

इस वर्ष सचिन ने न केवल टेस्ट में शतकों का अर्धशतक पूरा किया, एक दिवासिए मैचों में दोहरा शतक लगाया बल्कि टेस्ट में पूरे साल सब से अधिक रन उनहों ने ही बनाए। डरबन में खेले गए दूसरे टेस्ट तक सचिन ने इस साल अब तक 14 मैच में 1562 रन बनाए थे जिसमें सात शतक शामिल हैं। यह 2010 में किसी भी बल्लेबाज़ का सब से ज़्यादा रन है। यह किसी कैलेंडर वर्ष में उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। इस से यह भी साबित होता है की उम्र बढ्ने के साथ साथ सचिन के खेल में और भी निखार आता जा रहा है। तेंदुलकर ने बांग्लादेश के खिलाफ नाबाद 105 रन की पारी से वर्ष का आगाज किया और फिर श्रीलंका के खिलाफ कोलंबो और आस्ट्रेलिया के खिलाफ बेंगलूर में दोहरा शतक जड़ा। उन्होंने सेंचुरियन में 50वां सैकड़ा लगाकर साबित कर दिया कि उनकी रनों की भूख अभी कम नहीं हुई है बल्कि लगातार बढ़ती जा रही है।

टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा की तरह ही दिन ब दिन नई बुलंदियों को छू रही बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नहवाल के लिए यह साल भी यादगार रहा। याद रहे की पिछले दो तीन सालों से उनहो ने काफी नाम कमाया है। इस साल उन्होंने दुनिया की शीर्ष दो खिलाड़ियों की सूची में शामिल होने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी होने का गौरव हासिल किया। हालाकि बाद में उन्हे चौथे स्थान पर लुढ़कना पड़ा लेकिन साल के अंत में हागकाग सुपर सीरीज में खिताबी जीत की बदौलत एक बार फिर दूसरे पायदान पर काबिज हो गई। सायना का इस साल यह तीसरा और कुल चौथा सुपर सीरीज खिताब है। देश के सबसे बड़े खेल सम्मान राजीव गाधी खेल रत्न से सम्मानित सायना ने राष्ट्रमंडल खेलों में भारत को स्वर्ण दिलाकर अंक तालिका में इंग्लैंड को पीछे छोडते हुए पहली बार देश को दूसरा स्थान दिलाया। साइना ने साल के शुरुआत में आल इग्लैंड सुपर सीरीज के सेमीफाइनल में पहुचने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी का दर्जा हासिल किया था। साइना जैसा खेल पेश कर रहीं है उस से उम्मीद है की आने वाले दिनों में वो विश्व की नंबर एक खिलाड़ी बन जाएंगी।

टेनिस की बात करें तो इस वर्ष सानिया मिर्ज़ा का खेल तो बेहतर रहा ही सोमदेव देव बर्मन ने भी काफी नाम कमाया। देश के नंबर एक एकल टेनिस खिलाड़ी सोमदेव देवबर्मन ने इस साल जिस तरह से प्रदर्शन किया है उससे खेल प्रेमियों को उनसे अगले सत्र में एटीपी टूर में भी खिताबी सफलता हासिल करने की आस बनने लगी है। हालांकि पेशेवर टेनिस में शीर्ष सौ खिलाडि़यों की सूची में 94वीं रैंकिंग तक पहुँचने के बाद वह अभी 106वीं रैंकिंग पर हैं मगर इसमें बेहतरी की उम्मीद है. सोमदेव की साल की स्वर्णिम सफलता की कहानी राष्ट्रमंडल खेलों से शुरू हुई जहां उन्होंने एकल वर्ग में आस्ट्रेलिया के ग्रेग जोंस को हराकर भारत के लिए सोने का पदक जीता। यही सफलता एशियाड में भी जारी रही। उन्होंने वहां कुल तीन पदक जीते जिसमें दो स्वर्ण व एक कांस्य पदक शामिल हैं. ग्वांग्झू में पहले सनम सिंह के साथ जोड़ी बनाते हुए मेजबान चीनी टीम को हराया। उसके बाद अगले दिन एकल वर्ग में भी स्वर्ण पदक जीता। सोमदेव की सफलता को देखकर ऐसा लगता है की अब भारत को लिएंडर पेस व महेश भूपति के बाद एक और बहतारेन टेनिस खिलाड़ी मिल गया है। डेविस कप में भी सोमदेव ने भारत की सफल अगुवाई की और अब ऐसा अग्ने लगा है की टेनिस प्रेमियों को महेश भूपति और लेंडर पेस की कमी का एहसास नहीं होगा।

2010 में सानिया मिर्ज़ा ने भी कुछ ऐसा प्रदर्शन किया की चोट के बाद उनकी वापसी को यादगार कहा जा सकता है। राष्ट्रमंडल खेलों में सानिया को महिला एकल में रजत पदक मिला जबकि महिला युगल में उन्होंने रश्मि चक्रवर्ती के साथ मिलकर कांस्य पदक जीता। अप्रैल में पाकिस्तानी कीकेटर शोएब मालिक से शादी करने के बाद कलाई की चोट के कारण सानिया ने कुछ दिनों का ब्रेक लिया और फिर अच्छी वापसी की। भारत को राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में चार पदक दिलाने के अलावा उन्होंने साल के अंत में 17 महीने बाद खिताब जीता। सानिया ने दुबई में 13वीं अल हबतूर टेनिस चैलेंज के फाइनल में 80वें नंबर की सर्बिया की बोजाना जोवानोवस्की को हराया। एक समय 37 वें नंबर पर पहुँच चुकी सानिया फिलहाल 114 वें नंबर पर है मगर उनके प्रदर्शन को देख कर ऐसा लगता है की वो इस में सुधार करेंगी और एक बार फिर उन्हें अपना खोया हुआ सथान वापस मिल जाएगा।

