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तीर्थ भारतवर्ष की आत्मा हैं

चार धाम यात्रा शुरू

डॉ.वेदप्रकाश

    तीर्थ भारतवर्ष की आत्मा हैं। प्रयागराज महाकुंभ के बाद चार धाम यात्रा शुरू हो चुकी है। भारतवर्ष के आत्म तत्व, जीवन तत्व, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तत्व एवं समग्रता में यदि भारत को जानना है तो तीर्थ एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं।  भारतभूमि समग्रता में देवभूमि है। यहां के कण कण में दिव्यता और भव्यता विद्यमान है। साक्षात प्रजापिता ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की है। हिमालय भगवान शिव का वास है तो क्षीरसागर में स्वयं भगवान विष्णु विराजते हैं। यही कारण है कि भारत की मूल चेतना आध्यात्मिक है। यहां न केवल मनुष्य अपितु जड़-चेतन सभी में परमात्मा का वास मानकर सभी के कल्याण की कामना की गई है। यही कारण है कि वैदिक चिंतन वसुधैव कुटुंबकम का उद्घोष करता है तो सर्वे भवंतु सुखिनः की कामना भी करता है। इसी प्रकार के मंत्र और उद्घोष यहां जन मन में संस्कार और विचार का निर्माण करते हैं।

यहां समष्टि कल्याण के लिए कहीं देव नदियां हैं, कहीं पर्वत हैं तो कहीं ऋषि, मुनि, संत और साधक निरंतर साधनारत रहते हैं। इस साधना के अथवा तप के बल से वह स्थान तीर्थ बनता चला जाता है। भारत में तीर्थ यात्रा की परंपरा अनादि है। समाज जीवन के लोग समय-समय पर ऐसे तप स्थलों अथवा तीर्थों पर जाकर साधनारत संतों के दर्शन करते हैं और उनके उपदेशों से ऊर्जा और सन्मार्ग का संदेश प्राप्त कर पुन: सांसारिक जीवन में जाकर अपने कार्य व्यापारों को पूरा करते हैं। विभिन्न तिथियां एवं पर्व उत्सवों पर स्वच्छ और निर्मल नदियों में स्नान सामान्य नहीं है अपितु उसमें संत और देव कृपा की दिव्यता विद्यमान रहती है।

तीर्थों की यह परंपरा स्वयं को पावन करने की परंपरा है। सर्वविदित है कि भारतीय ज्ञान, अध्यात्म एवं पूजा पद्धतियों पर अनेक बार हमले होते रहे हैं। विभिन्न मंदिरों के विध्वंश के बाद भी सनातन और अध्यात्म में जन आस्था बनी रही। परिणामस्वरूप  वे स्थान पुनः अधिकाधिक दिव्यता और भव्यता के साथ पुनर्स्थापित हो रहे हैं। श्रीअयोध्या जी में बना भव्य और दिव्य श्रीराम मंदिर इस बात का प्रमाण है। आदि शंकराचार्य ने प्रश्नोत्तर रतनमालिका नामक रचना में लिखा है- किं तीर्थमपि च मुख्यम् ? अर्थात तीर्थ में मुख्य क्या है? अथवा तीर्थ यात्रा का महत्व क्या है? इसका उत्तर देते हुए वे लिखते हैं- चित्तमलं यन्निवर्तयति। अर्थात तीर्थ वह है जो मन की अशुद्धता को दूर करता है। यहां ध्यान रहे तीर्थ यात्रा केवल भौतिक यात्रा नहीं है अपितु यह मन की शुद्धि और वासनाओं से मुक्ति प्राप्त करना है।

इतिहास प्रसिद्ध है कि केरल के कालड़ी में जन्मे आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत दर्शन और सनातन धर्म की रक्षा के लिए हजारों वर्ष पूर्व उत्तर में ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ, दक्षिण में श्रृंगेरी पीठ,पश्चिम में शारदा पीठ तो पूर्व में गोवर्धन पीठ की स्थापना की। उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों पर अपनी यात्राओं के माध्यम से जन जागरण के साथ-साथ मठ और पीठों की स्थापना की। उन्होंने वहां साधना की जिससे वे स्थान आध्यात्मिक केंद्र अथवा तीर्थ बन गए। आज भी इन तीर्थों पर प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। ध्यान रहे तीर्थ वहीं है जहां ऋषि, मुनि एवं संत समाज साधनारत हैं। तीर्थों को तीर्थत्व संतों की साधना से ही मिलता है।

श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने अनेक स्थानों पर तीर्थराज प्रयाग के महत्व का उद्घाटन किया है-
सकल कामप्रद तीरथराऊ।
बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।
वनवास के समय अयोध्या से निकलने के बाद श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी तीर्थराज प्रयाग सहित कई नदियों पर स्नान करते हैं और दिव्यता का अनुभव करते हैं। हाल ही में मां गंगा आरती के समय परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी ने अपने उद्बोधन में कहा है कि- भारत की आत्मा तीर्थों में बसती है और तीर्थ वह हैं जो हमें पवित्र कर देते हैं, तीर्थ वही हैं जो हममें दिव्यता भरते हैं, तीर्थ वही हैं जो हमें तार देते हैं, तीर्थ में आने का यही मंतव्य है कि जीवन तीर्थ बने… तीर्थ हमें भीतर से जोड़ते हैं। विगत दिनों प्रयागराज स्थित संगम पर महाकुंभ समाप्त हुआ है जिसमें संत समाज के साथ-साथ देश विदेश के लगभग 67 करोड़ श्रद्धालुओं ने श्रद्धा और आस्था की डुबकी लगाई है। वहां पहुंचने वाला प्रत्येक व्यक्ति हर-हर गंगे, हर हर महादेव, जय प्रयागराज जैसे उद्घोष करता दिखाई दिया। हजारों संत लंबे समय तक निराहार रहकर साधनारत रहे। continued.

 अक्षय तृतीया के बाद से गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ व केदारनाथ की चार धाम यात्रा शुरू हो चुकी है। देवभूमि उत्तराखंड स्थित ये चारों धाम अपनी दिव्यता-भव्यता, सकारात्मक ऊर्जा के लिए और साक्षात ईश्वर का वास होने से जगत प्रसिद्ध हैं। प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी यहां करोड़ों श्रद्धालु तीर्थ दर्शन के लिए पहुंचेंगे। ध्यान रहे जैसे-जैसे भौतिकता बढ़ रही है संसाधनों की अधिकता और अधिकाधिक पाने की महत्वाकांक्षा ने व्यक्ति के मानस को अशांत कर दिया है, ऐसे में स्वयं के और समूची मानवता के कल्याण हेतु तीर्थों का महत्व समझने, तीर्थ करने और तीर्थ बनने की आवश्यकता है।


डॉ.वेदप्रकाश

जातिगत जनगणना: सामाजिक न्याय की नई इबारत या नयी चुनौतियों का आगाज?

अशोक कुमार झा


भारत का लोकतंत्र सामाजिक विविधताओं की जटिल परतों से बुना गया है। जाति, जो एक समय में सामाजिक संगठन का साधन थी, अब आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं का अनिवार्य हिस्सा बनी हुई है। स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों में जातिविहीन, समतामूलक समाज की कल्पना की गई थी, परंतु जमीनी सच्चाई इससे अलग है।
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में सामाजिक विविधता एक सच्चाई रही है, जिसका सबसे प्राचीन और प्रभावशाली स्वरूप जाति व्यवस्था ही रही है। संविधान निर्माताओं ने आज़ाद भारत में एक ऐसे समाज का सपना देखा था जिसमें जन्म नहीं, बल्कि योग्यता व्यक्ति की पहचान बने लेकिन वास्तविकता यह है कि जाति आज भी हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के केंद्र में मौजूद है।
ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत आंकड़े संकलित करने का निर्णय एक ऐतिहासिक मोड़ है। यह फैसला न केवल सामाजिक संरचना को गहराई से प्रभावित करेगा बल्कि भारत की भविष्य की राजनीति, नीति निर्माण और सामाजिक संतुलन को भी नए ढंग से गढ़ेगा।


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: 1931 से 2025 तक का सफर
भारत में आखिरी बार जातिगत आंकड़े 1931 की जनगणना में दर्ज किए गए थे।
आज़ादी के बाद, भारत ने जातिगत जनगणना से जानबूझकर दूरी बनाई — उद्देश्य था एक ऐसी पीढ़ी तैयार करना, जो जाति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता दे।
आज़ादी के बाद, संविधान निर्माताओं ने एक चेतन निर्णय लिया था कि जातिगत पहचान को सरकारी नीति का मुख्य आधार नहीं बनने दिया जाएगा — सिवाय अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण के संदर्भ में।
डॉ. भीमराव अंबेडकर, जो स्वयं सामाजिक न्याय के प्रबल समर्थक थे, ने भी जातिगत पहचानों को सरकारी नीति से धीरे-धीरे हटाने का स्वप्न देखा था लेकिन सामाजिक और आर्थिक विषमताएं इतनी गहरी थीं कि यह आदर्श साकार नहीं हो सका।
अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षण नीतियाँ बनीं परंतु अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) जैसे समुदायों की सटीक सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर ठोस डेटा का हमेशा अभाव बना रहा।
2011 में तत्कालीन यूपीए की सरकार ने ‘सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना’ (SECC) करवाई जरूर थी, परंतु उसमें जुटाए गए आंकड़े आज तक सार्वजनिक नहीं किए जा सके जो इस आंकड़े संकलन के राजनीतिक जोखिम और संवेदनशीलता का साफ संकेत देता है।
यह जातिगत जनगणना कराने का निर्णय ऐसे समय में आया है जब ‘सामाजिक न्याय’ और ‘प्रतिनिधित्व’ की मांगें देश भर में तेज हो रही हैं। ओबीसी, महादलित, अति पिछड़ा जैसे वर्ग राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ चुके हैं। साथ ही विपक्षी दलों का लगातार दबाव और जनता के बीच प्रतिनिधित्व की बढ़ती मांग ने सरकार को इस ऐतिहासिक कदम के लिए प्रेरित किया है।
हालांकि आलोचक इसे आगामी चुनावों को ध्यान में रखकर उठाया गया राजनीतिक कदम भी बता रहे हैं। परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि इस निर्णय से देश की नीतियों और सामाजिक समीकरणों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।
2025 की इस जनगणना में केंद्र ने जातिगत आंकड़े इकट्ठा करने का जो निर्णय लिया है, वह  कई दृष्टियों से अभी महत्वपूर्ण है:-

·  सामाजिक यथार्थ का दस्तावेजीकरण:
जाति आधारित भेदभाव और असमानता के वास्तविक परिदृश्य को उजागर करना।

·  नीति निर्धारण में सटीकता:
सरकारी योजनाओं और आरक्षण नीति को डेटा आधारित बनाना।

·  राजनीतिक दबाव:
विपक्षी दलों द्वारा लंबे समय से ओबीसी, ईबीसी और अन्य पिछड़े वर्गों की वास्तविक गणना की मांग।

·  सामाजिक न्याय की मांग:
दलित, पिछड़े और अति-पिछड़े समूहों में अंदरूनी विविधता को पहचानने की आवश्यकता।

लेकिन इसके साथ ही इस पर यह आरोप भी लगने लगे हैं कि यह निर्णय राजनीतिक लाभ और सामाजिक समीकरण साधने के लिए किया गया है, खासकर आगामी आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए।
 जातिगत जनगणना के संभावित लाभ:
जातिगत जनगणना से कई महत्वपूर्ण फायदे हो सकते हैं:

·  सटीक नीति निर्माण:
विभिन्न सामाजिक समूहों का वास्तविक आवादी मालूम होने के बाद योजनाओं और संसाधनों का लक्ष्य निर्धारण आंकड़ों के आधार पर संभव होगा।

·  आरक्षण नीति में सुधार:
वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण को अधिक न्यायसंगत बनाया जा सकेगा।

·  वंचित समुदायों की पहचान:
पिछड़े वर्गों के भीतर भी जो सबसे अधिक वंचित हैं, उसकी पहचान संभव हो सकेगी और उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने का मार्ग प्रसस्त हो सकेगा।

·  क्षेत्रीय और आर्थिक असमानता का विश्लेषण:
अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों की गरीबी स्वास्थ्य और शिक्षा की पर वास्तविक अध्ययन हो सकेगा और उसको ध्यान में रखते हुए जातिगत संरचना के आधार पर  विशेष क्षेत्रीय नीतियाँ बनाई जा सकेंगी।

·  समावेशी लोकतंत्र का सशक्तिकरण:
सामाजिक विविधता को सही मायने को समझा जा सकेगा और वास्तव में वंचित समूहों को उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर लोकतन्त्र को और अधिक समवेशी बनाया जा सकेगा।

अब हमारे सामने 5 बड़े सवाल और हैं, जो भविष्य तय करेंगे:

