Home Blog Page 9

हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है

भारत विश्व का एक ऐसा देश है, जहां भाषाओं की विविधता पाई जाती है। यहां अलग-अलग समूहों द्वारा अनेक भाषाएं बोली,पढ़ी,लिखी व समझी जाती हैं, लेकिन भारत के संविधान में हिंदी को भारत की राजभाषा ( यानी कि आफिशियल लैंग्वेज) का दर्जा प्राप्त है। गौरतलब है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार, देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी को संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। यह(हिंदी)भारत की मातृभाषा भी है तो भारत की प्रथम राजभाषा भी। गौरतलब है कि भारत की द्वितीय राजभाषा अंग्रेजी है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि वर्ष 2011 की भाषायी जनगणना के अनुसार: भारत में 121 मातृभाषाएँ हैं। एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार 55% आबादी हिंदी को या तो मातृभाषा के रूप में या अपनी दूसरी भाषा के रूप में जानती है तथा आज दुनिया में लगभग  60-65 करोड़  लोग हिंदी बोलते हैं, जिससे यह विश्व में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है।सच तो यह है कि अंग्रेजी और मंदारिन(मंडारिन) चीनी के बाद हिंदी का स्थान प्रमुख है। हिंदी न केवल भारत में, बल्कि आज विश्व के कई अन्य देशों जैसे कि नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, और पाकिस्तान में भी बोली, पढ़ी, लिखी और समझी जाती है और विश्व के बहुत से देशों ने आज हिंदी के महत्व,इसकी वैज्ञानिकता,इसकी दमदार शब्दावली को सहज ही स्वीकार किया है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1971 से वर्ष 2011 के बीच हिंदी बोलने वालों की संख्या 2.6 गुना बढ़कर 20.2 करोड़ से 52.8 करोड़ हो गई। वर्ष 2011 के बाद से अब तक इस संख्या में बहुत अधिक इजाफा हुआ है और यह हम सभी को गौरवान्वित महसूस कराता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हिंदी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ रही है और निरंतर आगे बढ़ रही है। हाल ही में यानी कि 26 जून 2025 को नई दिल्ली स्थित भारत मंडपम में हमारे देश के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने केंद्र सरकार के राजभाषा विभाग की स्वर्ण जयंती समारोह में भाग लिया। इस दौरान उन्होंने यह बात कही कि ‘हिंदी किसी भी भारतीय भाषा की विरोधी नहीं है, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं की मित्र है।’ बहरहाल, कहना चाहूंगा कि आज हमारे देश में भाषा को लेकर तरह-तरह की राजनीति की जाती है, इसे कदापि ठीक व जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। इससे बड़ी विडंबना की व दु:खद बात भला और क्या हो सकती है कि आज भाषाओं को लेकर कहीं भी कोई न कोई जुबानी जंग छिड़ जाती है। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि लोगों को आपस में जोड़ने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भाषा को ही माना जाता है और हिंदी हमारे देश की वह भाषा है, जो सदियों सदियों से हमारे देश भारत को एकता व अखंडता के सूत्र में पिरोए हुए हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि हिंदी किसी भी भाषा की विरोधी कतई नहीं है। हिंदी वह भाषा है, जिसमें हमारे देश की सनातन संस्कृति की झलक मिलती है, तथा यह हमारे सामाजिक ताने-बाने को मजबूत व सुदृढ़ रखे हुए है, स्वतंत्रता के पूर्व से लेकर, हमारे देश की स्वतंत्रता प्राप्ति और इसके बाद भी निरंतर अब तक हिंदी अपनी संस्कृतनिष्ठता,व्यवस्थितता और अपने लचीलेपन से इसका प्रयोग ज्ञान-विज्ञान से लेकर साहित्य, और संचार के विभिन्न माध्यमों में लगातार बढ़ता ही चला जा रहा है, जो हमें गौरवान्वित करती है। हमें अपनी मां बोली हिंदी पर या यूं कहें कि अपनी मातृभाषा पर गर्व करना चाहिए। हम अंग्रेजी का विरोध नहीं करें, क्यों कि कोई भी भाषा कभी भी अच्छी बुरी नहीं हो सकती है‌। सभी भाषाओं का अपना-अपना महत्व है। इसलिए हमें यह चाहिए कि हम सभी भाषाओं या ज्यादा से ज्यादा भाषाओं को सीखने का प्रयास करें, यह हमारे ज्ञान में बढ़ोत्तरी करेगा वहीं व्यवहार में भी ये भाषाएं हमारे कहीं न कहीं अवश्य काम में आयेंगी, लेकिन हमें यह चाहिए कि भारत के निवासी होते हुए हम सबसे ज्यादा तवज्जो अपनी मातृभाषा हिंदी को दें। अपनी मातृभाषा को छोड़कर,उसे तिलांजलि देकर, दूसरी भाषाओं को अपनाकर , या उन्हें सीखकर हम कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते, क्यों कि जो बात हम अपनी मातृभाषा में सहजता और सरलता से कह सकते हैं, अभिव्यक्ति दे सकते हैं,वह शायद विश्व की किसी अन्य भाषा में नहीं। हिंदी भाषा भारत की विविध संस्कृतियों को एकजुट करने और सामाजिक एकीकरण की भावना पैदा करने में एक सेतु का काम करती है। महात्मा गांधी जी ने राष्ट्रभाषा के बारे में यह बात कही है कि ‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ हिंदी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा हिन्दी ही है और इसमें तद्भव शब्द सभी भाषाओं से अधिक है। आज भाषा के नाम पर राजनीति होती है, यह बहुत ही ग़लत है। जापानियों ने जिस ढंग से विदेशी भाषाएँ सीखकर अपनी मातृभाषा को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया है उसी प्रकार हमें भी मातृभाषा (हिंदी) का भक्त होना चाहिए। हाल फिलहाल, पाठकों को बताता चलूं कि 

राजभाषा विभाग के स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान हमारे गृहमंत्री जी ने भी यह बात कही है कि ‘किसी भी विदेशी भाषा का विरोध नहीं होना चाहिए, लेकिन हमें अपनी मातृभाषा पर गर्व भी करना चाहिए।’ वास्तव में हमें यह चाहिए कि हम  मातृभाषा में सोचने, बोलने के साथ-साथ उसे अभिव्यक्त करने की भावना को भी प्रोत्साहित करें।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में यह कहा है कि ‘…पिछले कुछ दशकों में भाषा का इस्तेमाल भारत को बांटने के साधन के रूप में किया गया। वे इसे तोड़ नहीं पाए, लेकिन प्रयास किए गए। हम सुनिश्चित करेंगे कि हमारी भाषाएं भारत को एकजुट करने का सशक्त माध्यम बनें।’ महाराष्ट्र और कर्नाटक समेत कई राज्यों में राजभाषा को लेकर सवाल उठाए गए, तमिलनाडु ने तो जैसे हिंदी विरोध में राजनीतिक मोर्चा खोल रखा है। वास्तव में यह बहुत दुखद है, ऐसा नहीं होना चाहिए। आज भारत दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है, जहां राजभाषा के लिए एक अलग विभाग है तथा इसके कार्यान्वयन के लिए अधिकारी व हिंदी अनुवादक मौजूद हैं। दुनिया में ऐसा उदाहरण कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। हम हमारे ही देश में भाषा की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि आज संचार की भाषा हिन्दी है, बाजार और सिनेमा से लेकर आज कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां हिंदी का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। हमें यह चाहिए कि हम किसी विदेशी भाषा का विरोध कतई नहीं करें। भारत के वासी होते हुए हमारा यह परम कर्तव्य बनता है कि हम आग्रह  अपनी भाषा(हिंदी) के गौरव का करें। जैसा कि केंद्रीय गृह मंत्री जी ने कहा है कि ‘आग्रह अपनी भाषा में सोचने का होना चाहिए। हमें गुलामी की मानसिकता से मुक्त होना चाहिए।’ सच तो यह है कि जब तक हम अपनी भाषा पर गर्व नहीं करेंगे, अपनी भाषा में अपनी बात नहीं कहेंगे, तब तक हम गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकते हैं। दिल्ली में राजभाषा स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान हाल ही में गृहमंत्री जी ने सभी राज्य सरकारों से आग्रह किया है कि वे स्थानीय भाषाओं में चिकित्सा और इंजीनियरिंग जैसी उच्च शिक्षा प्रदान करने की पहल करें। उन्होंने आश्वासन दिया है कि केंद्र सरकार इस दिशा में राज्यों को हरसंभव सहयोग देगी।’ पाठकों को बताता चलूं कि गृह मंत्री जी ने इस बात पर भी जोर दिया कि प्रशासनिक कार्यों में भारतीय भाषाओं का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए। आज यह देखने को मिलता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच प्रतिस्पर्धा है। प्रतिस्पर्धा अपने स्थान पर है, लेकिन हमें हिंदी के योगदान को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए। हिंदी किसी भी भाषा की विरोधी नहीं है अपितु यह सहयोगी है। हिंदी सबको साथ लेकर चलती है। वास्तव में भाषाएं मिलकर देश के सांस्कृतिक आत्मगौरव को ऊंचाई तक ले जा सकती हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हम मानसिक  गुलामी की भावना से मुक्ति पाने पर जोर दें। हमें यह याद रखना चाहिए कि जब तक कोई व्यक्ति अपनी भाषा पर गर्व महसूस नहीं करता और खुद को उसी भाषा में अभिव्यक्त नहीं करता, तब तक वह पूरी तरह आजाद नहीं हो सकता। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 351 हिंदी भाषा के विकास और प्रसार के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देता है। इसका उद्देश्य हिंदी को भारत की ‘सामासिक संस्कृति’ के तत्वों को व्यक्त करने का एक माध्यम बनाना है। गौरतलब है कि अनुच्छेद 351 में, केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है कि हिंदी भाषा का विकास इस तरह से हो कि वह भारत की समग्र संस्कृति को व्यक्त करने का एक माध्यम बन सके। इसके लिए, हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं और संस्कृत से शब्द भंडार और अभिव्यक्तियों को ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, ताकि यह अधिक समृद्ध और व्यापक बन सके। संक्षेप में कहें तो अनुच्छेद 351 हिंदी भाषा के विकास और प्रसार के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है। वास्तव में, यह सुनिश्चित करता है कि यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को प्रतिबिंबित करे और सभी भारतीयों के लिए एक सामान्य भाषा बन सके। अंत में यही कहूंगा कि हिन्दी संस्कृत की बेटियों में सबसे अच्छी और शिरोमणि है। महात्मा गांधी ने यह बात कही थी कि ‘हिंदुस्तान के लिए देवनागरी लिपि का ही व्यवहार होना चाहिए, रोमन लिपि का व्यवहार यहाँ हो ही नहीं सकता।’ वास्तव में राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।अनंत गोपाल शेवड़े ने कहा है कि ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है।’ और यह बात हम सबको अपने जेहन में रखनी चाहिए।के.सी. सारंगमठ कहते हैं कि ‘दक्षिण की हिन्दी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है।’सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है।

सुनील कुमार महला

दुश्मन की नींद उड़ाने वाला स्वदेशी चमत्कार- भारत का ‘आकाशतीर’ ड्रोन

शिवानन्द मिश्रा

“आकाशतीर” नाम का यह स्वदेशी ड्रोन हाल ही में भारत-पाक संघर्ष के दौरान इस्तेमाल हुआ और इसकी ताकत देखकर पाकिस्तान ही नहीं, चीन और अमेरिका तक हैरान रह गए।

ये ड्रोन पाकिस्तान की सीमा में बिना किसी शोर और रडार सिग्नल के गया, अपना टारगेट पूरा किया और सही-सलामत लौट भी आया।

किसी को भनक तक नहीं लगी। भारत के इस “निर्जीव जाबांज-योद्धा” को अमेरिकी एक्सपर्ट्स ने भी मान लिया कि भारत की ये तकनीक स्टील्थ टेक्नोलॉजी में अब दुनिया के सबसे आगे वाले देशों की बराबरी कर रही है।

“आकाशतीर” की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसे चलाने के लिए इंसान की सीधी जरूरत नहीं पड़ती। ये खुद फैसला करता है – कहां जाना है, किसे निशाना बनाना है, और कैसे निकलना है। केवल एक बार फीड कर दिया, निश्चिंत जबकि दुनिया के बाकी देश अभी भी इंसानी कंट्रोल पर निर्भर हैं. भारत ने ऐसा सिस्टम तैयार कर लिया है जो बिना देरी के खुद ही निर्णय ले सकता है।

यही वजह रही कि पाकिस्तान की एयर डिफेंस पूरी तरह फेल हो गई। न रडार में आया, न अमेरिका से मिले AWACS सिस्टम ने कोई अलर्ट दिया। इस ड्रोन को DRDO, BEL और ISRO ने मिलकर बनाया है। इसे सिर्फ ड्रोन कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि यह एक पूरा सिस्टम है – ‘सिस्टम ऑफ सिस्टम्स’।

इसमें ग्राउंड रडार, मोबाइल कंट्रोल सेंटर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और सैटेलाइट सब जुड़े हुए हैं।

