श्रीराम के प्रकृति-प्रेम की सकारात्मक ऊर्जा

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– ललित गर्ग –

हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों के रामनवमी बहुत ही शुभ दिन होता है। सनातन शास्त्रों में निहित है कि त्रेता युग में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि पर भगवान श्रीराम का अवतरण हुआ था। धार्मिक मत है कि सभी प्रकार के मांगलिक कार्य इस दिन बिना मुहूर्त विचार किये भी संपन्न किए जा सकते हैं। रामनवमी पर पारिवारिक सुख-शांति और समृद्धि के लिए व्रत भी रखा जाता है। भगवान श्रीराम की पूजा करने से साधक के सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं। साथ ही साधक भगवान श्रीराम की कृपा के भागी बनते हैं। पर्यावरण की विकराल होती समस्या के संदर्भ में भगवान श्रीराम का प्रकृति प्रेम एवं पर्यावरण संदेश इस समस्या के समाधान का एक बड़ा माध्यम बन सकता है, ऐसा हुआ तो हमारा रामनवमी मनाना सार्थक होगा।

श्रीराम के  चौदह वर्ष के वनवास से हमें पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा मिलती है। जन्म, बचपन, शासन एवं मृत्यु तक उनका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति-प्रेम एवं पर्यावरण चेतना से ओतप्रोत है। आज देश एवं दुनिया में पर्यावरण प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन ऐसी समस्याएं हैं जिनका समाधान श्रीराम के प्रकृति प्रेम एवं पर्यावरण संरक्षण की शिक्षाओं से मिलता है।

भारतीय संस्कृति में हरे-भरे पेड़, पवित्र नदियां, पहाड़, झरनों, पशु-पक्षियों की रक्षा करने का संदेश हमें विरासत में मिला है। स्वयं भगवान श्रीराम व माता सीता 14 वर्षों तक वन में रहकर प्रकृति को प्रदूषण से बचाने का संदेश दिया। ऋषि-मुनियों के हवन-यज्ञ के जरिए निकलने वाले ऑक्सीजन को अवरोध पहुंचाने वाले दैत्यों का वध करके प्रकृति की रक्षा की। जब श्रीराम ने हमें प्रकृति के साथ जुड़कर रहने का संदेश दिया है तो हम वर्तमान में क्यों प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने में लगे हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम प्रकृति की रक्षा करें। गोस्वामी तुलसीदास ने 550 साल पहले रामचरित मानस की रचना करके श्रीराम के चरित्र से दुनिया को श्रेष्ठ पुत्र, श्रेष्ठ पति, श्रेष्ठ राजा, श्रेष्ठ भाई, प्रकृति प्रेम और मर्यादा का पालन करने का संदेश दिया है। रामचरित मानस एक दर्पण है जिसमें व्यक्ति अपने आपको देखकर अपना वर्तमान सुधार सकता है एवं पर्यावरण की विकराल होती समस्या का समाधान पा सकता है।

भारतीय समाज का तानाबाना दो महाकाव्यों रामायण एवं महाभारत के इर्द-गिर्द बुना गया है। इनमें जीवन के साथ मृत्यु को भी अमृतमय बनाने का मार्ग दिखाया गया है। इनमें सशरीर मोक्ष मार्ग के अद्भुत एवं विलक्षण उदाहरण हैं। रामायण में प्रभु श्रीराम चलते हुए सरयू नदी में समा जाते हैं और महाभारत में युधिष्ठिर हिमालय को लांघकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इन दोनों ही घटनाओं में महामानवों ने मृत्यु का माध्यम भी प्रकृति यानी नदी एवं पहाड़ को बनाकर जन-जन को प्रकृति-प्रेम की प्रेरणा दी है। लेकिन हम देख रहे हैं कि आज हमने मोक्षदायी नदी और पहाड़ों की ऐसी स्थिति कर दी है कि वहां मोक्ष तो क्या जीवन जीना भी कठिन हो गया है। क्या हम नदियों एवं पहाड़ों को मोक्षदायी का सम्मान पुनः प्रदान कर पाएंगे। यह हमारे जमाने का यक्षप्रश्न है जिसका उत्तर देने श्रीराम और युधिष्ठिर नहीं आएंगे, लेकिन हमें ही श्रीराम एवं युधिष्ठिर बन कर प्रकृति एवं पर्यावरण के आधार नदियों एवं पहाड़ों के साथी बनना होगा, उनका संरक्षण एवं सम्मान करना होगा।