प्रश्नउत्तर
1. क्या सभी जातियों के आंकड़े संकलित होंगे?सरकार ने संकेत दिया है कि सभी जातियों, विशेषकर OBC वर्ग के आंकड़े लिए जाएंगे, परंतु तकनीकी बारीकियां स्पष्ट नहीं हैं।
2. क्या आरक्षण नीति में बड़े बदलाव संभव हैं?यदि आंकड़े बताते हैं कि कुछ वर्ग अपेक्षाकृत अधिक या कम हैं, तो आरक्षण के नए मापदंड बन सकते हैं।
3. क्या इससे सामाजिक तनाव बढ़ेगा?जातीय पहचान के अत्यधिक उभार से सामाजिक विघटन की आशंका है, यदि संभाल कर न किया गया।
4. क्या राजनीति में जातिवाद बढ़ेगा?जातिगत आंकड़े राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक रणनीति को और धारदार बना सकते हैं।
5. डेटा गोपनीयता और निष्पक्षता कैसे सुनिश्चित होगी?स्वतंत्र निगरानी, मजबूत साइबर सुरक्षा, और कड़े कानूनों के बिना यह संभव नहीं।

 
 जातिगत जनगणना: संभावित चुनौतियाँ
लेकिन इस प्रक्रिया से जुड़े कुछ बड़े जोखिम भी सामने हैं:

·  सामाजिक विघटन का खतरा:
आंकड़ों के दुरुपयोग से जातीय टकराव और अविश्वास का माहौल बन सकता है।

·  राजनीतिक दुरुपयोग:
राजनीतिक दल आंकड़ों का उपयोग केवल अपनी चुनावी गणित साधने के लिए कर सकते हैं।

·  डेटा गोपनीयता:
लीक हुए संवेदनशील आंकड़े समाज में गंभीर उथल-पुथल पैदा कर सकते हैं।

·  जनता में भ्रम और अफवाहें:
आंकड़ों के गलत प्रचार से कानून-व्यवस्था बिगड़ने की संभावना बनी रहेगी।

 आगे की राह: पारदर्शिता, विवेक और संवेदनशीलता
जातिगत जनगणना को सफल और समाजहितकारी बनाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने होंगे:

1.  स्वतंत्र संस्थाओं की निगरानी:
डेटा संग्रह, विश्लेषण और प्रकाशन के हर चरण पर स्वतंत्र निगरानी जरूरी है।

2.  डेटा सुरक्षा सुनिश्चित करना:
डेटा की सुरक्षा और गोपनीयता सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

3.  सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना:
सरकार को स्पष्ट संदेश देना होगा कि उद्देश्य सामाजिक विभाजन नहीं, समावेशी विकास है।

4.  तथ्य आधारित संवाद:
मीडिया और समाज में तथ्य आधारित, संयमित विमर्श को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

यदि इन सावधानियों का पालन किया गया, तो यह पहल भारत को सामाजिक न्याय और समावेशी विकास के एक नए युग में ले जा सकती है।


 ऐतिहासिक अवसर या सामाजिक परीक्षण?
जातिगत जनगणना भारत के लिए एक ऐतिहासिक अवसर है —
अपने भीतर गहराई से झांकने का, असमानताओं को पहचानने का, उन्हें दूर करने के लिए सटीक नीतियाँ गढ़ने का और समाज को अधिक न्यायपूर्ण और समावेशी बनाने का।


लेकिन यह अवसर तभी सार्थक होगा जब इसे राजनीतिक स्वार्थ से मुक्त रखा जाए और इसका प्रयोग समावेशी भारत के निर्माण के लिए किया जाए, न कि विभाजनकारी राजनीति के लिए।


यदि यह प्रक्रिया सफल हुई तो भारत एक नए युग में प्रवेश करेगा, जहां सामाजिक न्याय केवल नारा नहीं रहेगा, बल्कि एक सशक्त यथार्थ बन जाएगा। लेकिन यदि इसे राजनीतिक स्वार्थ का साधन बना दिया गया, तो सामाजिक ताने-बाने को अपूरणीय क्षति पहुँच सकती है।


यह निर्णय हमें एक ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा करता है, जहां सही दिशा में कदम बढ़ाने से भारत का लोकतंत्र और भी मजबूत होगा, और गलती होने पर सामाजिक विघटन का बहुत बड़ा खतरा उठाना पड़ेगा।


ऐसे में सरकार, राजनीतिक दलों और समाज सभी की यह जिम्मेदारी है कि इस ऐतिहासिक अवसर को समझदारी, पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ संभाला जाए।
 
 
अशोक कुमार झा

क्या अब नक्सलियों पर सुरक्षाबलों का अंतिम प्रहार ही होना बाकी है!

रामस्वरूप रावतसरे

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई आर-पार के मोड़ पर पहुँच रही है। नक्सली एक-एक कर अपने ठिकाने हार रहे हैं। सुरक्षाबल उनका सफाया करके उनके ठिकानों पर तिरंगा फहरा रहे हैं। नक्सलियों के खिलाफ 22 अप्रैल, 2025 से चालू हुए सबसे बड़े ऑपरेशन में निर्णायक सफलता मिल रही है। ऑपरेशन का केंद्रबिंदु कर्रेगुट्टा पहाड़ी है. उससे नक्सली भाग रहे हैं।

इस पर सुरक्षाबलों ने तिरंगा फहरा दिया है। इस पहाड़ी को भी छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ, पुलिस और डीआरजी और विशेष कमांडो ने घेर रखा है। सुरक्षाबलों के इस ऑपरेशन के चलते लाल आतंकी घबराए हुए हैं. वह सरकार से अब बात करना चाहते हैं। छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने इससे इनकार कर दिया है।

छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र की सीमा जहाँ मिलती है, वहाँ पर यह कर्रेगुट्टा पहाड़ी है। यह 5 हजार फीट की ऊँचाई पर है। पहाड़ी और उसके आसपास घना जंगल है। यहाँ तक कि आसपास कोई आबादी नहीं है। यहाँ 22 अप्रैल, 2025 को सुरक्षाबलों ने ऑपरेशन चालू किया था। सुरक्षाबलों को सूचना थी कि यहाँ हिडमा जैसे कई बड़े नक्सली कमांडर ठहरे हुए हैं। इसके बाद छत्तीसगढ़ की पुलिस, डीआरजी, सीआरपीएफ, कोबरा कमांडो और महाराष्ट्र के कमांडो समेत 10 हजार जवानों ने इस पहाड़ी को घेरना चालू किया। इस पहाड़ी पर जवान ना पहुँचे, इसके लिए माओवादियों ने आईईडी  भी लगा रखी थीं। हालाँकि सुरक्षाबलों के पहुँचने के बाद उनकी नक्सलियों से मुठभेड़ चालू हुई।

इसमें तीन महिला नक्सली मार गिराई गईं। इन पर 8 लाख का इनाम था। इनके अलावा 8 और नक्सलियों के मारे जाने की सूचना सुरक्षाबलों को मिली है हालाँकि, इन नक्सलियों के शव नहीं बरामद हुए हैं। नक्सली और सुरक्षाबल लगातार आपस में टकरा रहे हैं।

सुरक्षाबलों की मजबूती देख कर नक्सल घबरा गए हैं. 200 स्क्वायर किलोमीटर से ज्यादा वाले इस इलाके में वह भागने का प्रयास कर रहे हैं। उनके भागने की दिशा तेलंगाना की तरफ है। तेलंगाना की तरफ से उतनी सख्ती ना होने के चलते यह नक्सली भागने की फिराक में बताए जा रहे हैं।

कर्रेगुट्टा पहाड़ी पर सुरक्षाबलों के ऑपरेशन के चलते नक्सली भाग रहे हैं और जवान लगातार इलाकों में बढ़त बनाए हुए हैं। यहाँ जवान कुछ इलाकों में 9 दिन चढ़ाई करने के बाद पहुँचे हैं। उन्हें बड़ी मात्रा में आईईडी भी यहाँ मिले हैं। अब इन इलाकों से नक्सलियों को भगा कर सुरक्षाबल तिरंगा फहरा रहे हैं। नक्सलियों के ऑपरेशनल हेडक्वार्टर रहे इस पहाड़ी का इंच-इंच अब मुक्त करवाने के बाद अपनी बढ़त दिखा रहे हैं। इसकी तस्वीरें भी सामने आई हैं।

कभी जंगली इलाकों में समानांतर सरकार चलाने वाले नक्सली अब घुटनों पर आ गए हैं। हजारों जवानों और आम लोगों को मारने वाले नक्सली अब सरकार से ‘सीजफायर’ करने को कह रहे हैं। सीपीआई माओवादी ने सरकार से अपील की है कि वह उनके सफाए के लिए चलाए जा रहे ‘ऑपरेशन कगार’ को बंद कर दे। इस सीजफायर को तेलंगाना के नेता भी समर्थन दे रहे हैं। बीआरएस प्रमुख केसीआर भी यही अपील कर चुके है। वहीं तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी भी इस पर विचार करने की बात कर चुके हैं लेकिन वर्षों से नक्सलवाद का दंश झेल रहे छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार इस मूड में नहीं है।

     छत्तीसगढ़ के उपमुख्यमंत्री और गृह मंत्री विजय शर्मा ने सीजफायर करने से इनकार कर दिया है। उन्होंने कहा, “मामला ये है कि शांति समझौता करने के लिए कुछ लोग इकट्ठा हो रहे हैं। ये कौन लोग हैं, ये तब कहाँ थे जब दरभाडोरा में 27 नागरिकों को नक्सलियों ने मार दिया था।‘ उन्होंने आगे कहा, “जब बस्तर के आदिवासियों की हत्या हुई तब ये लोग कहाँ थे। अभी यह कैसे उभर कर आ रहे हैं। झीरम घाटी में जब इतने लोग मार दिए गए, तब यह सब कहाँ थे?” डिप्टी सीएम विजय सीएम शर्मा ने कहा, इनसे क्यों बात की जाए, ये कौन हैं, इनके प्रयासों से कुछ नहीं होने वाला है। उपमुख्यमंत्री ने जोर देकर कहा है कि जिन नक्सलियों को बात करनी है, वे मुख्यधारा में आना चुनें वरना कोई बात नहीं होगी।

   गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च, 2026 का समय सुरक्षाबलों को नक्सलियों का सफाया करने के लिए दिया है। इसलिए लगातार ऑपरेशन हो रहे हैं। 2024 में सुरक्षाबलों ने 290 नक्सली मारे थे। वहीं 2025 में यह संख्या लगभग 130 पहुँच चुकी है। सैकड़ों की संख्या में नक्सली सरेंडर कर चुके हैं। वर्ष 2025 में सुरक्षाबलों को नक्सलियों के खिलाफ लगातार बड़ी सफलताएँ हाथ लगी हैं। अब तक कई ऐसे ऑपरेशन छत्तीसगढ़ में हो चुके हैं जिनमें एक दर्जन से ज्यादा नक्सली एक साथ मार गिराए गए हों। एक रिपोर्ट बताती है कि 2025 में अब तक छत्तीसगढ़ में 120 से अधिक नक्सली मार गिराए गए हैं। 2025 के पहले दिन से ही सुरक्षाबलों ने नक्सलियों पर शिकंजा कसना चालू कर दिया था। 2 जनवरी, 2025 को बीजापुर में हुई मुठभेड़ में 5 नक्सली मारे गए थे। उसके बाद यह सिलसिला चलता ही रहा। 16 जनवरी को हुई एक मुठभेड़ में 18 नक्सली मार गिराए गए थे। 21 जनवरी, 2025 को गरियाबंद पहाड़ी पर हुई एक मुठभेड़ में 16 नक्सली मारे गए थे। इनमें नक्सलियों का टॉप कमांडर चलापति भी था। चलापति 1 करोड़ का इनामी नक्सली था। उसके साथ ही एक-दो और भी बड़े कमांडर मारे गए थे।

     इस वर्ष की सबसे बड़ी मुठभेड़ 9 फरवरी को हुई थी। नेशनल पार्क क्षेत्र में हुए ऑपरेशन के दौरान यहाँ 31 नक्सली मार गिराए गए थे। यह ऑपरेशन महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के सुरक्षाबलों ने मिलकर किया था। यह हमला नक्सलियों की एक मीटिंग पर हुआ था। इसी तरह के बड़े ऑपरेशन के चलते नक्सलियों की अब कमर टूट गई है। सुरक्षाबल अब उन इलाकों में घुस रहे हैं, जहाँ पहले नक्सली एकक्षत्र राज कर रहे थे। उन्हें ग्रामीणों से मिलने वाला समर्थन भी अब कम हो चुका है। दुर्गम इलाकों में चौकियाँ बनाने के चलते सुरक्षाबल उनकी हर एक मूवमेंट पर नजर रख रहे हैं।

