राम कथा और महर्षि वाल्मीकि : दशगुरु परम्परा तक की यात्रा

– डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री


  १. सप्त सिन्धु क्षेत्र में राम कथा का अँकुर और महर्षि वाल्मीकि-       

                                       जब भी राम कथा की बात आएगी तो महर्षि वाल्मीकि की बात भी साथ ही आएगी । इसे दूसरी प्रकार से भी कहा जा सकता है , जब भी महर्षि वाल्मीकि जी की बात आएगी तो श्री राम चन्द्र जी की बात भी साथ ही आएगी । राम के इतिहास का और महर्षि वाल्मीकि जी का आपस में घनिष्ठ सम्बध है ।  महर्षि वाल्मीकि आदि कवि माने जाते हैं । उनकी ऐतिहासिक राम कथा क्योंकि काव्य शैली में लिखी गई है ,इसलिए वह विश्व का पहला काव्य भी है । यह ठीक है कि रामचन्द्र जी के इतिहास के  प्रसंग छिटपुट रूप से अनेक ग्रन्थों में मिल जाते थे लेकिन यह महर्षि वाल्मीकि जी ही थे जिन्होंने इस पूरे इतिहास को समग्र रूप से एक साथ लिपिबद्ध करके भारतीय इतिहास और राजनीति के इस प्रारम्भिक काल को सुरक्षित रखने में कालजयी भूमिका निभाई । कालान्तर में महर्षि वेदव्यास जी ने और दूसरे अन्य विद्वानों ने विविध पुराण व दूसरे ग्रन्थ लिखे ,वे सभी वाल्मीकि जी का अनुकरण कर ही लिखे । ऐसा कहा जाता है कि द्वापर युग में युधिष्ठिर ने व्यास जी से अनुरोध किया कि महर्षि वाल्मीकि जी द्वारा लिखी  राम कथा की व्याख्या लिखी जानी चाहिए ताकि उसके गूढ़ रहस्यों को सामान्य जन समझ सके । उनके अनुरोध पर व्यास जी ने रामायण तात्पर्यदीपिका की रचना की । लेकिन वह पांडुलिपि अब उपलब्ध नहीं है । व्यास जी ने अध्यात्म रामायण की रचना भी की जो ब्राह्मंड पुराण गा हिस्सा ही है । अनेक पुराणों में वाल्मीकि जी के उल्लेख से राम कथा का वर्णन है । कालान्तर में संस्कृत के अनेक कवियों यथा कालिदास, भवभूति , शार्गंधर, भास , आचार्य शंकर , रामानुज , राजा भोज ने वाल्मीकि जी का अपने उपर उपकार स्वीकार किया है । 

                      भारतीय इतिहास के श्लाका पुरुष श्री राम चन्द्र जी का सप्त सिन्धु  क्षेत्र से घनिष्ठ सम्बध रहा है और महर्षि वाल्मीकि का एक आश्रम भी सप्त सिन्धु क्षेत्र में ही है । दरअसल रामचन्द्र जी के इतिहास से सम्बंधित अनेक स्थान इसी सप्त सिन्धु क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं । रामचन्द्र जी का वंश इक्ष्वाकु वंश कहलाता है ।  रामचन्द्र जी के दादा सूर्यवंशी महाराजा अज का सम्बध पंजाब में रोपड के पास खरड नगर से भी माना जाता है । वहाँ आजकल एक प्राचीन तालाब का जीर्णोद्धार किया जा रहा है जिसके बारे में विश्वास है कि वह महाराजा अज का बनाया हुआ है । रामचन्द्र जी के माता कौशल्या जी पटियाला के समीप घड़ाम गाँव से थीं । आजकल भी पटियाला के राजकीय चिकित्सालय का नाम माता कौशल्या के नाम से ही है । कैकेयी भी कैकेय प्रदेश की रहने वाली थी । कैकेय प्रदेश आज के गजनी प्रान्त को कहा जाता है । कुछ लोग इसे झेलम का भी बताते हैं । रामचन्द्र जी के बेटों  लव-कुश को पंजाब के दो प्रसिद्ध शहरों लाहौर और क़सूर के संस्थापक माना जाता है । 

