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रंगभूमि का नायक

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लेखक- विकास कौशिक

मैं मुन्ना भाई नहीं हूं…मुझे मेरे सामने जीते जागते महात्मा गांधी नजर नहीं आते…लेकिन सच कहूं…सपने में मुंशी प्रेमचंद से मेरी मुलाकात होती है। और सुनिये ये मामला किसी कैमीकल लोचे का नहीं मामला सचमुच इस वक्त के सबसे बड़े लोचे का है। बहरहाल आपको बताउं मुंशी जी ने मुझसे क्या कहा…वो मुझे रंगभूमि में ले गए…अरे वही रंगभूमि जिसे आप हम सभी कभी ना कभी पढ़ चुके हैं..सब कुछ याद नहीं रख सकते इसीलिए भूल भी चुके हैं। वैसे मुंशी जी अपने साथ पिछले कुछ दिनों की अखबारी कतरने लिए घूम रहे थे..बोले- यार हालात अब भी नहीं बदले…रंगभूमि में भी यही हुआ था। गरीबों की बस्ती में कई एकड़ जमीन पर मालिकाना हक रखने वाला अंधा भिखारी सूरदास अमीर पूंजीपति और स्थानीय प्रशासकों की मिलीभगत से अपनी ज़मीन गंवा देता है..सूरदास की जमीन हड़पने में मदद करने वाले सूरदास के वही पड़ोसी होते हैं जिनके भले के लिए ही सूरदास किसी भी कीमत पर अपनी जमीन देने के लिए राजी नही होता। सूरदास और उसके साथियों में फूट पड जाती है और फिर होता वही है जो किसी भी समाज में सर्वजन के हित में नहीं होना चाहिए। यानि लालच…राजनीति…क्षुद्र भावनाओं की चपेट में आकर समाज टूटता है…झूठ की जय जयकार होती है और सच अपना मुहं छिपाकर रोता है।

इसके बाद प्रेमचंद बाबू रोआंसे कम और आक्रामक ज्ञानी ज्यादा हो गए…बोले …ये सिर्फ इसी कहानी का नहीं पूरी दुनिया में होने वाली ज्यादातर ज्यादतियों का लब्बो-लुबाव है। जब आपस में प्यार से जुड़ी हुई कड़िया खुलने लगती है…जब हम एक दूसरे को खलने लगते हैं…स्वार्थों के लिए आपस में जलने लगते हैं। तब हमारा इतिहास हमारी बर्बादी की गवाही देने की तैयारी करने लगता है। हजारों साल से हिंदुस्तान के इतिहास में भी यही तो होता आया है। पहले शासक आपस में लड़कर रियासतों में बंट गए। अंग्रेज आए तो उन्हें पहले से बंटे इन रजवाड़ों को उखाड़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी फिर भी उन्होंने जो कोशिशें की उसे उनकी क््क्ष्ज्क्ष्क््क ॠक्् ङछक घ्क्ष्क् के रुप में प्रसिध्दि मिली। 300 सालों तक उनके शासन का इतिहास देखकर तो यही लगता है कि दुनिया में शायद ही राज करने की ऐसी कोई दूसरी नीति रही होगी।

मैंनें भी प्रेमचंद जी की हां में हां मिलाई। वो और एक्साइटिड होकर बोले….

लेकिन विकास जी मैं तो ये मानता हूं कि 300 साल तक रहे इस जुल्मी ब्रितानी शासन का श्रेय अंग्रेजो की तोड़कर राज करने की नीति को नही बल्कि हमारी टूटते जाने…बिखरकर कमजोर होते जाने और आखिर में घुटने टेक देने की रीति को जाता है।

चुप होकर एक ठंडी आह भरकर कहा ….स्साला…जब दुनिया भर में राजनैतिक सामाजिक चेतना का विकास हो रहा था तक हमारे यहां देश को अंग्रेजों के हाथों बेचने की तैयारी हो रही थी। प्लासी की लड़ाई से लेकर जिन्ना की अलग मुल्क की मांग और उसके लिए मचे खून खराबे तक हमारे इतिहास में जयचंदों की कहीं कोई कमी नहीं रही। इतिहास गवाह है कि समाज को तोड़ने वालों को बार बार विजय इसलिए मिलती रही क्योंकि हम कमजोर नहीं अपितु विभाजित थे। इसलिए अपने ही देश में हम शासक नहीं बल्कि शासित बने रहे।

हूं………मेरे मुहं से आवाज निकली। और उन्होंनें लपक ली। बोलते गए….

हम विभाजित थे इसलिए हमे हराना आसान था सो हम हारते गए और शत्रु जीतते गए…यही रंगभूमि में हुआ और यही मुल्क में।

लेकिन सुनों बाबू सिर्फ यही तस्वीर नहीं है….इसका भी दूसरा पहलू है जब हमने अपनी ताकत को पहचाना और हमारी खुली और बिखरी हथेली एकजुट होकर बंद मुठ्ठी बन गई तब हमें देश की आजादी भी मिल गई। ये एकता का ही प्रभाव है कि आजादी की लड़ाई लड़ने और जीतने का श्रेय हमें धर्म जाति के नाम पर तोड़ने वाली किसी मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा को नहीं बल्कि महात्मा गांधी की राष्ट्रीय एकता को बल देने वाली शक्ति को जाता है। एकता की सफलता का ये इतिहास सिर्फ हमारा नहीं वरन दुनिया भर में एक झंडे के तले इकठ्ठा होकर अपना हक मांगने के लिए लडी लड़ाइयों का गर्वीला अतीत है। चाहें फ्रांसीसी क्रांति हो या रुस की बाल्शेविक क्रांति या फिर रंगभेद के खिलाफ दुनियाभर में चले आंदोलन।

पुरानी बातें कहते कहते अचानक उनका हाथ झोले में कुछ पुरानी आखबारी कतरनों की तरफ चला गया मुझे दिखाते हुए बोले और ये देखो हालिया ही..हमारे पड़ोसी नेपाल में जनता का राजशाही के खिलाफ चला जन आंदोलन …और ये देखो पाकिस्तान में लोग कैसे मुर्शरफ के पुतले जलाकर जस्टिस चौधरी जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं…देखो इन्हें सिया सुन्नी के नाम पर बंट जाने वाले लोग कैसे जस्टिस चौधरी यानि लोकतंत्रवाद के लिए निरंकुश ताकत के सामने कैसे खड़े हो गए हैं।

जान लो बेटा…दुनिया भर में किसी भी जनआंदोलन को तभी सफलता मिली जब पूरा जनसमुदाय पूरे मन से उसका हिस्सा रहा। सियासतदानों ने चाहे जितना कुचलने की कोशिश की हो लेकिन एक एक से ग्यारह होने वालों के सामने उनकी बारुदी तोपे भी ज्यादा टिक नहीं सकी।…

अब तक मैं भी प्रेमचंद जी के साथ फ्रेंक हो चुका था…लगा अपना भी साहित्य ज्ञान बघार लूं..तो मैंने भी बचपन से सुनी कहानी ठोंकते हुए बोला…सर आप ठीक कह रहे हैं…लेकिन परेशानी ये है कि हम कुछ याद नहीं रखते अब देखिये ये कहानी कितनी फेमस थी जिसमें एक किसान अपने लड़ते झगड़ते रहने वाले लड़को को एकता का सबक सिखाने के लिए उन्हें पहले एक एक लकड़ी को तोड़ने को देता है और फिर लकडियों को एक गठ्ठर में मजबूती से बांधकर उन्हें ये बताता है कि जब आप एक साथ हो तो इन लकडियों की तरह कोई आपको भी नहीं तोड़ पायेगा।और तो और पचतंत्र में भी कहा गया है कि एकता से कार्य सिध्द होते हैं। लेकिन अफसोस हमारी पुरानी पीढ़ी ने अपने वक्त की इन कहानियों से कुछ नहीं सीखा….मैंने कहा।

अचानक प्रेमबाबू को ताव आ गया…तुनक कर बोले ..बस कर दी ना हताशों वाली बात…पुरानों को गरियाकर अपना पल्ला झाड़ लिया ना। मैं तुमसे पूछता हूं। तुम्हारी पीढ़ी ने क्या सीखा..लगान देखकर..बहुत सीटियां बजाई थी सिनेमा हॉल में बैठकर। वाह, क्या चमत्कारिक कहानी थी…सिर्फ एकीकरण की ताकत के आधार पर दबे कुचले किसानों ने अंग्रेजो को उन्हीं के खेल में हरा दिया था। बोलो हीरो… क्या ये एकता की ताकत का उदाहरण नहीं है जो किसी को भी मजबूती से किसी के भी सामने खड़ा सिखा दे।

कहकर वो थोड़े नर्म हो गए….बेटा…पीढ़ी नई हो या पुरानी वो ना कहानियों से सीखती है और ना ही गलतियों से। इसी का नतीजा है कि तीन सौ सालों तक गुलाम रहने के बावजूद कभी द्रविड़ राज्यों में भाषा के नाम पर ,कभी दूसरे राज्यों में धर्म.जाति के नाम पर आपस में लड़ते रहते हो। हाल ही में उत्तर भारत को हिला कर रखने वाले गुर्जर मीणा आरक्षण विवाद और डेरा सच्चा सौदा -अकाल तख्त विवाद जैसी घटनाएं क्यूं सामने आई…क्या तुम्हारी धार्मिक भावनाएं,तुम्हारे विश्वास आस्था इतनी कमजोर हैं कि कोई भी अपने ढ़ंग से कोई बात कहें तो तुम्हें अपने धर्म समाज पर आंच नजर आने लगती हैं तुम लड़ने मरने को तैयार हो जाते हो…क्यूं आरक्षण जैसी व्यवस्थाएं देश के एकीकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।

शायद इसलिए कि हमारे लिए तत्काल लाभ ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं…दूरगामी दृष्टि का पतन हो जाता है…मेरे मुंह से निकल गया।

ठीक कह रहे हो…इसी चक्कर में सब भूल जाते हैं, कि विकास, आधुनिकीकरण और आकांक्षाओं की अंधी उडान ने तुमसे तुम्हारे परिवार भी छीन लिए हैं। एकता की भावना हमारे समाज से ही नहीं हमारे परिवारों से भी लुप्त होती जा रही है…न्यूकिलीयर फैमिली…यही कहते हो ना तुम। हम दो हमारे दो…और मां-बाप को गोल कर दो। यही एजेंडा होता है ना तुम्हारा। अरे तम्हारी इसी सोच ने सब कुछ छीन लिया है तुमसे। बुर्जुगों का आशीर्वाद ,उनकी छाया,प्यार सब कुछ। और नतीजा सामाजिक पारिवारिक बिखराव के रुप में तुम्हें हर कहीं मिलेगा।क्या सचमुच ये विभाजन से जन्मा पतन नहीं है।क्या ये पतन हमें उन्ही पुरानी गलतियों की तरफ नहीं धकेल रहा जिनकी वजह से कभी हम गुलाम हुऐ थे…क्या समाज टूटने के कारण तब कुछ अलग थे …नहीं बिल्कुल नहीं सच बिल्कुल अलग है। दरअसल हम भूल गए थे कि जहां आपस में संघर्ष होने लगता है वहां समाज टिक नहीं पाता। इसलिए अपने विद्वान पूर्वजों ने भी भी चेतावनी दी है कि जिस प्रकार जंगल में हवा के प्रकोप से एक ही वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ कर अग्नि पैदा करती है और उसमें वो वृक्ष ही नही वरन पूरा वन ही जलकर भस्म हो जाता है। उसी प्रकार समाज भी आपसी कलहाग्नि और द्वेषाग्नि से भस्म हो जाता है। जहां आपसी कलह है वहां शक्ति का क्षय अवश्यभामी है। क्या तुम अंदाजा भी लगा सकते हो आज तक देश में जितने दंगे और विवाद हुए हैं उनमें कितने रुपयों की हानि हुई होगी…उतने पैसे में जनकल्याण और तरक्की के कितने काम हो सकते थे…

ये सोचने से पहले ही मेरा दिमाग चकरा गया…

उन्होंनें फिर बोलना शुरु किया’——

इन्ही सब वजहों से देश पहले कमजोर हुआ था और कमजोरों को दबाने लूटने की इच्छा सभी को होती है। पहले भी कोई राज्य अपने पड़ोसी पर आक्रमण होने पर मदद के लिए ना दौड़ता था…और ना ही आज हम दौडते हैं। और तुम अपनी क्यों नही कहते…सड़क चलते किसी ऑटो शिव खेड़ा का कथन देखते हो….यदि आपके पडोसी पर अत्याचार हो रहा है और आपको नींद आ जाती है तो अगला नंबर आपका है —पढ़ते ही कितना सोचते हो…कितना जोश में आ जाते हो…और कुछ मिनटों बाद जब बस में कोई कंडक्टर किसी मामूली से बात पर किसी सहयात्री को बेइज्जत करता है, मारपीट करता है या उसे बस से उतारने पर आमादा हो जाता है तो तुम्हें क्या हो जाता है…क्यूं तुम उसका साथ नहीं देते।

क्या ये नपुंसकता…ये एकता का अभाव ये सामाजिक बिखराव,अपनी और पराई पीर के बीच का ये विभाजन हमारे पतन के लिए जिम्मेदार नहीं है। खैर छोड़….वैसे एक बात और बताता हूं…आजकल तुम्हारे यहां ये सोशल इंजीनियरिंग बहुत पॉपुलर हो रहा है….उन्होंनें फिर गहरी सांस ली और अपने आप से बुदबुदाते हुए बोले …ठाकुर का कुआं लिखते वक्त मैने कुछ गलत नहीं सोचा था वाकई सोशल इंजीनियरिंग कमाल की चीज है।

ठाकुर का कुंआ से सोशल इंजीनियरिंग का क्या ताल्लुक् है… मैने पूछा ।वो बोले मेरे लाल…ठाकुर के कुएं से दलितो और शाषितों ने स्वर्णो के साथ मिलकर पानी निकाला था…ठीक वैसे ही जैसे मायावती ने सरकार बना ली। जब उन्हें तिलक तराजू और तलवार को जूते मार कर कुछ नहीं मिला तो एकछत्र राज की खातिर सबको गले लगा लिया…सबको साथ लेकर चलने का फार्मूला अपना लिया।नतीजा सबके सामने है…आज वो अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाने की स्थिति में है…हो सकता है कल खुद प्रधानमंत्री बनने की हैसियत में हो।

मैंने सोचा सच है। वक्त बदला है ,समाज बदला है हम ना बदले तो मिट जायेंगे।

ठीक सोच रहे हो….. ऐं…..ये तो सोचते को भी पकड़ लेते हैं…

पर अब वो फिर बोलने के मूड़ में थे…बोले …बिन सहकार नहीं उध्दार,सब साथ नहीं चलेंगे तो भला कैसे होगा। तुलसीदास जी ने कहा था– गगन चढ़हि रज पवन प्रसंगा। यानि हवा का साथ पाकर घूल का कण भी आसमान छू लेता है। ना मालूम हम में से कौन कौन धूल का कण हो और कौन हवा का झोंका।अगर आसमान छूना है तो सबको एक दूसरे का साथ देकर आगे बढ़ना होगा।तभी सूरज उगेगा तभी उम्मीदों का सवेरा होगा।

