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    तड़ी

    दिन तो अब लगता नैराश्य
    सांझ लग रहा तम सा
    खुद की खताओ ने एहसास कराया
    सब ख्वाबों को राख कर बिछाया
    उर की स्वर बताती मेरे बिसात को
    के ,
    तुम्हारा वजूद एक राख सा
    गुजर गया ओ दौर
    जब लगता पल लाख सा
    खुद को ढूंढता मैं निकला,
    गांव, गली , शहर
    सिर्फ़ तड़प, फरेब, हर पहर
    अब तो तुम भी मुझे भ्रमित कर रही
    मेरे वजूद को दीमक सा खा रही
    के ,
    कुछ तो रहम करो , मैं खत्म हो जाऊ
    उससे पहले तब्दील हो जाओ मुझ फ़कीर में,
    और भर दो मेरे जख्मों को, मेरे यातना को
    वक्त, मनुष्य , कब तब्दील हो जाए
    खुद के स्वार्थ के लिए ये भी एक घड़ी है
    ऐसा भी होगा माजरा कौन जानता ?
    के , सत्य है , असत्य है , फरेब है ?
    ये समय भी लगता एक तड़ी है ,

    अप्प दीपो भवः

    बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष

    सतेन्द्र सिंह

    संसार में समय-समय पर ऐसे महापुरुष भी हुए हैं, जिन्होंने अपने ज्ञान के आलोक से मानव जाति को एक नई राह दिखाई है। भारतीय विरासत की ऐसी ही एक महान विभूति गौतम बुद्ध या महात्मा बुद्ध हैं। महात्मा बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में 563 ईसा पूर्व में वैशाख पूर्णिमा के दिन हुआ था। युवावस्था में उन्होंने मानव जीवन के दुखों को देखा। रोगी व्यक्ति, वृद्धावस्था, मृत्यु की सच्चाई और एक प्रसन्नचित्त संन्यासी से प्रभावित होकर बुद्ध 29 वर्ष की अवस्था में सांसारिक जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े। महात्मा बुद्ध ने 528 ईसा पूर्व में वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे आत्मबोध प्राप्त किया। वैशाख पूर्णिमा के दिन ही 483 ईसा पूर्व में कुशीनगर नामक स्थान पर महात्मा बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ। उन्होंने आजीवन संपूर्ण मानव सभ्यता को एक नयी राह दिखाई। दुनिया को अपने विचारों से नया मार्ग- मध्यम मार्ग दिखाने वाले महात्मा बुद्ध भारत के एक महान दार्शनिक, समाज सुधारक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। भारतीय वैदिक परंपरा में उस समय जो कुरीतियां पैदा हो चुकी थीं, उन्हें सबसे पहले ठोस चुनौती महात्मा बुद्ध ने ही दी थी। बुद्ध ने वैदिक परंपरा के कर्मकांडों पर कड़ी चोट के संग-संग वेदों और उपनिषदों में विद्यमान दार्शनिक सूक्ष्मताओं को किसी-न-किसी मात्रा में अपने दर्शन में स्थान दिया। भारतीय सांस्कृतिक विरासत को रूढ़िवादिता से हटाकर उसमें नवाचार का संचार किया।

    बुद्ध का मध्यम मार्ग सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना बुद्ध के समय था। बुद्ध के दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार ‘अप्प दीपो भवः’ अर्थात ‘अपने दीपक स्वयं बनो’ है। मसलन, व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य या नैतिक-अनैतिक का निर्णय स्वयं करना चाहिए। यह विचार इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह ज्ञान और नैतिकता के क्षेत्र में हर व्यक्ति को उसमें प्रविष्ट होने का अवसर प्रदान करता है। बुद्ध दर्शन के ‘मध्यम मार्ग’ का अभिप्राय सिर्फ इतना है कि किसी भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचना चाहिए। बुद्ध परलोकवाद की बजाए इहलोकवाद पर अधिक बल देते रहे। बुद्ध के समय प्रचलित दर्शनों में चार्वाक के अलावा लगभग सभी दर्शन परलोक पर अधिक ध्यान दे रहे थे। उनके विचारों का सार यह था कि इहलोक मिथ्या है और परलोक ही वास्तविक सत्य है। इससे निरर्थक कर्मकांडों और अनुष्ठानों को बढ़ावा मिलता है। बुद्ध ने जानबूझकर अधिकांश पारलौकिक धारणाओं को खारिज किया। महात्मा बुद्ध के विचारों की पुष्टि इस कथन से होती है कि वीणा के तार को उतना नहीं खींचना चाहिए कि वह टूट ही जाए या फिर उतना भी उसे ढीला नहीं छोड़ा जाना चाहिए कि उससे स्वर ध्वनि ही न निकले।

    गौतम बुद्ध ने तत्कालीन रुढ़ियों और अन्धविश्वासों का खंडन कर एक सहज मानवधर्म की स्थापना की। उन्होंने कहा, मनुष्य को संयम, सत्य और अहिंसा का पालन करते हुए पवित्र और सरल जीवन व्यतीत करना चाहिए। उन्होंने कर्म, भाव और ज्ञान के साथ ‘सम्यक‘ की साधना को जोड़ने पर बल दिया, क्योंकि कोई भी ‘अति’ शांति नहीं दे सकती। इसी तरह पीड़ाओं और मृत्यु भय से मुक्ति मिल सकती है। भयमुक्ति और शांति को ही उन्होंने निर्वाण कहा है। उन्होंने निर्वाण का जो मार्ग मानव मात्र को सुझाया था, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व था, मानवता की मुक्ति का मार्ग ढूंढने के लिए उन्होंने स्वयं राजसी भोग विलास त्याग दिया और अनेक प्रकार की शारीरिक यातनाएं झेली। महात्मा बुद्ध ने सांसारिक दुःखों का कारण अविधा को माना है। तत्कालीन समाज पर इस दर्शन का व्यापक प्रभाव पड़ा। बौद्ध दर्शन के सिद्धांतों और तत्वों का जनमानस पर व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है। बुद्ध के अनुसार जन्म, मृत्यु, संयोग, वियोग आदि सभी दुःखमय हैं। तृष्णा या लालसा सभी दुःखों का कारण है। तृष्णा के निरोध से दुःख की निवृति होती है। बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए हैं- दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निवारण है और दुःखों से मुक्ति संभव है। दुःख का निरोध करने के लिए गौतम बुद्ध ने आठ आर्य सत्य बताए हैं, जिसे अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है। ये अष्टांगिक मार्ग सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक आजीव, सम्यक् भाव, सम्यक् स्मृति, और सम्यक् समाधि हैं। इस अष्टांगिक मार्ग पर चलकर ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। बुद्ध ने अपने विचारों को अति गूढ़ रहस्यों से दूर रखा है। वे न तो तत्व मीमांसा के विवेचना के भ्रम में पड़ते हैं और न आत्मा-परमात्मा के भ्रम में। वे जीवन के अमरत्व और नश्वरता को नहीं मानते हैं। उनका स्पष्ट मानना था, जिस तर्क के अकाट्य प्रमाण न हों, उनसे दूर ही रहना चाहिए। अप्रत्यक्ष और शंका से युक्त तथ्य और रहस्य सदैव निर्माण के मार्ग में बाधा बनते हैं।

    दरअसल दुनिया में आज झगड़े ही झगड़े हैं जैसे- सांप्रदायिकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, नस्लवाद, जातिवाद इत्यादि। इन सारे झगड़ों के मूल में बुनियादी दार्शनिक समस्या यही है कि कोई भी व्यक्ति, देश या संस्था अपने दृष्टिकोण से पीछे हटने को तैयार नहीं है। महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग सिद्धांत को स्वीकार करते ही हमारा नैतिक दृष्टिकोण बेहतर हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं कि कोई भी चीज का अति होना घातक होता है। यह विचार हमें विभिन्न दृष्टिकोणों के मेल-मिलाप और आम सहमति प्राप्त करने की ओर ले जाता है। महात्मा बुद्ध का यह विचार की दुःखों का मूल कारण इच्छाएँ हैं, आज के उपभोक्तावादी समाज के लिए प्रासंगिक प्रतीत होता है। दरअसल प्रत्येक इच्छाओं की संतुष्टि के लिए प्राकृतिक या सामाजिक संसधानों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में अगर सभी व्यक्तियों के भीतर इच्छाओं की प्रबलता बढ़ जाए तो प्राकृतिक संसाधन नष्ट होने लगेंगे, साथ ही सामजिक संबंधों में तनाव उत्पन्न हो जाएगा। ऐसे में अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना समाज और नैतिकता के लिये अनिवार्य हो जाता है। मध्यकाल में कबीरदास जैसे क्रांतिकारी विचारक पर महात्मा बुद्ध के विचारों का गहरा प्रभाव दिखता है। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी वर्ष 1956 में अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले बौद्ध धर्म अपना लिया था और तर्कों के आधार पर स्पष्ट किया था कि क्यों उन्हें महात्मा बुद्ध शेष धर्म-प्रवर्तकों की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक नज़र आते हैं। आधुनिक काल में महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन जैसे वामपंथी साहित्यकार ने भी बुद्ध से प्रभावित होकर जीवन का लंबा समय बुद्ध को पढ़ने में व्यतीत किया।

    महात्मा गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों में कहा है कि मनुष्य को बीते कल के बारे में नहीं सोचना चाहिए। न ही भविष्य की चिंता करनी चाहिए, बल्कि मनुष्य को अपने आज यानि की वर्तमान को सुनहरा बनाने के लिए अपना बेस्ट देना चाहिए, तभी वे अपने जीवन में सुखी रह सकते हैं। महात्मा बुद्ध के मुताबिक क्रोध मनुष्य का सबसे बड़़ा शत्रु होता है, क्योंकि जिस इंसान को अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं होता, वह कई बार ऐसे फैसले ले लेता है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान उसको ही होता है, इसलिए मनुष्य को अपने क्रोध पर काबू करना चाहिए। शक और संदेह के चलते न जाने कितने रिश्ते टूट जाते हैं और परिवार बिखर जाते हैं। इसलिए महात्मा बुद्ध ने कहा है कि संदेह और शक की आदत सबसे ज्यादा खतरनाक और भयानक होती है, इससे बुरा कुछ और नहीं होता, क्योंकि अगर किसी के मन में शक पैदा हो जाए तो चाहकर भी इसे दूर नहीं किया जा सकता है और इसका सीधा असर रिश्तों पर पड़ता है, इसलिए मनुष्य को शक या संदेह नहीं करना चाहिए। महात्मा बुद्ध ने बताया कि मनुष्य चाहे हजारों लड़ाइयां ही क्यों न लड़ लें, लेकिन जब तक वह खुद पर जीत हासिल नहीं करता, तब तक उसकी सारी जीत बेकार हैं। इसलिए खुद पर विजय प्राप्त करना ही मनुष्य की असली जीत है। गौतम बुद्ध ने कहा कि सूर्य, चन्द्र और सच कभी नहीं छिप सकते हैं। मनुष्य को अपने मंजिल की प्राप्ति हो या न हो, लेकिन मंजिल के दौरान की जाने वाली यात्रा अच्छी होना चाहिए। बुराई को कभी बुराई से खत्म नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसे सिर्फ प्रेम से ही जीता जा सकता है। महात्मा बुद्ध के मुताबिक जिस तरह एक जलता हुआ दीपक हजारों दीपक जलाकर प्रकाश फैला सकता है, और उसकी रोशनी कम नहीं होती, उसी तरह खुशियां भी सबसे साथ बांटने से बढ़ती हैं।

    (लेखक जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन में पीजी एवम् मास्टर इन एजुकेशन में अध्ययनरत हैं।)

    भारत की 18 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 4

    चौथी लोकसभा – 1967 – 1971

    देश की चौथी लोकसभा के चुनाव 1967 में संपन्न हुए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के पश्चात होने वाले यह पहले आम चुनाव थे। लाल बहादुर शास्त्री जी को किसी आम चुनाव का सामना नहीं करना पड़ा। उनके पश्चात देश की कमान श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथों में आई। श्रीमती इंदिरा गांधी के काल में यह पहले लोकसभा चुनाव थे। इस चुनाव में देश के मतदाताओं के सामने ना तो नेहरू थे, ना शास्त्री जी थे। उन दोनों के स्थान पर इंदिरा गांधी थीं जो अभी ‘गूंगी गुड़िया’ से आगे कुछ दिखाई नहीं देती थीं। लोग उन्हें कॉलेज की एक छात्रा से आगे मान्यता नहीं देना चाहते थे। कांग्रेस के तत्कालीन बड़े नेताओं ने भी इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ के नाम से ही बोलना पुकारना आरंभ कर दिया था । कुल मिलाकर कांग्रेस के साथ-साथ देश भी नेतृत्व के संकट से जूझ रहा था।

    चौथे आम चुनाव और इंदिरा गांधी

    चौथे आम चुनाव के समय लोकसभा की कुल सीटों की संख्या 523 थी। इंदिरा गांधी बहुत बेहतरीन ढंग से देश को उस समय तक संभालने में असफल रही थीं। कांग्रेस से लोगों का धीरे-धीरे मोह भी भंग होता जा रहा था। यद्यपि अभी परिस्थितियां इतनी अधिक खतरनाक नहीं थीं कि कांग्रेस के लिए सब कुछ प्रतिकूल ही हो चुका हो। इंदिरा गांधी चाहे उसे समय एक गूंगी गुड़िया ही दिखाई दे रही थी पर उन्होंने मन बना लिया था कि जो लोग उन्हें गूंगी गुड़िया के नाम से पुकारते हैं, उन्हें वह हाशिए पर डालकर आगे बढ़ेंगी। कई मामलों में इंदिरा गांधी की संकल्प शक्ति अपने समकालीन नेताओं से कई गुणा अधिक थी। अपनी इसी संकल्प शक्ति के आधार पर वे आगे बढ़ीं और इतिहास में अपना नाम लिखवाया । यद्यपि उनकी यह संकल्प शक्ति कई बार डरी सहमी सी होकर निर्णय लेती हुई भी दिखाई दी। जिसके देश को गंभीर परिणाम भुगतने पड़े।
       देश पहली बार किसी महिला प्रधानमंत्री के नेतृत्व में चुनाव की तैयारी कर रहा था। उन्होंने सत्ता में आने के पश्चात कांग्रेस के उन वरिष्ठ नेताओं की बातों की उपेक्षा करनी आरंभ कर दी जिन्हें उस समय पार्टी और सरकार का वरिष्ठ नेता माना जाता था । उनके भीतर 'नेहरू की बेटी' होने का बहुत बड़ा गर्व था, जिसे कांग्रेस के ही वे नेता पसंद नहीं करते थे जो अपने आप को नेहरू के बराबर का मानते थे। इन नेताओं में कामराज, मोरारजी देसाई, सी0 निजलिंगप्पा ,नीलम संजीवा रेड्डी, सत्येंद्र नारायण सिन्हा , चंद्रभानु गुप्ता, अशोक मेहता, त्रिभुवन नारायण सिंह आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

    इन सभी नेताओं के लिए नेहरू कोई बहुत बड़ी तोप नहीं थे ।वह उन्हें अपने बराबर वालों में प्रथम के स्थान से अधिक मानने को तैयार नहीं थे। सरदार पटेल ने तो एक बार नेहरू जी से कह भी दिया था कि आप इस भूल में मत रहिए कि आप प्रधानमंत्री हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। आपको याद रखना होगा कि आप बराबर वालों में प्रथम मात्र हैं।

    कांग्रेस का हुआ विभाजन

    चौथी लोकसभा के चुनाव हुए तो उसके पश्चात परिस्थिति निरंतर विस्फोटक बनती चली गईं। अंततः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन हो गया। तब कामराज आदि के समूह को सिंडिकेट और इंदिरा गुट को इंडीकेट  कहा जाता था। कामराज बहुत ही सुलझे हुए राजनीतिज्ञ थे। कम पढ़े लिखे होकर भी वह अपनी बुद्धिमत्ता के लिए जाने जाते थे। उनके राजनीतिक कौशल का सामना करना हर किसी नेता के बस की बात नहीं थी। उनकी राजनीतिक बुद्धिमता का स्वयं नेहरू जी भी लोहा मानते थे। जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तो पहले वह स्वयं और उनके पश्चात मोरारजी देसाई कांग्रेस(ओ) के नेता बने।
    कांग्रेस के भीतर जिस प्रकार की कलह की परिस्थितियां बनती जा रही थीं, उनके चलते कांग्रेस की सांगठनिक क्षमताएं प्रभावित हो रही थीं। उस समय दो युद्धों की मार को झेल चुके देश की आर्थिक स्थिति बड़ी डांवाडोल हो चुकी थी। जिससे लोगों का राजनीतिक नेतृत्व पर विश्वास फिर से स्थापित करना इंदिरा गांधी के सामने बड़ी चुनौती थी। राजनीतिक नेतृत्व पहली बार विश्वास के संकट से जूझ रहा था। इंदिरा गांधी के लिए यह एक दु:खद संयोग ही था कि उनको ऐसे संकट से बड़ी चुनौती मिल रही थी। विश्वास के इस संकट और कांग्रेस के आंतरिक कलह ने देश में गठबंधन सरकारों का मार्ग प्रशस्त किया।

