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‘यमला पगला दीवाना’ मे हंसी का फव्वारा


डॉ. मनोज चतुर्वेदी

एन. आर. आई. सम्मेलन में भारत सरकार ने प्रवासी भारतियों लिए विशेष सुविधाओं का प्रावधान किया है। अपना देश अपनी माटी तथा अपनी संस्कृति के प्रति लगाव होना स्वाभाविक है। इस देश से बाहर जाकर भारत भारतीयता की सुगंध बिखरने वाले महर्षि अरंविद और स्वामी विवेकानंद ने तो कण-कण को अपना आराध्य माना था। निर्माता समीर कर्णिक ने हास्य के माध्यम से ‘यमला पगला दीवाना’ में इन्हीं विषयों को छूने का प’यास किया है।

कनाडा में रहने वाला परमजीत सिंह (सन्नी देओल) अपनी पत्नी, मां और दो बच्चों के साथ रहता है। उसके पिता धरम सिंह (धर्मेंद’) और छोटे भाई (गजोधर सिंह) का पता चल जाता है कि वे भारत में हैं। इसी बीच छोटा भाई गजोधर खोज बिन के बाद जो महा ठग है परमजीत सिंह को ठग लेता है। पिता धर्मेंद’ उसे अपना पुत्र मानने को तैयार हीं नहीं है। अब क्या करें? फिर बार-बार के प’यास के बाद उसे महाठगों के टीम में शामिल होना पड़ता है। यह इसलिए कि उसने अपने माता को वचन दिया है कि वह अपने छोटे भाई एवं पिता को किसी भी दशा में ढूंढ़ निकालेगा।

कहानी में एक मोड़ तब आता है जब गजोधर सिंह का पंजाब से वाराणसी में लेखन करने आयी साहिबा (नफीसा अली) से प्रेम हो जाता है। जिसके पांचो भाई इस शादी के खिलाफ हैं। वो तो अपनी बहन की शादी एन. आर. आई. से ही करना चाहते हैं। फिर धीरे-धीरे पूरा परिवार मिल जाता है। संपूर्ण कहानी में हास्य का अथाह सागर दिखाई पड़ता है।

एक जमाना था जब धर्मेंद’, शत्रुघ्न सिंहा और अमिताभ बच्चन की तुती बोलती थी। फिर 80 से 90 के दशक में सन्नी देओल, बॉबी देओल ने भी दर्शकों को पर्दे पर लुभाया। लेकिन अमिताभ बच्चन का जलवा आज भी कायम है। वो तो ”यंग्री ओल्ड मैन” हैं। एक्टिंग के मामले में सन्नी देओल को तुलनात्मक दृष्टि से ठीक कहा जा सकता है।

फिल्म का तकनीकी पक्ष एवं गीत-संगीत पक्ष को औसत दर्जे का कहा जा सकता है। यह फिल्म दर्शकों को हंसी-मजाक के साथ-साथ तथा एन. आर. आई. के संबंध में ठीक प्रकार से दिखाने में कामयाब हुई है।

बैनर – टॉप एंगल प्रोडक्शन।

निर्माता – समीर कर्णिक/नितिन मनमोहन ।

निर्देशक – समीर कर्णिक।

कलाकार – धर्मेंद’, सन्नी देओल, बॉबी देओल, कुलराज रंधावा, नफीसा अली, अनुपम खेर, जॉनी लीवर इत्यादि।

गीत – राहुल सेठ, इर्शाद कमाल और आरडीबी।

संगीत – अनु मलिक।

‘नो वन किल्ड जेसिका’ में न्यायिक सड़ांध

डॉ. मनोज चतुर्वेदी

यह भारत का दुर्भाग्य हैं कि जिस भारत की दुहायी वेदों, उपनिषदों तथा अन्य भारतीय ग्रंथों में जोश-खरोश के साथ गाया गया है और गाया जाता है। उस भारतीय समाज का यथार्थ क्या है? आजादी के साठ वर्षों में यहां की समाज व्यवस्था, राज्य व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था और न्याय व्यवस्था ने किस प’कार भारत के एकात्मता पर प्रहार किया है। जिसे ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में देखा जा सकता है। मूल रूप से विद्या बालन और रानी मुखर्जी अभिनित इस फिल्म में भारतीय न्याय व्यवस्था के नंगापन को दिखाने का प्रयास किया गया है।

पियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड, शिवानी भटनागर हत्याकांड के बाद, जेसिका लाल हत्याकांड ने सन् 1990 के उतरार्द्ध में तहलका मचाया था। माननीय उच्चतम न्यायालय के कई न्यायधीशों ने भारतीय न्याय व्यवस्था की समीक्षा करने पर जोर दिया था। राजग सरकार ने तो संविधान समीक्षा आयोग का गठन भी कर दिया था। लेकिन जिस समाज का संविधान अपने समाज और देश को तात्कालीन परिस्थितियों के अनुसार नहीं ढालता है वो समाज समाप्त हो जाता है। भारतीय न्यायालयों में लंबित मुकद्दमें की सुनवाई में 50-60 वर्ष लगेंगे। न्याय व्यवस्था में देरी का प्रमुख कारण एक लंबे समय तक टालना व आरोपियों द्वारा धन बल व बाहुबल का प्रयोग करना भी है। जिससे समाज में संघर्ष, मतभेद और हिंसा को बल मिलता है। श्रीराम जन्मभूमि विवाद इसका स्पष्ट प्रमाण है तथा वोटबैंकों के गिध्दों द्वारा दिए गए वक्तव्य इसके उदाहरण है।

कहानी यो है कि जेसिका लाल हत्याकांड के समय घटना स्थल पर 100 से उपर लोग थे। जिसमें अमीर-गरीब भी थे। लेकिन कातिल को किसी ने नहीं पहचाना तथा यहां तक कि हत्या के सबूत को भी नष्ट करने का प’यास किया गया। कहानी में दर्शक सोचने को तब विवश होता है जब न्यायिक जांच करने वाला पुलिस अधिकारी अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। और इस सत्य का पर्दाफाश एक पत्रकार के माध्यम से करता है। मालकिन जेसिका की मौत पर आंसू टपकाते हुए चॉकलेट खाती है। रानी मुखर्जी द्वारा ‘बीप’ का प’योग करना समाज एवं व्यवस्था के प’ति आक्रोश की अभिव्यक्ति है। भारतीय समाज के इस विकृत रूप को युवा ही बदल सकते हैं। बस वर्धमान महावीर, महात्मा बुध्द, गुरु नानक देव, संत कबीर, स्वामी रामनंद, मलिक मोहम्मद जायसी, रसखान, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, खान अब्दूल गफ्फार खान, गुरू अर्जुन देव, भगिनी निवेदिता, एनि वेसेंट, नानाजी देशमुख, डॉ. हेडगेवार, श्री गुरूजी, जयप्रकाश, आचार्य विनोबा, गांधी, दीनदयाल तथा ऐसे लोकनायकों की जरूरत हैं जो भारतीय समाज में व्‍याप्त सड़ांध को नष्ट कर डाले। फिल्म का गीत, संगीत और तकनीकी पक्ष बेहद प्रभावी है।

निर्माता – रानी स्क्रूवाला।

निर्देशक – राजकुमार गुप्ता।

कलाकार – रानी मुखर्जी, विद्या बालन, अयुब खान, मायरा खान और राजेश शर्मा।

गीत – अमिताभ भट्टाचार्य।

संगीत – अमित त्रिवेदी।

नर्मदा कुंभ से समग्र हिंदू समाज शक्तिशाली होगा: सिंघल

जबलपुर, दिनांक 18 जनवरी 2011. अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए हिंदू समाज को विभिन्न जाति, पंथ, भाषा, बिरादरी के नाम पर बांटने वाले राजनैतिक नेता और उनके दलों का प्रयास असफल करते हुए मां नर्मदा सामाजिक कुंभ के माध्यम से सारा हिंदू समाज फिर से एक ताकतवर समाज के नाते खडा होगा ऐसा विश्वास विश्व हिंदू परिषद के आंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल ने यहां सोमवार को व्यक्त किया।

श्री सिंघल यहां रानीताल स्टेडियम पर मां नर्मदा सामाजिक कुंभ के लिए एकत्रित की अन्न सामग्री ले जाने वाले ट्रकों की रॅली को भगवा ध्वज दिखा कर समारंभपूर्वक विदा करने हेतु आयोजित भव्य कार्यक्रम में जनसभा को संबोधित कर रहे थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महाकौशल प्रांत द्वारा यह संग्रह किया गया था। 1 जनवरी से 15 जनवरी तक हुए इस संपर्क तथा अनाज संग्रह कार्यक्रम में संघ के 8600 स्वयंसेवको ने जबलपूर महानगर के लगभग दो लाख् परिवारो से संपर्क स्थापित किया और हर परिवार से एक किलो चावल, आधा किलो दाल और एक रुपया कुंभ के लिए संग्रह किया था।