                वाल्मीकि जी का आश्रम कहाँ था ? इसको लेकर विद्वानों में खोजबीन चलती रहती है । रामायण के बालकांड में माना गया है कि तमसा नदी के किनारे यह आश्रम था लेकिन तमसा नदी कौन सी है , इसको लेकर मतैक्य नहीं है । कम से कम यह वह तमसा तो नहीं है जो गंगा के उत्तर तथा अयोध्या के दक्षिण में है । सीतामढ़ी में भी यह आश्रम बताया गया है । कानपुर के बिठूर को भी वाल्मीकि आश्रम माना गया है ।भाई कान्ह सिंह नाभा के महानकोश के अनुसार वाल्मीकि जी का वह आश्रम जिसमें अयोध्या छोड़ आने के बाद सीता जी ने निवास किया और यहाँ उनके दोनों पुत्रों का लालन पालन हुआ वह बुन्देलखण्ड के चित्रकूट में है । एक मान्यता यह भी है कि राम के इतिहास के अंतिम काल में वाल्मीकि जी सप्त सिन्धु/पंजाब में आ गए थे । उन का यह आश्रम पंजाब में अमृतसर के पश्चिम में कलेर गाँव के समीप स्थित है । यह आश्रम राम तीर्थ/वाल्मीकि आश्रम के नाम से प्रसिद्ध है । आश्रम सप्त सिन्धु के तीर्थ स्थानों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है । कुछ साल पहले पंजाब सरकार ने लगभग दो सौ करोड़ रुपए की लागत से इस आश्रम का जीर्णोंद्धार किया था । वाल्मीकि जयन्ती के अवसर पर देश भर से वाल्मीकि समुदाय के लाखों लोग इस आश्रम में शीश निभाने आते हैं । वैसे भी वाल्मीकि समाज के लोग देश भर में सर्वाधिक संख्या में पंजाब/सप्तसिन्धु क्षेत्र में ही रहते हैं । देश के अन्य भागों में भी जो वाल्मीकि रहते हैं , उनमें से अधिकांश पंजाब से ही गए हैं । वाल्मीकि समाज के लोग  सुदूर मेघालय की राजधानी शिलांग में भी रहते हैं , लेकिन ये सभी ब्रिटिश काल में पंजाब से ही गए थे । इसलिए महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम का पंजाब में होना आश्चर्य की बात नहीं है । वाल्मीकि महाराज यायावरी प्रकृति के थे । इसलिए अनेक स्थानों पर उनके आश्रम होना आश्चर्य का विषय नहीं हो सकता ।  एक प्रश्न और भी है,  आख़िर महर्षि वाल्मीकि जी ने श्री रामचन्द्र जी के जीवन के अंतिम हिस्से में अपने आश्रम के लिए सप्तसिन्धु क्षेत्र को भी क्यों चुना ? सप्त सिन्धु/पश्चिमोत्तर भारत ही उनके इस नए प्रयोग की साधना स्थली क्यों बना ? वाल्मीकि त्रिकालदर्शी थे । वे स्वयं लिखते हैं –

                                   सर्व च विदितं मह्यं त्रैलोक्ये यद्धि वर्तते ।

 वे भविष्य को पढ ही नहीं स्पष्ट देख रहे थे । इसी सप्त सिन्धु क्षेत्र के कुरुक्षेत्र  में भारत का महाभारत होने वाला था । इसी उत्तरापथ से विदेशी आक्रमणों की एक लम्बी श्रंखला शुरु होने वाली थी । सप्त सिन्धु के दर्रा खैबर से हिन्दुस्तान पर एक के बाद दूसरा विदेशी आक्रमण शुरु होने वाला था । उसके लिए ऐसी समाज रचना की जरुरत थी जो उसका मुक़ाबला कर सके । वाल्मीकि जी उसी काम में लगे थे । उन्होंने भी उसी सप्त सिन्धु/पंजाब को ही अपना कर्म क्षेत्र बना लिया था , जहाँ भारत के भविष्य की इबारतें लिखी जाने बाली थीं । उस समय राम का आदर्श ही प्रेरणा दे सकता था । यही कारण है कि वाल्मीकि के राम लौकिक पुरुष हैं । लेकिन साथ ही वे रामचन्द्र जी की शासन व्यवस्था का विश्लेषण भी कर रहे थे ताकि आने वाले शासकों के लिए यह शासन व्यवस्था रोल माडल बन सके । राम की राज्य व्यवस्था को आज भी आदर्श राज्य व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है । इस राज्य व्यवस्था का विस्तृत उल्लेख महर्षि वाल्मीकि जी ने अपनी रामायण में किया है । कालान्तर में तुलसीदास ने इसे सूत्र रूप में कहा- दैहिक दैविक भौतिक तापा , रामराज्य कबहुँ नहीं व्यापा । यही वाल्मीकि का राम राज्य था । महात्मा गान्धी वाल्मीकि के इसी रामराज्य को  आज के भारत के लिए भी श्रेष्ठ मानते थे ।

