वाराणसी हादसे से उपजे सवाल

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ललित गर्ग:-
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में जिस तरह निर्माणाधीन फ्लाईओवर का एक हिस्सा गाड़ियों के रेले पर जा गिरा, वह कई स्तरों पर लापरवाही एवं कोताही का संकेत देता है। यह कैसा विकास है? यह कैसी विकास की मानसिकता है, जिसमें लोगों की जान की कोई कीमत नहीं है। लोग कई महीनों से चिल्ला रहे थे कि पुल हिल रहा है लेकिन अधिकारियों और राज्य सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। अब लोगों की जान चली गई तो सरकार ने तुरन्त मृतकों और घायलों के लिए मुआवजे का ऐलान कर दिया। क्या इस फ्लाईओवर के निर्माण में भ्रष्टाचार की बू नहीं आ रही है? पुल निर्माण में तेजी और लापरवाही से इतना भीषण हादसा हुआ कि देखने वालों की रूह कांप उठी। इस प्रकार विकास के नाम पर घटित हो रहे हादसों की शृंखला, अमानवीय कृत्य अनेक सवाल पैदा कर रहे हैं। कुछ सवाल लाशों के साथ सो जाते हैं। कुछ घायलों के साथ घायल हुए पड़े रहते हैं। कुछ समय को मालूम है, जो भविष्य में उद्घाटित होंगे। इसके पीछे किसकी लापरवाही है, किस तरह का भ्रष्टाचार है? आज करोड़ों देशवासियों के दिल और दिमाग में इस तरह के सवाल उठ रहे हैं ।
वाराणसी में कैंट रेलवे स्टेशन के पास कई महीने से बन रहे इस ओवरब्रिज का भारी-भरकम गार्डर क्रेन का संतुलन बिगड़ जाने से गिरा और उसने 18 लोगों की जान ले ली, अनेक घायल हुए। ओवरब्रिज के नीचे तो पहले से ही जाम लगा हुआ था। गार्डर गिरने के बाद तो चीखो-पुकार मच गई। गार्डर इतना भारी था कि गाड़ियां ही पिचक गईं और लोगों ने भीतर ही कराहते-कराहते दम तोड़ दिया। लापरवाही की हद देखिये कि हादसा स्थल पर भीड़ प्रबन्धन का इंतजाम न होने से चिकित्सा कर्मियों को राहत कार्य में दिक्कत हुई। हर बार इस तरह की दुर्घटनाओं के बाद सबक सीखने की बात भी कही जाती है, पर अनुभव यही बताता है कि हमने कोई सबक नहीं सीखा है। अकेले उत्तर प्रदेश में पिछले 10 वर्षों के भीतर करीब पांच ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं, जबकि इनसे आसानी से बचा जा सकता था।
क्या हो गया है हमारे देश के निर्माताओं को? क्या हो गया है हमारे विकास के सिपहसलाहकारों को? पिछले लम्बे दौर से विकास के नाम पर होने वाले हादसें एवं दुर्घटनाएं रूप बदल-बदल कर अपना करतब दिखाती है- विनाश और निर्दोष लोगों की जाने लेकर। निर्दोषों को इस तरह से मरना सरकारों पर ही नहीं, सरकार की विकास नीतियों एवं उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार पर सवाल खड़े करता है। क्योंकि इस तरह जब कोई निर्दोष जब मरते हैं तब पूरा देश घायल होता है। कैसी विडम्बना है, कैसी त्रासदी है कि कभी पुल गिर जाता है, कभी पुरानी इमारतें गिर जाती हैं, कभी तूफान से मकान ढह जाते हैं, कभी गुड्डों में गिर कर इंसान दम तोड़ देता है और लोगों की मौत का आंकड़ा बढ़ता जाता है। यह तो प्रकृति का नियम है- जो संसार में आया है, उसे एक दिन तो जाना ही है। हादसे तो रोजाना ही होते हैं लेकिन दुःख इस बात का है कि मानवीय चूक या लापरवाही से हादसे में लोगों की मौत हो जाती है। वाराणसी की यह घटना चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है सत्ता-कुर्सी के चारों तरफ चक्कर लगाने वालों से, हमारी खोजी एजेन्सियों से, हमारी सुरक्षा व्यवस्था से, हमारी यातायात व्यवस्था संभालने वालों से, हमारे विकास को आकार देने वालों से कि वक्त आ गया है अब जिम्मेदारी से और ईमानदारी से राष्ट्र को संभालें।