इसी प्रकार संपूर्ण महाकोशल क्षेत्र से छ: लाख परिवारो से संपर्क प्रस्थापित कर कुंभ के लिए अन्न सामग्री तथा धन संग्रह किया गया। यह एकत्रित साहित्य जबलपूर के रानीताल स्टेडियम में लाकर ट्रकों मे भ्रा गया और ऐसे 40 ट्रकों को श्री सिंघल के प्रमुख उपस्थिति में भगवा ण्वज दिखा कर मंडला के लिए रवाना किया गया। कुंभ में देश के विभिन्न प्रांतो से आने वाले श्रध्दालुओं को नि:शुल्क भोजन कराने हेतु यह सामग्री एकत्रित की गई।

इस कार्यक्रम में स्वामी श्यामदास महाराज, कुंभ प्रमुख आयोजक श्री अखिलेश्वरानंदजी महाराज, श्री मुकुंददास महाराज, महाकोशल प्रांत प्रचारक श्री राजकुमार मटाले, विभाग संघचालक डा कैलाश गुप्ता, महानगर संघचालक एवं अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री प्रशांत सिंह, प्रांत सहकार्यवाह श्री सुनील देव, डॉ जितेन्द्र जामदार, सांसद श्री राकेश सिंह, आदी उपस्थित थे।

इस कार्यक्रम में अपने उद्बोधन में श्री सिंघल ने कहा की देश को इसाई बनाने का षडयंत्र रचाया जा रहा है और इसका माध्यम है धर्मान्तरण का कुचक्र। इसका जब संघ ने विरोध किया और हिंदू समाज को इस खतरे के बारे मे बताने का प्रयास किया तब से संघ के खिलाफ सरकार ने दुष्प्रचार प्रारंभ किया है। अब संपूर्ण समाज को इस खतरे से अवगत कराने हेतु मां नर्मदा सामाजिक कुंभ जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है।

श्री सिंघल ने कहा कि हिंदुत्व का जागरण औरी सामाजिक समरसता के अभियान से धर्मान्तरण की समस्या का तो हल होगा ही साथ में इस देश को तोडने की इच्छा रखनेवाले नेताओं के मनसुबे भी परास्त होंगे। उन्होने कहा कि इसाई मिशनरीयों के पास हर साल 4000 करोड की राशि आ रही है जिसका उपयोग भोले-भाले वनवासी तथा गिरीवासी बंधुओं का धर्मान्तरण करने में होता है। देश में धर्मान्तरण की गति बढ रही है और यह भविष्य की दृष्टि से एक भ्यानक खतरा पैदा कर सकती है। अत: नर्मदा कुंभ जैसे सामाजिक समरसता का और एकात्मता का भाव दृढ करने वाले कार्यक्रमों की आवष्यकता पर श्री सिंघल ने जोर दिया।

विष्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष ने कहा कि इस कुंभ में देष भर से 500 से अधिक बिरादरी के मुखिया और प्रतिनिधि सहभागी होंगे जो इस बात की सौगंध लेंगे की वे धर्मांतरण के विदेशी मंनसूबों को सफल नही होने देंगे।

जबलपूर से रवाना यह ट्रको का काफिला जब मंडला पहुंचा तब इसका जोषिला स्वागत किया गया। पूर्व सांसद फग्गनसिंह कुलस्ते, मंडला जिला परिषद की अध्यक्षा श्रीमती संपातिया उईकें, कुभ आयोजन समिति के सचिव श्री राजेंद्र प्रसादजी, और अन्य लोगोंने अन्नपूर्णा रथ का स्वागत किया। बाद में यह काफिला मंडला के प्रमुख मार्गों से गुजरते हुए गोदामों तक पहुंचे। मार्ग में बिझिया, कटरा, बस स्टैंड, बडा चौराहा आदी स्थानों पर अन्नपूर्ण रथ का जोर-शोर से स्वागत किया गया। महाकोशल के अन्य जिलों से भी इसी प्रकार से अन्न् सामग्री एकत्रित कर समारोहपूर्वक ट्रकों में लाद कर मंडला भेजी जा रही है।

मां नर्मदा सामाजिक कुंभ की तैयारियां जोरों पर

मंडला, 17 जनवरी 2011. आगामी 10,11 व 12 फरवरी 2011 को संपन्न होने जा रहे मा नर्मदा सामाजिक कुंभ की तैयारियां रानी दुर्गावती परिसर में नर्मदा किनारे बडी जोर से चल रही है। कुंभ स्थान पर विभिन्न निर्माण कार्यो का आलोकन करने हेतु गये इस संवाददाता को जानकारी देते हुए मा नर्मदा सामाजिक कुंभ आयोजन समिति के सचिव श्री राजेन्द्र प्रसादजी ने बताया की अभी तक 70 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है।

श्री प्रसाद ने बताया की कुंभ में आनेवाले श्रध्दालुओं के ठहरने हेतु 51 उपनगर बनाएं जा रहे है एवं इन उपनगरों को छ: महानगरों मे विभाजित किया जाएगा। यह महानगर देश के महापुरुषों के नाम पर जैसे महाराणा प्रताप, छत्रापती शिवाजी महाराज, माता बम्लेश्वरी, शंकरशाह-रघुनाथशाह, महिष्मति और महाराजा छत्रासाल, इनके नामों पर बसाये जाएंगे।

इस त्रिदिवसीय सामाजिक कुंभ में देश के विभिन्न प्रदेशों से 25 से 30 लाख श्रद्धालु जन सम्मिलित होने की संभावना है। इनके लिए छ भोजनालय बन रहे है जिसमें हरेक भोजनालय में दो लाख लोगों का भोजन बनेगा।

श्री राजेन्द्र प्रसाद ने बताया की कुंभ में सहभागी श्रध्दालुओं के लिए नर्मदा के जल में स्नान की सुविधा मुहैया कराने हेतु नर्मदा पर स्नान घाट बनाने का काम भी तेजी से पूरा होने जा रहा है। मंडला का एक धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्व रहा है। वर्तमान काल में मंडला परिसर में रहने वाले जनजाति बंधुओं को विभिन्न प्रकार की सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड रहा है। यह क्षेत्र जहां प्राचीन काल से मंडनमिश्र जैसे विद्वानों का और विद्या का क्षेत्र रहा है वहीं ऐतिहासिक काल में महारानी दुर्गावती के नेतृत्व में इस क्षेत्रा के लोगों ने परकीय आक्रान्ताओं से जूझ कर अपने बहादूरी का परिचय दिया है। कुंभ में संपूर्ण भारत से लाखो श्रध्दालु जाति, वर्ग वर्ण सभी भेद भुलाकर सम्मिलित होंगे। वनांचल की लोक कलाएं, लोकसंगीत तथ लोकनृत्यों का आनंद भी इस कुभ के दौरान प्राप्त होगा। कुंभ में आने वाले श्रद्धालुओं को मां नर्मदा के सान्निध्य में सामाजिक एकता और राष्ट्रभक्ति की अनुभूति भी मिलेगी।

मां नर्मदा सामाजिक कुंभ संदेश यात्रा छत्तीसगढ, महाकोशल और अन्य प्रदेशों में चल रही है जिस को अभूतपूर्व प्रतिसाद मिल रहा है। इसके बारे में जानकारी देते हुए श्री राजेंद्र प्रसाद ने बताया की समुचे प्रदेश में इस समय कुंभ का ही माहौल बना है। संपर्क करने निकले कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को कुंभ आने का निमांण दे रहे है। अभी तक 25 लाख लाकेट और 45 लाख मां नर्मदा के चित्रा संदेश याखा के दौरान लोगों में वितरित किए जा चुके है। साथ ही 18 लाख स्टीकर्स भी बांटे गए है। महाकोशल क्षेत्रा में कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर कुंभ के लिए अनाज तथा धन संग्रह भी किया है जिसमें लोगाेंने बडे उत्साह के साथ सहयोग दिया है।

कुंभ के निमित्त से मंडला क्षेत्रा का विकास भी तेजी से हो रहा है। नर्मदा पर एक नया ऍनीकट बना है और सडके चौडी तथा अच्छी बन रही है। विजली की नयी लाईने और पेयजल की पाईप लाईन बिछायी जा रही हैं जिसके कारण स्थानिक जनता खुश है। किसानों को उनकी भूमि का मुआवजा भी उचित रुप मे मिल गया है।

कुंभ को सफल बनाने हेतु राज्य सरकार का भी समाज के साथ-साथ पूरा सहयोग मिल रहा है। कुंभ के लिए आवश्यक सभी सुविधाएं जुटाने में प्रशासन लगा हुआ है। स्वयं मुख्यमंत्राी श्री शिवराज सिंग जी ने मंत्राी और अधिकारियों की बैठक लेकर कुंभ से संबंधित सभी कामों को जल्द पूर्ण करने के निर्देश दिए है। कुंभ के कार्यकर्ता रेलवे के डिआरएम से भी मिले और यात्राीयो को यातायात की सुविधाएं दिलाने का अनुरोध किया।

कुंभ के लिए देश के विभिन्न प्रांतों से सामग्री जुटायी जा रही है। छत्तीसगढ से चावल, दाल, असम से चायपत्ती, महाराष्ट्र से चीनी, उत्तर प्रदेश से आलू, मालवा से मिरची तथा दलिया आदी सामग्री कुंभ के लिए एकत्रिात करने का कार्य जोर से शुरु हो चुका है तथा कुछ ही दिनों मे यह सामग्री मंडला पंहूच जाएगी ऐसी जानकारी श्री प्रसाद ने दी।

मध्य प्रदेश में पहली बार आयोजित होने वाला यह ऐतिहासिक महाकुंभ जनजाति क्षेत्रा का धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक एवं जनजाति गौरव से संबंधित इस दशक का सबसेक बडा और विशाल आयोजन सिध्द होगा।

कविता/की जब मैंने दुख से प्रीत

कल क्या होगा, इस चिंता में

रात गई आँखों में बीत।

होठों पर आने से पहले,

सुख का प्याला गया रीत।

आशाओं का दीप जला

ढूँढा, न मिला जीवन संगीत।

किस्मत भी जब हुई पराई,

फूट पडा अधरों से गीत।

साथी सुख तन्हा छोड़ गया जब,

दर्द मिला बन मन का मीत।

हर सुख से खुद को ऊपर पाया,

की जब मैंने दुख से प्रीत।

की जब मैंने दुख से प्रीत।!