                         राम कथा के इतिहास में विश्वामित्र और वसिष्ठ जी के आश्रम भी चर्चित थे । लेकिन वाल्मीकि जी के इस आश्रम की ख्याति का एक और कारण भी था । वे पूर्व इतिहास को लिख भी रहे थे और नए इतिहास को गढ़ भी रहे थे । इस आश्रम की प्रसिद्धि के तीन मुख्य कारण हैं । यहाँ बैठ कर महर्षि वाल्मीकि ने श्री रामचन्द्र जी के इतिहास को लिपिबद्ध किया था । अयोध्या नरेश श्री दशरथ और उनके सुपुत्र श्री राम चन्द्र जी के इतिहास की महत्वपूर्ण  घटनाएँ यथा राम वनवास , राम-रावण विवाद , रावण द्वारा सीता का अपहरण, राम द्वारा सामान्य जन का संगठन खड़ा करना और उसी संगठन के बलबूते महाशक्तिशाली रावण को पराजित करना , अयोध्या का शासन सम्भालना , इस सब को पहली बार वाल्मीकि महाराज ने ही भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित किया था । लेकिन रामचन्द्र जी के इतिहास की अनेक घटनाओं का यह आश्रम साक्षी भी कहा जा सकता है । अयोध्या वापिस आने पर रामचन्द्र जी के जीवन में एक लोकोपवाद का प्रसंग उपस्थित हो गया । 

 वह किसी प्रजाजन  द्वारा सीता जी पर लगाया गया आक्षेप है । रामचन्द्र जी का सामने संकट उपस्थित हो गया है । शायद सीता अपहरण से भी बड़ा संकट । उन्हें सीता पर सन्देह नहीं है । लेकिन प्रश्न सीता का तो है ही नहीं , यहाँ प्रश्न प्रजा का है । आक्षेप लगाने वाला राज्य की प्रजा में से है । आज की शब्दावली में कहें तो राज्य का नागरिक है । इस स्थिति में रामचन्द्र जी के सामने अनेक विकल्प हैं । सबसे पहला विकल्प तो , अंग्रेज़ी भाषा में कहें तो इग्नोर करने का है । ऐसे अनेक लोग भौंकते रहते हैं । दूसरा विकल्प निराधार लांछन लगाने के आरोप में  दोषी को दंड देने का है । लेकिन रामचन्द्र जी ने राज्य व्यवस्था का एक नया सूत्र दिया । राज की व्यवस्था चाहे लोकतंत्र की हो , कुलीनतंत्र की हो या फिर राजतंत्र की ही क्यों न हो , राज तो लोकलाज से चलता है । यह किसी भी राज्य व्यवस्था का आदर्श या चरम बिन्दु कहा जा सकता है । इस चरम बिन्दु को व्यवहारिक रूप में धारण करना कितना मुश्किल है , वही क्षण राम चन्द्र जी के सामने उपस्थित हो गया था । यह परीक्षा की घड़ी थी । राम चन्द्र इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए । उन्होंने सीता का त्याग कर दिया । शायद सीता भी जानती थी कि यह राजा या शासक होने का रामचन्द्र द्वारा स्वयं को दिया गया दंड ही है । राज सिंहासन यदि प्रजा द्वारा दिया गया पुरस्कार है तो प्रजा द्वारा दिया गया यह दंड भी राजा को लेना ही होगा । राजसिंहासन काँटों का ताज है । राजा यह ताज इसलिए धारण करता है ताकि प्रजा का मार्ग कंटक मुक्त हो जाए । राम को जब उनके पिता ने बनवास दे दिया था तब राम ने उफ नहीं की थी और अब जब सीता को बनवास मिल रहा था तो उसने भी उफ़ नहीं की । राम भविष्य के शासकों के लिए राजधर्म के मानदंड निर्धारित कर रहे थे । राज लोकलाज से चलता है ।  रामचन्द्र के इतिहास का यह दूसरा हिस्सा है । रामचन्द्र स्वयं अयोध्या में हैं लेकिन उनकी अर्द्धांगिनी वाल्मीकि के आश्रम में आ गईं हैं । इस प्रकार रामचन्द्र जी के वंश के इतिहास का यह दूसरा अध्याय महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में घटित भी हो रहा है और साथ साथ लिपिबद्ध भी किया जा रहा है । 

