प्रशासन के समक्ष चुनौती बनती वर्षा ऋतु

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निर्मल रानी

जब सूर्यदेवता ग्रीष्म ऋतु में अपने प्रचंड तेवर दिखाते हैं उस समय जनता उनके इस प्रकोप से त्राहि- त्राहि करने लग जाती है। उस दौरान मनुष्य एक ओर जहां असहनीय भीषण गर्मी से परेशान हो उठता है वहीं धरती भी प्राय: इतनी भीषण गर्मी सहन न कर पाते हुए फट पड़ती है। परिणामस्वरूप लोगों को सूखे का सामना करना पड़ता है। उस समय जगह-जगह से समाचार प्राप्त होते हैं कि इंद्र देवता को धरती पर निमंत्रण देने हेतु कहीं हवन-यज्ञ का सहारा लिया जा रहा है तो कहीं नमाज़ें अदा कर दुआएं व मन्नतें मांगी जा रही हैं।

गोया सभी धर्मों व संप्रदायों के लोग अपने-अपने धार्मिक तौर तरीकों से कुछ ऐसे आयोजन में मसरूफ हो जाते हैं ताकि ईश्वर उनकी मनोकामना पूरी करते हुए आम लोगों को भीषण गर्मी से राहत दिलाए तथा वर्षा कर धरती की प्यास बुझाए। हमारे देश में तो इंद्र देवता को प्रसन्न करने हेतु महिलाओं के सामूहिक निर्वस्त्र होने तक के समाचार आ चुके हैं। बहरहाल प्रकृति अपने निर्धारित समय पर, अपने ही द्वारा निर्धारित मात्रा में बारिश की सौगात देकर धरती की प्यास बुझाने के साथ-साथ मनुष्य को भीषण गर्मी से भी निजात दिलाती है।

मगर मनुष्य प्रकृति से न जाने क्यों यह उम्मीद भी रखता है कि प्रकृति बारिश भी उतनी ही करे जितनी कि उसे ज़रूरत है। गोया मनुष्य प्रकृति से अपनी सुविधा, आवश्यकता तथा अपने ही द्वारा निर्धारित समय के अनुसार कभी बारिश तो कभी धूप की इच्छा जताता रहता है। माना जा सकता है कि यह पूरी मानव जाति का अधिकार भी है। क्योंकि आख़िरकार कोई भी इंसान ईश्वर के समक्ष ही नतमस्तक होकर अपनी आवश्यकताओं,सुविधाओं तथा सुख समृद्धि आदि के लिए फरियाद करता है। परंतु प्रकृति अपने नियम,नीति तथा अपनी ही मर्जी के अनुसार पूरी पृथ्वी पर जब और जहां चाहती है और जितना चाहती है उतनी गर्मी,बारिश और शाीत ऋतु के मौसम आदि उसी के अनुसार प्रदान करती है। ज़ाहिर है जिनके लिए इन ऋतुओं की तीव्रता पीड़ादायक होती हैं या वह इनकी ज्य़ादती का स्वयं को शिकार महसूस करने लगता है वही व्यक्ति प्रकृति से फिर पनाह मांगने लग जाता है।

साथ ही साथ शासन व प्रशासन से भी प्रकृति प्रदत्त ऐसी विपदाओं से निजात दिलाने की उम्मीदें लगा बैठता है। उदाहरण के तौर पर भीषण गर्मी का शिकार इंसान प्रशासन से यह उम्मीद रखता है कि जगह-जगह शीतल जल की समुचित व्यवस्था हो तथा जहां भी उसे प्यास लगे वहीं शीतल जल पीने का साधन कम से कम प्याऊ के रूप में तो उसे अवश्य मिले। इसी प्रकार भीषण सर्दी से त्रस्त आम आदमी जगह-जगह अलाव जलते हुए देखना चाहता है। गरीब आदमी तो सर्दी में सरकार तथा सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं से रैनबसेरों, कंबल व गर्म कपड़ों की भी उम्मीद करता है। इसी प्रकार भारी बारिश के कारण खड़ी होने वाली समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए भी आम आदमी ईश्वर से जहां बारिश रोकने की गुहार लगाता है वहीं बारिश तथा इसके कारण आने वाली बाढ़ से निजात दिलाने व इससे बचाव के लिए शासन व प्रशासन से सहायता की उम्मीदें रखता है।