सूरज के सातों रंग मिलते हैं एक साथ —तभी होता है प्रकाश।

इकाइयों से खिसककर दहाइयों, सैंकडो हजारों में ,जब होती है एकाकार, तभी तो होता है, राष्ट्रीय एकता का जीवंत प्रतिबिंब साकार।

ये कहते ही जोर की हवा चली और मुंशी जी साकार से निराकार हो गये…और रंगभूमि बुकशेल्फ से मेरे मुहं पर गिरकर मुझे जगा गया।

(लेखक एक इलेक्‍ट्रॉनिक न्‍यूज चैनल से जुडे है)

हिन्दी पत्रकारिता के भविष्य की दिशा

लेखक- डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।

परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से।

जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है ।

जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।

अमर उजाला जो किसी वक्त उजाला से टूटा था, उसने पंजाब तक में अपनी पैठ बनाई । दैनिक भास्कर की कहानी पिछले कुछ सालों की कहानी है। पूरे उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपनी जगह बनाता हुआ भास्कर गुजरात तक पहुंचा है। भास्कर ने एक नया प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशन शुरू कर किया है। भास्कर के गुजराती संस्करण ने तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। दैनिक भास्कर ने महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर से अपना संस्करण प्रारंभ करके वहां के मराठी भाषा के समाचार पत्रों को भी बिक्री में मात दे दी है।

एक ऐसा ही प्रयोग जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका का कहा जा सकता है, पंजाब से पंजाब केसरी का प्रयोग और राजस्थान से राजस्थान पत्रिका का प्रयोग भारतीय भाषाओं की पत्रिकारिता में अपने समय का अभूतपूर्व प्रयोग है। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के प्रमुख नगरों से एक साथ अपने संस्करण प्रकाशित करती है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई संस्करण प्रकाशित करके दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को लेकर चले आ रहे मिथको को तोड़ा है। पत्रिका अहमदाबाद सूरत कोलकाता, हुबली और बैंगलूरू से भी अपने संस्करण प्रकाशित करती है और यह सभी के सभी हिंदी भाषी क्षेत्र है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया मध्य भारत की सबसे बड़ा अखबार है जिसके संस्करण्ा अनेक हिंदी भाषी नगरों से प्रकाशित होते हैं।

यहां एक और तथ्य की ओर संकेत करना उचित रहेगा कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जिन अखबारों का सर्वाधिक प्रचलन है वे अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि वहां की स्थानीय भाषा के अखबार हैं। मलयालम भाषा में प्रकाशित मलयालम मनोरमा के आगे अंग्रेजी के सब अखबार बौने पड़ रहे हैं। तमिलनाडु में तांथी, उडिया का समाज, गुजराती का दिव्यभास्कर, गुजरात समाचार, संदेश, पंजाबी में अजीत, बंगला के आनंद बाजार पत्रिका और वर्तमान अंग्रेजी अखबार के भविष्य को चुनौती दे रहे हैं। यहां एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि हिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अखबारों की खपत हिंदी अखबारों के मुकाबले दयनीय स्थिति में है। अहिंदी भाषी क्षेत्रों की राजधानियों यथा गुवाहाटी भुवनेश्वर, अहमदाबाद, गांतोक इत्यादि में अंग्रेजी भाषा की खपत गिने चुने वर्गों तक सीमित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि राजधानी में यह हालत है तो मुफसिल नगरों में अंग्रेजी अखबारों की क्या हालत होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी अखबार दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई आदि उत्तर भारतीय नगरों के बलबूते पर खड़े हैं। इन अखबारों को दरअसल शासकीय सहायता और संरक्षण प्राप्त है। इसलिए इन्हें शासकीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये प्रकृति में क्षेत्रिय हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के विभिन्न संस्करण इसके उदाहरण है।) मूल स्वभाव में भी ये समाचारोन्मुखी न होकर मनोरंजन करने में ही विश्वास करते हैं । लेकिन शासकीय व्यवस्था ने इनका नामकरण राष्ट्रीय किया हुआ है। जिस प्रकार अपने यहां गरीब आदमी का नाम कुबेरदास रखने की परंपरा है। जिसकी दोनों ऑंखें गायब हैं वह कमलनयन है। भारतीय भाषा का मीडिया जो सचमुच राष्ट्रीय है वह सरकारी रिकार्ड में क्षेत्रीय लिखा गया है। शायद इसलिए कि गोरे बच्चे को नजर न लग जाए माता पिता उसका नाम कालूराम रख देते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास में क्रांतियाँ कालूरामों ने की हैं। गोरे लाल गोरों के पीछे ही भागते रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया की नब्ज अब भी वहीं टिक-टिक कर रही है। रहा सवाल भारतीय पत्रकारिता के भविष्य का, उसका भविष्य तो भारत के भविष्य से ही जुड़ा हुआ है। भारत का भविष्य उज्जवल है तो भारतीय पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल ही होगा। यहां भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश भी हो जाता है।

(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं व हिंदुस्थान समाचार एजेंसी से जुड़े हैं.)

हिन्दुत्व…एक दृष्टि और जीवन पध्दति

क्या हिंदुत्व को सच्चे अर्थों में धर्म कहना सही है? इस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने -‘शास्त्री यज्ञपुरूष दासजी और अन्य रूदि्ध मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य [1966 (3) एस.सी.आर. 242] के प्रकरण का विचार किया। इस प्रकरण में प्रश्न उठा था कि क्या स्वामी नारायण संप्रदाय हिंदुत्व का भाग है अथवा नहीं है?’ इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री गजेन्द्र गड़कर ने अपने निर्णय में लिखा- जब हम हिंदू धर्म के

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

लेखक- डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम समुन्नत संस्कृतियों में से एक है। इसकी सुदीर्घ परंपरा में अनेक मनीषी विद्वानों, मंत्र द्रष्टा ऋषियों तथा तत्ववेत्ता मुनियों के जीवनानुभवों के शाश्वत निष्कर्षों की संचित निधि जुड़ी है। इसकी वरेण्यता आप्त ऋषियों ने ‘सा संस्कृति विश्ववारा’ कहकर रेखांकित की है। इसी संस्कृति के आचरित चरित्र ने सर्व मानवों को प्रशिक्षित कर संस्कारित किया है। प्रमाण में यह श्लोक उध्दृत कर सकते हैं-

एतद्येश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मना,
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।

संस्कृति सभ्यता नहीं है। सभ्यता जहां आचरण का बाह्य पक्ष है, वहां संस्कृति जीवन का आंतरिक सौन्दर्य है। जीवन जीने की दृष्टि है। शाश्वत मूल्यों की मंजूषा है। औदात्य की प्रतिष्ठा है। पवित्रता की लेखनी से लिखा जागतिक कर्मों का पावन संविधान है। उच्चासन पर विराजमान सारस्वत मूर्ति संतों का संभाषण है। अभ्युदय का विज्ञान तथा नि:श्रेयस का ज्ञान है। नैर्ष्कम्य का उपनिषद तथा जीवन मुक्ति का आरण्यक है। माधुर्य की भागवत ही नहीं, कर्म की गीता भी है। जीवन का सत ही नहीं, सृष्टि का ऋण भी है। सुख का श्वास ही नहीं, सिध्दि का विन्यास भी है। नवजागरण का शंखनाद ही नहीं, प्रगति एवं समृध्दि का पांचजन्य भी है। अत: गुणात्मक है। सर्व श्रध्देय है। इसके विपरीत सभ्यता सभाओं में बैठने की शिष्टता का मानदंड भर है। सृष्टि व्यवहार का औचित्य है। संस्कृति जहां आध्यात्मिक मूल्य है, वहां सभ्यता विज्ञानात्मक संचेतना है। संस्कृति जहां शाश्वत सत्यों को सहेजे है, वहां सभ्यता यांत्रिक परिणामात्मक उपयोगी सत्यों को सहेजे है। दोनों के वैभिन्य के बीच अंतर्बाह्यता की तथा आध्यात्मिक एवं भौतिकता की अति सूक्ष्म झीनी-सी पारदर्शी पट्टिका है, जिसे सरलता से पृथक करना कठिन है।

जब हम राष्ट्र के आगे सांस्कृतिक शब्द का प्रयोग करते हैं, तब तत्काल हमारा ध्यान, राष्ट्र जनों के उन जीवन-मूल्यों की ओर जाता है जो शाश्वत ही नहीं, राष्ट्र जीवन को अहम् से वयम् की ओर तथा सयम् से ओम तत्सत् की ओर ले जाने वाले हैं। राष्ट्र जीवन को पूर्ण एवं सार्थक बनाने वाले हैं। राष्ट्रजनों की अंतश्चेतना को विकसित एवं सृदृढ़ बनानेवाले हैं। इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आस्था जनित निष्ठा ही राष्ट्रजनों को राष्ट्रीय बनाती है। इस तरह राष्ट्रीयता का मूल स्वरूप राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है। निश्चित भू भाग तथा निश्चित निष्ठावान जन तो भौतिक उपकरण हैं। संस्कृति ही आध्यात्मिक, गुणात्मक तथा शाश्वत जीवन-मूल्य है, जिनका अनुसरण करती प्रजा उसे राष्ट्र का रूप प्रदान करती है। मातृभूमि के प्रति भक्ति तथा जन के प्रति आत्मीयता का भाव सांस्कृतिक मूल्य हैं। यही तीनों मिलकर राष्ट्र को राष्ट्र बनाती हैं। राष्ट्र किन्हीं संप्रदायों तथा जन-समूहों का समुच्चय न होकर, एक जीवमान इकाई है। ऐसे राष्ट्र पुरूष का सजीव व्यक्तित्व है, जिसमें भूमि, जन एवं संस्कृति की जीवंत एकता का सतत निवास वर्तमान रहता है। दशम मंडल में ऋग्वेद के ऋषि से शिष्य पूछता है कि राष्ट्र पुरूष के जो विविध रूप दिए गए हैं वे कितने प्रकार से व्यकल्पित किए जा सकते हैं? मंत्र है-

यत् पुरूषं व्यवर्धु: कति धा व्यकल्पन्
मुखं किमस्य कौ बाहु का ऊरू पादा उच्यते? 10-8-11

तब ऋग्वेद का ऋषि उत्तर देता है-

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:

उरू तदस्य यद्वैश्य पद्मयां शूद्रो अजायत्। (10-9-92)

अर्थात् राष्ट्र पुरूष का मुख ब्राह्मण, बाहु राजन्य, उरू वैश्य तथा पादशूद्र है। चारों वर्णों के संघात से ही राष्ट्र प्रमुख का निर्माण होता है। इनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा, यह कहना अपराध ही होगा। कर्म निष्ठा ही चारों के लिए मुक्ति प्रदाता बनती है। इस मंत्र के आशय को इस प्रकार भी व्याख्यायित कर सकते हैं कि समाज जीवन में चार प्रकार की मनुष्य प्रवृत्तिायां कार्यरत हैं, बुध्दि, सूक्ति, अर्थ तथा श्रम शक्ति। बुध्दि ज्ञान का पथ प्रशस्त करती है। शक्ति सीमाओं की रक्षा करती है आंतरिक अराजकता का शमन करती है। अर्थ औद्यौगिक एवं व्यापारिक विकास का हेतु है तथा श्रम विकास की योजनाओं की सम्पूर्ति का एकमेव साधन है।

स्वीकृत सांस्कृतिक जीवन दृष्टि ही एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से पृथक करती है। प्रत्येक राष्ट्र उसकी स्वीकृत जीवन दृष्टि से ही पहिचाना जाता है। पृथकता की यह स्वीकृति तथा इसका सैध्दांतिक पक्ष ही राष्ट्रवाद को जन्म देता है। कोई भी विचार तभी वाद का रूप लेता है जब उसके आचरण कर्ता उस विचार को जीवन का एक अंग बना लेते हैं। राष्ट्र को सामने रखकर जब कोई सिध्दांत या चिंतन निरूपित होता है, तब वह विचार राष्ट्रवाद के नाम से अभिहित किया जाता है। राष्ट्रवादी हर कार्य को राष्ट्र की तात्कालिक परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित एवं व्यवहारित करता है। फिर चाहे वह प्रश्न राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा का हो या जन के मौलिक अधिकारों की संरक्षा का या संस्कृति की गरिमापूर्ण मर्यादा को सुरक्षित रखने का। राष्ट्रवादी पहले अपने राष्ट्र का हित देखता है। उसके पश्चात् ही नीति निर्धारित करता है तथा आवश्यक संरक्षात्मक कदम उठाता है।

यहां यह प्रश्न उपस्थित हो आना स्वाभाविक है। जब राष्ट्र की परिभाषा में संस्कृति शब्द समाहित है तब राष्ट्रवाद के आगे अतिरिक्त सांस्कृतिक शब्द लगाने की क्यों आवश्यकता पड़ी। सच में यह एक गंभीर प्रश्न है तथा गहराई से विवेचन की अपेक्षा रखता है। संस्कृत शब्द में ‘ठक्’ प्रत्यय लगकर ‘कितिच’ सूत्रानुसार सांस्कृतिक शब्द बनता है। इसे हम संस्कृति का भाववाचीकरण कह सकते हैं। सांस्कृतिक शब्द अपनी परिधि की व्यापकता में संस्कृति के सभी उपादानों एवं उपकरणों को समेटे होता है। हम जानते हैं संस्कृति शब्द ‘कृ’ धातु से ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक ‘सुट्’ आगम करके ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से निष्पन्न है। ‘सम’ उपसर्ग जहां भी जुड़ता है वह वहां संस्कारित अथवा सुन्दरीकृत का अर्थ देता है। ‘सम’ के सभी अर्थ पश्चात्वर्ती शब्द को विशेषित करते हैं। विद्वान उसके दो ही अर्थ मुख्य रूप से ग्रहण करते हैं। एक तो संस्कारित सम्यक कृति और दूसरा संभूय कृति के रूप में। संघश: कृति सम्भूय कृति कहलाती है। इस तरह संस्कृति संस्कार युक्त सम्भूय कृति है। संस्कार, सामाजिक विद्रूपताओं के साथ मनीषियों के बौध्दिक संघर्ष का सुपरिणाम है। मनुष्य उन पर विजय के पश्चात जिन तात्विक एवं सात्विक निष्कर्षों पर पहुंचता है, वे निष्कर्ष ही शनै:-शनै: संस्कृति बनते चलते हैं। मानवीय जीवन मूल्य बन जाते हैं। कह सकते हैं मानव के जीवनानुभवों का नवनीत ही संस्कृति है। समाज से संघर्ष का क्रम निरंतर बना ही रहता है। इस कारण संस्कृति में नैरंतर्य बना रहता है। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि संस्कृति की स्वीकृत जीवन-दृष्टि में कहीं कोई बदलाव नहीं आता। ऐसे निष्कर्ष संस्कृति के आचरण पक्ष के उपादानों एवं उपकरणों में अभिवृध्दि ही करते हैं। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सांसकृतिक परंपरा के शाश्वत मूल्यों से जब तक जुड़ा चलता है, तब तक वह जीवंत एवं समुन्नत बना रहता है। स्खलन उसकी गरिमा तथा प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाता है। मर्यादाओं को नष्ट ही नहीं करता, उपेक्षा तथा तिरस्कार का भाव जगा, परिणामगत दुर्बलताओं को स्वीकारने में भी संकोच नहीं करता। हम जानते हैं सांस्कृतिक स्खलन के कारण ही विश्व के अनेक राष्ट्र मिट गये। इकबाल ने कहा भी है-