                         इसके बाद महर्षि वाल्मीकि , राम के इतिहास के केवल लेखक न रह कर , स्वयं उसका हिस्सा बन जाते हैं । गर्भवती सीता महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय पाती है । इसी आश्रम में रामचन्द्र जी के दोनों पुत्रों लव एवं कुश का लालन पालन होता था । ज्ञान साधना का यह वाल्मीकि आश्रम शस्त्र साधना का केन्द्र भी बन गया था । यहाँ लव कुश के साथ ही हज़ारों युवा शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे । यहां देश की सामाजिक व्यवस्था में भी एक नया प्रयोग हो रहा था । अभी तक की सामाजिक व्यवस्था में जो ज्ञान अर्जित करने में रुचि रखता था , उसे शस्त्रों के प्रशिक्षण की जरुरत नहीं समझी जाती थी । जो शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त करते थे , उनका ज्ञान साधना से कोई ताल्लुक नहीं होता था । लेकिन महर्षि वाल्मीकि भविष्य द्रष्टा थे । वे देश के भविष्य को देख रहे थे । हज़ारों वर्षों दूर के भविष्य को । यही कारण था कि उनके आश्रम में लव कुश के साथ देश के हर हिस्से , विशेष कर सप्त सिन्धु क्षेत्र के युवा , एक साथ ही शस्त्र और शास्त्र की साधना कर रहे थे ।  ‘शस्त्रे शास्त्रे च कौशलम्’ का पहला उदाहरण भी सप्त सिन्धु क्षेत्र का यह वाल्मीकि समाज ही कहा जा सकता है । राम के इतिहास का पूर्वार्द्ध इन्हीं आश्रमों से जुड़ा हुआ था लेकिन वाल्मीकि महाराज के आश्रम की महत्ता इसलिए थी कि वे राम की सन्तान को प्रशिक्षित करके इस यात्रा के सनातन प्रवाह को आगे बढ़ा रहे थे । अब वाल्मीकि जी से शस्त्र व शास्त्र की शिक्षा केवल लव-कुश ही नहीं ले रहे थे बल्कि  सप्त सिन्धु क्षेत्र के लाखों युवा इस आश्रम की ओर खिंचे चले आ रहे थे । महर्षि वाल्मीकि के लिए वे सभी लव और कुश का रूप ही हो गए थे । ये लोग सभी जातियों , सभी वर्णों के थे । आज जिनको जनजाति समुदाय भी कहा जाता है , उन समुदायों के लोग भी यहाँ थे । वाल्मीकि आश्रम सही अर्थों में , यदि आज की शब्दावली का प्रयोग करना हो तो समाजिक समरसता का राष्ट्रीय मंच बन गया था । लेकिन यक़ीनन इसमें सप्त सिन्धु क्षेत्र के लोग सर्वाधिक थे । सप्त सिन्धु क्षेत्र का ऐसा कौन सा समुदाय था जो महर्षि वाल्मीकि आश्रम की ओर खिंचा नहीं चला आ रहा था ? और यही उनके आश्रम की ख्याति का तीसरा कारण था । वे नए वाल्मीकि समाज की रचना कर रहे थे । उसे आकार दे रहे थे । 

२. वाल्मीकि समुदाय का उदय-   वाल्मीकि आश्रम में इन सभी जातियों के श्रद्धालुओं  की अलग अलग जातिगत पहचान समाप्त होकर एक नई पहचान उभर रही थी । महर्षि वाल्मीकि के शिष्य होने के नाते ये सभी अब वाल्मीकि हो गए । इसलिए ये वाल्मीकि कहे जाने लगे । सप्त सिन्धु क्षेत्र में एक नया वाल्मीकि समाज आकार ग्रहण कर रहा था । वाल्मीकि कोई जाति नहीं थी बल्कि अनेक जातियों का एक समाज था । इस समाज में जातियों का अलग स्वरूप घुल गया था । यही कारण है कि वाल्मीकि समाज में अनेक जातियों के गोत्र पाए जाते हैं । आज के सन्दर्भ में इसका साम्य तलाशना हो तो ‘राधा स्वामी’ समाज में देखा जा सकता है । राधा स्वामी केन्द्र या आश्रम में आस्था रखने वाले श्रद्धालु की एक नई पहचान बनती है । यह नई पहचान राधा स्वामी कहलाती है । लेकिन राधास्वामी कोई जाति नहीं है । राधा स्वामी समाज में अनेक जातियों के व्यक्ति हैं । दो सौ साल बाद यह जाति की पहचान राधास्वामी समाज में घुल जाएगी । उसी परिप्रेक्ष्य में वाल्मीकि समाज की पहचान को समझा जा सकता है । वाल्मीकि के आश्रम में तो एक साथ ही ज्ञान साधना , शस्त्र साधना और संगीत साधना हो रही थी । आश्रम में विद्वानों य ऋषि मुनियों का आना जाना लगा रहता था । लव और कुश दोनों भाई वाल्मीकि जी की आज्ञा से इन सभी को संगीत में गा गाकर राम कथा सुनाते । अब तक वे संगीत में भी निपुण हो चुके थे । केवल लव और कुश ही यह राम कथा नहीं गाते थे । आश्रम का पूरा वाल्मीकि समाज इसे गा रहा था । यह समाज राम कथा गा गाकर राममय हो गया था । दूर दूर से श्रोतागण इस संगीत की धारा का रसास्वादन करने के लिए पहुँचते थे । एक ऐसा वाल्मीकि समाज आकार ग्रहण कर रहा था जिसमें चारों वर्णों की योग्यता समाहित थी । वाल्मीकि समाज और राम कथा एकाकार हो गई थी । राम कथा की एक जड़ सप्त सिन्धु क्षेत्र में भी लग गई थी । उसके बाद यह जड़ कभी नहीं सूखी । 