कुश्ती में सुशील कुमार का जलवा इस साल भी जारी रहा। उनके अलावा भारत के दूसरे पहलवानों ने भी इस वर्ष कमाल का प्रदर्शन किया। भारतिए पहलवानों के बेहतर प्रदर्शन का अंदाज़ा इस से लगाया जा सकता है की राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए दस स्वर्ण सहित 19 पदक जीते। जहां तक सुशील कुमार का प्रश्न है तो वो तो पूरे साल कमाल करते ही रहे। ओलंपिक पदक जीतने बाद सुशील कुमार ने मास्को में इस साल अगस्त में आयोजित विश्व कुश्ती चैंपियन में पहली बार भारत को इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता का स्वर्ण पदक दिलाया। राष्ट्रमंडल खेलों में भी सुशील को सोने का तमग़ा मिला अब सुशील का कहना है की उनका लक्ष्य लंदन ओलंपिक खेलों का स्वर्ण पदक जीतना है। सुशील जैसा खेल पेश कर रहें है उस से कुश्ती के जानकारों को लगता है की यदि सुशील सही दिशा में मेहनत करते रहे तो उनके लिए ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतना असंभव नहीं है।

दूसरे खेलों के खिलाड़ियों की बात करें तो 2010 में मुक्केबाजी में विजेंदर सिंह, सुरंजय सिंह, और विकास कुमार यादव, बिलयर्ड्स में पंकज आडवाणी, टेबल टेनिस में शरत कमल, निशानेबाजी में गगन नारंग, अभिनव बिंद्रा, अनीसा सैयद और तैराकी में दीपिका कुमारी ने यादगार प्रदर्शन किया। उसी प्रकार चक्का फेंक में कृष्ण पूनीय ने भी कमल किया। कुल मिलकर देखें तो 2010 भारत के लिए खेलों के हिसाब से बेहतर तो रहा ही व्यक्तिगत तौर पर विभिन्न खेलों के कई खिलाड़ियों ने भी शानदार खेल पेश कर के इस साल को खुद के लिए यादगार बनाया।

पुस्तक-समीक्षा/ भारतीय मीडिया की सच्ची पड़ताल

समीक्षकः डा. शाहिद अली

पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां

लेखकः संजय द्विवेदी

प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

नए दौर में मीडिया दो भागों में बंटा हुआ है, एक प्रिंट मीडिया और दूसरा इलेक्ट्रानिक मीडिया। भाषा और तेवर भी दोनों के अलग–अलग हैं। खबरों के प्रसार की दृष्टि से इलेक्ट्रानिक मीडिया तेज और तात्कालिक बहस छेड़ने में काफी आगे निकल आया है। प्रभाव की दृष्टि से प्रिंट मीडिया आज भी जनमानस पर अपनी गहरी पैठ रखता है। फिर वे कौन से कारण हैं कि आज मीडिया की कार्यशैली और उसके व्यवहार को लेकर सबसे ज्यादा आलोचना का सामना मीडिया को ही करना पड़ रहा है। चौथे खंभे पर लगातार प्रहार हो रहे हैं। समाज का आईना कहे जाने वाले मीडिया को अब अपने ही आईने में शक्ल को पहचानना कठिन हो रहा है। पत्रकारिता के सरोकार समाज से नहीं बल्कि बाजार से अधिक निकट के हो गये हैं। नए दौर का मीडिया सत्ता की राजनीति और पैसे की खनक में अपनी विरासत के वैभव और त्याग का परिष्कार कर चुका है। यानी मीडिया का नया दौर तकनीक के विकास से जितना सक्षम और संसाधन संपन्न हो चुका है उससे कहीं ज्यादा उसका मूल्यबोध और नैतिक बल प्रायः पराभव की तरफ बढ़ चला है।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की नई पुस्तक ‘मीडिया- नया दौर नई चुनौतियां’ इन सुलगते सवालों के बीच बहस खड़ी करने का नया हौसला है। संजय द्विवेदी अपनी लेखनी के जरिए ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर विमर्श लगातार करते रहते हैं। लेखक और पत्रकार होने के नाते उनका चिन्तन अपने आसपास के वातावरण के प्रति काफी चौकन्ना रहता है, इसलिए जब वे कुछ लिखते हैं तो उनकी संवेदनाएं बरबस ही मुखर होकर सामने आती हैं। राजनीति उनका प्रिय विषय है लेकिन मीडिया उनका कर्मक्षेत्र है। संजय महाभारत के संजय की तरह नहीं हैं जो सिर्फ घटनाओं को दिखाने का काम करते हैं, लेखक संजय अपने देखे गये सच को उसकी जड़ में जाकर पड़ताल करते हैं और सम्यक चेतना के साथ उन विमर्शों को खड़ा करने का काम करते हैं जिसकी चिंता पूरे समाज और राष्ट्र को करना चाहिए।

यह महज वेदना नहीं है बल्कि गहरी चिंता का विषय भी है कि आजादी के पहले जिस पत्रकारिता का जन्म हुआ था इतने वर्षों बाद उसका चेहरा-मोहरा आखिर इतना क्यों बदल गया है कि मीडिया की अस्मिता ही खतरे में नजर आने लगी है। पत्रकार संजय लंबे समय से मीडिया पर उठ रहे सवालों का जवाब तलाशने की जद्दोजहद करते हैं। कुछ सवाल खुद भी खड़े करते हैं और उस पर बहस के लिये मंच भी प्रदान करते हैं। बाजारवादी मीडिया और मीडिया के आखिरी सिपाही स्व.प्रभाष जोशी के बीच की जंग तक के सफर को संजय काफी नजदीक से देखते हैं और सीपियों की तरह इकट्ठा करके लेखमालाओं के साथ प्रस्तुत करते हैं। संजय के परिश्रमी लेखन पर प्रख्यात कवि श्री अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं – “संजय के लेखन में भारतीय साहित्य, संस्कृति और इसका प्रगतिशील इतिहास बार-बार झलक मारता है बल्कि इन्हीं की कच्ची मिट्टी से लेखों के ये शिल्प तैयार हुए हैं। अतः उनका लेखन तात्कालिक सतही टिप्पणियां न होकर, दीर्घजीवी और एक निर्भीक, संवेदनशील तथा जिन्दादिल पत्रकार के गवाह हैं। ऐसे ही शिल्प और हस्तक्षेप किसी भी समाज की संजीवनी है।”