आज संपूर्ण विश्व में नदियों, पहाड़ों, प्रकृति के प्रदूषण को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है, लेकिन हजारों साल पहले भगवान श्रीराम ने प्रकृति के बीच रहकर प्रकृति को बचाने के लिए प्रेरित किया। भगवान श्रीराम वनवास काल में जिस पर्ण कुटीर में निवास करते थे वहां पांच वृक्ष पीपल, काकर, जामुन, आम व वट वृक्ष था जिसके नीचे बैठकर श्रीराम-सीता भक्ति आराधना करते थे। जो धर्म की रक्षा करेगा धर्म उसी की रक्षा करेगा। आदर्श समाज व्यवस्था का मूल आधार है प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ संतुलन बनाकर जीना। रामायण में आदर्श समाज व्यवस्था को रामराज्य के रूप में बताया गया है उसका बड़ा कारण है प्रकृति के कण-कण के प्रति संवेदनशीलता। अनेक स्थानों पर तुलसीदासजी एवं वाल्मीकिजी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को रेखांकित किया है। रामराज्य पर्यावरण की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न एवं स्वर्णिम काल था। मजबूत जड़ों वाले फल तथा फूलों से लदे वृक्ष पूरे क्षेत्र में फैले हुये थे। श्रीराम के राज्य में वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत रहती थीं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते थे। मेघ प्रजा की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार ही वर्षा करते थे। वायु मन्द गति से चलती थी, जिससे उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था। इसलिए जो कुछ हम सब रामायण से समझ पाते हैं, वह ही मनुष्य के जीवन जीने की सनातन परंपरा है। वही परंपरा ही हम सबको यह बताती है कि प्रकृति रामराज्य का आधार है।

 हम श्रीराम तो बनना चाहते हैं पर श्रीराम के जीवन आदर्शों को अपनाना नहीं चाहते, प्रकृति-प्रेम को अपनाना नहीं चाहते, यह एक बड़ा विरोधाभास है। अजीब है कि जो हमारे जन-जन के नायक हैं, सर्वोत्तम चेतना के शिखर है, जिन प्रभु श्रीराम को अपनी सांसों में बसाया है, जिनमें इतनी आस्था है, जिनका पूजा करते हैं, हम उन व्यक्तित्व से मिली सीख को अपने जीवन में नहीं उतार पाते। प्रभु श्रीराम ने तो प्रकृति के संतुलन के लिए बड़े से बड़ा त्याग किया। अपने-पराए किसी भी चीज की परवाह नहीं की। प्रकृति के कण-कण की रक्षा के लिए नियमों को सर्वोपरि रखा और मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए! पर हमने यह नहीं सीखा और प्रकृति एवं पर्यावरण के नाम पर नियमों को तोड़ना आम बात हो गई है। प्रकृति को बचाने के लिये संयमित रहना और नियमों का पालन करना चाहिए, इस बात को लोग गंभीरता से नहीं लेते।

आज इक्कीसवीं शताब्दी में पर्यावरण प्रदूषण के रूप में मानव जाति के अस्तित्त्व को ही चुनौती प्रस्तुत कर दी है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, रेडियो एक्टिव प्रदूषण, ओजोन परत में छिद्र, अम्लीय वर्षा इत्यादि का अत्यन्त विनाशकारी स्वरूप बृद्धिजीवी, विवेकशील, वैज्ञानिकों की चिन्ता का कारण बन चुके हंै। मानव समाज किस समय कौन सी समस्या से ग्रस्त होता है और उसके निदान के लिए समाज के सदस्यों की भूमिका एवं सहभगिता एवं शासकीय प्रयासों की तुलना में अधिक उस समाज के सांस्कृतिक मूल्य अधिक प्रभावी होते हैं। इस संदर्भ में भारतीय संस्कृति के आधार पुरातन ग्रन्थ-वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण के साथ- तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस का अध्ययन व विश्लेषण अत्यन्त लाभप्रद हो सकता है विशेषकर रामचरित मानस का क्योंकि वर्तमान समय में घर-घर में न केवल रामचरितमानस एक पवित्र ग्रन्थ के रूप में पूजा जाता है। वरन इसका पाठ पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर किया जाता है।