    चौथे आम चुनाव में कांग्रेस की स्थिति

       देश की चौथी लोकसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस ने 56% अर्थात 283 सीटों के साथ सदन में बहुमत प्राप्त किया। स्पष्ट है कि यह साधारण बहुमत से छूता हुआ ही बहुमत था। स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ को इस चुनाव में क्रमशः 44 और 35 सीटों के साथ दूसरे और तीसरे स्थान पर रहने का अवसर मिला। कांग्रेस द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) और बीजेएस ने भी एस0सी0 और एस0टी0 श्रेणियों के लिए आरक्षित सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया। कुल मिलाकर यदि देखा जाए तो कांग्रेस चौथे आम चुनाव के पश्चात एक कमजोर राजनीतिक दल के रूप में उभरकर सामने आई। यद्यपि उसे शासन चलाने के लिए बहुमत मिल गया था पर पहले जैसा प्रचंड बहुमत और जनमत उसके साथ नहीं था। राजनीति में प्रचंड बहुमत और जनमत बहुत मायने रखता है। जिस राजनेता के साथ प्रचंड बहुमत और जनमत हो वह कुछ भी करने के लिए अपने आप को सक्षम और समर्थ मानने लगता है। मूर्ख राजनीतिज्ञ इस प्रचंड बहुमत और जनमत का दुरुपयोग करते हैं। जबकि सुलझे हुए राजनीतिज्ञ प्रचंड बहुमत और प्रचंड जनमत का राष्ट्र के हित में सदुपयोग करते हैं। कांग्रेस अभी तक के चुनावों में प्रचंड बहुमत और प्रचंड जनमत के आत्मविश्वास से भरी हुई रहती आई थी पर इस बार के चुनाव परिणामों ने उसके आत्मविश्वास को चोटिल कर दिया था।

    1967 के लोकसभा के चौथे चुनावों के समय देश में मतदाताओं की संख्या बढ़कर 25.2 करोड़ हो गई थी। इस चुनाव पर कुल 7.8 करोड़ रूपया खर्च हुआ था।

    कांग्रेस का संघर्ष और चौथी लोकसभा

    इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में तो आ गई परंतु कांग्रेस का भीतरी कलह अभी रुकने का नाम नहीं ले रहा था। पार्टी के भीतर चल रहा संघर्ष सड़कों पर और अखबारों में भी आ गया था। जिससे संगठन की बड़ी छीछालेदर हो रही थी। जिस संगठन को अंग्रेजों ने भारतवर्ष की बागडोर सौंपी थी, वह इतनी शीघ्रता से इस प्रकार की स्थिति को प्राप्त हो जाएगा, यह किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। जब देश आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा था, उसी समय कांग्रेस का यह अंतर्कलह अपने नए आयामों को छू रहा था। कोई भी नेता पीछे हटने को तैयार नहीं था । उनकी कार्य शैली को देखकर लग रहा था कि ‘महाभारत’ होकर ही रहेगा। पांच गांव लेकर गुजारा करना किसी को गवारा नहीं था। सब की इच्छा थी कि सारा ‘साम्राज्य’ उनके पास आ जाए।

    कांग्रेस का विभाजन

    इसी प्रकार की रस्साकसी के चलते दिन प्रतिदिन पार्टी पतन की ओर जा रही थी। अंत में वह समय भी आ गया जब नवंबर 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन हो गया। कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस0 निजलिंगप्पा ने अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर इंदिरा गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से निष्कासित कर दिया। यह भारतवर्ष के समकालीन इतिहास का और उसके पश्चात से अब तक का भी पहला उदाहरण है जब सत्तारूढ़ पार्टी के किसी शासनाध्यक्ष को उसी की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पार्टी से निष्कासित करने का निर्णय लिया हो।

    कांग्रेस में विभाजन हो जाने के पश्चात इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) के नाम से अपना स्वयं का गुट बनाया। जो लोग कांग्रेस की मूल पार्टी में रह गए थे,उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओ) का नाम दिया गया। जब इंदिरा गांधी को देश की प्रधानमंत्री बनाया गया तो उस समय मोरारजी देसाई जैसे नेताओं की सोच थी कि इंदिरा गांधी बहुत अधिक देर तक प्रधानमंत्री नहीं रह पाएंगी। उनकी सोच के अनुसार इंदिरा गांधी अभी एक छात्रा से बढ़कर और कुछ नहीं थीं। उनका मानना था कि देश की अनेक जटिल समस्याओं के समाधान के लिए इंदिरा गांधी अपने आप को स्वयं ही अनुपयुक्त मानेंगी और प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगी । तब वह स्वयं देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं । परंतु इंदिरा गांधी जब देश की प्रधानमंत्री बन गईं तो वह राम मनोहर लोहिया के शब्दों में ‘गूंगी गुड़िया’ होने के उपरांत भी सभी बुजुर्ग नेताओं की उपेक्षा कर अपने ढंग से शासन चलाने लगीं।
    इससे कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं ने अपना समूह बनाया। इसी समूह को सिंडिकेट का नाम दिया गया। सिंडिकेट के नेता इंदिरा गांधी को ‘तानाशाह’ कहने लगे। इस ‘तानाशाह’ शब्द ने एक ‘गूंगी गुड़िया’ के भीतर नेतृत्व ( जिसे वास्तव में अड़ियलपन कहा जाना उचित होगा) के गुण पैदा किये। उस गुड़िया ने सोचना आरंभ किया कि यदि ये सब नेता (जो उन्हें अपने पिता की अवस्था के दिखाई देते थे) तेरे नेतृत्व से खौफ खाने लगे हैं तो निश्चय की तेरे अंदर कुछ ऐसा है जो इन्हें अखरता है और जो इन्हें अखरता है वही तेरे लिए कमाल का हो सकता है। बस, इसी सोच ने इंदिरा गांधी को ‘इंदिरा गांधी’ बना दिया। उनके अपने विरोधी लोगों ने ही उन्हें ऊर्जा प्रदान कर दी। यद्यपि ‘तानाशाह’ शब्द ने उनके भीतर कुछ इस प्रकार का भाव पैदा किया कि वह डरती और लड़खड़ाती सी आगे बढ़ने लगीं और बौखलाहट व डर के कारण ही उन्होंने एक दिन देश में आपातकाल की घोषणा करवाई।

    देश के राष्ट्रपति का चुनाव और राजनीति

    इस समय देश के अगले राष्ट्रपति का चुनाव होना था। इंदिरा गांधी ने अपनी ओर से वी0वी0 गिरि का नाम चलाना आरंभ किया। वे चाहती थीं कि देश के राष्ट्रपति भवन में एक ऐसा व्यक्ति बैठना चाहिए जो उनकी हर बात पर मोहर लगाने की  सोच रखता हो। सिंडिकेट को ठिकाने लगाने के लिए उन्हें ऐसा करना उचित और आवश्यक प्रतीत हो रहा था । यद्यपि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए जो कुछ भी हो रहा था वह सर्वथा अनुचित, असंवैधानिक और अनैतिक था। उधर सिंडिकेट भी इंदिरा गांधी के हर कदम को बड़ी सावधानी से भांप रहा था। लड़ाई अस्तित्व की आरंभ हो चुकी थी। अस्तित्व को बचाने के लिए सिंडिकेट ने भी नया दांव चल दिया। उसने अपनी ओर से नीलम संजीवा रेड्डी को देश के अगले राष्ट्रपति के रूप में प्रचारित करना आरंभ कर दिया।
     इंदिरा गांधी सत्ता में थीं और नेहरू की बेटी भी थीं। सत्ता की मलाई सबको अच्छी लगती है। इसलिए कांग्रेस के अधिकांश चाटुकार सांसद और विधायक इंदिरा गांधी के इर्द-गिर्द घूमते रहने को ही अच्छा मान रहे थे। कई लोगों की दृष्टि में इंदिरा भविष्य थीं और सिंडिकेट के सभी नेता अतीत बन चुके थे। संसार के लोगों की यह सोच है कि अतीत की बजाय वर्तमान और भविष्य को नमस्कार किया जाए। इंदिरा गांधी को अब कुछ भरोसा होने लगा था। उनके इर्द-गिर्द जमा होने वाली सांसदों और विधायकों की भीड़ उनका उत्साह बढ़ा रही थी। यद्यपि इस सबके होते हुए भी उन्हें डर फिर भी सता रहा था कि सिंडिकेट यदि एक बार हावी हो गया तो उनका राजनीतिक कैरियर सदा सदा के लिए समाप्त हो जाएगा। इसके उपरांत भी उन्होंने सिंडिकेट के विरुद्ध अपने उम्मीदवार को उतार कर अपने सांसदों और विधायकों से से कह दिया कि राष्ट्रपति के चुनाव में वे अंतरात्मा की आवाज के आधार पर अपना मतदान करें ।

    वी0वी0 गिरि बने देश के राष्ट्रपति

                  चुनाव परिणाम के पश्चात वी0वी0 गिरि देश के राष्ट्रपति बन गए। नीलम संजीवा रेड्डी चुनाव हार गए। इंदिरा गांधी ने देश के ताकतवर नेता और अपनी कैबिनेट के वित्त मंत्री मोरारजी देसाई को उनके पद से हटा दिया। इससे मतभेद और भी अधिक गहरा गए। अब दोनों पक्षों को साथ-साथ चलने के लिए एक - एक कदम आगे बढ़ना भी कठिन होता जा रहा था। साथ चलने की सारी संभावनाऐं क्षीण होती जा रही थीं। सिंडिकेट के नेता इस बात को लेकर गहरी सदमे में थे कि संसदीय लोकतंत्र में अपनी ही पार्टी के विरुद्ध यदि अपना ही प्रधानमंत्री उम्मीदवार उतारेगा और पार्टी के नेता पार्टी द्वारा अधिकृत प्रत्याशी का समर्थन नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा ?

    वास्तव में नीलम संजीवा रेड्डी की हार सिंडिकेट की हार नहीं थी, यह संसदीय लोकतंत्र की हार थी। जिसमें प्रत्येक पार्टी या राजनीतिक गठबंधन से अपने प्रत्याशी के प्रति समर्पित और निष्ठावान रहने की अपेक्षा की जाती है।

    इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निकाला गया

    बात अभी रुकने वाली नहीं थी। जैसे-जैसे लोग आगे बढ़ रहे थे वैसे-वैसे ही उनके बीच की विभाजन रेखा स्पष्ट होती जा रही थी। इंदिरा गांधी ने अपने लोगों को उकसाकर कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष निजलिंगप्पा के विरुद्ध हस्ताक्षर अभियान आरंभ करवा दिया। इंदिरा गांधी स्वयं कांग्रेसी लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए राज्यों का दौरा करने लगी थीं। उनके समर्थकों ने कांग्रेस का विशेष सत्र बुलाने की मांग की जिससे कि नये अध्यक्ष का चुनाव हो सके। कांग्रेस के तत्काल इन अध्यक्ष वस्तु स्थिति को समझ चुके थे उनकी समझ में आ चुका था कि यदि इंदिरा गांधी देश का राष्ट्रपति अपने पसंद के व्यक्ति को बनवा सकती हैं तो अब उनका अधिक देर तक अध्यक्ष बने रहना संभव नहीं है। सच्चाई को समझ कर अध्यक्ष निजलिंगप्पा की बौखलाहट बढ़ गई। जिसके कारण उन्होंने इंदिरा गांधी को खुला पत्र लिखा। उधर इंदिरा गांधी ने भी अपने अध्यक्ष की हर बात की अवहेलना करते हुए उनके द्वारा आहूत की गई पार्टी की बैठकों में जाना तक बंद कर दिया। ऐसी परिस्थितियों में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की दो बैठकें अलग-अलग स्थान पर हुईं । एक बैठक प्रधानमंत्री आवास में और दूसरी कांग्रेस के जंतर मंतर रोड स्थित कार्यालय में संपन्न हुई। कांग्रेस कार्यालय में हुई बैठक में नेताओं ने इंदिरा गांधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निकाल दिया और संसदीय दल से कहा कि वह अपना नया नेता चुने। इस प्रकार कांग्रेस के दो टुकड़े हो गए। इंदिरा की पार्टी का नाम रखा गया कांग्रेस (R) और दूसरी पार्टी हो गई कांग्रेस (O)। यह घटना 12 नवंबर 1969 की है।

    सरकार आ गई अल्पमत में

    इस घटना के पश्चात इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई। चौथी लोकसभा के चुनाव के समय इंदिरा गांधी की कांग्रेस को वैसे ही सामान्य बहुमत ही प्राप्त हुआ था। अब उसके लिए नया संकट आ चुका था। कांग्रेस ( 0) के नेता अविश्वास प्रस्ताव लेकर आने का मन बना चुके थे। वह बढ़ चढ़कर उसकी घोषणाएं कर रहे थे। तभी इंदिरा गांधी ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जल्दबाजी में कुछ ऐसे मित्र खोजे ,जिन्होंने अपने समर्थन का भारी मूल्य उनसे लिया। इंदिरा गांधी एक कुशल राजनीतिज्ञा थीं। उन्होंने भी तात्कालिक लाभ लेने के लिए देश के हितों की चिंता न करते हुए समर्थन देने वाले लोगों को मनचाहा मूल्य चुकता कर दिया। उन्होंने सी0पी0आई0 और डी0एम0के0 के समर्थन से कांग्रेस ( 0 ) के अविश्वास प्रस्ताव को गिरवा दिया।
    आगे चलकर कम्युनिस्टों को प्रसन्न करने के लिए 1971 में इंदिरा गांधी ने देश का शिक्षा मंत्री नूरुल हसन को बनाया। जिस व्यक्ति को देश की संस्कृति का कोई ज्ञान नहीं था या जो देश की संस्कृति से ईर्ष्या का भाव रखता था, उसे देश का संस्कृति मंत्री बनाया जाना देश के बुद्धिजीवियों को भी अच्छा नहीं लगा था।
    वास्तव में नेताओं के अहंकार और सत्ता स्वार्थ के चलते नूरुल हसन को देश के शिक्षा मंत्री बनने का अवसर प्राप्त हो गया। जिससे नेताओं का तो कुछ नहीं बिगड़ा, पर देश के इतिहास का सत्यानाश कर नूरुल हसन ने अपना काम कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि देश की आज की युवा पीढ़ी अपने इतिहास से कट कर रह गई है।

    चौथी लोकसभा के विशेष पदाधिकारी

    के.वी.के. सुन्दरम ( 20 दिसंबर 1958 से 30 सितंबर 1967)
    ही चौथी लोकसभा के चुनाव के समय देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे। चौथी लोकसभा के अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी 17 मार्च 1967 से 19 जुलाई 1969 तक रहे। जब वह राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार घोषित किए गए और कांग्रेस का विभाजन होकर कम्युनिस्टों के सहयोग से नई सरकार बनी तो उनके पश्चात गुरदयाल सिंह ढिल्लों 8 अगस्त 1969 से 19 मार्च 1971 तक शेष अवधि के लिए लोकसभा के अध्यक्ष रहे। उपाध्यक्ष के रूप में रघुनाथ केशव खाडिलकर 28 मार्च 1967 से 1 नवंबर 1969 तक और जॉर्ज गिल्बर्ट स्वेल 9 दिसंबर 1969 से 27 दिसंबर 1970 तक रहे। प्रधान सचिव एसएल शकधर ( 2 सितंबर 1964 से 18 जून 1977 तक ) थे।
    चौथी लोकसभा के कुल सदस्य 523 थे। जिनमें से 520 सदस्यों को चुनने के लिए चुनाव हुए थे। चौथी लोकसभा के ये चुनाव 17 से 21 फरवरी 1967 के बीच कराये गए थे। लोकसभा के चुनाव के समय ही राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी आयोजित किए गए, ऐसा करने वाला यह आखिरी आम चुनाव था। इसके पश्चात राज्य विधानसभाओं के चुनाव सामान्य रूप से अलग-अलग होने लगे।

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    आचार्य महाश्रमण: अभिनव आध्यात्मिक क्रांति के प्रेरक