३. राम कथा का अंतिम अध्याय और लव कुश की परीक्षा की घड़ी – 

               राम कथा पूरी हो गई थी । लेकिन अभी भी उसका एक अध्याय लिखना शेष था । यही इसका अंतिम अध्याय था । लेकिन यह अध्याय लव और कुश की परीक्षा के बाद ही लिखा जा सकता था । ज्ञान साधना और संगीत साधना में तो लव और कुश उत्तीर्ण हो चुके थे लेकिन शस्त्र प्रशिक्षण की परीक्षा अभी बाक़ी थी । उसका परिणाम आने पर ही वाल्मीकि राम के इतिहास का अंतिम अध्याय लिख सकते थे । इस परीक्षा के परिणाम को ही रामायण का अंतिम अध्याय बनना था । यह परीक्षा कब होगी और इसका परिणाम क्या होगा , यह महर्षि वाल्मीकि पहले से ही कैसे बता सकते थे ? परीक्षा का दिन और घड़ी ही निश्चित नहीं है , को परिणाम की बात तो सोचना भी अतार्किक होता । लेकिन अन्तत: वह परीक्षा की घड़ी आ ही पहुँची । रामचन्द्र जी ने अयोध्या में अश्वमेध यज्ञ किया है , यह समाचार दसों दिशाओं में छा गया । अश्व की रक्षा के लिए अयोध्या की सेना यज्ञ के अश्व के साथ घूम रही है । रामचन्द्र जी के इस अश्व को रोकने का दुस्साहस भला कौन कर सकता था ?  आश्रम से बाहर घूम रहे लव और कुश ने उस सुन्दर अश्व को देखा और उसे पकड़ने की इच्छा से मचलने लगे । दो युवकों को अश्व की ओर बढ़ते देख उसकी रक्षा में सन्नद्ध सैनिकों ने चेतावनी दी । इससे दोनों भाईयों का संकल्प और भी दृढ़ हो गया । सैनिकों ने फिर चेताया , अश्व को पकड़ने का अर्थ है अयोध्या की सेना से युद्ध करना । इसी युद्ध कला की तो महर्षि वाल्मीकि ने उन्हें आज तक शिक्षा दी थी । आज उसकी भी परीक्षा हो जाएगी । दोनों भाइयों ने आगे बढ़कर अश्वमेध यज्ञ के उस अश्व को पकड़ कर बाँध लिया । भयंकर युद्ध शुरु हो गया । बल्कल धारी लव कुश से सेना पार नहीं पा रही थी । रणभूमि में चाहे लव कुश हैं लेकिन परीक्षा तो वाल्मीकि जी की हो रही है । उन्हीं के छात्र परीक्षा दे रहे थे । इसके परिणाम के बाद ही तो उन्हें राम कथा का अंतिम अध्याय लिखना था । इस परीक्षा में लव और कुश दोनों उत्तीर्ण हुए । लव और कुश ने भरत , शत्रुघ्न , लक्ष्मण के नेतृत्वमें लड रही सेना को पराजित कर दिया । तब राम स्वयं रणभूमि में उतरे । लेकिन लव-कुश से वे भी पार नहीं पा सके । इस युद्ध की ख़बर आश्रम में सीता जी के पास पहुँची । वे व्याकुल हो गईं । रामचन्द्र जी के अश्व को उन्हीं के आत्मजों ने बान्ध लिया है । वे दोनों अयोध्या की सेना से कैसे पार पाएँगे ? वे व्याकुल हो वाल्मीकि जी के पास आईं । लेकिन महर्षि को तो पहले ही इस युद्ध की मालूमात थी । वाल्मीकि जी के शिष्यों ने शस्त्रों के प्रशिक्षण में  जो आज तक दक्षता प्राप्त की थी , उसका प्रदर्शन कर दिया था । सीता जी ने रणभूमि में आकर अपने तपोबल से दशरथ नन्दनों को पुन: जीवित किया । लेकिन महर्षि वाल्मीकि जी ने राम कथा का यह अंतिम अध्याय नहीं लिखा । यह कार्य उन्होंने अपने उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ दिया । लव-कुश की यह शौर्य गाथा कालान्तर की राम कथाओं में सर्वत्र विद्यमान है । लेकिन इस इतिहास का सबसे सुन्दर वर्णन गुरु गोविन्द सिंह जी ने जिस वीर रस में किया है , उसकी तुलना नहीं की जा सकती । 