रामस्वरूप रावतसरे

शादी पाकिस्तान में और नागरिकता भारत की

संदीप सृजन

पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत सरकार ने पाकिस्तानी नागरिकों को 48 घंटे में देश छोड़ने का आदेश दिया तो एक नया मुद्दा सार्वजनिक हो उठा। भारत की महिलाओं की पाकिस्तान में शादी हुई और वे भारत में रह कर बच्चें पैदा कर रही है। यह मुद्दा तब और जटिल हो जाता है जब इन महिलाओं के बच्चे या पति पाकिस्तानी नागरिकता रखते हैं। इस दौरान, कई ऐसी महिलाएं सामने आईं जिनके पास भारतीय पासपोर्ट था लेकिन उनके पति या बच्चे पाकिस्तानी नागरिक थे। इन मामलों ने यह सवाल उठाया कि क्या ऐसी व्यवस्था भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है।

हम देखे कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध हमेशा से तनावपूर्ण रहे हैं। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक कारणों से दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी रही है। हाल के दिनों में, एक नया मुद्दा चर्चा में आया है जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक संरचना के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। यह मुद्दा है पाकिस्तान में शादी करने वाली भारतीय महिलाओं का भारत की नागरिकता बनाए रखना। कुछ लोग इसे केवल व्यक्तिगत पसंद या पारिवारिक मामला मान सकते हैं लेकिन गहरे विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि यह मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक एकता और भारत की संप्रभुता पर गंभीर सवाल उठाता है।

भारत का संविधान एकल नागरिकता की व्यवस्था करता है जिसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति एक साथ दो देशों का नागरिक नहीं हो सकता। नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत, भारतीय नागरिकता प्राप्त करने, निर्धारित करने और रद्द करने के नियम स्पष्ट हैं। फिर भी, हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां भारतीय महिलाएं, जिन्होंने पाकिस्तान में शादी की है, भारत की नागरिकता बनाए रखती हैं। कुछ मामलों में, ऐसी महिलाएं अपने पाकिस्तानी पति और बच्चों के साथ भारत में रह रही हैं या बार-बार भारत-पाकिस्तान के बीच यात्रा कर रही हैं।

पाकिस्तान के साथ भारत का रिश्ता हमेशा से संवेदनशील रहा है। सीमा पर तनाव, आतंकवादी हमले, और जासूसी के मामले दोनों देशों के बीच अविश्वास को बढ़ाते हैं। ऐसे में, भारतीय नागरिकता रखने वाली महिलाएं, जो पाकिस्तानी नागरिकों से विवाहित हैं, संभावित रूप से जासूसी या आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल हो सकती हैं। यह केवल एक आशंका नहीं है, बल्कि हाल के कुछ मामलों ने इस खतरे को उजागर किया है।

उदाहरण के लिए, सीमा हैदर का मामला चर्चा में रहा है। सीमा, जो पाकिस्तान की नागरिक थीं, ने नेपाल के रास्ते अवैध रूप से भारत में प्रवेश किया और एक भारतीय नागरिक सचिन मीणा से शादी की। हालांकि सीमा ने दावा किया कि उन्होंने हिंदू धर्म अपना लिया और भारत में रहना चाहती हैं लेकिन उनके अवैध प्रवेश और पाकिस्तानी पृष्ठभूमि ने सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क कर दिया। ऐसे मामलों में यह सवाल उठता है कि क्या ऐसी शादियां केवल व्यक्तिगत प्रेम कहानियां हैं, या इनके पीछे कोई सुनियोजित साजिश हो सकती है।

कुछ सोशल मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया है कि ऐसी शादियां भारत में “स्लीपर सेल” बनाने का हिस्सा हो सकती हैं। हालांकि ये दावे पूरी तरह सत्यापित नहीं हैं लेकिन यह सच है कि भारत की उदार नागरिकता नीतियों का दुरुपयोग संभव है, विशेष रूप से, पाकिस्तान जैसे देश के साथ, जहां आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं. ऐसी शादियां राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती हैं।

भारत का नागरिकता कानून इस तरह के मामलों को संबोधित करने में अपर्याप्त प्रतीत होता है। नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत, यदि कोई भारतीय नागरिक किसी विदेशी से शादी करता है तो उनकी नागरिकता स्वतः रद्द नहीं होती। हालांकि, यदि कोई भारतीय नागरिक किसी अन्य देश की नागरिकता स्वीकार करता है, तो उनकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाती है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब ऐसी महिलाएं पाकिस्तान की नागरिकता के लिए आवेदन नहीं करतीं और भारत की नागरिकता बनाए रखती हैं।

पाकिस्तान में भी नागरिकता कानून पक्षपाती हैं। वहां, यदि कोई पुरुष विदेशी महिला से शादी करता है तो उस महिला को पाकिस्तानी नागरिकता मिल सकती है लेकिन यदि कोई पाकिस्तानी महिला विदेशी पुरुष से शादी करती है तो उसके पति को नागरिकता नहीं मिलती।

इसके अलावा, भारत में लंबे समय तक रहने वाले पाकिस्तानी नागरिकों को नागरिकता देने की प्रक्रिया भी जटिल है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), 2019 के तहत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता दी जा सकती है लेकिन यह प्रावधान मुस्लिम प्रवासियों पर लागू नहीं होता। इससे उन मामलों में भेदभाव का आरोप लगता है, जहां पाकिस्तानी मुस्लिम पुरुष भारतीय महिलाओं से शादी करते हैं।

ऐसी शादियां भारत की जनसांख्यिकी को प्रभावित कर सकती हैं। यदि पाकिस्तानी नागरिक भारत में बसने लगते हैं, तो यह दीर्घकालिक रूप से भारत की सामाजिक और राजनीतिक संरचना को बदल सकता है। कुछ लोग इसे “सांस्कृतिक जिहाद” या “लव जिहाद” के रूप में भी देखते हैं, हालांकि ये शब्द विवादास्पद हैं और इन्हें सावधानी से इस्तेमाल करना चाहिए।

इस गंभीर मुद्दे से निपटने के लिए भारत को अपनी नीतियों और कानूनों में सुधार करना होगा। सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि यदि कोई भारतीय नागरिक पाकिस्तान जैसे संवेदनशील देश के नागरिक से शादी करता है तो उनकी नागरिकता की समीक्षा की जाएगी। शादी के बाद एक निश्चित अवधि के भीतर विदेशी नागरिकता स्वीकार न करने पर भारतीय नागरिकता रद्द करने का प्रावधान हो सकता है। ऐसी शादियों और संबंधित व्यक्तियों की गतिविधियों पर खुफिया एजेंसियों को कड़ी निगरानी रखनी चाहिए। विशेष रूप से, सीमा क्षेत्रों और संवेदनशील स्थानों में रहने वाले लोगों की जांच होनी चाहिए।

सामाजिक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए ताकि लोग ऐसी शादियों के संभावित खतरों को समझ सकें। यह विशेष रूप से उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है जो पाकिस्तान की सीमा से सटे हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच नागरिकता और विवाह से संबंधित मुद्दों पर स्पष्ट द्विपक्षीय समझौते होने चाहिए। इससे दोनों देशों के नागरिकों की स्थिति स्पष्ट होगी और दुरुपयोग की संभावना कम होगी। अवैध प्रवेश या संदिग्ध गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। सीमा हैदर जैसे मामलों में त्वरित और पारदर्शी जांच होनी चाहिए।

शादी पाकिस्तान में और नागरिकता भारत की रखने का मुद्दा केवल व्यक्तिगत पसंद का मामला नहीं है; यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक पहचान के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। हालांकि हर मामला साजिश का हिस्सा नहीं हो सकता, लेकिन इसकी संभावना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारत को अपनी नागरिकता नीतियों को और सख्त करना होगा, ताकि इस तरह के दुरुपयोग को रोका जा सके। साथ ही, सामाजिक जागरूकता और खुफिया निगरानी को बढ़ाकर इस मुद्दे से प्रभावी ढंग से निपटा जा सकता है। यह मुद्दा न केवल भारत की सरकार, बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए एक चेतावनी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारी उदारता और सहिष्णुता का दुरुपयोग न हो, और हमारा देश सुरक्षित और एकजुट रहे। इस दिशा में त्वरित और प्रभावी कदम उठाना समय की मांग है।

संदीप सृजन

शादी शुदा हैं एक्‍ट्रेस अदिति शर्मा ?

4 सितंबर 1996 को दिल्ली में पैदा हुई एक्‍ट्रेस अदिति शर्मा टीवी की दुनिया में एक बहुत ही लोकप्रिय चेहरा हैं। वह ‘अमेज़न फैशन वीक इंडिया’ के लिए वॉक करने के बाद ‘टाइटन रागा’, ‘व्हाइट पॉन्ड्स ब्यूटी बीबी+’, ‘अमेज़न’ जैसे विभिन्न ब्रांडों के कई टीवी विज्ञापनों के लिए काम कर चुकी हैं।   

टीवी शो ‘कालिरिन’ (2018) में मीरा ढींगरा के किरदार से अदिति शर्मा ने एक्टिंग डेब्यू किया था। उसके बाद वह ‘नागिन 3′ (2019) ”रब से है दुआ’ (2022-2024), ‘ये जादू है जिन्‍न का’ (2019-2020) और ‘अपोलेना- सपनों की ऊंची उड़ान’ (2024-2025) जैसे कई अद्भुत शो का हिस्सा रह चुकी हैं।

अदिति रोहित शेट्टी के स्‍टंट बेस्‍ड रियलिटी शो ‘फीयर फैक्‍टर खतरों के खिलाड़ी 14’ (2024) में भी नजर आ चुकी हैं।

अदिति शर्मा ने 2017 में गुरु रंधावा के साथ म्‍यूजिक वीडियो ‘तारे’ में अभिनय करते हुए नजर आईं। इस शो में उन्हें काफी पसंद किया गया था।

उसके बाद वह दो अन्य पंजाबी म्‍यूजिक वीडियो ‘नान’ (2019) और ‘बेकद्रा’ (2019) और हरियाणवी म्‍यूजिक वीडियो ‘तू राजा की राज दुलारी’ (2018) में दिखाई दीं। इसके अलावा उनके म्‍यूजिक वीडियो ‘प्‍ले बॉय’ (2021) और ‘आदत वे’ (2021) भी काफी मशहूर हुए।

वेब सीरीज ‘क्रेश’ (2021) के जरिए अदिति ने ओटीटी पर डेब्‍यू किया था। इस सीरीज में उनके व्‍दारा निभाए गए काजल सेहगल के किरदार को ऑडियंस का काफी अच्‍छा रिस्‍पॉंस मिला था।

सोशल मीडिया पर तगड़ी फैन फॉलोइंग रखने वाली और टीवी शोज से पॉपुलर हुईं एक्ट्रेस अदिति शर्मा को लेकर चौंकाने वाला खुलासा हुआ है।

अभिनीत कौशिक ने दावा किया है कि अदिति ने उनसे पहले चोरी-छुपे शादी की और अब चार महीने बाद ही वे तलाक मांग रही हैं। अभिनीत ने अदिति पर को-स्टार संग एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर होने का आरोप भी लगाया है।

अभिनीत का आरोप है कि अदिति का उनके शो ‘अपोलेना- सपनों की ऊंची उड़ान’ (2024-2025) के को-एक्टर सामर्थ्य गुप्ता के साथ अफेयर चल रहा है।

अभिनीत ने ये भी दावा किया कि रंगे हाथ पकड़े जाने पर अदिति ने अपनी और उनकी शादी को इन-वैलिड और मॉक ट्रायल करार दे दिया। इसके साथ ही अदिति ने अभिनीत से तलाक मांगते हुए 25 लाख रुपए की डिमांड भी की है।

करण जौहर के साथ हुआ शनाया कपूर का पैचअप

3 नवंबर 1999 को मुंबई में जन्मी एक्‍ट्रेस शनाया कपूर एक्‍टर संजय कपूर और महीप संधू की बेटी हैं। शनाया की मां महीप संधू एक ज्वैलरी डिज़ाइनर हैं।

शनाया ने इकोले मोंडिएल वर्ल्ड स्कूल, मुंबई से अपनी एजुकेशन पूरी करने के बाद अपने करियर की शुरूआत फिल्‍म ‘गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल’ (2020) में बतौर असिस्‍टेंट की।

शनाया कपूर काफी खूबसूरत हैं. उनका ग्लैमर तो ऐसा है जो देखने वालों की आंखों को चैधिया देता है। वह एक अच्‍छी बेली डांसर भी हैं।  वह ‘लैक्मे फैशन वीक’ (2022) में मनीष मल्होत्रा के लिए रैंप वॉक कर चुकी हैं।

एक एक्‍ट्रेस के तौर पर शनाया कपूर की पहली फिल्म ‘वृषभ’ (2024) एक पैन-इंडिया फिल्म थी जिसमें मलयालम फिल्‍मों के सुपरस्टार मोहनलाल  मुख्य भूमिका में थे।  

