राजनीतिक उत्तराधिकार

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 स्वातंत्र्योत्तर भारत में राज्यव्यवस्था के विकास की कहानी दिलचस्प और मननीय है। प्रारम्भिक भाग सामाजिक आलोड़न, अभाव,तनाव और नाना प्रकार की मूलभूत समस्याओं से जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में जूझता रहकर भी राजनीतिक रुप से स्थिर था। सामाजिक संरचना में तीव्र मंथन होने लगा था, स्थापित मान्यताओं पर सवाल उठाए जाने लगे थे। समाज के पिछड़े तबके में शिक्षा का विस्तार होने से सामाजिक चेतना तथा आकांक्षाएँ बढ़ रही थी। लेकिन आनेवाली पीढ़ियों को बेहतर जीवन स्तर मुहैया कराने के लिए नेहरु लोगों का आह्वान प्रतीक्षा एवम् कष्ट वरण करनेके लिए कर रहे थे। स्थापित परम्पराओं और मूल्यबोध पर सवाल उठना शुरु हो गया था। नई अवधारणाएँ और और नए मूल्यबोध मान्यता के दावीदार के रुप में उभड़ रहे थे। विकासोन्मुखी अर्थव्यवस्था में शासक दल कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के रुप में एक सुविधाभोगी वर्ग के उदय से समाज की पारम्परिक संरचना पर तनाव उत्पन्न होने लगा। आशा थी कि कांग्रेस के सत्ता से हटने पर भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण पाया जा सकेगा। पर राज्य विधान सभाओं और केन्द्र में विभिन्न राजनीतिक दलों के शासन काल ने इस आशा को भी गलत साबित किया। फलस्वरुप सारी राजनीतिक पार्टियों से लोगों का मोहभंग होने लगा। इधर भ्रष्टाचार और अपराधीकरण का क्रमशः विस्तार होता चला गया । राजनीति के साथ इनका करीबी सहजीविता का रिश्ता कायम रहने के लक्षण स्पष्ट होने लगे थे। चुनावी राजनीति में दबदबा कायम करने के लिए पैसों की जरूरत होती है, जबकि राजनेताओं के संरक्षण के बगैर भ्रष्टाचार और अपराध के साम्राज्य की रक्षा नहीं हो सकती है ।
जवाहरलाल की नीतियों ने सामाजिक संरचना, लोगों की चेतना एवम् आकांक्षाओं में परिवर्तन की नींव रखी। इसके फलस्वरुप बदलाव का ऐसा सिलसिला शुरु हुआ जिसमें एक स्टेज बाद के स्टेज का पूर्वसूरी बनता गया।
नेहरु के देहावसान के बाद राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरु हुआ। हर बीतते साल के साथ ऐसी घटनाएँ होती रहीं जिनसे सत्ता की स्थिरता में दरारें पड़ने लग गईं। युवाओं की आदर्शवादिता का,सामाजिक एवम् नैतिक विवेक का व्यवस्था से मोहभंग होने लग गया। अपने केरियर के प्रति एकान्त निष्ठा, जो अब तक इनके लिए सम्माननीय नहीं थी,अब प्रतिष्ठित होने लग गई। जवाहर लाल नेहरु की विकासोन्मुख शैक्षणिक नीतियों के नतीजे में अन्तर्राष्ट्रीय जगत के प्रतियोगियोगात्मक परिवेश में तथा कारपोरेट दुनिया और विदेशों में उनके लिए गैर पारम्परिक अवसरों की उपलब्धता सहज हो गई। समाज में विविधता का विस्तार हुआ। विविधता के बढ़ने से नई सम्भावनाएँ और नई आकांक्षाएँ उभड़ीं।
दूसरी ओर युवाओं के एक वर्ग में व्यवस्था के प्रति निराशा एवम् विद्रोह उभड़ने लगा। चुनाव के द्वारा समाज व्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन की सम्भावना मृगतृष्णा लगने लग गई थी इन्हें। फलस्वरुप युवाओं का महत्वपूर्ण वर्ग चुनावी राजनीति गतिविधि से अलग अपनी सम्भावनाएँ तलाशने में लग गया। दूसरी ओर चुनावी राजनीति से व्यवस्था परिवर्तन की सम्भावना से हताश होकर सामाजिक वर्णपट्ट के दूसरे छोर पर के युवा सामाजिक विवेक की ताड़ना से सशस्त्र संग्राम के पथ पर नियुक्त हुए। कितने ही मेधावी युवाओं को नक्सलबाड़ी के रुमानी सपने ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था। विडम्बना है कि आज नक्सली समाजविरोधी, अपराधियों की जमात के नाम से पहचाने जाते हैं।
जवाहरलाल नेहरु स्वप्नद्रष्टा थे। वे राजनीति में मूल्यबोध की प्रतिष्ठा के हिमायती थे और देश की विविधता को मान्यता और सम्मान देते थे। वे देश के विकास में सभी वर्गों और समुदायों की भागीदारी के लिए अनुकूल अवसर प्रदान करने के हिमायती थे। जवाहरलाल को अक्सर अनिर्णय का शिकार देखा जाता था। उनके अनेक निर्णयों पर सवालिया निशान लगते रहे हैं। उनकी उत्तराधिकारी श्रीमती इन्दिरा गाँधी उनकी पुत्री होते हुए भी अधिक यथार्थवादी थीं। उनके शासन काल में तनाव और बदलाव की दशा और दिशा में तेजी आती रही। साथ ही सत्ता के प्रति विरोध अधिकाधिक मुखर होता गया। भ्रष्टाचार विरोधी स्वर और आन्दोलन प्रखरतर होते गए और साथ ही भ्रष्टाचार और अपराधीकरण भी बढ़ता रहा। दोनो एक दूसरे को इंधन जुटाते रहे। शिक्षित और मूल्यबोध सम्पन्न वर्ग राजनीति से विमुख होने लगा। राजनीति जोड़ तोड़ का पर्याय बन गई और राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरु हो गया। विकल्पहीन स्थितियों ने राजनीतिक सत्ता को हास्यस्पद स्थितियों के सम्मुखीन किया।
फलस्वरुप समाज का वह वर्ग, जो अपने केरियर के प्रति ही फोकस रखता है और राजनीतिक एवम् चुनावी प्रक्रिया से तटस्थ रहता है, आन्दोलित हुआ। उसने सत्ता की राजनीति में हस्तक्षेप करना तय किया। इन्हें विदेशों में बसे सफल एवम् सम्पन्न अनिवासी भारतीयों का भरपूर सहयोग और समर्थन मिला। आदर्शवादिता फिर से व्यावहारिक लगने लगी। महत्वाकांक्षा के साथ इसके गठबन्धन से एक सर्वथा भिन्न और नए राजनीतिक विन्यास का उदय हुआ, इसके मुहावरे नए हैं, चौंकानेवाले और अयथार्थ लगते हैं। राजनीतिक और सामाजिक रणभूमि में यह एक नया आश्वासन है। हमें प्रतीक्षा करनी होगी कि कहीं यह अल्पजीवी और भ्रामक फेनोमेनन तो नहीं है।
एक बात पूरे इत्मीनान के साथ कही जा सकती है कि हमारे देश में गणतंत्र की विकास यात्रा ने ऐसा सिस्टम विकसित कर लिया है जिसमें इतना लचीलापन है कि वह अपने द्वन्द्वों और तनावों का प्रबन्धन सफलतापूर्वक कर सकता है। कोई भी पार्टी, व्यक्ति या गिरोह हमारे संविधान का उल्लंघन नहीं कर सकता।

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