मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना : अंग्रेजों की मुस्लिमपरस्ती को कांग्रेस का समर्थन और देश विभाजन

अंग्रेजों ने मुस्लिमों को समझा दिया था……

भारत में मुस्लिम सांप्रदायिकता शासन द्वारा प्रायोजित होती रही थी । अंग्रेजों ने इस तथ्य को समझकर मुस्लिमों को अपना समर्थन प्रदान कर उन्हें यह बात धीरे से समझा दी कि वह अब भी हिन्दुओं के विरुद्ध अपनी साम्प्रदायिक नीति को यथावत जारी रख सकते हैं। मुस्लिमों को अपना मौन समर्थन देते हुए अंग्रेजों ने बड़ी सावधानी से मुस्लिम साम्प्रदायिकता को अब ‘साम्प्रदायिक दंगे’ कहना आरम्भ किया। इस प्रकार के साम्प्रदायिक दंगों में भी ऐसा आभास कराया गया है कि जैसे हिन्दू मुस्लिम दोनों ही इन दंगों के लिए दोषी होते हैं । उनमें भी अधिकतर ऐसा दिखाया गया कि जैसे हिन्दू ही दंगों के लिए दोषी था या दोषी होता है। यद्यपि इन साम्प्रदायिक दंगों का सर्वाधिक शिकार हिन्दू ही होता था। हिंदुओं को इन सांप्रदायिक दंगों के लिए दोषी ठहराने में अंग्रेजों की मुस्लिमपरस्ती और कांग्रेस को अंग्रेजों की इस प्रकार की नीति को समर्थन दिया जाना जिम्मेदार था। दुर्भाग्य से कांग्रेस स्वतंत्रता पूर्व के अपने इस कुसंस्कार को आज तक अपनाए हुए हैं।

कांग्रेस ने भारत की हिन्दू मुस्लिम समस्या को जिस प्रकार परिभाषित या स्थापित किया, कांग्रेस ने उसे वैसे ही ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। क्योंकि कांग्रेस वास्तव में अंग्रेजों की मानस पुत्र संस्था थी। आज तक भी कांग्रेसी उसी इतिहास को ‘ब्रह्मवाक्य’ समझ कर पढ़ रहे हैं जो अंग्रेज भारत के सन्दर्भ में लिख गए थे। यही कारण है कि कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी ने देश में जब साम्प्रदायिक हिंसा निषेध कानून लाने की बात सोची तो इसके पीछे उनकी मान्यता यही थी कि देश का बहुसंख्यक वर्ग ही ऐसा है जो अल्पसंख्यक वर्ग पर धार्मिक अत्याचार करता है। अतः सोनिया गांधी ने अपने उस कानून के माध्यम से हिन्दू समाज का दमन करने की योजना बनाई।

कांग्रेस की सोच ने किया विकृत इतिहास ।
छद्मवाद के कारने कर दिया सत्यानाश।।

अंग्रेजों की इस चाल को या कहिए कि इस शब्दजाल को पकड़कर ही कुछ लोगों ने भारत में साम्प्रदायिकता या साम्प्रदायिक दंगों को केवल अंग्रेजों के समय से होना माना है। उनकी मान्यता है कि मुगलों के शासन काल में तो देश में सर्वत्र शान्ति की बयार बहती रही। उस समय कहीं पर भी कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ।
इस प्रकार अंग्रेजों ने भारत में मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच पहले से ही स्थापित मजहबी खाई को और चौड़ा करने का प्रयास किया। अंग्रेजों की यह नीति अपनी उपनिवेशवादी व्यवस्था को भारत में स्थापित किए रखने के दृष्टिकोण से उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण थी।

हिन्दू लड़ते रहे अपने गौरव के लिए

भारत के हिन्दू समाज के नेता मुसलमानों की साम्प्रदायिकता से पहले दिन से ही दु:खी चले आ रहे थे। जिसके लिए वह रह रहकर विद्रोह और क्रान्ति किया करते थे। दुर्भाग्यवश जब वह शिवाजी के उत्तराधिकारियों के नेतृत्व में 1737 में मुगलों की सत्ता को देश से उखाड़ फेंकने में या उसे बहुत छोटे से क्षेत्र में सीमित करने में सफल हुआ तो लगभग उसी समय व्यापारी बनकर भारत आए अंग्रेजों ने भारत पर अपना राजनीतिक जाल फैलाना आरम्भ कर दिया।
1757 ई0 में हुए पलासी के युद्ध ने देश के इतिहास की दिशा मोड़ दी। हिन्दू समाज मुगलों की पराधीनता से अभी मुक्त हुआ ही था कि प्लासी के युद्ध ने धीरे-धीरे अंग्रेजों को भारत में राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 1857 में अंग्रेजों ने जब भारतवर्ष में अपने 100 वर्ष के शासन को स्थापित होने की खुशी में शताब्दी समारोहों का आयोजन करने की तैयारी आरम्भ की तो देश की हिन्दू शक्ति ने भी यह ठान लिया कि हम तुम्हें इस प्रकार के आयोजन नहीं करने देंगे । ध्यान रहे कि भारतवर्ष की हिन्दू शक्ति वही शक्ति थी जो मुगलों और तुर्कों को चैन से नहीं रहने देती थी तो अंग्रेजों को यह कैसे चैन से बैठने दे सकती थी ?