अब वह विक्रांत मैसी के साथ ‘आंखों की गुस्ताखियां’ से बॉलीवुड में डेब्यू करने जा रही हैं। यह एक रोमांटिक ड्रामा है, जिसमें वह एक थिएटर अभिनेत्री का चुनौतीपूर्ण और भावनात्मक किरदार निभा रही है।

इसके अलावा शनाया कपूर आनंद एल राय व्‍दारा निर्मित और बिजॉय नाम्बियार व्‍दारा डायरेक्‍ट की जा रही फिल्म ‘तू या मैं’ भी कर रही है। फिल्म में शनाया के अपोजिट आदर्श गौरव नजर आने वाले हैं।  

करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शंस द्वारा अपने सबसे ज्यादा भरोसेमंद शागिर्द शशांक खेतान के डायरेक्‍शन में बनने वाली फिल्म ‘बेधड़क’ में शनाया कपूर को कास्‍ट किया गया था। इस डेब्‍यू फिल्‍म में वह लक्ष्‍य और गुरफतेह पीरजादा के साथ महिला मुख्य भूमिका में नजर आने वाली थी। इसके अलावा करण जौहर ने टाइगर श्रॉफ और शनाया को लेकर फिल्‍म ‘स्क्रू ढीला’ बनाने का भी एलान किया था लेकिन शनाया के करियर में एक बड़ी चुनौती उस वक्‍त आई जब फिल्‍म ‘बेधड़क’ और ‘स्क्रू ढीला’ दोनों फिल्‍मों को रद्द कर दिया गया। यदि खबरों की माने तो इसके पीछे वजह शनाया की मम्‍मी महीप बनीं।

शनाया की मम्मी महीप चाहती थीं कि फिल्म ‘बेधड़क’ की थिएट्रिकल रिलीज हो लेकिन करण इसकी डायरेक्‍ट रिलीज के लिए बाकायदा ’नेटफ्लिक्स’ के साथ डील कर चुके थे। ऐसे में उन्होंने महीप को साफ शब्दों में कह दिया है कि ऐसा करना उनके लिए मुमकिन नहीं है।   इसके अलावा महीप चाहती हैं कि शनाया फिल्मों में ज्यादा बोल्‍ड रोमांटिक सीन न करे।

खबरों की मानें तो शनाया के पिता एक्‍टर संजय कपूर ने करण जौहर के साथ पैचअप करते हुए उन्‍हैं बेटी का करियर आगे बढाने का आग्रह किया है। उन्‍होंने करण को वचन दिया है कि अब शनाया के कैरियर में कोई किसी तरह से इंटरफीयर नही करेगा।  

इसके बाद खबर आ रही है कि करण ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर 3’ को वेब सीरीज की शक्ल में लेकर आ रहे हैं। डिज्नी+हॉटस्टार के साथ मिलकर वे अपनी इस फिल्म फ्रेंचाइजी को अब एक वेब सीरीज में बदलने वाले हैं। इसमें शनाया भी नजर आएंगी जो कि इसके जरिए ओटीटी की दुनिया में कदम रखेंगी।

कंगना शर्मा का बोल्‍ड अंदाज, ऑडियंस को लुभा रहा है

फिल्म ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ (2016)  से बॉलीवुड में अपनी शुरुआत करने वाली एक्‍ट्रेस कंगना शर्मा अपने बोल्ड फैशन और सोशल मीडिया पर अपनी मौजूदगी के लिए हमेशा चर्चा में रहती हैं।

उन्हें ‘द कपिल शर्मा शो’ और ‘तू सूरज मैं सांझ पिया जी’ (2017), जैसे शोज से टीवी पर खूब पॉपुलेरिटी मिली।

3 अप्रैल 1989 को हरियाणा में पैदा हुई और मुंबई में पली-बढ़ीं कंगना ने साल 2012 में मॉडलिंग की दुनिया में कदम रखा और 2014 में वह ‘मिस मैक्सिम प्रतियोगिता’ में रनर-अप रहीं जिसने उन्हें अचानक सुर्खियों में ला दिया।

कंगना शर्मा ने एक्टिंग करियर की शुरुआत इंद्र कुमार व्‍दारा निर्देशित एडल्ट कॉमेडी फिल्म ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ (2016) से की। फिल्म में कंगना का किरदार छोटा लेकिन ध्यान आकर्षित करने वाला था। उन्‍होंने आफताब शिवदासानी की साली का किरदार निभाया था ।

इसके बाद कंगना रोमांटिक कॉमेडी फिल्म ‘राम रतन’ (2017) में नजर आई। लेकिन यह उनकी यह उतनी सफल नहीं रही। उनकी अन्य फिल्मों में ‘यूज्ड’ (2019) और ‘साया-ए-इश्क’ (2024) के नाम शामिल हैं।

फिल्मों और टेलीविजन के अलावा कंगना शर्मा ने ‘मोना होम डिलीवरी’ (2019) और ‘द कसीनो’ (2020) वेब सीरीज में भी काम किया है। वेब सीरीज ‘मोना होम डिलीवरी’ (2019)  में उन्‍होंने एक वेश्या के किरदार में बोल्डनेस की सारी हदें पार कर दी थीं।  इस वेब सीरीज के लिए वह खूब चर्चा में रहीं।  

 इसके अतिरिक्त, उन्‍होंने कई म्यूजिक वीडियो में भी काम किया है, जिनमें ‘तेरे जिस्म 2’ काफी चर्चित रहा। जिसमें कंगना ने अपने बोल्ड अवतार और डांस मूव्स से दर्शकों का ध्यान खींचा। लगता हैकि कंगना का बोल्‍ड अंदाज ऑडियंस को खूब लुभा रहा है।

सोशल मीडिया पर काफी अधिक एक्टिव रहने वाली कंगना के इंस्टाग्राम पर 2.8 मिलियन फॉलोअर्स हैं। वह अपने इन फॉलोअर्स के लिए आए दिन वो कुछ न कुछ शेयर करती रहती हैं।

कंगना के फैशन सेंस और स्टाइल की वजह से उन्हें पैपराजी और फैंस का खूब अटेंशन मिलता है। पिछले दिनों मुंबई के एक रेस्टोरेंट के बाहर कंगना पेपराजी के लिए पोज दे रही थीं। जहां पर हाई हील्स में उनका बैलेंस बिगड़ा और धड़ाम से गिर गईं। कंगना का ये गिरने वाला वीडियो सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हुआ था।

सुभाष शिरढोनकर

अपनी सैन्य क्षमताओं में वृद्धि कर रहा भारत ! 

भारत अपनी सैन्य क्षमताओं में लगातार वृद्धि कर रहा है। इस क्रम में यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि भारत और फ्रांस ने हाल ही में राफेन मरीन विमान के ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं और दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों ने इस डील को हरी झंडी भी दिखा दी है। गौरतलब है कि आईजीए पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और फ्रांस के सशस्त्र सेना मंत्री सेबास्टियन लेकोर्नु ने हस्ताक्षर किए। उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह भारत की फ्रांस के साथ अब तक की सबसे बड़ी डिफेंस डील है, जिसके अंतर्गत भारत, फ्रांस से 26 राफेल मरीन विमान खरीदेगा। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक दोनों देशों(भारत-फ्रांस) के बीच यह डील 63000 करोड़ रुपए में साइन की गई है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस राफेल डील में हथियार, उपकरण, स्पेयर पार्ट्स और क्रू ट्रेनिंग और लॉजिस्टिक सपोर्ट भी शामिल होगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत की फ्रांस से 26 राफेल एम (मरीन) की खरीद के समझौते पर हुए हस्ताक्षर रणनीतिक रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण है। भारत और फ्रांस के बीच जो डील(सौदा) हुआ है उसके मुताबिक भारतीय नौसेना को फ्रांस द्वारा 26 राफेल मरीन फाइटर जेट उपलब्ध कराए जायेंगे, तथा इनमें से 22 फाइटर जेट सिंगल-सीटर होंगे। वहीं, नौसेना को चार ट्विन-सीटर वेरिएंट के ट्रेनिंग राफेल विमानों की डिलीवरी भी दी जाएगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत और फ्रांस के बीच यह सौदा ऐसे समय में हुआ है जब भारत ने आतंकवाद के खिलाफ(पहलगाम हमले के बाद) सख्त रुख अपनाया है, जिसके चलते पाकिस्तान में काफी बैचेनी है। पाकिस्तान इन दिनों नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी कर रहा है और भारतीय सेना पाकिस्तान को करारा जवाब दे रही है। इसी बीच भारतीय नौसेना के बेड़े में राफेल विमान शामिल हो जाने से भारत की शक्ति और अधिक बढ़ जाएगी।गौरतलब है यह देश के नौसैनिक बलों के लिए पहला बड़ा लड़ाकू विमान अपग्रेड है। हालाँकि, यह बात अलग है कि अभी इन विमानों की डिलीवरी में कुछ वर्षों का समय लगेगा। जानकारी के अनुसार पहले राफेल (एम) फाइटर जेट की डिलीवरी वर्ष 2028-29 में होगी। इसके बाद वर्ष 2031-32 तक नौसेना को सभी विमानों की आपूर्ति कर दी जाएगी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इन्हें(राफेल विमानों को) मुख्य रूप से, स्वदेशी रूप से निर्मित विमान वाहक पोत आईएनएस विक्रांत और आईएनएस विक्रमादित्य पर तैनात किए जाएंगे। वास्तव में इन विमानों को युद्ध पोत पर तैनात करने के हिसाब से ही डिजाइन किया गया है तथा फ्रांस की सेना पहले से ही इनका इस्तेमाल कर रही है। इससे (इस सौदे से) जहां एक ओर भारत जहां हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की गतिविधियों पर नजर रख सकेगा। वहीं, दूसरी ओर भारत पाकिस्तान की हरकतों का भी मुंहतोड़ जवाब और अधिक शक्ति से दे सकेगा। इन विमानों की सहायता से भारत न केवल पाकिस्तान बल्कि पड़ौसी चीन के नापाक मंसूबों पर भी भारत पानी फेर सकेगा, जैसा कि चीन भी समय समय पर सीमा पर भारत को आंख दिखाता रहता है और घुसपैठ की वारदातों को अंजाम देता रहता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि इससे भारतीय नौसेना की समुद्री हमले की क्षमताओं को और अधिक मजबूती मिल सकेगी।गौरतलब है कि भारतीय वायुसेना के पास भी राफेल विमानों के बेड़े है। वास्तव में, भारत के पास पहले से ही 36 राफेल विमान हैं। पाठकों को बताता चलूं कि साल 2016 में ही इन विमानों के लिए फ्रांस की कंपनी के साथ डील हुई थी तथा भारत की फ्रांस के साथ इस नई डील के बाद भारत में राफेल की संख्या बढ़कर 62 हो जाएगी। आज भारत ‘मेक इन इंडिया’ पर लगातार जोर दे रहा है। पाठकों को बताता चलूं कि भारत ने पिछले एक दशक में अपनी सैन्य ताकत को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। ‘मेक इन इंडिया’ पहल के तहत विकसित किए गए घातक हथियार न केवल भारत की सुरक्षा को मजबूती प्रदान करते हैं, बल्कि पड़ोसी देशों विशेषकर पाकिस्तान और चीन के लिए एक बड़ी चुनौती भी पेश करते हैं। यदि हम यहां पर भारत की स्वदेशी हथियार प्रणालियों की बात करें तो इनमें क्रमशः अग्नि-V मिसाइल( 8,000 किमी तक मार करने की क्षमता),ब्रह्मोस(दुनिया की सबसे तेज सुपरसोनिक मिसाइल),एच एसटीडीवी (7 मैक गति वाली हाइपरसोनिक मिसाइल),प्रलय मिसाइल(दुश्मन के बंकरों और कमांड सेंटरों के लिए घातक),निर्भय क्रूज मिसाइल(छुपकर हमला करने में माहिर),के-9 वज्र(स्वचालित तोपों का राजा),पिनाका(बारूद की बारिश करने वाला सिस्टम),अर्जुन टैंक(जमीनी युद्ध का विशेषज्ञ),एंटी-सैटेलाइट मिसाइल( अंतरिक्ष में दबदबा) शामिल हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज भारत रक्षा ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में ‘आत्मनिर्भरता’ की ओर बढ़ रहा है। आधुनिक हथियारों (अस्त्र-शस्त्र) का निर्माण आज भारत में होने लगा है और भारत इनका निर्यात भी करने लगा है, लेकिन हमारी सैन्य सामग्री की आवश्यकताओं के चलते अब भी अरबों रुपयों की खरीद(हथियारों/विमानों) विदेशों से करना जरूरी है। यही कारण है कि साल 2016 में फ्रांस से 60,000 करोड़ रुपयों में 36 मल्टीरोल राफेल लड़ाकू विमान खरीद लेने के नौ साल बाद अब साल 2025 में भारत ने एक नये रक्षा सौदे के अंतर्गत फ्रांस से ही 26 राफेल एम विमानों की खरीद पर 63,000 करोड़ रुपये खर्च करने का समझौता किया है। वास्तव में,भारतीय पोतों और उनके कार्मिकों की सुरक्षा तथा अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप एवं हजारों मीलों तक फैले तटीय क्षेत्र की सुरक्षा के लिए भारतीय नौसेना की क्षमता में लगातार वृद्धि जरूरी है। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि आज की तारीख में दुनिया के नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं और इन नौ देशों में रूस, अमेरिका, चीन, भारत, पाकिस्तान, फ्रांस, यूके, फ्रांस, इजराइल और उत्तर कोरिया शामिल हैं। एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक में छपी एक खबर के अनुसार ग्लोबल फायरपावर 2025 के अनुसार, दुनिया के 145 शक्तिशाली देशों की सूची में चीन तीसरे स्थान पर है, वहीं भारत का स्थान चौथा है। यहां पर यदि हम आंकड़ों की बात करें तो भारतीय सेना के पास 4201 टैंक हैं। वहीं, चीनी सेना के पास 6800 टैंक हैं।भारतीय सेना के पास 148594 आर्मर्ड व्हीकल हैं। वहीं, चीनी सेना के पास 144017 आर्मर्ड व्हीकल हैं।भारतीय सेना के पास 3975 टो आर्टिलरी हैं। वहीं, चीनी सेना के पास 1000 टो आर्टिलरी हैं।भारतीय सेना के पास 264 रॉकेट लॉन्चर हैं। वहीं, चीनी सेना के पास 2750 रॉकेट लॉन्चर हैं।भारतीय सेना के पास 264 रॉकेट लॉन्चर हैं। वहीं, चीनी सेना के पास 2750 रॉकेट लॉन्चर हैं।भारतीय वायुसेना के पास कुल विमानों की संख्या 2229 है। वहीं, चीनी वायुसेना के कुल विमानों की संख्या 3309 है। हिंदी दैनिक लिखता है कि भारतीय वायुसेना में लड़ाकू विमानों की संख्या 513 है। वहीं, चीनी वायुसेना में लड़ाकू विमानों की संख्या 1212 है।भारतीय वायुसेना में हमलावर विमानों की संख्या 130 है। वहीं, चीनी वायुसेना में हमलावर विमानों की संख्या 371 है।भारतीय नौसेना की फ्लीट स्ट्रेंथ 293 है। वहीं, चीनी नौसेना की फ्लीट स्ट्रेंथ 754 है।भारतीय नौसेना के पास 18 पनडुब्बियां हैं। वहीं, चीनी नौसेना के पास 61 पनडुब्बियां हैं।भारतीय नौसेना के पास 13 विध्वंसक हैं। वहीं, चीनी नौसेना के पास 50 विध्वंसक हैं। जाहिर है कि यह खाई पाटना कोई एकाध दिन की बात नहीं है। भारत को विभिन्न स्तरों पर इसके लिए प्रयास करना है। इस दृष्टि से भारत का फ्रांस से राफेल एम की खरीद का निर्णय सामरिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण व बड़ा कदम है। हम सभी यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत की सैन्य क्षमता पाकिस्तान के मुकाबले पहले से ही बहुत मजबूत है, लेकिन आज की स्थितियों में भारत को अपनी सैन्य क्षमता इसलिए भी बढ़ाने की आवश्यकता है, क्योंकि भारत अनेक मोर्चों पर आज चीन की विस्तारवादी नीतियों और पाकिस्तान की साम्प्रदायिकता मानसिकता की ताकतों का लगातार मुकाबला कर रहा है। उल्लेखनीय है कि हिंद महासागर में चीन की गतिविधियां, विशेष रूप से उसकी नौसैनिक और रणनीतिक उपस्थिति, काफी बढ़ रही हैं। पाठक जानते होंगे कि जब श्रीलंका आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा था, उस समय हंबनटोटा को 99 साल के लिए चीन को पट्टे पर दिया जाने ने यह दिखाया कि बीजिंग किस तरह से बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव को हथियार के रूप में प्रयोग कर रहा है। कहना ग़लत नहीं होगा कि  चीन को कड़ा संदेश देने की दृष्टि से भी भारत को अत्याधुनिक हथियारों की संख्या बढ़ाने की आज आवश्यकता है। गौरतलब है कि चीन म्यांमार में क्यौकप्यू में एक गहरे समुद्र बंदरगाह का निर्माण कर रहा है। यह परियोजना भारत के लिए एक रणनीतिक चिंता का विषय है क्योंकि यह चीन के ‘मोतियों की माला’ रणनीति के तहत बनाई जा रही है, जिसका उद्देश्य भारत को घेरना है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि ‘मोतियों की माला’ के तहत चीन भारत के आसपास के देशों में बंदरगाहों का निर्माण कर रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि चीन पहले ही पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह में निवेश कर चुका है। इतना ही नहीं, चीन द्वारा मालदीव के मराओ अटोल में भी बंदरगाह का निर्माण किया गया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि इससे चीनी नौसेना की उपस्थिति से भारत की तटीय सुरक्षा पर कहीं न कहीं चिंता पैदा हुई है। अत: वर्तमान में भारत की फ्रांस के साथ यह राफेल डील बहुत ही महत्वपूर्ण और जरूरी थी। निश्चित ही इस डील से भारत रक्षा के क्षेत्र में चीन और पाकिस्तान को कड़ी टक्कर (यदि जरूरत पड़ती है तो) दे सकेगा। हालांकि भारत हमेशा शांति, संयम और सौहार्द को तवज्जो देता आया है और वह पंचशील के सिद्धांतों (एक-दूसरे की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना,आक्रामक कार्रवाई से बचना,एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना,समानता और पारस्परिक लाभ की नीति तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व)में विश्वास करता है।