यह सच है कि संजय के लेखों में साहित्य, संस्कृति और प्रगतिशील इतिहास का अदभुत संयोग नजर आता है। इससे भी अधिक यह है कि वे बेलाग और त्वरित टिप्पणी करने में आगे रहते हैं। वैचारिक पृष्ठभूमि में विस्तार से प्रकाश डालना संजय की लेखनी का खास गुण हैं, जिससे ज्यादातर लोग सहमत हो सकते हैं। पं.माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर कमल दीक्षित ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि “ श्री द्विवेदी प्रोफेशनल और अकादमिक अध्येता – दोनों ही हैं। वे पहले समाचार-पत्रों में संपादक तक की भूमिका का निर्वाह कर चुके हैं। न्यूज चैनल में रहते हुए उन्होंने इलेक्ट्रानिक मीडिया को देखा समझा है। अब वे अध्यापक हैं। ऐसा व्यक्ति जब कोई विमर्श अपने विषय से जुड़कर करता है तो वह अपने अनुभव तथा दृष्टि से संपन्न होता है, इस मायने में संजय द्विवेदी को पढ़ना अपने समय में उतरना है। ये अपने समय को ज्यादा सच्चाई से बताते हैं।” संजय के लेखन के बारे में दो विद्वानों की टिप्पणियां इतना समझने में पर्याप्त है कि उनकी पुस्तक का फलसफा क्या हो सकता है। अतः इस पुस्तक में संजय ने मीडिया की जिस गहराई में उतरकर मोती चुनने का साहस किया है वह प्रशंसनीय है। पुस्तक में कुल सत्ताइस लेखों को क्रमबद्ध किया गया हैं जिनमें उनका आत्मकथ्य भी शामिल है।

पहले क्रम में लेखक ने नई प्रौद्योगिकी, साहित्य और मीडिया के अंर्तसंबंधों को रेखांकित किया है। आतंकवाद, भारतीय लोकतंत्र और रिपोर्टिंग, कालिख पोत ली हमने अपने मुंह पर, मीडिया की हिन्दी, पानीदार समाज की जरुरत, खुद को तलाशता जनमाध्यम जैसे लेखों के माध्यम से लेखक ने नए सिरे से तफ्तीश करते हुए समस्याओं को अलग अन्दाज में रखने की कोशिश की है। बाजारवादी मीडिया के खतरों से आगाह करते हैं मीडिया को धंधेबाजों से बचाइए, दूसरी ओर मीडिया के बिगड़ते स्वरुप पर तीखा प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। इन लेखों में एक्सक्लुजिव और ब्रेकिंग के बीच की खबरों के बीच कराहते मीडिया की तड़फ दिखाने का प्रयास भी संजय करते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रिंस की पहचान कराते हैं और मीडिया के नारी संवेदनाओं को लेकर गहरी चिंता भी करते हैं। मीडिया में देहराग, किस पर हम कुर्बान, बेगानी शादी में मीडिया दीवाना जैसे लेखों में वे मीडिया की बेचारगी और बेशर्मी पर अपना आक्रोश भी जाहिर करते हैं।

श्री संजय की पुस्तक में मीडिया शिक्षा को लेकर भी कई सवाल हैं। मीडिया के शिक्षण और प्रशिक्षण को लेकर देश भर कई संस्थानों ने अपने केन्द्र खोले है। कई संस्थान तो ऐसे हैं जहां मीडिया शिक्षण के नाम पर छद्म और छलावा का खेल चल रहा है। मीडिया में आने वाली नई पीढ़ी के पास तकनीकी ज्ञान तो है लेकिन उसके उद्देश्यों को लेकर सोच का अभाव है। अखबारों की बैचेनी के बीच उसके घटते प्रभाव को लेकर भी पुस्तक में गहरा विमर्श देखने को मिलता है। विज्ञापन की तर्ज पर जो बिकेगा, वही टिकेगा जैसा कटाक्ष भी लेखक संजय ने किया है। वहीं थोड़ी सी आशा भी मीडिया से रखते हैं कि जब तंत्र में भरोसा न रहे वहां हम मीडिया से ही उम्मीदें पाल सकते हैं।

संजय हिंदी की पत्रकारिता पर भी अपना ध्यान और ध्येय केन्द्रित करते हैं। उनका मानना है कि अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिन्दी में प्रकाशन यह साबित करता है कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का नया युग प्रारंभ हो रहा है। हिंदी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रशासनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति की संभावनाएं साफ नजर आ रही हैं। हालांकि वे हिन्दी बाजार में मीडिया वार की बात भी करते हैं। फिलवक्त उन्होंने अपनी पुस्तक में पत्रकारिता की संस्कारभूमि छत्तीसगढ़ के प्रभाव को काफी महत्वपूर्ण करार दिया है। अपने आत्मकथ्य ‘मुसाफिर हूं यारों’ के माध्यम से वे उन पलों को नहीं भूल पाते हैं जहां उनकी पत्रकारिता परवान चढ़ी है। वे अपने दोस्तों, प्रेरक महापुरुषों और मार्गदर्शक पत्रकारों की सराहना करने से नहीं चूकते हैं जिनके संग-संग छत्तीसगढ़ में उन्होंने अपनी कलम और अकादमिक गुणों को निखारने का काम किया है।

संजय द्विवेदी के आत्मकथ्य को पढना काफी सुकून देता है कि आज भी ऐसे युवा हैं जिनके दमखम पर मीडिया की नई चुनौतियां का सामना हम आसानी से कर सकते हैं। जरुरत है ज़ज्बे और ईमानदार हौसलों की और ये हौसला हम संजय द्विवेदी जैसे पत्रकार, अध्यापक और युवा मित्र में देख सकते हैं। संजय की यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों और मीडिया से जुड़े प्रत्येक वर्ग के लिये महत्वपूर्ण दस्तावेज है। ज्ञान, सूचना और घटनाओं का समसामयिक अध्ययन पुस्तक में दिग्दर्शी होता है। भाषा की दृष्टि से पुस्तक पठनीयता के सभी गुण लिए हुए है। मुद्रण अत्यन्त सुंदर और आकर्षक है। कवर पृष्ठ देखकर ही पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाती है।

परिचर्चा : क्या डॉ. विनायक सेन देशद्रोही हैं?