    सन्दर्भ: दीक्षा की स्वर्ण जयन्ती

    -ललित गर्ग-

    भारत की भूमि पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लेकर इस धरा का गौरव बढ़ाया, उसी आलोकधर्मी परंपरा का विस्तार है आचार्य महाश्रमण। महावीर, बुद्ध, गांधी, आचार्य भिक्षु, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ की इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने स्वयं को ऊपर उठाया, महनीय एवं कठोर साधना की, अनुभव प्राप्त किया और अपने अनुभव वैभव के आधार पर दुनिया को शांति, अहिंसा, प्रेम, सौहार्द, अयुद्ध एवं वसुधैव कुटुम्बकम् का सन्देश दिया। अतीत की धुंधली होती आध्यात्मिक परंपरा को आचार्य महाश्रमण एक नई दृष्टि प्रदान की हैं। यह नई दृष्टि एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात कही जा सकती है। विशेषतः उनकी विनम्रता और समर्पणभाव उनकी आध्यात्मिकता को ऊंचाई प्रदत्त रह रहे हैं। भगवान राम के प्रति हनुमान की जैसी भक्ति और समर्पण रहा है, वैसा ही समर्पण आचार्य महाश्रमण का अपने गुरु आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के प्रति रहा है। 22 मई 2024 यानी वैशाख शुक्ला चौदस को आचार्य श्री महाश्रमण की दीक्षा का स्वर्ण जयन्ती समारोह राष्ट्रव्यापी स्तर पर मनाया जा रहा है।
    आचार्य महाश्रमण निरुपाधिक व्यक्तित्व का परिचायक बन गया और इस वैशिष्ट्य का राज है उनका प्रबल पुरुषार्थ, उनका समर्पण, अटल संकल्प, अखंड विश्वास और ध्येय निष्ठा। एमर्सन ने सटीक कहा है कि जब प्रकृति को कोई महान कार्य सम्पन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिये एक प्रतिभा का निर्माण करती है।’ निश्चित ही आचार्य महाश्रमण भी किसी महान् कार्य की निष्पत्ति के लिये ही बने हैं। ऐसे ही अनेकानेक महान् कार्यों उनके जीवन से जुड़े हैं, उनमें एक विशिष्ट उपक्रम बना था अहिंसा यात्रा। आचार्य महाश्रमण ने अपनी आठ वर्षीय इस ऐतिहासिक, अविस्मरणीय एवं विलक्षण यात्रा में उन्नीस राज्यों एवं भारत सहित तीन पड़ोसी देशों की करीब सत्तर हजार किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए अहिंसा और शांति का पैगाम फैलाया। करीब एक करोड़ लोगों को नशामुक्ति का संकल्प दिलाया। नेपाल में भूकम्प, कोरोना की विषम परिस्थितियों में इस यात्रा का नक्सलवादी एवं माओवादी क्षेत्रों में पहुंचना आचार्य महाश्रमण के दृढ़ संकल्प, मजबूत मनोबल एवं आत्मबल का परिचायक बना था। आचार्य महाश्रमण का देश के सुदूर क्षेत्रों-नेपाल एवं भूटान जैसे पडौसी राष्ट्रों सहित आसाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि में अहिंसा यात्रा करना और उसमें अहिंसा पर विशेष जोर दिया जाना अहिंसा की स्थापना के लिये सार्थक सिद्ध हुआ है। क्योंकि आज देश एवं दुनिया हिंसा एवं युद्ध के महाप्रलय से भयभीत और आतंकित है। जातीय उन्माद, सांप्रदायिक विद्वेष और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव- ऐसे कारण हैं जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं और इन्हीं कारणों को नियंत्रित करने के लिए आचार्य महाश्रमण अहिंसा यात्रा के विशिष्ट अभियान के माध्यम से प्रयत्नशील बने थे।
    भारत की माटी में पदयात्राओं का अनूठा इतिहास रहा है। असत्य पर सत्य की विजय हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा की हुई लंका की ऐतिहासिक यात्रा हो अथवा एक मुट्ठी भर नमक से पूरा ब्रिटिश साम्राज्य हिला देने वाला 1930 का डाण्डी कूच, बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा हो अथवा राष्ट्रीय अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और अन्तर्राष्ट्रीय भ्रातृत्व भाव से समर्पित एकता यात्रा, यात्रा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भारतीय जीवन में पैदल यात्रा को जन-सम्पर्क का सशक्त माध्यम स्वीकारा गया है। ये पैदल यात्राएं सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। लोक चेतना को उद्बुद्ध कर उसे युगानुकूल मोड़ देती हैं। भगवान् महावीर ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रदेशों में विहार कर वहां के जनमानस में अध्यात्म के बीज बोये थे। लेकिन इन यात्राओं की श्रृंखला में आचार्य श्री महाश्रमण ने नये स्तस्तिक उकेरे हैं। समस्त पूर्वाचार्यों से एक विशेष कालखंड में सर्वाधिक लम्बी पदयात्रा करने के फलस्वरूप आचार्य श्री महाश्रमण को ”पांव-पांव चलने वाला सूरज“ संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा है।
    आचार्य महाश्रमण का बारह वर्ष के मुनि के रूप में लाडनूं में मेरा प्रथम साक्षात्कार मेरे बचपन की एक विलक्षण और यादगार घटना रही है। लेकिन उसके साढे़ चार दशक बाद उनके गहन विचारों से मेरा परिचय और भी विलक्षण घटना है क्योंकि उनके विचारों से मेरी मन-वीणा के तार झंकृत हुए। जीवन के छोटे-छोटे मसलों पर जब वे अपनी पारदर्शी नजर की रोशनी डालते हैं तो यूं लगता है जैसे कुहासे से भरी हुई राह पर सूरज की किरणें फैल गई। मन की बदलियां दूर हो जाती हैं और निरभ्र आकाश उदित हो गया है। आचार्य महाश्रमण का मानना है कि जिस राष्ट्र ने अपनी संस्कृति को भुला दिया, वह राष्ट्र वास्तव में एक जीवित और जागृत राष्ट्र नहीं हो सकता। उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति का अर्थ है- ऊंची संस्कृति, त्याग की संस्कृति, संयम की संस्कृति और अध्यात्म की संस्कृति है। वे भारतीय संस्कृति की गरिमा से अभिभूत हैं, अतः देशवासियों को अनेक बार भारत के विराट् सांस्कृतिक मूल्यों को अवगति देते रहते हैं। बड़ी अपेक्षा यह है कि भारत अपना मूल्यांकन करना सीखे और खोई प्रतिष्ठा को पुनः अर्जित करे। इसी व्यापक एवं गहन चिंतन के आधार पर उनका विश्वास है कि सही अर्थ में अगर कोई संसार का प्रतिनिधित्व कर सकता है तो भारत ही कर सकता है, क्योंकि भारत की आत्मा में आज भी अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा है। मैं मानता हूं कि यदि भारत आध्यात्मिकता को विस्मृत कर देगा तो अपनी मौत मरेगा।
    आचार्य श्री महाश्रमण का चिंतन है कि भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन ही नहीं, समृद्ध और जीवंत भी है, अतः किसी भी राष्ट्रीय समस्या का हल हमें अपने सांस्कृतिक तत्वों के द्वारा ही करना चाहिए, अन्यथा मानसिक दासता हमें अपनी संस्कृति के प्रति उतनी गौरवशील नहीं रहने देगी। भारत में सांस्कृतिक एकता बनी रही, इसका कारण बताते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा- ‘‘बाहर से आने वाली अन्य संस्कृतियों को भी भारतीय संस्कृति ने अपनी समन्वय शक्ति के बल पर आत्मसात् कर लिया, इसलिए उसका प्रवाह बना रहा।’’ उसी भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में आचार्य श्री महाश्रमण के वार्तमानिक अनुभव प्रेरणादायी, सटीक एवं मार्मिक बन पड़े हैं। भारत कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं। यहां जो सभ्यता विकसित हुई, वह दुनिया में किसी से पराजित नहीं होगी। यदि हमने पश्चिमी सभ्यता की नकल करने की कोशिश की तो हम बरबाद हो जायेंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि उसमें जो अच्छा है और जिसे हम हजम कर सकते हैं, उसे अंगीकार न करें। अचेतन के संबंध में समझने के लिए मैंने आचार्य महाश्रमण को पढ़ना शुरू किया। आचार्य महाश्रमण जिस प्रकार से अचेतन और उसके प्रतिबिम्बों के संबंध में समझाते हैं, बाते गहरे बैठ जाती है।
    स्वल्प आचार्य शासना में आचार्य महाश्रमण ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा से ऐसे जीवन मूल्यों को चुन-चुनकर युग की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य उन्होंने किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों-विचारों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, मंत्र, यंत्र, साधना, ध्यान आदि के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, हिंसा, जातीयता, भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराधीकरण, भ्रूणहत्या और महंगाई के विश्व संकट जैसे अनेक विषयों पर भी अपनी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि प्रदत्त की है। जब उनकी उत्तराध्ययन और श्रीमद् भगवद गीता पर आधारित प्रवचन शृंखला सामने आई, उसने आध्यात्मिक जगत में एक अभिनव क्रांति का सूत्रपात किया है। एक जैनाचार्य द्वारा उत्तराध्ययन की भंाति सनातन परम्परा के श्रद्धास्पद ग्रंथ  गीता की भी अधिकार के साथ सटीक व्याख्या करना न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि प्रेरक भी है। इसीलिये तो आचार्य महाश्रमण मानवता के मसीहा के रूप में जन-जन के बीच लोकप्रिय एवं आदरास्पद है। वे एक ऐसे संत हैं, जिनके लिये पंथ और ग्रंथ का भेद बाधक नहीं बनता। आपके कार्यक्रम, विचार एवं प्रवचन सर्वजनहिताय होते हैं। हर जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय की जनता आपके जीवन-दर्शन एवं व्यक्तित्व से लाभान्वित होती रही है।

    भारत की 17 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 3

    तीसरी लोकसभा – 1962 – 1967

    नेहरू जी के अश्वमेध के घोड़े को कोई रोक पाने की क्षमता नहीं रखता था। उन्होंने अपने राजनीतिक चातुर्य और बुद्धि बल से अपने आप को पूर्णत: निष्कंटक बना लिया था। यही कारण था कि अब वह अजेय नेहरू के रूप में शासन कर रहे थे। भारत से बाहर भी उन्होंने सम्मानपूर्वक कदम बढ़ाए और अनेक प्रकार के सम्मान लेकर स्वदेश लौटे। उन्होंने अपने समय में कई ऐसे विश्व नेताओं के साथ मित्रता पूर्ण संबंध स्थापित किये जिनका समकालीन विश्व राजनीति में विशेष महत्व था। नेहरू जी के इस प्रकार के वैश्विक व्यक्तित्व का भारत के समकालीन समाज पर भी प्रभाव पड़ रहा था। यही कारण था कि लोग उनके साथ जुड़े हुए थे। राजनीति में यह एक बहुत बड़ा गुण माना जाता है कि कोई राजनेता देश के जनमानस को देर तक अपने साथ जोड़े रखे। निस्संदेह देश के पहले प्रधानमंत्री इस विशेष कसौटी पर खरे उतर रहे थे।

    तीसरी लोकसभा और चीन का आक्रमण

    भारत की तीसरी लोकसभा के लिए 1962 में चुनाव संपन्न कराए गए। इस लोकसभा का कार्यकाल 1967 तक रहा। यह लोकसभा कई अर्थों में बहुत महत्वपूर्ण रही। इसी लोकसभा के कार्यकाल के दौरान भारत को चीन के साथ 1962 में युद्ध करना पड़ा। जिसमें तत्कालीन नेतृत्व की गलतियों के कारण देश की पराजय हुई। अभी देश को स्वाधीन हुए मात्र 15 वर्ष हुए थे, इतने समय में ही विदेशी आक्रमणकारी का भारत पर आक्रमण करना और उसमें भी देश को हार का सामना करना यह उस अहिंसावादी नीति की पोल खोल देती है जिसको लेकर यह मिथक गढ़ा गया कि भारत ने अहिंसा के बल पर स्वाधीनता प्राप्त की थी।1962 में मिली इस पराजय ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि देश अहिंसा के बल पर आजाद हो सकता है और ना ही आजादी की रक्षा कर सकता है। आजादी पाने के लिए भी और आजादी की रक्षा करने के लिए भी इसे खून से खींचना ही पड़ता है। 1962 में जब देश के अनेक वीरों ने मातृभूमि के लिए बलिदान देकर आजादी को अपने खून से सींचा तो तत्कालीन नेतृत्व को यह आभास हुआ कि वास्तव में ही आजादी को खून से ही सींचा जाता है।

    तीसरी लोकसभा और नेहरू जी का देहांत

       इसके साथ ही साथ 27 मई 1964 को पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का देहांत हो गया। उनके निधन के पश्चात देश के राजनीतिक गगनमंडल पर एक गहरा शून्य बन गया।
    उस समय की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग हुआ करते थे, जो दलगत राजनीति से ऊपर उठकर बात करना जानते थे। नेहरू जी की मृत्यु के 2 दिन पश्चात अर्थात 29 मई 1964 को देश की संसद में उनकी मृत्यु से बने इस शून्य की ओर संकेत करते हुए अटल जी ने बड़े भावपूर्ण शब्दों में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि , “आज एक सपना खत्म हो गया है, एक गीत खामोश हो गया है, एक लौ हमेशा के लिए बुझ गई है। यह एक ऐसा सपना था, जिसमे भूखमरी, भय डर नहीं था, यह ऐसा गीत था जिसमे गीता की गूंज थी तो गुलाब की महक थी।

    ….यह चिराग की ऐसी लौ थी जो पूरी रात जलती थी, हर अंधेरे का इसने सामना किया, इसने हमे रास्ता दिखाया और एक सुबह निर्वाण की प्राप्ति कर ली। मृत्यु निश्चित है, शरीर नश्वर है। वह सुनहरा शरीर जिसे कल हमने चिता के हवाले किया उसे तो खत्म होना ही था, लेकिन क्या मौत को भी इतना धीरे से आना था, जब दोस्त सो रहे थे, गार्ड भी झपकी ले रहे थे, हमसे हमारे जीवन के अमूल्य तोहफे को लूट लिया गया।
    अटल जी मानो पूरे राष्ट्र की ओर से अपने दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि दे रहे थे। उन्होंने बड़े भावपूर्ण शब्दों में आगे कहा “आज भारत माता दुखी हैं, उन्होंने अपने सबसे कीमती सपूत खो दिया। मानवता आज दुखी है, उसने अपना सेवक खो दिया। शांति बेचैन है, उसने अपना संरक्षक खो दिया। आम आदमी ने अपनी आंखों की रौशनी खो दी है, पर्दा नीचे गिर गया है। दुनिया जिस चलचित्र को ध्यान से देख रही थी, उसके मुख्य किरदार ने
    अपना अंतिम दृश्य पूरा किया और सर झुकाकर विदा हो गया।’

    तीसरी लोकसभा और शास्त्री जी

    पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में गुलजारीलाल नंदा ने 27 मई 1964 से 9 जून 1964 तक कार्यभार संभाला। तत्पश्चात देश को अगला प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के रूप में मिला। जब लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने तो उनके समय में भी पाकिस्तान के साथ देश को मात्र 3 वर्ष पश्चात ही 1965 में एक दूसरे युद्ध से गुजरना पड़ा। देश की अर्थव्यवस्था यद्यपि उस समय किसी भी प्रकार के युद्ध को झेलने की अनुमति नहीं दे रही थी, परंतु देश की तीसरी लोकसभा के कार्यकाल में देश को दो अवांछित युद्धों का सामना करना पड़ा। वास्तव में उस समय पाकिस्तान को यह भ्रम हो गया था कि यदि भारत को चीन पीट सकता है तो वह भी इस काम को कर सकता है। भारत पर आक्रमण करने के लिए उसे चीन ने भी अपना समर्थन दिया। आजादी के बाद उभरते हुए भारत को तुरंत कुचल देने का यह अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र था। जिसमें पाकिस्तान का साथ चीन के साथ-साथ अमेरिका जैसे देश भी दे रहे थे। 
    नेहरू जी के विपरीत शास्त्री जी बहुत ही यथार्थवादी दृष्टिकोण के नेता थे। वह उस समय बहुत अधिक लोकप्रिय नहीं थे। कई लोग ऐसे थे जो उनके नेतृत्व पर शंकाएं व्यक्त कर रहे थे। उनको लेकर लोगों को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह संकट के काल में देश का नेतृत्व कर पाएंगे। पर शास्त्री जी ने अपनी मजबूत संकल्प शक्ति से यह स्पष्ट कर दिया कि वह जितने शांत और विनम्र हैं, उतने ही क्रांतिकारी भी हैं। वह शांति काल में ही नहीं युद्ध काल में भी देश का नेतृत्व कर सकते हैं। 1965 में भारत ने जीत प्राप्त की और अपने इस नेता के माध्यम से सारे संसार को यह संकेत और संदेश दे दिया कि 1962 के युद्ध से भारत ने बहुत कुछ सीखा है और अब लोगों को भारत को नए दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। 

    लाल बहादुर शास्त्री जी कद में छोटे थे परंतु संकल्प शक्ति में उनके कद का नेता उस समय कोई नहीं था। उन्होंने संकल्प लिया कि देश को जिताना है और यही हुआ। उनकी संकल्प शक्ति की विजय हुई। देश ने अपने नेता की संकल्प शक्ति को प्रणाम किया। भारत ने अपना विजय उत्सव मनाया।