ISRO के Cartosat और RISAT जैसे उपग्रह इसे रियलटाइम तस्वीरें और डेटा भेजते हैं। इसके साथ ही भारत का अपना NAVIC GPS सिस्टम इसे ज़बरदस्त सटीकता देता है जो पहाड़ी और दूर-दराज इलाकों में अमेरिका या चीन के GPS सिस्टम से भी बेहतर साबित हुआ है। आकाशतीर की काम करने की रफ्तार भी लाजवाब है। सेकंडों में ये नया रूट बना लेता है, अपने मिशन को एडजस्ट कर लेता है और टारगेट की पहचान बदल भी सकता है।

यह सब बिना किसी इंसानी आदेश के होता है। इसकी वजह से पाकिस्तान को पता ही नहीं चला कि कब हमला हुआ और कब मिशन खत्म हो गया।

ये रणनीतिक चुप्पी अब चीन के सैन्य गलियारों में भी चिंता का कारण बन गई है, क्योंकि उन्हें लगने लगा है कि भारत अब सिर्फ रक्षात्मक नहीं, आक्रामक टेक्नोलॉजी में भी आगे बढ़ रहा है। तुर्की ने भी माना है कि भारत का ये ड्रोन अब एक नया बेंचमार्क बन गया है। तुर्की के बायरकटर ड्रोन, जिन पर वो गर्व करता था, अब पीछे छूटते दिख रहे हैं।

आकाशतीर का एआई-संचालित ड्रोन झुंड (swarm) एक साथ कई टारगेट पर अटैक कर सकता है और खुद तय कर सकता है कि कौन सा टारगेट पहले खत्म करना है।

इसे चलाना भी इतना आसान है कि एक जवान जीप में बैठकर लैपटॉप से भी इसे ऑपरेट कर सकता है।

आखिर में बात साफ है –

भारत अब सिर्फ रक्षा उपकरण खरीदने वाला देश नहीं है। अब हम खुद बना रहे हैं, और वो भी ऐसी टेक्नोलॉजी जो दुनिया को चौंका रही है। आकाशतीर सिर्फ एक ड्रोन नहीं है, ये भारत की आत्मनिर्भरता, तकनीकी ताकत और नए सामरिक युग की शुरुआत है।

अब भारत मैदान में है – तकनीक के साथ, आत्मबल के साथ और विजन के साथ।

सीजफायर हुआ। मजा नहीं आया। 

पर युद्ध क्या मजा देता है? नहीं… भारत मजे के लिए युद्ध नहीं करता। तो हम निराश क्यों हुए? केवल इसलिए कि 

1. पीओके हमारे साथ नहीं मिलाया गया।

2. बलूचिस्तान अलग देश नहीं बना।

3. KP के रूप में नया देश सामने नहीं आया।

पर हमें लाभ क्या हुए?

1. शिमला समझौते से मुक्ति मिली।

2. सिंधु जल समझौते से मुक्ति मिली।

3. भारत की सैन्य श्रेष्ठता स्थापित हुई।

4. तुर्की और अज़रबैजान जैसे देशों की दोस्ती साफ हुई, इन का उम्मत के लिए प्रेम शायद योजनाकार स्पष्ट रूप से समझें, हमारे देशवासी अगर समझेंगे तो इन देशों के पर्यटन को झटका लगेगा।

5. पाकिस्तान के परमाणु शक्ति संपन्न होने के ढ़ोल की पोल खुल गई। काठ की हांडी अब अगली बार नहीं चढ़ेगी।

6.भारत को ब्रह्मोस मिसाइल के कई देशों से हजारों करोड़ के ऑर्डर मिले। और भी फायदे हुए होंगे जो वक्त के साथ सामने आएंगे। 

भारत का क्षमाशील होना कमजोर की क्षमा नहीं, वीर की क्षमा है। संसार अब इस बात को समझ चुका होगा।

 दो पार्टियां ऐसी हैं जिनके समर्थक सबसे बड़े जाहिल हैं ,एक तो समाजवादी पार्टी और एक राष्ट्रीय जनता दल। उनको कुछ नहीं पता होता कि सरकार कैसे चलती है, कैसे नीतियां बनती है, कैसे क़ानून बनते हैं । वे बस जाति आधारित नेता के चेहरे पे वोट दे देते हैं। उनके हर वक्तव्य में जाहिलियत झलकती है। उन्हें लगता है कि POK छोले भटूरे की प्लेट है जो ऑर्डर किया और आ गया। ऐसे कदम उठाने से पहले पूरे विश्व को साथ लाना पड़ता है जिसमें कूटनीति काम आती है जो नरेंद्र मोदी जी कर रहे है। इनके इंडी अलायन्स के पार्टनर की जब सरकार थी, तब ये जम्मू कश्मीर की बात करते थे। आज बीजेपी की सरकार है तो POK पर बात होती है। इनको ये अंतर नहीं समझ में आता। इनके नेताओ ने इनका जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए कुछ किया ही नहीं क्योकि उनको पता है कि ये पढ़ लिख गए तो हमें वोट ही नहीं देंगे।

शिवानन्द मिश्रा

क्या अमेरिका-इजरायल खामेनेई को सत्ता से हटाने में सफल हो पाएंगे !

रामस्वरूप रावतसरे

अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले के बाद ‘मेक ईरान ग्रेट अगेन’ ये बयान दिया था। दरअसल अमेरिका ऐसा कह कर ईरान में सत्ता परिवर्तन की संभावना तलाश रहा है। अमेरिका राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर लिखा, “सत्ता परिवर्तन शब्द का उपयोग करना राजनीतिक रूप से सही नहीं है लेकिन अगर वर्तमान शासन ईरान को फिर से महान बनाने में समर्थ नहीं है तो सत्ता परिवर्तन क्यों नहीं होगा??

अमेरिका ने ईरान में सुप्रीम लीडर खामेनेई को सत्ता से हटाने की कई बार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोशिश की है लेकिन मुस्लिम शिया धर्म के सुप्रीम लीडर खामेनेई को हटाना संभव नहीं हो सका। इस वक्त भी ईरान में सत्ता परिवर्तन की माँग उठ रही है। खुद खामेनेई के परिवार से इसकी माँग उठने लगी है।

महमूद मोरादखानी ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई के भतीजे हैं। वह 1986 में ईरान छोड़कर फ्रांस चले गए थे और निर्वासन की जिंदगी जी रहे हैं। महमूद मोरदखानी ने कहा है कि वह युद्ध के पक्ष में नहीं हैं लेकिन ईरानी सरकार का खात्मा ही यहाँ स्थायी शांति के लिए जरूरी है। महमूद मोरादखानी के अनुसार ‘जो भी इस शासन को मिटा सके, वह जरूरी है।‘ उनका मानना है कि कई ईरानी लोग खामेनेई के कमजोर होने से ईरान में खुश हैं।

ईरान के पूर्व शहजादे रजा पहलवी ने भी शासन में बदलाव पर जोर दिया है। उनका कहना है कि तेहरान में सत्ता पतन जरूरी है। रजा पहलवी ईरान के अंतिम पहलवी शासक मोहम्मद शाह पहलवी के बड़े बेटे हैं। उनका परिवार अमेरिका में निर्वासन की जिंदगी गुजार रहा है। 1979 में देश छोड़कर भागे पूर्व शाह के बेटे रजा पहलवी इस वक्त काफी सक्रिय हैं।

   रजा अमेरिका में रहते हैं और खुद को ईरान के शासक के रूप में देखना चाहते हैं। 2016 में पहली बार जब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने थे तो शाह ने ईरान में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने और लोकतंत्र की बहाली की वकालत की थी।

     इसके बाद फिर जब ट्रंप दूसरी बार राष्ट्रपति बने तो पहलवी ने ईरान में लोकतंत्र की वकालत करते हुए पश्चिमी राष्ट्रों से उसके संबंध सुधारने पर जोर दिया था। अब जब इजरायल ने ईरान पर हमला किया तो वह इजरायल का पक्ष लेते हुए नजर आए। उन्होंने कहा कि ईरान में अभी कई ऐसे लोग हैं जो इजरायल की इस कार्रवाई का समर्थन कर रहे हैं और खामनेई को सत्ताच्युत करना चाहते हैं। माना जा रहा है कि अब राष्ट्रपति ट्रंप ईरान में सत्ता परिवर्तन में रजा पहलवी को समर्थन दे सकते हैं और ईरान में लोकतंत्र की स्थापना की पहल कर सकते हैं। हालाँकि खामनेई ने अपने विकल्प के तौर पर तीन उत्तराधिकारियों को चुन लिया बताया जा रहा है। ये तीनों ही मौलवी हैं यानी ईरान को इस्लामिक राष्ट्र बनाए रखने की व्यवस्था खामेनेई ने कर दी है।

    ईरान में अभी कई संगठन एक्टिव हैं जो चाहते हैं कि सत्ता परिवर्तन हो। इनमें पीपुल्स मुजाहिदीन या मोजाहिदीन ए खल्क यानी एमईके, ग्रीन मूवमेंट प्रमुख हैं। एमईके ऐसा संगठन है जिसे गोरिल्ला युद्ध लड़ने में महारत हासिल है लेकिन अमेरिका इसे नहीं पसंद करता क्योंकि ये संगठन रूस के नजदीक रहा है। अमेरिका विरोध के बावजूद खामेनेई को उखाड़ फेंकने की कोशिश में ये संगठन लगा हुआ है। जानकारी के अनुसार खामेनेई ने ही इस संगठन को कुचला था। धीरे-धीरे खुद को खड़ा करने के दौरान संगठन अमेरिका के संपर्क में भी आ गया। इस दल के नेता को अल्बानिया में स्थापित करने में अमेरिका ने अहम भूमिका निभाई हालाँकि आज की तारीख में ये कहना काफी मुश्किल है कि संगठन ईरान की इस्लामिक सत्ता को उखाड़ फेंकने में सक्षम है।

    ग्रीन मूवमेंट ईरान में 2009 में सुर्खियों में आया। राष्ट्रपति चुनाव में धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए संगठन ने आंदोलन चलाया। देश में लोकतांत्रिक सुधारों की बात करने वाला ये संगठन खामेनेई को सत्ता से हटाना चाहता है और अक्सर विरोध प्रदर्शन करता रहता है। इस संगठन ने 2010 में बड़ा आंदोलन खड़ा किया था। इस्लामिक राष्ट्र का विरोध करने के कारण इसके आंदोलन को दबा दिया गया और इसके नेताओं को गिरफ्तार किया गया। आज की परिस्थिति में ये उम्मीद करना मुश्किल है कि ये संगठन ईरान में इस्लामिक सत्ता को हटा सकता है।

ईरान में इस्लामिक शासन के दौरान वर्षों से महिलाओं का दमन किया जाता रहा है। हिजाब के खिलाफ महिलाएँ सड़कों पर उतरती रही हैं और सरेआम इसे उतार कर फेंकती रही हैं। विरोध प्रदर्शन में हिजाब जलाना, खामेनेई की तस्वीर जलाकर ‘मुल्ला भाग जाओ’ का नारा बुलंद करना आम रहा है। अब इन महिलाओं को खामेनेई को सत्ता से हटाने का विकल्प सामने दिखने लगा है। इधर अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने ईरान में सत्ता परिवर्तन पर बड़ा बयान दिया। उनका कहना है कि वो ईरान के परमाणु कार्यक्रम को खत्म करना चाहते हैं। वे सत्ता परिवर्तन नहीं चाहते।

अमेरिका और इजरायल के अलावा भी कई देश हैं जो खामेनेई को सत्ता से बेदखल होते हुए देखना चाहते हैं। इनमें इराक, सऊदी अरब, लेबनान, मिस्र जैसे पड़ोसी इस्लामिक देश भी शामिल हैं। दरअसल इन राष्ट्रों का झगड़ा शिया-सुन्नी को लेकर है। ईरान एकमात्र शिया इस्लामिक देश है जबकि बाकी देश सुन्नी इस्लामिक राष्ट्र हैं।

रामस्वरूप रावतसरे

रूस-चीन असंभव काम करने की कोशिश कर रहे हैं

राजेश कुमार पासी

वैश्विक राजनीति आज ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां कोई भी देश दूसरे देश पर विश्वास करने को तैयार नहीं है और दूसरी तरफ दुनिया एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था से निकलकर बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर चल पड़ी है । अब भी अमेरिका अकेली महाशक्ति है लेकिन रूस, चीन और भारत उसे चुनौती दे रहे हैं । अमेरिका को यह बर्दाश्त नहीं है इसलिए वो रूस और चीन के रास्ते में रोड़े अटका रहा है । अमेरिका पहले भारत को साथ लेकर चीन को आगे बढ़ने से रोकना चाहता था लेकिन अब उसे भारत से भी डर लगने लगा है। अमेरिका सोचता है कि अगर भारत को नहीं रोका गया तो वो दूसरा चीन बन सकता है। अमेरिका ने रूस को यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझाया हुआ है लेकिन वो रूस को आगे बढ़ने से रोक नहीं पा रहा है। भारत और चीन की मदद से रूस न केवल अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने में कामयाब रहा है बल्कि युद्ध भी जारी रखे हुए है ।