यूनान मिश्र रोमां सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाकी नामोनिशा हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।

यह जो ‘कुछ बात है’ यह हमारी सांस्कृतिक निष्ठा ही है। अपनी सनातन संस्कृति के साथ अटूट जुड़ाव ही है। इसी से अनेकों झंझावातों के बीच भारत-तरणी विपत्तिा समुद्र को पार करने में सक्षम एवं समर्थ सिध्द हुई है। इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय राष्ट्रीय जीवन का अपनी मूल्यवान आध्यात्मिक संस्कृति को जड़ से दृढ़ता से पकड़े रहना ही है। इसी सत्य को बार-बार उजागर करने के हेतु से मनीषियों को राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द जोड़ने की आवश्यकता अनुभव हुई है। एक और भी कारण हो सकता है। जब राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द जुड़ जाता है तब वह सोच का एकमेव सांस्कृतिक अधिष्ठान भी निर्धारित कर देता है। तब मनीषि, जीवन के समस्त व्यवहारों में संस्कृति को सामने रखकर ही नीति निर्धारित नही ंकरते, आचरण तक भी सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही तय करते हैं। तब लक्ष्य का ही नहीं, साधनों की पवित्रता का भाव भी सामने रहता है। इसी कारण तो महाभारत में धर्मराज का यह कथन ‘अश्वत्थामा हतौ नरो वा कुंजरौ’ कभी अभिशंसित नहीं हुआ। यह किसी अपवाद को सहन नहीं करता। तीसरा कारण यह भी हो सकता है राष्ट्र के उपादान तत्व भू और जन के साथ संस्कृति अपनी पृथक सत्ताा के साथ अलग विचार की अपेक्षा रखती है। जब सांस्कृतिक शब्द राष्ट्रवाद के आगे जुड़ जाता है तब किसी अवमूल्यन, किसी गिरावट अथवा किसी अपवाद के लिए कोई स्थान शेष नहीं रहता। तब राष्ट्र हित चिंतन की एकमात्र कसौटी सांस्कृतिक बोध ही रह जाती है। राष्ट्रवाद की अवधारणा का एक मात्र निकष सांस्कृतिक अधिष्ठान पर अवस्थित विचार ही रह जाता है। इस तरह यह जोड़ निरर्थक नहीं सार्थक ही कहा जाएगा। इसका परिणामात्मक लाभ भी राष्ट्र को मिला है। इसी बल पर आज भारत विपत्तियों की भारी चट्टानों के बोझ को शीश से उतार फेंकने में, पराधीनता की बेड़ियों को काटने में, धर्मांधता की आंधी को रोकने में तथा मतांतरण के षडयंत्रों को उध्वस्त करने में पूरी तरह सफल हो, विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आने का व्यग्र खड़ा है।

इसी संदर्भ में एक और प्रश्न अंतर्राष्ट्रीयतावादियों ने उठा, राष्ट्रवाद के आगे प्रश्नवाचक लगाने का दुस्साहस किया है। अंतर्राष्ट्रीयतावादी तथा छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी राष्ट्रवाद का नाम सुनते ही नाक भौंह सिकोड़ते हुए कानों में अंगुलियां नहीं, शीशा डाल लेते हैं। मानों राष्ट्रवाद का शब्द प्रयोग, कोई एक बड़ा अपराध हो। ऐसा सोचने वाले स्वयं वर्गवादी हैं। ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’ यह कहने वाले स्वयं द्वैतवादी हैं। जो श्रमिक नहीं हैं उन्हें वे शोषक की संज्ञा देते हुए शत्रुवत मान, उनके विनाश तक की भयंकर कामना लिए होते हैं। समाज तक से उनका बहिष्कार तथा तिरस्कार का भाव लिए होते हैं। जबकि राष्ट्रवादी सोच वाला मानव मात्र के हित को अपने राष्ट्र हित से पृथक नहीं मानता। वे भूल जाते हैं, राष्ट्रवादी भारत के मंत्र द्रष्टा ऋषियों ने ही गाया है ‘माता भूमि पुत्रोहम् पृथिव्या:। इन्होंने ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ जैसे विश्वात्मक वैश्विक मंत्र दिए हैं। इन मंत्रों की पृष्ठभूमि में वही भारतीय सांस्कृतिक अवधारणा कार्यरत है जिसका अधिष्ठान अध्यात्म है। सारी सृष्टि एक ही चेतन सत्ताा का विस्तार है। कहीं कोई भेद नहीं है। कोई द्वैत नहीं है। यह अभेदात्मक अद्वैत दृष्टि ही उपर्युक्त वैश्विक सोच की नींव में है। दुनिया के मजदूरों को एक करने का नारा देने वाले रूस और चीन आज भी अलग-अलग राष्ट्र हैं। ये बहुत समय तक सीमा संघर्ष में उलझे भी रहे हैं। इनने अपनी प्रादेशिकता का त्याग कब किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ को ही लें। यह राष्ट्रों का संघ है। राष्ट्रों की सापेक्षता स्वीकार कर चला है। अपने को अंतर्राष्ट्रीय कहने वाले भूल जाते हैं कि इस शब्द प्रयोग में ही राष्ट्रों की उपस्थिति अनिवार्य है। सारा विश्व राष्ट्रों में बंटा है। हर राष्ट्र की अपनी संस्कृति है। हर राष्ट्र की अपनी भाषा है। जिन राष्ट्रों ने परकीय भाषा एवं संस्कृति अपना रखी है, वे पूर्व में उस राष्ट्र के प्रमुख में पराधीन रह चुके हैं वे राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र होकर भी सांस्कृतिक एवं भाषाई दृष्टि से आज भी पराधीन ही हैं। जिन राष्ट्रों की अपनी भाषा संस्कृति नहीं होती निश्चय ही वे राष्ट्र कहलाने के योग्य पात्र नहीं है।

कई राष्ट्रों की संस्कृति को संप्रदायों ने संकुचित कर कट्टरतावादी रूप दे दिया है। कट्टरता ने गर्हित हिंसा तक के सामने अपना घृणित एवं गर्हित चेहरा उजागर कर दिया है। इससे उनका घृणा भरा आत्मघाती रूप सामने आया है। इससे मानवता का उदारचरित प्रभावित हुआ है। आज सांप्रदायिक कट्टरता ने आतंकवाद का स्वरूप ग्रहण कर, जन जीवन को भयाक्रांत कर दिया है। सांप्रदायिकता तब और भयावह हो जाती है जब वह अपने चिंतन को ही अंतिम मान कर चलती है। तब वह दूसरों के प्रति कहर ढाने लगती है। विष विमन करती हुई दूसरे राष्ट्रों को खंडित तक करने को तुल जाती है। आज इस सांप्रदायिक कट्टरता की आग से विश्व का कोई भी राष्ट्र अछूता नहीं बचा है। सांप्रदायिक कट्टरता धर्म के उदार चरित्र को भूल आज रक्त से सड़कें रंगने में लगी है। यह संस्कृति नहीं, विकृति है अपकृति है। भारत के ऋषियों ने इस कट्टरता का विरोध करते हुए यही कहा है-

अयं निज: परोवेति गणना लघु चेहसाम्
उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुंबकम्।

उपर्युक्त श्लोक के संदर्भित परिप्रेक्ष्य में तो राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द प्रयोग और भी आवश्यक हो जाता है। यह शब्द प्रयोग राष्ट्रवाद के विरूध्द उद्धोषित लघु चेतस घोषणाओं को जड़ से निर्मूल कर, चिंतन को उदार सहिष्णु मान-संपदा से परिपुष्ट कर देता है। प्रकाश का नंदादीप बन मानवता का पथ प्रशस्त करता है। तब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मानवता का पर्याय, औदात्य का कल्पतरू तथा सर्व हित की चिंतामणि बन जाता है।

भारतीय साहित्य के अवलोकन से हमें इस सत्य के दर्शन होते हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही सदा सर्वदा साहित्य का आदर्श रहा है। क्या संस्कृत साहित्य, प्राकृत साहित्य, पाली साहित्य, अपभ्रंश साहित्य और क्या लोकभाषा साहित्य, सभी ने संस्कृति और राष्ट्रीयता को ही अपना कथ्य बनाया है। प्रगतिवाद जनवाद के नाम से जो अभारतीय चिंतन भारतीय साहित्य में साम्य का नारा लेकर अनुप्रविष्ट हुआ, ऐसे समाज ने कुछ काल के भ्रम के बाद ही नकार दिया। समाज को वह नग्न यथार्थ कहे, या भोगा हुआ यथार्थ कभी स्वीकार नहीं हुआ। सामाजिक सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों पर साहित्य के माध्यम से कभी स्वीकार नहीं हुआ। सामाजिक सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों पर साहित्य के माध्यम से किया जाता यह सीधा आक्रमण भारतीय समाज को भी गले नहीं उतरा। उस साहित्य के लेखकों को पाठकों की खोज के उपाय अपनी बैठकों में सोचने पड़ रहे हैं। इसी तरह से भारतीय समाज ने अस्तित्ववादी, क्षणवादी आधे-अधूरे पाश्चात्य दर्शन को भी कभी स्वीकार नहीं किया है। भले ही इन्होंने प्रयोगवाद, नई कविता आदि के नाम लेकर कितने ही बड़े नाटक क्यों न हों। इनके समकालीन प्रयास समय की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं।

इसका कारण भी है। साहित्य और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। साहित्य संस्कृति का संवाहक है और संस्कृति साहित्य की आशा है। संस्कृति साहित्य में लिपटी रहती है। कभी कथानक के रूप में, तो कभी शिल्प के रूप में। वही साहित्य श्रेष्ठता अर्जित करता है जो संस्कृति को अधिकाधिक आत्मसात् किये होते हैं। संस्कृति विहीन साहित्य की कल्पना शशक श्रृंगवत है। संस्कृति भी वही जीवित रहती है जिसका विपुल परिमाण में साहित्य उपलब्ध होता है। जिस संस्कृति का साहित्य नहीं होता, वह संस्कृति कालांतर में अकाल काल कवलित हो जाती है।

मानवता को उजागर करनेवाला साहित्य ही है। साहित्य मनुष्य और समाज की मनोभावनाओं को शब्द के स्तर पर प्रभासित करता हुआ, मानवीय आदर्श की प्रतिष्ठापना करता है। साहित्य के शब्द-शब्द में भावोद्रेक की अप्रतिम शक्ति होती है। यह व्यक्ति को उसकी वास्तविक स्थिति से परिचित करा, उन उदात्ता विश्वासों से जोड़ता है जो उसे महामानव बनाते हैं। सामाजिक धरातल पर मानव का यह उदात्ता की ओर आरोहण है। व्यक्ति के धरातल पर जीवन प्रवृत्तियों का उन्नयत भी साहित्य ही करता है। साहित्य मानवीय संवेदना जगा, मानव संबंधों में सघनता उपजाता है। यह मनुष्य के भीतर चल रहे आंतरिक संघर्ष को तीव्र कर स्वस्थ एवं सही पथ पर अग्रसर करता है। साहित्य की परिधि में जहां सामाजिक संबंधों का नैकटय आता है वहीं सांस्कृतिक परंपरा की पहचान को नवीनतम रूपों से ग्रहण करने की प्रेरणा भी आती है।

साहित्य सृजन इस तरह एक सांस्कृतिक कर्म है। यह संस्कृति को अक्षुण्ण रखता है। संस्कृति साहित्य को अनुप्राणित करती है। साहित्य की जीवनीशक्ति के मूल में उसकी गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा ही होती है। साहित्य, संस्कृति का संवाहक होकर भी सदैव संस्कृत्योन्मुख रहता है। संस्कृति विमुख साहित्य की स्थिति उस रोगी की तरह होती है जिसे मृत्यु-मुख में जाने से कोई उपचार नहीं रोक पाता। जब भी साहित्य संस्कृति विमुख हुआ है, वह या तो दिग्भ्रम की स्थिति जीने लगता है अथवा मृत्यु का ग्रास बना है।

संस्कृति की प्रभविष्णुता अति सूक्ष्म किंतु अति तीव्र होती है। ऐसे समय में वह साहित्य को ही नहीं समय को भी नियंत्रित करती है। संस्कृति की यह प्रभविष्णुता कभी प्रत्यक्ष दिखती है तो कभी नहीं। प्रत्यक्षता की स्थिति में इसे सांस्कृतिक शक्तियां बलशाली हुई समय-रथ की वल्गा थामें दिखाई देती है। आज समय साहित्य के सम्मुख चुनौती बनकर खड़ा है। ऐसी स्थिति में तो साहित्य को समय से आगे निकलने का सामर्थ्य अर्जित करना ही चाहिए। इस हेतु उसे अपने सांस्कृतिक अधिष्ठान पर अंगद चरण जमा खड़ा होना है। तभी वह प्रतिगामी शक्तियों के चेहरों पर चढ़े मुखौटों को हटाने की शक्ति स्वयं में जगा सकेगा। इन दिनों प्रतिभागी शक्तियों ने विश्व-अराजकता के कर्णणारों के साथ दुरभि संधि कर रखी है। ऐसे प्रयासों को कुंठित कर विश्वमंच पर साहित्य को सत्यं शिवं सुंदरम् से अभिमंडित अपनी श्रेष्ठ सांस्कृतिक छवि उपस्थित करनी है। इस सांस्कृतिक समर में भारत को साहित्य के साथ-साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी ध्येय े रूप में अंगीकार कर आलोक की नवीनतम दीपशिखा के साथ विश्वमंच पर खड़ा होना है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अपनाव आज राजनीति के लिए जितना आवश्यक है उससे कम साहित्य के लिए नहीं है। साहित्य का इतिहास अथ से आज तक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ही इतिहास है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ध्येय वाक्य के रूप में जब तक अंगीकार नहीं करेंगे, भारत वैभव के उन्नतम शिखरों का स्पर्श कदापि नहीं कर सकेगा। कालजयी साहित्य नहीं लिखा जा सकेगा। वर्तमान के संकटापन्न इस काल में यदि प्रतिगामी शक्जियों को दुर्बल समझ, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दुर्लक्ष्य किया तो निश्चय ही यह स्थिति भारत को महंगी पड़ सकती है। इसलिए राजनीति और साहित्य दोनों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को दृष्टि-पथ में रख, औपनिषदिक मंत्र ‘चरैवेति चरैवेति’ का घोष गुंजाते हुए त्वर गति से आगे बढ़, भारत को विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा करना है।