कबाड़ से जुगाड़ के नवाचार की सौन्दर्यमयी चमक

– ललित गर्ग –

‘कबाड़ से जुगाड़’ सिर्फ़ एक तरीका नहीं, बल्कि एक रचनात्मक दर्शन है जो संसाधनशीलता और नवाचार को बढ़ावा देता है। यह अपसाइकल की गई रचनाओं और सरल समाधानों के माध्यम से अपरंपरागत सोच की शक्ति का प्रमाण है। ‘कबाड़ से जुगाड़’ का दर्शन बेकार वस्तुओं को उपयोगी बनाने और संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने पर जोर देता है। यह दर्शन हमें नए और रचनात्मक समाधान खोजने के लिए प्रेरित करता है, जो मौजूदा समस्याओं को हल करने में मदद करते हैं और इससे कचरे को कम करने और पर्यावरण को बचाने में मदद मिलती है। यह आत्मनिर्भरता का भी दर्शन है, जो हमें अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए खुद पर निर्भर रहने के लिए प्रोत्साहित करता है, यह दर्शन जटिल समस्याओं के लिए सरल और व्यावहारिक समाधान खोजने पर जोर देता है।
जुगाड़ एक बोलचाल का हिंदी शब्द है जिसका मतलब है अपरंपरागत, किफायती नवाचार। कबाड़ से बने म्यूरल, पार्क और अन्य कलाकृतियां ‘कबाड़ से जुगाड़’ के उपक्रम को दर्शाती हैं। कबाड़ से बनाए गए टेलीस्कोप, लेजर लाइट ब्लोइंग कार, वाटर प्यूरीफायर आदि कबाड़ से जुगाड़ के उदाहरण है। चंडीगढ़ का रॉक गार्डन, जुन्नारदेव जनपद पंचायत के बरेलीपार गांव के ग्रामीणों का कबाड से बना स्वच्छता पार्क एवं मेरठ का ‘कबाड़ से जुगाड़’ अभियान ऐसे विरल एवं अनुकरणीय उदाहरण हैं जो राष्ट्रीय फलक पर चमक रहे हैं। कबाड़ से जुगाड़ बेकार की वस्तुओं से उपयोगी वस्तुएं बनाने की एक प्रक्रिया है। कबाड़ से जुगाड़ ना केवल हमारे पर्यावरण के संरक्षण के लिए बहुत सहायक है बल्कि यह अनुपयोगी वस्तुओं के निपटान का भी एक सटीक उपाय है। इसके माध्यम से हम ऐसी अनुपयोगी वस्तुओं को फेंकने की जगह उनसे कुछ उपयोगी वस्तुएं बना सकते हैं। कबाड़ से जुगाड़ के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था को एक नया आयाम दिया जा सकता है, जो़ रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता की दिशा में उठाया गया एक सार्थक कदम है। हम भारतवासी वैसे भी जुगाड़ू होते हैं जो अपना काम बनाने के लिए हर जगह कुछ ना कुछ जुगाड़ कर लेते हैं। यदि हम अपनी रचनात्मकता कबाड़ से जुगाड़ में लगाएं तो दिनों दिन बढ़ते जा रहे कचरे के निपटान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। इससे प्लास्टिक एवं ई-कचरे में निरंतर कमी आती जाएगी और पर्यावरण संरक्षण भी बढ़ेगा। संसाधनों पर वह भी बोझ कम पड़ेगा।
मेरठ का ‘कबाड़ से जुगाड़’ अभियान अब राष्ट्रीय फलक तक चमका, एक सकारात्मक सोच एवं सृजन का अनूठा उदाहरण बन गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात के 93वें संस्करण में योगी आदित्यनाथ सरकार के इस प्रयास की काफी सराहना की। शहरों को संवारने के प्रदेश सरकार के सपनों को साकार करते हुए मेरठ नगर निगम ने निष्प्रयोज्य वस्तुओं से कम लागत में ही शहर की आभा में चार चांद लगा दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि यह प्रयास पर्यावरण की सुरक्षा और शहर के सुंदरीकरण से जुड़ा है। निष्प्रयोज्य वस्तुएं स्क्रैप, पुराने टायर, कबाड़, खराब ड्रम से भी कम खर्चे में कैसे शहर को संवारा जा सकता है, मेरठ इसकी बानगी है। कम खर्चे में सावर्जनिक स्थलों का सुंदरीकरण कैसे हो, यह अभियान इसकी मिसाल है। खराब पड़ी चीजों का प्रयोग कर शहर को सजाया गया। गांधी आश्रम चौराहा, गढ़ रोड पर लोहे के स्क्रैप, पुराने पहियों से फाउंटेन निर्मित कराया गया। सर्किट हाउस चौराहे पर लाइट ट्री, पुराने बेकार ड्रमों से स्ट्रीट इंस्टलेशन, हाथ ठेली के बेकार पहियों से बैरिकेडिंग कर मिनी व्हील पार्क, जेसीबी के पुराने टायरों से डिस्प्ले वॉल, पार्कों में बैठने के लिए स्टूल मेज आदि की व्यवस्था की गई। मेरठ नगर निगम ने शहर को चमकाने के लिए अनोखे प्रयोग किए, जो काफी सफल रहे। दरअसल नगर निगम में बने गोदाम में पड़े कबाड़ की न तो उचित कीमत मिल रही थी और न ही इसका सही उपयोग एवं निपटान हो रहा था, पर योगी सरकार की पहल पर नगर आयुक्त अमित पाल शर्मा ने शहर को जगमगाने का निर्णय लिया। लाइटिंग वाला कृत्रिम पेड़ भी न सिर्फ लोगों को आकर्षित कर रहा है, बल्कि शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा रहा है। इसकी आभा देख लोग निहाल और अचंभित हो रहे हैं।
कबाड़ से जुगाड़ का मतलब है बेकार पड़ी चीजों से कुछ उपयोगी या रचनात्मक बनाना, जैसे कि कचरे से सुंदर सजावटी वस्तुएं, या बेकार प्लास्टिक से जूते-चप्पल बनाना। ग्रामीणों ने कबाड़ से एक सुंदर स्वच्छता पार्क बनाया, जिसमें सजावटी वस्तुएं, आरामदायक बैठने की व्यवस्था और स्वच्छता से संबंधित कलाकृतियाँ शामिल हैं। बच्चों को सिखाने के लिए कबाड़ के सामान से खिलौने बनाए जा सकते हैं, जैसे कि टेलीस्कोप, लेजर लाइट ब्लोइंग कार, रबर बैंड नाव, टेबल लैंप, वाटर प्यूरीफायर आदि। बेकार लकड़ी, प्लास्टिक और अन्य सामग्रियों से फर्नीचर बनाया जा सकता है, जैसे कि टेबल, कुर्सी, और अलमारी। कबाड़ से कलाकृतियाँ बनाई जा सकती हैं, जैसे कि पेंटिंग, मूर्तिकला, और सजावटी वस्तुएं। पुराने कपड़ों से नए कपड़े या बैग बनाए जा सकते हैं। कबाड़ से खाद और अन्य उपयोगी चीजें बनाई जा सकती हैं, जो खेती के लिए उपयोगी हो सकती हैं। जयपुर फुट, यह एक कृत्रिम अंग है जो कम लागत में बनाया जाता है और यह ‘जुगाड़’ मानसिकता का एक बेहतरीन उदाहरण है।
प्लास्टिक के कबाड़ को रिसाइकल करके उपयोगी चीजें बनाई जा सकती हैं, जैसे कि प्लास्टिक दाना जो फुटवियर फैक्ट्रियों में इस्तेमाल होता है। कबाड़ से विभिन्न उपकरण बनाए जा सकते हैं, जैसे कि पानी फिल्टर, यांत्रिक उपकरण आदि। कबाड़ से सजावटी वस्तुएं बनाई जा सकती हैं, जैसे कि विंड चाइम, फोटो फ्रेम, फूलों के गमले, आदि। जो सामान घर में उपयोग ना हो तो वह कबाड़ में तब्दील हो जाता है। इसके बाद उसे ऐसे ही बाहर फेंक दिया जाता है। अगर यही कबाड़ आपकी सेहत बनाने का काम करने के साथ ही गांव और शहर की सुंदरता में चार चांद लगा दे तो यह अपने आपमें चर्चा एवं अनुकरणीय उदाहरण बन जाता है। कुछ ऐसा ही किया है आदिवासी ग्राम पंचायत बरेलीपार के लोगों ने, खेतों में उपयोग होने वाले औजारों सहित घर की खराब वस्तुओं का उपयोग कर ग्रामीणों ने ऐसा काम किया कि जो भी देखता है तो दंग रह जाता है। कबाड़ से ग्रामीणों ने स्वच्छता पार्क बनाने के साथ ही हेलीकॉप्टर तक बना दिया। कबाड़ के जुगाड़ से ग्रामीणों ने सुंदर पार्क का निर्माण किया तो लोगों की सेहत बनाने में भी कारगर साबित हो रहा है।
आज दुनिया के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं, जिसमें से ई-वेस्ट एक नई उभरती विकराल एवं विध्वंसक समस्या भी है। दुनिया में हर साल 3 से 5 करोड़ टन ई-वेस्ट पैदा हो रहा है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर के मुताबिक भारत सालाना करीब 20 लाख टन ई-वेस्ट पैदा करता है और अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद ई-वेस्ट उत्पादक देशों में 5वें स्थान पर है। दुुनिया डिजिटल अर्थव्यवस्थाओं की ओर तेजी से बढ़ रही है, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी आधारित सेवाएं एवं इलेक्ट्रोनिक क्रांति ने लोगों के जीवन को आसान बना दिया है, लेकिन अर्थव्यवस्था एवं जीवन का डिजिटल अवतार इलेक्ट्रोनिक कचरे की शक्ल में एक नयी चुनौती एवं जटिल समस्या को लेकर आया है। घरों में इस्लेमाल होनेवाले कूलर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर जैसी वस्तुओं के अलावा कार्यालय में लैपटॉप, कम्पयूटर, मोबाइल, डिजिटल घड़ी, टीवी तय समय के बाद ई-कचरे में परिवर्तित हो जाते हैं। इस ई-कचरे का निपटान बड़ी समस्या है। इसी क्रम में पूर्व दिल्ली सरकार ने घोषणा की थी कि दिल्ली में भारत का पहला ई-कचरा इको-पार्क खोला जायेगा। 20 एकड़ में बनने वाले इस पार्क में बैटरी, इलेक्ट्रॉनिक सामान, लैपटॉप, चार्जर, मोबाइल और पीसी से अनूठे एवं दर्शनीय चीजों को निर्मित किया जायेगा। इसी कड़ी में कानपुर में ई-वेस्ट प्रबंधन का एक बेहतरीन मॉडल सामने आया है। यहां जयपुर के एक कलाकार ने ई-वेस्ट से 10 फीट लंबी मूर्ति बनाई है। इसे बनाने में 250 डेस्कटॉप और 200 मदरबोर्ड, केबल और ऐसी अनेक खराब इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का इस्तेमाल किया गया है।