    ताशकंद में शास्त्री जी का हुआ देहांत

     1965 के युद्ध के पश्चात सोवियत संघ ने भारत और पाकिस्तान दोनों को अपनी धरती पर समझौते के लिए आमंत्रित किया। दोनों देशों के नेताओं को रूस ने अपने ताशकंद शहर में वार्ता की मेज पर बैठाने का निर्णय लिया। दोनों देशों के नेताओं ने वहां पर वार्ता को धीरे-धीरे आगे बढ़ाया। इस वार्ता में तैयार हुई संधि की सबसे बड़ी और दु:खद शर्त यह थी कि भारत को पाकिस्तान का जीता हुआ क्षेत्र लौटाना पड़ेगा। दोनों देश वहीं लौट जाएंगे, जहां युद्ध से पूर्व उनकी सेनाएं थीं। इस शर्त को शास्त्री जी मानने के लिए तैयार नहीं थे। पर उन पर दबाव बनाकर इस संधि समझौते पर हस्ताक्षर करवाये गये। जिससे शास्त्री जी अत्यंत दु:खी हुए। फलस्वरुप रूस के इसी ताशकंद में देश के यशस्वी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का 11 जनवरी 1966 को संदिग्ध परिस्थितियों में देहांत हो गया। ऐसा भी कहा जाता है कि शास्त्री जी की यह स्वाभाविक मौत नहीं थी।

    शास्त्री जी ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में देश को नेतृत्व देकर अपना नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखवाने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए काम किया और जब देश में अन्न की कमी हुई तो उन्होंने लोगों को सप्ताह में एक दिन व्रत रखने का संकल्प दिलाया। लोगों ने अपने नेता की बात को मानकर ऐसा करके भी दिखाया। उन्होंने युद्ध काल में जिस प्रकार देश का नेतृत्व किया उससे उनकी लोकप्रियता बहुत अधिक बढ़ गई थी। वह तो संसार से चले गए पर उनके जाने के पश्चात पूरे देश में मातम की लहर दौड़ गई।
    इस प्रकार इस तीसरी लोकसभा ने देश के दो प्रधानमंत्री मात्र 2 वर्ष के अंतराल पर ही खो दिए थे।

    इंदिरा गांधी बनीं देश की प्रधानमंत्री

    शास्त्री जी के असमय ही संसार से चले जाने के पश्चात गुलजारीलाल नंदा को फिर कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्होंने 11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966 तक इस पद पर कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। तत्पश्चात भारतवर्ष की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बनीं। वह देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। इस प्रकार मात्र 2 वर्ष के अंतराल पर ही तीसरी लोकसभा ने अपने कार्यकाल में तीसरी प्रधानमंत्री को शपथ लेते हुए देखा।
      तीसरी लोकसभा के लिए भी कुल 508 सीटों पर चुनाव हुआ। तीसरे आम चुनाव में भी कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। इस समय तक पार्टी में आंतरिक उमस बढ़ गई थी। जिससे सत्ता में बैठे लोगों के बीच मतभेद गहरे होते चले गए थे। यद्यपि कांग्रेस के भीतरी मतभेदों को अभी जनता ने पूरी तरह समझा नहीं था। वैसे भी देश की जनता उस समय तक भी शिक्षा के गहरे भंवरजाल से बाहर नहीं निकली थी। उनके लिए नेहरू सचमुच 'बेताज का बादशाह' बन चुके थे। कांग्रेस ने किस प्रकार देश के क्रांतिकारी बलिदानियों, वीर वीरांगनाओं के साथ अत्याचार करते हुए उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया था ? या ऐसी ही और कौन-कौन सी घटनाएं हो चुकी थीं, इसकी जानकारी देश के जनमानस को नहीं थी। 

    कांग्रेस ने जीता तीसरा चुनाव

    जिस समय देश में तीसरी लोकसभा के चुनाव हुए उस समय राम मनोहर लोहिया को पी0एस0पी0 छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। देश के इस महान नेता ने तब निर्णय लिया कि सोशलिस्ट पार्टी के झंडे तले जाकर चुनाव लड़ा जाए। इसी प्रकार दक्षिणपंथी गुटों ने भी स्वतंत्र पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक बार फिर शानदार प्रदर्शन करते हुए 44.72% मत प्राप्त कर लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 9.94% और स्वतंत्र पार्टी ने अपना पहला चुनाव लड़ते हुए 7.89% मत प्राप्त किए। इस समय तक आते-आते कांग्रेस के प्रति लोगों में दूरी बनने का भाव पैदा होता हुआ देखा गया।                राष्ट्रीय स्तर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू को चुनौती देने वाला कोई राजनीतिक दल उस समय देश में नहीं था, परंतु क्षेत्रीय स्तर पर कुछ राजनीतिक दल उभरते हुए दिखाई दिए । जिन्होंने जनमत को अपनी ओर मोड़ने में सफलता प्राप्त की । कालांतर में इन क्षेत्रीय दलों ने देश की राजनीति को कई प्रकार से प्रभावित करना आरंभ किया। उन्होंने सत्ता में भागीदारी प्राप्त करने की शर्तें लगाईं और एक 'दबाव गुट' के रूप में अपनी कार्य शैली को विकसित कर देश की राजनीति को प्रभावित किया। बाद में जब 1977 में कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने में देश का विपक्ष सफल हुआ तो एक प्रकार से उसकी कहानी का शुभारंभ पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय संपन्न हुए लोकसभा के तीसरे चुनाव के समय ही हो चुका था ,जब देश के लोगों ने क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस के मुकाबले पसंद करने का संकेत दिया था।

    नेहरू नहीं रह पाए पंथनिरपेक्ष

     पंडित जवाहरलाल नेहरू पहले दिन से ही अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि पर विशेष ध्यान देते आ रहे थे। उन्होंने जम्मू कश्मीर की रियासत और सियासत को सोने की थाली में सजाकर अपने मित्र शेख अब्दुल्ला के सामने परोस दिया था। वहां पर जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां बनाई गईं कि प्रजा परिषद पार्टी को चुनाव से हटना पड़ा और शेख अब्दुल्ला के लिए मुख्यमंत्री बनने का रास्ता प्रशस्त हो गया।
        प्रजा परिषद पार्टी ने नेहरू के इस प्रकार के पक्षपाती दृष्टिकोण का भरपूर विरोध किया, परंतु नेहरू सत्ता के मद में चूर थे। उन पर प्रजा परिषद पार्टी के इस प्रकार के आंदोलन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। नेहरू अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि के दृष्टिगत मुसलमानों के तुष्टीकरण के लिए निरंतर कार्य करते रहे। पंडित जवाहरलाल नेहरू गुटनिरपेक्षता के नाम पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने आप को प्रमुखता से स्थापित करते रहे। दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर तो गुटनिरपेक्षता की बात कर रहे थे, पर देश में वह अपने आप को गुटनिरपेक्ष (अर्थात पंथनिरपेक्ष शासन के रूप में) नहीं रख पाए। सत्ता में रहकर पंथनिरपेक्ष भाव अपना कर शासन करने में वह असफल रहे। उनका झुकाव मुस्लिम पक्ष की ओर बना रहा। 
    दुःख की बात यह रही कि उन्होंने कई अवसरों पर देश के हितों की उपेक्षा करते हुए भी अपने आप को अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करना अधिक उपयुक्त माना। अपनी इसी सोच के चलते वह उचित समय पर संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में न तो अपने लिए स्थायी सीट ले सके और न ही कश्मीर समस्या को जोरदार ढंग से संसार के नेताओं के समक्ष उठा सके।

    गुटनिरपेक्ष आंदोलन और नेहरू जी

    उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राज्यों का एक ऐसा समूह बनाने का प्रयास किया जो औपचारिक रूप से किसी प्रमुख शक्ति गुट के साथ या उसके विरुद्ध नहीं हो। इसके उपरांत भी वह साम्यवादी रूस के प्रति झुके रहे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गुटनिरपेक्ष आंदोलन भारत के प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू, मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर व युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति डाॅ सुकर्णो एवं घाना – क्वामें एन्क्रूमा के संयुक्त प्रयासों का परिणाम था। इन नेताओं के आंदोलन और विचारों का तत्कालीन विश्व समाज पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। निश्चित रूप से उनके प्रयासों ने तत्कालीन विश्व समाज को अपनी ओर आकर्षित और प्रेरित किया था। कुल मिलाकर इन सभी नेताओं की सोच बहुत अच्छी थी। यह सभी मिलकर संसार को शांति का संदेश देना चाहते थे। इनकी सोच थी कि युद्ध को सदा सदा के लिए विदा कर दिया जाए। मानवता अपने हितों की रक्षा के लिए शांतिपूर्ण प्रयासों के माध्यम से काम करना सीखे। सब देश एक दूसरे का सम्मान करना सीखें। एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना सीखें और एक दूसरे की संप्रभुता को आदर देना अपना स्वभाव बना लें। निश्चित रूप से बहुत बड़ी बातें थीं। पर छल कपट की राजनीति में व्यस्त रहने वाले विश्व नेताओं को नेहरू समेत इन सभी नेताओं की ऐसी बातें उपहासास्पद ही लगती थीं।
    उस समय का विश्व समाज दो बड़ी शक्तियों अर्थात अमेरिका और रूस की प्रतिद्वंदिता के चलते शीत युद्ध की अंधेरी सुरंग में फंसा हुआ था। जिससे युद्ध की संभावनायें कभी भी उभर आती थीं। जिससे छोटे देशों की चिंताएं बढ़ जाती थीं। उन चिंताओं को एक नेतृत्व देने का काम इस गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने किया। इसके उपरांत भी नेहरू के लिए अपने देश के हितों की उपेक्षा कर जाना या अपने लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अनुकूल परिस्थितियां न बनाकर सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट प्राप्त करने से बचना उचित नहीं था। शांति प्रयास बहुत ही अच्छे होते हैं, पर ये अपने देश के हितों की कीमत पर नहीं होने चाहिए।
    गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना अप्रैल,1961में हुई थी।इस संगठन का उद्देश्य गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता, सार्वभौमिकता, क्षेत्रीय एकता एवं सुरक्षा को उनके साम्राज्यवाद, औपनिवेशिकवाद, जातिवाद, रंगभेद एवं विदेशी आक्रमण, सैन्य अधिकरण, हस्तक्षेप आदि मामलों के विरुद्ध सुरक्षात्मक परिस्थितियों सृजित और सुनिश्चित करना था।

    नेहरू जी का खोखला आदर्शवाद

    पंडित जवाहरलाल नेहरू वैसे तो स्वतंत्रता से पूर्व 2 सितंबर 1946 को देश के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे , पर 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक वह प्रधानमंत्री बने रहकर निरंतर देश का नेतृत्व करते रहे। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में देश की सुरक्षा को चुनौती देते हुए चीन ने भारत पर आक्रमण किया। नेहरू जी की देश की सुरक्षा के प्रति बरती गई शिथिलता पूर्ण नीतियों के चलते चीन ने इस युद्ध में भारत को पराजित किया। इतना ही नहीं, वह पूर्व में अरुणाचल प्रदेश की ओर से भारत का बहुत बड़ा क्षेत्र छीनकर भी ले गया। नेहरू जी आदर्श की खोखली बातों में विश्वास करते रहे। वह गांधी जी के अहिंसावादी सिद्धांत को राजनीति में लागू करने का बेतुका प्रयास करते रहे। नेहरू जी यह भूल गए कि गांधी जी स्वयं अहिंसा के मोर्चे पर असफल सिद्ध हो चुके थे। तब उनकी अहिंसावादी नीति को छल, कपट, बेईमानी , मक्कारी और कूटनीति से भरी वैश्विक राजनीति में कैसे लागू किया जा सकता था ?
    ‘अस्तित्व के लिए संकट’ में कभी भी आदर्शवादी खोखली राजनीति और राजनीति की नीतियां सफलता नहीं दिलाती हैं ,वहां पर ‘जैसे को तैसा’ का व्यवहार करना पड़ता है। ‘अस्तित्व के लिए संकट’ की स्थिति में ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’ का सहारा लेना पड़ता है। ध्यान रहे कि संघर्ष किसी प्रकार के आदर्श से नहीं निकलता है बल्कि वह शस्त्र से ही निकलता है। इस प्रकार अस्तित्व की रक्षा के लिए ही शस्त्र की आवश्यकता पड़ती है। ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’ की स्थिति में शस्त्र से बचना आत्महत्या करने के समान होता है।
    1962 के युद्ध का परिणाम देश के लिए निराशाजनक था । चारों ओर निराशाजनक परिस्थितियां निर्मित हो गई थीं। नेहरू स्वयं अब टूट चुके थे। उनके अंतिम दिनों में उन्हें अधरंग मार गया था।
    1962 के युद्ध में मिली हार के सदमे से वह उभर नहीं पाए और 27 मई 1964 को उनका देहांत हो गया। इसके बारे में हम ऊपर ही प्रकाश डाल चुके हैं।
    उस समय देश के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे।

    तीसरी लोकसभा के चुनाव के आंकड़े

    जब देश में तीसरी लोकसभा के चुनाव हुए तो इन चुनावों के समय से ही पहली बार मतदान प्रक्रिया में अमिट स्याही का प्रयोग किया जाना आरंभ हुआ। के.वी.के. सुन्दरम ही इस समय भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त थे। इस चुनाव में कुल मतदाता 21 करोड़ 64 लाख के लगभग थे। जबकि कुल खर्च 7.3 करोड रुपए आया था। 1957 के दूसरे लोकसभा चुनाव की अपेक्षा इस चुनाव में थोड़ा खर्च बढ़ा, यद्यपि वह लोकसभा के पहले चुनाव से फिर भी कम था। इस लोकसभा का कार्यकाल 2 अप्रैल 1962 से 3 मार्च 1967 तक रहा। इस लोकसभा के 14 सदस्य राज्यसभा के लिए भी चुन लिए गए थे। लोकसभा के अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह ( 17 अप्रैल 1962 से 16 मार्च 1967 तक ) रहे। जबकि उपाध्यक्ष एसवी कृष्णमूर्ति राव ( 23 अप्रैल 1962 से 3 मार्च 1967 तक) रहे। प्रधान सचिव के रूप में एमएन कौल 27 जुलाई 1947 से 1 सितंबर 1964 तक और एसएल शकधर 2 सितंबर 1964 से 18 जून 1977 तक कार्य करते रहे। इस लोक सभा के कार्यकाल के दौरान देश के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे।
    तीसरी लोकसभा के कार्यकाल में देश में तीसरी पंचवर्षीय योजना कार्य कर रही थी। देश की तीसरी पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल 1961 से 1966 तक का था। इस योजना के माध्यम से देश ने स्व – स्फूर्त अर्थव्यवस्था की स्थापना करना रखा। देश की सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए देश के राजनीतिक नेतृत्व ने कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की। साथ ही आधारभूत उद्योगों के विकास पर भी ध्यान दिया गया। यद्यपि चीन और पाकिस्तान से युद्ध होने , साथ ही सूखा की स्थिति पैदा हो जाने के कारण यह योजना अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाई। फलस्वरुप ‘योजना अवकाश’ की नीति अपनाई गई और देश की चौथी पंचवर्षीय योजना 3 वर्ष के विलंब से अर्थात 1969 से लागू हुई।

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    स्वच्छता की ओर बढ़ता गांव