 अमेरिका चीन को तो रूस की मदद करने से नहीं रोक सकता लेकिन भारत को रोकने की पूरी कोशिश कर रहा है। रूस को यह बात समझ आ गई है कि अगर अमेरिका का मुकाबला करना है तो उसे चीन और भारत को साथ लाना पड़ेगा. तभी अमेरिका का मुकाबला किया जा सकता है । रूस की सोच अपनी जगह सही हो सकती है लेकिन वर्तमान हालातों में यह काम असंभव लगता है कि चीन और भारत को साथ लाया जा सके । कुछ मुद्दों पर भारत चीन के साथ मिलकर काम कर सकता है लेकिन उसके साथ भारत के हितों का इतना टकराव है कि एक सीमा से आगे भारत नहीं बढ़ सकता । वास्तव में भारत के लिए चीन से ज्यादा अमेरिका के साथ मिलकर चलना ज्यादा आसान है । इसके अलावा भारत के अमेरिका के सहयोगी देशों के साथ भी अच्छे सम्बन्ध हैं । 

               भारत और चीन की दोस्ती कितनी मुश्किल है, ये बात चीन में चल रही एससीओ संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक से पता चल जाती है । इस संगठन के सदस्य देशों की संख्या दस है और इसमें पाकिस्तान और ईरान भी शामिल हैं । चीन आजकल पाकिस्तान को अपने प्राक्सी के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. अब ये अलग बात है कि अमेरिका की भी यही कोशिश है । पाकिस्तान का भी अजीब है . वो कभी चीन की गोदी में बैठ जाता है तो कभी अमेरिका की गोदी में चला जाता है । वास्तव में दोनों ही देश पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं । भारत  का दबाव था कि एससीओ के साझा घोषणापत्र में आतंकवाद का मुद्दा शामिल किया जाए क्योंकि ये बैठक ही क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर हो रही थी । चीन ने साझा घोषणा पत्र में बलूचिस्तान का जिक्र करके भारत को घेरने की कोशिश की लेकिन पहलगाम का जिक्र तक नहीं किया ।

भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इस बैठक में शामिल होने के लिए चीन गए हुए हैं, उन्होंने सबके सामने पाकिस्तान को इस वैश्विक मंच पर बेनकाब करने का काम किया । उन्होंने पाकिस्तान का नाम लिए बिना कहा  कि आतंकवाद के अपराधियों और प्रायोजकों को जवाबदेह ठहराना ही होगा और इससे निपटने में दोहरे मापदंड नहीं होने चाहिए । उन्होंने कहा कि कुछ देश आतंकवादियों को पनाह देने के साथ आतंकवाद को नीतिगत हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं । उन्होंने कहा कि हमारे क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौती शांति, सुरक्षा और विश्वास की कमी से संबंधित है । उनका कहना है कि आतंकवाद को पालना और गलत हाथों में परमाणु हथियार होना दोनों गलत हैं और हमें अपनी सामूहिक सुरक्षा के लिए इन बुराइयों के खिलाफ एकजुट होना चाहिए ।

 इसके अलावा उन्होंने कहा कि जो लोग अपने संकीर्ण और स्वार्थी उद्देश्यों के लिए आतंकवाद को प्रायोजित, पोषित और उपयोग करते हैं, उन्हें इसके परिणाम भुगतने होंगे । उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर का जिक्र करते हुए कहा कि हमने आतंकवाद का समुचित जवाब दिया है और भविष्य में भी देंगे । उन्होंने चीन पर निशाना लगाते हुए कहा कि आतंकवाद से निपटने में दोहरे मापदंडों के लिए कोई जगह नहीं है । उन्होंने मंच से दोहराया कि भारत आतंकवाद के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति पर चल रहा है । चीन और पाकिस्तान ने आतंकवाद के मुद्दे से दुनिया का ध्यान हटाना चाहा लेकिन राजनाथ सिंह ने साझा घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया जिसके कारण एससीओ का संयुक्त बयान जारी नहीं हो सका । 

                इससे पहले चीन गए हुए एनएसए अजित डोभाल ने भी चीन को उनके देश में ही सुना दिया कि आतंकवाद के प्रति उसका दोहरा रवैया भारत बर्दाश्त नहीं करेगा । वास्तव में भारत पाकिस्तान के आतंकवादियों के खिलाफ जब भी संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव लाया है, उसे चीन ने वीटो कर दिया है ।चीन के हथियारों से ही पाकिस्तान भारत से लड़ रहा था और इसके अलावा भी चीन ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उसकी मदद की थी । चीन अन्य मुद्दों पर भारत के साथ मिलकर चल रहा है लेकिन उसके भारत के साथ मतभेद कम नहीं हैं । रूस आरआइसी बनाना चाहता है जिसमें रूस, चीन और भारत शामिल होंगे लेकिन यह रूस की कोई नई सोच नहीं है । पिछले बीस सालों से रूस इसकी कोशिश कर  रहा है लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली है । रूस चाहता है कि भारत और चीन इस तरह से मिल जाएं जैसे अमेरिका और यूरोप मिलकर चलते हैं लेकिन यह असंभव लगता है । वैसे देखा जाए तो रूस की कोशिश से भारत और चीन के बीच विवादों में कमी आती जा रही है । यही कारण है कि चीन ने पिछले वर्ष एक कार्टून बनाया था जिसमें हाथी और ड्रैगन मिलकर नाचते हुए दिखाए गए थे । ड्रैगन चीन का और हाथी भारत का प्रतीक मानते हुए यह दर्शाने की कोशिश की गई थी कि दोनों देश मिलकर चल सकते हैं । 

               चीन के साथ समस्या तब शुरू हो जाती है जब आतंकवाद पर उसके दोहरे रवैये की  बात आती है । वो आज भी हमारे अक्साई चीन पर कब्जा करके बैठा हुआ है । इसके अलावा भी चीन भारत के कई इलाकों पर अपना दावा पेश करता रहता है । अरुणाचल प्रदेश का तो उसने नाम भी बदला हुआ है । इसके अलावा भारत का चीन के साथ व्यापारिक संतुलन भी समस्या है क्योंकि ये बहुत ज्यादा चीन की तरफ झुका हुआ है । भारत चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा है क्योंकि चीन पर भारत की निर्भरता बहुत ज्यादा है  लेकिन एक बात तो सच है कि अमेरिका अब दुनिया पर कुछ ज्यादा ही दादागिरी चला रहा है. भारत और चीन की ये साझी समस्या है । पाकिस्तान सिर्फ चीन की तरफ से समस्या नहीं है बल्कि अमेरिका की तरफ से भी है लेकिन भारत ने सिंधु जल समझौते के जरिये पाकिस्तान से निपटने का रास्ता निकाल लिया है । आतंकवाद के प्रति भारत ने बेहद सख्त रवैया अपना लिया है, चीन ज्यादा देर तक पाकिस्तान की मदद नहीं कर सकता ।

भारत, चीन और रूस के मिलकर चलने को दुनिया के कई देश उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं क्योंकि अमेरिकी दादागिरी से सारी दुनिया  परेशान है । बेशक चीन के साथ भारत का आना असंभव लगता है लेकिन साझे हितों के लिए ये संभव हो सकता है । भारत और चीन दोनों ही जानते है कि अगर वो मिल जाए तो उनकी बहुत सी समस्याएं खत्म हो सकती है । हो सकता है कि दोनों देश दूसरे मुद्दों को को किनारे रखकर आगे बढ़ें । भविष्य में वो हो सकता है जो अभी असंभव लग रहा है और डोनाल्ड ट्रंप के कारण भी ये संभव हो सकता है क्योंकि वो अमेरिका को महान बनाने के चक्कर में दूसरे देशों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं । 

राजेश कुमार पासी

75 साल: राजनीतिक रूप से आज़ाद लेकिन क्या आर्थिक रूप से अब भी पराधीन!

पंकज जायसवाल 

हम भले ही अपने आपको सुपर पावर बोलें लेकिन सच्चाई है कि अभी भी हमारे बाजार में विदेशी कंपनियां ही राज कर रहीं हैं. हर चीज हर संस्थाओं और बिजनेस पर उनका एकाधिकार सा हो गया है. पश्चिम कई मॉडल से दुनिया के बाजार को नियंत्रित करते हैं. वह एसोसिएशन और फोरम बनाते हैं और उसके मार्फ़त दुनिया के बिजनेस को नियंत्रित करते हैं. आज फ़ूड मार्किट देख लीजिये. चाहे वह भारत या अन्य देश हों, वहां आपको मक्डोनाल्ड, केएफसी, सबवे, बर्गर किंग, पिज़्ज़ा हट, डोमिनो, पापा जॉन, बर्गर किंग, डंकिन डोनट्स, हार्ड रॉक कैफ़े, कैफ़े अमेज़न, वेंडिज, टैको बेल, चिलीज़, नंदोस कोस्टा कॉफी या स्टार बक्स हों,  यही छाये हुए मिलेंगे. ये सब विदेशी ब्रांड हैं. आप भारतीय शहरों के किसी भी मॉल या मार्किट में जाइये. भारतीय फर्मों को इनसे छूटा हुआ बाजार ही मिलता है और तकनीक के बल पर इनका ही एकाधिकार है . स्टार बक्स के आने के बाद भारत के शहरों में कॉफ़ी के होम ग्रोन ब्रांड या चाय के कट्टे पर भीड़ कम होती गई.

भारतीय बाजार में फ़ूड आइटम को देख लीजिये, क्या हम कोल्ड ड्रिंक में पेप्सी, कोक रेड बुल के इतर किसी ब्रांड को देख पाते हैं ?  फ़ूड एवं FMCG में  देख लीजिये, नेस्ले, हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड, प्रॉक्टर एंड गैम्बल एवं कोलगेट का   कब्ज़ा है. इनके प्रोडक्ट लाइफबॉय, लक्स , मैग्गी, ले चिप्स, नेस्कैफे, सनसिल्क, नोर सूप ये सब इनके ही ब्रांड हैं. इनके  आगे इंडियन ब्रांड को उड़ान भरने में बहुत ही मशक्कत करनी पड़ती है. इनके   पूंजी और तकनीक के एकाधिकार के कारण भारतीय कंपनियों को लेवल प्लेइंग फील्ड मिल नहीं पाता है.

एडवाइजरी एवं ऑडिट के क्षेत्र में एर्न्स्ट एवं यंग, केपीएमजी, प्राइस वाटरहाउस,  डेलॉइट, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, मेकेंजी, बेन एंड कंपनी, ए टी कर्णी, ग्रांट थॉर्टन, बीडीओ, प्रोटीवीटी, जेपी मॉर्गन, मॉर्गन स्टैनले, आर्थर एंडर्सन, एक्सेंचर का लगभग कब्ज़ा है. इन कंसल्टिंग फर्मों में से तो कई सरकारों के कामकाज में अंदर तक घुसी हुईं हैं.

कंप्यूटर की दुनिया ले लीजिये. क्या आप आईटी मार्किट में IBM, माइक्रोसॉफ्ट,  एप्पल, इंटेल, डेल, एचपी, सिस्को, लेनोवो के बिना कंप्यूटर की कल्पना कर सकते हैं? आईटी क्षेत्र को लीजिये क्या Adobe Systems, SAP और Oracle को ERP को क्या भारतीय कंपनियां आसानी से बीट कर पा रहीं हैं ? आईटी में IBM, कैपजेमिनी, एक्सेंचर, डेलॉइट का ही दखल प्रभावी है. AI देखिये चैटजीपीटी की ही लीड है.

इंटरनेट देख लीजिये किसका एकाधिकार है ? सोशल मीडिया देख लीजिये हम अपने जीवन का सर्वाधिक समय व्हाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर देते हैं और सर्वाधिक चलने वाले जिस जीमेल अकाउंट, गूगल, अमेज़न या एज्युर  क्लाउड का उपयोग करते हैं, सब विदेशी हैं.  

इंजीनियरिंग या इलेक्ट्रॉनिक में देख लीजिये सीमेंस, GE, फिलिप्स, LG, ABB,  सैमसंग, सोनी, फॉक्सवागन, हौंडा, ह्यूंदै, किआ, सुजुकी, टोयोटा, निसान, BMW, मर्सिडीज़, पॉर्श, रीनॉल्ट,  Sony, Honda, Suzuki, Panasonic, Hitachi, Mitsubishi, Toshiba, ओप्पो, वीवो, वोडाफोन, and Canon, ये सब बाहरी हैं.         

भारत में एयरपोर्ट को ही देख लीजिये. जिसके पास एयरपोर्ट का पूरा का पूरा ब्लू प्रिंट होता है. वह कौन है, सेलेबी टर्की की कंपनी, सेट्स सिंगापुर की कंपनी, इंडो थाई में थाई एयरपोर्ट ग्राउंड सर्विसेज पार्टनर, WFS भी विदेशी कंपनी है, NAS एयरपोर्ट केन्या की कंपनी है. जहाज जिनके  हम चलाते हैं वह एयर बस या बोइंग या बॉम्बार्डियर सब विदेशी कम्पनी ही है. 