– डा0 सीमा अग्रवाल

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में उर्दू पत्रकारिता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी 22 को

भोपाल, 21 जनवरी, 2011. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविधालय, भोपाल में 22 जनवरी को उर्दू पत्रकारिता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। ‘उर्दू पत्रकारिताः चुनौतियां और अपेक्षाएं’ विषय पर आयोजित इस एक दिवसीय संगोष्ठी में उर्दू पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं? वह किस तरह, स्वयं को संभालकर आज के समय को संबोधित करते हुए जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है, जैसे मुद्दों पर चर्चा की जाएगी।

इस बारे में जानकारी देते हुए, विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने बताया कि “आजादी के आंदोलन से लेकर, भारत के नव-निर्माण में उर्दू के पत्रकारों एवं उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। आज, जबकि देश की तमाम भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता प्रगति कर रही है और अपने पाठक वर्ग का निरंतर विस्तार कर रही है। उर्दू पत्रकारिता इस दौड़ में पिछड़ती दिख रही है। नए जमाने की चुनौतियों और अपनी उपयोगिता के हिसाब से ही भाषाएं अपनी जगह बनाती हैं। ऐसे में, उर्दू पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं? वह किस तरह, स्वयं को संभालकर आज के समय को संबोधित करते हुए, जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है। इन प्रश्नों पर संवाद बहुत प्रासंगिक है।”

उन्होंने बताया कि संगोष्ठी का शुभारंभ पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग करेंगें तथा इस सत्र की अध्यक्षता उच्चशिक्षा एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा करेंगें। संगोष्ठी में देश के जाने-माने और सीनियर उर्दू जर्नलिस्ट सहित कई पत्रकारिता शिक्षक शामिल होने जा रहे हैं। इस संगोष्ठी को तीन भागों में बांटा गया है। पहले सत्र में, ‘उर्दू पत्रकारिता : चुनौतियां और अपेक्षाएं’। दूसरे सत्र में, ‘उर्दू पत्रकारिता की समस्याएं और समाधान’ और तीसरे सत्र में, ‘उर्दू पत्रकारिता शिक्षण की वर्तमान स्थिति और अपेक्षाएं’ पर चर्चा की जाएगी। संगोष्ठी में शामिल होने वाले प्रमुख लोगों में सर्वश्री अमीर अली खान (संपादक- सियासत, हैदराबाद), कारी मुहम्मद मियां मजहरी (संपादकः सेकुलर कयादत, दिल्ली), डा. विजयबहादुर सिंह (भोपाल), असद रजा (ब्यूरो चीफ, सहारा उर्दू रोजनामा, दिल्ली), मासूम मुरादाबादी (संपादकः जदीद खबर, दिल्ली), तहसीन मुनव्वर (वरिष्ठ पत्रकार एवं एंकर, दिल्ली), आरिफ खान (एक्सचेंज फार मीडिया, दिल्ली), सुश्री फिरदौस खान (संपादकः स्टार न्यूज एजेंसी, हिसार), आरिफ अजीज( डेली नदीम, भोपाल), सुश्री मरजिए आरिफ( भोपाल), डा. शाहिद अली (रायपुर), एहतेशाम अहमद खान (हैदराबाद), प्रो. जेड्. यू.हक ( दिल्ली), डा. अलीम खान (सागर) के नाम शामिल हैं।

उधर लाशें उठाई जा रही थीं, इधर “भावी प्रधानमंत्री” पार्टी मना रहे थे… …

सुरेश चिपलूनकर

जैसा कि सभी को ज्ञात हो चुका है कि केरल के सुप्रसिद्ध सबरीमाला अय्यप्पा स्वामी मन्दिर की पहाड़ियों में भगदड़ से 100 से अधिक श्रद्धालुओं की मौत हुई है जबकि कई घायल हुए एवं अब भी कुछ लोग लापता हैं। इस दुर्घटना को प्रधानमंत्री ने “राष्ट्रीय शोक” घोषित किया, एवं कर्नाटक सरकार के दो मंत्रियों द्वारा अपने दल-बल के साथ घटनास्थल पर जाकर मदद-सहायता की। समूचे केरल सहित तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक में शोक की लहर है (मरने वालों में से अधिकतर तमिलनाडु व कर्नाटक के श्रद्धालु हैं)…

लेकिन इतना सब हो चुकने के बावजूद कांग्रेस के “युवा”(??) महासचिव एवं भारत के आगामी प्रधानमंत्री (जैसा कि चाटुकार कांग्रेसी उन्हें प्रचारित करते हैं), दुर्घटनास्थल से मात्र 70 किमी दूरी पर कुमाराकोम में केरल के बैकवाटर में एक बोट में पार्टी मना रहे थे। जिस समय “सेवा भारती” एवं “अय्यप्पा सेवा संगम” के कार्यकर्ता सारी राजनैतिक सीमाएं तोड़कर घायलों एवं मृतकों की सेवा में लगे थे, सेना के जवानों की मदद कर रहे थे, जंगल के अंधेरे को दूर करने के लिये अपने-अपने उपलब्ध साधन झोंक रहे थे… उस समय भोंदू युवराज कुमारकोम में मछली-परांठे व बाँसुरी की धुन का आनन्द उठा रहे थे।

यह भीषण भगदड़ शुक्रवार यानी मकर संक्रान्ति के दिन हुई, लेकिन राहुल बाबा ने शनिवार को इदुक्की जिले में न सिर्फ़ एक विवाह समारोह में भाग लिया, बल्कि रविवार तक वे कुमारकोम के रिसोर्ट में “रिलैक्स”(?) कर रहे थे। उल्लेखनीय है कि राहुल गाँधी अलप्पुझा में अपने पारिवारिक मित्र अमिताभ दुबे के विवाह समारोह में आये थे (अमिताभ दुबे, राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन के ट्रस्टी बोर्ड के सदस्य व नेहरु परिवार के खासुलखास श्री सुमन दुबे के सुपुत्र हैं)। अमिताभ दुबे का विवाह अमूल्या गोपीकृष्णन के साथ 15 जनवरी (शनिवार) को हुआ, राहुल गाँधी 14 जनवरी (शुक्रवार) को ही वहाँ पहुँच गये थे।

पाठकों को याद होगा कि किस तरह 26/11 के मुम्बई हमले के ठीक अगले दिन, जबकि मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की माँ की आँखों के आँसू सूखे भी नहीं थे… “राउल विंची”, दिल्ली के बाहरी इलाके में एक फ़ार्म हाउस में अपने दोस्तों के साथ पार्टी मनाने में मशगूल थे… उधर देश के जवान अपनी जान की बाजी लगा रहे थे और सैकड़ों जानें जा चुकी थीं। मुम्बई जाकर अस्पताल में घायलों का हालचाल जानना अथवा महाराष्ट्र की प्रिय कांग्रेस सरकार से जवाब-तलब करने की बजाय उन्होंने दिल्ली में पार्टी मनाना उचित समझा… (यहाँ देखें…)

केरल के कांग्रेसजनों ने राहुल की इस हरकत पर गहरा क्रोध जताया है, स्थानीय कांग्रेसजनों का कहना है कि जब मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन एवं नेता प्रतिपक्ष ओम्मन चाण्डी घटनास्थल पर थे, तो मात्र 70 किमी दूर होकर भी राहुल गाँधी वहाँ क्यों नहीं आये? (परन्तु नेहरु परिवार की गुलामी के संस्कार मन में गहरे पैठे हैं इसलिये कोई भी खुलकर राहुल का विरोध नहीं कर रहा है)।

यदि शनिवार की सुबह राहुल गाँधी उस विवाह समारोह को छोड़कर राहत कार्यों का मुआयना करने चले जाते तो कौन सी आफ़त आ जाती? शादी अटेण्ड करना जरूरी था या दुर्घटना स्थल पर जाना? न सिर्फ़ शनिवार, बल्कि रविवार को भी राहुल बाबा, बोट पर पार्टी मनाते रहे, गज़लें सुनते रहे… उधर बेचारे श्रद्धालु कराह रहे थे, मर रहे थे। यह हैं हमारे भावी प्रधानमंत्री…