    कविता कुमारी
    गया, बिहार
    करीब 10 वर्ष पूर्व जब केंद्र सरकार ने देश में स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि इसका व्यापक प्रभाव देखने को मिलेगा. जो शहर ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों की दशा को भी बदल देगा. इस अभियान ने न केवल गाँव को साफ सुथरा बनाया बल्कि महिलाओं और किशोरियों को भी सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर प्रदान किया. इस अभियान के कारण जहां गाँव कचरा मुक्त हुआ वहीं खुले में शौच से भी मुक्ति मिली. आंकड़ों के अनुसार 2023 तक स्वच्छ भारत अभियान के दूसरे चरण में देश के लगभग 50 प्रतिशत गाँव पूरी तरह से खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं. इसमें तेलंगाना एक ऐसा राज्य बन कर उभरा है जिसके शत प्रतिशत गाँव खुले में शौच से मुक्त हो गए हैं. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अब देश के अन्य राज्यों में भी होड़ लग गई है. परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्र भी अब पहले की अपेक्षा अधिक स्वच्छ नजर आते हैं.
    भले ही बिहार इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले टॉप 5 राज्यों में न हो, लेकिन इसके ग्रामीण क्षेत्रों को देखकर ऐसा लगता है कि बहुत जल्द बिहार के गाँव-गाँव में स्वच्छता का प्रसार नजर आएगा. राज्य के कई ऐसे ग्रामीण क्षेत्र नजर आ जाएंगे जहां की स्थिति में पहले की तुलना में काफी परिवर्तन नजर आने लगा है. ऐसा ही गया का उचला गाँव भी है. जिला मुख्यालय से करीब 55 किमी दूर बांके बाजार प्रखंड स्थित यह गांव अनुसूचित जाति बहुल है. रौशनगंज पंचायत स्थित इस गांव की आबादी लगभग एक हजार के आसपास है. पंचायत भवन के ठीक बगल से इस गाँव में प्रवेश का रास्ता है. जहां की साफ सुथरी सड़क स्वच्छ भारत अभियान की सफलता की गाथा सुनाते नजर आएगी. सड़क भले ही चौड़ी न हो लेकिन इसके किनारे लगे पेड़ और सफाई बताते हैं कि ग्रामीण स्वच्छता और इससे होने वाले लाभ से भली भांति परिचित हैं. स्वच्छता का यह बेहतरीन नजारा आपको गाँव के अंदर तक देखने को मिल जाएंगे. इस संबंध में गाँव के 76 वर्षीय बुजुर्ग सियाराम कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में गाँव में स्वच्छता के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में बहुत बदलाव आया है. ग्रामीण स्वयं आगे बढ़कर गाँव को साफ रखने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं.
    वहीं 35 वर्षीय गृहणी तारा देवी कहती हैं कि “गाँव में दोनों स्तर पर स्वच्छता देखने को मिलती है. एक ओर जहां कचरा प्रबंधन की उचित व्यवस्था की गई है तो महिलाओं को खुले में शौच से मुक्ति मिल गई है. सरकार और पंचायत के प्रयास से गांव के लगभग सभी घरों में शौचालय का निर्माण किया जा चुका है. जिससे महिलाओं और किशोरियों को अब खुले में सुबह होने से पहले शौच के लिए जाने की झंझट से मुक्ति मिल गई है.” वह कहती हैं कि घर में ही शौचालय बन जाने से जहां स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ा है वहीं महिलाओं और किशोरियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ की घटनाओं पर भी अंकुश लग गया है. वहीं एक अन्य महिला दुर्गा बताती हैं कि “गाँव में एक दो घर उच्च जाति के लोगों की है. जहां वह महिलाओं के लिए घर में ही शौचालय बना देखती थी तो उन्हें इसका बहुत एहसास होता था. वह सोचती थी कि गरीब और अनुसूचित जाति की महिलाओं को ऐसा सम्मान कब मिलेगा? लेकिन आज वह बहुत खुश हैं कि उनके घर में भी शौचालय का निर्माण हो चुका है.
    केवल गाँव ही नहीं बल्कि वहां संचालित स्कूल भी सफाई की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत करते हैं. गाँव के बाहरी छोर पर स्थित उत्क्रमित+2 विद्यालय में स्वच्छता का भरपूर नजारा देखने को मिल जाएगा. न केवल मैदान बल्कि स्कूल के सभी क्लासरूम भी साफ सुथरे नजर आ जाएंगे. स्कूल के प्रिंसिपल पवन कुमार बताते हैं कि आसपास के गाँव को मिलाकर करीब 1036 बच्चे इस स्कूल में पढ़ते हैं. जिनमें 576 लड़कियां और 460 लड़के हैं. जिन्हें पढ़ाने के लिए 16 शिक्षक और शिक्षिकाएं हैं. वह बताते हैं कि स्कूल में स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है. क्लासरूम से लेकर मिड डे मील बनने वाले किचन की जगह तक की सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है. खाना बनाने से लेकर परोसने तक किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है. स्कूल परिसर को साफ रखने के लिए विशेष रूप से सफाई कर्मचारियों की तैनाती की गई है. न केवल अध्यापक, बल्कि विद्यार्थियों के लिए बने शौचालय की भी हर समय सफाई कराई जाती है.
    वहीं किशोरियों द्वारा इस्तेमाल किये गए पैड्स के उचित निस्तारण की भी स्कूल में व्यवस्था की गई है. प्रिंसिपल बताते हैं कि स्कूल में जगह जगह डस्टबिन रखे हुए हैं ताकि कोई स्टूडेंट्स गलती से भी इधर उधर गंदगी न फैलाएं. कक्षा 11वीं में पढ़ने वाली 16 वर्षीय सोनी बताती है कि माहवारी में इस्तेमाल किये जाने वाले पैड्स को फेंकने के लिए लड़कियों के शौचालय में ही डस्टबीन रखे हुए हैं. वहीं आर्थिक रूप से कमज़ोर लड़कियों को पैड्स खरीदने के लिए राज्य सरकार की ओर से सीधे उनके अकाउंट में पैसे ट्रांसफर किये जाते हैं. जबकि पहले स्कूल में ही इसकी सुविधा उपलब्ध कराई जाती थी. वहीं एक अन्य छात्रा मधु बताती है कि स्कूल में सभी सुविधाएं होने के बावजूद अभी भी कुछ लड़कियां माहवारी के दिनों में स्कूल नहीं आती हैं क्योंकि सरकार की ओर से पैड्स खरीदने के लिए 

    समय पर पैसे उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं जिससे आर्थिक रूप से बेहद गरीब परिवार की लड़कियां आज भी माहवारी के दिनों में कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. ऐसे में वह किसी प्रकार की परेशानी से बचने के डर से स्कूल नहीं आती हैं.
    इस संबंध में गाँव के सामाजिक कार्यकर्ता सुखदेव पासवान बताते हैं कि देश के हर जिले और गाँव में स्वच्छता की एक नई लहर शुरू हो गई है. सरकार द्वारा गाँव गाँव में लोगों के बीच स्वच्छता के प्रति जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है. उचला गाँव में भी स्वच्छता का जोर देखने को मिल जाएगा. न केवल गाँव में जगह जगह कूड़ेदान की व्यवस्था की गई है बल्कि इसके उचित निस्तारण के लिए कचरा प्रबंधन समिति का भी गठन किया गया है. इसके लिए गाँव के सभी वार्डों में एक सुपरवाइज़र और एक सफाई कर्मचारी की नियुक्ति की गई है. साथ ही प्रतिदिन गाँव में कचरा गाड़ी भी आती है, जिस पर लोग अपने घर का कूड़ा फेंकते हैं. इस तरह गाँव न केवल स्वच्छ बल्कि स्वस्थ भी बन रहा है. वह कहते हैं कि जितना शिक्षा और रोजगार जरूरी है उतना ही स्वच्छ गाँव का होना भी आवश्यक है क्योंकि स्वच्छ गाँव से ही स्वच्छ भारत का निर्माण होता है जिससे स्वस्थ और विकसित भारत के द्वार खुलते हैं

    अधिकांश भारतीय ग्लोबल वार्मिंग पर चिंतित, करते हैं प्रधानमंत्री मोदी के मिशन लाइफ का समर्थन


    येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन और सीवोटर इंटरनेशनल द्वारा किए गए एक नए सर्वेक्षण के अनुसार, भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा ग्लोबल वार्मिंग के बारे में चिंतित है और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए महत्वपूर्ण सरकारी उपायों का समर्थन करता है। “भारतीय मानस में जलवायु परिवर्तन 2023” शीर्षक वाली रिपोर्ट, इस विषय पर जनता के सीमित ज्ञान के बावजूद, ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों के बारे में भारतीय जनता के बीच गहरी जागरूकता और चिंता को उजागर करती है।

    मुख्य निष्कर्ष:

    – ग्लोबल वार्मिंग के बारे में चिंता: 91% भारतीय ग्लोबल वार्मिंग के बारे में चिंता व्यक्त करते हैं, जबकि 59% “बहुत चिंतित” हैं।

    – जागरूकता स्तर: जहां केवल 10% भारतीय ग्लोबल वार्मिंग के बारे में “बहुत कुछ” जानने का दावा करते हैं, वहीं संक्षिप्त विवरण दिए जाने के बाद 78% जनता इसके होने को स्वीकार करते हैं।

    – अनुमानित कारण: 52% का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों से प्रेरित है, जबकि 38% का मानना है कि इसके लिए प्राकृतिक पर्यावरणीय परिवर्तन जिम्मेदार हैं।

    – स्थानीय प्रभाव: अधिकांश लोग महत्वपूर्ण स्थानीय प्रभावों को समझते हैं, जिनमें से 71% ग्लोबल वार्मिंग को अपने स्थानीय मौसम में बदलाव से और 76% मानसून पैटर्न में बदलाव से जोड़ते हैं।

    इस संदर्भ में येल विश्वविद्यालय के डॉ. एंथनी लीसेरोविट्ज़ ने भारत में बढ़ती जागरूकता और चिंता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि रिकॉर्ड स्तर की गर्मी और गंभीर बाढ़ जैसे जलवायु प्रभावों के बारे में देशवासी जलवायु परिवर्तन को प्रत्यक्ष तौर पर अनुभव कर रहे हैं।

    सरकारी कार्रवाई के लिए जनता का समर्थन:

    – ‘नेट जीरो’ प्रतिबद्धता: 86% उत्तरदाता साल 2070 तक ‘नेट जीरो’ कार्बन उत्सर्जन हासिल करने के भारत सरकार के लक्ष्य का समर्थन करते हैं। यह प्रतिबद्धता जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित करने के वैश्विक प्रयासों के अनुरूप है और विश्व मंच पर भारत की भूमिका को दर्शाती है।

    – कोयले का उपयोग: 67% सहमत हैं कि एक टिकाऊ भविष्य के लिए कोयले का उपयोग कम करना आवश्यक है, और 84% कोयला ऊर्जा से सौर और पवन जैसे रिन्यूबल ऊर्जा स्रोतों का रुख करने के पक्ष में हैं।

    – आर्थिक विकास: 74% का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग से निपटने की कार्रवाइयों से या तो आर्थिक विकास और रोजगार सृजन (51%) को बढ़ावा मिलेगा या इसका तटस्थ प्रभाव (23%) होगा।

    कार्य करने की इच्छा:

    – रिन्यूबल ऊर्जा: 61% भारतीय रिन्यूबल ऊर्जा स्रोतों के बढ़ते उपयोग की वकालत करते हैं, जबकि केवल 14% फ़ोस्सिल फ्यूल के उपयोग के विस्तार का समर्थन करते हैं।

    – व्यक्तिगत प्रतिबद्धता: 75% ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने के लिए ऊर्जा-कुशल उपकरणों और इलेक्ट्रिक वाहनों में निवेश करने के इच्छुक हैं।

    – व्यवहार परिवर्तन: वैश्विक पर्यावरण आंदोलन के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान के अनुरूप, अधिकांश (79%) भारतीय महत्वपूर्ण जीवनशैली में बदलाव अपनाने, अपने सामाजिक दायरे (78%) को प्रभावित करने और सार्वजनिक रूप से पर्यावरण-अनुकूल व्यवहार (71%) प्रदर्शित करने के लिए तैयार हैं।.

    क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के डॉ. जगदीश ठाकर ने स्वच्छ ऊर्जा और 2070 के ‘नेट ज़ीरो’ लक्ष्य के लिए मजबूत सार्वजनिक समर्थन पर ध्यान दिया, जो स्थायी कार्यों को आगे बढ़ाने की सामूहिक इच्छा को दर्शाता है।

    ये सभी निष्कर्ष सितंबर और अक्टूबर 2023 के बीच 2,178 भारतीय वयस्कों के राष्ट्रीय प्रतिनिधि टेलीफोन सर्वेक्षण पर आधारित हैं।

    यह व्यापक सर्वेक्षण जलवायु परिवर्तन के संबंध में भारतीय जनता द्वारा महसूस की गई तात्कालिकता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सार्थक कार्यों में समर्थन और साथ देने की उनकी तत्परता को दिखाता है।

    आदिवासी जनजीवन के नये जन्म का उजाला

    डॉ. गणि राजेन्द्र विजयजी के 49वें जन्म दिवस पर 19 मई 2024
    -ललित गर्ग –

    सुखी परिवार अभियान के प्रणेता, आदिवासी जनजीवन के मसीहा एवं प्रख्यात जैन संत गणि राजेन्द्र विजय पिछले 36 वर्षों से आदिवासी विषयों एवं मुद्दों को लेकर सक्रिय है, उन्होंने आदिवासी जनजीवन के उन्नयन एवं विकास के लिये अनेक जनकल्याणकारी गतिविधियों-योजनाओं जिनमें शिक्षा, सेवा, चिकित्सा एवं आर्थिक उन्नयन के उपक्रम किये हैं, जो आदिवासी जन-जीवन में उतरती रोशनी है। हाल ही में गुजरात में 4400 करोड़ की परियोजनाओं का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आनलाइन कवांट की आदिवासी महिलाओं से बातचीत करते हुए गणि राजेन्द्र विजय को जिस स्नेह एवं आत्मीयता से याद किया, समूचे देश ने यह परिदृश्य देखा और उनकी सेवाओं को महसूस किया। मोदी का इस तरह इस संत पुरुष को याद करना,उनके गौरव को, उनकेे होने का भान कराता हैं। इस वर्ष गणि राजेन्द्र विजयजी अपने जन्म दिन 19 मई, 2024 को गुजरात के आदिवासी क्षेत्र कवांट में देश के पहले कौशल विकास विश्वविद्यालय ‘भगवान आदिनाथ आदिवासी कौशल विश्वविद्यालय’ के बीज को आकार देने को तत्पर हो रहे हैं, जिससे भारत के कौशल का दुनिया में डंका बजेगा एवं आदिवासी जनजीवन विकास की एक नई गाथा लिखने को तत्पर हो सकेगा।  
    निश्चित ही गणि राजेन्द्र विजयजी आदिवासी समाज को उचित दर्जा दिलाने एवं उनकी समस्याओं के समाधान के लिये तत्पर है। वे स्वयं समर्थ एवं समृद्ध है, अतः शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिये स्वयं आगे आएं। एक तरह से एक संतपुरुष के प्रयत्नों से एक सम्पूर्ण पिछडा एवं उपेक्षित आदिवासी समाज स्वयं को आदर्श रूप में निर्मित करने के लिये तत्पर हो रहा है, यह एक अनुकरणीय एवं सराहनीय प्रयास है। लेकिन इन आदिवासी लोगों को राजनीतिक संरक्षक भी मिले, इसके लिये वे सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से सम्पर्क स्थापित कर आदिवासी जीवन के दर्द से उन्हें अवगत कराया एवं इस बार के लोकसभा चुनाव में आदिवासी लोगों को सक्रिय किये हुए है। भारतीय समाज में जिन आदर्शों की कल्पना की गई है, वे भारतीयों को आज भी उतनी ही श्रद्धा से स्वीकार हैं। मूल्य निष्ठा में जनता का विश्वास अभी तक समाप्त नहीं हुआ। व्यक्ति अगर अकेला भी हो पर नैतिकता का पक्षधर हो और उसका विरोध कोई ताकतवर कुटिलता और षड्यंत्र से कर रहा हो तो जनता अकेले आदमी को पसन्द करेगी। इन्हीं मूल्यों की प्रतिष्ठापना, गणि राजेन्द्र विजय के मिशन एवं विजन का उद्देश्य है।
    गणि राजेन्द्र विजय एक ऐसा व्यक्तित्व है जो आध्यात्मिक विकास और नैतिक उत्थान के प्रयत्न में तपकर और अधिक निखरा है। वे आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिये लम्बे समय से प्रयासरत हैं और विशेषतः आदिवासी जनजीवन में शिक्षा की योजनाओं को लेकर जागरूक है, इसके लिये सर्वसुविधयुक्त करीब 12 करोड की लागत से एकलव्य आवासीय माडल विद्यालय का निर्माण होकर विगत दो दशकों से शिक्षा की नई उपलब्धियां एवं कीर्तिमान उनके प्रयत्नों से स्थापित कर रहा है। वर्ष 2007 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस विद्यालय एवं अन्य योजनाओं का शुभारंभ करीब डेढ़ लाख आदिवासी लोगों के बीच किया, इतनी विशाल आदिवासी उपस्थिति गणिजी के इस क्षेत्र में प्रभाव को दर्शा रही थी। उनके नेतृत्व में अनेक जनकल्याणकारी योजनाएं संचालित है, जिनमें कन्या शिक्षा के लिये ब्राह्मी सुन्दरी कन्या छात्रावास का कुशलतापूर्वक संचालन हो रहा हैं। इसी आदिवासी अंचल में जहां जीवदया की दृष्टि से गौशाला संचालित है तो चिकित्सा और सेवा के लिये चलयमान चिकित्सालय भी अपनी उल्लेखनीय सेवाएं दे रहा है। आदिवासी जनजीवन की आर्थिक उन्नति एवं स्वावलम्बन के लिये वे सुखी परिवार ग्रामोद्योग भी संचालित कर रहे हैं। अपने इन्हीं व्यापक उपक्रमों की सफलता के लिये वे कठोर साधना करते हैं और अपने शरीर को तपाते हैं। अपने कार्यक्रमों में वे आदिवासी के साथ-साथ आम लोगों में शिक्षा के साथ-साथ नशा मुक्ति एवं रूढ़ि उन्मूलन की अलख जगाते हैं। उनके प्रयत्नों का उद्देश्य है शिक्षा एवं पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना है। हर आदमी अपने अन्दर झांके और अपना स्वयं का निरीक्षण करे। आज मानवता इसलिए खतरे में नहीं है कि अनैतिकता बढ़ रही है। अनैतिकता सदैव रही है- कभी कम और कभी ज्यादा। सबसे खतरे वाली बात यह है कि नैतिकता के प्रति आस्था नहीं रही।
      त्याग, साधना, सादगी, प्रबुद्धता एवं करुणा से ओतप्रोत गणि राजेन्द्र विजयजी आदिवासी जाति की अस्मिता की सुरक्षा के लिए तथा मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने के लिए सतत प्रयासरत हैं। मानो वे दांडी पकडे़ गुजरात के उभरते हुए ‘गांधी’ हैं। इसी आदिवासी माटी में 19 मई, 1974 को एक आदिवासी परिवार में जन्में गणि राजेन्द्र विजयजी मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में जैन मुनि बन गये। बीस से अधिक पुस्तकें लिखने वाले इस संत के भीतर एक ज्वाला है, जो कभी अश्लीलता के खिलाफ आन्दोलन करती हुए दिखती है, तो कभी जबरन धर्म परिवर्तन कराने वालों के प्रति मुखर हो जाती है। कभी जल, जमीन, जंगल के अस्तित्व के लिये मुखर हो जाती है। इस संत ने स्वस्थ एवं अहिंसक समाज निर्माण के लिये जिस तरह के प्रयत्न किये हैं, उनमें दिखावा नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, प्रचार-प्रसार की भूख नहीं है, किसी सम्मान पाने की लालसा नहीं है, किन्हीं राजनेताओं को अपने मंचों पर बुलाकर अपने शक्ति के प्रदर्शन की अभीप्सा नहीं है। अपनी धून में यह संत आदर्श को स्थापित करने और आदिवासी समाज की शक्ल बदलने के लिये प्रयासरत है और इन प्रयासों के सुपरिणाम देखना हो तो कंवाट, बलद, रंगपुर, बोडेली आदि-आदि आदिवासी क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
    गणि राजेन्द्र विजयजी परिवार को सुदृढ़ बनाने के लिये ही सुखी परिवार फाउण्डेशन के द्वारा संचालित सुखी परिवार अभियान को लेकर सक्रिय है। मेरा सौभाग्य है कि वर्ष 2006 से संचालित इस फाउण्डेशन का संस्थापक महामंत्री बनने से लेकर वर्तमान में अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा हूं। गणिजी की सर्वाेच्च प्राथमिकता है कि सबसे पहले परिवार संस्कारवान बने, माता-पिता संस्कारवान बने, तभी बच्चे संस्कारवान चरित्रवान बनकर घर की, परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ा सकेंगे। अगर बच्चे सत्पथ से भटक जाएंगे तो उनका जीवन अंधकार के उस गहन गर्त में चला जाएगा जहां से पुनः निकलना बहुत मुश्किल हो जाएगा। बच्चों को संस्कारी बनाने की दृष्टि से गणि राजेन्द्र विजय विशेष प्रयास कर रहे हैं। भारत को आज सांस्कृतिक क्रांति का इंतजार है। यह कार्य सरकार तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सही शिक्षा और सही संस्कारों के निर्माण के द्वारा ही परिवार, समाज और राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में नैतिक एवं चरित्रसम्पन्न बनाया जा सकता है। मेरी दृष्टि में गणि राजेन्द्र विजयजी के उपक्रम एवं प्रयास आदिवासी अंचल में एक रोशनी का अवतरण है, यह ऐसी रोशनी है जो हिंसा, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद जैसी समस्याओं का समाधान बन रही है। अक्सर हम राजनीति के माध्यम से इन समस्याओं का समाधन खोजते हैं, जबकि समाधान की अपेक्षा संकट गहराता हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि राजनीतिक स्वार्थों के कारण इन उपेक्षित एवं अभावग्रस्त लोगों का शोषण ही होते हुए देखा गया है। गणि राजेन्द्र विजयजी के नेतृत्व में आदिवासी समाज कृतसंकल्प है रोशनी के साथ चलते हुए इस आदिवासी अंचल के जीवन को उन्नत बनाने एवं संपूर्ण मानवता को अभिप्रेरित करने के लिये।
    गणि राजेन्द्र विजयजी के आध्यात्मिक आभामंडल एवं कठोर तपचर्या का ही परिणाम है आदिवासी समाज का सशक्त होना। सर्वाधिक प्रसन्नता की बात है कि अहिंसक समाज निर्माण की आधारभूमि गणि राजेन्द्र विजयजी ने अपने आध्यात्मिक तेज से तैयार की है। अनेक बार उन्होंने खूनी संघर्ष को न केवल शांत किया, बल्कि अलग-अलग विरोधी गुटों को एक मंच पर ले आये। जबकि गुट व्यापक हिंसा एवं जनहानि के लिये तरह-तरह के हथियार लिये एक दूसरे को मारने के लिये उतावले रहते थे। हिंसा की व्यापक संभावनाओं से घिरे इस अंचल को अहिंसक बनाना एक क्रांति एवं चमत्कार ही कहा जायेगा। सचमुच आदिवासी लोगों को प्यार, करूणा, स्नेह एवं संबल की जरूरत है जो गणिजी जैसे संत एवं सुखी परिवार अभियान जैसे मानव कल्याणकारी उपक्रम से ही संभव है, सचमुच एक रोशनी का अवतरण हो रहा है, जो अन्य हिंसाग्रस्त क्षेत्रों के लिये भी अनुकरणीय है। गणि राजेन्द्र विजयजी की विशेषता तो यही है कि उन्होंने आदिवासी उत्थान को अपने जीवन का संकल्प और तड़प बना लिया है। आदिवासी जन-जीवन में भी बहुत उजाले हैं, लेकिन इन उजालों को छीनने के प्रयास हुए हैं, हो रहे हैं और होते रहेंगे। आज बाहरी खतरों से ज्यादा भीतरी खतरे हैं। हिंसा और अलगाव की कई चुनौतियां हैं, जो समाधान चाहती है। पर गलत प्रश्न पर कभी भी सही उत्तर नहीं मिला करते। जब रोटी की जरूरत हो तो रोटी ही समाधान बनती है। रोटी के बिना आप किसी सिद्धान्त को ताकत का इंजेक्शन नहीं बना सकते।

