कविता:आखिरी दिन-खुशबू सिंह

0
229

 ये बात उस दोपहर की है

जब शहर से भागता हुआ शोर एकाएक

गाँव की सरहदों को ताकने लगा था

देख रहा था यूं ही

जैसे देखते है गली मे टहलते आवारा कुत्ते

घरो के खुले दरवाजो को अक्सर

फिराक मे

ठीक उसी नियत से

शहर से खदेड़ा हुआ शोर

हाँफता हुआ

दाखिल होने को आतुर

लबलबया सा सोच रहा था

दबे पाँव जाऊं क्या….

तभी किसी आवाज़ ने

उस शोर की पीठ

थपथपाई और कहा बड़ों

मैं तुम्हारे साथ हूँ

ये गाँव आजकल खामोश है

डरो मत जरा भी

कभी होते थे यहाँ भी ठहाके ओर रोबीले बोल

मगर आज वो सब

चुप हैं

क्योंकि

इन्हे कहने सुनने वाले

सब

वंही पर चले गए हैं

जंहा से तुम अभी अभी आ रहे हो

वो तुम्हारे लिए अपने घरो के

सभी दरवाजे तक खुले छोड़ गए

कुछ ज्यादा ही जल्दी थी

उन्हे शायद

शोर को मानो एहसास हुआ

अपनी अचेतन शक्ति का

और ऐंठ मे तन गया

कदम दर कदम बड़ाते बड़ाते

पहुँच चुका था वो

भीतर तक जो कभी चौपाल थी

और इलाके की शांति

सहमी सी खड़ी थी कोने मे

उसे खबर हो गई थी

आज उसका आखिरी दिन है

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here