(लेखक सुप्रसिध्द साहित्यकार हैं।)

आपका व्यवहार और जीवन दृष्टि

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लेखक- तरूण विजय

बहुत आसान है वेद, पुराण, मनुस्मृति और अन्य शास्त्रीय ग्रंथ उठाकर सामने रखना और कहना कि इनमें कहीं भी अस्पृश्यता को मान्य नहीं किया गया है और व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार समाज में सम्मान पाता है अत: जाति और जन्म के अनुसार जो सामाजिक स्थान का निरुपण करते हैं वे गलत हैं। अक्सर यह कहने के बाद सब वही करने लग जाते हैं जो नहीं करने के लिए कहकर वे मंच से नीचे उतरे होते हैं। इससे बढ़कर चुभने वाली बात और क्या होगी? क्या वेद और पुराण पढ़कर कोई अस्पृश्यता का व्यवहार तय करता है या उसके विरुध्द खड़ा होता है? वेदों में वह लिखा है या नहीं लिखा है, इसकी बहस करने वाले स्वयं अपने जीवन-व्यवहार में अस्पृश्यता का सबसे अधिक व्यवहार करने वाले देखे जाते हैं। हमारे खून में, हमारी रगों में, हमारी मानसिकता में इतने गहरे बैठ गए हैं ये भेद कि सार्वजनिक मंच की आवश्यकता के अनुसार माइक पर हम भले ही समरसता की बात करें या उसके बारे में पुस्तकें लिख दें, लेकिन धरातल पर तो उसका कोई अंश उतरता नहीं। समरसता की पुस्तकें कर्मकांड के नाते सिर्फ उन्हीं वर्गों में लिखी और पढ़ी जाती हैं जो केवल अपनी ही जाति के अहंकारी दायरों में विचरण करते हैं। समरसता के संकल्प भी इन्हीं दायरों में लिए जाते हैं। आप किसी भी ऐसे बड़े कार्यक्रम में जाएं, मंच से लेकर श्रोताओं की अंतिम कुर्सी तक नजर घुमा लीजिए, 95 प्रतिशत तो वही मिलेंगे जिनके कारण जाति भेद और स्पृश्य- अस्पृश्य का व्यवहार जिंदा है।

कहानियां, कथाएं, उध्दरण, गीता, रामायण, महाभारत और वेदों से लिए गए श्लोक तथा ऋचाएं, सब इकट्ठा करके अगर आप यह बता भी दें कि अस्पृश्यता कभी हिन्दू धर्म का अंग नहीं रही है तो भी क्या हरिद्वार, वृंदावन, द्वारका और रामेश्वरम में बैठे संत, महात्मा, प्रवचनकार और विभिन्न संगठनों के नकचढ़े नेता दलितों को अपनाने लगेंगे? उनसे रोटी-बेटी का संबंध वैसा ही स्वाभाविक होगा जैसे व्यापारी, राजपूत, ब्राह्मण आपस में करते हैं? ये तो बहुत दूर की बात है। अपने निजी कार्यक्रमों के निमंत्रण पत्रों की सूची ही देख लीजिए। सच्चाई यह है कि यह हमारे दायरे, पैसा, प्रभाव और अपनी ही जाति का वृत्त परिभाषित करती हैं। निमंत्रण सूची में दलितों का नाम है या नहीं, यह तो इस बात पर निर्भर करेगा कि दलितों में हमारी मित्रता है या नहीं और मित्रता के दो ही कारण होते हैं, स्वाभाविक प्रेम या कामकाज और रिश्तेदारी का साथ। यह स्थिति यदि नहीं है तो आप लाख कहते रहें संग-साथ होगा नहीं और यह बात जबरन नहीं की जा सकती। समझाने और समझने का ही मामला है। मन बदलेगा तो बात बदलेगी।

बालक तिण्ण की कथा है। आंध्र में एक पर्वत में शिव मंदिर था। हर रोज पुजारी पूजा करता, साफ सफाई करता और रात को घर लौटता। कुछ दिनों से वह देखने लगा कि हर रोज शिवलिंग पर सुअर का मांस चढ़ा होता है। शिव-शिव कहते हुए पुजारी ने कान पकड़ लिए, प्रभु यह तो घोर अनर्थ हो गया। आपका घोर अपमान हो गया। खूब चौकीदारी करता, बैठा रहता लेकिन फिर भी जरा सी आंख लग जाती। घर जाकर लौटता तो वापस सुअर का मांस और गंदा सा पानी वहां चढ़ा दिखता। यह जन्म तो मेरा गया ही यह सोचकर पुजारी ने ठान लिया कि दिन रात वहीं कहीं छुपकर बैठा रहेगा और देखेगा कि कौन पापी यह अधर्म कर रहा है। और फिर अचानक सुबह 4 बजे के अंधेरे में उसे दिखा कि एक वनवासी बालक दोनों हाथों में कुछ लिए आया वह उसने शिव लिंग पर चढ़ाया और अपने मुंह में भरा पानी शिव पर अर्पित कर दिया। पुजारी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। तुरंत उतरा और लगा उस वनवासी बालक को पीटने। अरे मूर्ख, अधर्मी तू यह क्या कर रहा है। वनवासी बालक हतप्रभ होकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। पुजारी ने उसे कभी न आने की हिदायत दी। मंदिर की सफाई की और शिव शिव करता घर लौटा। दुख के मारे भोजन भी नहीं किया और सो गया। रात को शिव जी ने दर्शन दिए और कहा कि अरे मूर्ख उस वनवासी बालक को तुमने पीट कर मुझे चोट पहुंचाई। वह जितनी श्रध्दा से मांस लाता था और जब उसके पास कोई पात्र नहीं तो प्रेम के कारण अपने मुंह में ही नदी का जल भरकर नियमित रुप से सुबह ब्रह्ममर्ूहुत्त में चढ़ाने आता तो उसकी भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न होता था। जाओ उससे क्षमा मांगो।

इस कथा का मर्म क्या? यह क्या तथाकथित ऊंची जाति का अहंकार रखते हुए सिर्फ और सिर्फ बुध्दि विलास, वाणी विलास और शब्द विलास करने वाले तीर्थयात्रियों को गंगा तट पर ही धर्महीन लूट से संत्रस्त करने वाले पंडे और नकचढ़े समझेंगे? आज तक वे काशी में तो न शिव मंदिर के आसपास सफाई रख सके न गंगा तट पर। कभी उन्होंने सोचा है कि दुनिया भर से तीर्थ दर्शन के लिए आने वाले हिन्दू यात्रियों पर क्या बीतती है? जब तक हम शिव मार्ग से वंचित दलितों का पाद पूजन कर उन्हें गंगा के अभिषेक का चंदन नहीं बनाएंगे तब तक हमारा प्रायश्चित भी पूरा नहीं होगा और न काशी न हिन्दू समाज विषमता के दंश से मुक्त होगा।

हमारे यहां उदाहरणों की कमी नहीं है। आदि शंकर ने श्वान, श्वपच, वंचित और ब्राह्मण में गज और अश्व में एक ही गोविंद के दर्शन किए और उन्हीं गोविंद के अनुयायियों ने समाज को सनातन सत्य की मुख्य धारा में समाहित करते हुए आगे बढ़ने की अपेक्षा रुढ़ियों और कर्मकांडों की बेड़ियों में जकड़ दिया। दुख इस बात का है कि जो लोग फिल्म में विद्रूपता के विरोध में खड़े हुए वे मंदिरों में स्वच्छता, सामान्य तीर्थयात्री के लिए सुव्यवस्था, मंदिर तक जाने वाली गली को तो कम से कम थोड़ा साफ सुथरा और नंगे पांव पैदल चलने लायक बनाने की ओर ध्यान देने का काम जरुरी क्यों नहीं मानते? उनके लिए सौंदर्य प्रतियोगिताओं और वेलेनटाइन डे का विरोध जरूरी है, पर दहेज हत्याओं, कन्या भ्रूण हत्याओं, जानवरों की तरह पढ़े-लिखे लड़कों की शादी में नीलामी का विरोध महत्वपूर्ण क्यों नहीं? हमें सावधान रहना होगा कि समरसता की बात गोहत्या पर विरोध की तरह पर्चों और बयानों का विषय मात्र बनकर न रह जाए। इस देश में गोहत्या में सर्वाधिक संलिप्तता सवर्ण हिन्दुओं की है। भले ही उनका कामकाज, आचरण अक्सर घिनौने अपराधों का हो, लेकिन हम तो इतने गिर चुके हैं कि कई बार अपराधी की जात देखकर सजा के फैसले तय करते हैं। वह तो ‘छोटी जात’ का है ‘शडूलकास्ट’ है, ‘आदिवासी’ है इतना भर नाक सिकोड़कर फुसफुसाहट के साथ कहना पीढ़ियों को लांछित और मर्माहत कर देता है इसका अहसास तक नहीं किया जाता।

वे भूल जाते हैं कि राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे और जिन रामानुजाचार्य ने मोक्षदायी मंत्र छत पर चढ़कर दीन दलितों को सुनाया था और जिन मीरा ने जूते बनाने वाले संत कवि रैदास को अपना गुरु माना, उनका भक्त होने का अर्थ यह नहीं होता कि हम सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाकर अपनी मनोकामनाएं पूरी करवाते रहें। जो सौदेबाजी का मामला है वह धर्म नहीं है बल्कि क्षुद्र और संकीर्ण कर्मकांड है। धर्म तो वह है जो चर्म के भेद को नकार कर कर्म के मर्म से रिश्ता जोड़े। एक दिन तो इसी अग्नि में स्वयं को परम पावन प्रात: स्मरणीय मानने वाले भी समर्पित होंगे और श्मशान में काम करने वाले सेवक भी। सिर्फ चमड़ी और जन्म के भेद को जो माने वह न कान्हा का हो सकता है न रघुवर का। तय आपको करना है कि आप किसके हैं?

हमारी शूरता, वीरता, समाज के प्रति चिंता सिर्फ शब्दों के गलियारों तक सिमट गई है। इस अंक के लिए हमने अनेक प्रांतों से जानकारी चाही कि क्या उनके क्षेत्र में कोई ऐसा मंदिर है जहां सामान्यत: गांव, नगर के सभी लोग जाते हों लेकिन जहां का पुजारी वह पूर्वकालीन हरिजन हो जो मंदिर का कामकाज भी संभाल रहा हो। हमें इस जानकारी की अभी तक प्रतीक्षा है।

पैसा और पद आ जाए तो समाज में सब कुछ ठीक हो जाता है ऐसा भी कहा जाता है। कुछ स्थितियों में ऐसे बहुत अच्छे उदाहरण भी हमें मिलते हैं लेकिन वे उदाहरण अपवाद ही बने हुए हैं।

ऐसा नहीं है कि काम नहीं हो रहा है या लोगों के मन नहीं बदल रहे या विषमता के खिलाफ हिन्दू समाज में उबाल नहीं उठ रहा है।

परिवर्तन के इस दौर में अग्रगामी ध्वजवाहक निश्चय ही रा0स्व0संघ के साधारण स्वयंसेवक हैं। आज भी भारत में जाति भेद से परे उठकर दहेज रहित सर्वाधिक विवाह स्वयंसेवक परिवारों में ही होते हैं। वे स्वयंसेवक ही हैं जो जाति का आग्रह छोड़ते हुए केवल भारत भक्ति के आधार पर एक धर्म हिन्दू, एक जात हिन्दू, एक गोत्र हिन्दू, एक पथ हिन्दू, एक स्वप्न, समरस समृध्द सशक्त हिन्दू समाज का भाव लेकर चल रहे हैं। एक ओर जहां विश्व हिन्दू परिषद् के माध्यम से गांव-गांव में शिक्षा, समरसता और रामकथाओं के अमृत संदेश पहुंचाए जा रहे हैं वहीं वनवासी कल्याण आश्रम समरसता के अमृत अधिष्ठान के रुप में उभर कर सामने आया है। पूर्वांचल से पश्चिमांचल तक और लेह से लोहरदगा और लोहरदगा से पोर्टब्लेयर तक जनजातीय और गैर जनजातीय समाज के मध्य सेतुबंध का दूसरा नाम कल्याण आश्रम स्वाभाविक रुप से कहा जा सकता है। इस प्रकार माता अमृतानंदमयी जो स्वयं मछुआरा जाति से होते हुए भी विश्व भर में सनातन धर्म के संदेश की सर्वाधिक प्रमुख व्याख्याता बनी हैं समरस हिन्दू समाज का अमृतोपम उदाहरण है। साध्वी ऋतम्भरा का वात्सल्य ग्राम समरसता का प्रकाश स्तम्भ बना है। स्वामिनारायण पंथ तथा स्वाध्याय परिवार, निरंकारी समाज और श्री श्री रविशंकर की प्रखर हिन्दू निष्ठ समरस जीवन दृष्टि का नूतन स्वरुप ही एक आशादायी भविष्य का संकेत देता है। काशी में विश्व हिन्दू परिषद् ने डोम राजा का स्वागत किया, उनके घर पर देश के पूज्यपाद संतों ने भोजन किया, शंकराचार्य जी ने नागपुर में दीक्षाभूमि जाकर डा. अम्बेडकर को भावपुष्प अर्पित किए- यह सब सत्य सनातन समरस जीवन के सूर्योपमउदाहरण हैं जिनकी पृष्ठभूमि में एक ही नाम है-माधवराव सदाशिवराव गोलकर। ये सभी उदाहरण हमें परम पूज्य श्री गुरुजी के समरस हिन्दू समाज के स्वप्न को साकार करने का बल देते हैं। परंतु अभी भी ये उदाहरण ही हैं। हमें प्रयास तो यह करना है कि ऐसे उदाहरण बताए जाने की आवश्यकता भी न रहे।

(लेखक डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी शोध संस्थान के निदेशक हैं.)

क्या यह आर्थिक मॉडल वास्तव में भारतीय है?