इनके कल पुर्जे बनाने वाली कंपनी  भी ज्यादातर विदेशी हैं. पूरे दुनिया के एविएशन को जो रेगुलेट करते हैं वह कौन है IATA, ICAO वह कहां की है उसकी स्थापना कहां हुई थी. क्या इनके एफ्लीएशन के  बिना कोई एविएशन बिजनेस में घुस सकता है ?

 गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम, माइक्रोन, एडोब, यूट्यूब, हनीवेल, नोवार्टिस, स्टारबक्स और पेप्सिको जैसी कई वैश्विक कंपनियों में भारतीय मूल के लोग सीईओ हैं लेकिन ये सभी अब भारतीय नागरिक नहीं बल्कि अब ये उन देशों के नागरिक हैं जहाँ वे काम करते हैं और रहते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि किसी द्विपक्षीय युद्ध की स्थिति में, एक नागरिक के रूप में उनकी निष्ठा किसके प्रति होगी ,उस देश के प्रति, जिसकी नागरिकता उन्होंने ली है, या भारत के प्रति, जहाँ उनकी जड़ें हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है।

 भारत के मामले में स्थिति उलटी है। यहां कई कंपनियां हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा या युद्धकालीन परिस्थितियों में भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं लेकिन उनके सीईओ न तो भारतीय मूल के हैं और न ही भारतीय नागरिक। ऐसे में वही सवाल खड़ा होता है द्विपक्षीय युद्ध की स्थिति में उनकी निष्ठा किसके प्रति होगी? उस देश के प्रति, जिसके वो आज भी नागरिक हैं, या भारत के प्रति, जहाँ वे कार्यरत हैं?

हैवी मशीनरी में यूरोप का अधिकार है. जो हैवी मशीनरी इंडिया में कुछ लाख या कुछ करोड़ में बन सकती है, विशेषता के हिसाब से उसी मशीनरी को ग्लोबल   कार्टेल, एसोसिएशन जैसे मंचो का इस्तेमाल कर और ग्लोबल पेटेंट लेकर वह हमें कई गुना मूल्यों पर बेच रहे हैं. जिन हैवी मशीनों को भारतीय कंपनियां 1 से 2 करोड़ में बना सकती हैं उसे यूरोप की कंपनियां कई करोड़ में भारतीय कंपनियों को बेच रही हैं. इनके जर्मनी या फ्रांस में होने वाले कांफ्रेंस में चले जाइये. आपको इनके एकाधिकार का पता चल जायेगा.

बैंकिंग और रेटिंग कंपनी में क्रिसिल, सिबिल, सिटी बैंक, HSBC बैंक, डोएचे बैंक सब विदेशी हैं. भारत में किसको लोन मिलना चाहिए, किसको नहीं मिलना चाहिए, इतने बड़े प्रश्न का क्रेडिट रेटिंग के रूप में निर्धारण करने वाली कम्पनी जो हर आम ख़ास भारतीयों  के लोन का निर्धारण करती है Transunion CIBIL में अमेरिकन कंपनी Transunion की मॉरिशस रुट के द्वारा बहुमत हिस्सेदारी है मतलब एक अमेरिकी कंपनी निर्धारण कर रही है कि भारत में किसको लोन मिलना चाहिए. ऐसा इकोसिस्टम बनाया है कि भारत की लगभग सभी वित्तीय संस्थान, बैंक या NBFC बिना सिबिल स्कोर के लोन ही नहीं दे सकते. एक तरह से भारत के करोड़ों भारतीयों के क्रेडिट रिपोर्ट के डेटा का प्रभावी रूप से मालिक आज एक अमेरिकी कंपनी है. विदेशी कंपनी सिबिल का इतने माइक्रो लेवल पर कब्ज़ा है कि मजदूर से लेकर मध्य वर्ग को लोन मिलेगा कि नहीं, यह उसके रिपोर्ट पर निर्भर करता है.

भारत को अभी इस क्षेत्र में मीलों सफर तय करना है जब देश के बाहर विदेशों में भी भारतीय ब्रांड छायें रहें, जैसे अभी विदेशी ब्रांड भारत और दुनिया के देशों में कब्ज़ा जमाये हैं. अभी ऐसे बहुत से लिस्ट हैं. यहां तो उसी का उल्लेख किया गया है जो पॉपुलर हैं. यह ध्यानाकर्षण इसलिए कि सरकार को और नियामकों को इस विषय पर चिंतन करना चाहिए और भारत फर्स्ट को ध्यान में रखते हुए ऐसे   बजट को ऐसे बनाना चाहिए कि वह भारतीय कंपनियों को पॉपुलर ग्लोबल ब्रांड बनने का मार्ग प्रशस्त करे.

 एक राष्ट्र के रूप में हमें यह मानसिकता अपनानी चाहिए कि हम अपने देशी ब्रांडों की सराहना करें और उनका समर्थन करें, चाहे वह जियो, रिलायंस, अदानी , टाटा , बिड़ला , पतंजलि , सीसीडी , सहारा या किंगफिशर हो। इन उद्यमों ने संस्थाएं खड़ी की हैं, बड़े पैमाने पर रोजगार सृजित किया है और हमारी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जब सरकार, बैंक या कोई नियामक संस्था कोई कार्रवाई करें तो उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे संगठनों का अस्तित्व और निंरतरता सुरक्षित रहे। आखिरकार, ये व्यवसाय केवल उनके प्रवर्तकों का नहीं हैं बल्कि उन लाखों कर्मचारियों, उनके परिवारों के भविष्य और उन बच्चों की शिक्षा के बारे में भी हैं जो इनसे जुड़ें हैं और पोषित हैं। ये कंपनियां करों का भुगतान कर राष्ट्र को ईंधन भी देती हैं जिससे जनकल्याण और विकास संभव होता है।

इसलिए हमें अपने स्वदेशी ब्रांडों को कमजोर या नष्ट होने देने की बजाय ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाना चाहिए जिसमें वे फलें-फूलें, योगदान दें और भारत के भविष्य का निर्माण करते रहें।

पंकज जायसवाल 

वह काला आपातकाल : बाद में पछताई थी इंदिरा गांधी

बाद में पछताई थी इंदिरा गांधी

डॉ घनश्याम बादल

25 जून 1975 की रात के 12:02 बजे, आकाशवाणी से एक संदेश प्रसारित हुआ  “राष्ट्रपति ने देश में आपात स्थिति लागू कर दी है”  और इसके साथ ही देश भर से विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी का लंबा दौर शुरू हो गया। सारा देश हस्तप्रभ था लेकिन किसी की हिम्मत नहीं कि विरोध करें और जिसने विरोध किया वह  जेल मे गया जहां उसे थर्ड डिग्री की यातनाएं  दी गईं। यह था देश में अंतरिक्ष सुरक्षा के नाम पर पहली बार लागू की गई इमरजेंसी का प्रभाव।

  आपातकाल लागू करने के लिए संवैधानिक औपचारिकताओं का भी पालन नहीं किया गया था संविधान के अनुसार देश में आपातकालीन स्थिति लागू करने के लिए मंत्रिमंडल की लिखित संस्तुति जरूरी होती है लेकिन न तो मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई थी और न ही स्पष्ट रूप से यह बताया गया था कि आखिर देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा क्या था । इससे भी बढ़कर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने केवल प्रधानमंत्री की सिफारिश के आधार पर देश में आपातकालीन स्थिति के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे ।  हालांकि इस पर भी विवाद होते रहे हैं और कहा तो यहां तक गया कि आपातकालीन स्थिति की घोषणा पहले की गई एवं राष्ट्रपति से इस पर हस्ताक्षर बाद में कराए गए एक तरह से उन्हें बाध्य करके । ख़ैर इसमें कितना सच है यह कभी पता नहीं चला और न ही इसके चलने की कोई संभावना है।

यदि आपातकालीन स्थिति की पृष्ठभूमि पर एक नज़र डालें तो पता चलता है कि  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अनुसार देश में उस समय भारी अव्यवस्था, दंगे, धरने, प्रदर्शन और कानून तथा व्यवस्था की स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि उसे नियंत्रण में करने के लिए आपातकालीन स्थिति लागू करना आवश्यक हो गया लेकिन विपक्ष के अनुसार यह इंदिरा गांधी ने केवल अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए लगाई थी और उनका एकमात्र लक्ष्य अपनी अधिनायकवादी सत्ता को बनाए रखना था।

  जब इतिहास को खंगालते हैं तो जो बातें उभर कर सामने आती हैं उनमें सबसे प्रमुख था इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह निर्णय जिसमें तत्कालीन न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव में प्रतिद्वंद्वी राजनारायण की याचिका पर हुई सुनवाई के बाद अपने निर्णय में इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा चुनाव में हुई विजय को अवैधानिक करार दे दिया था।‌  न्यायालय के अनुसार इंदिरा गांधी पर लगाए गए आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप सिद्ध हो गए थे और उन्हें परोक्ष रूप से सरकारी संसाधनों व केंद्र सरकार के अधिकारियों खास तौर पर प्रधानमंत्री के निजी सचिव यशपाल कपूर, तथा श्रीमती गांधी के संसदीय क्षेत्र के डी एम एवं पुलिसअधीक्षक द्वारा अपने अधिकारों का बेजां एवं पक्षपात पूर्ण इस्तेमाल करने का दोषी पाया गया था। इस निर्णय का सीधा सा मतलब था कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ता जो वे किसी कीमत पर नहीं चाहती थी । ऐसी स्थिति में उन्होंने सभी नागरिक अधिकारों को निलंबित कर न्यायपालिका को पंगु बनाते हुए प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, राष्ट्रपति एवं संसद की कार्रवाई को न्यायपालिका के विचार क्षेत्र से बाहर कर दिया था । एक तरह से यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूल भावना का गला घोंटने जैसा था ।‌

  यदि   उस काले अध्याय पर निगाह डालें तो पता चलता है कि इंदिरा गांधी ने 1971 में पाक की विजय को अपने राजनीतिक लाभ के लिए जमकर इस्तेमाल किया और भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापस लौटी थी। मगर इस बार वापसी के साथ उनका व्यवहार पूरी तरह बदला हुआ था तथा वह अपने बेटे संजय गांधी के साथ खुद को सभी नियम कायदों से ऊपर मानने लगी थीं । उनके चारों ओर एक ‘काकस’ इकट्ठा हो गया था और देश भर में ‘इंदिरा इज़ इंडिया और इंडिया इज़ इंदिरा’  का नारा गूंजने लगा था  लेकिन उच्च न्यायालय के इस निर्णय ने इंदिरा गांधी के सपनों को धराशाई कर दिया था और इस बात का पूरा अंदेशा  था कि न केवल उन्हें संसद की सदस्यता छोड़नी  पड़ती अपित जेल भी जाना पड़ता।

दूसरी और विपक्ष उच्च न्यायालय के इस निर्णय से अत्यधिक उत्साहित होकर सड़कों पर उतर आया और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से छात्र आंदोलन राजनीति को नई दिशा देने लगा था।  24 जून 1975 को राजनीति के इतिहास में संभवतः पहली बार एक ऐसी विशाल सभा हुई थी जिसमें तत्कालीन विपक्ष की सभी पार्टियों के नेता मंच पर थे और सब ने एकमत से इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन की घोषणा कर दी थी।  तब उन्होंने नारा दिया था ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’

 ऐसे हालात में देश में महंगाई एवं भ्रष्टाचार के साथ-साथ कानून एवं व्यवस्था भी हाथ से निकलती जा रही थी। मगर इसका नैरेटिव सत्ता पक्ष एवं विपक्ष अलग-अलग तरीके से तैयार कर रहा था।

 आपातकालीन स्थिति में लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखते हुए तत्कालीन विपक्ष के ही नहीं अपितु कांग्रेस के भी इंदिरा विरोधी नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया ।  लाखों की संख्या में छात्र नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, व समाज सुधारक भी गिरफ्तार किए गए ।  न केवल जयप्रकाश नारायण अपितु मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अशोक मेहता, चंद्रशेखर, भैरोंसिंह शेखावत जैसे प्रभावशाली नेताओं को गिरफ्तार करके 21 महीने तक जेल में रखा गया । बाद में जॉर्ज फर्नांडिस ने तो यहां तक कहा कि जेल में उन्हें थर्ड डिग्री से भी आगे की यातनाएं दी गईं ।  जयप्रकाश नारायण को इतना प्रताड़ित किया गया कि उसके बाद वे डायलिसिस पर ही रहे सच कहा जाए तो डायलिसिस पर केवल जयप्रकाश नारायण नहीं अपितु  देश का लोकतंत्र चला गया था।

  इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को ‘अनुशासन पर्व’ कहा । उन्होंने अपने 20 सूत्री कार्यक्रम के अलावा संजय गांधी के पांच सूत्री त कार्यक्रम तथा कई आकर्षक नारों वाले पोस्टर जगह-जगह लगवाए।  कड़ी मेहनत, दूर -दृष्टि, पक्का इरादा, लग्न और अनुशासन जैसे लुभावने शब्दों का इस्तेमाल किया गया और आपातकाल के दिनों को ‘सबसे अच्छे दिन’ का नाम दिया गया आज जो नारा देश नरेंद्र मोदी के मुंह से सुन रहा है वह नारा तब इंदिरा गांधी ने ही दिया था । ऐसा ही एक दूसरा नारा था ‘सबका साथ सबका विकास’  लेकिन सच तो यह है कि इस काले युग में न विकास हुआ और न सबका साथ लिया गया ।  अपितु इंदिरा गांधी व उनके परिवार तथा समर्थकों का स्वर्णकाल रहा इस दौर में।

   यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता है कि आपातकाल में लिए गए सारे ही निर्णय ग़लत थे लेकिन जिस तरीके से उन्हें लागू किया गया वह निश्चित रूप से ग़लत था।  उदाहरण के लिए जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जिस तरह जोर जबरदस्ती से नसबंदियां की गईं वह  घोर अमानवीय था सौंदर्यीकरण के नाम पर झुग्गी झोपड़ी हटाने की मुहिम ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया गया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं मौलिक नागरिक अधिकार छीन लिए गए ।

 21 महीने के कार्यकाल में कितने ही संवैधानिक संशोधन किए गए जिनमें 42 वें संविधान संशोधन विधेयक ने सारी शक्तियां प्रधानमंत्री को दे दी थीं और नागरिकों के अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्य  भी जोड़ दिए गए ।

 हालांकि इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स का खात्मा, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन जैसे क्रांतिकारी कदम भी उठाए ।

लेकिन  जोर जबरदस्ती का जनता पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ा और इसका बदला जनता ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस ही नहीं अपितु इंदिरा गांधी को भी हराकर लिया हालांकि विभिन्न दलों का गैर वैचारिक जनता पार्टी नाम का संगठन केवल ढाई वर्षो में ही बिखर गया और 1980 में इंदिरा गांधी एक बार फिर सत्ता में लौट आई।

    इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने का पश्चाताप भी रहा उन्होंने इसके लिए देश से माफी भी मांगी । एक अच्छा काम उन्होंने अपना इस्तीफा देने से पहले यह किया था कि उन्होंने आपातकालीन स्थिति को हटा दिया ।

रिक्त संपादकीय

डॉ. सत्यवान सौरभ

स्याही की धार थम गई,
शब्दों ने आत्महत्या कर ली,
अख़बार का कोना ख़ाली है,
जैसे लोकतंत्र ने मौन धर ली।

न सेंसर की मुहर लगी,
न टैंक चले, न हुक्मनामा,
फिर भी हर कलम काँप रही है —
शायद डर का रंग बदला है अबकी दफ़ा।

जो लिखता है, वो बिकता है,
जो चुप है, वही अब ज़िंदा है,
सच की छपाई महंगी है,
और झूठ पैकेज में फ्री मिलता है।

संपादकीय अब रिक्त क्यों है?
क्योंकि सवाल पूछना अपराध है,
और जवाब —
वो अब प्रेस रिलीज़ में आता है।

ये चुप्पी, बस चुप्पी नहीं,
ये समय का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है,
जिस दिन बोलने की हिम्मत लौटेगी —
शब्द शायद माफ़ न करें।

बेटियों के लिये मोह बढ़ना संतुलित समाज का आधार

0

– ललित गर्ग  –

दुनियाभर में माता-पिता आमतौर पर अब तक बेटियों की तुलना में बेटों को ज्यादा पसंद करते आ रहे हैं, लेकिन प्राथमिकताओं को लेकर वैश्विक दृष्टिकोण में एक सूक्ष्म, महत्वपूर्ण और बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि अब लड़के की तुलना में लड़कियों को अधिक पसंद किया जाने लगा है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह कम है और संभवतः लड़कों के प्रति पूर्वाग्रह ज्यादा है। नए साक्ष्य एवं अध्ययन इस बदलाव का संकेत देते हैं, जो संभवतः बढ़ते एकल परिवार परम्परा, तथाकथित आधुनिक-सुविधावादी जीवनशैली एवं कैरियर से जुड़ी प्राथमिकताओं के चलते लड़कों से जुड़े एक सूक्ष्म भय, उपेक्षा एवं उदासीनता को उजागर करते हैं। ‘द इकोनॉमिस्ट’ द्वारा ताजा प्रकाशित रिपोर्टों में, लिंग प्राथमिकताओं को लेकर वैश्विक दृष्टिकोण में कुछ ऐसे ही दिलचस्प रुझान सामने आए हैं, जिसमें लड़कों के प्रति सदियों पुराना झुकाव अब कम हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में माता-पिता अब लड़कों की तुलना में लड़कियों को भविष्य की सुरक्षा को लेकर अधिक पसंद कर रहे हैं। विकासशील देशों में, लड़कों के प्रति पूर्वाग्रह कम हो रहा है, जबकि अमीर देशों में लड़कियों को प्राथमिकता दी जा रही है। इसके अतिरिक्त, युवा पुरुषों और महिलाओं के बीच लैंगिक भूमिकाओं को लेकर विचारों में अंतर बढ़ता जा रहा है।
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2025 में, भारत 148 देशों में 131वें स्थान पर है, जो पिछले वर्ष की तुलना में दो स्थान नीचे है, और इसका लैंगिक समानता स्कोर 64.1 प्रतिशत है। वर्तमान प्रगति की दर से, पूर्ण लैंगिक समानता प्राप्त करने में 134 वर्ष लगेंगे, जो दर्शाता है कि प्रगति की समग्र दर धीमी है। इन रिपोर्टों से पता चलता है कि दुनिया भर में लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति हो रही है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। भारत के लिये लैंगिक समानता की दिशा में दो पायदान की गिरावट का सबसे बड़ा कारण महिला समानता को लेकर चल रहे आन्दोलन है। भारत की बेटियां आज अंतरिक्ष से लेकर खेल के मैदान तक में बुलंदियां छू रही हैं। वे परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने में उल्लेखनीय भूमिकाओं का निर्वाह कर रही है। सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ जैसे सराहनीय पहल के जरिए बेटियों को आगे बढ़ने के अवसर मिल रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी की चौखट पर खड़ी दुनिया में बड़े व्यापक बदलाव हो रहे हैं। इंसानी रिश्तों की अहमियत को लेकर भी नई सोच पनप रही है। अब अमेरिका, दक्षिण कोरिया, भारत और चीन में, लिंग अनुपात सामान्य या यहां तक कि बेटी की पसंद के संकेत दिखाने लगा है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस बदलाव की असल वजह क्या है? दरअसल, माता-पिता में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि बेटियां उनकी ढलती उम्र में धीरे-धीरे अधिक विश्वसनीय देखभाल करने वाली साबित हो सकती हैं। उन्हें परिवार से गहरे तक जुड़े रहने की अधिक संभावना के रूप में देखा जाने लगा है। आज बेटियों को बेटों के मुकाबले बेहतर शैक्षणिक प्रदर्शनकर्ता, परिवार सार-संभालकर्ता, माता-पिता के प्रति जिम्मेदारी निर्वाहकर्ता के रूप में देखा जाने लगा है। तेजी से कामकाजी दुनिया का हिस्सा बनने के कारण वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने से अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिये अधिक संवेदनशील है। ऐसा माना जाने लगा है कि बेटियां बेटों के मुकाबले में ज्यादा संवेदनशील होती हैं और जीवन के अंतिम पड़ाव में मां-बाप को सुरक्षा कवच प्रदान कर सकती हैं। जिसके चलते लोग बेटों के मुकाबले बेटियों को अपनी प्राथमिकता बनाने को तरजीह देने लगे हैं।
पश्चिमी देशों में गोद लेने और आईवीएफ के डेटा दिखाते हैं कि बेटियों को चुनने की दिशा में स्पष्ट झुकाव है। दरअसल, पश्चिमी देशों के एकल परिवारों में बेटे अपनी गृहस्थी बसाकर मां-बाप को उनके भाग्य पर छोड़ जाते हैं। भारत में भी यही स्थितियां देखने को मिल रही है। जबकि सदियों से भारत की समाज-व्यवस्था एवं परिवार-परम्परा पुत्र मोह की ग्रंथि से ग्रस्त रहा है। जिसके चलते शिशु लिंग अनुपात में असंतुलन बढ़ता गया है। देश में हुई 2016 की जनगणना में लड़कों की तुलना में लड़कियों की घटती संख्या के आंकडे़ चौंकाते ही नहीं बल्कि दुखी भी करते हैं। जिस तरह से लड़के-लड़कियों का अनुपात असंतुलित हो रहा है, उससे ऐसी चिन्ता भी जतायी जाने लगी है कि यही स्थिति बनी रही तो लड़कियां कहां से लाएंगे? हालत यह है कि आंध्र प्रदेश में 2016 में प्रति एक हजार लड़कों के मुकाबले महज आठ सौ छह लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया। हालांकि, अब आधिकारिक आंकड़े बता रहे हैं कि देश में शिशु लिंग अनुपात दर में सुधार हुआ है।
जन्म से पहले ही पता चल जाए कि लड़की यानी बालिका पैदा होगी तो माता-पिता उसकी जान लेने से भी नहीं कतराते। कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती घटनाएं इसी सोच का परिणाम बनी। पिछली सदी में समाज के एक बड़े वर्ग में यह एक विभीषिका ही थी कि परिवार की धुरी होते हुए भी नारी को वह स्थान प्राप्त नहीं था जिसकी वह अधिकारिणी थी। उसका मुख्य कारण था सदियों से चली आ रही कुरीतियाँ, अंधविश्वास व बालिका शिक्षा के प्रति संकीर्णता। कितनी विडम्बना है कि देश में हम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलन्द करते हुए एक जोरदार मुहिम चला रहे हैं उस देश में लगातार बालिकाओं की संख्या घटने का दाग लगता रहा है। यह दाग ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प पर भी लगा है और यह दाग हमारे द्वारा नारी को पूजने की परम्परा पर भी लगा है। लेकिन प्रश्न है कि हम कब बेदाग होंगे? लेकिन अब इस संकीर्ण सोच में बदलाव आना एक सुखद संकेत है।
अच्छे भविष्य के लिए हम बेटियों की पढ़ाई से ही सबसे ज्यादा उम्मीदें बांधते हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारे हमारे संकल्प को बताते हैं, हमारी सदिच्छा को दिखाते हैं, भविष्य को लेकर हमारी सोच को जाहिर करते हैं, लेकिन वर्तमान की हकीकत इससे उलट है, इसे बदलने में अभी भी लम्बा सफर तय करना होगा। बालिकाएं पढ़ाई में अपने झंडे भले ही गाड़ दें, लेकिन उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की क्रूरताएं कई तरह की हैं। शताब्दियों से हम साल में दो बार नवरात्र महोत्सव मनाते हुए कन्याओं को पूजते हैं। लेकिन विडम्बना देखिये कि सदियों की पूजा के बाद भी हमने कन्याओं को उनका उचित स्थान और सम्मान नहीं दे पाये हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 ( 2019-21) का सर्वे चिंता बढ़ाने वाला है। सर्वे के अनुसार, लगभग 15 फीसदी भारतीय माता-पिता अभी भी बेटियों की तुलना में बेटों की आकांक्षा रखते हैं। यही वजह है कि हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में विषम शिशु लिंगानुपात चिंता का विषय बना हुआ है।
लड़कियों को भावनात्मक लगाव या घरेलू स्थिरता के लिये तो महत्व दिया जा सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि पोषण, शिक्षा या विरासत तक उन्हें समान पहुंच दी जाए। भारतीय समाज में दहेज जैसी सांस्कृतिक प्रथाएं आज भी बेटी के माता-पिता की बड़ी चिंता बनी रहती हैं। परंपरावादी समाज में यह धारणा बलवती रही है कि बेटियां दूसरे परिवार की हैं। यही वजह है कि ग्रामीण और शहरी गरीब समुदायों में लड़कियां हाशिये पर रख जाती हैं। लेकिन इसके बावजूद भारत को लिंग समानता के वैश्विक आंदोलन की किसी भी तरह अनदेखी नहीं करनी चाहिए। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2025 वैश्विक लैंगिक अंतर का आकलन और तुलना करने के लिए एक समझने योग्य ढांचा प्रदान करके और उन देशों को उजागर करके जो इन संसाधनों को महिलाओं और पुरुषों के बीच समान रूप से विभाजित करने में रोल मॉडल हैं, रिपोर्ट अधिक जागरूकता के साथ-साथ नीति निर्माताओं के बीच अधिक आदान-प्रदान के लिए उत्प्रेरक का काम करती है। भारत में समान संपत्ति अधिकार लागू करने, दहेज प्रथा की कुरीति को समाप्त करने की दिशा में सख्त कदम उठाने चाहिए। तभी भारतीय समाज में लिंगभेद की मानसिकता खत्म होगी और लैंगिक समानता की दिशा में मार्ग प्रशस्त होगा। साथ ही देश में तेजी से बढ़ती बुजुर्गों की आबादी के लिये बालिकाएं सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में आधार बन सकेगी।