४. सप्त सिन्धु क्षेत्र में राम कथा की निरन्तरता और दशगुरु परम्परा- 

सप्त सिन्धु क्षेत्र में महर्षि वाल्मीकि ने हज़ारों साल पहले जो राम कथा सुनाई थी , उस इतिहास की गूँज सप्त सिन्धु क्षेत्र में कभी मन्द नहीं हुई और इसने अनेक विपदाओं के वाबजूद यहाँ कभी निराशा को पनपने नहीं दिया । वाल्मीकि समाज ने उसे दसों दिशाएँ में पहुँचा दिया । उसे नई लय और अर्थ दिए । वे अर्थ जो हर युग में प्रासंगिक थे । लेकिन अभी तक  यह कथा अधूरी थी । यह कब पूरी होगी किसी को पता नहीं था ।  1469 में जब पंजाब में गुरु नानक देव जी ने दशगुरु परम्परा की शुरुआत की तो इस कथा को नए स्वर मिले । युगानुकूल स्वर ।  दशगुरु परम्परा आगे चलते चलते दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह तक पहुँच गई थी । तब दशम गुरु ने इस अधूरी कथा को पूरा किया । उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखने का निर्णय किया । विचित्र नाटक । उन्होंने शुरु किया-अब मैं अपनी कथा बखानो।लेकिन अपनी कथा सुनाने से पहले उन्होंने अपने सोढी वंश और वेदी वंश की जो कथा बखानी उससे यह राम कथा पूरी हो गई । वे लिखते हैं – सीअ सुत बहुरि भए दुइ राजा । राजपाट उनही कउ छाजा ।मद्र देस एस्वरज बरी जब । भाँति भाँति के जग्ग किए तब ।।माता सीता जी के दोनों पुत्र राजा बने ।पंजाब में ही बस गए और यहीं राज्य संभाला । यहाँ उनका ऐश्वर्य फला फूला । तही तिनै बाँधे दुई पुरवा । एक क़सूर दुतीय लहुरवा ।। उन्होंने ही आज के पंजाब के दो प्रसिद्ध नगरों लाहौर और क़सूर  का निर्माण किया था और  बाद में  इन दोनों के वंशजों ने अनेक वर्षों तक इन स्थानों पर राज किया । उनका कहाँ तक वर्णन किया जाए । बहुत काल तिन राज कमायो । जाल काल ते अंत फसायो ।कालान्तर में लव की गद्दी पर उनके वंशज कालराय आसीन हुए । कुश के वंशज कालकेतु क़सूर के सिंहासन पर आसीन हुए । कालकेत अर कालराइ भन । जिन ते भए पुत्र अनगन ।कालान्तर में दोनों की सन्तानों में झगड़े होने लगे । कालकेतु बहुत शक्तिशाली था । उसने कालराय को पराजित कर अपना राज्य छोड़ कर भागने के लिए विवश कर दिया । वह भाग कर सनौढ चला गया और वहाँ की राजकुमारी से उसने विवाह कर लिया । उससे जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम सोढीराय रखा गया । उसके नाम से ही सोढी वंश प्रचलित हुआ । लेकिन दोनों भाईयों के वंशजों में युद्ध बन्द नहीं हुआ । अन्त में –लवी सरब जीते कुसी सरब हारे  ।।बचे जे बली प्रान लै कै सिधारे  ।।चतुर वेद पठियं कीयो कासि बासं ।।घनै बरख कीने तहां ही निवासं  ।।लेकिन कुश वंशी वेदों के अध्ययन में इतने निष्णात हो गए कि उनका नाम ही वेदी हो गया ।दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी अपने आत्मकथा में आगे वर्णन करते हैं कि वेदियों ने पंजाब/सप्तसिन्धु में शासन कर रहे सोढी वंश के शासक को संदेश भेजा । वैसे भी लव वंश के लोगों की वेद में अध्ययन की ख्याति पंजाब तक पहुँचने लगी थी । सोढ़ियों ने उनको पंजाब में वापिस बुला लिया । यहाँ आकर लव वंश के विद्वानों  ने सोढियों को वेद सुनाए और उनका मर्म समझाया । सोढियों का राज्य सत्ता से मोह भंग हो गया । वे राज सिंहासन वेदियों को देकर स्वयं वन में चले गए । वेदियों ने अनेकों वर्ष राजकाज सम्भाला । गोविन्द सिंह जी अपनी आत्मकथा में इसका वर्णन करते हैं- 