अन्ततः शायद खुद ही शर्म आई होगी या किसी सेकुलर कांग्रेसी ने उन्हें सुझाव दिया होगा कि केरल में चुनाव होने वाले हैं इसलिये उन्हें वहाँ जाना चाहिये, तब रविवार शाम को राहुल गाँधी, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रमेश चेन्निथला के साथ घटनास्थल के लिये उड़े… लेकिन शायद भगवान अय्यप्पा स्वामी भी, राहुल की “नापाक उपस्थिति” उस जगह नहीं चाहते होंगे इसलिये घने कोहरे की वजह से हेलीकॉप्टर वहाँ उतर न सका, और युवराज बेरंग वापस लौट गये (ये बात और है कि उनके काफ़िले में भारत के करदाताओं की गाढ़ी कमाई की मजबूत गाड़ियाँ व NSG के कमाण्डो की भीड़ थी, वे चाहते तो सड़क मार्ग से भी वहाँ पहुँच सकते थे, लेकिन ऐसा कुछ करने के लिये वैसी “नीयत” भी तो होनी चाहिये…)।

मीडिया के कुछ लोग एवं कांग्रेस के ही कुछ कार्यकर्ता दबी ज़बान में कहते हैं कि रविवार शाम को भी कोहरे, धुंध व बारिश का तो बहाना ही था, असल में राहुल बाबा इसलिये वहाँ नहीं उतरे कि घटनास्थल से लगभग सभी लाशें उठाई जा चुकी थी… ऐसे में राहुल गाँधी वहाँ जाकर क्या करते… न तो मीडिया का फ़ुटेज मिलता और न ही राष्ट्रीय स्तर पर छवि चमकाने का मौका मिलता… इसलिये कोहरे और बारिश का बहाना बनाकर हेलीकॉप्टर वापस ले जाया गया… लेकिन जैसा कि पहले कहा, यदि “नीयत” होती और “दिल से चाहते” तो, सड़क मार्ग से भी जा सकते थे। जब वे नौटंकी करने के लिये किसी दलित की झोंपड़ी में जा सकते हैं, अपना सुरक्षा घेरा तोड़कर उड़ीसा के जंगलों में रहस्यमयी तरीके से गायब हो सकते हैं (यहाँ पढ़ें…), तो क्या शादी-ब्याह-पार्टी में से एक घण्टा घायलों को अस्पताल जाने के लिये नहीं निकाल सकते थे? और कौन सा उन्हें अपने पैरों पर चलकर जाना था, हमारे टैक्स के पैसों पर ही तो मस्ती कर रहे हैं…

कांग्रेस द्वारा “भाड़े पर लिये गये मीडिया” ने तब भी राहुल का गुणगान करना नहीं छोड़ा और इन भाण्डों द्वारा “राहुल की सादगी” के कसीदे काढ़े गये (“सादगी” यानी, उन्होंने इस यात्रा को निजी रखा और केरल की पुलिस को सूचना नहीं दी, न ही हमेशा की तरह “वीआईपी ट्रीटमेंट” लेते हुए रास्ते और ट्रेफ़िक को रोका…। इस सादगी पर बलिहारी जाऊँ…), कुछ “टट्टू” किस्म के अखबारों ने राहुल और प्रियंका द्वारा मार्च 2010 में उनके निजी स्टाफ़ के एक सदस्य के. माधवन की बेटी की शादी में आने को भी “सादगी” मानकर बखान किया… लेकिन किसी भी अखबार या चैनल ने “राउल विंची” द्वारा हिन्दू श्रद्धालुओं के प्रति बरती गई इस क्रूर हरकत को “हाइलाईट” नहीं होने दिया… वरना “ऊपर” से आने वाला पैसा बन्द हो जाता और कई मीडियाकर्मी भूखों मर जाते…। जिन संगठनों को “आतंकवादी” साबित करने के लिये यह गिरा हुआ मीडिया और ये मासूम राहुल बाबा, जी-जान से जुटे हुए हैं, उन्हीं के साथी संगठनों के कार्यकर्ता, रात के अंधेरे में सबरीमाला की पहाड़ियों पर घायलों की मदद कर रहे थे।

जैसी संवेदनहीनता और लापरवाही मुम्बई हमले एवं सबरीमाला दुर्घटना के दौरान “राउल विंची” ने दिखाई है… क्या इसे मात्र उनका “बचपना”(?) या “लापरवाही” कहकर खारिज किया जा सकता है? गलती एक बार हो सकती है, दो-दो बार नहीं। आखिर इसके पीछे कौन सी “मानसिकता” है…
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चलते-चलते : अब कुछ तथ्यों पर नज़र डाल लीजिये…

1) केरल सरकार को प्रतिवर्ष सबरीमाला यात्रा से 3000 करोड़ रुपए की आय होती है।

2) ट्रावणकोर देवस्वम बोर्ड द्वारा राज्य के कुल 1208 मन्दिरों पर साल भर में खर्च किये जाते हैं 80 लाख रुपये। (जी हाँ, एक करोड़ से भी कम)

3) एक माह की सबरीमाला यात्रा के दौरान सिर्फ़ गरीब-मध्यम वर्ग के लोगों द्वारा दिये गये छोटे-छोटे चढ़ावे की दानपेटी रकम ही होती है 131 करोड़…

(लेकिन हिन्दू मन्दिरों के ट्रस्टों और समितियों तथा करोड़ों रुपये पर कब्जा जमाये बैठी “सेकुलर गैंग” सबरीमाला की पहाड़ियों पर श्रद्धालुओं के लिये मूलभूत सुविधाएं – पानी, चिकित्सा, छाँव, पहाड़ियों पर पक्का रास्ता, इत्यादि भी नहीं जुटाती…)

– अरे हाँ… एक बात और, केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने RTI के एक जवाब में बताया है कि राहुल गाँधी की सुरक्षा, परिवहन, यात्रा एवं ठहरने-भोजन इत्यादि के खर्च का कोई हिसाब लोकसभा सचिवालय द्वारा नहीं रखा जाता है… इसलिये इस बारे में किसी को नहीं बताया जा सकता…

जय हो… जय हो…

कचरे का डिब्बा घर है अब, चूहे की सेज बिस्तर मेरा

शिखा वार्ष्णेय

ये किसी कविता की पंक्तियाँ नहीं जीवन का यथार्थ है कुछ लोगों का। लन्दन का मिनी इंडिया कहा जाने वाला इलाका साउथ हॉल, वहां का एक डस्ट बिन रूम, वहीँ अपने अपने फटे हुए, खैरात में मिले स्लीपिंग बैग में सोये हुए जीते जागते इंसान, शरीर के ऊपर अठखेलियाँ करते बड़े बड़े चूहे और रात के अँधेरे में कूड़े पर हमला करती लोमड़ियाँ। आधी रात को उन्हें भगाने की जुगत.फिर भी वहीँ सोने की कोशिश करने को मजबूर। आखिर जाएँ तो जाये कहाँ? दिन तो मंदिर या गुरूद्वारे में निकल जाता है। दिनचर्या के बाकी काम भी मंदिर में हो जाते हैं। दो वक़्त का खाना भी लंगर में मिल जाता है, परन्तु नहाये हुए ६-६ हफ्ते हो गए हैं। रात को सर छुपाने के लिए कोई छत नहीं अपनी। तो कोई कूड़े के कमरे में शरण ले लेता है तो कोई टेलेफोन के कुप्पे में। सुबह होते ही देखभाल करने वाले आते हैं और भगा देते हैं वहां से, तो ये आकर गुरूद्वारे के बाहर खड़े हो जाते हैं कि शायद कोई छोटे मोटे काम के लिए बुला ले, यकीन नहीं होता कि यह २०१२ में जाने वाले लन्दन का चेहरा है।

आज से १५-२० साल पहले आये थे भारत के पंजाब प्रांत से, लगता था लन्दन की सड़कों पर सोने के पेड लगते हैं। कुछ जिन्दगी संवर जाएगी, परिवार को दिलासा दी थी, वहां जाकर खूब पैसा कमाएंगे और तुम्हें भेजेंगे। यहाँ तुम्हारा जीवन भी संवर जायेगा। २ साल पहले तक फिर भी कहीं छोटा मोटा काम करके एक कमरा लेकर जीवन की गाड़ी चल जाती थी, परन्तु रिसेशन के बाद से वह काम भी छूट गया। सरकारी खैरात पाने के लिए किसी के पास या तो मान्य वीजा नहीं, या किसी को पता नहीं कि कैसे लिया जाता है, अंग्रेजी काम चलाने के लिए बोल लेते हैं परन्तु पढना-लिखना इतना नहीं आता कि सरकारी मदद के लिए फॉर्म भी भर सकें। घर पर फ़ोन जाने कब से नहीं किया, क्योंकि जैसे ही बात करेंगे वहां से सुनाई देगा कुछ पैसे भेज दो बेटे की फीस भरनी है, या बहन की गोद भराई है. आँखें बंद करते हुए दहशत होती है। बीबी का, बिटिया का चेहरा अब ठीक से दिखाई भी नहीं देता। वापस भी नहीं जा सकते क्या करेंगे वापस जाकर वहां अब काम भी नहीं रहा और कुछ लोगों के पास तो असली दस्तावेज भी नहीं।