    कायम रहेगा योगी राज

    -डॉ. सौरभ मालवीय 

    उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के संबंध में दिए गए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बयान के पश्चात प्रदेश में सियासी पारा बढ़ गया है। आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने लखनऊ में पुनः दावा किया है कि यदि भारतीय जनता पार्टी केंद्र की सत्ता में आ गई तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हटा दिया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमित शाह को पीएम बनाने के लिए पिछले डेढ़-दो वर्षों से लगे हुए हैं। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिवराज सिंह चौहान, वसुन्धरा राजे सिंधिया, देवेंद्र फडणवीस, रमन सिंह और मनोहर लाल खट्टर को पहले ही हटा दिया है। अब अमित शाह के प्रधानमंत्री बनने की राह में केवल योगी आदित्यनाथ ही अंतिम कांटा बचे हैं। उन्होंने दावा किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले वर्ष 17 सितंबर को जैसे ही 75 वर्ष के हो जाएंगे, वे प्रधानमंत्री पद छोड़कर अमित शाह को प्रधानमंत्री बना देंगे। इसके पश्चात दो से तीन महीने में योगी आदित्यनाथ को हटा दिया जाएगा। अरविंद केजरीवाल के इस बयान की प्रासंगिकता पर चर्चा हो रही है या चर्चा में रहने के लिए यह राजनीतिक जुमला मात्र है।

    वास्तव में अरविंद  केजरीवाल भी जानते हैं कि उनका यह बयान असत्य एवं भ्रामक है। वे इस प्रकार के बयान देकर एक ओर तालियां बटोरना चाहते हैं तो दूसरी ओर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपना रहे हैं।

    यद्यपि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने केजरीवाल को कड़े शब्दों में उत्तर दे दिया है। उन्होंने बांदा में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा- “केजरीवाल की बु्द्धि जेल जाने के बाद फिर गई है। अन्ना हजारे के सपनों पर पानी फेरने वाले केजरीवाल अब मेरा नाम लेकर बातें कर रहे हैं। अन्ना ने जिस कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन किया था, केजरीवाल ने उसे ही अपने गले का हार बना लिया है। जेल जाकर उन्हें पता चल गया है कि अब वह कभी जेल के बाहर नहीं आने वाले हैं।“

    इस बयानबाजी के मध्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संकेतों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है कि योगी आदित्यनाथ अपना कार्यकाल पूर्ण करेंगे। उन्होंने कहा – “आने वाले पांच सालों में मोदी-योगी पूर्वांचल की तस्वीर और तकदीर दोनों बदलने वाले हैं।” सियासी गलियारे में इस बयान को अरविंद केजरीवाल के बयान से जोड़कर देखा जा रहा है। इस प्रकार श्री नरेंद्र मोदी ने केजरीवाल के बयान को भ्रामक एवं असत्य सिद्ध कर दिया है।

    इससे पूर्व गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कर दिया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना कार्यकाल पूर्ण करेंगे तथा वर्ष 2029 के पश्चात् भी वे भाजपा का नेतृत्व करते रहेंगे। प्रधानमंत्री मोदी 75 वर्ष की आयु के पश्चात् भी अपने पद पर बने रहेंगे। इस प्रकार अमित शाह ने यह बात स्पष्ट कर दी है कि उनका प्रधानमंत्री बनने का अभी कोई विचार नहीं है। इसके अतिरिक्त पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी स्पष्ट कर चुके हैं कि 75 वर्ष के पश्चात् सेवानिवृति वाली बात पार्टी के संविधान में नहीं है। इस प्रकार की बातें केवल दुष्प्रचार के लिए बोली जा रही हैं। इसमें दो मत नहीं कि भाजपा का संगठन अत्यंत सुदृढ़ है। इसलिए अरविंद केजरीवाल की भ्रामक बयानबाजी से पार्टी को कोई हानि नहीं होगी।    

    वास्तव में प्रधानमंत्री भली भांति जानते हैं कि योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में सराहनीय विकास कार्य किए हैं। उनके मुख्यमंत्री काल में प्रदेश ने दिन दोगुनी रात चौगुनी उन्नति की है। प्रदेश की जनता भी उनके विकास एवं जनहित के कार्यों से अति प्रसन्न एवं संतुष्ट है, तभी उसने उन्हें द्वितीय बार भी मुख्यमंत्री चुना।    

    सर्विदित है कि उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जाता है, क्योंकि यही चुनाव आगे के लोकसभा चुनाव की दिशा निर्धारित करता है। इसीलिए उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव योगी आदित्यनाथ के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहता है। अपने उत्कृष्ट कार्यों एवं सुशासन के कारण उन्होंने दो बार भारतीय जनता पार्टी को विजयश्री दिलाई है। भारतीय जनता पार्टी ने भी योगी आदित्यनाथ के कार्यों को सराहा तथा उन्हें प्रदेश की बागडोर सौंप दी।

    लोकसभा चुनाव 2024 पाचवें चरण तक आते आते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 49 दिनों में कुल 111 जनसभाएं सहित 144 जनसभाएं किए है । इसके अलावा योगी अबतक आठ राज्यों में भी चुनाव प्रचार कर चूकें है । मुख्यमंत्री ने 27 मार्च को मथुरा में प्रबुद्ध सम्मेलन कर प्रदेश की चुनावी कमान संभाल ली थी। 27 मार्च से 19 मई तक कुल 50 दिनों में मुख्यमंत्री लगातार चुनाव प्रचार में लगे हुये है। अब तक उन्होने 15 प्रबुद्ध सम्मेलन और 12 रोड सो किया है। योगी की जनसभाओं में अपार भीड़ उनको सुनने के लिए प्रचण्ड गर्मी में भी जुट रही है ।      

    इसमें दो मत नहीं है कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रित्व काल में प्रदेश ने लगभग सभी क्षेत्रों में प्रशंसनीय उन्नति की है। प्रदेश में कृषि, उद्योग, रोजगार, आवास, परिवहन, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा व्यवस्था, संस्कृति, धर्म एवं पर्यावरण आदि क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किए गए हैं। मेधावी विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति प्रदान दी जा रही है। वृद्धजन, विधवा एवं दिव्यांगजन को पेंशन के रूप में आर्थिक सहायता दी जा रही है। सरकार ने अनाथ बच्चों के भरण-पोषण की भी व्यवस्था की है। जिन परिवारों में कमाने वाला कोई नहीं है उन्हें भी आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है। निर्धन परिवार की लड़कियों एवं दिव्यांगजन के विवाह लिए अनुदान दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त योगी सरकार निराश्रित गौवंश के संरक्षण पर भी विशेष ध्यान दे रही है।

    उल्लेखनीय है कि योगी आदित्यनाथ पार्टी के चाल, चरित्र एवं चेहरे के अनुसार प्रदेश में हिंदुत्व की छवि को और सुदृढ़ करने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। उनके कार्य इस बात को सिद्ध करते हैं। चाहे प्राचीन नगरों के नाम परिवर्तित करना हो या काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का लोकार्पण करना हो। उनके सभी कार्य इसका साक्षात प्रमाण हैं। उनकी देखरेख में अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर राम मंदिर के निर्माण का कार्य चल रहा है। योगी सरकार राज्य के धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं पर्यटन स्थलों के विकास एवं सौन्दर्यीकरण पर विशेष ध्यान दे रही है। योगी सरकार ने बौद्ध सर्किट में श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर तथा रामायण सर्किट में चित्रकूट एवं श्रृंगवेरपुर में पर्यटन सुविधाओं का विकास करवाया है। इसी प्रकार बृज तीर्थ क्षेत्र विकास परिषद, नैमि षारण्य तीर्थ क्षेत्र विकास परिषद, विन्ध्य तीर्थ क्षेत्र विकास परिषद, शुक्र धाम तीर्थ विकास परिषद, चित्रकूट तीर्थ विकास परिषद एवं देवीपाटन तीर्थ विकास परिषद का गठन किया गया, ताकि यहां के विकास कार्य सुचारू रूप से हो सकें

    सरकार तीर्थ यात्रियों एवं पर्यटकों को अनेक सुविधाएं उपलब्ध करवा रही है। योगी सरकार तीर्थ यात्रियों को कई सुविधाएं प्रदान कर रही है। इसके अंतर्गत कैलाश मानसरोवर के तीर्थ यात्रियों की अनुदान राशि 50 हजार रुपये से बढ़ाकर एक लाख रुपये प्रति यात्री की गई है। इसी प्रकार सिंधु दर्शन के लिए अनुदान राशि 20 हजार रुपये की गई।

    योगी सरकार प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए यथासंभव प्रयास कर रही है। इसके अंतर्गत गोरखपुर के रामगढ़ ताल में वाटर स्पोर्ट्स, पीलीभीत टाइगर रिजर्व एवं चंदौली में देवदारी राजदारी वाटरफॉल का विकास किया गया। स्पिरिचुअल सर्किट के अंतर्गत गोरखपुर, देवीपाटन, डुमरियागंज में पर्यटन सुविधाओं का विकास किया गया। जेवर, दादरी, नोएडा, खुर्जा एवं बांदा में भी पर्यटन सुविधाओं का विकास किया गया। आगरा में शाहजहां पार्क एवं महताब बाग-कछपुरा का कार्य एवं वृन्दावन में बांके बिहारी जी मंदिर क्षेत्र में पर्यटन का विकास किया गया। दुधवा टाइगर रिजर्व एवं पीलीभीत टाइगर रिजर्व स्थलों का विकास किया गया है। सरकार ने महाभारत सर्किट के अंतर्गत महाभारत से संबंधित स्थलों का विकास करवाया है। शक्तिपीठ सर्किट एवं आध्यात्मिक सर्किट से संबंधित स्थलों का भी विकास करवाया गया है। विपक्षी सरकार पर भेदभाव के आरोप लगाते रहते हैं, परन्तु सत्य यही है कि भाजपा सरकार बिना किसी भेदभाव के समान रूप से विकास कार्य करवा रही है। जैन एवं सूफी सर्किट के अंतर्गत आगरा एवं फतेहपुर सीकरी में पर्यटन सुविधाओं का विकास करवाया जाना इस बात का प्रमाण है।  

    योगी सरकार द्वारा अयोध्या में दीपोत्सव, मथुरा में कृष्णोत्सव, बरसाना में रंगोत्सव, वाराणसी में शिवरात्रि एवं देव दीपावली का आयोजन किया जा रहा है। देश ही नहीं, अपितु विदेशों में भी इसकी चर्चा हो रही है। इसके साथ-साथ सरकार कला एवं साहित्य को भी प्रोत्साहित कर रही है। राज्य में साहित्यकारों एवं कलाकारों को उत्तर प्रदेश गौरव सम्मान प्रदान किए जाने का निर्णय लिया गया।          

    उल्लेखनीय है कि योगी आदित्यनाथ के शासन में प्रदेश ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पृथक पहचान बनाई है। लगभग सभी क्षेत्रों में उत्तर प्रदेश देश में अग्रणी रहा है। आज देश में उत्तर प्रदेश मॉडल की चर्चा की जा रही है। ये सब योगी आदित्यनाथ के प्रयास से ही संभव हो सका है।  

    सावधान! ‘युवा’ देश के…सिगरेट यानि मौत का घर…! 