डॉ. विनायक सेन पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गए हैं। गौरतलब है कि पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) नेता और मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. सेन को रायपुर जिला एवं सेशन न्‍यायालय के न्‍यायाधीश बीपी वर्मा ने 24 दिसंबर को देशद्रोह और साजिश रचने का दोषी करार दिया। न्‍यायालय ने डा. सेन के साथ ही प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) पोलित ब्‍यूरो के सदस्‍य नारायण सान्याल व पीजूष गुहा को उम्रकैद की सजा सुनाई। तीनों पर यह आरोप सिद्ध हुआ कि उन्होंने राज्य के खिलाफ षड्यंत्र किया था। आईपीसी की धारा 124 ए के तहत राज्य के खिलाफ षड्यंत्र करने का आरोप लगा। छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम की धारा 1, 2, 3 व 5 के तहत डा. सेन को दोषी करार दिया गया। राज्य के खिलाफ गतिविधियों के तहत धारा 39-2 के तहत भी उन्हें दोषी करार दिया गया।

डॉ. विनायक सेन के विरोध में

• न्‍यायाधीश बीपी वर्मा ने डॉ. सेन को देश के खिलाफ युद्ध छे़डने, लोगों को भ़डकाने और प्रतिबंधित माओवादी संगठन के लिए काम करने को दोषी करार दिया। उन्‍होंने अपने फैसले में लिखा कि आरोपी नक्सलियों के शहरी नेटवर्क को बढ़ावा देकर शहरों में हिंसक वारदात करवाना चाहते थे।

• फैसले में इस बात का उल्लेख किया गया है कि नारायण सान्याल नक्सली माओवादियों की सबसे बड़ी संस्था पोलित ब्यूरो का सदस्य है, वह बिनायक सेन व पीजूष गुहा के माध्यम से जेल में रहकर ही शहरी क्षेत्रों में हिंसक वारदातों को अंजाम देने की कोशिश में था। पुलिस को जब यह पता चला तो सबसे पहले शहर में बाहर से आने वाले संदिग्ध व्यक्तियों के बारे में होटल, लाज, धर्मशाला व ढाबों पर दबिश दी गई। दबिश के कारण ही पीजूष गुहा पुलिस के हत्थे चढ़ा।

• यह भी पाया गया है कि बिनायक सेन नारायण सान्याल के पत्र पीजूष गुहा को गोपनीय कोड के माध्यम से प्रेषित किया करता था। तीनों अभियुक्तों की मंशा नक्सलियों के खिलाफ चल रहे आंदोलन सलवा जुड़ूम को समाप्त करने की भी थी।

• डा. बिनायक सेन के मकान की तलाशी में नारायण सान्याल का लिखा पत्र, सेंट्रल जेल बिलासपुर में बंद नक्सली कमांडर मदन बरकड़े का डा. सेन को कामरेड के नाम से संबोधित किया पत्र व 8 सीडी जिसमें सलवा जुडूम की क्लीपिंग व नारायणपुर के गांवों में डा. सेन के द्वारा गांव वासियों व महिलाओं के मध्य बातचीत के अंश मिले हैं।

• डॉ. सेन ने 17 महीनों के दौरान माओवादी नेता सान्याल से 33 मुलाकातें कीं।

पक्ष में

• डॉक्टर विनायक सेन ने आदिवासी बहुल इलाके छत्तीसगढ़ के लोगों के बीच काम करने की शुरुआत स्वर्गीय शंकर गुहा नियोगी के साथ की थी। पेशे से बाल चिकित्सक सेन ने वहां मजदूरों के लिए बनाए शहीद अस्पताल में लोगों का इलाज करना शुरू कर दिया। साथ ही छत्तीसगढ़ के विभिन्न इलाकों में सस्ते इलाज के लिए योजनाएं बनाने की भी उन्होंने शुरुआत की।

• पीयूसीएल के उपाध्यक्ष के तौर पर उन्होंने छत्तीसगढ़ में भूख से मौतों और कुपोषण का सवाल उठाया। उनका सबसे बड़ा अपराध सरकार की निगाहों में यह माना गया कि उन्होंने सलवा जुडुम को आदिवासियों के खिलाफ बताया था। राज्य की भाजपा सरकार द्वारा चलाए गए इस आंदोलन पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल खड़े किए थे। भाजपा ने जब 2005 में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम लागू किया तो विनायक सेन ने इसका कड़ा विरोध किया था। और इसी कानून के तहत सेन को छत्तीसगढ़ सरकार ने 2007 में गिरफ्तार किया।

• एक डाक्टर एवं एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में समाज के दबे-कुचले लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम किया।

• सेन कभी हिंसा में शामिल नहीं रहे या किसी को हिंसा के लिए नहीं उकसाया।

• देशद्रोह का अपराध तभी साबित होता है, जब राज्य के खिलाफ बगावत फैलाने का असर सीधे तौर पर हिंसा और कानून-व्यवस्था के गंभीर उल्लंघन के रूप में सामने आए।

• इससे कम कुछ भी किया गया या कहा गया, देशद्रोह नहीं माना जा सकता। सेशन कोर्ट के फैसले में डॉ. सेन को लेकर यह तय नहीं हो पाया कि उन्होंने आखिर ऐसा क्या किया, जिससे राज्य में हिंसा और कानून-व्यवस्था का खतरा पैदा हो गया।

• डॉ. विनायक सेन के समर्थन में पूरी दुनिया में आवाजें उठ रही है। मानव अधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने डॉ. सेन को अपना समर्थन दिया। अमेरिका में उन्‍हें भारी समर्थन मिल रहा है। वहां के भारतीय मूल के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया। भारत में भी वाम झुकाव वाले बुद्धिजीवी उनके पक्ष में सड़कों पर उतर रहे हैं। हालांकि देश की दो प्रमुख राष्‍ट्रीय पार्टियां कांग्रेस और भाजपा इस मुद्दे पर चुप्‍पी साधी हुई है।

रायपुर जिला एवं सेशन न्‍यायालय द्वारा डॉ. विनायक सेन को प्रतिबंधित माओवादी संगठन के लिए काम करने के आधार पर उन्‍हें देशद्रोह व साजिश रचने के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाए जाने पर आप क्‍या कहेंगे ? इस बार ‘प्रवक्‍ता डॉट कॉम’ के परिचर्चा का विषय यही है कि ‘क्या विनायक सेन देशद्रोही हैं?’