लन्दन के एक समाचार पत्र में छपी खबर के अनुसार इस दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड ना झेल पाने के कारण सड़क पर रहने वालों में से तीन लोगों की मौत हो गई, ये तीनों मौतें हिन्दुस्तानियों की हुई, परन्तु इलाके के स्थानीय नेता इस समस्या पर आँखें बंद किये हुए हैं। उनका कहना है कि ये उनकी खुद की बनाई हुई परिस्थितियाँ हैं। ये लोग भारत से छात्र वीजा पर आते हैं, बिना आमने सामने वीसा के लिए साक्षात्कार दिए और यहाँ आकर छोटे मोटे कामों में लग जाते हैं और वीजा की अवधी ख़त्म होने बाद भी यही रवैया जारी रहता है।

सुनने में आया है कि मेयर बोरिस जोनसन ने अप्रैल में बेघर लोगों के लिए एक सात लाख डालर के कार्यक्रम की घोषणा की है, जिसमें कहा गया है कि २०१२ तक कोई भी व्यक्ति एक रात से ज्यादा सड़क पर नहीं सोयेगा. देखें कब तक ये कार्यक्रम लागू होता है. लेकिन फिलहाल तो हालात बहुत बुरे हैं महिलायें और बच्चे तक कूड़े वाले कोठरों में सोने को मजबूर हैं हाँ वहां वह एक मानवीय गरिमा बनाये रखने की कोशिश जरुर करते हैं थोडा बहुत अपने हिसाब से उस जगह को भी सभ्य बना लेते हैं जैसे रात को पेशाब लगने पर यहाँ वहां करने की बजाय बोतल में कर लेते हैं, आखिर कूडे घर में ही सही, कोई तो स्टैंडर्ड होना ही चहिये ना।

“गण”से दूर होता “तंत्र”

अंकुर विजयवर्गीय

“26 जनवरी को मैंने सोचा है कि आराम से सुबह उठूंगा, फिर दिन में दोस्तों के साथ फिल्म देखने जाना है, इसके बाद मॉल में जाकर थोड़ी शॉपिंग और फिर रात में दोस्तों के साथ दारू के दो-दो घूंट। क्यूं तुम भी आ रहे हो ना अंकुर।”

अब आप बताएं कि इतना अच्छा मौका कोई हाथ से जाने देगा। हालांकि मेरे संपादक ने मुझे राष्ट्रपति के भाषण का अनुवाद करने के लिए ऑफिस आने को कहा है लेकिन, फिर भी मैंने इस कार्यक्रम के लिए हामी भर दी है। अधिकांश लोग शायद मुझे गाली देंगे कि देश अपना 62वां गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारियां कर रहा है और ये महाशय फिल्म और दारू पर ही अटके हुए हैं। पर जनाब कौन सा गण और कौन सा तंत्र। मेरे जैसे युवा ही नहीं बल्कि देश की आधी आबादी को भी शायद अब इन राजकीय उत्सवों से ज्यादा सरोकार नहीं है। लेकिन इसके जिम्मेदार देश का गण नहीं अपितु तंत्र है। लोगों के अंदर गुस्सा है, प्याज और पेट्रोल की बढ़ती कीमतों से, अफजल को फांसी न होने से, आदर्श सोसायटी और कॉमनवेल्थ घोटालों से, राजा और नीरा राडिया की दलाली से और यहां तक की नेताओं की शक्ल से लेकर उनकी अक्ल तक। लेकिन सब चुप हैं। क्यूंकि बोलने की आजादी हमें सिर्फ संविधान में ही दी गई है, वास्तविक जिंदगी में नहीं। आप बोल सकते हैं लेकिन सरकार के हक में। खिलाफत शासन को भी मंजूर नहीं है। आप घर के बाहर आवाज उठाइये और घर के अंदर आपकी बीबी या बहन के साथ बलात्कार हो जायेगा या फिर आपकी सड़क चलती बेटी को नेता के गुंडे उठाकर कार में गैंग रेप कर डालेंगे या फिर आपके जवान बेटे की लाश आपको चौराहे पर टंगी मिल जायेगी। और ये सब नहीं तो निपटाने के लिए तो आप हैं ही। कब तक साहब कब तक। कब तक तंत्र अपनी तानाशाही चलाता रहेगा और गण चुपचाप सहता रहेगा। ये गुस्सा किसी पत्रकार का नहीं है जनाब बल्कि ये गुस्सा तंत्र की तानाशाही में पिसते एक आम आदमी का है।

जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर हिंदुस्तान तथा हिंदुस्तानियों को बांटते रहनेवाले अवसरवादी राजनेता अपनी घिनौनी हरकतें करते ही रहेंगे। केवल वोट की राजनीति करनेवाले भ्रष्ट, चरित्रहीन तथा स्वार्थी राजनेता अपना स्वयं का हित करने के चक्कर में देश और देशवासियों का अहित करते ही रहेंगे। झोपड़ी बनवाना, झोपड़ी बढ़वाना, फेरीवालों को जमा करना, अनधिकृत निर्माण कार्य करवाना, असामाजिक तत्वों तथा गुंडों को संरक्षण देना तथा ऐसे ही ग़ैर-क़ानूनी कार्यों को बढ़ावा देना उन्हीं राजनेताओं का मुख्य उद्देश्य बन गया है, जो दूसरों के लिए क़ानून बनाते हैं, परंतु अपने आपको क़ानून के दायरे से दूर ही रखते हैं। शायद विश्वभर में हिंदुस्तान ही एक ऐसा महत्वपूर्ण गणतंत्रीय राष्ट्र होगा, जहां के अधिकतर राजनेता बलात्कार, दुराचार, हत्या, भ्रष्टाचार, व्यभिचार आदि में ही लिप्त रहते हैं फिर भी अपने आपको चरित्रवान, निष्ठावान, समाजसेवी, राष्ट्रसेवी तथा ईमानदार ही घोषित करते रहते हैं। यह भी एक अति कड़वी सच्चाई है कि आतंकवादी, नक्सली तथा अन्य इसी प्रकार के उग्रवादियों के जन्मदाता तथा पालनकर्ता वास्तव में हमारे सफ़ेदपोश शांति के पुजारी कहलानेवाले राजनेता ही तो होते हैं। आजकल के दिखावे के समय में नागरिकों और देश की सुरक्षा के स्थान पर अपनी निजी सुरक्षा के प्रति अत्यधिक चिंतित रहनेवाले राजनेता पता नहीं क्यों, उन्हीं लोगों से डरे हुए रहने लगे हैं, जो उन्हें वोट देकर चुनते रहते हैं। ये राजनेता ही अधिकांश शिक्षा संस्थानों के प्रमुख होते हैं और इन्होंने ही शिक्षा को व्यापार बना रखा है। मैं यह समझ नहीं पाता हूं कि जो स्वयं संस्कारहीन होते हैं, वो दूसरों को किन संस्कारों की शिक्षा दे सकेंगे और जो खुद ही पथभ्रष्ट हो गये हैं, वो दूसरों का मार्गदर्शन कैसे कर सकते हैं। इन्हीं के प्रोत्साहन के कारण हिंदुस्तान जैसे महान गणतंत्र को `गण तंत्र’ बना देनेवाले लोग फल-फूल रहे हैं। ग़रीब लोग देश के अनेक भागों में आत्महत्या करने पर मजबूर होते जा रहे हैं। कर्ज के बोझ के तले अनगिनत परिवार दबे हुए हैं। बढ़ती महंगाई ने आम आदमी की कमर ही तोड़ दी है, परंतु फिर भी दावा यही किया जा रहा है कि हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी प्रगति कर रहे हैं। बेरोज़गारी बढ़ती ही जा रही है, परंतु आंकड़ों के जरिये यही प्रमाणित किया जा रहा है कि अधिकतर लोगों को रोज़गार उपलब्ध कराये जा रहे हैं। अनेक प्राकृतिक आपदाओं के कारण खेती को भीषण नुकसान उठाना पड़ रहा है, परंतु दावा यही किया जाता रहा है कि हिंदुस्तान में कृषि पैदावार बढ़ रही है। आवश्यक वस्तुओं के दाम सारी सीमाएं तोड़ते जा रहे हैं, परंतु घोषणा यही की जाती है कि मूल्यों को नियंत्रण में रखा जा रहा है। स्वास्थ्य सेवाएं हिंदुस्तान में अचानक आसानी से धन लूटने का साधन बनती जा रही हैं। कुपोषण के कारण लाखों बच्चे और बड़े असहाय तथा जर्जर अवस्था में पड़े हैं और मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं और राजनेता चिल्ला-चिल्लाकर यही कहते रहते हैं कि किसी भी व्यक्ति को भूख या कुपोषण का शिकार नहीं होने दिया जायेगा।

