लीला भंसाली की पदमावती को लेकर उठा विवाद

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले दिनों दो ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिनकी निन्दा किया जाना जरुरी है । 19 जनवरी को केरल के कण्णूर जिला में वहाँ के मुख्यमंत्री विजय के चुनाव क्षेत्र में कुछ लोगों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता संतोष के घर में घुस कर उसकी हत्या कर दी । कहा जाता है कि हत्या करने वाले लोग सीपीएम से ताल्लुक़ रखते थे । यह अलग बात है कि सीपीएम ने अपनी शमूलियत से इंकार किया । परन्तु उनके इंकार की मान्यता केरल में उतनी ही है जितनी विजय माल्या का यह कह देना कि उसने बैंकों से क़र्ज़ा लिया ही नहीं । उसके कुछ दिन बाद 27 जनवरी को संजय लीला भंसाली के साथ राजस्थान की राजधानी जयपुर में कुछ लोगों ने दुर्व्यवहार किया । ये लोग राजपूत समुदाय से सम्बंध रखने वाले थे । राजपूत समुदाय ने इस बात को स्वीकार किया कि उन्होंने भंसाली के साथ मारपीट की थी । लीला भंसाली फ़िल्में बनाने का काम करते हैं । इसलिए देश के सिनेमा जगत में उनका नाम जाना पहचाना है । स्वभाविक था उनके साथ किए गए इस दुर्व्यवहार से सिनेमा जगत के लोगों को दुख होता । सिनेमा से जुड़े बहुत से लोगों ने भंसाली के साथ हुए इस कांड की निन्दा भी की । सिनेमा जगत से इतर भी कुछ लोग भंसाली के समर्थन में आए । कुछ बुद्धिजीवी क़िस्म के लोगों को तो भंसाली के साथ हुए व्यवहार से यह भी शक होने लगा कि देश में अब लोकतंत्र समाप्त होने के कगार पर पहुँच गया है । लेकिन आश्चर्य की बात की भंसाली के कपड़े फाड़े जाने पर ही कुछ लोग अपना गला फाड़ने लगे और संतोष कुमार की हत्या पर भी यही लोग ख़तरनाक मौन धारण कर गए । केरल में जो संतोष कुमार के साथ हुआ वह भी ग़लत है और उसके कुछ दिन बाद राजस्थान में जो भंसाली के साथ हुआ वह भी ग़लत है ।
संतोष कुमार का दोष तो मात्र इतना ही था कि वह कन्नूर ज़िला का रहने वाला था और सीपीएम के साथ नहीं था । केरल में कन्नूर ज़िला सीपीएम का गढ़ माना जाता है । सीपीएम का मानना है कि इस ज़िला में वही रह सकता है जो हमारे साथ हो । इस ज़िला में उन्हीं की शर्तों पर रहना होगा । संतोष कुमार को यह मंज़ूर नहीं था और उसको इसकी क़ीमत अपने प्राण देकर चुकानी पडी । यह मामला कुछ कुछ कश्मीर घाटी जैसा ही है । घाटी में मुसलमान बहुसंख्यक हैं । इसलिए उनकी कुछ तंजीमों ने स्पष्ट कर दिया कि यदि यहाँ हिन्दू-सिक्खों को रहना है तो हमारी शर्तों पर रहना होगा । वे नहीं माने और लगभग चार लाख हिन्दू सिक्खों को घाटी छोड़ कर जाना पडा । ये दोनों घटनाएँ ज़्यादा गंभीर हैं और देश के बुद्धिजीवी समाज की तब्बजो की माँग करती है । लेकिन भंसाली को लेकर गला फाड़ने वाले समुदाय के लिए ये दोनों स्थितियाँ महत्वपूर्ण नहीं हैं ।
भंसाली के साथ इस प्रकार मारपीट नहीं की जानी चाहिए थी , यह घोषणा करने के बाद मैं संजय लीला भंसाली के मामले पर टिप्पणी करना भी जरुरी समझता हूँ । भंसाली अल्लाउद्दीन ख़िलजी को लेकर एक फ़िल्म बना रहे हैं । कहा जाता है कि उन्होंने फ़िल्म में भारत के लोगों को यह समझाने की कोशिश की है कि ख़िलजी का पदमावती के साथ प्रेम सम्बंध था । भंसाली का दुर्भाग्य है कि भारत के लोग इतिहास में यह पढ़ते आए हैं कि अल्लाउद्दीन ख़िलजी पदमावती पर बुरी नज़र रखता था । पदमावती ने अपने सम्मान की ख़ातिर जौहर की ज्वाला में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी । भंसाली इससे पहले भी भारत के लोगों को नए तरीक़े से इतिहास पढ़ा रहे हैं । उन्होंने ही एक फ़िल्म बाजीराव मस्तानी बनाई थी जिसमें भारतीय इतिहास के युग पुरुष बाज़ीराव के चरित्र के साथ छेड़छाड़ की गई थी । दरअसल यह मामला केवल संजय लीला भंसाली का नहीं है । भंसाली तो मात्र एक मोहरा भर है । भारत में मध्य एशिया से आकर अपना राज्य स्थापित करने वाले और मज़हबी कारणों से मतान्तरण अभियान चलाने वाले मुग़ल शासकों को विदेशी शासक व उनके राज को विदेशी राज न मान कर देशी राज मान लिया जाए , इसका प्रयास 1947 में अंग्रेज़ शासकों के चले जाने के बाद से ही शुरु हो गया था । मुग़ल आक्रान्ताओं को गिने चुने इतिहासकारों द्वारा महिमामंडित करवाने और जिन लोगों ने इन