स्वस्थ रखें अपना लिवर


डॉ रुप कुमार बनर्जी
होमियोपैथिक चिकित्सक

      लिवर हमारे शरीर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है जो पेट के दाहिनी ओर नीचे की तरफ होता है। यह शरीर की कई क्रियाओं को नियंत्रित रखता है। अगर इसी में ही किसी तरह की कोई कमी आ जाए तो शरीर ही ठीक ढंग से काम करना बंद कर देता है। जिसके फलस्वरूप शरीर का इम्यूनिटी पावर कम होकर हमे तमाम प्रकार की बीमारियां घेर सकती हैं । लिवर खराब होने के सबसे बड़े कारण शराब, अधिक धूम्रपान , ज्यादा ख़ट्टा खाना, नमक का अत्यधिक सेवन करना आदि है। इसलिए समय रहते इसके लक्षणों को पहचाने और इसका उचित इलाज करवाएं।
      लिवर को खराब करने वाले कारण :–
– दूषित खाना और पानी
– मसालेदार और चटपटे खाने
– शरीर में विटामिन बी की कमी
– नियमित रूप से मांस मछली एवं अल्कोहल का सेवन
– बिना चिकित्सक से पूछे अपने मन से खरीदे गए मेडिकल स्टोर से एंटीबायोटिक दवाईयों का अधिक सेवन
– मलेरिया या  टायफायड
– अत्यधिक मात्रा में बाहर का खाना जंक फूड इत्यादि का सेवन
लिवर खराब होने के लक्षण :-
– लिवर वाली जगह दर्द होना
– छाती में जलन और भारीपन
– भूख न लगना और लगातार, बदहजमी, पेट में गैस
– आलसपन और कमजोरी
– पेट में सूजन आना
– मुंह का स्वाद खराब
– हल्का सा बुखार बने रहना।
लिवर की बीमारी को ठीक करने का प्राकृतिक उपाय :-
• सुबह उठकर खुली हवा में गहरी सांसे ले और नंगे पैर घास पर चलें। इससे काफी फायदा मिलेगा। 
– सब्जियों में मूली, मूली का पत्ता पालक, तुरई, लौकी, शलगम, गाजर, कद्दू, पपीते आदि की सब्जी से फायदा मिल सकता है।
• रोज हल्का गर्म नींबू पानी का सेवन करें।
• इसके अलावा रोज सब्जियों का सूप पिएं
• फल जैसे अमरूद, तरबूज, नाशपाती, मौसमी, अनार,कीवी सेब, पपीता, आलूबुखारा आदि लिवर के लिए फायदेमंद है।
• सलाद, अंकुरित दाल का भी  सेवन करें और भाप में पके हुए या फिर उबले हुए पदार्थ खाएं।
•  गुड़ का सेवन भी लिवर के लिए फायदेमंद हो सकता है। (मधुमेह अथवा मोटापे से ग्रस्त मरीज बिना चिकित्सक की सलाह के गुड कतई ना लें)
• आंवला भी लिवर के लिए काफी फायदेमंद है। इसलिए आंवले खाएं। यदि आपको मधुमेह की बीमारी नहीं है अथवा आप मोटापा से ग्रसित नहीं है तो आंवले का मुरब्बा भी ले सकते हैं।
•  कैफीन और शराब का सेवन ना ही करें तो बेहतर है । शराब और कैफीन  लिवर में विषयुक्त पदार्थों को जमाने के सबसे बड़े जिम्मेदार हैं जो हमें अपनी पूरी क्षमता से काम करने से रोकते हैं। अलकोहल और केफ़िनेनेटेड पेयों का सेवन नहीं करके अपने लिवर को साफ़ करें।
बहुत सारा पानी पिएं:-

 अपने लिवर को साफ़ करने के लिए कम से कम 3 लीटर पानी पिएँ। बहुत सारा पानी पीना हाइड्रेटेड यानि पानी से परिपूर्ण रखेगा जो प्राकृतिक रूप से कोशिकाओं के निर्माण में सहायक होगा। ये लिवर को विषाक्त और बचे हुए पदार्थों को जल्दी बाहर निकालने में सहायक होगा, और इससे  लिवर को तेजी से काम करने और अपनी ऊर्जा के स्तर को बढ़ाने में मदद मिलेगी।


अपने आहार में नीबू शामिल करें :-

दिन में एक बार चाय या पानी में निम्बू का रस लें। निम्बू का रस पित्त की उस उत्पत्ति में सहायक होता है जो शरीर से विषाक्त पदार्थों को निकालने में सहायक होता है। ये अग्नाशय की पथरी (gallstones) को विकसित होने से रोकता है और  हाजमे को बढ़ाता है और आपके लिवर को आमाशय के रसों (gastric juices) के अनुरूप चलने देता है।
ग्रीन टी पिएं :- इसमें काफी मात्रा में केटेकाइन्स (catechins) पाए जाते हैं, ये एक प्रकार का प्लांट एंटीऑक्सीडेंट होता है जो लिवर की कार्यक्षमता को बढ़ाता हैं और लिवर में वसा के जमाव को कम करने में सहायक होता है। फलों का ताजा जूस पीएं ( जिनको शुगर है वह नहीं पीएं )।  इससे फैटी लिवर की बीमारी की संभावनाएं घट जाती हैं।
स्वास्थ्यप्रद भोजन खायें l ऐसे आहारों से बचें जो  लिवर को नुकसान पहुचाते हों। वे आहार जो प्रोसेस्ड होते हैं और जिनमें बहुत सारे प्रिज़रवेटिव, फैट्स और कोलेस्ट्रोल होतें हैं वे लिवर को वसा अवशेषों से संकुलित (congested) और भरा हुआ बना सकते हैं। प्रोसेस्ड या फैटी आहारों से बच कर अपने लिवर को साफ़ करें जिससे आपका लिवर खुद को मुक्त कर सके और अपनी कोशिकाओं का पुनर्निर्माण कर सके।
     फ़ास्ट फ़ूड से बचें, विशेषतः, डीप फ्राइड आहारों और प्रिजर्व्ड मीट से बचे (जैसे सॉसेज, बेकन आदि) बुरे फैट्स से बचें: फैटी रेड मीट, डीप फ्राइड आहार, और प्रोसेस्ड आहार, इन सबसे बचना चाहिए l
       सूखे मेवे जैसे बादाम, आखरोट , पिस्ता , चिलगोजा इत्यादि में एल-आर्जिनिन (l-arginine) जो एक प्रकार का अमीनो एसिड होता है और ओमेगा-3 फैटी एसिड का उच्च स्तर पाया जाता है जो लिवर को बीमार होने से बचाता है। कुल मिलाकर स्वस्थ सादा घर का बना भोजन ही करें और अपना जिगर स्वस्थ रखें l यही उचित होगा।


ध्यान दें :- यदि आपको किसी भी प्रकार की कोई बीमारी है तो अपने चिकित्सक से परामर्श लेना अति आवश्यक है क्योंकि खान-पान में परहेज के साथ-साथ उचित दवा लेना भी अति आवश्यक है ।

प्रस्तुतकर्ता :- विनय कुमार मिश्र 

बंद हो असहमति को अपराध बनाना 

कुमार कृष्णन 

संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। असहमति और लोकतंत्र का सह अस्तित्व है और दोनों साथ-साथ चलते हैं। इसी तरह के सवाल उठाते हुए वकीलों, कानून के छात्रों और कानूनी पेशेवरों के समूह नेशनल अलायंस फॉर जस्टिस, अकाउंटेबिलिटी एंड राइट्स (एनएजेएआर) के छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा अधिसूचना संख्या एफ-4-101/होम-सी/2024 दिनांक 30 अक्टूबर, 2024 के माध्यम से छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 2005 (सीएसपीएसए) के तहत मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) को “गैरकानूनी संगठन” घोषित करने का विरोध  किया है। 

यह प्रतिबंध संघ बनाने की स्वतंत्रता के अधिकार पर सीधा और खतरनाक हमला है और अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों द्वारा शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आयोजन को अपराध मानने की राज्य की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है। संवैधानिक अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध वकीलों और कानूनी पेशेवरों के रूप में अपील की हैं कि तुरंत हस्तक्षेप कर मूलवासी बचाओ मंच पर मनमाने और अन्यायपूर्ण प्रतिबंध को हटाया जाए। जेल में बंद इसके सभी सदस्यों को रिहा करें और कठोर छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 2005 को निरस्त करें।

यह पत्र 3 मई, 2025 को मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) के सदस्यों सुनीता पोट्टम और दसरू पोडियाम की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा फिर से गिरफ्तारी के बाद लिखा गया है । उस समय, दोनों पहले से ही न्यायिक हिरासत में थे. उन्हें पिछले साल अलग-अलग लंबित मामलों में गिरफ्तार किया गया था जो वर्तमान एनआईए जांच से संबंधित नहीं थे। 4 मई को , उन्हें यूएपीए – गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत 2023 के एक मामले के संबंध में पूछताछ के लिए पांच दिनों की एनआईए हिरासत में भेज दिया गया था। 9 मई को , उन्हें न्यायिक हिरासत में वापस कर दिया गया। यह वही मामला है जिसके तहत एमबीएम के पूर्व अध्यक्ष रघु मिडियामी को 27 फरवरी, 2025 को गिरफ्तार किया गया था और एमबीएम के दो अन्य सदस्यों- गजेंद्र मडावी और लक्ष्मण कुंजम को 2024 में फंसाया गया था। ये गिरफ्तारियां केवल एमबीएम के साथ उनके संबंध और संवैधानिक रूप से संरक्षित सामाजिक-राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने के लिए व्यक्तियों को कैद करने के एक ठोस प्रयास का संकेत देती हैं।

मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) की स्थापना 2021 के सिलगेर गोलीबारी के बाद हुई थी जिसमें सुरक्षा बलों ने शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे आदिवासी ग्रामीणों पर गोलियां चलाई थीं, जिसमें चार लोग मारे गए थे। उस आघात से उभरकर, एमबीएम ने विरोध के शांतिपूर्ण तरीकों के लिए प्रतिबद्ध आदिवासी युवाओं का एक विकेंद्रीकृत, लोकतांत्रिक मंच बनाया। याचिकाओं, ज्ञापनों, धरनों, पदयात्राओं और सार्वजनिक बैठकों के माध्यम से, एमबीएम ने राज्य की हिंसा के लिए जवाबदेही, वन और भूमि अधिकारों की मान्यता और ग्राम सभा की सहमति के लिए सम्मान की मांग की। अपने कार्यों में, इसने लगातार पेसा, वनाधिकार कानून और पाँचवीं अनुसूची जैसे संवैधानिक ढाँचों का आह्वान किया। यह न तो भूमिगत था और न ही गैरकानूनी। 2021 में अपने गठन के बाद से, मूलवासी बचाओ मंच  को लगातार राज्य उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। कथित तौर पर इसके कम से कम 30 सदस्यों को मनगढ़ंत आपराधिक मामलों में गिरफ्तार किया गया है। प्रतिबंध का पहला ज्ञात प्रवर्तन 19 नवंबर, 2024 को भोगम राम और माडवी रितेश की गिरफ्तारी के साथ हुआ। न तो तो उन्हें और न ही अन्य मूलवासी सदस्यों को उनकी हिरासत के बाद तक संगठन के प्रतिबंध के बारे में सूचित किया गया था। उन पर कथित तौर पर एक ग्राम सभा बुलाने और प्रतिभागियों को भोजन और आश्रय प्रदान करने के लिए छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम  की धारा 8(1)(3) के तहत आरोप लगाए गए थे।

उल्लेखनीय रूप से, उकसावे, हिंसा या किसी अन्य निषिद्ध गतिविधि का कोई आरोप नहीं था जो कानूनी रूप से गिरफ्तारी को सही ठहरा सके। हालाँकि मूलवासी जल्द ही भंग हो गया, लेकिन इससे पहले जुड़े लोगों को बढ़ते दमन का सामना करना पड़ रहा है। उनमें से रघु मिडियामी – और अब, सुनीता पोट्टम और दसरू पोडियाम – सभी को केवल मूलवासी बचाओ मंच के साथ उनके पिछले जुड़ाव और प्रतिबंध से पहले की गतिविधियों के लिए निशाना बनाया गया। 

फरवरी 2025 में एनआईए ने रघु मिडियामी को गिरफ़्तार किया था । उन पर एमबीएम की स्थापना करने और सड़क निर्माण तथा अर्धसैनिक शिविरों की स्थापना के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का आरोप है। एनआईए का दावा है कि उन्होंने “माओवादियों के इशारे पर” ग्रामीणों को संगठित किया – यह आरोप जितना भड़काऊ है, उतना ही निराधार भी है। यह संवैधानिक रूप से आधारित आदिवासी असहमति को बाहरी रूप से संगठित तोड़फोड़ के रूप में ब्रांड करके उसे अवैध बनाने की एक लंबे समय से चली आ रही राज्य की रणनीति का हिस्सा है। यह सुझाव कि आदिवासी युवा केवल बाहरी प्रभाव के तहत ही राजनीतिक मांगें व्यक्त कर सकते हैं, न केवल उनकी एजेंसी को नकारता है बल्कि स्वायत्तता को ही अपराधी बनाता है।