कांग्रेस की स्थापना का सच

सत्येन्द्र सिंह भोलू

’28 दिसम्बर, 1885′ को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना अवकाश प्राप्त आई0सी0एस0 अधिकारी स्कॉटलैंड निवासी ऐलन ओक्टोवियन ह्यूम (ए0ओ0ह्यूम) ने थियोसोफिकल सोसाइटी के मात्र 72 राजनीतिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से इसकी नींव रखी थी। अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रवार की पहली सुनियोजित अभिव्यक्ति थी। आखीर इन 72 लोगो ने कांग्रेस की स्थापना क्यों की और इसके लिए यही समय क्यों चुना?

यह प्रश्न के साथ एक मिथक अरसे से जुड़ा है, और वह मिथक अपने आप में काफी मजबूती रखता है। ‘सेफ्टी वाल्ट (सुरक्षा वाल्व) का यह मिथक पिछली कई पीढ़ीयों से विद्यार्थियों एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जेहन में घुट्टी में पिलाया जा रहा है। लेकिन जब हम इतिहास के गहराईयों को झाकते है, तो हमे पता चलेगा कि इस मिथक में उतना दम नहीं है, जितना कि आमतौर पर इसके बारे में माना जाता है। 125 साल पूरे होने के अवसर पर आज यह सही मौका है कि इस मिथक के रहस्य पर से परदा उठाया जायें, हालाँकि इसके लिए इतिहास में काफी गहरे जाकर खोजबीन करनी पड़ेगी।

‘मिथक यह है कि ए0ओ0ह्यूम और उनके 72 साथियों ने अंग्रेज सरकार के इशारे पर ही ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना की थी। उस समय के मौजूदा वाइसराय ‘लॉर्ड डफरिन’ के निर्देश, मार्गदर्शन और सलाह पर ही ‘हयूम’ ने इस संगठन को जन्म दिया था, ताकि 1857 की क्रान्ति के विफलता के बाद भारतीय जनता में पनपते- बढ़ते असंतोष को हिंसा के ज्वालामुखी के रूप में बहलाने और फूटने से रोका जा सके, और असतोष की वाष्प’ को सौम्य, सुरक्षीत, शान्तिपूर्ण और संवैधानिक विकास या ‘सैफ्टीवाल्व’ उपलब्ध कराया जा सकें। ‘यंग इंडिया’ में 1961 प्रकाशित अपने लेख में गरमपथी नेता लाला लाजपत राय ने ‘सुरक्षा वाल्व’ की इस परिकल्पना का इस्तेमाल कांग्रेस की नरमपंथी पक्ष पर प्रहार करने के लिये किया था। इस पर लंम्बी चर्चा करते हुए लाला जी ने अपने लेख में लिखा था? कि ”कांग्रेस लॉर्ड डफरि के दिमांग की उपज है।” इसके बाद अपनी बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लिखा था कि, ”कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य राजनीतिक आजादी हासिल करने से कही ज्यादा यह था कि उस समय ब्रिटिश साम्राज्य पर आसन्न खतरो से उसे बचाया जा सकें।

यही नही उदारवादी सी0 एफ0 एड्रूज और गिरजा मुखर्जी ने भी 1938 मे प्रकाशित ‘भारत में कांग्रेस का उदय और विकास’ में ‘सुरक्षता बाल्ब’ की बात पूरी तरह स्वीकार की थी।

1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संचालक एम0 एस0 गोलवलकर ने भी कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के कारण उसे गैर- राष्ट्रवादी ठहराने के लिए ‘सुरक्षा वाल्व’ की इस परिकल्पना का इस्तेमाल किया था। उन्होंने अपने परचे ‘वी’ (हम) में कहा था कि हिन्दू राष्ट्रीय चेतना को उन लोगो ने तबाह कर दिया जो ‘राष्ट्रवादी होने का दावा करते है। गोलवलकर के अनुसार, ह्यूम कॉटर्न और वेडरबर्न द्वारा 1885 में तय की गई नीतियां ही जिम्मेदार थीं- इन लोगो ने उस समय ‘उबल रहे राष्ट्रव’ के खिलाफ ‘सुरक्षा वाल्व के तौर पर कांग्रेस की स्थापना की थी।

सुरक्षा वाल्व की इस परिकल्पना को ऐतिहासिक साक्ष्य बना देने में सात खण्डो वाली उस ‘गोपनीय रिपोर्ट’ की निर्णायक भूमिका रही, जिसके बारे में ह्यूम का कहना था कि 1878 को गर्मियों में शिमला में उन्होंने पढ़ा था। पढ़ने के बाद उन्हे पक्का यकिन हो गया था भारत में ‘असंतोष उबल रहा है।’ और तत्कालीन अग्रेज सरकार के खिलाफ एक बड़ी साजिश रची जा रही है। निचले तबके लोग ब्रिटिश शासन को हिसा के द्वारा उखाड़ फेकने वाले है। इसके पहले 1857 का जब विद्रोह हुआ था उसमें भारतीय राजाओं नवावो, तालुकेदारो, जमीदारो का नेतृत्व था। लेकिन यह विद्रोह जो पनप रहा था। उसमें समाज का अंतिम व्यक्ति हिन्सक आन्दोलन कि तैयारी में जुट गया था।

यह जानना अतिआवश्यक है कि इस सात खण्डो का रहस्य क्या है। इस ने ए0ओ0 ह्यूम की जीवनी लिखी थी जो, 1913 प्रकाशित हुई। सबसे पहले इसी जीवनी में सात खण्डो की इस गोपनीय रिपोर्ट की चर्चा की गयी थी।

1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना न अप्रत्याशित घटना थी न ही कोई ऐतिहासिक दुर्घटना। 1860 और 1870 के दशको से ही भारतीयों में राजनीतिक चेतना पनपते लगी थी। कांग्रेस की स्थापना इस बढ़ती चेतना की पराकाष्ठा थी। 1870 के अंत में 1880 के दशक के शुरू में भारतीय जनमानस राजनीतिक रूप से काफी जागरूक हो चुका था। 1885 में इस राजनीतिक चेतना ने करवट बदली। भारतीय राजनीतिक और राजनीति में सक्रिय वुध्दिजीवी, संक्रीर्ण हितो के लिए आवाज उठाने के बजाय राष्ट्रीय हितों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर संर्घष करने को छटपटाने लगे थे। उनके इस प्रयास में सफलता मिली, एक एक ‘राष्ट्रीय दल’ का गठन हुआ- एक ऐसा दल, जो राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक था, भारतीय राजनीति के लिए एक प्लेट फार्म, एक संगठन, एक मुख्यालय।