लेखक- एस. गुरूमूर्ति

इस लेख के शीर्षक-प्रश्न के उत्तर की पुष्टि व्यावहारिक प्रमाणों व वैचारिक तर्कों दोनों से देनी होगी और देनी भी पड़ेगी। व्यावहारिक प्रमाणों के बिना आर्थिक मसलों पर दार्शनिक विवेचना विवादित तो होगी ही साथ ही तुच्छ भी समझी जाएगी। इसलिए व्यावहारिक बहस पहले। लेकिन बहस शुरू करने से पहले एक चेतावनी! मामला जटिल है, अतएव सामान्यतया, तमाम आंकड़े व विस्तृत विश्लेषण की जरूरत होगी। खासतौर पर इस प्रश्न की मानक प्रतिक्रिया बिल्कुल अलग है, जैसा कि लेख की मांग (चर्चा करने की) है। लेकिन यह कोई शोध लेख नहीं है, जहां भारी-भरकम आंकड़ों की जरूरत होगी। अपेक्षाकृत इस संक्षिप्त लेख का उद्देश्य महज दो महत्वपूर्ण ‘व्यावहारिक आंकड़े’ के जरिए उत्तर देना है। इसलिए यह लेख दो अति सांकेतिक लेकिन ठोस व अविवादित तथ्यों पर आधाारित हैं। पहला, क्या यहां के आर्थिक प्रतिरूप में कुछ खास है, जो भारतीय है और वह ऐसे पश्चिमी सामाजिक-आर्थिक मॉडल से भिन्न है, जिसे बतौर ‘वैश्विक’ स्वीकृति मिल रही है और सभी के लिए फायदेमंद बताया जा रहा है?

सर्वप्रथम, भारत में निवेश व बचत की गुणवत्ता को लेते हैं। इस समय घरेलू बचत भारत की सकल राष्ट्रीय आय की 32 प्रतिशत से ज्यादा है और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस साल यह 34 फीसदी को छू लेगी। इस तरह हमारा देश उन देशों में शामिल है, जहां बचत दर सर्वोच्च है। भारत की संपूर्ण बचत में पारिवारिक बचत का हिस्सा 80 प्रतिशत है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारतीय आर्थिक परिदृश्य में परिवार संस्था का कितना दखल है। लेकिन बचत की राशि से ज्यादा बचत की प्रकृति महत्वपूर्ण है, जो समाज के भौतिक जीवन के नजरिए को स्पष्ट रेखांकित करती है। समस्त बचत का 98 प्रतिशत हिस्सा सुरक्षित बचत है, जो फिक्स्ड रेट सेविंग जैसे- भविष्य निधि व बैंक जमा के रूप में हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि अति प्रचारित स्टाक मार्केट ने भारत की बचत को कितना आकर्षित किया है? महज 2 प्रतिशत। जो इस बात का संकेत है कि देश के बहुत ही कम परिवारों का जुड़ाव स्टॉक मार्केट से है। जबकि अन्य देशों की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। एक अनुमान के मुताबिक 55 प्रतिशत अमेरिकी परिवारों का संबंधा स्टॉक मार्केट से है। इससे बहुत कम परिवार जर्मनी में (अमेरिकी तुलना में आधे) में स्टॉक मार्केट से जुड़े हुए हैं। जहां तक जापान की बात है, वहां अमेरिका की तुलना में एक तिहाई परिवारों का संबंघ स्टॉक मार्केट से हैं।

इसका क्या अर्थ है? बिल्कुल साधारण, पैसे के मामले में समाज उतना रिस्क नहीं लेता। कुछ समाज ज्यादा रिस्क लेते हैं और कुछ समाज उससे कम। उनकी तुलना में भारतीय ‘नो-रिस्क’ की कैटेगरी में आते हैं। इसका एक यह भी अर्थ है कि भारत में जोखिम पूंजी (रिस्क कैपिटल) का निर्माण नहीं होता। बहुत से लोग इसे अल्प विकसित ‘स्टॉक मार्केट’ व परंपरागत तथा रूढ़िगत सामाजिक सोच के रूप में भी उध्दृत करते हैं, जिसे सुधारवादी दूर करना चाहते हैं। दरअसल, ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्रों में निवेश से भारतीयों के कतराने का संबंध देश में नीति-निर्माण से है। लेकिन क्या जोखिम पूंजी का अल्प निर्माण एक कमी है, जैसा की बहुत से लोग सोचते हैं? इस प्रश्न का जवाब तलाशने से पहले हमें दूसरे प्रश्न के उत्तर देने की जरूरत है। क्यों अमेरिकन अपनी बचत को स्टॉक मार्केट में लगाने का जोखिम लेते हैं, जबकि भारतीय ऐसा नहीं करते?

अमेरिकी समाज में भारी उपभोग के चलते अमेरिकन का झुकाव बचत की तरफ कम है। उपभोग को बढ़ाने के लिए ब्याज दर लगातार एक जैसी बनी (कम स्तर पर) हुई है। पहले से ही कम बचत पर ज्यादा लाभ कमाने की जोखिम लेने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया जाता है और दबाव भी डाला जाता है। सरकार की सामाजिक सुरक्षा द्वारा भी अमेरिकियों को ज्यादा उपभोग व कम बचत करने का प्रोत्साहन मिलता है। जब व्यक्ति एक बार आश्वस्त हो जाता है कि रिटायर के बाद उसकी देखरेख सरकार करेगी, या बीमार होने पर उसका इलाज होगा, या उसके बेरोजगार बेटे, बेटी विधावा पत्नी या वृध्द मां-बाप की देखरेख सरकार करेगी, तो स्वाभाविक तौर पर बचत की तरफ उसका झुकाव कम होगा। यदि कोई बचत भी करता है, तो वह स्टॉक मार्केट या अन्य जोखिम भरे क्षेत्रों में निवेश करने का जोखिम लेता है। पश्चिमी देश व अमेरिका में परिवारिक दायित्व राष्ट्रीयकृत हैं। यही वजह है कि वहां पारिवारिक बचत काफी कम है यहां तक कि ‘निगेटिव’ है। आधाुनिकता के दवाब मसलन- तलाक, सम-लैंगिक विवाह, फेमिनिज्म और सम-लैंगिकता के कारण परंपरागत परिवारों की संख्या काफी कम है। आधो से अधिक परिवार ‘सिंगल पैरेंट्स फैमिली’ हैं और ज्यादातर परिवार उधार व क्रेडिट कार्ड पर जी रहे हैं। अमेरिका में समस्त क्रेडिट कार्डों की संख्या वहां की वयस्क आबादी की चार गुना है, जिसके फलस्वरूप जो भी बचत होती है उसका बड़ा हिस्सा जोखिम भरे स्टॉक मार्केट में चला जाता है। यही वजह है कि ज्यादा परिवार स्टॉक मार्केट से जुड़े हैं। इस प्रकार अमेरिकी स्टाक मार्केट का रोजाना सूचकांक अमेरिका के आर्थिक स्वास्थ्य को दर्शाता है। इसके अलावा यहां की ‘मासिक खुदरा ब्रिकी’ आंकड़े अमेरिका के खपत स्तर को बताते हैं। लेकिन जो देखने में आ रहा है वह यह कि अमेरिका की सामाजिक सुरक्षा अमेरिकी सरकार को दिवालिया बना रही है। यही नहीं, अमेरिकियों में बचत को असंगत बनाने में इसकी प्रमुख भूमिका है। इस तरह अति सक्रिय और बहु-व्यापक स्टाक मार्केट ‘सामाजिक सुरक्षा दायित्वों’ की उपज है, जिसकी जिम्मेदारी राज्य ने परिवार से लेकर राष्ट्रीयकृत कर दिया है।

यहां स्थिति पूर्णतया अलग है। भारतीय परिवार सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद लेते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर परिवार अपने बुजुर्गों, बेरोजगार बेटे, बेटियों आदि की देखरेख करते हैं। यह किसी आर्थिक दवाबवष नहीं, बल्कि पारिवारिक, सांस्कृतिक व धार्मिक कर्तव्य के कारण है। इस अर्थ में भारत विश्व की सबसे बड़ी निजीकृत अर्थव्यवस्था है, क्योंकि यहां पश्चिम का सबसे बड़ा लोक दायित्व- यहां की जीवन शैली में रची-बसी संस्कृति के कारण-परिवार यानी निजी हाथों में है, वह भी बिना किसी कानून या सरकारी आदेशों के। खास तौर पर अमेरिका पिछले कई सालों से अपनी कई सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को निजीकरण करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन वह ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि वहां भारतीय समाज जैसा कोई पारिवारिक सिस्टम नहीं है, जो इन दायित्वों का निर्वाह कर सके। यदि यहां कोई राज्य सहाय्यित सामाजिक सुरक्षा है, तो वह केवल सरकारी कर्मचारियों की पेंशन योजना है। लेकिन यह केवल सीमित योजना है, बहु-व्यापक नहीं। भारतीय परिवारों की अधिकांश बचत सावधि योजनाओं या सुरक्षित प्रतिभूतियों में निवेश होती है। अतएव भारतीय स्टॉक मार्केट न तो भारतीय समाज की समृध्दि दर्शाते हैं और न ही वे भारतीय निवेशकों के विश्वास को प्रदर्शित करते हैं, जैसा कि पश्चिमी देश के स्टॉक मार्केट करते हैं। हालांकि यह (भारतीय स्टॉक मार्केट) पश्चिमी निवेशकों के विश्वास को दर्शा सकता है। लेकिन स्टॉक मार्केट की जो महत्ता अमेरिकी या अन्य देशों में है, वैसी ही महत्ता हमारे आर्थिक विचारकों, लेखकों व अन्य लोगों द्वारा भारतीय स्टॉक मार्केट को देना कुछ और नहीं बल्कि साफ बरगलाने की कोशिश है।

स्टॉक मार्केट में सामान्य भारतीय की अरूचि को देखते हुए वर्तमान वित्तमंत्री ने बार-बार भारतीय निवेशकों से आग्रह किया कि वे बैंकों के बजाय शेयर बाजार में पैसा लगाएं, लेकिन भारतीय परिवारों ने इस एक्सपर्ट सलाह पर गौर नहीं किया। वहीं, भारतीय परिवार आधुनिक आर्थिक विचारकों की राय के विपरीत, सोना पर ज्यादा विश्वास करते हैं, न टीसीएस या इंफोसिस जैसी कंपनियों के शेयरों पर। वे विश्व के समस्त स्वर्ण उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा खरीदते हैं, जिसकी कीमत उनके द्वारा खरीदे गए स्टॉक की कीमत से कहीं ज्यादा है। पश्चिमी आर्थिक विचारक तथा यहां पर उनकी कार्बन कॉपी, सोने की खरीद को उपभोग व शान-शौकत की वस्तु मानते हैं। लेकिन सामान्य भारतीय, चाहे पढ़ा-लिखा हो या अशिक्षित हो, इसे विश्वसनीय निवेश मानता है। साथ ही वे इसे आभूषण के तौर पर इसे इस्तेमाल भी कर लेते हैं। वे यह जानते हैं कि दलाल स्ट्रीट में खरीदे गए शेयर उनके शरीर की शोभा नहीं बढ़ा सकते हैं और वे यह भी समझते हैं कि सोने ही एक मात्र निवेश है, जिसका मूल्य नहीं गिरता। आर्थिक विश्लेषक इसे निवेश का प्राचीन मॉडल कर कह आलोचना कर सकते हैं। सोने के प्रति ललक के कारण टिकाऊ व गैर टिकाऊ वस्तुओं के प्रति झुकाव कम होता है। आखिरकार, सुरक्षित बचत, कम उपभोग और सोने की ललक के क्या संकेत हैं। इन सभी को यदि समेकित रूप से देखें तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था की स्त्रीगत विशेषता है। हां, भारतीय अर्थव्यवस्था का यह अनाक्रमक आयाम, इसकी पारिवारिक विशिष्टता व भारतीय परिवार की खूबियों के कारण से है, जिन पर महिलाओं का अत्यधिक दबदबा है। इस प्रकार, भारतीय आर्थिक मॉडल का प्रथम अंग ‘परिवार’ है।

दूसरा महत्वपूर्ण सांकेतिक सांख्यकीय आंकड़ा, हालांकि यह पूर्णतया आर्थिक नहीं है, लेकिन इसका राजनैतिक अर्थशास्त्र पर गहरा असर है, वह यह है कि 2004 के अंत तक भारत में गांवों की संख्या लगभग 7 लाख थी, लेकिन पुलिस स्टेशन की संख्या केवल 12,404 ही थी। फिर भी यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक यहां पर संसार में सबसे कम अपराधा हैं। कुछ गुमराह लोग तर्क देते हैं अभिलिखित अपराधा इसलिए कम हैं, क्योंकि अपराधों का पता नहीं चलता और उनकी रिपोर्ट नहीं प्राप्त होती।

दरअसल, पुलिस की कम जरूरत की असली वजह भारतीय समाज की विशिष्टता है। भारतीय समाज अविश्वसनीय रूप से जटिल है। यदि हम संसार को एक तरफ रख दें और भारतीय समाज का दूसरी तरफ, तब भी भारतीय समाज ज्यादा जटिल दिखाई पड़ेगा, क्योंकि भारतीय समाज तमाम समुदायों, संप्रदायों, अनेकों देवी-देवता, विभिन्न भाषाएं, रीति-रिवाज से ओत-प्रोत है। फिर भी हम एक राष्ट्र व एक राज्य है और हमारी अर्थव्यवस्था भी एक है। क्योंकि, उदाहरण के तौर पर, हम लोग करोड़ों देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, लेकिन भारतीय देवता आपस में झगड़ते नहीं हैं। नतीजतन, करोड़ों देवी-देवताओं के पुजारी आपस में उनके नाम पर संघर्ष नहीं करते। आखिर इस विशाल व अति जटिल परंपरागत समाज का (संपूर्ण मानवता का छठां हिस्सा) आधुनिक भारतीय संवैधानिक व आर्थिक व्यवस्था में क्या भूमिका है? इसका उत्तर विशिष्ट भारतीय आर्थिक मॉडल के अस्तित्व का पूर्ण संकेत दे देगा।

पश्चिमी की अवधारणा के नजरिए से देखें तो भारत स्वशासित ज्यादा है, बजाय राज्य द्वारा शासित होने के। स्वशासित होने की योग्यता का विकास भारतीय परपंरा व रीति-रिवाजों के तहत विकसित अनुशासन की वजह से है, जो भारत के परिवार व समाज को शासित करती है। भारत की विविधाता इसमें मदद करती है और अनुशासन के परंपरागत नियमों को बरकरार रखने की क्षमता को मजबूत करती है। दरअसल, यहां ग्रामीण समुदाय की भूमिका (यहां तक की जाति व्यवस्था की भूमिका भी, जिसे कई कारणों से तुच्छ प्रमाणित किया गया, जिसकी चर्चा हम लेख के अंत में करेंगे) पुनर्विचार की मांग करती है। इस लेख का मत है कि जातिगत चुनावी राजनीति के घालमेल के कारण सामाजिक-राजनीतिक मोर्चा पर काफी भ्रम हुआ। स्वदेशी अकादमी परिषद् द्वारा कराए गए एक पांच साला सर्वेक्षण से (जिसमें 30 से अधिक समुदाय आधारित औद्योगिक समूह शामिल हैं) यह तथ्य उजागर हुआ कि यूपी, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिनाडु के औद्योगिक संकुल के विकास में स्थानीय जातियों की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। गौरतलब है कि इन स्थानीय जातियों जिसमें अगड़ी और पिछड़ी जातियां शामिल हैं। आगरा व कानुपर में अनुसूचित जातियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।