भजन: राधे कृष्णा

तर्ज: ब्रज रसिया

मु: जय जय राधे श्याम सावरिया,
मन में सुमिरन करि लै।
मन में सुमिरन करि लै,
तू अपने ह्रदय मजि लै।
जय जय राधे श्याम सावरिया _

अंत १ : बड़ी दयालु हैं राधा रानी,
इन् से चलती प्रेम कहानी।
मि: प्रेम जगत का सार,
तू मोह माया तजि लै
जय जय राधे श्याम सावरिया _

अंत २ : नटवर नंदन कृष्णा कन्हैया,
पार लगावे भव से नैया।
मि: कर्षित कर दे जो सबका मन,
तू कृष्णा कृष्णा रट लै।।
जय जय राधे श्याम सावरिया _

अंत ३: बंसी बजैया गैया चरैया,
यशोदा जी हैं या की मैया।
मि:वासुदेव सुत देवकी छैया,
को तू भजि लै।।
जय जय राधे श्याम सावरिया _

अंत ४: नन्दो जप लै श्याम सलोना ,
कभी पड़े ना तुझको रोना।।
मि: सुबह शाम और आठों याम,
श्यामा श्यामा रट लै।
जय जय राधे श्याम सावरिया _

अच्छे नहीं हैं हालात मज़दूर के

डॉ घनश्याम बादल

आज एक मई है, इस दिन हर साल एक दुनिया भर में मजदूर दिवस मनाया जाता है। अतः कहा जा सकता है कि आज का दिन श्रमिक अधिकारों और उनकी संघर्षगाथा से जुड़ा दिन है।

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत 1886 के शिकागो हेमार्केट आंदोलन से हुई । तब शिकागो में मजदूरों ने 8 घंटे कार्य दिवस की मांग को लेकर प्रदर्शन किया था। पर उद्योगपतियों के षड्यंत्र के चलते यह प्रदर्शन हिंसक हो गया और कई मजदूरों की जान गई। इस तरह मजदूर के अधिकारों के लिए किया गया पहला आंदोलन अच्छा नहीं रहा लेकिन मजदूरों ने हार नहीं मानी और 1889 में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में एक मई को उन मजदूरों की स्मृति में मजदूर दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत हुई। जहां तक भारत की बात है तो यहां पहली बार मजदूर दिवस 1923 में चेन्नई में मना और तब से लगातार यह दिवस मनाया जा रहा है लेकिन सवाल यह है कि 100 साल से ज़्यादा हो गए मजदूर दिवस मनाते हुए लेकिन मजदूरों की हालत आज भी बहुत अच्छी नहीं कहीं जा सकती।

महंगाई के कारण मजदूरों की वास्तविक क्रयशक्ति बहुत कम है और और स्थिति यह है कि पूरे दिन कमर तोड़ मेहनत करने के बावजूद मज़दूर और उसके परिवार को न भरपेट खाना मिल पाता है और नहीं उसका जीवन स्तर संतोषजनक है। ऐसे में मजदूरों के हित के लिए बहुत से कदम है उठाने की ज़रूरत है आज।‌

कुछ ऐसा किए जाने की ज़रूरत है कि केवल कानून एवं किताबों में नहीं बल्कि वास्तविक धरातल पर सभी क्षेत्रों में न्यूनतम वेतन अधिनियम को लागू हो और उल्लंघन करने वालों के सख्त खिलाफ कार्रवाई हो। स्वास्थ्य बीमा, पेंशन योजनाएं को दृढ़ता पूर्वक असंगठित क्षेत्रों में भी लागू किया जाए। कौशल विकास जैसी योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन हो ताकि मजदूर अधिक वेतन वाली नौकरियाँ पा सकें। एक मजबूत लेबर इन्फोर्समेंट सिस्टम बनाया जाए जिससे मज़दूरों का शोषण न हो। यूनियनों और मजदूर संगठनों को मजबूत किया जाए ताकि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सकें।

भारत में मजदूरों की स्थिति पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 56.5 करोड़ लोग कार्यबल का हिस्सा हैं। इनमें से । 45% कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं।11.4% निर्माण क्षेत्र में। 28.9% सेवा क्षेत्र में और 13% निर्माण क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें से 57.3% लोग स्वरोजगार में लगे हैं जबकि 18.3% लोग घरेलू उद्यमों में बहुत कम वेतन पर कार्यरत हैं। 21.8% लोग आकस्मिक मजदूरी करते हैं। 20.9% नियमित वेतन या वेतनभोगी कर्मचारी हैं।

केंद्र सरकार ने अक्टूबर 2024 से न्यूनतम वेतन दरों में वृद्धि की है:। अत्यधिक कुशल श्रमिकों के लिए: ₹1,035, कुशल श्रमिकों के लिए: ₹954 प्रतिदिन का वेतन तय किया गया है जबकि अर्ध-कुशल श्रमिकों के लिए: ₹868 प्रतिदिन व अकुशल श्रमिकों के ₹783 प्रतिदिन निश्चित किया गया है जो एक अच्छा कदम है। मगर दूसरी सरकारी घोषणाओं की तरह यह घोषणा भी ज़मीन पर कम एवं कागज़ों पर अधिक नजर आती है । हालांकि न्यूनतम वेतन दरें निर्धारित हैं, लेकिन वास्तविकता में अधिकांश श्रमिकों को बहुत कम वेतन मिलता है।

आज भी मजदूरी करने वाले लोग महीने में ज्यादा से ज्यादा 20- 22 दिन कार्य प्राप्त कर पाते हैं वहीं इनमें से एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो शारीरिक एवं मानसिक थकान के चलते हुए अपनी इच्छा से ही 18 दिन से ज्यादा काम नहीं करता इसलिए इनके मासिक वेतन की बात करना ही बेमानी है। असंगठित क्षेत्र का हाल तो और भी खराब है । भारत में लगभग 82% कार्यबल असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है, जहां श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा, नियमित व पूरा वेतन, पेंशन, पी एफ ,ई पी एफ और अन्य लाभ नहीं मिलते।

जहां मजदूरों को कम वेतन मिलता है वहीं विभिन्न कारणों से सदैव ऋणी रहते हैं आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3 लाख श्रमिक ऋण बंधन की स्थिति में हैं, विशेषकर तमिलनाडु, कर्नाटक और ओडिशा में। यहां श्रमिक औसतन 47 से 52 घंटे प्रति सप्ताह कार्य करते हैं, जो वैश्विक औसत से बहुत अधिक है।

महिला श्रमिकों की स्थिति तो और भी खराब है । महिला श्रमिकों की संख्या भारत में 2017-18 में 23.3% से बढ़कर 2022-23 में 37% हो गई हालांकि महिला श्रम भागीदारी बढ़ी है, लेकिन अधिकांश महिलाएं असंगठित और कम वेतन वाले क्षेत्रों में कार्यरत हैं।

आज के हालात देखते हुए भारत को 2030 तक हर साल लगभग 78.5 लाख गैर-कृषि नौकरियों की आवश्यकता है।

आज यह आवश्यक है कि भारत में श्रमिकों की स्थिति पर गंभीरता से विचार हो । सरकार, उद्योग और समाज को मिलकर श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा, उचित वेतन, सामाजिक सुरक्षा और बेहतर कार्य परिस्थितियों को सुनिश्चित करना चाहिए। इससे न केवल श्रमिकों का जीवन स्तर सुधरेगा, बल्कि देश की आर्थिक प्रगति भी सुनिश्चित होगी।

भारत में केवल वयस्क एवं महिला श्रमिक ही नहीं अपितु बाल श्रमिकों की भी भारी तादाद है और उनकी हालत भी अच्छी नहीं है। यहां बाल श्रम एक गंभीर सामाजिक व आर्थिक समस्या है, जो बच्चों के बचपन, शिक्षा और भविष्य को प्रभावित करती है।

राष्ट्रीय बाल श्रम सर्वेक्षण (2011 जनगणना) के अनुसार 5 से 14 वर्ष की आयु के लगभग 1 करोड़ से अधिक बच्चे श्रम में लगे हुए थे। इन बच्चों में से 70% से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों से हैं। यूनिसेफ के अनुसार भारत में बाल श्रम में कमी आई है, लेकिन अभी भी 8-10 मिलियन बच्चे अलग-अलग रूपों में श्रम कर रहे हैं। बाल मज़दूर यहां घरेलू नौकर, चाय की दुकान, रेस्तरां, निर्माण स्थल, ईंट भट्टा, खेतों, फैक्ट्रियों, और खतरनाक उद्योगों में खूब काम करते हैं जो अवैधानिक होते हुए भी लगातार जारी है। कई बार मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी के तहत भी बच्चों को काम कराया जाता है।

दरअसल मेहनत मजदूरी करना इन बच्चों की मज़बूरी है जिसका मुख्य कारण है

गरीबी । माता-पिता की आय कम होने से बच्चे काम करने को मजबूर होते हैं। अशिक्षा और जागरूकता की कमी भी इसकी जिम्मेदार है। परिवारों को नहीं पता कि सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा का अधिकार है।