जब लोगो में आजादी का ये जज्बा, क्षमता, योग्यता और देशभक्ति थी, तो यह प्रश्न विचारणीय है कि वे ह्यूम को कांग्रेस का मुख्य संगठनकर्ता क्यों बनाये? इसका सही जबाब तत्कालीन परिस्थितियों में ही छुपा था। भारतीय महाद्वीप के विस्तृत आकार की तुलना में, 1880 के दशक की शुरूआत में राजनीतिक सोच रखने वाले लोग बहुत कम थे और ब्रिटिश शासकों के खुले विरोध की परंपरा की जड़े भी कतई नहीं जग पायी थी।

न्याय मूर्ति रानाडे, दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, जी0 सुब्रहमण्डीय अय्यर और साल भर बाद आये सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसें उत्साही और प्रतिबध्द नेताओं ने इसलिए हयूम से सहयोग लिया कि वे बिलकुल शुरू- शुरू में ही सरकार से दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहते थे। उनका सोचना था कि अगर कांग्रेस जैसे सरकार विरोधी संगठन का मुख्य संगठनकर्ता, ऐसा आदमी हो जो अवकाश प्राप्त ब्रिटिश अधिकारी हो तो इस संगठन के प्रति सरकार को शक- सुबहा कम होगा और इस कारण कांग्रेस पर सरकारी हमले की गुंजाइश कम होगी।

दूसरे शब्दों में अगर ह्यूम और दूसरे अंग्रेज उदारवादियों ने कांग्रेस का इस्तेमाल ‘सुरक्षा वाल्व’ के तौर पर करना भी चाहा हो, तो कांग्रेस के नेताओं ने उनका साथ इस आशा से पकड़ा था कि ये लोग कांग्रेस के लिए ‘तड़ित चालाक’ जैसे काम करेंगे और आन्दोलन पर गिरने वाली सरकार दमन की बिजली से उसे बचा लेगे। और जैसा कि बाद के हालात गवाह है, इस मामलों में कांग्रेस के नेताओं का अंदाजा और उम्मीदें सही निकली।

कांग्रेस के लिए परीक्षा की घड़ी

रामबिहारी सिंह

वर्तमान हालातों को देखते हुए कांग्रेस एक बार फिर अपना ही पुराना इतिहास दोहराने की राह पर खड़ी है। एक दौर था सत्तार के दशक का। जब कांग्रेस में इंदिरा गांधी सत्ता में थीं और उस दौरान भी भ्रष्टाचार का मुद्दा इतना गरमाया कि उनके खिलाफ छात्रों को आंदोलन करना पड़ा था। आखिरकार युवा छात्राओं का आंदोलन रंग लाया और इंदिराजी चुनाव हार गईं, लेकिन इंदिराजी के जाने के बाद जो सत्ताा में आए, न तो वह सत्ता संभाल सके और न ही जनता की आशाओं पर खरा उतर सके। इसके बाद आया अस्सी का दौर। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, साफ-सुथरी छवि वाला चेहरा, जिस पर देश की मूक जनता ने आंख मूंद भरोसा किया और लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार 412 सीटों पर उन्हें जीत दिलाई। सत्ता में आने के बाद तीन साल बीतते-बीतते भ्रष्टाचार का मुद्दा एक बार फिर ऐसा गरमाया कि उनकी भी सरकार चली गई। इसके बाद वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह भी न सत्ता न संभाल सके। यहीं नहीं वह जनता के लिए भ्रष्टाचार से लड़ते शख्स की आकांक्षा पूरी भी नहीं कर सके और सरकार गिर गई, पर इन सबमें सबसे दुखद राजीव गांधी का शहीद होना रहा।

और अब फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार है और भ्रष्टाचार का मुद्दा एक बार फिर तेजी से गरमाता जा रहा है। कुल मिलाकर देश में चिंताजनक हालात हैं। इस बात को इससे भी बल मिलता है कि इस बार लोकतांत्रिक संस्थाओं से सबसे ज्यादा सुप्रीम कोर्ट चिंतित है। उसकी टिप्पणियां देश की आवाम की आंखें खोलने वाली हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक नायाब काम और किया है और वह नायाब कार्य है 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर सख्त टिप्पणी। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट पर भी तल्ख टिप्पणियां की हैं। ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट में चल रही गंदगी से परेशान हो जाए तो इसकी गंभीरता सभी को समझना चाहिए। इस सबके बावजूद चारों तरफ से भ्रष्टाचार से घिरी कांग्रेस के लिए यह एक सुनहरा मौका हो सकता है कि वह अपने को बिल्कुल पाक-साफ साबित कर ले। अगर उसका कोई सदस्य इस जांच में आता भी है तो उसकी चिंता न करते हुए उससे पीछा छुड़ा सकती है। इसका बड़ा कारण यह है कि मीडिया में आने और अखबारों में छपने से वोट नहीं घटते हैं और न ही बढ़ते हैं। वैसे इसका सबसे बड़ा उदाहरण बिहार में हाल ही में संपन्न हुआ विधानसभा चुनाव है, जहां कांग्रेस ने प्रचार पर कितना ख़र्च किया, टेलीविजन, अखबार विज्ञापनों से, खबरों से भरे थे, लेकिन कितने वोट मिले। 243 में से मात्र 4 सीटें। बाकी 200 सीटों में कांग्रेस जमानत भी नहीं बचा सकी। ऐसे में भ्रष्टाचार से घिरी कांग्रेस को अपनी रणनीति और दिशा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

कांग्रेस के सामने किसी तरह की कोई चुनौती नहीं थी। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में न तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और न ही कांग्रेस चेयरपर्सन सोनिया गांधी का नाम आ रहा है, पर कांग्रेस आलाकमान ने खामोश रहने और खुली आंखों से भ्रष्टाचार देखने का गुनाह तो कर ही लिया। बावजूद कांग्रेस के लिए यह घोटाला तब और चिंताजनक हो जाता है जब उसकी सरकार में सहभागी और सहयोगी तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी यह कह दें कि सरकार को तो जेपीसी बना देनी चाहिए। ऐसे में विपक्ष के तीखे तेवर के बाद कांग्रेस इस मामले में खुद ब खुद अलग-थलग हो चुकी है। इससे बड़ी इंतहा और क्या होगी, कि जब 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जनक और भ्रष्टाचार में सनी डीएमके भी यह कह दे कि उसे जेपीसी से कोई एतराज नहीं है तो भी कांग्रेस का जेपीसी के लिए तैयार न होना एक तरह से विरोधियों को नया अवसर प्रदान करने के समान है।