रामचरित मानस में पर्यावरण के संदर्भ में वर्णन करते हुए कहा है कि उस समय पर्यावरण प्रदूषण कोई समस्या नहीं थी। पृथ्वी के अधिकांश भू-भाग पर वन-क्षेत्र होता था। शिक्षा के केन्द्र आबादी से दूर ऋषि-मुनियों के वनों में स्थित आश्रम हुआ करते थे। प्रकृति की गोद में स्थित इन केन्द्रों से ही हमारी सभ्यता का प्रचार एवं प्रसार हुआ। यहाँ का वातावरण अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल था। समाज में ऋषि-मुनियों का बड़ा सम्मान था। प्रतापी राजा-महाराजा भी इन ऋषि-मुनियों के सम्मुख नतमस्तक होने में अपना सौभाग्य समझते थे।

यदि हम रामराज्य के अभिलाषी हैं तो गोस्वामी तुलसीदास जी की अवधारणा के अनुरूप शुद्ध पेयजल एवं शुद्ध वायु की उपलब्धता सुनिश्चित करना ही होगा। ऐसा कोई भी कार्य हमें प्रत्येक दशा में बन्द करना होगा जो वायु एवं जल को प्रदूषित करता हो चाहे उससे कितना भी भौतिक लाभ मिलता हो। पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण है हमारी भौतिक लिप्सा। धरती मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सक्षम है। हम यह भी नहीं सोच पा रहे हैं कि असीमित विदोहन जारी रहने से मानव की आने वाली सन्तति का भविष्य क्या होगा? रामराज्य में विदोहन की वृत्ति नहीं थी। रामचरित मानस में हम पाते हैं कि विभिन्न प्राकृतिक अवयवों को मात्र उपभोग की वस्तु नहीं माना गया है बल्कि सभी जीवों तथा वनस्पतियों से प्रेम का सम्बन्ध स्थापित किया गया है। प्रकृति के अवयवों का उपभोग निषिद्व न होकर आवश्यकतानुसार कृतज्ञतापूर्वक उपभोग की संस्कृति प्रतिपादित की गयी है जैसे कि वृक्ष से फल तोड़कर खाना तो उचित है, लेकिन वृक्ष को काटना अपराध है। रामराज्य धरती पर अनायास स्थापित नहीं किया जा सकता है इसके लिए प्राकृतिक पर्यावरण संरक्षण की संस्कृति विकसित करने की आवश्यकता है।

रामचरितमानस में प्रकृति में उपलब्ध औषधीय तत्त्वों का भी प्रतीकात्मक रूप से बहुत ही सुन्दर वर्णन किया हैं। इस संदर्भ में कुछ दृष्टान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें सर्वाधित चर्चित दृष्टान्त-युद्ध के समय लक्ष्मणजी के मूर्छित होने पर लंका से वैद्य सुसैन को बुलाया जाना और संजीवनी बूटी द्वारा लक्ष्मणजी का उपचार करना है। पर्यावरण के संरक्षण के लिए सतत मानवीय प्रयास यानी समर्पण और परिश्रम आवश्यक है। जब व्यक्ति और पर्यावरण के मध्य संगम होता है तब प्रकृति का स्वरूप मानव के प्रति सकारात्मक होता है। जहाँ जहाँ श्रीराम ने निवास किया वहीं प्रकृति का सौन्दर्य की अद्भुत छटा विकीर्ण हो गई।

श्रीराम ने सिखाया कि उतार-चढ़ाव तो जीवन का अंग है। दुख किसने नहीं सहा और किसे नहीं होगा, पर यदि संकल्प मजबूत रहे और संकट काल में संयम बनाए रखें तो हम बड़े से बड़े तूफान, झंझावात का सामना कर सकते हैं। श्रीराम ने समता एवं संयम से जीने की सीख दी, पर हमने अनुकूलता-प्रतिकूलता के बीच संतुलन-धैर्य रखना भूल गये। श्रीराम ने अभय और मैत्री का सुरक्षा कवच पहनाया, हम प्रतिशोध और प्रतिस्पर्धा को ही राजमार्ग समझ बैठे। मेरा ईश्वर मैं ही हूं, मेरा राम मैं ही हूं-यह समझ तभी फलवान बन सकती है, जब व्यक्ति स्वयं श्रीराम को जीए और श्रीराम को जीने का तात्पर्य होगा- प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ संतुलन स्थापित करना एवं उसका सम्मान करना।

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