    ~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

     देश का भविष्य कही जाने वाली युवा पीढ़ी नशे का शिकार बनती चली जा रही है। नित प्रति बदलते इस परिवेश में नशे के प्रति बढ़ता आकर्षण समाज के लिए घातक सिध्द हो रहा है । युवाओं में नशे की बढ़ती लत ने एक बार फिर से हमें  – एक व्यक्ति , परिवार और समाज के नाते सोचने के लिए विवश कर दिया है। युवाओं के बीच बढ़ता नशे का खतरनाक ट्रेंड समाज को धीरे धीरे खोखला करता चला जा रहा है। नशे का प्रकोप इस कदर हावी है कि – क्या गाँव , क्या शहर बस चारो ओर नशे का तांडव हो रहा है । चाय -पान की गुमटियों से लेकर हम जिस ओर नज़र दौड़ाते हैं। उस ओर ही नशे की गिरफ्त में देश के कर्णधार कहे जाने वाले युवा मिल जाएँगे । चाय के साथ सिगरेट का हाल ऐसा  बन चुका है , जैसे चाय पीने का मतलब ही सिगरेट पीना है। आज इसके हालात तो ये हो गए हैं कि – कोई आम व्यक्ति यदि चाय की दुकानों पर पहुँच जाए तो सिगरेट का धुआँ उड़ाती युवा पीढ़ी के बीच साँस लेना मुश्किल हो जाएगा । सिगरेट पीते हुए धुएँ  के छल्ले  बनाने का हुनर दिखाने वालों की भी लंबी फेहरिस्त मिल जाएगी ।ऐसा भी नहीं है कि – इसमें सिर्फ युवक ही हैं । नशे में युवतियों ने भी बराबर की भागीदारी कर ली है । सब सिगरेट का कश लगाते हुए मिल जाएंगे । तंबाकू उत्पाद बनाने वाली कंपनियाँ  मोटे- मोटे अक्षरों में चेतावनियाँ जारी करती हैं कि – तंबाकू से कैंसर होता है । धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । लेकिन मज़ाल क्या कि कोई थोड़ा भी ठिठक जाए। डॉक्टर चिल्लाते-चिल्लाते थक गए हैं कि सिगरेट और अन्य नशों से सावधान रहिए लेकिन इनकी सुनता ही कौन है । कई सारी रिसर्च बताती हैं कि – सिगरेट में इतने घातक केमिकल्स मिलाए जाते हैं जो सीधे गंभीर बीमारियों और मौत का कारण बनते हैं। सिगरेट में मिलाए जाने वाले केमिकल – निकोटीन का उपयोग खाद बनाने में किया जाता है। टार – सड़क बनाने में. मेथेनॉल – हवाई जहाज के फ्यूल में, एसिटोन – नेल पॉलिश रिमूवर में , आर्सेनिक का उपयोग – चूहा मारने की दवा बनाने में किया जाता है। इसके साथ ही टालवीन का उपयोग – इंक बनाने में और पोलोनियम -210का उपयोग एटम बम बनाने और  अमोनिया का उपयोग टॉयलेट क्लीनर बनाने में किया जाता है। 

    इन उदाहरणों से हम समझ सकते हैं कि – कितने घातक केमिकल्स सिगरेट के धुएँ के साथ हमारी जिंदगी को खत्म करने लग जाते हैं। लेकिन क्या हम सुधरने का नाम लेने वाले हैं ? इतना ही नहीं कई सारी रिसर्च ये भी कहती हैं कि -सिगरेट में लगभग 5 हजार से 7 हजार की संख्या  में  केमिकल्स होते हैं।ये सारे केमिकल हमारे शरीर में कई सारे घातक प्रभाव छोड़ते हैं जोकि विभिन्न गंभीर बीमारियों के कारण बनते हैं। सिगरेट से  टीबी, अस्थमा , फेफड़ों का कैंसर , मुँह का कैंसर ,  दिल से जुड़ी हुई बीमारियाँ , डिमेंसिया , अल्जाइमर , सिज्रोफेनिया आदि गंभीर समस्याएँ होने लगती हैं । इसके अलावा आँखों से जुड़ी हुई समस्याओं को लिए भी सिगरेट स्मोकिंग जिम्मेदार  है । कहने का अभिप्राय यह कि इन गंभीर समस्याओं के मूल में सिगरेट स्मोकिंग है । स्मोकिंग के चलते हर वर्ष हजारों की संख्या में लोग अपनी जान गवाँते हैं । लेकिन अपनी आँखों के सामने ये सब होने के बावजूद भी कोई इससे सबक लेने को तैयार नहीं है।  ऐसा भी नहीं है कि सिगरेट पीने वाले इन सब बातों से अनभिज्ञ हैं  बल्कि सिगरेट से होने वाले गंभीर खतरों के बारे में जानते हुए भी वे  अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। यानी ये स्थिति ठीक वैसी ही है, जैसे आ बैल मुझे मार । फैशन के इस दौर में युवाओं के बीच  सिगरेट स्मोकिंग भी कूल बनने और दिखने का  एक टूल सा बन गया है। इसी के चलते अब चाहे स्टूडेंट एरिया हों , याकि वर्किंग एरिया . हर जगह  सिगरेट पीने का खतरनाक चलन अपने उफान पर देखने को मिलता है ।

     तिस पर भी मुश्किल ये कि – यारी दोस्ती के बीच सिगरेट पीने को गहरी दोस्ती का पर्याय माना जाने लगा है । यानि यदि दोस्त साथ में सिगरेट पीते हैं तो दोस्ती पक्की होने की गारंटी औप यदि सिगरेट स्मोकिंग को ना तो दोस्ती पक्की नहीं मानी जाएगी । इस प्रवृत्ति ने भी स्मोकिंग बढ़ाने में अच्छा खासा योगदान दिया है । इसके अतिरिक्त समाज के तौर पर भी हमने अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में बड़ी भारी चूक की है। समाज ने नैतिकता और अनुशासन की बागडोर अपने हाथों से छोड़ दी । बमुश्किल इन दस से पंद्रह वर्षों के अंदर – अंदर समाज में संक्रमण की स्थिति आ गई । बड़ों की इज्जत करना दूर की कौड़ी बन गई और चौतरफा आवारागर्दी देखने को मिलने लगी । शहर हों या गाँव हों – पहले जहाँ सिगरेट या अन्य नशे की सामग्रियों पर एक स्तर तक सेंसरशिप जैसा मामला था । नशा करते पाए जाने पर कोई भी डांट-डपट लगा सकता था । घर तक शिकायत पहुँचने का डर होता था । लेकिन आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है । अब कहीं भी कोई रोक-टोक नहीं है। तथाकथित माडर्न और शिक्षित समझी जाने वाली युवा पीढ़ी बड़ों को मुँह चिढ़ाती रहती है । सिगरेट का कश लगाती रहती है । मजाल क्या कि थोड़ा भी झेंप जाए। युवा सोचें कि क्या आप ऐसे ही देश का भविष्य बनने जा रहे हैं ? युवा होने का दंभ भरने वाली ये पीढ़ी क्या युवा होने के मायने भी जान पाई है ?  खुद सोचें कि क्या सिगरेट स्मोकिंग ही आपकी पहचान बनेगी ? देश के मजबूत कंधों और भविष्य के रूप में परिभाषित युवाओं की यदि बुनियाद ही खोखली होगी तो कैसे देश की प्रगति हो सकेगी । देश के युवाओं को  ये स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि  सिगरेट यानि मौत का घर है । अब खुद ही सोचें कि हम किस ओर खड़े हैं – जीवन या मौत की ओर ? जितना जल्दी हो सके – उतना जल्दी सिगरेट छोड़ दें ….वर्ना कहीं ऐसा न हो कि जिंदगी ही साथ छोड़ दे । 

    चुनाव परिणामों से जुड़ी फिजूल की अटकलें

    -ललित गर्ग –

    पांचवें चरण के तहत सोमवार को आठ राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों की 49 लोकसभा सीटों पर वोट डाले गये, इसके बाद दो ही चरण की वोटिंग शेष रह जाएगी। शेष रहे दो चरणों के चुनाव पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं और जैसे-जैसे चुनाव सम्पन्नता की ओर बढ़ रहे हैं, राजनीतिक दलों की आक्रामकता अब चुनाव परिणामों को लेकर फिजूल की अटकलों के रूप में देखने को मिल रही है। वैसे तो तीन चरणों के बाद ही चुनाव परिणामों से जुड़ी अटकलंे पर सारे चुनावी परिदृश्य बन रहे हैं। आम मतदाता की जरूरतों से जुड़े मुद्दों पर सार्थक बहस करने की बजाय चुनाव नतीजों की भविष्यवाणियों में चुनाव परिदृश्यों को भटकाने की कुचेष्ठाएं हो रही है, यह लोकतंत्र के इस महानुष्ठान को धुंधलाने का दूषित प्रयास है। चुनाव परिणामों को लेकर हो रही इन चर्चाओं से जहां आम मतदाता भ्रमित हो रहा है, वही देश के शेयर बाजारों में गिरावट की स्थितियां आर्थिक असंतुलन का कारण बन रही है। राजनीतिक दलों की सोची-समझी रणनीति के तहत चुनाव परिणामों की संभावनाएं व्यक्त करना, अटकले एवं कयास लगाना चुनावी परिदृश्यों को भटकाने की कोशिशें हैं, इसमें राजनीतिक विश्लेषण और उनके निष्कर्ष भी कहीं-न-कहीं ऐसा वातावरण बना रहे हैं, जिससे मतदाता को लुभाया जा सके, भटकाया जा सके या गुमराह किया जा सके।
    कांग्रेस हो या भाजपा और अन्य दल सभी चुनाव परिणाम की अटकलों पर ध्यान लगाये हुए हैं, वे ऐसी अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं करते हुए जीत के दावे कर रहे हैं, जिससे मतदाता द्वंद्व की स्थिति में हैं। राजनीतिक दलों ने राष्ट्र के जरूरी एवं बुनियादी मुद्दें को तवज्जों न देकर राजनीतिक अपरिपक्वता का ही परिचय दिया है। दिक्कत यह है कि सभी पार्टियां अपने दल या गठबंधन की जीत को सुनिश्चित बताते हुए इस तरह के विश्लेषण और निष्कर्ष निकाल रहे हैं जो सत्यता से दूर हैं। ऐसे निष्कर्ष अतीत में कई बार गलत साबित हो चुके हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा को ऐसी जीत मिली, जिससे देश में तीन दशक बाद किसी पार्टी ने अपने बहुमत वाली सरकार बनाई। 2019 में पार्टी ने उससे भी बड़ी जीत हासिल की। लेकिन 2019 में भी चुनाव नतीजों से पहले शेयर बाजार लड़खड़ाते नजर आ रहे थे एवं विपक्षी दल भाजपा के हार की भविष्यवाणी कर रहे थे। 2014 में भी कई विश्लेषक उत्तरप्रदेश की कई सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के कथित ध्रूवीकरण का हवाला देते हुए खास तरह के चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी कर रहे थे, जो गलत साबित हुए। ऐसी ही भविष्यवाणियां इस बार भी बढ़-चढ़ कर हो रही है, लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित होने वाले हैं, चौंकाने एवं चमत्कृत करने वाले होंगे।
    निश्चित ही चुनाव परिणामों से जुड़ी अटकलों का शेष रहे दो चुनाव चरणों पर व्यापक प्रभाव पड़ता हैं। पहले तीन चरणों के कम मतदान को सत्तापक्ष के समर्थक मतदाताओं के उत्साह में कमी का संकेत बताया जा रहा है तो महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में एनडीए के सहयोगी दलों की वोट ट्रांसफर करने की क्षमता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। जहां तक वोटरों के उत्साह में कमी की बात है तो अव्वल तो चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के मुताबिक वोट प्रतिशत का अंतर काफी कम रह गया है, दूसरी बात यह कि वोट न देने वालों में किस पक्ष के समर्थक ज्यादा हैं, इसे लेकर परस्पर विरोधी दावे किए जा रहे हैं जिनकी सचाई 4 जून को ही सामने आएगी। लेकिन चुनाव परिणामों को लेकर विरोधाभासी अटकलों का असर मतदाता पर पड़ता ही है। समूचे देश की बात करें तो इस पर लगभग आम राय है कि इन चुनावों में कोई लहर नहीं है। कई चुनाव विशेषज्ञों के अनुसार 2019 के चुनाव में पुलवामा में हुई घटनाओं और उसके बाद बालाकोट में जो हुआ उसके बाद देश भर में राष्ट्रीय सुरक्षा की लहर दौड़ गई थी। इस बार सोचा गया था कि श्रीराम मन्दिर के उद्घाटन का व्यापक असर होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विकास का मुद्दा अवश्य मतदाता के दिमाग में रहा है। फिर भी अगर किसी एक नेता के पक्ष में मतदाताओं की पसंद मुखरता से सामने आ रही है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं। सवाल है कि क्या यह मुखरता वोट में भी परिणत होगी? जवाब के लिए 4 जून का इंतजार करना बेहतर होगा।
    अनेक चुनाव विश्लेषण बताते हैं कि 1999 और 2004 में कम मतदान प्रतिशत से भाजपा को फायदा हुआ, लेकिन 2014 में अधिक मतदान से लाभ हुआ। लेकिन विश्लेषक मतदान प्रतिशत और अंतिम परिणामों के बीच स्पष्ट संबंध बताने में विफल हैं। बाज़ार के इस उतार चढ़ाव के बीच निवेशक लोकसभा चुनाव में कुछ चरणों के कम मतदान प्रतिशत को लेकर चिंतित हैं। वे चुनाव परिणाम के बारे में अनिश्चितता पाले हुए हैं। निवेशक ही नहीं, मतदाता एवं नेता भी भ्र्रम एवं भटकाव पाले हुए है। लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा विरोधी ‘इंडिया’ गठबंधन के सत्ता में आने पर तृणमूल कांग्रेस नई सरकार के गठन में ‘बाहर से समर्थन’ देगी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की इस टिप्पणी के बाद से ही राजनीतिक हलकों में कयासों और अटकलों का दौर तेज़ हो गया था। सवाल उठ रहा था कि क्या उनकी इस टिप्पणी में कोई नया संकेत छिपा है? पांचवें चरण की सम्पन्नता के बाद यह साफ हो गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस बार सत्तारूढ़ भाजपा की कांग्रेस समाहित विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के साथ कांटे की लड़ाई हैं और दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी विजय का दावा कर रहे हैं।
    कम मतदान की पहेली का एक मतलब ये भी निकाला जा सकता है कि मतदाता को कोई उत्साह नहीं है, क्योंकि उसको ये लगता है कि 400 सीटों की जीत का दावा किया जा रहा है तो उसके वोट से कोई फर्क नहीं पडने वाला है। एक वजह ये भी हो सकती है कि वह परिणाम को लेकर पहले से ही आश्वस्त है, लेकिन इन दोनों वजहों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं का रोल है, ये मतदाता की पहचान से जुड़े मामले नहीं हैं। विपक्ष इस बात को हवा दे रहा है कि जब सत्ताधारी दल का कार्यकर्ता जनता को बूथ पर लाने में फेल होता है तो इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ है। कुछ जानकार कह रहे हैं कि मामला उतना सपाट नहीं है। एक तो मौसम की मार और दूसरा ये एक ऐसा राजनीतिक मैच है जिसका नतीजा पहले से पता है इसलिए ऐसे मैच में कोई उत्साह नहीं होना बहुत सामान्य है।
    पांचवें चरण में हो रहा लोकसभा का यह चुनाव भाजपा के लिए ‘सेफ जोन’ की तरह माना जाता है। दरअसल भाजपा और एनडीए ने मिलकर पिछले लोकसभा चुनाव में पांचवें चरण की 49 सीटों पर जिस तरह से बैटिंग की थी, वह उसको सत्ता की सीढ़ी तक ले गई। जबकि 2014 में भी भाजपा ने अपने सियासी ग्राफ को इस चरण में मजबूती के साथ आगे बढ़ाया था। सियासी जानकारों का मानना है कि भाजपा ने अपने इसी मजबूत सियासी ग्राफ के मद्देनजर पूरी फील्डिंग पांचवें चरण की 49 सीटों पर लगा दी है। वहीं इंडिया गठबंधन और उसके सियासी दलों, जिसमें कांग्रेस और सपा समेत शिवसेना ने पांचवें चरण के लिए 2014 से पहले वाली रवायत को आगे बढ़ाने के लिए पूरी तैयारी की है। अब परिणाम तो भविष्य के गर्भ में हैं। बहरहाल, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद हुए पहले मतदान में प्रतिशत का अधिक रहना सुखद ही है। जो घाटी के लोगों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास बढ़ने को दर्शाता है। कालांतर ये इस केंद्रशासित प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने और यथाशीघ्र विधानसभा चुनाव करवाने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। बहरहाल, पूरे देश में चुनाव प्रतिशत में कमी के रुझान पर चुनाव आयोग को भी गंभीर मंथन करना चाहिए कि मतदान बढ़ाने के लिये देशव्यापी अभियान चलाने के बावजूद वोटिंग अपेक्षाओं के अनुरूप क्यों नहीं हो पायी। वहीं राजनीतिक दलों को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि मतदाता के मोहभंग की वास्तविक वजह क्या है। उन्हें अपनी रीतियों-नीतियों तथा घोषणापत्रों की हकीकत को महसूस करते हुए अतिश्योक्तिपूर्ण भविष्यवाणियों एवं अटकलों से बचना चाहिए।