जिनै बेद पठिओ सु बेदी कहाए ॥ तिनै धरम के करम नीके चलाए ॥ 

पठे कागदं मद्र राजा सुधारं ॥ अपो आप मो बैर भावं बिसारं ॥१॥ 

 विप्रं मुकलिअं दूत सो काशि आयं ॥ सबै बे दियं भेद भाखे सुनायं ॥  

 सबै बेदपाठी चले मद्र देसं ॥ प्रनामं कीयो आनकै कै नरेसं ॥२॥ 

 धुनं बेद की भूप ता ते कराई ॥ सबै पास बैठे सभा बीच भाई ॥ 

 पड़ै सामबेदं जुजर बेद कत्थं ॥ रिगंबेद पढियं करे भाव हत्थं ॥३॥

 अथरबेद पट्ठियं ॥ सुणे पाप नट्ठियं ॥ 

 रहा रीझ राजा ॥ दिया सरब साजा ॥४॥ 

 लयो बन्नबासं ॥ महां पाप नासं ॥

 रिखं भेस कीयं ॥ तिसै राज दीयं ॥५॥ 

 रहे होर लोगं ॥ तजे सरब सोगं ॥ 

धनं धाम तिआगे ॥ प्रभं प्रेम पागे ॥६॥ 

बेदी भयो प्रसनं राज कह पाइकै ॥ देत भयो बरदान हीऐ हुलसाइकै ॥

जब नानक कल मै हम आन कहाइ है ॥ हो जगत पूज किर तोहि परमपद पाइ है ॥७॥ 

लवी राज दे बन गए बेदिअन कीनो राज ॥ 

भांति भांति  तिनि भोगियं भूअ का सकल समाज ॥८॥ 

त्रितिय बेद सुनबे तुम कीआ ॥ चतुर बेद सुनि भूअ को दीआ ॥

तीन जनम हमहूं जब धरिहै ॥ चउथे जनम गुरू तुहि करिहै ॥९॥ 

उत राजा कानिनहि सिधायो ॥ इत इन राज करत सुख पायो ॥ 

कहा लगे करि कथा सुनाऊं ॥ ग्रंथ बढन ते अधिक डराऊं ॥१०॥ लेकिन काल की गति नयारी है । धीरे धीरे वेदी शासकों में शिथिलता आने लगी और आन्तरिक झगड़े भी बढ़ने लगे । स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि उनके पास मात्र बीस गाँव ही रह गए और वे खेतीबाड़ी करने लगे ।तिन बेदियन के कुल बिखै , प्रगटे नानक राइ । । इन वेदियों के वंश में श्री नानक देव जी ने जन्म लिया । इस प्रकार दशम गुरु  गोविन्द सिंह जी ने राम चन्द्र जी के वंश की आधुनिक काल तक की यात्रा को रेखांकित किया । राम कथा का यह अंश तो गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा । लेकिन वाल्मीकि महाराज की  पूरी रामकथा को भी उन्होंने एक बार पुन: अपने युग की आम भाषा में लिपिबद्ध किया । गुरु गोविन्द सिंह जी द्वारा रामावतार के  नाम से श्री रामचन्द्र जी का यह इतिहास दशमग्रन्थ में सुरक्षित है । रामकथा के इतिहास के बारे में गुरु गोविन्द सिंह जी लिखते हैं – राम कथा जुग जुग अटल, सभ कोई भाखत नेत ।सुग बास रघुबर करा सगरी पुरी समेत ।जो इह कथा सुनै अरु गावै । दूख पाप तहि निकटि न आवै ।विशन भगति की ए फल होई । आधि व्याधि छवै सके न कोई ।५. वाल्मीकि अवतार की कथा-               इतना ही नहीं गुरु गोविन्द सिंह जी ने राम कथा के इतिहास को सुरक्षित करने वाले महर्षि वाल्मीकि जी के अवतार के वारे में भी लिखा । वे दशम ग्रन्थ में लिखते हैं- अथ बालमीक अवतार कथनं ॥ ॥ नराज छंद ॥ सु धारि अवतार को बिचार दूज भाखिहै। बिशेख चत्र आनकेअसेख स्वाद चाखिहै। अकरथ देव कालिका अनिरख शबद उचरो । सु बीन बीन कै बडे प्रबीन अछ् को धरो ॥ १॥ बिचार आदि ईशुरी अपार शबदु राखिऐ । चितार क्रिपा काल की जु चाहिऐ सु भाखिऐ । न शंक चित आनिऐबनाइ आप लेहगे । सुक्रित काब कित्तको कबीस और देहगे ॥ २ ॥ समान गुंग के कवं सु कैस काबि भाख है।अकाल काल की क्रिपा बनाइ ग्रंथ राखिहै। सुभाख्य कउमदी पड़े गुनी असेख रीझहै । बिचार आपनी क्रितं बिसेखचित्त (मू०प्र०६१३) खीझहै ॥ ३ ॥ बचित्र काव्य की कथा पवित्र आज भाखिऐ । सु सिद्ध ब्रिद्ध दाइनी सम्रिध बैणराखिऐ । पवित्र निरमली महाँ बचित्र काव्य कत्थिऐ । पवित्र शबद उपजे चरित्र को न किज्जिऐ ॥ ४ ॥ सु सेवकालदेव की अभेव जान कीजिऐ । प्रभात उठ्ठ तास को महात नामु लीजिऐ । असंख दान देहगे दुरंत शत्र घाइहै।सु पान राख आपनो अजान को बचाइहै ।। ५ ।। न संत बार बाक है असंत जूझहै बली । बिसेख सैन भाज है सितंसरेण निरदली । कि आन आप हाथ है बचाइ मोह लेहगे ।दुरंत घाट अउघटे कि देखनै न देहगे ॥ ६ ॥ ॥ इति अवतार बालमीक प्रथम समापतं ॥                 गुरु गोविन्द सिंह जी का मानना है कि वाल्मीकि महाराज के रूप में ब्रह्मा जी ही प्रकट हुए हैं । वाल्मीकि जी ने राम कथा काव्य शैली में लिखी है , उनके सामने अन्य सभी कवि गूँगे हो गए है । राम का यह इतिहास आज भी सिद्धि और समृद्धिदायक कहा जाता है । 

६. महर्षि वाल्मीकि का वाल्मीकि समाज कसौटी पर –  महर्षि वाल्मीकि ने जिस वाल्मीकि  समुदाय को अपने आश्रम में प्रशिक्षित किया था , क्या संकट काल आने पर वह उस कसौटी पर पूरा उतरा ? इसमें कोई शक ही नहीं कि जब पश्चिमोत्तर  द्वार से भारत पर अरबों , तुर्कों , मुगल मंगोलों के आक्रमण हुए तो उसको चुनौती देने वालों में से वाल्मीकि समाज अग्रणी भूमिका में था । उससे पहले हज़ारों वर्षों तक इस समाज ने देश में ज्ञान की ज्योति भी प्रज्ज्वलित करने में भी अपनी भूमिका निभाई । दशगुरु परम्परा के नवम गुरु श्री तेग बहादुर जी को विदेशी मुगल साम्राज्य ने दिल्ली में शहीद कर दिया था । तेग बहादुर जी ने विदेशी सत्ता के अन्याय का मुक़ाबला करते हुए मृत्यु का वरण किया था । लेकिन मुगल सत्ता इससे देश के आम लोगों में क्रूर सत्ता का भय पैदा करना चाहती थी । शासकीय मुनादी थी कि गुरु जी के शरीर को वध स्थल से कोई नहीं उठाएगा । देश ने इस चुनौती को स्वीकार । भाई जैता जी गुरु जी के शीश को लेकर , पूरी मुगल सत्ता को चुनौती देते हुए सतलुज के तट पर आनन्दपुर पहुँच गए । वहाँ उनके पुत्र गोविन्द सिंह जी ने विधिवत पिता का दाह संस्कार किया । लेकिन गुरु जी के शीश को लाने वाला भाई जैता उसी वाल्मीकि समाज का था , जिसे सहस्रों वर्ष पहले महर्षि वाल्मीकि जी ने अपने आश्रम में शस्त्र विद्या सिखाई थी । 

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