आक्रान्ताओं से लोहा लिया था , उन्हें नकारात्मक ढंग से चित्रित करवाने का षड्यंत्रकारी अभियान चलाया गया । भारत गणतंत्र के प्रथम शिक्षामंत्री मौलाना अब्दुल आज़ाद को बनाया गया , जिनके पूर्वज अरब से हिन्दोस्तान में आए थे । नेहरु का चिन्तन और आज़ाद का चिन्तन और दृष्टिकोण मुग़लों को लेकर एक जैसा ही था । मुग़ल शासकों का मूल्याँकन हमलावर के रुप में नहीं बल्कि गुड गवर्नेंस के आधार पर किया जाने लगा । इसी आधार पर अकबर की प्रशंसा में गीत लिखे जाने लगे । बड़े बड़े शहरों में मुग़ल शासकों के नाम पर सड़कों के नाम रखने का अभियान चलाया गया । आम तौर पर सड़क का नाम किसी महापुरुष के नाम पर इस लिया रखा जाता है ताकि लोग उस महापुरुष के जीवन से प्रेरणा ले सकें और उसके रास्ते पर चलने का संकल्प लें । दिल्ली में सड़कों के नाम बाबर, हुमांयू, शाहजहाँ, जहांगीर, अकबर और औरंगज़ेब के नाम पर रखे गए । स्पष्ट है सरकार भारतीयों को स्पष्ट संकेत दे रही थी कि ये लोग आपके महापुरुष हैं । सरकार की नीति का यह पहला हिस्सा था । दूसरा हिस्सा पहले हिस्से का पूरक ही है । वह हिस्सा है मुग़ल आक्रान्ताओं से लड़ने भिड़ने वाले लोगों की हेठी करना और उन्हें समाज विरोधी सिद्ध करना । इस काम के लिए उन्हें बहुत मशक़्क़त करने की जरुरत नहीं है । मुग़ल आक्रान्ताओं के साथ आए अरबी/तुर्की/अफ़ग़ानी/ईरानी इतिहासकारों ने पहले ही अपनी किताबों में ऐसी काफ़ी सामग्री भर रखी है । मुग़लों के पक्षधर वर्तमान इतिहासकारों को उसको प्रमाण मान लेने में क्या आपत्ति हो सकती है ? जो थोड़ी बहुत कमी रहती थी , वह अंग्रेज़ इतिहासकारों ने पूरी कर दी ।( भारत पर लिखने बाले बहुत ले अंग्रेज़ लेखक वास्तव में इतिहासकार थे ही नहीं , वे सिविल सर्विस के अधिकारी थे) लेिन मुग़लों के पक्षधर वर्तमान भारतीय इतिहासकारों के लिए तो गोरे सिविल स्रवेंट के बचन भी वेद वाक्य बन गए ।
परन्तु इस पूरी योजना में एक कमी अभी भी बचती थी । इतिहासकार जो मर्ज़ी लिखते पढतें रहें इस देश की आम जनता मुग़लों से लोहा लेने वाले योद्धाओं को जन नायक ही मानती है । आम जनता की नज़र से इन स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों को गिराने के लिए अन्ततः सिनेमा का सहारा लिया गया । सिनेमा की पहुँच दूर दूर तक है और प्रत्यक्ष दिखाई गई चीज़ का आम जनता पर गहरा असर होता है । संजय लीला भंसाली सिनेमा जगत की उसी मंडली का हिस्सा है जिन्हें भारत के जन नायकों को किसी भी तरह खल नायक सिद्ध करना है । लीली भंसाली की फ़िल्म में पदमावती अल्लाउद्दीन ख़िलजी की प्रेमिका ही हो सकती थी । अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर करने वाली वीरांगना नहीं । इसी अभियान के अन्तर्गत योद्धा अकबर भी बनेगी और टीपू सुल्तान भी बनेगी । बाज़ीराव मस्तानी तो अभी हाल की कथा है । लोकतंत्र समर्थकों का तर्क तो ठीक है । किसी को भंसाली के काम पर आपत्ति है तो विरोध दर्ज करवाने के लोकतांत्रिक तरीक़े भी हैं । न्यायालय तो है ही । पर लोगों में निराशा तब आता है जब पेटा जैसी एक विदेशी संस्था भारत के न्यायालय से ही हज़ारों साल पुरानी जलीकट्टू जैसी सांस्कृतिक परम्परा को प्रतिबन्धित करवाने में सफल हो जाती है । यह वह दृष्टि है जिसके अनुसार बैल को मार कर खा जाना उचित है लेकिन उसको कुछ देर के लिए दौड़ाना उस पर अत्याचार करना है । पदमावती का अपमान करना उचित है लेकिन अपमान करने वाले को रोकना अनुचित है । या खुदा । अपमान करने का तरीक़ा तो अनसिविल भी ठीक है लेकिन रोकने का तरीक़ा सिविल ही होना चाहिए । राजस्थान के लोगों को पदमावती के सम्मान की रक्षा के लिए सिविल तरीक़े सीखने चाहिए । लेकिन भंसाली को सिविल तरीक़े कौन सिखाएगा ?

1 COMMENT

  1. आज हम ऐसे दौर में हैं जहाँ हमारे गौरवशाली ऐतिहासिक चरित्रों का चारित्रिक पतन देखते रहना, और गुंडे और आताताइयों का महिमा मंडन करना बुधिजीविता की निशानी बन गया है , हाल ही में प्रदर्शित रईस नामक एक फिल्म इसका ज्वलंत उदहारण है, अब पीढियां त्याग बलिदान और कर्तव्य गाथाएं नहीं बल्कि खिलजी आदि जैसे लोगों के महान चरित्र चित्रण से जीवन निर्माण सीखेंगे, बजाते रहिये लोकतंत्र का ढोल…

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