सुनीता पोट्टम एक लंबे समय से जमीनी स्तर की संगठक और अपने गांव में न्यायेतर हत्याओं पर 2016 के उच्च न्यायालय के एक मामले में याचिकाकर्ता रही हैं, वे सैन्यीकरण और विस्थापन के खिलाफ स्थानीय प्रतिरोध की केंद्रीय कड़ी रही हैं। उन्होंने महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा और राज्य दमन और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज  जैसे राष्ट्रीय नेटवर्क के साथ काम किया है और बस्तर में न्याय के लिए निरंतर अभियान चलाए हैं। बारह में से नौ फर्जी मामलों में बरी होने के बावजूद, एनआईए के 2023 के मामले में एक नई गिरफ्तारी करके उनकी आसन्न रिहाई को जानबूझकर विफल कर दिया गया। यह सुनियोजित कदम मुखर असहमति रखने वालों को लंबे समय तक प्रक्रियात्मक कारावास के माध्यम से सलाखों के पीछे रखने के लिए डिज़ाइन किया गया प्रतीत होता है। बीजापुर के एक युवा संगठक दसरू पोडियाम की फिर से गिरफ्तारी इसी तरह आदिवासी आवाज़ों को बिना किसी मुकदमे के कैद करने के लिए यूएपीए के इस्तेमाल को दर्शाती है। इस बात का डर बढ़ रहा है कि यह मामला एक कानूनी अड़चन बन जाएगा, जिसमें एमबीएम के सभी पूर्व सदस्य शामिल हो जाएंगे, जिन्हें राज्य राजनीतिक रूप से असुविधाजनक मानता है।

यह तीव्र कार्रवाई न्यायेतर हत्याओं, हिरासत में यातना और बस्तर के अनियंत्रित सैन्यीकरण पर बढ़ते सार्वजनिक आक्रोश के बीच हुई है। ये गिरफ्तारियाँ केवल पिछले लामबंदी के प्रतिशोध की कार्रवाई नहीं हैं – वे असहमति को खत्म करने और इन गैरकानूनी राज्य प्रथाओं को सार्वजनिक जांच से बचाने की एक व्यापक रणनीति का हिस्सा हैं। इस संदर्भ में, अन्य प्रमुख एमबीएम सदस्यों की आगे की गिरफ़्तारी का डर अटकलबाज़ी नहीं है; यह तत्काल और गहराई से महसूस किया जाता है।

संगठन ने  प्रतिबंध को उचित ठहराने के लिए बताए गए आधारों के बारे में भी गंभीर चिंता व्यक्त की है। अधिसूचना में आरोप लगाया गया है कि “मूलवासी बचाओ मंच संगठन लगातार “विकास कार्यों” और “इन विकास कार्यों को संचालित करने के लिए बनाए जा रहे सुरक्षा बल शिविरों” के खिलाफ आम जनता का विरोध कर रहा है और उन्हें ‘उकसाने’ का काम कर रहा है।”एमबीएम का सड़क/रेलवे निर्माण और सुरक्षा बल शिविरों का विरोध किसी विकास विरोधी एजेंडे में नहीं था, बल्कि उनके समुदाय के कानूनी और संवैधानिक अधिकारों में निहित था। अनुसूचित क्षेत्रों में, कानून के अनुसार विकास कार्यों- जिसमें वन भूमि शामिल है या स्थानीय शासन को प्रभावित करने वाले कार्य शामिल हैं- के लिए ग्राम सभा से पूर्व सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। संविधान की पांचवीं अनुसूची, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (पीईएसए) और वन अधिकार अधिनियम, 2006 (एफआरए) के प्रावधानों के तहत यह स्पष्ट रूप से अनिवार्य है।एफआरए की धारा 3(2) का प्रावधान विशेष रूप से ग्राम सभा की सिफारिश के बिना गैर-वनीय उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग पर रोक लगाता है।

राज्य जिसे ‘बाधा’ कहता है, वह वास्तव में कानून और संविधान द्वारा संरक्षित है। ग्राम सभाओं और ग्राम समुदायों को भूमि, संसाधनों और शासन से संबंधित निर्णयों में भागीदारी का संवैधानिक और कानूनी अधिकार है, खासकर ऐसे समय में जब पूरा क्षेत्र खनन और वनों की कटाई से तबाह हो रहा है, जिसका उद्देश्य बड़े निगमों के व्यावसायिक हितों को बढ़ावा देना है। यह वास्तव में अस्वीकार्य है कि आदिवासी जो सदियों से वन पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा कर रहे हैं, उन्हें उनकी भूमि से उखाड़ दिया जा रहा है, जिससे उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है और जलवायु संकट बढ़ रहा है।  संवैधानिक रूप से आधारित ऐसी गतिविधि को दंडित किया जा सकता है, यह उस अत्यंत दोषपूर्ण कानून का प्रत्यक्ष परिणाम है जिसके तहत प्रतिबंध लगाया गया था। सीएसपीएसए संवैधानिक लोकतंत्र और कानून के शासन के मूल्यों के विपरीत है। यह संवैधानिक प्रावधानों, एफआरए और पीईएसए के अक्षर और भावना का उल्लंघन करता है। यह कार्यकारी को हिंसा या उकसावे के कृत्यों से किसी भी प्रत्यक्ष संबंध की आवश्यकता के बिना संगठनों को गैरकानूनी घोषित करने की अनुमति देता है। प्रतिबंधित संगठन के साथ मात्र जुड़ाव ही अपराध बन जाता है, यहां तक कि इरादा या गैरकानूनी आचरण न होने पर भी। अधिनियम निषेध से पहले या बाद में कोई स्वतंत्र न्यायिक निगरानी प्रदान नहीं करता है, और इसमें न्यूनतम प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का भी अभाव है।

बस्तर में राज्य की कार्रवाई की दिशा से संगठन बेहद चिंतित हैं। मूलवासी बचाओ मंच जैसे शांतिपूर्ण आदिवासी मंच का अपराधीकरण संवैधानिक और वैधानिक अधिकारों और जमीनी स्तर पर असहमति के शांतिपूर्ण और वैधानिक दावे के प्रति राज्य की गहरी दुश्मनी का संकेत देता है। एमबीएम के विकेंद्रीकृत नेतृत्व के हर दृश्यमान सदस्य को निशाना बनाने का प्रयास युवा आदिवासियों की एक पूरी पीढ़ी को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने से रोकने के उद्देश्य से किया गया है।

संविधान के अनुसार  राष्ट्रपति और  राज्यपाल को सभी अनुसूचित क्षेत्रों में शांति और सुशासन सुनिश्चित करना आवश्यक है।संगठन ने राष्ट्रपति, छत्तीसगढ़ के राज्यपाल और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से आग्रह किया है  कि 30 अक्टूबर, 2024 की अधिसूचना संख्या एफ4-101/होम-सी/2024 को तुरंत वापस लें , जिसमें मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) को गैरकानूनी घोषित किया गया है। प्रतिबंध में तथ्यात्मक आधार का अभाव है, यह संवैधानिक और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन करता है, और शांतिपूर्ण राजनीतिक आयोजन को अपराध बनाता है। 

संगठन ने कहा है कि झूठे या राजनीतिक रूप से प्रेरित आरोपों के तहत हिरासत में लिए गए सभी एमबीएम सदस्यों की बिना शर्त रिहाई सुनिश्चित करें – जिनमें यूएपीए, सीएसपीएसए, आईपीसी, आर्म्स एक्ट और विस्फोटक अधिनियम के प्रावधानों के तहत गिरफ्तार किए गए लोग भी शामिल हैं। केवल एसोसिएशन या विरोध गतिविधि के आधार पर लगाए गए आरोपों को वापस लिया जाना चाहिए।

साथ ही कठोर छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा अधिनियम, 2005 को निरस्त करने के लिए विधायी कदम उठाएं, जो मनमाने निषेध की अनुमति देता है और वैधता और आनुपातिकता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। इसके अलावा आदिवासी विरोधों का अपराधीकरण समाप्त किया जाना चाहिए। संवैधानिक अधिकारों के लिए आदिवासी लामबंदी का दमन बंद हो। शांतिपूर्ण विरोध को संरक्षित लोकतांत्रिक गतिविधि के रूप में मान्यता दिया जाना चाहिए , न कि खतरे के रूप में। मूलवासी बचाओ मंच से पहले जुड़े लोगों की गिरफ़्तारी, निगरानी और उत्पीड़न को तुरंत रोकें। सुनिश्चित करें कि किसी भी व्यक्ति को सिर्फ़ संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकारों का प्रयोग करने के लिए अपराधी न बनाया जाए।

इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में देश के अनेक प्रतिष्ठित विधि विशेषज्ञ शामिल हैं, जिनमें बॉम्बे हाईकोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता गायत्री सिंह, सुप्रीम कोर्ट एवं दिल्ली हाईकोर्ट की अधिवक्ता इंदिरा उन्निनायर, मद्रास हाईकोर्ट के अधिवक्ता एडगर काइज़र, तेलंगाना हाईकोर्ट की अफसर जहां, राजस्थान हाईकोर्ट के दिनेश सी. माली, ओडिशा हाईकोर्ट के आफराज सुहैल, दिल्ली , अधिवक्ता मनोहर शरद तोमर (भोपाल), अधिवक्ता ऋचा रस्तोगी (लखनऊ हाईकोर्ट), एनसीआर की अधिवक्ता व शोधकर्ता डॉ. शालू निगम, अधिवक्ता कंवलप्रीत कौर, अधिवक्ता नमन जैन, अधिवक्ता स्वस्तिका चौधरी, अधिवक्ता संभव कौशल (नई दिल्ली) और मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु, अहमदाबाद, ग्वालियर, कोलकाता, त्रिवेंद्रम, जैसे शहरों के अधिवक्ता व शोधकर्ता शामिल हैं।

कुमार कृष्णन

इजराइल-ईरान युद्ध में कौन जीता, कौन हारा

राजेश कुमार पासी

इजराइल और ईरान के बीच युद्ध विराम हो गया है लेकिन इस पर कई सवाल उठ रहे हैं। सवाल तो इस युद्ध पर भी उठ रहे हैं क्योंकि तीनों देश इस युद्ध में खुद को जीता हुआ बता रहे हैं। इजराइल और ईरान युद्ध लड़ रहे थे लेकिन अचानक अमेरिका ने इजराइल की तरफ से ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला कर दिया । जहां अमेरिका इस युद्ध को रुकवाने का श्रेय ले रहा है वहीं दूसरी तरफ वो ईरान की परमाणु शक्ति को खत्म करने का दावा कर रहा है। अमेरिका के दावे पर अब कोई यकीन नहीं करता क्योंकि उसने भारत-पाक युद्ध रुकवाने की बात भी कही थी ।

  पाकिस्तान के उपप्रधानमंत्री इशाक डार ने बयान दिया है कि हमने कई देशों से युद्ध रुकवाने की अपील की थी और सऊदी अरब सरकार ने सबसे पहले इस मामले में हमारी मदद के लिए हाथ बढ़ाया था । उन्होंने कहा है कि हमने भारत से युद्ध विराम करने की अपील की और भारत ने स्वीकार कर लिया। डोनाल्ड ट्रंप युद्ध रुकवाने का श्रेय लेने के चक्कर में अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ईरान पर हमला करने के लिए दो हफ्ते का समय दिया और तीसरे दिन ही अचानक ईरान पर हमला कर दिया । दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति को ऐसा करने की क्या जरूरत थी, ये डोनाल्ड ट्रंप को बताना चाहिए।

                तीनों देश अपने आपको विजेता घोषित कर रहे हैं इसलिए सवाल उठता है कि जब तीनों ही जीत गए हैं तो हारा कौन है।  सबसे पहले बात करते हैं अमेरिका की क्योंकि वह इस युद्ध का हीरो बनने की कोशिश कर रहा है । अमेरिका पहले तो युद्ध से दूर रहने की बात करता रहा और फिर अचानक ईरान पर हमला कर दिया । अमेरिका ने दावा किया है कि उसने ईरान के परमाणु ठिकानों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया है, अब ईरान परमाणु बम नहीं बना सकता । इसके अलावा उसने युद्ध रुकवाने का दावा किया है और इस युद्ध का असली विजेता बन रहा है । अमेरिका के ऐलान के बाद भी दोनों देशों ने एक दूसरे पर हमला किया था लेकिन फिलहाल युद्ध रुक गया है तो अमेरिका युद्ध रूकवाने का श्रेय तो ले सकता है ।