यदि जेपीसी जांच चलती है तो वह कांग्रेस के कुछ नेताओं की पोल जरूर खोल सकती है पर यदि जेपीसी जांच नहीं होती है तो कांग्रेस के लिए अगले 36 महीनों का सफर आसान नहीं होगा और उसे मीडिया के साथ ही अखबारों में आने वाली हर झूठी-सच्ची खबरों का जबाव देना होगा। ऐसे में यह मौका कांग्रेस के लिए किसी सुनहरे अवसर से कम नहीं होगा। कांग्रेस स्वयं को पूरी तरह पाक-साफ साबित कर सकती है और अगर उसका कोई सदस्य इस जांच में आता भी है तो उससे पीछा छुड़ाकर पार्टी को बचाया जा सकता है, पर कांग्रेस जिस हालत में है उसमें उसे अपनी रणनीति व दिशा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इसमें वह विपक्ष की कमजोरियों को भुनाकर इस मामले में आगे निकलने में कामयाब हो सकती है। अन्यथा बिहार की ऐतिहासिक हार को फिर याद करना पड़े तो फिर उसे चिंतित नहीं होना चाहिए, जहां मुसलमानों तक ने जद (यू) के नीतीश को पसंद किया और कांग्रेस को किनारे लगा दिया। समय का तकाजा ही है कि धीरे-धीरे वक्त बदल रहा है और देश में युवा मतदाताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में जाति और धार्म से अलग युवा पीढ़ी के साथ ही पुराने लोग वादों, सपनों को टूटता देख कोई ऐतिहासिक निर्णय कर बैठें तो इसमें भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

राहुल गांधी कांग्रेस के अघोषित सर्वमान्य भावी प्रधानमंत्री हैं और उनके तरुणाई विचार, उनका युवा दिमाग, उनकी संयमित भाषा और दूरदर्शी समझ के साथ संगठन क्षमता की परीक्षा भी आने वाले समय में देश के कई राज्यों में होने वाले विधानसभा और इसके बाद लोकसभा चुनावों में होगी। यहीं नहीं चुनावी सभाओं में जुटने वाली भीड़ को वोट में बदलने की क्षमता भी राहुल गांधी को दिखानी होगी। इस परीक्षा की घड़ी में वह अकेले होंगे, उनकी मदद उनकी मां सोनिया गांधी भी नहीं कर पाएंगी। इसका कारण भी साफ है कि जब जनता सवाल करेगी तो जनता के सामने वह अकेले ही होंगे। इसका ताजा उदाहरण भी तब देखने को मिला, जब राहुल की बंगाल यात्रा के दौरान शांति निकेतन के छात्रों ने उनसे पूछा था कि जब वह प्रधानमंत्री बनेंगे तो शिक्षा में बदलाव का उनका स्वरूप क्या होगा। राहुल उलझ गए और यह कहते हुए जबाव टाल गए कि उनके पास प्रधाानमंत्री बनने से जरूरी अन्य काम हैं, जबकि यहां पर राहुल को छात्रों को संतुष्टिजनक जबाव देना चाहिए, पर ऐसा नहीं हो सका और छात्रों के मन में एक अलग छवि बनी, जिसमें ज्यादातर में निराशा का भाव था। यह बताते हैं कि जिसे देश की जनता भावी प्रधाानमंत्री के रूप में देख रही है उस राहुल के पास शिक्षा में बदलाव का कोई नक्शा नहीं। अन्यथा वह यह सवाल नहीं टाल जाते। देश के प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले को बहुत से सवालों के जवाब जानना जरूरी है। इस सबके बावजूद कांग्रेस अगर संतुलित मार्ग अपना कर नहीं चली तो वह फिर से अपने गले मुसीबत लगा लेगी, जैसा कि उसने पहले ही राजा के भ्रष्टाचार की मुसीबत अपने सिर लेकर विपक्षी दलों के साथ ही आम जनता की नजरों में भी गिर गई है।

सूचना समाज की नयी भाषा को पहचानो

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

सोवियत संघ के पराभव के बाद सारी दुनिया में मार्क्सवादी चिंतकों को करारे वैचारिक सदमे और अनिश्चितता से गुजरना पड़ा है। सूचना समाज किस तरह वैचारिक विपर्यय पैदा कर सकता है इसके बारे में कभी विचार ही नहीं किया गया। अधिकांश समाजवादी विचारक इसे सामान्य और एक रूटिन परिवर्तन मानकर चल रहे थे। वे यह भी देखने में असमर्थ रहे कि परवर्ती पूंजीवादी मॉडल को लागू किए जाने के बाद मार्क्सवाद का भी रूप बदलेगा। पुराने किस्म का मार्क्सवाद चलने वाला नहीं है। लेकिन अनेक विचारकों के यह बात गले नहीं उतर रही है। एक तरफ मीडिया में समाजवाद विरोधी उन्माद और दूसरी ओर सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की धड़कनों का हाथ में न आना, यही वह बिडम्वना थी जिसने मार्क्सवादियों को हतप्रभ अवस्था में पहुँचा दिया। सूचना समाज में मार्क्सवाद की प्रकृति और भूमिका एकदम बदल गयी है। राजनीतिक प्रतिवाद की शक्ल बदल गयी है। लोगों को जोड़ने और उनसे संवाद करने और संपर्क करने के तरीके बदल गए। सूचना समाज आने के पहले राजनीतिक मुहावरे,पदबंध आदि संचार के हथकंड़े के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे। सूचना समाज के जन्म के साथ ही राजनीतिक पदबंधों और मुहावरों की जगह सांस्कृतिक पदबंधों और मुहावरों ने ले ली। अब सारी चीजें वस्तुओं और उपभोक्तावादी तत्वों के जरिए व्याख्यायित होने लगीं। साहित्य से लेकर राजनीति तक सब जगह उपभोक्तावाद की भाषा और मुहावरे चले आए। मसलन पहले नामवर सिंह की तुलना आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के साथ की जाती थी नए दौर में उनकी तुलना अमिताभबच्चन से होने लगी। प्रसिद्ध आलोचक सुधीश पचौरी ने उन्हें हिन्दी के अमिताभ बच्चन के नाम से पुकारा। कहने का अर्थ यह है कि सूचना समाज अपने साथ नया यथार्थ और नयी भाषा लेकर आया है और इस नए यथार्थ को पढ़ने के लिए नए किस्म की सैद्धांतिकी की भी जरूरत है। इसी प्रसंग में प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक फ्रेडरिक जेम्सन ने मार्क्सवाद की पांचवी थीसिस में लिखा ‘‘राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों क्षेत्रों के लिए संस्कृति का बढ़ता हुआ महत्व इन क्षेत्रों के सोद्देश्यमूलक अलगाव या विभेदीकरण का परिणाम नहीं, बल्कि स्वयं जिन्सीकरण (कोमोडिफिकेशन) की अपेक्षाकृत अधिक विश्वव्यापी संतृप्ति और प्रवेश है। जिन्सीकरण अब उस सांस्कृतिक क्षेत्र के उन विशाल क्षेत्रों को अपना उपनिवेश बनाने में सक्षम हो गया है, जो क्षेत्र अब तक इससे बचे थे और सचमुच इसके विरुध्द या इसके तर्क से असहमत थे। यह तथ्य कि संस्कृति आज अधिकांशतया व्यवसाय में बदल गई है, इसका परिणाम यह हुआ है कि अधिकांश चीजें जो पहले विशिष्ट रूप से आर्थिक और वाणिज्यिक समझी जाती थी, वे भी अब सांस्कृतिक बन गई हैं, यह ऐसी व्याख्या है जिसमें इमेज सोसायटी या उपभोक्तावाद के विभिन्न निदानों को शामिल करने की आवश्यकता है।’’