यहां बच्चों से कम पैसों में काम कराया जाता है क्योंकि यहां बालश्रम कानून का पालन न के बराबर किया जाता है निगरानी और सजा की प्रक्रिया भी कमजोर है।बाल श्रम को समाप्त किया जा सकता है बशर्ते कि शिक्षा को यथार्थ के धरातल पर अनिवार्य और आकर्षक बना दें ।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम सख्ती से लागू हो, स्कूलों में मिड-डे मील, मुफ्त किताबें और वर्दी जैसी योजनाओं को सुधारा जाए व उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति को सबल किया जाए और माता-पिता को जागरूक किया।

इसके लिए जरूरी है कि गांव एवं शहरों में‌ जनजागरूकता अभियान चलाया जाए।

ग्बाल अधिकारों और शिक्षा के महत्व का प्रचार-प्रसार किया जाए, स्वयंसेवी संस्थाओं की भागीदारी बढ़े, । बाल श्रमिकों को छुड़ाने के बाद उन्हें स्कूलों में दाखिला, मनोवैज्ञानिक परामर्श, और कौशल प्रशिक्षण देना समय की मांग है। ।

बालश्रम केवल एक सामाजिक अपराध ही नहीं, बल्कि देश के भविष्य से खिलवाड़ है। जब हर बच्चा स्कूल में होगा, तभी भारत सही मायनों में विकासशील से विकसित देश बन सकेगा।

डॉ घनश्याम बादल

प्रेस का स्वतंत्र, निडर और पारदर्शी होना आवश्यक है 

प्रत्येक वर्ष 3 मई को अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता स्‍वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। लोकतंत्र में प्रेस का बहुत महत्व है। जैसा कि प्रेस के बारे में यह कहा गया है कि ‘प्रेस की स्वतंत्रता के बिना न तो लोकतंत्र है, न पारदर्शिता है और न ही न्याय है।’ प्रेस की स्वतंत्रता किसी देश के नागरिकों को सरकार और अन्य संस्थानों के कार्यों की निगरानी करने में मदद करती है, जिससे वे सूचनाओं को प्राप्त कर सकते हैं और जागरूक बन सकते हैं।यहां पाठकों को बताता चलूं कि वाल्टर क्रोनकाइट ने प्रेस की स्वतंत्रता के बारे में यह बात कही है कि ‘प्रेस की स्वतंत्रता न केवल लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह स्वयं लोकतंत्र है।’वास्तव में, यह (3 मई का दिन) पारदर्शिता, जवाबदेही और सार्वजनिक सूचनापरक चर्चा के लिए ‘स्वतंत्र प्रेस’ के महत्व को रेखांकित करने का दिन है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के ‘जन सूचना विभाग’ ने मिलकर इस दिन को मनाने का निर्णय किया था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ‘संयुक्त राष्ट्र महासभा’ ने भी ‘3 मई’ को ‘अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्‍वतंत्रता दिवस’ की घोषणा की थी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार यूनेस्को महासम्मेलन के 26वें सत्र में वर्ष 1993 में इससे संबंधित प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था। सच तो यह है कि 1993 से हर साल 3 मई को मनाया जाने वाला विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस प्रेस की स्वतंत्रता के सार्वभौमिक महत्व और लोकतंत्र, पारदर्शिता और मानवाधिकारों की रक्षा में पत्रकारिता की भूमिका की याद दिलाता है। यहां यह भी गौरतलब है कि नामीबिया में वर्ष 1991 में अपनाई गई ‘विंडहोक घोषणा’ में मुक्त, स्वतंत्र और बहुलवादी प्रेस का आह्वान किया गया था। पाठकों को बताता चलूं कि ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ 2025 का आधिकारिक विषय/थीम ‘बहादुर नई दुनिया में रिपोर्टिंग – प्रेस स्वतंत्रता और मीडिया पर कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रभाव’ रखा गया है। वास्तव में यह थीम इस बात पर प्रकाश डालती है कि कैसे उभरती हुई तकनीकें, खास तौर पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), पत्रकारिता को नया आकार दे रही हैं, सूचना तक पहुँच को प्रभावित कर रही हैं और प्रेस की आज़ादी के लिए नई चुनौतियाँ पैदा कर रही हैं। सच तो यह है कि यह तेज़ी से विकसित हो रहे ‘डिजिटल परिदृश्य’ में पत्रकारिता की अखंडता की रक्षा करने की ज़रूरत पर ज़ोर देता है।वास्तव में, इस दिन के मनाने का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार के उल्लघंनों की गंभीरता के बारे में जानकारी देना है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि हर साल 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस भी मनाया जाता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय प्रेस दिवस 2024 की थीम ‘ प्रेस की बदलती प्रकृति’ रखी गई थी।बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि प्रेस हमेशा स्वतंत्र और जिम्मेदार होनी चाहिए, क्यों कि यह प्रेस ही है जो जहां एक ओर जनमत को आकार देती है , सूचनाओं का प्रसार करती है, सरकार और अन्य शक्तिशाली संस्थाओं की जवाबदेही सुनिश्चित करती है, तथा जनता को शिक्षित व जागरूक करने में मदद करती है। वास्तव में प्रेस लोकतंत्र की सच्ची प्रहरी और वाच डाग की भूमिका निभाती है। प्रेस ही किसी समाज और देश में विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों को बढ़ावा देती है जिससे देश और समाज को उन्नति और प्रगति के पथ पर अग्रसर होने में मदद मिलती है। वास्तव में सूचनाओं के प्रसार का यह (प्रेस) सबसे बड़ा उपकरण है। कहना ग़लत नहीं होगा कि एक स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र की रक्षा करने और एक पारदर्शी, सशक्त एवं जवाबदेह सरकार को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। आज प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए दृढ़ राजनीतिक संकल्पों के साथ ही न्यायिक दृढ़ संकल्प भी बहुत आवश्यक है। वास्तव में प्रेस की स्वतंत्रता से तात्पर्य यह है कि वह विभिन्न पत्रकारों और मीडिया संगठनों को सेंसरशिप या सरकारी हस्तक्षेप के बिना कार्य करने की अनुमति दे। यदि हम यहां पर प्रेस की संवैधानिक पृष्ठभूमि की बात करें तो भारत के संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता का उल्लेख नहीं किया गया है। हालाँकि, यह बात अलग है कि प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता भारत के संविधान द्वारा अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत प्रदत्त वाक्-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य के अधिकार में निहित है। यह स्वतंत्र पत्रकारिता को प्रोत्साहित करता है और लोगों को सरकार के कार्यों के पक्ष या विपक्ष में अपनी राय देने का अवसर देकर लोकतंत्र को बढ़ावा देता है। वास्तव में देश के सभी नागरिकों को बिना किसी रोक-टोक के अपनी बात रखने, विचारों और विचारों को व्यक्त करने का अधिकार है। हालांकि, इसकी कुछ सीमाएं हैं जैसे कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता। सरल शब्दों में कहें तो प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब है कि समाचार-पत्र, पत्रिकाएं, वेबसाइटें और अन्य मीडिया संगठन अपनी राय, विचार और जानकारी को बिना किसी सरकारी या निजी सेंसरशिप के प्रकाशित कर सकते हैं। बहरहाल, कहना चाहूंगा कि एक स्वतंत्र प्रेस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और जानने के अधिकार सहित मूल अधिकारों का संरक्षक होता है। यह व्यक्तियों और समूहों के अधिकारों का  पक्षसमर्थन कर इन अधिकारों की रक्षा करने में मदद करता है। वास्तव में स्वतंत्र प्रेस के बहुत से महत्व हैं। मसलन यह लोकतंत्र के प्रति जवाबदेही, पारदर्शिता सुनिश्चित करती है। सूचनाओं का प्रसार करती है, विशेषकर उन सूचनाओं को जो छिपाई जा रही हों या जिनको समाज और देश से छिपाने का किसी द्वारा प्रयास किया जा रहा हो। अल्बर्ट कैमस ने ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ को लेकर यह कहा है कि ‘स्वतंत्र प्रेस अच्छा या बुरा हो सकता है, लेकिन स्वतंत्रता के बिना यह कभी भी बुरा नहीं होगा।’ बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि एक स्वतंत्र प्रेस सरकार और अन्य शक्तिशाली संस्थाओं द्वारा सत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने का कार्य करती है। यह भ्रष्टाचार, मानवाधिकारों के हनन और अन्य गलत कृत्यों को उजागर करने में भी मदद करती है। वास्तव में एक स्वतंत्र प्रेस विविध विचारों और दृष्टिकोणों को एक सशक्त मंच प्रदान करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक स्वतंत्र प्रेस विविध आवाज़ों एवं दृष्टिकोणों के लिये मंच प्रदान करता है, जिससे सुनिश्चित होता है कि विभिन्न समुदायों की चिंताओं को सुना जा रहा है। यह (एक स्वतंत्र प्रेस) मानवाधिकारों की रक्षा करने में भी अभूतपूर्व और महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। पाठकों को बताता चलूं कि हमारे देश में भारतीय प्रेस परिषद, सूचना और प्रसारण मंत्रालय,न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन(एनबीडीए),एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया जो कि भारत के प्रमुख समाचार पत्रों और समाचार पत्रिकाओं के संपादकों का एक स्वैच्छिक संघ है, भारत की विधिक प्रणाली (न्यायपालिका सहित) तथा रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स और कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जिम्मेदार संस्थान हैं। आज भारत में प्रेस की स्वतंत्रता से संबद्ध अनेक चुनौतियाँ  विद्यमान हैं। मसलन, आज हमारे देश में भ्रष्टाचार, संगठित अपराध या सांप्रदायिक तनाव जैसे संवेदनशील मुद्दों पर रिपोर्टिंग करने में पत्रकारों को अनेक प्रकार की धमकियों और हिंसा(यहां तक कि हत्या) तक का सामना करना पड़ता है। पत्रकारों और मीडिया संगठनों को प्रायः मानहानि के मुकदमों का भी सामना करना पड़ता है। आज मीडिया का स्वामित्व कुछेक शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों के हाथ में है और इसके कारण संपादकीय निर्णय और नीतियां प्रभावित हो सकतीं हैं, आवाजों की स्वतंत्रता भी प्रभावित हो सकती है।सरकारें विभिन्न मीडिया संगठनों को पुरस्कृत या दंडित करने के लिये विज्ञापन बजट का उपयोग एक साधन के रूप में कर सकती हैं, जो फिर उनकी रिपोर्टिंग को प्रभावित कर सकता है।राजद्रोह कानून और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित विभिन्न कानून प्रेस की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित कर सकते हैं। सेल्फ-सेंशरशिप भी मीडिया की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकती है। अत: आज भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रेस सुनिश्चित करने के लिये जरूरत इस बात की है कि मानहानि और राजद्रोह कानून जैसे कुछ कानूनों में सुधार किया जाना चाहिये। आज प्रेस की स्वतंत्रता का बहुत बार सरेआम उल्लंघन होता है, ऐसे में जरुरत इस बात की है कि प्रेस की स्वतंत्रता के उल्लंघन से जुड़े मामलों में त्वरित और निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया सुनिश्चित की जाए और सख्त कार्रवाई हो। प्रेस सरकारी नियंत्रण और किसी भी राजनीतिक प्रभाव से सदैव मुक्त होनी चाहिए। पत्रकारों को उत्पीड़न, हिंसा और धमकियों से बचाया जाना बहुत आवश्यक और जरूरी है। सच तो यह है आज दमन और धमकियों का सामना कर रहे पत्रकारों को समर्थन देने की आवश्यकता है।मीडिया स्वामित्व पूर्णतया पारदर्शी होना चाहिए। इतना ही नहीं, सार्वजनिक प्रसारण की स्वतंत्रता भी सुनिश्चित होनी चाहिए। पत्रकारिता नैतिक मूल्यों, निष्पक्षता को बढ़ावा देने वाली और निडरतापूर्वक होनी चाहिए। प्रेस की स्वतंत्रता के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी बहुत जरूरी और आवश्यक है। अंत में, फिनले पीटर डन के शब्दों में यही कहूंगा कि ‘पत्रकारिता का कर्तव्य पीड़ितों को सांत्वना देना और सुविधा संपन्न लोगों को कष्ट देना है।’

सुनील कुमार महला,

जलवायु परिवर्तन ने बदली उत्तराखंड की खेती की सूरत

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आलू-गेहूं छोड़ किसानों ने पकड़ी दाल-मसालों की राह, बीते दशक में 27% कम हुई खेती की ज़मीन, 70% गिरी आलू की पैदावार

उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में जलवायु परिवर्तन की मार ने खेती के नक्शे को पूरी तरह बदल दिया है। क्लाइमेट ट्रेंड्स की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक दशक में जहां खाद्यान्न और तिलहन जैसी परंपरागत फसलों का दायरा 27% तक सिमट गया है, वहीं दलहन और मसालों की खेती में ज़बरदस्त उछाल दर्ज किया गया है।