    भारत की 17 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 2

    दूसरी लोकसभा – 1957 – 1962

    पंडित जवाहरलाल नेहरू के रहते कांग्रेस ने चुनाव के समय इस बात का जमकर प्रचार किया कि देश को आजादी दिलाने में उसका विशेष योगदान है। देश के भोले भाले मतदाता कांग्रेस के इस प्रचार को सच मान चुके थे । उन्हें ऐसा लगता था कि यदि कांग्रेस नहीं होगी तो देश की आजादी फिर से समाप्त हो सकती है। कांग्रेस को सत्ता में बने रहने में लोगों के भीतर व्याप्त इस डर का बहुत अधिक लाभ मिला। कांग्रेस ने लोगों के भीतर पहले इस प्रकार का डर स्थापित किया और फिर उसे आने वाले हर चुनाव में भुनाते रहने का निर्णय लिया। वास्तव में, कांग्रेस की यह सोच देश के भोलेभाले जनमानस के साथ किया जाने वाला एक राजनीतिक उपहास था। इसे आप 'राजनीतिक बदमाशी' भी कह सकते हैं। यह कोई गलत बात भी नहीं थी। प्रत्येक वह व्यक्ति जो सत्ता को किसी प्रकार कब्जाने में सफल हो जाता है, इसी प्रकार के हथकंडे अपनाता हुआ देखा जाता है। इसे आप राजनीति की अनिवार्यता भी कह सकते हैं। यद्यपि राष्ट्रनीति में इस प्रकार की 'राजनीतिक बदमाशी' को दूर-दूर तक भी स्थान नहीं होता, पर जब बात राजनीतिज्ञों की हो रही हो तो वहां पर राष्ट्रनीति की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

    लोकसभा का दूसरा चुनाव

    1957 में देश का दूसरा लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ। इस समय लोकसभा की कुल 505 सीटें थीं। इस चुनाव के समय पंडित जवाहरलाल नेहरू के लोकप्रियता अपने चरम पर थी। उस समय देश का विपक्ष बहुत अधिक कमजोर था। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मुसलमानों को बड़ी सावधानी से अपने ‘वोट बैंक’ के रूप में परिवर्तित कर लिया था । अपनी राजनीतिक बुद्धि का प्रयोग करते हुए पंडित नेहरू ने मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल अपने प्रधानमंत्री के पहले काल से ही आरंभ कर दिया था। उन्होंने इस बात पर तनिक भी विचार नहीं किया कि देश का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर करवा कर मुस्लिम लीग और उसकी विचारधारा के लोगों ने देश को बहुत गहरे जख्म दिये हैं । सत्ता प्राप्ति के पश्चात ही नेहरू के भीतर सत्ता में बने रहने की लालसा पैदा हो गई थी। सत्ता में बने रहने की इसी लालसा ने नेहरू को मुस्लिम तुष्टिकरण करने के लिए प्रेरित किया। सत्ता की लालसा वास्तव में राष्ट्रद्रोह की चारपाई है। जिस पर सोने वाला कोई भी व्यक्ति शाम को चाहे कितना ही बड़ा देश भक्ति क्यों ना हो, भोर होते – होते उसकी विचारधारा में अनेक प्रकार के परिवर्तन स्वाभाविक रूप से आ ही जाते हैं।

    नेहरू जी का मुस्लिम तुष्टिकरण

     नेहरू जी ने ऐसा प्रयास भी किया था कि मुस्लिम समाज के लिए उनकी आबादी के आधार पर ग्राम प्रधान से लेकर संसद सदस्य तक अलग निर्वाचन क्षेत्र निश्चित कर दिए जाएं। नेहरू जी की इस प्रकार की मुस्लिमपरस्त नीतियों का मुस्लिम समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। पंडित नेहरू ने पहले चुनाव से भी पूर्व अर्थात स्वाधीनता प्राप्ति के एकदम बाद मुसलमानों को अपने साथ लेने की रणनीति पर काम करना आरंभ कर दिया था। कांग्रेस के नेताओं ने अपना चुनाव प्रचार कुछ इस प्रकार किया कि देश के मुस्लिम समाज को उस समय ऐसा लगने लगा था कि यदि वह कांग्रेस के साथ नहीं रहे तो उन्हें भारत में कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।  फलस्वरुप मुस्लिम लीग के पश्चात अनाथ हुआ मुस्लिम समाज कांग्रेस के साथ सहज रूप में जुड़ गया।
     कांग्रेस ने मुस्लिम समाज को अपनी जड़तामूलक परंपरावादी मान्यताओं के साथ जुड़ा रहने दिया। कांग्रेस के नेता यह भली प्रकार जानते थे कि यदि जड़तावादी मुस्लिम समाज को आधुनिकता के साथ जोड़ने का काम आरंभ हो गया तो वह कभी भी इसका स्थाई 'वोट बैंक' नहीं हो सकता ? यही कारण रहा कि सत्ता में बैठी हुई कांग्रेस के द्वारा मुस्लिम समाज को उसकी परंपरावादी सांप्रदायिक मान्यताओं के साथ गहराई से जुड़ने के लिए प्रेरित किया गया। उसे आधुनिकता के साथ जोड़ने का प्रयास नहीं किया गया। 
    देश के मुस्लिम समाज को कांग्रेस के द्वारा पुचकार कर 14 वीं सदी के साथ जोड़ दिया गया। जबकि सनातनधर्मियों की कई वैज्ञानिक मान्यताओं को भी नेहरू ने अपनी नासमझी के चलते बदलने का प्रयास किया। संख्या बल में उस समय विपक्ष बहुत कमजोर था। उसके पास बोलने वाले कई धुरंधर नेता तो थे पर नेहरू के प्रचंड बहुमत का सामना करने के लिए पर्याप्त संख्या बल का अभाव था। इन सब परिस्थितियों में नेहरू का व्यक्तित्व बहुत हावी प्रभावी और वर्चस्वी हो चुका था। कांग्रेस के नेता नेहरू ने देश में संसदीय लोकतंत्र को स्थापित होते हुए देखकर भी देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ कुछ इस प्रकार की सांठगांठ की कि उनकी नीतियों को लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में स्थान देना आरंभ कर दिया। जिससे भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र को स्थापित विकसित होने का अवसर मिला। यद्यपि लोकतंत्र में पूंजीवादी विचार का कहीं दूर तक भी स्थान नहीं होता। यहां तक कि कम्युनिस्ट भी पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध रहते हैं, पर उनकी रणनीति और छद्मवाद के चलते भारत में इसी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था ने आकार लेना आरंभ किया। परिणाम यह रहा कि दूसरी लोकसभा के चुनाव जब हुए तो पंडित जवाहरलाल नेहरू की चुनावी रणनीति और लोकप्रियता के चलते कांग्रेस शानदार ढंग से सत्ता में दोबारा लौट आई।

    दूसरे लोकसभा चुनाव का परिणाम

    कांग्रेस ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 494 लोकसभा सीटों में से 371 सीटों पर विजय प्राप्त की। लोकसभा के दूसरे चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 27 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। जिससे वह दूसरे स्थान पर रही। जबकि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी 19 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रही। ज्ञात रहे कि 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम का क्रियान्वयन हुआ था। उसके पश्चात देश में यह पहले आम चुनाव थे, जिनमें चुनावी मैदान कांग्रेस के हाथों में रहा। लोकसभा के दूसरे चुनाव में चार राष्ट्रीय और 11 राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों ने प्रतिस्पर्धा की। जिसमें 45 उम्मीदवारों में से 22 महिलाएं चुनकर लोकसभा में प्रवेश करने में सफल हुईं। सबसे अधिक महिलाएं मध्य प्रदेश से चुनकर देश के सर्वोच्च सदन में पहुंचने में सफल हुई। महिलाओं का देश की संसद में पहुंचना एक क्रांतिकारी संकेत था। यह वह समय था जब महिला शक्ति का शोषण करते हुए उसके लिए समाज के ठेकेदारों ने सीमाएं खींच रखी थीं। समाज की इस प्रकार की रेखाओं को लांघना और फिर उसमें देश के सभी लोगों का नारी शक्ति को समर्थन मिल जाना नारी शक्ति के लिए उस समय बड़ा कठिन कार्य था। इस प्रकार के सामाजिक प्रतिबंधों के उपरांत भी यदि महिला शक्ति को देश की संसद में पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो इसे समय का क्रांतिकारी मोड़ कहा जा सकता है।

    लोकसभा के दूसरे चुनाव के समय भी भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ही थे।

    दूसरी लोकसभा के पदाधिकारी

    देश की दूसरी लोकसभा ने अध्यक्ष का गौरवपूर्ण पद एम0 अनंतशयनम अयंगर को दिया। जबकि उपाध्यक्ष के रूप में सरदार हुकम सिंह को नियुक्त किया गया। लोकसभा के सचिव उस समय भी श्री कौल ही बने रहे। दूसरी लोकसभा ने 5 अप्रैल 1957 से 31 मार्च 1962 तक कार्य किया। दूसरे आम चुनाव के समय देश के कुल मतदाताओं की संख्या 19 करोड़ 36 लाख 52 हजार 179 थी। जिनमें से 45.44% मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। कांग्रेस को उस समय कुल पड़े हुए मतों में से 5 करोड़ 75 लाख 79 हजार 589 मत प्राप्त हुए थे। यानी कांग्रेस को देश की सत्ता में भेजने के लिए मात्र 17 प्रतिशत लोग उसका समर्थन कर रहे थे।
    के.वी.के. सुन्दरम ( 20 दिसंबर 1958 से 30 सितंबर 1967) लोकसभा के दूसरे चुनाव के समय देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे। देश के दूसरे लोकसभा चुनाव में मात्र 30 पैसे प्रति मतदाता खर्च हुआ था ।अब तक के लोकसभा चुनावों में यह सबसे सस्ता लोकसभा चुनाव था। देश ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में इसी समय अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना को लागू किया।
    यह योजना सार्वजनिक क्षेत्र के विकास और तेजी से औद्योगिकरण के विचार को लेकर आगे बढ़ी। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस योजना को विभिन्न क्षेत्र में लगभग 50 अरब रुपए आवंटित किए गए थे। देश ने नई तकनीक और कुशल निवेश को प्राप्त करने की दिशा में ठोस कदम बढ़ाए । यह प्रयास किया गया कि भारत की वार्षिक राष्ट्रीय आय 4.5% तक बढ़ जाए।
    भीखू पारेख के अनुसार , ‘नेहरू को आधुनिक भारतीय राज्य का संस्थापक माना जा सकता है। पारेख इसका श्रेय नेहरू द्वारा भारत के लिए तैयार किए गए राष्ट्रीय दर्शन को देते हैं। उनके लिए, आधुनिकीकरण राष्ट्रीय दर्शन था, जिसके सात लक्ष्य थे: राष्ट्रीय एकता, संसदीय लोकतंत्र, औद्योगीकरण, समाजवाद, वैज्ञानिक स्वभाव का विकास और गुटनिरपेक्षता।’
    पारेख जैसे लेखकों ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के इस राष्ट्रीय दर्शन पर विशेष प्रकाश डाला है। जिन लोगों ने रामायण, महाभारत सहित वेदों में राजा के कर्तव्यों या भारत के प्राचीन कालीन ऋषियों और लेखकों द्वारा राज धर्म को नहीं जाना समझा है उनकी दृष्टि में ही नेहरू का राष्ट्रीय दर्शन पूर्ण हो सकता है, जबकि सच यह है कि नेहरू का यह राष्ट्रीय दर्शन हमारे वैदिक ऋषियों के दर्शन के समक्ष बहुत ही छोटा है। नेहरू को महत्व देते समय या उनके चिंतन को राष्ट्रीय चिंतन की गीता घोषित करने से पहले हमें अपने महान दार्शनिक ऋषियों के वेद संगत राष्ट्र दर्शन को भी समझना चाहिए।

    राजा के 36 गुणों का उल्लेख

    "भीष्म पितामह राजकाज के व्यक्ति में आवश्यक रूप से शामिल होने वाले 36 गुणों का उल्लेख करते हैं। यह गुण आज की राजनीतिक व्यवस्था में भी शासक के लिए मार्गदर्शक हैं। ये गुण निम्नवत हैं- 1. राजा स्वधर्मों का (राजकीय कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्त्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह) आचरण करे, परंतु जीवन में कटुता न आने दे। 2. आस्तिक रहते हुए दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार न छोड़े। 3. क्रूरता का व्यवहार न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।  4. मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।  5. दीनता न दिखाते हुए ही प्रिय भाषण करे।  6. शूरवीर बने, परंतु बढ़-चढ़कर बातें न करे। इसका अर्थ है कि राजा को मितभाषी और शूरवीर होना चाहिए। 7. दानशील हो, परंतु यह ध्यान रखे कि दान अपात्रों को न मिले। 8. राजा साहसी हो, परंतु उसका साहस निष्ठुर न होने पाए। 9. दुष्ट लोगों के साथ कभी मेल-मिलाप न करे, अर्थात राष्ट्रद्रोही व समाजद्रोही लोगों को कभी संरक्षण न दे।  10. बंधु-बांधवों के साथ कभी लड़ाई-झगड़ा न करे। 11. जो राजभक्त न हों ऐसे भ्रष्ट और निकृष्ट लोगों से कभी भी गुप्तचरी का कार्य न कराए।  12. किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना ही अपना काम करता रहे। 13. दुष्टों को अपना अभीष्ट कार्य न कहे अर्थात उन्हें अपनी गुप्त योजनाओं की जानकारी कभी न दे। 14. अपने गुणों का स्वयं ही बखान न करे। 15.श्रेष्ठ पुरुषों (किसानों) से उनका धन (भूमि) न छीने। 16. नीच पुरुषों का आश्रय न ले, अर्थात अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए कभी नीच लोगों का सहारा न ले, अन्यथा देर-सबेर उनके उपकार का प्रतिकार अपने सिद्घांतों की बलि चढ़ाकर देना पड़ सकता है। 17. उचित जांच-पड़ताल किए बिना (क्षणिक आवेश में आकर) किसी व्यक्ति को कभी भी दंडित न करे।   18. अपने लोगों से हुई अपनी गुप्त मंत्रणा को कभी भी प्रकट न करे। 19. लोभियों को धन न दे।  20 जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उन पर कभी विश्वास न करे।  21. ईर्ष्यारहित होकर अपनी स्त्री की सदा रक्षा करे।  22. राजा शुद्घ रहे, परंतु किसी से घृणा न करे। 23. स्त्रियों का अधिक सेवन न करे। आत्मसंयमी रहे। 24. शुद्घ और स्वादिष्ट भोजन करे, परंतु अहितकार भोजन कभी न करे।  25. उद्दंडता छोड़कर विनीत भाव से माननीय पुरुषों का सदा सम्मान करे। 26. निष्कपट भाव से गुरुजनों की सेवा करे।  27. दंभहीन होकर विद्वानों का सत्कार करे, अर्थात विद्वानों को अपने राज्य का गौरव माने। 28.ईमानदारी से (उत्कोचादि भ्रष्ट साधनों से नहीं) धन पाने की इच्छा करे।  29. हठ छोड़कर सदा ही प्रीति का पालन करे। 30. कार्यकुशल हो, परंतु अवसर के ज्ञान से शून्य न हो।  31. केवल पिंड छुड़ाने के लिए किसी को सांत्वना या भरोसा न दे, अपितु दिए गए विश्वास पर खरा उतरने वाला हो। 32. किसी पर कृपा करते समय उस पर कोई आक्षेप न करे।  33. बिना जाने किसी पर कोई प्रहार न करे। 34. शत्रुओं को मारकर किसी प्रकार का शोक न करे। 35. बिना सोचे-समझे अकस्मात किसी पर क्रोध न करे। 36. कोमल हो, परंतु  अपकार करने वालों के लिए नहीं। शांतिपर्व में रेखांकित किए गए राजा के 36 गुण भारतीय राजनीतिक चिंतन के आदर्श बन गए।"

    ( 16 जून 2018 को महाराणा प्रताप की जयंती पर “दिव्य हिमाचल” से साभार)
    वास्तव में इन 36 गुणों को अपनाने की वकालत वही व्यक्ति कर सकता है जो भारतीय वैदिक वांग्मय से जुड़ा हो। राजनीति में इन 36 गुणों का बहुत महत्व है। जिसके पास विचारधारा की यह समृद्ध परंपरा होती है, वह राजनीति न करके राष्ट्रनीति को अपना लेता है। उसकी सोच और उसकी नियत की पवित्रता उसे राष्ट्र नायक बना देती है। निश्चित रूप से राजनीतिज्ञ से राष्ट्रनायक बड़ा होता है। जब हम अपने देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू को देखते हैं तो पाते हैं कि वह भारत के नेताओं के भीतर इस प्रकार के गुणों की तो कल्पना तक नहीं कर सकते थे।
    इस सबके उपरांत भी हम इस बात से सहमत हैं कि नेहरू जी का भारत के समकालीन इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। उनके सकारात्मक योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

    डॉ राकेश कुमार आर्य