वास्तव में इजराइल-ईरान युद्ध ऐसी जगह पहुंच गया था जहां दोनों देश ही इसे रोकने की कोशिश कर रहे थे । इजराइल पर ईरान जबरदस्त तरीके से मिसाइल हमले कर रहा था जिसे इजराइल की वायु रक्षा प्रणाली पूरी तरह से रोक नहीं पा रही थी । इजराइल के कई शहरों में ईरान ने बहुत बर्बादी कर दी है,  विशेष  रूप से तेल अवीव में तो ईरान ने तबाही मचा दी है । अगर ईरान यह हमले करता रहता तो इजराइल कई साल पीछे जा सकता था । इसके अलावा इजराइल के पास हथियारों की बहुत कमी हो गई थी, अगर यह युद्ध और आगे खिंचता  तो उसके पास वायु रक्षा प्रणाली के लिए मिसाइलें भी कम पड़ने वाली थी । इजराइल की अर्थव्यवस्था भी भारी दबाव में आ गई थी । देखा जाये तो इजराइल ने कभी नहीं सोचा था कि ईरान उसके ऊपर ऐसा हमला करेगा, इसलिए वो इसके लिए तैयार नहीं था ।  दूसरी तरफ ईरान के पास भी मिसाइलों की कमी होती जा रही थी और इजराइल के लक्षित हमले ईरान में बड़ी बर्बादी कर चुके हैं । देखा जाये तो इस युद्ध ने ईरान की सैन्य शक्ति को बहुत कम कर दिया है और उसके परमाणु कार्यक्रम को भी पीछे धकेल दिया है । ईरान किसी भी तरह इस युद्ध को रोकना चाहता था । इस तरह देखा जाये तो दोनों ही देश युद्ध-विराम चाहते थे और अमेरिका की कोशिश से तुरंत मान गए । 

             अमेरिका इजराइल के कहने से युद्ध में कूद तो गया था लेकिन वो इस युद्ध में फंसना नहीं चाहता था । इजराइल ने युद्ध शुरू किया था इसलिए ईरान को युद्ध के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । वैसे देखा जाये तो इस युद्ध का क्या तुक था, किसी को समझ नहीं आ रहा है । न तो कोई इस युद्ध को समझ पा रहा है और न ही इस युद्ध का रूकना किसी को समझ आ रहा है । इजराइल युद्ध से ईरान की परमाणु बम बनाने की क्षमता खत्म करना चाहता था क्योंकि वो इसे अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है लेकिन सवाल उठता है कि क्या इजराइल अपने लक्ष्य को हासिल कर चुका है । क्या अब ईरान परमाणु बम नहीं बनाएगा । हो सकता है कि ईरान को परमाणु बम बनाने में देर लग जाए लेकिन वो रूकने वाला नहीं है । अमेरिका ने दावा किया है कि उसने ईरान की परमाणु बम बनाने की क्षमता खत्म कर दी है तो दूसरी तरफ दोनों देशों ने यह कबूल  कर लिया है कि अमेरिका ने ईरान पर हमला करने से पहले उसे सूचित कर दिया था ।

 अब सवाल उठता है कि जब ईरान को हमले का पता था तो क्या उसने अपना जरूरी सामान वहां से हटा नहीं लिया होगा । दूसरी बात जब अमेरिका को ईरान पर हमला करना था तो उसे बताकर क्यों किया ।  ईरान ने कतर और दूसरे अरब देशों में अमेरिकी ठिकानों पर हमला किया लेकिन उसने भी अमेरिका को हमला करने से पहले सूचना दे दी । अजीब बात है दो देश एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं और इसकी पहले सूचना दे रहे हैं । क्या आपको नहीं लगता कि बड़ा अजीब खेल चल रहा है । क्या इससे पहले अमेरिका को किसी देश पर हमला करने से पहले सूचित करते हुए देखा गया है । ईरान ने अमेरिकी ठिकानों पर हमला करने के लिए 14 मिसाइलें दागी जिसमें से 13 को नाकाम कर दिया और एक मिसाइल निर्जन स्थान पर गिर गई । एक अजीब बात यह रही कि अमेरिका ने इन हमलों से पहले इन ठिकानों को खाली कर दिया था । अजीब मजाक चल रहा है. क्या इसी को युद्ध कहते हैं । अमेरिका ने कहा था कि अगर ईरान ने उसके हमलों का जवाब दिया तो ईरान को बर्बाद कर दिया जाएगा । वैसे देखा जाये तो वैश्विक राजनीति में अमेरिका के बयान का बहुत महत्व होता है, वो जो कहता है करके दिखाता है, यही उसकी ताकत है । यहां जब ईरान ने अमेरिका को जवाब दिया तो अमेरिका ईरान को सबक सिखाने की जगह युद्ध-विराम करने लगा ।

डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि दोनों देश उनके पास युद्ध-विराम करवाने की भीख मांगते हुए आये और उन्होंने शांति की स्थापना की । ईरानी टीवी ने दावा किया है कि ट्रंप ने युद्ध-विराम की भीख मांगी थी, तब ईरान तैयार हुआ । इजराइल भी युद्ध-विराम करवाने की बात से पीछे हट गया है । अजीब बात है कि सभी दूसरे के झुकने की बात कर रहे हैं कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि वो भी झुका और युद्ध-विराम की मांग की । ये कैसा युद्ध-विराम है जिसमें किसी ने कोई घोषणा नहीं की, न इजराइल ने ईरान पर हमला न करने की बात कही और न ही ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम रोकने की बात कही । 

              इस युद्ध में इजराइल और अमेरिका की एक कोशिश तो पूरी तरह नाकाम हो गई है कि वो ईरान में सत्ता परिवर्तन नहीं कर पाए जिसकी वो घोषणा कर रहे थे । दूसरी बात यह है कि बेशक दोनों देश ईरान की परमाणु क्षमता को खत्म करने की  घोषणा कर रहे हों लेकिन वो कम जरूर हुई है लेकिन खत्म नहीं हुई है । ईरान ने युद्ध शुरू नहीं किया था इसलिए उसका तो कोई लक्ष्य नहीं था. उसे बर्बाद करने के लिए युद्ध शुरू किया गया था लेकिन ईरान ने साबित कर दिया कि वो इराक नहीं है जिसे अमेरिका ने आसानी से बर्बाद कर दिया था । देखा जाये तो ईरान ही इस युद्ध का असली विजेता बना है क्योंकि अमेरिका और इजराइल का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है । दोनों देशों ने जो सोच कर ईरान पर युद्ध थोपा था, वो बात पूरी नहीं हुई है बल्कि दुनिया ने ईरान की मिसाइल शक्ति को देख लिया है ।

 इजराइल को पता चल गया है कि न तो उसकी और न ही अमेरिका की वायु रक्षा प्रणाली उसे ईरानी हमलों से बचा सकती है । अमेरिकी एयर डिफेंस सिस्टम की पोल दुनिया के सामने खुल गई है । ईरान के आकाश पर नियंत्रण होने के बावजूद दोनों देश मिलकर भी इजराइल पर ईरानी हमलों को रोक नहीं पाए । इजराइल इस बात पर खुश हो सकता है कि उसने ईरान के बड़े वैज्ञानिकों और सैन्य अधिकारियों को इस युद्ध में ठिकाने लगा दिया । सवाल उठता है कि क्या इससे ईरान को कोई बड़ा फर्क पड़ने वाला है । मेरा मानना है कि कुछ वैज्ञानिकों और अधिकारियों के मरने से ईरान को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है । अमेरिका की हार तो इससे ही साबित हो जाती है कि वो अपने सहयोगी इजराइल पर ही भड़क रहा है क्योंकि उसे पता है कि इस युद्ध ने उसकी बुरी तरह से भद्द पिटवा दी है । पाकिस्तान का दोगलापन पूरी दुनिया ने देख लिया. एक तरफ उसने अमेरिका का साथ दिया तो जब ईरान पर अमेरिका ने हमला किया तो उसकी निंदा कर  दी । मुस्लिम देशों ने ईरान की अपील के बावजूद उसका साथ नहीं दिया, इससे मुस्लिम उम्माह की बात भी बेमानी हो गई है ।

 भारत की नीति सबसे बढ़िया रही कि उसने इस युद्ध से दूरी बनाकर रखी क्योंकि दोनों देश ही उसके मित्र देश हैं । इस युद्ध ने साबित कर दिया कि अमेरिका पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता. अगर उसके ऊपर भरोसा किया तो आपकी बर्बादी तय है । देखा जाये तो इस युद्ध में सबसे ज्यादा नुकसान अमेरिका का हुआ है । जब इस युद्ध का विश्लेषण किया जाएगा तो सैन्य विशेषज्ञों को यह बात समझ आ जाएगी । इस युद्ध ने साबित कर दिया है कि  अमेरिका की दादागिरी अब ज्यादा दिन तक चलने वाली नहीं है । इस युद्ध ने यह बात भी साबित कर दी है कि युद्ध अपने दम पर लड़ना चाहिए किसी दूसरे के भरोसे युद्ध लड़ना बर्बादी को बुलावा देना है । विशेष रूप से अमेरिका के भरोसे युद्ध लड़ना तो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है ।

 राजेश कुमार पासी

हिंदी फिल्मी गीतों में व्यंग्य

विवेक रंजन श्रीवास्तव 

हिंदी फिल्मी गीतों में व्यंग्य एक सशक्त माध्यम रहा है जिसने सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार और मानवीय दुर्बलताओं को बिना कटुता  तीखेपन से उघाड़ा है। ये गीत मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक दर्पण का काम करते हैं जो समाज के अंतर्विरोधों को संगीत और शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, फिल्म पड़ोसन (1968) का गीत “एक चतुर नार करके सिंगार, मेरे मन के द्वार ये घुसत जात…” राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित और किशोर कुमार व मेहमूद द्वारा गाया गया यह गीत नारी चतुराई और पुरुष अहं पर करारा व्यंग्य करता है। इसमें दक्षिण भारतीय लहजे का प्रयोग हास्य के साथ-साथ सांस्कृतिक रूढ़ियों को भी चिह्नित करता है । 

फिल्म प्यासा (1957) का गीत “सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए…” शकील बदायूंनी के बोल और मोहम्मद रफी की आवाज में जॉनी वॉकर पर फिल्माया गया था। यह गीत शहरी जीवन की अवसादग्रस्त दिनचर्या और तनावमुक्ति के लिए तेल मालिश (चंपी) पर निर्भरता का मखौल बनाकर हास्य उत्पन्न करता है। जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान एक चंपी में खोजा जा रहा है जो निजी कुंठाओं से भागने का प्रतीक बन जाता है. यह व्यंग्य हास्य मिश्रित है। काला बाज़ार (1989) का गीत “पैसा बोलता है…” कादर खान पर फिल्माया गया जो धन के अमानवीय प्रभुत्व को दर्शाता है। नितिन मुकेश की आवाज में यह गीत पूँजीवादी समाज में नैतिक मूल्यों के पतन की ओर इशारा करता है, जहाँ पैसा हर रिश्ते और सिद्धांत पर हावी है । 

कॉमेडियन महमूद की अदाकारी ने कुंवारा बाप  (1974) के गीत “सज रही गली मेरी माँ चुनरी गोते में…” को यादगार बनाया। यह गीत हिजड़ों के माध्यम से समलैंगिकता और पारंपरिक पितृसत्ता पर प्रहार करता है। बोल “अम्मा तेरे मुन्ने की गजब है बात…” लालन-पालन में पुरुष की भूमिका को चुनौती देते हैं, जो उस दौर में एक साहसिक विषय था । 

1950-80 के दशक के स्वर्ण युग में कॉमेडियन्स ने व्यंग्य को नई ऊँचाइयाँ दीं। जॉनी वॉकर की विशिष्ट अभिव्यक्ति, महमूद का स्लैपस्टिक हास्य और किशोर कुमार का संगीत के साथ व्यंग्य का संयोजन, सभी ने गीतों को सामाजिक टिप्पणी का माध्यम बनाया। फिल्म हाफ टिकट (1962) का गीत “झूम झूम कव्वा भी ढोलक बजाये…” या गुमनाम (1965) का “हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं…” जैसे गीतों ने रंगभेद और वर्ग संघर्ष को हल्के अंदाज में प्रस्तुत किया था । 

साहित्य और फिल्मी गीतों के बीच का सामंजस्य भी रोचक रहा है। गीतकारों ने साहित्यिक रचनाओं को फिल्मों में लोकप्रिय बनाया। गोपाल दास ‘नीरज’ ने मेरा नाम जोकर (1970) के गीत “ऐ भाई ज़रा देख के चलो…” को अपनी पुरानी कविता “राजपथ” से अनुकूलित किया था, जो मानवीय अहंकार पर व्यंग्य था । इसी प्रकार, रघुवीर सहाय की कविता “बरसे घन सारी रात…” को फिल्म तरंग (1984) में लिया गया, जो साहित्य और सिनेमा के बीच सेतु बना । 

व्यंग्य के सम्पुट के साथ इस तरह के फिल्मी गीतों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। “पैसा बोलता है…” जैसे गीत आज के भौतिकवादी युग में और भी सटीक लगते हैं। ये गीत सामाजिक विडंबनाओं को उजागर करने के साथ-साथ श्रोताओं को हँसाते-गुदगुदाते हुए विचार करने को प्रेरित करते हैं, जो हिंदी सिनेमा की सांस्कृतिक धरोहर का अमर हिस्सा हैं ।

विवेक रंजन श्रीवास्तव