कोलकता में भी ऐसे ही भीड़भरे बाजार में ब्रिज गिरा था और अनेक निर्दोष लोगों की जाने गयी थी। अब वाराणसी में भी वैसा ही हादसा- इस तरह इन हादसों का लगातार होते जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। यूपी स्टेट ब्रिज कॉरपोरेशन द्वारा ठेकेदारों से कराए जा रहे इस निर्माण कार्य की गुणवत्ता तो संदेह के घेरे में है ही, यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि इतने बड़े निर्माणाधीन ढांचे के नीचे पड़ने वाली सड़क पर वाहनों की आवाजाही नियंत्रित क्यों नहीं की जा सकी? कब तक विकास कुर्बानी मांगता रहेगा? वैसे हमारे देश में विकास के नाम पर लोगों को उजाड़ दिया जाता है और वर्षों तक उनके पुनर्वास के बारे में सोचा नहीं जाता। आज किसान मर रहे हैं, छात्र मर रहे हैं, संवेदनाएं मर रही हैं, जिज्ञासाएं मर रही हैं। कब तक हम संवेदनहीन होते इस विकास के नाम पर निर्दोष लोगों की मौतों को सहते रहेंगे? इन हादसों के लिये जिम्मेदार खूनी हाथों को खोजना होगा अन्यथा खूनी हाथों में फिर खुजली आने लगेगी। हमें इस काम में पूरी शक्ति और कौशल लगाना होगा। आदमखोरों की मांद तक जाना होगा। अन्यथा हमारी विकास में जुटी एजेंसियों की काबिलीयत पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा कि कोई दो-चार व्यक्ति कभी भी पूरे देश की शांति और जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं, विकास को कलंकित कर सकते है। कोई हमारा उद्योग, व्यापार ठप्प कर सकता है। कोई हमारी शासन प्रणाली को गूंगी बना सकता है।
हर बार की तरह इस बार भी हादसे के बाद राज्य सरकार ने सहायता राशि और मुआवजे की घोषणा में काफी तत्परता दिखाई। जांच समिति गठित करके उसे 48 घंटे के अंदर रिपोर्ट देने को भी कहा। लेकिन प्रश्न है कि तमाम चेतावनियों के बावजूद सरकार की नींद हादसों से पहले क्यों नहीं टूटी? शहरों के प्रबंधन में आम तौर पर जो गड़बड़ियां होती हैं, और बनारस जैसे शहर में भी जो गड़बड़ियां हैं, उस तरफ सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता? वाराणसी बहुत पुराना ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक शहर है। किसी भी पारंपरिक शहर की तरह यहां संकरी गलियां और पतली सड़कें ही देखने को मिलती हैं। फ्लाईओवर और चैड़ी सड़कें इसकी पहचान का हिस्सा नहीं हैं। बढ़ती आबादी की नागरिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बनारस के विकास को विस्तार देना ही होगा, लेकिन यह काम शहर के मिजाज और बनावट को समझ कर ही किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र हो जाने के कारण यहां 2019 को टारगेट बनाकर विकास की कुछ ज्यादा ही हड़बड़ी देखी जा रही है। इस क्रम में गुणवत्ता और सुरक्षा के मानकों की कितनी अनदेखी हो रही है, शहर के आम लोगों को इसके चलते रोजाना कितनी कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है, इन सवालों पर ज्यादा गंभीरता से सोचने की जरूरत है। राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन इस हादसे से कुछ सबक ले सके तो यह बनारस के लिए सुकून की बात होगी। इस हादसे का सबक दूसरे प्रांतों को भी लेना चाहिए। पर यह ज्यादा जरूरी है कि जो घटना हुई है इसका विकराल रूप कई संकेत दे रहा है, उसको समझना है। कई सवाल खड़े कर रहा है, जिसका उत्तर देना है। इसने नागरिकों के संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया। यह विकास से जुड़ा बड़ा षड़यंत्र है इसलिए इसका फैलाव भी बड़ा हो सकता है। सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी कुर्सियों को पकडे़ बैठे हैं या बैठने के लिए कोशिश कर रहे हैं। उन्हें नहीं मालूम कि इन कुर्सियों के नीचे क्या है। हमें सावधानी बरतनी होगी। हम ऐसी दुर्घटनाओं में अपनी जान इस तरह नहीं गंवा सकते, जो मामूली-सी सावधानी से सुरक्षित हो सकती हैं। पर सवाल अब भी वही है कि क्या हम इसके लिए तैयार हैं? क्या हम वाराणसी हादसे से सचमुच सबक सीखेंगे?

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