‘‘इस प्रकार के विश्लेषण, मसलन जिन्सीकरण (कामोडिफिकेशन) की अवधारणा संरचनात्मक और गैर-उपदेशात्मक, में अपेक्षाकृत अधिक सामान्य रूप में मार्क्सवाद को सैध्दांतिक बढ़त हासिल है। नैतिक मनोवेग राजनीतिक कार्रवाई उत्पन्न करता है लेकिन यह बहुत ही क्षणिक होती है जो शीघ्र ही पुनर्समाहित और पुनर्शमित हो जाती है। यह अपने विशिष्ट विषयों को अन्य आंदोलनों के साथ बांटने के लिए शायद ही प्रवृत्त होती है। लेकिन केवल इस प्रकार के संलयन और निर्माण द्वारा ही राजनीतिक आंदोलनों का विकास और विस्तार संभव है। सचमुच मैं इस मुद्दे को दूसरी तरह से कहना चाहूंगा कि उपदेशपरक राजनीति में वहीं विकसित होने की प्रवृत्ति होती है जहां संरचनात्मक संज्ञान और समाज का मानचित्रण (मैपिंग) अवरुध्द होता है। समाजवाद के असफल होने का बोध होने पर उत्पन्न आक्रोश को आज के संजातीय और धार्मिक प्रभुत्व के रूप में, उस शून्य को नए अभिप्रेरकों से भरने के एक हताश अंध प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।’’

‘‘जहां तक उपभोक्तावाद का संबंध है, यह आशा की जा सकती है कि यदि इसके स्थान पर जान बूझकर कुछ और बिलकुल भिन्न चीज चुनना हो तो यह ऐतिहासिक रूप में उतना ही महत्वपूर्ण सिध्द होगा जितना कि मानव समाज को एक जीवन शैली के रूप में उपभोक्तावाद के अनुभवों से गुजरना। लेकिन विश्व के अधिकांश के लिए उपभोक्तावाद के व्यसन वस्तुनिष्ठ रूप में उपलब्ध नहीं होंगे, तब यह संभव प्रतीत होता है कि 1960 के दशक की रैडिकल थ्योरी का दूरदर्शितापूर्ण निदान : कि पूजीवाद स्वयं ठीक उसी रूप में एक क्रांतिकारी शक्ति है जिस रूप में यह नई आवश्यकताओं और इच्छाओं को जन्म देता है लेकिन जिनकी पूर्ति यह नहीं कर सकता है : नई विश्व व्यवस्था के विश्व स्तर पर प्राप्त होगा।’’

‘‘सैध्दांतिक स्तर पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में स्थायी संरचनात्मक बेरोजगारी, वित्तीय सट्टेबाजी और अनियंत्रणीय पूंजी संचलन, इमेज सोसाइटी के ज्वलंत मुद्दे व्यापक रूप में उस स्तर पर एक दूसरे से अंतर्संबंधित हैं जिसे उनकी अंतर्वस्तु, उनके अमूर्तन का अभाव (ठीक उसके विपरीत जिसे किसी अन्य काल में उनका ‘आत्मनिर्वासन’ (एलीनेशन) कहा जाता) कहा जा सकता है। जब हम विश्वीकरण एवं सूचनाकरण (इनफार्मेटाइजेशन) जैसे मुद्दों को जोड़ने का प्रयास करते हैं तो द्वंद्वात्मकता का और भी विरोधाभासी स्तर मिलता है। जब नए विश्व नेटवर्कों (वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों) की राजनीतिक और विचारधारात्मक संभावनाओं को आज के विश्व तंत्र की स्वायत्तता के लोप तथा किसी राष्ट्र या क्षेत्र की अपनी स्वायत्तता और अस्तित्व प्राप्त करने की असंभावना या स्वयं को विश्व बाजार से अलग करने की असंभावना के साथ जोड़ा जाता है तो प्रतीयमानत: जबरदस्त असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है। किसी एक विचार को अपना लेने मात्र से बुध्दिजीवी इस गलियारे से रास्ता नहीं निकाल सकते। वास्तव में संरचनात्मक विरोधाभासों के परिपक्व होने से ही नई संभावनाओं का विहान होता है। पुनश्च: जैसा कि हीगेल ने कहा होता; हम कम से कम इस असमंजस को ‘नकारात्मक से चिपके रहकर’ बरकरार रख सकते हैं, उस स्थान को जीवित रखकर जहां से नव्य की अप्रत्याशित रूप से उत्पत्ति की आशा की जा सकती है।’’