भारत के 58 साल गणतंत्र की अनेक उपलब्धियों पर हम फक्र कर सकते हैं। लोकतंत्र में हमारी चरित्रगत आस्था का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े और जटिल समाज ने सफलतापूर्वक 15 राष्ट्रीय चुनाव संपन्न किए। सरकारों को बनाया और बदला। विशाल और सशक्त सेना जनप्रतिनिधियों के आदेश पर चलने के अलावा कुछ और सोच भी नहीं सकती। पिछले एक दशक से हमारी आर्थिक विकास की रफ्तार लगभग 9 फीसदी बनी हुई है। 1975 के आपातकाल के कुछ महीनों के अलावा देश के नागरिक अधिकारों और मीडिया की स्वतंत्रता पर कोई राष्ट्रीय पाबंदी नहीं लग सकी, आदि।

दूसरी ओर, गैर बराबरी और भूख से हुई मौतों, किसानों द्वारा आत्महत्याओं, महिलाओं की असुरक्षा और बलात्कार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, अशिक्षा आदि कलंक भी हमारे लोकतांत्रिक चेहरे पर खूब दिखाई देते हैं, किंतु इन सबमें सबसे अधिक शर्मनाक देश में चलने वाली बच्चों की गुलामी और बाल व्यापार जैसी घिनौनी प्रथाएँ हैं। बाल वेश्यावृत्ति, बाल विवाह, बाल मजदूरी, बाल कुपोषण, अशिक्षा, स्कूलों, घरों और आस-पड़ोस में तेजी से हो रही बाल हिंसा से लगाकर शिशु बलात्कार जैसी घटनाएँ हमारी बीमार और बचपन विरोधी मानसिकता की परिचायक हैं। भारत में लगभग दो तिहाई बच्चे किसी न किसी रूप में हिंसा के शिकार हैं। 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। गैर सरकारी आँकड़ों के अनुसार 6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी और आर्थिक शोषण के शिकार हैं औरइतने ही बच्चे स्कूलों से बाहर हैं।

कभी-कभी लगता है कि हम आज भी गुलाम हैं। बस पराधीनता का स्वरूप बदल गया है। हजारों साल पुरानी हमारी इस सभ्यता को कई बार गुलाम बनाया गया और कई वंशों और सभ्यताओं ने हम पर शासन किया। पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि आज भी कोई हम पर शासन कर रहा है। शायद हमारी अपनी ही बनाई व्यवस्था के अधीन कभी-कभी हम अपने आप को जकड़ा हुआ महसूस करते हैं। पता नहीं हमारे सत्ताधीशों को इस पर शर्म आएगी कि नहीं? वे गणतंत्र दिवस समारोह की चकाचौंध में उस गण की दशा की ओर शायद ही देखना चाहें, जिसके बूते वे भारतीय गणतंत्र के स्तंभ बनने का दंभ पाले हुए हैं। वास्तव में देश भी महान है, देशवासी भी महान हैं, देशवासियों की सहनशीलता भी महान है और अत्याचार करनेवालों की कर्तव्यपरायणता भी महान है। अपनी लाचारी, मजबूरी, निष्क्रियता, संवेदनहीन आलसीय प्रवृत्ति, टालने की आदत और अपने भाग्य को कोसते रहने की आदत को नतमस्तक हो प्रणाम करनेवाले हम सब हिंदुस्तानियों को एक और गणतंत्र दिवस की “हार्दिक बधाई”।

क्रमश: – हाल ही में मेरे प्रिय कवि विनीत चौहान की कुछ पंक्तियां यू-टयूब के माध्यम से मुझे सुनने को मिली। इस गणतंत्र के मौके पर पंक्तियां सटीक बैठती हैं-

सांप, नेवले और भेडिये एक दूजे के मीत मिले,

सारे सिंह मुलायम निकले मिमियाते सुरजीत मिले,

चरण चाटते हुए मिले सब राजनीति की ड्योडी पर,

और पीएम शीश झुकाये बैठे दस जनपथ की सीढ़ी पर ।।।

टेलीविजन संस्थाएं समाज का बेड़ा गर्क कर रही हैं

अनिकेत प्रियदर्शी

पहले बुद्धू बक्से के नाम से सुशोभित और आज लफड़ा बक्सा का पर्याय बन चुका हमारा टेलीविजन इस कदर पगला गया है कि अब वो किसी भी हद को पार करने में संकोच नहीं करता। कभी ज्ञान का एक सशक्त माध्यम रहा टेलीविजन अब एक हंगामेदार वेश्यालय का स्वरूप लगने लगा है। ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण है और पर जो मनोरंजन के नाम पर आये दिन विभिन्न चैनलों पर परोसा जा रहा वो कहीं से भी ज्ञानवर्धक और चरित्र निर्माण करता लगे ऐसा तो सोचना भी पाप है, लेकिन जो एक खास बात इन सबसे भी ज्यादा है महत्वपूर्ण है वो ये कि इनसे चारित्रिक पतन और सामाजिक कुरीतियों के कई बडे लक्षण उभर कर सामने आ जाते है।

कहते है कि जिस दिन, जिस क्षण किसी के अंदर बुरा विचार आये अथवा कोई दुष्कर्म करने की प्रवृत्ति उपजे, मानना चाहिए कि वह दिन-वह क्षण मनुष्य के लिए अशुभ है। अब जो प्रतिदिन बुरे से बुरा देखने को मिल रहा है उसके बाद सामान्य रूप से अगर कोई बुरी प्रवृत्ति उपजा ले तो किया क्या जाये? इंसान और इंसान की फितरत कब किस रूप में बदलने को उतारू हो जाये इसका कोई अंदाजा तो रहता नही। अब ऐसे मे आये दिन इन चैनलों को देखने वाले अगर कभी अपनी परिस्थिति से लडने की बजाय कोई दुष्प्रवृत्ति पाल ले तो? शत्रु की घात विफल हो सकती है, किन्तु आस्तीन के साँप बने मित्र की घात विफल नहीं होती और नि:संदेह ये अलग-अलग चैनल आज के समय मे किसी आस्तीन के सांप से कम नजर नही आ रहे है।

पिछ्ले तीन महीने बिग-बास मे रीयलिटी (सच्चाई, असलियत) के नाम पर जो लंगटापन दिखाया गया..उसे क्या हमारी भारतीय संस्कृति का आईना माना जाए या फिर हमारे समाज का आधुनिकीकरण? टेलीविजन अपने प्रारंभ से ही एक सामाजिक संस्था जैसी भूमिका का निर्वाह करता है और कोई समाज उतना ही स्वस्थ होता है जितनी उसकी संस्थाएँ; यदि संस्थाएँ विकास कर रही हैं तो समाज भी विकास करता है, यदि वे क्षीण हो रही हैं तो समाज भी क्षीण होता है। बिग-बास में जो खुलापन परोसा गया उसकी कोई प्रासंगिकता नजर नहीं आती है…शायद उस खुलेपन के बिना भी लोग इसे पसंद करते। तो बिलकुल सामने से ही ऐसी टेलीविजन संस्थाएं समाज का बेडा गर्क करने में बढ-चढ कर भाग ले रही हैं।

टेलीविजन पर तो पहले से ही विवाह जैसी पवित्र संस्था का जमकर माखौल उडाया जा रहा है …जिस तरह की विवाह को टेलीविजन पर दिखाया जाता है और फिर उसमें जो बर्बाद कर देने वाली संस्कृति को परोसा जाता है , क्या एक आम भारतीय परिवार से उसे किसी भी दृष्टिकोण से जुडा हुआ माना जायेगा? क्या हमारे(भारतीय संस्कृति) यहां विवाह ऐसी होती है? क्या हमारे यहां (भारतीय संस्कृति) इस तरह से बेहूदा हरकतें प्रस्तुत करते हुए एक विवाह संपन्न होता है? आखिर ये इस तरह के विवाह होता कहां देखते है? इस तरह के स्क्रिप्ट लिखने वाले लफंटरों की मंशा.. कहीं से भी, किसी भी तरीके से समाज को चौपट कर देने वाली कही जायेगी। और सबसे बडी बात की कमोबेश हर चैनल की कहानी दूसरे चैनल से मिलती हुई नजर आती है।

अभी हाल में ही एक चैनल ने मां को भी बदलने की शुरूआत की है। सोनी चैनल वालों के पहले एपिसोड में पूजा बेदी और अनुराधा निगम को एक दूसरे का घर संभालने तथा उनके बच्चों और परिवार के साथ समय बिताने का कार्य मिला। बेडा-गर्क हो इन नामुरादों का जो अब मां पर भी अपनी कुदृष्टि जमाने की कोशिश कर रहे। इस कार्यक्रम में एक हफ्ते एक दूसरे के घर पर बिताने के बाद जब दोनों मां आमने-सामने हुई तो नजारा बडा ही दुर्भाग्यपूर्ण सा दिखा। एक-दूसरे के परिवार को नीचा दिखाने और अपने आप को श्रेष्ठ दिखाने की होड सी लगी हुई थी दोनो में। अब ऐसे मे मां जैसा रिश्ता कितने समय तक अपनी मर्यादा की रक्षा कर पाएगा ..ये देखने वाली बात होगी।