रिपोर्ट ‘पहाड़ों में जल और ताप तनाव: जलवायु परिवर्तन उत्तराखंड के कृषि परिदृश्य को कैसे आकार दे रहा है’ बताती है कि बढ़ते तापमान, अनियमित बारिश और जल संकट के चलते किसान अब गेहूं, धान और आलू जैसी पानी मांगने वाली फसलों से दूरी बना रहे हैं। इनकी जगह अब अरहर, कुल्थी, रामदाना, भट्ट और मक्का जैसी पारंपरिक और लचीली फसलें ले रही हैं।

उत्तराखंड के पहाड़ों में आलू की पैदावार बीते पांच वर्षों में 70% से अधिक घट चुकी है। 2020-21 में जहां आलू का उत्पादन 3.67 लाख मीट्रिक टन था, वह 2023-24 में गिरकर मात्र 1.07 लाख मीट्रिक टन रह गया। इस दौरान आलू की खेती का क्षेत्रफल भी 26,867 हेक्टेयर से घटकर 17,083 हेक्टेयर रह गया।

विशेषज्ञों का मानना है कि बदलते मौसम पैटर्न और घटती बर्फबारी इसकी मुख्य वजह हैं। कृषि विज्ञान केंद्र, उधम सिंह नगर में तैनात डॉ. अनिल कुमार के मुताबिक, “पहाड़ों में आलू की खेती अब पहले जैसी नहीं रही। बारिश और बर्फबारी दोनों का अभाव है, जिससे उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।”

खेती को सिर्फ मौसम ही नहीं, जंगली जानवरों से भी नुकसान हो रहा है। लोक चेतना मंच के अध्यक्ष जोगेंद्र बिष्ट बताते हैं कि खेतों में अब नमी टिकती नहीं और ऊपर से जंगली सूअर रातों को पूरी फसल उजाड़ देते हैं। “पानी की कमी, तापमान में इज़ाफा और जानवरों का बढ़ता खतरा—तीनों ने पारंपरिक फसलों की राह मुश्किल कर दी है।”

भारत के मौसम आपदा एटलस के अनुसार, वर्ष 2023 में उत्तराखंड में कुल 94 दिनों तक चरम मौसम की स्थितियां बनी रहीं, जिससे 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई। साथ ही, तापमान में हर साल 0.02 डिग्री सेल्सियस की औसत बढ़ोतरी दर्ज की गई।

गहत, भट्ट, चना और अरहर जैसी देशी दालें अब किसानों के लिए नई उम्मीद बन रही हैं। ये फसलें कम पानी और कम इनपुट में भी अच्छी उपज देती हैं और पोषण के लिहाज़ से भी काफी समृद्ध हैं।

उत्तराखंड में मसालों की खेती को भी बढ़ावा मिला है। राज्य में हल्दी का उत्पादन 122% बढ़ा है, वहीं मिर्च की खेती में 35% की वृद्धि हुई है। मसालों का कुल रकबा 50% तक बढ़ा है, जबकि उत्पादन में 10.5% की बढ़त देखी गई है।

सरसों, तोरिया और सोयाबीन जैसी तिलहन फसलें अभी छोटे स्तर पर हैं, लेकिन इनमें वृद्धि की प्रवृत्ति दिख रही है। हालाँकि इनकी औसत पैदावार में सुधार की गुंजाइश अभी बाकी है।

उत्तराखंड की पारंपरिक बारानाजा बहुफसली प्रणाली अब इतिहास बनती जा रही है, लेकिन किसान अब नई बहुफसली रणनीतियों के साथ प्रयोग कर रहे हैं। दलहन पर केंद्र सरकार के आत्मनिर्भरता मिशन और बाज़ार सहयोग ने भी किसानों को नई राह अपनाने के लिए प्रेरित किया है।

जोगेंद्र बिष्ट कहते हैं, “पहले जहां किसान धान-गेहूं पर निर्भर थे, अब वे काली सोयाबीन, कुल्थी और मक्का जैसी फसलों की ओर बढ़ रहे हैं। ये न सिर्फ मौसम के अनुकूल हैं, बल्कि बाज़ार में इनकी मांग भी बढ़ रही है।”

क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट यह स्पष्ट संकेत देती है कि उत्तराखंड की पहाड़ी खेती अब बदलाव के दौर से गुजर रही है। जलवायु के अनुकूल, कम पानी और कम इनपुट वाली फसलों की ओर बढ़ता यह झुकाव न सिर्फ खाद्य सुरक्षा की दिशा में अहम कदम है, बल्कि इससे किसानों की आजीविका भी सुरक्षित हो सकती है।

आदि शंकराचार्य ने हिन्दू संस्कृति को पुनर्जीवित किया

आदि शंकराचार्य जयन्ती – 2 मई, 2025
 – ललित गर्ग-

महापुरुषों की कीर्ति युग-युगों तक स्थापित रहती। उनका लोकहितकारी चिंतन, दर्शन एवं कर्तृत्व कालजयी होता है, सार्वभौमिक, सार्वदैशिक एवं सार्वकालिक होता है और युगों-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करता हैं। आदि शंकराचार्य हमारे ऐेसे ही एक प्रकाशस्तंभ हैं जिन्होंने एक महान हिंदू धर्माचार्य, दार्शनिक, गुरु, योगी, धर्मप्रवर्तक और संन्यासी के रूप में 8वीं शताब्दी में अद्वैत वेदांत दर्शन का प्रचार किया था। हिन्दुओं को संगठित किया। उन्होंने चार मठों की स्थापना की, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थित हैं। आदि गुरु शंकराचार्य हिंदू धर्म में एक विशेष स्थान रखते हैं, उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करने का अर्थ है उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना। उनके लिये इतना ही कहा जा सकता है कि वे अनिर्वचनीय है। उन्हें हम धर्मक्रांति एवं समाज-क्रांति का सूत्रधार कह सकते हैं। अपने जन्मकाल से ही शिशु शंकराचार्य के मस्तक पर चक्र का चिन्ह, ललाट पर तीसरे नेत्र तथा कंधे पर त्रिशूल जैसी आकृति अंकित थी, इसी कारण आदि शंकराचार्य को भगवान शिव का अवतार भी माना जाता है। भगवान शिव ने उन्हें साक्षात् दर्शन देकर अंध-विश्वास, रूढ़ियों, अज्ञानता एवं पाखण्ड के विरूद्ध जनजागृति का अभियान चलाने का आशीर्वाद दिया। उन्होंने भयाक्रांत और धर्म विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति और संगठन युक्ति से संबल प्रदान किया था। उन्होंने नए ढंग से हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार किया और लोगों को सनातन धर्म का सही एवं वास्तविक अर्थ समझाया।
आदि शंकराचार्य के अनूठे प्रयासों से ही आज हिन्दू धर्म बचा हुआ है एवं सनातन धर्म परचम फहरा रहा है। शंकराचार्य ने अपने 32 वर्ष के अल्प जीवन में ही पूरे भारत की तीन बार पदयात्रा की और अपनी अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति और संगठन कौशल से उस समय के 72 संप्रदायों तथा 80 से अधिक राज्यों में बंटे इस देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में इस प्रकार बांधा कि यह शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों से स्वयं को बचा सका और अखण्ड बना रहा। ऐसे दिव्य एवं अलौकिक संत पुरुष का जन्म धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आठवीं सदी में वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को केरल के कालड़ी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यम्बा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव की आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, अतः उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं दे रही थीं। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते हुए शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा ‘माँ मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दो, अन्यथा यह मगरमच्छ मुझे खा जायेगां।’ इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की; और आश्चर्य की बात है कि जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे ही तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। इन्होंने गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया, जो आगे चलकर आदि गुरु शंकराचार्य कहलाए।
आदि शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धांत और हिन्दू संस्कृति को पुनर्जीवित करने का अनूठा एवं ऐतिहासिक कार्य किया। साथ ही उन्होंने अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त को प्राथमिकता से स्थापित किया। उन्होंने धर्म के नाम पर फैलाई जा रही तरह-तरह की भ्रांतियों को मिटाने का काम किया। सदियों तक पंडितों द्वारा लोगों को शास्त्रों के नाम पर जो गलत शिक्षा दी जा रही थी, उसके स्थान पर सही शिक्षा देने का कार्य आदि शंकराचार्य ने ही किया। आज शंकराचार्य को एक उपाधि के रूप में देखा जाता है, जो समय-समय पर एक योग्य व्यक्ति को सौंपी जाती है। आदि गुरु शंकराचार्य ने हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए चार अगल दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।
आदि शंकराचार्य ने हिन्दुओं को संगठित करने के लिए सबसे पहले दक्षिण दिशा में तुंगभद्रा नदी के तट पर श्रंृगेरी मठ की स्थापना की। यहां के देवता आदिवाराह, देवी शारदाम्बा, वेद यजुर्वेद और महावाक्य ‘अहं ब्रह्यस्मि’ है। सुरेश्वराचार्य को मठ का अध्यक्ष नियुक्त किया। इसके बाद उन्होंने उत्तर दिशा में अलकनंदा नदी के तट पर बद्रिकाश्रम (बद्रीनाथ) के पास ज्योतिर्मठ की स्थापना की जिसके देवता श्रीमन्नारायण तथा देवी श्रीपूर्णगिरि हैं। यहां के संप्रदाय का नाम आनंदवार, वेद अर्थवेद तथा महावाक्य ‘अयमात्मा ब्रह्य’ है। मठ का अध्यक्ष तोटकाचार्य को बनाया। पश्चिम में उन्होंने द्वारकापुरी में शारदा मठ की स्थापना की जहां के देवता सिद्धेश्वर, देवी भद्रकाली, वेद, सामवेद और महावाक्य ‘तत्वमसि’ है। इस मठ का अध्यक्ष हस्तमानवाचार्य को बनाया। उधर पूर्व दिशा में जगन्नाथ मठ, जहां की देवी विशाला, वेद ऋग्वेद और महावाक्य ‘प्रज्ञान ब्रह्य’ है। यहां उन्होंने हस्तामलकाचार्य को मठ का अध्यक्ष बनाया। इस प्रकार शंकाराचार्य ने अपने सांगठनिक कौशल से संपूर्ण भारत को धर्म एवं संस्कृति के अटूट बंधन में बांधकर विभिन्न मत-मतांतरों के माध्यम से सामंजस्य स्थापित किया।
आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्य तथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्य की रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूं; अयामात्मा ब्रह्म यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्यजी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताया हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है।
जिस युग में आदि शंकराचार्य ने जन्म लिया उस समय देशी-विदेशी प्रभावों के दबाव में भारतीय संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही थी और उसका पतन आरंभ हो गया था। उन्होंने भयाक्रांत और धर्म विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति और संगठन युक्ति से संबल प्रदान किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आदि शंकर जन्म भूमि क्षेत्रम’ में प्रार्थना करते हुए कहा कि आने वाली पीढ़ियां संत-दार्शनिक आदि शंकराचार्य द्वारा हमारी संस्कृति की रक्षा में दिए योगदान की ऋणी रहेंगी। उन्होंने भारत के हर कोने में वेद-वेदांत का प्रसार कर सनातन परंपरा को सशक्त एवं सुदृढ़ किया। दिव्य ज्ञान से आलोकित उनका संदेश देशवासियों के लिए सदैव पथ-प्रदर्शक बना रहेगा। पूर्व राष्ट्रपति एवं दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें प्राचीन परंपरा का भाष्यकार आचार्य बताते हुए लिखा है कि देश के अन्य भाष्यकारों की तरह अपने अध्ययन में उन्होंने कभी भी किसी प्रकार की मौलिकता का दावा नहीं किया। भारत में आदि शंकराचार्य के प्रयास से एक ऐसे आंदोलन का आविर्भाव हुआ जो सनातन वैदिक धर्म को उसकी अस्पष्टताओं और असंगतियों से निकालकर स्पष्ट तथा सर्वसाधारण के लिए स्वीकार्य बनाना चाहता था। उनकी शिक्षा का आधार उपनिषद थे। उनके द्वारा स्थापित मठों की उपासना पद्धतियां सरल है। वेदांत के विरोधियों से शास्त्रार्थ करने के उनके उत्साह के कारण देश के विभिन्न दार्शनिक केंद्रों में जो जड़ता आई थी उनमें एक नए विचार-विमर्श की प्रेरणा आरंभ हुई। शंकर द्वारा स्वीकृत दर्शन तथा संगठन बौद्धों के दर्शन और संगठन से मिलते-जुलते थे। आदि शंकराचार्य ने भारत में बढ़ते विभिन्न मतों पर उन्हीं की पद्धति से अपनी वैचारिक श्रेष्ठता सिद्ध की और सनातन वैदिक धर्म की पुनरुत्थान किया।