सवाल यह है कि क्या प्रकृति के प्रकोप से निजात दिला पाना किसी भी सरकार, प्रशासन, यहां तक कि किसी भी विकसित या संपन्न देश के लिए भी संभव है? हमारे देश में उत्तर प्रदेश, बिहार,बंगाल,उड़ीसा,असम तथा मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्य ऐसे हैं जहां सामान्य से थोड़ी सी भी अधिक बारिश होने पर बाढ़ जैसी स्थिति बन जाती है। उत्तर प्रदेश, असम व बिहार राज्यों के कुछ क्षेत्र तो ऐसे हैं जहां सामान्य बारिश भी बाढ़ जैसे हालात पैदा कर देती है। वहीं यही राज्य बारिश न होने पर अथवा देरी से होने पर सूखे की स्थिति का सामना भी करते हैं। सरकार तो यह मानती है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार की आर्थिक कमज़ोरी तथा बदहाली का मुख्य कारण ही वहां की बाढ़ व सूखे जैसी स्थिति ही है।

परंतु दरअसल प्रकृति के इस प्रकोप का सामना केवल बिहार अथवा उत्तर प्रदेश या आसाम को ही नहीं करना पड़ता बल्कि देश के सबसे समृद्ध व संपन्न समझे जाने वाले पंजाब व हरियाणा जैसे राज्य भी कभी कभार प्रकृति के भारी बारिश अथवा बाढ़ रूपी इस कहर का शिकार हो जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व पंजाब का पटियाला शहर इस बुरी तरह बाढ़ का शिकार हुआ था कि लगभग पूरा शहर जलमग्र हो गया था। 7 वर्ष पूर्व भी हरियाणा व पंजाब के बहुत बड़े क्षेत्र को भारी बारिश तथा बाढ़ का सामना करना पड़ा था। और इस बार फिर अभी मॉनसून ने अपनी दस्तक दी ही थी कि मात्र 24 घंटे की लगातार बारिश ने आम जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित कर डाला। दर्जनों लोग इसी बाढ़ व बारिश के चलते किसी न किसी हादसे का शिकार होकर अपनी जाने गंवा बैठे। सैकड़ों पशु मारे गए। हज़ारों एकड़ ज़मीन जलमग्र हो गई। यही स्थिति इस इलाके में पहले भी पैदा हो चुकी है। इन हालात में बेबस आदमी तथा मीडियातंत्र एक बार फिर हमेशा की तरह शासन व प्रशासन को कोसता नज़र आया तथा प्राकृतिक विपदाओं के कारण पैदा होने वाली इन परेशानियों के लिए सरकारी तंत्र को ही जि़म्मेदार ठहराता दिखाई दिया।

क्या सरकार या प्रशासन इस प्रकार की समस्याओं के लिए वास्तव में जि़म्मेदार है? और यदि है तो कितना? और ऐसे कौन से उपाय किए जा सकते हैं जिनसे आम आदमी को ऐसी परेशानियों से निजात मिल सके। हरियाणा व पंजाब में गत् दिनों मॉनसून की शुरुआत में ही आई भारी बारिश तथा इसके बाद उत्पन्न हुई बाढ़ जैसी स्थिति के लिए एक बार फिर यही बताया गया कि घग्गर व टांगरी जैसी पहाड़ी नदियों ने बारिश के पानी के साथ मिलकर बाढ़ जैसी स्थिति बना दी। जिसके कारण काफी बड़ा भाग जल प्रलय जैसे माहौल का सामना करने के लिए मजबूर हो गया। सवाल यह है कि इन नदियों के बांध आख़िर प्राय: क्योंकर टूट जाते हैं? क्या इन बांधों को पक्का किए जाने से इस प्रकार की विपदा से आम लोगों को निजात मिल सकती है? यदि ऐसा संभव है तो विशेषज्ञों को इस पर अध्ययन कर ऐसे पुख़्ता उपाय अवश्य करने चाहिए जिससे भविष्य में बांध में दरार पडऩे जैसी शिकायतें सामने न आने पाएं। परंतु फिर सवाल यह उठता है कि क्या पक्के बांध बनाने से हमें संभावित बाढ़ से पूरी तरह निजात मिल सकेगी? यदि ऐसा हो तो सरकार द्वारा बनायी जाने वाली पक्की नहरें भी अक्सर क्योंकर ओवर फ्लो अथवा ध्वस्त हो जाती हैं? यहां दो बातें सामने आती हैं या तो उन पक्की नहरों के रख-रखाव में लगा हमारा और आप जैसा ही कोई व्यक्ति आम लोगों की जान माल की चिंता किए बग़ैर नहर व बांध के रख-रखाव करने के बजाए उन्हीं पैसों को अपने व अपने परिवार के ‘रख-रखाव’ करने तथा उसे आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने पर लगा देता है।

