गिरीश पंकज
गाय के सवाल पर मैं निरंतर कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ. यह बता दूं कि मैं धार्मिक नहीं हूँ. पूजा-वगैरह में कोई यकीन नही करता. मंदिर भी नहीं जाता. भगवान् के सामने हाथ जोड़ने की ज़रुरत ही नहीं पडी, क्योंकि मेरा मानना है, कि ”जिसका मन निर्मल होता है/जीवन गंगाजल होता है” मैं केवल भले कर्म करने कि विनम्र कोशिशें करता रहता हूँ, लेकिन गाय के मामले में कुछ भावुक हो जाता हूँ. एक हिन्दू होने के नाते नहीं, एक मनुष्य होने के नाते. गाय को वेद-पुरानों में माँ कह कर बुलाया जाता है. कहते हैं कि गाय के शरीर में अनेक देवता विराजते है. मगर यह माँ रोज़ कितनी दुर्दशा भोगती है, यह हम सब जानते है. इस आलेख के साथ जो दो चित्र आप देख रहे है, ये चित्र केवल रायपुर के नहीं हैं, देश के किसी भी चहेते बड़े शहर में नज़र आ जायेंगे. इस चित्र की खासियत यह है, कि दो गाय कचरे के ढेर पर खड़ी है, और दीवाल पर के नारा लिखा है- ”गौ माता तेरा वैभव अमर रहे”. क्या यही है गाय का वैभव कि वह कचरे के ढेर में खाना तलाश रही है?रायपुर की एक सरकारी कालोनी से रोज़ गुज़रता हूँ मैं. रोज़ नारे पर नज़र पड़ती और उसी के ठीक सामने गायों को कचरे के भीषण नरक में पालीथिन चबाते या ज़हर पचाते हुए देखा करता था. आज मन नहीं माना. रुक कर एक तस्वीर उतर ली. तभी मैंने देखा कोई आया और उसने कचरे में आग लगा दी. उसने इस बात की परवाह नहीं की कि गाय जल सकती है. जाहिर है, मुझे दौड़ना पडा. वह तो आग लगा कर भाग खडा हुआ. तस्वीर उतार कर मैं फ़ौरन गाय को हटाने आगे बढ़ा. वैसे गाय आग की बढ़ती तपिश के कारण गाय खुद किनारे होने लगी थी.
ये हाल है हमारे इस समय का. दीवार देख कर किसी महानुभाव ने नारा लिख दिया, अपना नाम-पता भी लिख मारा लेकिन उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की कि गायें कचरे के ढेर में खड़ी न हों. गाय के साथ यही हो रहा है इस देश में. लोग नारे लगाते हैं, गाय-गाय चिल्लाते हैं, मगर गो सेवा के नाम पर चंदे खाने के सिवा कुछ भी नहीं करते. सबकी नज़र गो सेवा आयोग के फंड पर रहती है. सब यही चाहते है, कि उनकी गौशाला को चंदा मिले, अनाज मिले. और वे गौशाला के पैसे से मालामाल होते रहे. इस समाज में ऐसे लोग भी हैं,जो गाय को प्रणाम करेंगे और वक़्त आने पर लात भी मरेंगे. अजीब है लोग, गाय बीमार पड़ जाये, या बाँझ हो जाये तो उसे बेच कर नोट कमाने में पीछे नहीं रहेंगे. ऐसे भयंकर निर्मम समय में गाय होना खतरनाक है. गाय जब दीवारों पर लिखे नारे देखती है, कि ”तेरा वैभव अमर रहे माँ”, तो खूब हंसती है और कहती है-”अरे मनुष्य, तू बड़ा पाखंडी हो गया है रे. मैं तेरे छल-छंदर को प्रणाम करती हूँ. मनुष्य तू बड़ा महान है. तेरे चरण कहाँ है, मै तुझे नमन करती हूँ. ले..तू मेरा ये गीत सुन ले…-
गाय हूँ, मैं गाय हूँ, इक लुप्त -सा अध्याय हूँ।
लोग कहते माँ मुझे पर मैं बड़ी असहाय हूँ।।
दूध मेरा पी रहे सब, और ताकत पा रहे।
पर हैं कुछ पापी यहाँ जो, माँस मेरा खा रहे।
देश कैसा है जहाँ, हर पल ही गैया कट रही।
रो रही धरती हमारी, उसकी छाती फट रही।
शर्म हमको अब नहीं है, गाय-वध के जश्न पर,
मुर्दनी छाई हुई है, गाय के इस प्रश्न पर।
मुझको बस जूठन खिला कर, पुन्य जोड़ा जा रहा,
जिंदगी में झूठ का, परिधान ओढ़ा जा रहा।
कहने को हिंदू हैं लेकिन, गाय को नित मारते।
चंद पैसों के लिये, ईमान अपना हारते।
चाहिए सब को कमाई, बन गई दुनिया कसाई।
माँस मेरा बिक रहा मैं, डॉलरों की आय हूँ।। गाय हूँ….
मेरे तन में देवताओं का, सुना था वास है।
पर मुझे लगता है अब तो, बात यह बकवास है।
कैसे हैं वे देव जो, कटते यहाँ दिन-रात अब,
झूठ कहना बंद हो, पचती नहीं यह बात अब।
मर गई है चेतना, इस दौर को धिक्कार है।
आदमी को क्या हुआ, फितरत से शाकाहार है।
ओ कन्हैया आ भी जाओ, गाय तेरी रो रही।
कंस के वंशज बढ़े हैं, पाप उनके ढो रही।
जानवर घबरा रहे हैं, हर घड़ी इनसान से।
स्वाद के मारे हुए, पशुतुल्य हर नादान से।
खून मेरा मत बहाओ, दूध मेरा मत लजाओ।
बिन यशोदा माँ के अब तो, भोगती अन्याय हूँ।। गाय हूँ…
मैं भटकती दर-ब-दर, चारा नहीं, कचरा मिले,
कामधेनु को यहाँ बस, जहर ही पसरा मिले।
जहर खा कर दूध देती, विश्वमाता हूँ तभी,
है यही इच्छा रहे, तंदरुस्त दुनिया में सभी।
पालते हैं लोग कुत्ते और बिल्ली चाव से,
रो रहा है मन मेरा, हर पल इसी अलगाव से।
डॉग से बदतर हुई है, गॉड की सूरत यहाँ,
सोच पश्चिम की बनी है इसलिए आफत यहाँ।
खो गया गोकुल हमारा, अब कहाँ वे ग्वाल हैं,
अब तो बस्ती में लुटेरे, पूतना के लाल हैं।
देश को अपने जगाएँ, गाँव को फौरन बचाएँ।
हो रही है नष्ट दुनिया, मैं धरा की हाय हूँ।। गाय हूँ…..