अंग्रेजों ने उभारना आरम्भ किया मुस्लिमों को

1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने प्रति क्रांति के माध्यम से कथित रूप से दबाने में सफलता प्राप्त की, परन्तु इसके पश्चात उन्होंने देश में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को और भी अधिक तीव्रता के साथ हवा देनी आरम्भ की।उन्हीं के सहयोग ,समर्थन और प्रोत्साहन से सर सैयद अहमद खान ने सन 1887 में भारत में द्विराष्ट्रवाद की वकालत करते हुए मुस्लिम साम्प्रदायिकता को तेज करने वाला भड़काऊ भाषण दिया।
अंग्रेजों ने मुस्लिमों की दंगा पसंद नीति को प्रोत्साहित करते हुए देश के प्रमुख प्रान्त बंगाल का साम्प्रदायिकता के आधार पर 1905 में विभाजन कर डाला अर्थात मुस्लिम बहुल क्षेत्र को उन्होंने मुस्लिम बंगाल और हिन्दू बहुल बंगाल को हिन्दू बंगाल के नाम से बना दिया। यद्यपि कहने के लिए इन्हें पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के नाम से पुकारा गया। देश की हिन्दू जनता ने इसका अपने तत्कालीन क्रान्तिकारी नेताओं के नेतृत्व में भारी विरोध किया, जिसके सामने अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा।
यह केवल एक संयोग नहीं था कि 1905 में साम्प्रदायिकता के आधार पर बंगाल का विभाजन किया जाए और अगले ही वर्ष अर्थात 1906 में मुस्लिमों को अपनी आवाज उठाने के लिए एक राजनीतिक मंच अर्थात मुस्लिम लीग के रूप में एक राजनीतिक दल प्रदान किया जाए? इस राजनीतिक दल की स्थापना अंग्रेजों द्वारा मुस्लिम साम्प्रदायिकता को हवा देने के लिए की गई थी। जिसका उद्देश्य मुस्लिमों को हिन्दुओं से अलग करना और धीरे-धीरे एक नया देश मांगने के लिए तैयार करना था।
इसके साथ ही मुस्लिम लीग की स्थापना कराकर अंग्रेजों ने मुस्लिमों को एक ऐसा मंच दे दिया जिसके माध्यम से वह अपनी बात को अंग्रेजों तक पहुँचा सकते थे। इस मुस्लिम मंच के लिए अंग्रेजों की सोच पहले दिन से ही उदार और सहयोगी रही। उन्होंने इसके नेताओं को इसकी स्थापना से पहले ही यह समझा दिया था कि आप अपनी मांगों को इस मंच के माध्यम से हमारे पास लाएंगे और हम उन्हें पूर्ण सरकारी संरक्षण और समर्थन देते हुए स्वीकार करेंगे। इससे स्पष्ट है कि मुस्लिम लीग की स्थापना के पीछे अंग्रेजों का यही उद्देश्य था कि मुस्लिम साम्प्रदायिकता को हवा देकर उसे उभारा जाए और भारत के तोड़ने की तैयारी की जाए।
इसके लिए यदि साम्प्रदायिक दंगे भी आवश्यक हों तो सरकारी संरक्षण में उन्हें कराए जाने के लिए भी अंग्रेजों और मुस्लिमों के बीच एक गुप्त समझौता हो गया अर्थात सहमति बन गई। मुस्लिम लीग के नेता यदि देश भक्त होते और हिन्दुओं के साथ मिलकर रहने की उनकी सोच सही काम कर रही होती तो वह अंग्रेजों के संरक्षण और समर्थन से मुस्लिम लीग का निर्माण नहीं करते, बल्कि वह अंग्रेजों से कह देते कि हमारे हित हिंदुस्तान में पूर्णतया सुरक्षित हैं और हम इसे अपने लिए मादरे वतन मानते हैं । इसलिए आप हमारे साथ कोई भी ऐसा छल प्रपंच मत कीजिए जिससे हमारे देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़े। पर उन्होंने ऐसा नहीं कहा । इतना ही नहीं 1945 -46 में जब नेशनल असेंबली के चुनाव हुए तो उस समय देश के 93% मुसलमानों ने मुस्लिम लीग के समर्थन में अपने मत देकर यह स्पष्ट किया कि वे सब मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग से पूर्णतया सहमत हैं।

मुस्लिम लीग की सोच को दिया समर्थन मौन।
सारे जिन्नाह हो गए , देश के संग था कौन ?

इस प्रकार उस समय का मुस्लिम नेतृत्व ही नहीं बल्कि मुस्लिम मतदाता या जन समुदाय भी मुस्लिम लीग की विभाजनकारी नीतियों का समर्थन कर रहा था। कारण यही था कि वे सब हिन्दुओं को अपने लिए शत्रु मानते थे और उनके साथ रहना कतई उचित नहीं मानते थे। क्योंकि उनकी सोच में पूर्णतया मजहब बसा हुआ था। अपनी इसी सोच से प्रेरित होकर वह हिन्दुओं के साथ दंगावादी सोच रखते थे और जब भी अवसर मिलता था तभी कहीं ना कहीं हिन्दुओं के विरुद्ध दंगा भड़का देते थे।

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