इन औद्योगिक संकुलों का विकास सामुदायिक प्रतियोगिता व आपसी सहयोग के मिलेजुले प्रभाव के कारण हुआ, जिसे 19वीं शताब्दी में एमाइल दरखाइम ने सोशल कैपिटल कहा और 21वीं शताब्दी में फ्रांसिस फुकुयामा भी इस बात को अनेकों बार दुहराया। ये संकुल इस बात के प्रमाण हैं कि समुदाय और जातियां भारत की सोशल कैपीटल हो सकती है, जैसा कि स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर ने एकोनॉमिक टाइम्स ( वर्ष 2000) में लिखे अपने लेखों से स्पष्ट किया है। एकोनॉमिक पावर हाउस के रूप में जाति की अवधारणा पर जोर गुरूचरण दास ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया अनबाउंडेड’ में भी किया है।

स्वदेशी एकेडमी कौंसिल द्वारा किए अधययन यह पता चलता है कि जहां राजनीतिक वर्गों द्वारा समुदाय व जातियों को राजनीति में हिस्सेदारी के बदले राज्य समर्थित लाभ (State-conferred benifits) के लिए प्रेरित किया गया, वहां वे वोट बैंक के रूप में परिवर्तित हो गए और राज्य पर उनकी निर्भरता बढ़ गई। जब वे वोट बैंक के रूप में परिवर्तित हो गए और राज्य पर उनकी निर्भरता बढी, तब विकास के स्थान पर उनकी अवनति हुई। वहीं दूसरी तरफ स्वदेशी एकेडमी कौंसिल ने अपने अधययन में पाया कि जो समुदाय या जातियां अपने व्यवसाय व उद्योग में लगी रहीं, उनका विकास तेजी से हुआ। बाद में चलकर इन जातियों व समुदायों ने राजनीतिक मामलों में भी जमकर हिस्सेदारी ली। आखिर इन महत्वपूर्ण विषयों पर वस्तुपरक अधययन क्यों नहीं हो रहे है? इसका जवाब इतिहास की ओर इशारा करता है। दरअसल, इसका कारण बौध्दिक सुस्ती और वर्तमान राजनीतिक व बौध्दिक रूप से तथाकथित सही के खिलाफ अलग राय रखने की बौध्दिक हिचकिचाहट है।

आइए हम भारतीय समाज व इसकी परंपरा (जिसमें जातियां भी शामिल हैं) के खिलाफ कल्पित बातों के इतिहास पर नजर डालते हैं। यदि हम पश्चिमी समाज से इसकी तुलना करें तो भारतीय समाज का बाह्य रूप अराजकतापूर्ण है। चर्चिल ने कहा था कि यदि भारत में लोकतंत्र लाने का प्रयास किया जाता है तो वह अराजकता में बदल जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यदि वे कुछ दिन और जिंदा रहते तो उन्हें अपनी बातों को वापस लेना ही पड़ता। 1950 के दौरान भारत में अमेरिकी राजदूत केनिथ गालब्रेथ ने उपहासपूर्ण ढंग से भारत को Functioning anarchy कहा था, जिसको उन्होंने हाल ही में इस तरह संशोधित किया कि मेरा मतलब यह था कि भारतीय राज्य पर निर्भर नहीं थे और यह भारतीय समाज की ताकत थी, जो भारत को विकास की प्रक्रिया पर ले गई। भारतीय समाज का बाह्य रूप विश्व के प्रमुख लोगों को धोखे में क्यों रखता है कि वे सत्य से परे जाकर अपने विचार देते हैं।

इसका कारण यह है कि भारतीय समाज काफी हद तक संबंधों पर आधारित समाज है (एमाइल दरखाइम) और बहुत कम हद तक समझौते पर आधारित समाज (रूसो)। लेकिन भारत का संविधानवाद जो पूर्णतया एंग्लो-सैक्सन अनुभवों व ऐसे राजनीतिक तथा आर्थिक बहसों पर आधारित है, जो भारत की मूल विशेषता की अनदेखी करता है। आपसी संबंधों पर निर्भर रहने के कारण भारतवासी की सामूहिक रूप से सामाजिक समझौते द्वारा निर्मित राज्य पर निर्भरता कम है। वे परिवार, जाति व ग्राम्य स्तर के तमाम अंगों पर ज्यादा निर्भर हैं।

ये सब कुछ वे ही तत्तव हैं, जो संबंधों पर आधारित समाज में मिलते हैं और जिन पर एमाइल दरखाइम जैसे जर्मन परंपरावादियों से लेकर फ्रांसिस फुकुयामा जैसे आधुनिक विचारकों ने चर्चा की है। अति आधुनिक लोगों के उपहास (इन लोगों द्वारा नैतिक-सामाजिक निगरानी) के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय-परिवार, जाति और समुदाय की निगरानी से लाभान्वित हैं। इसलिए उन्हें राज्य द्वारा निगरानी की कम जरूरत पड़ती है। यही वजह है कि यहां पुलिस थानों की संख्या कम है। एक चीज निश्चित है। मनुष्य को निगरानी की जरूरत पड़ती है। मसला यह है कि इस मामले में परिवार, माता-पिता या समाज ज्यादा बेहतर है या पुलिस थाने का पुलिस इंस्पेक्टर। इससे राज्य को राहत मिलती है, लेकिन इससे राजनीतिक वर्ग का स्व-निर्भर व स्वशासित समाज के साथ असहज महसूस करना स्वाभाविक है, क्योंकि वे राजनीतिक वर्ग पर निर्भर नहीं रहेंगे। स्वशासित व स्वप्रबंधान की शक्ति कहां से आती है? चर्चिल व गालब्रेथ को भारत की मुख्य विशेषता को न समझ पाने के लिए माफ किया जा सकता है, लेकिन भारत के ‘अंग्रेजीदां’ को कैसे माफ किया जा सकता है, जो न केवल भूल करते हैं, बल्कि भारत के मूल तत्तव को समस्या कहकर उपहास उड़ाते हैं?

यह हमें भारत की सामाजिक-आर्थिक या स्वदेशी के विस्तृत दार्शनिक आधार की ओर ले जाती है। महात्मा गांधी ने कहा था कि स्वदेशी सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारों का मिश्रण है। पंडित दीन दयाल ने कहा कि ‘यह एकात्म संकल्पना है, जिसे ठीक ही गांधीजी ने पहले ही बहुत स्पष्ट भाषा में कहा है। इन दो महात्माओं ने जो कहा है उसका सार तत्तव यह है: सामाजिक अर्थशास्त्र-व्यक्तिगत, सामूहिक व व्यक्ति को प्रभावित करने वाले उन आदर्शों के बीच का संतुलन है, जो व्यक्तिवाद की वकालत नहीं करते। जैसा कि पूंजीवादी व मार्क्सवादी आर्थिक विचारों में मिलता है।

भारत के वर्तमान इतिहासकार व आर्थिक विचारक जो भारत की सामाजिक आर्थिक समस्या की जड़ भारत की परंपरा को मानते हैं, वे दरअसल, जर्मन दार्शनिक मैक्स वेबर की पुस्तक ‘द् सोशियोलॉजी ऑफ इकोनामिक्स’ से प्रेरणा लेते हैं। वेबेरियन का मत है कि आधुनिक पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था, प्रोटेस्टेंट ईसाई मत की देन है, जिसने व्यक्तिवाद को जन्म दिया, ईसाई जगत में पुनर्जागरण को प्रोत्साहित किया और स्वतंत्र सोच को विकसित किया। ‘कांन्टे्र सोशल मॉडल’ को उध्दृत करते हुए पिछली शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में वेबर ने भी स्वीकार किया था कि हिन्दू और बौध्द (भारत और चीन पढ़े) कर्म और पुर्नजन्म में विश्वास और भारत में जाति व्यवस्था के कड़ापन के कारण प्रोटेस्टेंट समाज की तरह विकास नहीं कर सकते। फलस्वरूप, समस्त भारतीय सामाजिक विचार व आर्थिक सिध्दांत इस संकल्पना से उत्पन्न हुए कि जब तक भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को धवस्त नहीं किया जाएगा, तब तक भारत का विकास व आधुनिकीकरण नहीं हो सकता। इस तरह भारतीय सामाजिक सुधारकों, सामाजिक-आर्थिक चिंतकों खास तौर पर माक्र्सवादी व समाजवादी विचारकों ने भारतीय व्यवस्था को निरपेक्ष, व्यक्तिवादी बनाने तथा समुदाय, ग्राम्य व्यवस्था को तोड़ने पर जोर दिया। साथ ही, बड़े पैमाने पर गांवों से पलायन कर शहरों में बसने के लिए (शहरीकरण) प्रेरित किया और समेकित रूप से इसे आधुनिकता का पर्याय माना गया।

भारतीय समाज पर वेबर के विचार पूंजीवादी दृष्टिकोण पर आधारित हैं, जबकि बेबर से लगभग 70 साल पहले अपने लेखों में कार्ल माक्र्स ने भारतीय समाज की सामाजिक नजरिए से व्याख्या की (न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में 25 जून 1853 को प्रकाशित)। साधारण शब्दों में कार्ल मार्क्स के विचार ये हैं: ग्राम्य अर्थतंत्र या भारत के गणतंत्र पूंजीवादी व्यवस्था की तुलना में कम शोषणकारी हैं। वे भारत की शक्ति भी हैं और उनकी कमजोरी भी। माक्र्स के शब्दों में, ‘सभी गृह युध्द, आक्रमण, क्रांतियां, विजय व अकाल अत्यधिक जटिल व विधवंसकारी तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन इनका असर सतह से नीचे नहीं हुआ। इंग्लैंड ने समस्त भारतीय सामाजिक ढांचे को तोड़ दिया, वह भी बिना किसी पुनर्संरचना के संकेत के, जो अभी भी नजर नहीं आते।’ लेकिन वे कहते हैं, ‘उन्होंने (ब्रिटिश) स्थानीय उद्योग को चौपट करते हुए स्थानीय समुदाय को भंगकर इसे (भारत) नष्ट कर दिया और स्थानीय समाज की सभी उत्कृष्ट व उन्नत चीजों को खत्म कर दिया।’ साथ ही, वह यह भी कहते हैं, ‘इंग्लैंड, सच्चे अर्थों में, हिंदोस्तान में एक सामाजिक क्रांति ला रहा है, लेकिन वह केवल अपने स्वार्थी हितों के कारण..।’ मार्क्स इस विधवंस को सही ठहराते हैं और कहते हैं कि इस तरह की विधवंस की जरूरत है, क्योंकि भारत का स्थिर ग्राम्य समाज, क्रांति के मूल तत्तवों को अपनाने की इजाजत नहीं देता और क्रांति के बिना, जैसा कि मार्क्स का विश्वास है, मानवता के सपने पूरे नहीं होंगे। आखिर में मार्क्स ने कहा कि इंग्लैंड का यह अपराधा इतिहास का वह छिपा औजार है जो क्रांति लाने में सहायक होगा। जर्मन कवि गोथे को उध्दृत करते हुए यहां तक कहा कि ब्रिटिश द्वारा विनाश स्वागतयोग्य है, क्योंकि यह सुखद है। (गोथे- ‘ Should this touture then torment us, since it bring us greater pleasure. ‘)

वेबेरियन व मार्क्स की दोनों विचारधाराएं, प्रोटेस्टेंट क्रिश्चियन सामाजिक मॉडल की समानांतर उत्पाद हैं। यदि इसे धार्मिक संदर्भ में देखें तो यह चर्च के खिलाफ एक विद्रोह था, जो व्यक्तिवाद का हिमायती था। दोनों का विश्वास था कि भारतीय समाज व इसकी पंरपरा को तोड़ना चाहिए और इसी विखंडन को आधुनिकता के रूप में प्रेषित किया। कुल मिलकार पूंजीवादी व माक्र्सवादियों का यह कहना है कि भारतीय ग्राम्य-समुदाय मॉडल को नष्ट किया जाना चाहिए, ताकि वेबर की बाजार आधारित अर्थव्यवस्था व पूंजीवाद तथा माक्र्स की सामाजिक क्रांति का रास्ता खुल सके। जब तक ग्राम्य-समुदाय व्यवस्था जीवित है-जो आज भी जीवित है- तब तक भारत में न तो पूंजीवादी और न ही साम्यवादी मॉडल स्वीकार है। क्योंकि भारत में जाति, समुदाय और समाज को नष्ट कर व्यक्तियों को झुंड के रूप में नहीं बदला जा सकता।

वहीं दूसरी तरफ, पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों ने सामाजिक ढांचे को नष्ट कर दिया, साथ ही, परिवार संस्था को भी विखंडित कर दिया। जब माक्र्स व वेबर अपने सिध्दांतों को विकसित कर रहे थे, तो वे समुदाय की शोषण वृत्ति पर विचार तो किया, लेकिन परिवार पर उस तरह नहीं सोचा। लेकिन जब समाज की निगरानी से मुक्त व्यक्तिवादी सोच का प्रभाव फैला तो इसका असर परिवार भी पड़ा। आज प्रोटेस्टेंट तथा पूर्व साम्यवादी समाज में सबसे बड़ी आर्थिक समस्या परिवार की बिखराव है। इस पारिवारिक टूटन के आर्थिक नतीजे -सामाजिक सुरक्षा दायित्व व पारिवारिक बचत का ह्रास- समाज को दिवालिया बना रहे हैं। वहीं, दूसरी तरफ कैथोलिक समाज मसलन-इटली, स्पेन, आयरलैंड और फ्रांस अपेक्षाकृत बेहतर हैं, क्योंकि इन लोगों ने परिवार व मुख्यतया समुदाय मॉडल को सुरक्षित रखा है।