आने वाले दिनों में मां जैसे रिश्ते के ऊपर इस तरह के उटपटांग कार्यक्रम और ज्यादा दिखने लगे तो चौंकियेगा नही क्योंकि मानवी चेतना का परावलंबन और अन्तःस्फुरणा का मूर्छाग्रस्त होना, आज की सबसे बडी समस्या है। लोग स्वतन्त्र चिन्तन करके परमार्थ का प्रकाशन नहीं करते बल्कि दूसरों का उटपटांग अनुकरण करके ही रुक जाते हैं। कुछ ही दिनों में सभी एक दूसरे की नकल करते नजर आने वाले है। आज अगर ये स्पर्धा करने की जगह कुछ नया सृजन करने पर ध्यान दें तो नि:संदेह कुछ अच्छा कर भी ले। पर शायद इन चैनल वालो को सब कुछ शार्टकट करने की आदत इतनी गहरी पड चुकी है कि इनसे अब ये उम्मीद बेमानी ही कही जायेगी।

आज से कुछ साल पहले कभी किसी ने ये नहीं सोचा था कि एक समय ऐसा भी आएगा जब लोग सिनेमाघरों से दूर होते चले जाएंगे। लेकिन ऐसा दौर भी आया और आज जो हालात सिनेमाघरों की है वो किसी से छुपी नही है। इंटरनेट की दुनिया भी अब बडी तेजी से आम लोगों तक अपनी पहुंच बना रही है …अगर यही रवैया चैनल वालों का आने वाले समय मे रहा तो यकीन जाने इस लफडे वाले लफंटर बाक्स से भी आम जन की वही दूरी बन जाएगी जो आज के समय में सिनेमाघरों से हो चुकी है। मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बसा लेते हैं और इसके लिए उन्हें किसी टेलीविजन की कोई आवश्यकता नहीं। अत: ..हे बुद्दू बकसे समय रहते सुधर जा और बुद्धिमान, दूरदर्शी, विवेकशील एवं सुरुचि सम्पन्न बन वर्ना तेरी अर्थी को कांधा देने वाला भी कोई नहीं बचेगा।

ममता बनर्जी खबर नहीं प्रौपेगैण्डा है

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बांग्ला चैनलों में इन दिनों माओवादियों के नृशंस कर्मों का प्रतिदिन महिमामंडन चल रहा है। बांग्ला चैनलों में ममता बनर्जी और राजनीतिक हिंसा के अलावा सभी खबरें तकरीबन हाशिए पर डाल दी गयी हैं या नदारत हैं। बांग्ला चैनलों में टॉकशो से लेकर खबरों तक सभी कार्यक्रमों में ममता,माओवाद और हिंसा का महिमामंडन सुनियोजित रणनीति के तहत किया जा रहा है। यह ममता बनर्जी का सुनियोजित प्रौपेगैण्डा है। यह बांग्ला समाचार चैनलों के प्रौपेगैण्डा चैनलों में रूपान्तरण की सूचना है। यह पश्चिम बंगाल की जनता को सूचना दरिद्र बनाने की गंभीर साजिश है। बांग्ला चैनलों को देखकर यही लगता है कि ममता बनर्जी ही खबर है। इस अवधारणा के आधार पर तैयार प्रस्तुतियों में खबरों के अकाल का एहसास होता है। ममता बनर्जी के भाषण खबर नहीं प्रौपेगैण्डा हैं। ममता बनर्जी की मुश्किल है कि उनके पास मुद्दा नहीं है वे अपने भाषण और हिंसक घटनाओं को मुद्दा बनाने की असफल कोशिस कर रही हैं। वे यह भूल गयी हैं कि हिंसा को आज के दौर में मुद्दा नहीं बनाया जा सकता। यदि ऐसा हो पाता तो नरेन्द्र मोदी गुजरात का चुनाव कभी का हार गए होते।

टीवी कवरेज में माओवादी हिंसा अपील नहीं करती ,बल्कि वितृष्णा पैदा करती है। यह वर्चुअल हिंसा है। टीवी पर हिंसा का कवरेज निष्प्रभावी होता है। टीवी वाले माओवादी हिंसा से जुड़े बुनियादी सवालों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं। सवाल उठता है माओवादी संगठनों का मौजूदा हिंसाचार जायज है ? इस हिंसाचार से पश्चिम बंगाल के किसानों के जानो-माल की रक्षा हो रही है ? माओवादी संगठनों के प्रभाव वाले इलाकों में किसान और आम आदमी चैन की नींद सो रहे हैं ? प्रभावित इलाकों में माओवादी नेता साधारण लोगों से जबरिया धनवसूली क्यों कर रहे हैं ? माओवादियों के पास कई हजार सशस्त्र गुरिल्ला हैं और उनकी पचासों टुकडियां हैं, इन सबके लिए पैसा कहां से आता है ? गोला-बारूद से लेकर पार्टी होलटाइमरों और सशस्त्र गुरिल्लाओं के मासिक वेतन का भुगतान किन स्रोतों से होता है ? इसका जबाब बांग्ला चैनलों,तृणमूल कांग्रेस,माकपा और माओवादियों को देना चाहिए।

माओवादियों और ममता बनर्जी के अनुसार आदिवासी अतिदरिद्र हैं। ऐसीस्थिति में वे कम से कम माओवादियों के लिए नियमित चंदा नहीं दे सकते। माओवादियों को कभी किसी ने शहरों में भी चंदा की रसीद काटकर या कूपन देकर चंदा वसूलते नहीं देखा। ऐसी स्थिति में वे धन कहां से प्राप्त करते हैं ?

आज तक राजनीतिक,वैचारिक ,सामाजिक और धार्मिक बहुलतावाद के प्रति माओवादियों का घृणास्पद और बर्बर व्यवहार रहा है । वे भारत के बहुलतावादी सामाजिक और राजनीतिक तानेबाने को नहीं मानते। वर्गशत्रु और उसके एजेण्ट को ‘ऊपर से छह इंट छोटा कर देने’ या मौत के घाट उतारदेने या इलाका दखल की राजनीति करने के कारण माओवादियों से भारत के बहुलतावादी तानेबाने के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है। माओवादी जिन इलाकों में वर्चस्व बनाए हुए हैं वहां पर आज भी राजनीतिक स्वाधीनता नहीं है। उन इलाकों में विभिन्न रंगत के मार्क्सवादी,राष्ट्रवादी,उदारवादी और अनुदारवादी पूंजीवादी दल अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करते। आज बुर्जुआ संविधान के तहत जितनी न्यूनतम आजादी मिली हुई है माओवादी इलाकों में वह भी नहीं हैं।

यह भ्रम है कि माओवाद प्रभावित 136 जिलों में सामाजिक-राजनीतिक शक्ति संतुलन माओवादियों के पक्ष में है। असल में वे आतंक की राजनीति करके इन इलाकों में लोकतंत्र को पंगु बनाए हुए हैं। साथ ही पृथकतावादी,फासिस्ट,अंधराष्ट्रवादी और अपराधी गिरोहों के साथ मिलकर समानान्तर व्यवस्था चला रहे हैं ।

राजनीतिक बहुलतावाद और लोकतंत्र एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। माओवादियों की भारत के लोकतंत्र और बहुलतावाद में कोई आस्था नहीं है। ममता बनर्जी की इन दोनों में आस्था है। ऐसे में ममता बनर्जी का माओवादियों से समर्थन मांगना नाजायज है। एक अन्य सवाल उठता है कि माओवादी अंधाधुंध कत्लेआम क्यों कर रहे हैं ? आज भारत में नव्य उदारतावाद विरोधी एजेण्डा पिट चुका है। दूसरा कारण है माओवादी आंदोलन का चंद क्षेत्रों तक सीमित हो जाना। हिन्दुस्तान के अन्य वर्गों की समस्याएं उनके आंदोलन के केन्द्र में नहीं हैं। नव्य-उदारतावाद के खिलाफ उनका संघर्ष किसानों से लेकर मध्यवर्ग तक अपील खो चुका है। समाजवाद के अधिकांश मॉडल पिट चुके हैं ऐसी अवस्था में माओवादी समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें ?