ऐसी विषमताओं से आम लोगों को निजात न दिला पाने के लिए शासन प्रशासन से अधिक वह भ्रष्ट अमला भी जि़म्मेदार है जिसे बांध या नहर बनाने अथवा इसके रख-रखाव करने की जि़म्मेदारी सौंपी जाती है। हां प्रशासनिक दूरदर्शिता के अभाव से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जहां बांधों में दरार इस प्रकार के बाढ़ रूपी हालात पैदा करती है वहीं उपयुक्त डे्रनेज प्रणाली का न होना भी मात्र भारी वर्षा के दौरान ही बाढ़ जैसे हालात बना देता है। उचित डे्रनेज प्रणाली न होने के कारण बीमारियां फैलने का भी अंदेशा रहता है। आम आदमी के घरों की तो बातें क्या करनी जब स्वयं उपायुक्त कार्यालय लगभग एक सप्ताह तक जल निकासी न होने के कारण पानी में डूबा रह जाए तो इसे प्रशासनिक दूरदर्शिता का अभाव नहीं तो और क्या कहा जा सकता है। अंबाला में उपायुक्त कार्यालय तथा स्टेट बैंक आफ इंडिया की मुख्य ब्रांच पर अभी कुछ समय पूर्व ही लाखों रुपये खर्च कर इन भवनों का जीर्णोद्धार किया गया है। इन्हीं कार्यालयों के साथ ही सदर थाने का एक बिल्कुल नया भवन करोड़ों रुपये की लागत से गत् वर्ष ही बनाया गया है। यह नवनिर्मित भवन भी गत् वर्ष कई दिनों तक जलमग्र रहा।

यहां प्रशासन की सूझ-बूझ पर अवश्य यह सवाल उठता है कि अंबाला शहर की जल निकासी व्यवस्था से बाखबर प्रशासन को जानबूझ कर इसी भूमिस्तर पर नए भवन बनाने अथवा उसके रख-रखाव पर करोड़ों रुपये खर्च करने की बार-बार क्या आवश्यकता थी? या तो बरसाती पानी की निकासी का उचित प्रबंध होना चाहिए या फिर नए भवनों के निर्माण अथवा रख-रखाव के समय पिछली बरसात के अनुभव तथा इन कार्यालयों की ज़मीन के स्तर को मद्देनज़र रखते हुए सरकारी पैसे जोकि अंत्तोगत्वा जनता के ही पैसे होते हैं, को खर्च करना चाहिए।

मीडिया अथवा आम आदमी बेशक प्राकृतिक विपदाओं के समय सरकार शासन अथवा प्रशासन को कोसकर अपनी भड़ास निकालने की कोशिश क्यों न करे परंतु प्रशासन द्वारा ऐसी त्रासदी से निपटने हेतु किए जाने वाले पुख़्ता उपायों को भी हमें मात्र अस्थाई उपाय ही समझना चाहिए। क्योंकि प्रकृति की मार कब,कहां और किस रूप में तथा किस तीव्रता के साथ पड़ती है इसका किसी को भी ज्ञान नहीं होता। अमेरिका,चीन व जापान जैसे संपन्न,समृद्ध तथा लगभग भ्रष्टाचार मुक्त कहे जा सकने वाले देश भी संभवत: दुनिया में सबसे अधिक प्राकृतिक विपदाओं का शिकार होते हैं। अत: यह कहना कि सरकार अथवा प्रशासन हमें प्राकृतिक विपदाओं से पूर्णतया निजात दिला देंगे यह बात अपने ज़ेहन में लाना भी प्रकृति की अपरंपार शक्ति का अपमान करना ही होगा। हां ऐसे उपाय हमें आंशिक राहत ज़रूर पहुंचा सकते हैं.

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