यहीं व्यावहारिक प्रमाण व दार्शनिक संकल्पना- जिसकी चर्चा लेख के शुरू में हुई है-मिलते हैं और यहीं महात्मा गांधी व दीनदयाल द्वारा प्रवर्तित भारतीय मॉडल वेबर (पूंजीवाद) और मार्क्स (साम्यवाद) के मॉडल से पूर्णतया भिन्न है। गांधीजी और दीनदयालजी का सिध्दांत व्यक्ति का परिवार, समाज और समुदाय के साथ एकात्म पर टिका है। साथ ही, गांधीजी व दीनदयालजी दोनों अपने आर्थिक मॉडल में सांस्कृतिक व सभ्यतागत तत्तवों का समावेश करते हैं। यह सांस्कृतिक व सभ्यतागत तत्तव समाज, समुदाय और परिवार के साथ व्यक्ति के संबंधों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। एक अर्थों में पश्चिम व्यक्तिवादिता पर जैसा जोर देता है, वैसा जोर भारत में नहीं है और व्यक्तिवाद की जैसी अवधाारणा भारत में है, वैसी अवधारणा पश्चिम व साम्यवादी देशों में नहीं है। गांधीजी और दीनदयालजी, दोनों में से किसी ने भी कार्ल माक्र्स की तरह दार्शनिक अवधारणा का प्रतिपादन नहीं किया। वे व्यावहारिक जीवन से प्राप्त अनुभवों के आधार पर अपने सिध्दांत प्रस्तुत किए। भारत का समाज ही (परिवार, समुदाय व समाज के साथ व्यक्ति का एकात्म) भारत की सबसे अहम संस्था है और इसका सामूहिक प्रभाव भारत की सामाजिक पूंजी है।

पूर्व में उल्लिखित मामलों के अतिरिक्त भारत में उच्च बचत के लिए परिवार का योगदान सर्वाधिक है, जो इस वक्त सकल राष्ट्रीय आय की 34 फीसदी है और इसमें देश के 80 प्रतिशत परिवारों का योगदान है। वहीं, इसके विपरित प्रोटेस्टेंट व पूर्व-साम्यवादी समाजों में अल्प पारिवारिक बचत है। इन परिवारों पर केवल कर्ज हैं। अमेरिकी में 21 करोड़ वयस्क आबादी के 57 करोड़ क्रेडिट कार्ड के चलते अमेरिकी परिवारों पर 2 ट्रिलियन डालर से ज्यादा का कर्ज है, जो 90 लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा है। अमेरिकी में प्रति व्यक्ति पर चार क्रेडिट कार्ड हैं। जबकि एकीकृत समाजों में उपभोग व बचत में संतुलन बना रहता है और जिसका प्रभाव बचत पर पड़ता है। वहीं व्यक्तिनिष्ठ समाज में इस तरह का संतुलन नहीं दिखता, नतीजतन बचत की बजाय ऋण व खर्च पर जोर रहता है। उसका परिणाम यह रहा कि पिछले 6 सालों से अमेरिकी अर्थव्यवस्था उधार पर चल रही है। अमेरिका ने भारत समेत लगभग सभी देशों से कर्ज ले रखा है। परिवार खंडित समाजों में सामाजिक सुरक्षा का दायित्व राज्य पर होता है, जबकि भारत में सामाजिक सुरक्षा की सभी जिम्मेदारी का निर्वहन परिवार करता है।

इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत विश्व की सबसे बड़ी निजी अर्थव्यवस्था है। खासतौर पर पश्चिम में सरकार पर सबसे बड़ा भार सामाजिक सुरक्षा का है। विशेषज्ञों के अनुसार 2020 तक जाते-जाते अमेरिकी स्वास्थ्य सुरक्षा अमेरिकी अर्थव्यवस्था को दिवालिया बना देगी। इसके ठीक विपरित, भारत में सामाजिक सुरक्षा का दायित्व भारतीय परिवार उठाते हैं। यहीं वजह है कि वे सुरक्षित निवेश की तलाश करते हैं और स्टॉक मार्केट में निवेश करने से कतराते हैं।

अब कोई भी समझ सकता है कि अमेरिकी स्टॉक मार्केट में पूंजी क्यों लगाते हैं और भारत के लोग सुरक्षित फिक्स्ड रेट सिक्योरिटी व बैंक डिपाजिट में अपना धान जमा करते हैं? आखिर इस अंतर के क्या नतीजे हो सकते हैं? परिवार-खंडित समाजों की तुलना में भारत की ब्याज दर ज्यादा होना निश्चित है। लेकिन यहां कम ब्याज दर की मांग है, जो इस बात का संकेत है कि सुधार प्रक्रिया जारी है।

दूसरा, पश्चिम में उद्योगों की वित्तीय जरूरतें ज्यादातर इक्विटी से पूरी हो जाती है और वे कर्ज पर कम निर्भर रहते हैं। यदि बड़ी इक्विटी से सुरक्षित उद्योग की बैंक देय-राशि बाकी है, तो ‘बेसल नॉर्म’ के तहत बैंक उसे गैर-कार्यशील पूंजी (Non-Preforming Asset) घोषित कर सकता है। लेकिन भारतीय उद्योगों में अपेक्षाकृत कम इक्विटी फाइनेंस है, इसलिए पश्चिम की तरह ‘गैर-कार्यशील पूंजी’ का नियम यहां पर लागू नहीं हो सकता। लेकिन यहां पर, परिस्थितियों में अंतर किए बिना सुधार प्रक्रिया के नाम पर पश्चिम के सभी नियामक नियमों की अंधी नकल जारी है। परिवार-खंडित पश्चिम समाज में सड़क, रेलवे, जल-वितरण, हवाई अड्डे, बंदरगाहों को सरकार ने निजी हाथों में सौंप दिए हैं और पारिवारिक दायित्व से जुड़े मामलों- मसलन-वृध्दों की देखरेख, बेरोजगार पारिवारिक सदस्यों को सहायता आदि-का राष्ट्रीयकरण कर परिवार से राज्य को हस्तांतरित कर दिए गए।

भारत में स्वदेशी या भारतीय दृष्टिकोण को सुरक्षित रखने की जरूरत है और यह भी प्रयास होने चाहिए कि परिवार व समाज के कार्य राज्य को न सौंपे जाय। साथ ही यह भी कोशिश होनी चाहिए कि व्यक्ति को राज्य या बाजार के हवाले न कर दिया जाय। अतएव, हम समझ सकते हैं कि परिवार, समुदाय और समाज से जुड़े एकात्म मानव की अर्थव्यवस्था सफल है, जबकि परिवार व समाज से विखंडित व्यक्तिवादी अर्थव्यवस्था कार्य-संस्कृति को नष्ट करती है। पूर्ववर्ती व्यवस्था ही भारतीय मॉडल है और इसी का भारत में चलन है। लेकिन सच यह है कि भारत की नीति-निर्माण प्रक्रिया में इस बात की पहचान आर्थिक, सामाजिक व पारिवारिक संदर्भ में नहीं की गई। यह संतुलन कानून द्वारा किस तरह भंग किया जा सकता है, इसका अनुमान ‘घरेलू हिंसा कानून’ से कर सकते हैं। इस कानून के जरिए राज्य व पुलिस का हस्तक्षेप हर आंगन में होगा। यह कानून पश्चिम की सामाजिक व पारिवारिक स्थित का अंधानुकरण है। किसी भी दल ने इस कानून के विरोधा का साहस नहीं दिखाया, क्योंकि इसे महिलाओं को सुरक्षित करने के रूप में देखा गया।

लेकिन कानून का पारित करने से पहले इस बात पर गौर नहीं किया गया कि विश्व की सर्वाधिक सशक्त (Empowerment) स्वीडेन की महिलाएं-जिनकी उद्योग, राजनीति, व्यवसाय, सरकार व अन्य तमाम क्षेत्रों में पुरूषों के साथ बराबर की हिस्सेदारी है- सर्वाधिक त्रसित महिलाओं में से हैं। एक अनुमान के अनुसार यहां की 40 फीसदी महिलाओं के साथ साल में कम से कम एक बार पीटने की घटना होती है।

लेकिन एक अंतर है, ये पति द्वारा नहीं, बल्कि अपने ‘ब्यॉव फ्रेंड’ द्वारा प्रताड़ित होती हैं। यहां के तीन-चौथाई पुरुष-स्त्री बिना विवाह किए एक साथ रहते हैं। इसलिए भारत में सामाजिक मसलों पर बहस के दौरान इस बात पर गौर नहीं किया जाता कि सरकार द्वारा उठाए गए सामाजिक उपायों का आर्थिक मामलों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। ऐसा पश्चिम का अंधानुकरण के कारण है, जबकि यहां की सामाजिक स्थित पश्चिम से बिल्कुल भिन्न है। इसी को गांधीजी व दीनदयालजी ने सांस्कृतिक भिन्नता के रूप में व्याख्या दी और निश्चित रूप से इस बात को समझने में भारतीय राजनीतिक व बौध्दिक प्रतिष्ठान पूर्णतया असफल रहा।

भारतीय राजनीतिक प्रतिष्ठान ने गांधीजी को प्रत्येक शहरों व कस्बों की सड़कों को नामकरण कर उन्हें गलियों में भेज दिया, लेकिन इस बात को सुनिश्चित किया उनके नाम पर कोई केंद्रीय शिक्षण संस्था नहीं खोली जाय। जिसका तात्पर्य यह है गांधाीजी का नाम गलियों में है और उनके विचार भी गलियों तक सीमित हैं। उनके विचारों को शैक्षिक संस्थाओं व घरों में प्रवेश करने से रोका गया। फलस्वरूप, भारतीय युवा वर्ग यह नहीं जानता कि भारत में अपना ही सामाजिक- आर्थिक मॉडल सफल हो सकता है। इसके लिए देशी मस्तिष्क की जरूरत है, जो शहरों में उपजे विचारों से मैले न हों। ऐसा लगता है कि वर्तमान राजनीतिक प्रतिष्ठान ऐसे मस्तिष्क को बड़ी संख्या में लाने के अक्षम है।

एक खुले मस्तिष्क को आसानी से समझाया जा सकता है कि एकात्म चरित्र वाली भारतीय अर्थव्यवस्था ही सफल हो सकती है, जिसका दीनदयालजी ने अपनी पुस्तक में ‘एकात्म मानववाद’ तथा गांधीजी ने स्वधर्म सिध्दांत पर आधारित स्वदेशी अवधारणा में प्रस्तुत किया है।

(लेखक स्वदेशी जागरण मंच से जुड़े है)

नरेंद्र मोदी का जीरो टालरेंस का फार्मूला और टाटा का नैनो प्रोजेक्ट

लेखक- बिनोद पांडेय

कामरेड ज्योति बसु की शासन परंपरा को संभालनेवाले बुध्ददेव भट्टाचार्य के लिए यह चौंकानेवाली खबर थी। नींद उडानेवाली घटना थी।

टाटा का नैनो प्रोजेक्ट पश्चिम बंगाल से हटकर गुजरात चला गया, सचमुच यह वेदना सिर्फ पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं रही। राष्ट्रीय स्तर पर भी कम्युनिष्ट पार्टी के लोगों ने अफसोस जताया और सारा का सारा दोष ममता बनर्जी पर मढकर अपने आप को पाक साफ बताने की कोशिश की गयी। लेकिन भारत के इतिहास में यह एक अविस्‍मरणीय घटना के सदृष है।

टाटा का नैनो प्रोजेक्ट पश्चिम बंगाल से हटकर गुजरात चला गया, सचमुच यह वेदना सिर्फ पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं रही। राष्ट्रीय स्तर पर भी कम्युनिष्ट पार्टी के लोगों ने अफसोस जताया और सारा का सारा दोष ममता बनर्जी पर मढकर अपने आप को पाक साफ बताने की कोशिश की गयी। लेकिन भारत के इतिहास में यह एक अविस्‍मरणीय घटना के सदृष है।

सिंगुर के आंदोलन और पश्चिम बंगाल सरकार की अदूरदर्शिता की वजह से जनता और टाटा दोनों की ही उर्जा और धन-जन की हानि का सामना करना पडा। इतना धन और जन खोने के बाद भी पश्चिम बंगाल की जनता टाटा को अपने राज्य से दूर जाने पर कैसा महसूस कर रही होगी? निश्चित रूप से यह पश्चिम बंगाल सरकार की विफलता साबित करती है।

आखिर क्या बात हुई कि टाटा को अपना प्रोजेक्ट भारत के एक राज्य से स्थानांतरित कर अन्य राज्य में ले जाना पडा। यहां सवाल सिर्फ एक राज्य से स्थानांतरण का नहीं है। सवाल नरेंद्र मोदी से जुडा है। वही नरेंद्र मोदी जिन्होंने अभी इसी साल 26 जुलाई को आतंकवाद का भीषण कहर झेला। राज्य के 55 नागरिक मौत के ग्रास बन गये। देश भर में इस आतंकी घटना के लिए निंदा की गयी। लेकिन इस आपदा के समय में भी कांग्रेस के लोग राजनीति करने से बाज नहीं आये। लोगों ने इसके लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ही कसूरवार बताया। और खूब आरोप-प्रत्यारोप किये गये। देश की जनता आतंकवाद के इस घाव से कहीं अधिक नेताओं के बयानबाजी से आहत हुई। कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया कि उन्होंने आतंकियों को ललकारा, इसके परिणामस्वरूप गुजरात में बम विस्फोट किये गये। लेकिन मोदी का कहना था, उनका आतंकवाद के प्रति जीरो टालरेंस की नीति है और वे आतंकवाद को किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। अपने जीरो टालरेंस की नीति को अमल में लाने के लिए उन्होंने गुजकोक जैसे कानून राज्य विधानसभा में पारित कर केंद्र के पास मंजूरी के लिए भेज रखा है। लेकिन केंद्र सरकार उसे मंजूरी नहीं दे रही है। कांग्रेस का कहना है कि आतंकवाद से निबटने के लिए देश में आइपीसी की धारा ही पर्याप्त है। लेकिन आतंकियों के हमले के नये-नये आइडियाज और तकनीक से निबटने के लिए क्या देश को कडे कानून की आवश्यकता नहीं है?