माओवादियों ने हाल के वर्षों में नव्य-उदारतावाद के खिलाफ संघर्ष करके जो थोड़ी -बहुत जमीन बनायी थी वह खतरे में है।नव्य-उदारतावाद विरोध की आर्थिकमंदी के साथ ही विदाई हो चुकी है। नव्य-उदारतावाद की विदाई की बेला में माओवादियों के पास सही एजेण्डे का अभाव है यही बुनियादी वजह है जिसके कारण वे हताशा में अंधाधुंध हत्याएं कर रहे हैं। आदिवासियों में वे अपना जनाधार विचारधारा और संघर्ष के आधार पर सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं। जिन इलाकों में माओवादी सक्रिय हैं उन इलाकों में लोकतांत्रिक राजनीति की बजाय इलाका दखल की राजनीति हो रही है। फलतः उनकी विचारधारात्मक अपील घटी है। यही वजह है लालगढ़ में माकपा को अपने खोए हुए जनाधार को पाने में सफलता मिली है। दूसरी ओर माओवादियों के अंदर एक गुट अब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के सहयोग से विधानसभा चुनावों में भाग लेने का मन बना चुका है। वे लालगढ़ में पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी के बैनरतले आगामी विधानसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं और इस दिशा में तैयारियां चल रही हैं। यह हिंसा की राजनीति को वैध बनाने की कोशिश है। आगामी दिनों में वाममोर्चे की यह कोशिश होगी कि लालगढ़ की हिंसा को मीडिया उन्माद के जरिए किसी तरह वैधता न मिले।साथ ही लालगढ़ में किसी भी तरह माओवादी और ममता बनर्जी को चुनावी सफलता न मिले।

पेट्रोल की बात पर बेबात उछलते लोग

अनिल त्यागी

खाद्य वस्तुओं की मंहगाई की मारा-मारी में पेट्रोल की कीमत बढ गई। आम लोगों को कोई नुकसान फायदा हो न हो विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं को अपने चेहरे चमकाने का मौका सरकार ने दे ही दिया, सरकार सिर्फ कीमतें बढाती है तो क्यों उसके कारण जनता को समझाने का कोशिश नहीं करती। या फिर सरकार में इतना दम नहीं है कि जनता का सामना कर सके। उस पर भी पेट्रोल कम्पनीयों का यह तुर्रा की अभी कीमतें कम बढी है।

मेरी विनम्र राय है कि पेट्रोल की कीमतें जितनी बढानी है एक बार बढा ले, रोज रोज की हाय तौबा से तो छुटकारा मिलेगा। बस एक बात समझ से परे है कि जब पेट्रोल के दाम अन्तराष्‍ट्रीय बाजार से जोडे गये है तो उस पर टैक्स हिन्दुस्तान के क्यों लगाये जाते है। इससे टैक्स भी खत्म कर देने चाहिये उम्मीद है कि तब पेट्रोल वर्तमान से काफी कम कीमत पर उपलब्ध होगा।

एक अजीब बात है कि सारे के सारे नेता और मीडिया वाले इसे मंहगाई और गरीबों पर मार करने वाले कारक के रूप मे प्रचारित कर रहे हैं। जब कि पेट्रोल आज भारतवर्ष में मंहगाई या गरीबों पर कहीं भी फर्क डालने की औकात में नहीं है। जितने भी जन यातायात के साधन है चाहे वो रेल हो या बस इन सबमे पेट्रोल का इस्तेमाल तो अतीत की बात है। जब सफर करने का साधन रेल बिजली से चलती हो, बसों में पेट्रोल का उपयोग शून्य हो गया हो, माल ढोनेवाले ट्रको मे पेट्रोल टेंक की जगह डीजल ने ले ली हो, तो कैसे ये गरीब आदमियों और आम जनता के खिलाफ जायेगा? कोई तर्क मेरी समझ में तो आता नहीं।

आज पेट्रोल का उपयोग मंहगी कारों में और अधिकांश दुपहिया बाहनों में ही होता है देश के मीडिया महारथी और विपक्षी दल जरा यह तो बताये की इनमें से कौन सा माध्यम देश के गरीब और गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगा करते है। और जो थोडा बहुत परिष्‍कृत पेट्रोल हवाई जहाजों में इस्तेमाल होता है उससे आम आदमी का क्या लेना देना।

दुपहिया वाहनों का भारत जैसे देश में उपयोग कम दुरूपयोग अधिक होता है। ऐसा करने वाले हैं मध्यम वर्ग के बाबू, नवयुवक और मध्यमवर्गीय किसान। पता नहीं उन्हे समय का कैसा उपयोग करना है कि जल्दबाजी की मारामारी में हैं, बाबू या बडे बाबू मझौले दुकानदार हो कोई और दफतर या अपने काम से निपटने के बाद अपने वाहन से आधे घण्टे में घर पहुंच कर चाय पीते हुए टी.वी. के सामने जम जाते है पता नहीं जल्दी घर आकर वे कौन सा देश हित कर रहे है अगर पैदल या सार्वजनिक वाहन से घर पहुंचने मे थोडी देर लग जाये तो पता नहीं कौन सा पहाड टूट जायेगा पर चलना है तो अपने वाहन से चाहे फिर सेहत के लिये दो घण्टे रामदेव के नुस्खे आजमाने पडे और पेट से बदबूदार हवा खारिज करने के लिये अलाये बलाये का सहारा लेना पडे। मेरी समझ से तो ऐसे लोगो के लिये पेट्रोल के बढे रेट के साथ सडको के नये स्टैण्डर्ड के अनुसार बहुत सारे टैक्स लेने चाहिये।

प्रधानमंत्री नरसिंहाराव से पहले देश में दुपहिया वाहनों का नम्बर इंतजार के बाद आता है स्कूटर मोटरसाइकिल ब्लैक में मिलती थी, सरकार कम्पनीयों को जितना अनुमति देती थी उतने ही वाहन बाजार में आते थे लेकिन उदारवादी सोच ने ओटोमोबाइल कम्पनियों को उत्पादन की छूट क्या दी और फिर बैंको ने लोन देने की होड लगाई तो आज एक परिवार में तीन-चार दुपहिया वाहन होना आम बात है। साहब तो साहब ही है उनके लाटसाहब भी स्कूल से लेकर टयूशन तक मोटरसाईकिल पर ही जायेगे और फिर बिटिया ही क्यों तरसे उसके लिये भी तो कम्पनीयो ने स्कूटी बनाई ही है। जिस स्कूटर मोटर साई किल को लोग पहले छूने की हसरत रखते थे आज कम्पनीया उसके प्रचार के लिये सडको पर फड लगाये खडी रहती है और पास ही बैठे रहते है एक अदद फाइनेंस कम्पनी के कर्मचारी आप राशन कार्ड और पे स्लिम दीजिये और दुपहिया वाहन ऐसे ले आइये जैसे साग पकाने के लिये हंडिया खरीद लाये हो।फिर पेट भर कर पेट्रोल की बढती कीमतो को गालियां दीजिये। यह है भारत के उत्पादन वृध्दि का अर्थशास्त्र।

देश के युवाओं को आज गांधी का दर्शन समझाने वाला कोई गांधी या महात्मा नजर नहीं आता। दक्षिण अफ्रीका में गाधीजी के टालस्टाय आश्रम से निकटवर्ती शहर दस बारह मील था वहॉ एक नियम बनाया गया था जो आश्रम का सदस्य आश्रम के काम से शहर जाता था उसे रेल का किराया दिया जाता था और जिन्हें शहर केवल घूमने फिरने के लिये जाना होता था उन्हे पैदल ही जाना पडता था। ऐसा ही कोई कानून इन दुपहिया वाहन घारको के लिये भी बन जाये तो पेट्रोल जैसी बदबूदार चीज के लिये देश का खरबों डालर तो बचेगा ही सडको के निर्माण पर भी बडा खर्च बच जायेगा। सरकार जिस इन्फ्रास्ट्रैक्चर को बडे शहरों में विकसित कर रही है यदि छोटे शहरों में विकसित कर दे तो देश का धन देश और देशवासियो के ही काम आयेगा। अगर गॉवों के पास बेहतर शिक्षा के साधन हो तो कोई बालक भला घर से दूर क्यों जायेगा। गांव में बिजली पानी उपलब्ध हो तो क्यों कोई परिवार गॉव छोडकर शहर में बसने जायेगा।

दुपहिया वाहनों का इस्तेमाल यानि पेट्रोल का इस्तेमाल मजबूरी भी है। बस हो या ट्रेन किसी कि गारटी नहीं की समय पर मिल ही जाये ऐसे में अपने काम पर समय से पहुचने के लिये वाहन पर खर्च करना मजबूरी है अगर सार्वजनिक यातायात के साधन की गारटी हो तो शायद ही कोई अपना खर्च बढाये। दिल्ली में मैट्रों की सफलता उदाहरण के रूप मे देखी जा सकती है।

एक खबर यह भी आई कि सीटू पेट्रोल की बढी कीमतों के खिलाफ आन्दोलन करेगी, इसे कहते है राजनैतिक अवसरवाद बगाल में चुनाव की चर्चा है तो सीटू का बयान आया वरना पूरे देश की ट्रेड यूनियनें फाइस्टार कामरेडों की बपौती बन चुकी है जो चन्दा तो मजदूरो से लेते है और संघर्ष किसी के लिये नहीं करते। सीटू हो या इटक बी एम एस हो या कोई और यूनियन इन्हे गंभीर चिंतन करना चाहिये। अभी तो पेट्रोल के दाम बढे है आने वाले दिनों में डीजल, रसोई गैस और कैरोसीन के मूल्य वृद्धि की आशंका है मजदूर यूनियनों, बैंक के कामरेडो नौजवान छात्रों और आम लोगों को अभी से ऐसा सशक्त वातारवरण बना देना चाहिये कि सरकार चाहे जिसकी हो कोई भी उदारवादी या परम्परावादी जन साधारण के इस्तेमाल आने वाली चीजो के दाम बढाने की हिम्मत न कर सके जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक सरकार और सरकारी कम्पनीयां मनमाने भाव बढाती रहेगी हम और आप तो सिर्फ पानी पी-पी कर सरकार को गालिया देती रहेगें पर कहावत है कि कौवे के श्रापे डांगर नहीं मरते।