बहरहाल, यहां बात टाटा की नैनो प्रोजेक्ट की है। अंतराष्ट्रीय स्तर के इस कार के निर्माण के लिए देश के राज्य ही नहीं विदेशों से भी रतन टाटा को ऑफर मिले थे। सिंगुर के आंदोलन और पश्चिम बंगाल सरकार की अदूरदर्शिता की वजह से जनता और टाटा दोनों की ही उर्जा और धन-जन की हानि का सामना करना पडा। इतना धन और जन खोने के बाद भी पश्चिम बंगाल की जनता टाटा को अपने राज्य से दूर जाने पर कैसा महसूस कर रही होगी? निश्चित रूप से यह पश्चिम बंगाल सरकार की विफलता साबित करती है।

लेकिन देश का एक दूसरा राज्य जो कि पश्चिम बंगाल से तकरीबन ढाई हजार किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित है, आखिर रतन टाटा को ऐसा क्या लगा कि उन्होंने झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, कर्नाटक, महाराष्ट्र और कई अन्य राज्यों को छोड गुजरात में अपना प्रोजेक्ट लगाना अधिक सेफ समझा। जबकि इसके लिए रतन टाटा को तकरीबन 3 सौ करोड का नुकसान उठाना पडेगा। यह सवाल महत्व का है। क्योंकि इसे सिर्फ एक दिन की घटना या प्रयास का असर नहीं माना जा सकता है। टाटा जैसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसायी को अपने राज्य में अंतराष्ट्रीय स्तर का प्रोजेक्ट लाने के लिए प्रेरित करना सचमूच बडी घटना है।

मोदी ने सत्ता संभालने के पहले दिन से ही अपनी स्पष्ट नीति घोषित कर दी थी, कि मीडिया में जो चल रहा है, उससे उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनका मकसद साढे पांच करोड गुजरातियों के लिए सेवा और उनकी बेहतरी के लिए काम करना है। इसके लिए उन्होंने तमाम तरह के दुष्प्रचार से खुद को किनारा कर अपने काम से काम मतलब रखा। मीडिया के दुष्प्रचार को उन्होंने अपने कामों से जवाब दिया। जो मीडिया मोदी को खलनायक बनाने में लगा था, वहीं लोग 7 अक्तूबर को मोदी की यशगाथा गा रहे थे। मोदी के करिश्मे से लोग दांतों तले अंगुली दबाने को विवश हुए थे। लेकिन मीडिया के लोग यह भली-भांति समझ रहे थे कि यह मोदी का करिश्मा एक दिन के प्रयास का नतीजा नहीं हैं। जिसे लोग धन की बर्बादी और मोदी का तमाशा कह रहे थे, वह वाइब्रेंट गुजरात महोत्सव में टाटा को गुजरात लाने में अपनी भूमिका अदा कर गया।

वर्ष 2007 के वाइब्रेंट महोत्सव के समय ही रतन टाटा ने मोदी के कामों की सराहना करते हुए कहा था कि जो लोग मोदी के इस समारोह में शरीक नहीं हुए वे मूर्ख हैं। देश का ख्याति प्राप्त यह उद्योगपति यदि इस तरह का बयान देता है तो इसके मायने मोदी के कामों में साफ-साफ महसूस किये जा सकते हैं। बहरहाल टाटा को जमीन देने से लेकर जो-जो सरकारी औपचारिकताएं पूरी करनी थी, मोदी सरकार के अधिकारियों ने त्वरित गति प्रदान कर उन्हें सब सुविधा मुहैया कराया। लेकिन यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि यह सिर्फ टाटा जैसे उद्योगपति को खुश करने तक सीमित नहीं था। यह राज्य की साढे पांच करोड जनता को स्वर्णिम तोहफा देने की पहल थी। टाटा के गुजरात आने से राजकोट के मोटरपार्टस के व्यापारी खुश हैं। साणंद के किसान खुश है। साणंद के पास की जनता खुश है। अहमदाबाद सहित राज्य के युवा खुश है। सभी को राज्य में इस बडे प्रोजेक्ट आने से प्रसन्नता हुई है।

लेकिन कांग्रेस के लोग यहां भी राजनीति करने से बाज नहीं आये। उनके नेता और केंद्रीय कपडा मंत्री शंकर सिंह वाघेला ने अपने बयान में कहा कि यह नरेंद्र मोदी की उपलब्धि नहीं वरन रतन टाटा की मजबूरी थी, कि टाटा को गुजरात आना पडा। वाघेला ने यहां तक कहा कि अन्य राज्यों से रतन टाटा को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा था। यह कहकर उन्होंने अपने ही शासित कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को कटघरे में खडा कर दिया। साथ ही गुजरात सरकार की प्रशंसा ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर दी। श्री वाघेला के कहने का अर्थ यह हुआ कि गुजरात सरकार ने देश के अन्य कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों जिसमें कांग्रेस के भी मुख्यमंत्री शामिल है, कही अधिक तत्परता और रतन टाटा के 2 हजार करोड के प्रोजेक्ट के प्रति दिलचस्पी दिखाई। वहीं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सिध्दार्थ पटेल नरेंद्र मोदी के इस लखटकिया प्रयास पर ही सवाल खडे करने की कोशिश की। उन्होंने विवाद शुरू करने की कोशिश करते हुए कहा कि मोदी ने टाटा को जो जमीन दी है वह जानवरों के चारे उपजाने के लिए उपयोग में आते रहे हैं। ऐसा कहकर आखिर वे राज्य की जनता के साथ किस रूप में खडे हैं, यह चिंतन-मनन उन्हीं को करना चाहिए।

(लेखक हिंदुस्‍थान समाचार एजेंसी से जुडे हैं)

चित्रकार हुसैन का सच

लेखक- अम्बा चरण वशिष्ठ

विश्वविख्यात चित्रकार मुहम्मद फिदा हुसैन के बारे में कई प्रकार की भ्रांतियां मीडिया में फैल रही है या फैलाई जा रही हैं। कुछ उन्हें अपने नंगे चित्रों के कारण भारतीयों की भावनाओं को ठेस पहुचाने का दोषी बता रहे हैं तो कुछ ऐसा माहौल प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं मानो श्री हुसैन ने तो कुछ गलत किया ही नहीं और भारत के पावलो पिकासो को कुछ कट्टरपन्थी हिंदुओं ने भारत छोड़कर विदेश में रहने पर मजबूर कर दिया है। वस्तुत: स्थिति यह नहीं है। यह तो सिर्फ एक पक्ष है, एक आंख से देखने का प्रयास जिससे दूसरा पक्ष ओझल रहता है।

प्रश्न तो यह उठता है कि यदि श्री हुसैन ने कुछ गलत नहीं किया और किसी कानून का उल्लंघन किया ही नहीं तो वह फिर विदेश में क्यों बैठे हैं? वह तो अपने देश से बहुत प्रेम करते हैं। दूसरी ओर न तो वर्तमान सरकार ने और न किसी पिछली सरकार ने कभी कहा कि वह उन्हें समुचित सुरक्षा प्रदान नहीं करेंगे। तो फिर वह क्यों नहीं आते?

जो लोग उनकी तुलना विश्वविख्यात चित्रकार पाबलो पिकासो से करते हैं वह भूल जाते हैं कि पिकासो ने तो तत्कालीन प्रशासन से बगावत करने का लोहा लिया था और वह जीवन के अन्तिम पल तक अपने विचारों पर अडिग रहे। उसके लिये उन्होंने अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिये। पर श्री हुसैन के साथ तो ऐसा कुछ नहीं है। वह तो कई तरह की बातें करते फिरते हैं। मुआफी भी मांगी है। फिर उनका पिकासो से क्या मेल?

उनकी अपनी बातों और उनके समर्थक उदारवादियों का खण्डन तो उन्होंने स्वयं ही बीबीसी पर अपने एक हाल ही के साक्षात्‍कार में कर दिया। वह तो मानते ही नहीं कि वह किसी के कारण निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। श्री हुसैन ने उच्चतम न्यायालय द्वारा भारत माता का नग्न चित्र बनाने के मामले पर कार्यवाही नहीं करने के आदेश पर संतोष व्यक्त करते हुये कहा कि ”सुप्रीम कोर्ट ने जबाव दे दिया है”।

जब बीबीसी पत्रकार ने आगे पूछा कि वह वतन कब लौटने की सोच रहे हैं उनका उत्तर था ”मैं वतन से दूर गया ही नहीं, मैं तो घूमता-फिरता रहता हूं।” यदि बात यह है तो उन्होंने तो हमारे बहुत से बुध्दिजीवी और उदारवादी चिंतकों के इस आरोप को ही गलत साबित कर दिया कि श्री हुसैन हिन्दू कट्टरपन्थियों के कारण ही वतन से दूर रह रहे हैं और एक निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

जब उनसे भारत माता के विवादास्पद चित्रों के बारे में पूछा कि आपने उसमें क्या दिखाने की कोशिश की है तो वह इसका सीधा उत्तर देने से टाल गए और अपने उत्तर को मरोड़ते हुये बोले ”भारत एक ऐसा देश है जहां हर तरह की ताकतें आईं, बीसियों देशों से निकाल दिया गया उन्हें। बुध्द धर्म आया, ईसाइयत आई, इस्लाम आया, सब एक-दूसरे से जुड़ गए और एक व्यापक संस्कृति बनी। यह यूनिक है, दुनिया में कोई देश भारत जैसा नहीं है”। वह तो इतिहासकार भी बन बैठे जिन्होंने बुध्द धर्म को भी इसलाम की तरह बाहर से आया बता दिया।

जब उनसे पूछा गया कि ”सबसे विवादास्पद पेंटिंग : मदर इंडिया” के बारे में आप क्या कहेंगे और उसमें आपने क्या दिखाने की कोशिश की है, तो उनका उत्तर था: ”मैं बचपन से ही देखता था भारत के नक्शे में गुजरात का हिस्सा मुझे औरत के स्तन जैसा दिखता है, इसलिए मैंने स्तन बनाया, फिर उसके पैर बनाए, उसके बाल बिखरे हैं वह हिमालय बन गया है। ये बनाया है मैंने। और ये जो ‘भारत माता’ नाम है ये मैंने नहीं दिया है, यह मेरा दिया हुआ नाम नहीं है”। वह भारतीय होने के बावजूद भारत की धरती को भारत माता मानने को तैयार नहीं हैं। वह कहते हैं कि ”भारत माता तो एक मुहावरा है, एक भावना है कि हमारा मुल्क है, वह हमारी माता जैसी है। लेकिन उसमें कोई देवी कहीं नहीं है।”

जब श्री हुसैन मानते हैं कि ”भारत माता एक मुहावरा है, एक भावना है”, तो क्या एक भारतीय होने के नाते भारतीयों की ”भावना” को दुख पहुंचाना उनका कर्तव्य व धर्म है?

उनका कथन मान भी लिया जाये कि भारत माता कोई देवी नहीं है तो क्या मां सरस्वती, मां दुर्गा और भारत की अन्य देवियां भी ”कोई देवी कहीं नहीं है”? क्या यह कहकर वह भारत के करोड़ों नागरिकों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचा रहे हैं?

यदि यही शब्द कोई भारतीय किसी गैर हिंदू धर्म के बारे में कहते तो क्या यह उस धर्म के अनुयायियों की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाता? उनके इन शब्दों के बावजूद हमारे उदारवादी और सेक्युलरवादी मानते हैं कि श्री हुसैन सेकुलर है और सब धर्मों का सम्मान करते हैं। वह कहते हैं कि हुसैन साहब ने तो कोई जुर्म किया ही नहीं। फिर यह विरोधाभासी पाखण्ड नहीं है उनका?

इतना तो सब मानते है कि कोई भी व्यक्ति कोई काम करने से पहले शुरूआत अपने घर से ही करता है। कोई व्यक्ति नया कैमरा खरीदकर लाता है तो सबसे पहले वह चित्र अपने परिवार – माता, पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी और पुत्र, पुत्री का ही खींचता है। इसी आधार पर स्वाभाविक तो यह होना चाहिए था कि श्री हुसैन भी उसी परम्परा को निभाते और दूसरों के धर्म के बार चित्र बनाने से पहले वह यह महान पवित्र काम अपने घर और अपने धर्म से ही शुरू करते। ऐसा उन्होंने क्यों नहीं किया? इसका उत्तर तो श्री हुसैन तथा उनके उदारवादी सेकुलर पैरोकारों को ही देना होगा।

”जब बीबीसी के संवाददाता ने उनसे प्रश्न किया कि ”आपके आलोचक कहते हैं कि हुसैन साहब अपने धर्म की कोई तस्वीर क्यों नहीं बनाते, मक्का-मदीना क्यों नहीं बनाते?” तो उनका उत्तर था: ‘अरे भाई, कमाल करते हैं। हमारे यहां इमेजेज हैं ही नहीं तो कहां से बनाऊंगा। न खुदा का है न किसी और का। यहां लाखों करोड़ों इमेजेज हैं, मंदिर उनसे भरे पड़े हैं।”

लगता है हुसैन साहब जनता को मूर्ख समझ रहे हैं। हमें यह समझा रहे हैं कि मक्का-मदीना की भी कोई फोटो या इमेज नहीं है? वह भूल रहे हैं कि हिंदू देवी-देवताओं या ईसाई धर्म की भी पवित्र आत्माओं या अन्य धर्मों के पैगंबरों की भी कोई फोटो उपलब्ध नहीं है। उनके जितने भी चित्र बनते हैं वह केवल उनके धार्मिक ग्रंथों में चर्चित उनके आकार-भाव के अनुसार ही बनाये जाते हैं। इसी आधार पर वह अपने धर्म के महानुभावों के भी चित्र बना सकते हैं। जब वह हिंदू धर्म से संबंधित देवी-देवताओं के प्रति अपनी कल्पना की उड़ान भर सकते हैं तो अपने धर्म के प्रति उनकी कल्पना की उड़ान ऊची क्यों नहीं जाती?

विश्व में महानतम चित्रकार हुए हैं लेकिन शायद ही किसी चित्रकार ने अपनी माता की नग्न तस्वीर बनायी हो। शायद हुसैन साहब ने भी नहीं। क्यों नहीं, इसका उत्तर तो वह ही दे सकते हैं।

भारतीय देवियां सरस्वती व दुर्गा लाखों-करोड़ों भारतीयों की माता ही नहीं, अपनी माता से भी ऊपर अधिक सम्माननीय हैं। अपनी अभिव्यक्ति का बहाना लेकर जब श्री हुसैन हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर बना रहे है तो उन्होंने अपने परिवार में से किसी का भी नग्न चित्र बनाकर उन्हें अमर क्यों नहीं किया? हिंदू देवियां पर ही वह इतने मेहरबान क्यों हैं? इसलिये कि वह स्वयं हिन्दू नहीं हैं? यदि ऐसा नहीं है तो वह बतायें कि सच क्या है? चलो कुछ पल के लिये उनके इस तर्क को ही मान लेते हैं कि कि ”हमारे यहां (मुस्लिम धर्म में) इमेजेज़ हैं ही नहीं ….न खुदा का है। न किसी और का ….” क्या किसी मुस्लिम महिला का भी कोई चित्र या इमेज नहीं है? तो फिर हुसैन साहिब बतायें कि वह केवल हिन्दू देवियों पर ही क्यों मेहरबान हुये और आज तक उन्हों ने किसी मुस्लिम महिला का नंगा चित्र बनाकर उसे अमर क्यों नहीं बनाया?

यदि मोहम्मद फिदा हुसैन अपने आपको भारतीय मानते हैं तो उन्होंने जब मां दुर्गा और मां सरस्वती के नग्न चित्र बनाये तो उन्होंने उन चित्रों के शीर्षक के रूप में यह क्यों नहीं लिखा ”मेरी मां सरस्वती” और ” मेरी मां दुर्गा”। यदि वह ऐसा करते तो विरोधी उनके विरूध्द आज जो कुछ कह रहे हैं वह न कह पाते और उनके ओठ सिल जाते। पर शायद श्री हुसैन का सत्य तो कुछ और ही है – वह नहीं जो हमारे उदारवादी सैकुलर बुध्दिज़ीवी हमें समझाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे हैं!

(लेखक वरिष्‍ठ टिप्‍पणीकार हैं)

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