अम्लीय प्रदूषण से दूषित होती नदियां

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प्रमोद भार्गव

जल संपदा की दृष्टि से भारत की गिनती दुनियां ऐसे देशों में है, जहां बड़ी तादात में आबादी होने के बावजूद  उसी अनुपात में विपुल जल के भंडार अमूल्य धरोहर के रूप में उपलव्ध हैं। जल के जिन अजस्त्र स्त्रोतों को हमारे पूर्वजों व मनीषियों ने पवित्रता और शुद्धता के पर्याय मानते हुये पूजनीय बनाकर सुरक्षित कर दिया था, आज वहीं जल स्त्रोत हमारे अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, आर्थिक दोहन की उद्दाम लालसा, औद्योगिक लापरवाही, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और राजनैतिक अदूरदर्शिता के चलते अपना अस्तित्व खो रहे हैं। गंगा और यमुना जैसी सांस्कृतिक व ऐतिहासिक महत्व की नदियों की बात तो छोड़िये, प्रादेशिक स्तर की क्षेत्रिय नदियां भी गंदे नालों में तब्दील होने लगी हैं। स्टील प्लांटों से निकले तेजाब ने मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र की नदियों के जल को प्रदूषित कर अम्लीय बना दिया है। वहीं छत्तीसगढ़ की नदियों को खदानों से उगल रहे मलवे लील रहे हैं। उत्तर प्रदेश की गोमती का पानी जहरीला हो जाने के कारण उसकी कोख में मछलियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। गंगा किस हाल में है, सब जानते हैं।

भारत में औसत वर्षा का अधिकतम अनुपात उत्तर-पूर्वी चेरापूँजी में 11,400 मिमी और उसके ठीक विपरीत रेगिस्तान के अंतिम छोर जैसलमेर में न्यूनतम 210 मिमी के आसपास है। यही वर्षा जल हमारे जल भण्डार नदियां, तालाब, बांध, कुओं और नलकूपों को बारह महीने लबालव भरा रखते हैं। प्रकृति की वर्षा की यह देन हमारे लिये एक तरह से वरदान है। लेकिन हम अपने तात्कालिक लाभ के चलते इस वरदान को अभिशाप में बदलने में लगे हुये हैं। औद्योगिक क्षेत्र की अर्थ दोहन की ऐसी ही लापरवाहियों के चलते मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में लगे स्टील संयंत्र रोजाना करीब 60 टन दूषित मलवा नदियों में बहाकर उन्हें जहरीला तो बना ही रहे हैं, मनुष्य-मवेशी व अन्य जलीय जीव-जन्तुओं के लिये जानलेवा भी साबित हो रहे हैं। दरअसल इन स्टील संयंत्रों में लोह के तार व चद्दरों को जंग से छुटकारा दिलाने के लिये 32 प्रतिशत सान्द्रता वाले हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का इस्तेमाल किया जाता है। तारों और चद्दरों को तेजाब से भरी बड़ी-बड़ी हौदियों में जब तक बार-बार डुबोया जाता है तब तक ये जंग से मुक्त नहीं हो जातीं ? बाद में बेकार हो चुके तेजाब को चामला नदी से जुड़े नालों में बहा दिया जाता है। इस कारण नदी का पानी लाल होकर प्रदूषित हो जाता है, जो जीव-जन्तुओं को हानि तो पहुंचाता ही है यदि इस जल का उपयोग सिंचाई के लिये किया जाता है तो यह जल फसलों को भी पर्याप्त नुकसान पहूंचाता है। पूरे मध्यप्रदेश में इस तरह की पंद्रह औद्योगिक इकाईयां हैं। लेकिन अकेले मालवा क्षेत्र और इंदौर के आसपास ऐसी दस इकाईयां है, जो खराब तेजाब आजू-बाजू की नदियों में बहा रही हैं।

नियमानुसार इस दूषित तेजाब को साफ करने के लिये रिकवरी यूनिट लगाये जाने का प्रावधान उद्योगों में है, पर प्रदेश की किसी भी इकाई में ट्रीटमेंट प्लांट नहीं लगे हैं। दरअसल एक ट्रीटमेंट प्लांट की कीमत करीब आठ करोड़ रूपये है। कोई भी उद्योगपति इतनी बड़ी धनराशि व्यर्थ खर्च कर अपने संयंत्र को प्रदूषण मुक्त रखना नहीं चाहता ? कभी-कभी जनता की मांग पर प्राशसनिक दबाव बढ़ने के बाद औद्योगिक इकाईयां इतना जरूर करती हैं कि इस अम्लीय रसायन को टेंकरों में भरवाकर दूर फिकवाने लगती हैं। इसे नदियों और आम आदमियों का दुर्भाग्य ही कहिये कि इसी मालवा अंचल में चंबल, क्षिप्रा और गंभीर नदियां हैं, टेंकर चालक इस मलवे को ग्रामीणों कि विद्रोही नजरों से बचाकर इन्ही नदियों में जहां तहां बहा आते हैं। नतीजतन औद्योगिक अभिशाप अंततः नदियों और मानव जाति को ही झेलना पड़ता है। ग्रामीण यदि जब कभी इन टेंकरों से रसायन नदियों में बहाते हुये चालकों को पकड़ भी लेते हैं तो पुलिस और प्रशासन न तो कोई ठोस कार्यवाही करते है और न ही इस समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में कोई पहल करता है। ऐसे में अंततः ग्रामीण अभिशाप भोगने के लिये मजबूर ही बने रहते हैं।

इसी तरह गुना जिले के विजयपुर में स्थित खाद कारखाने का मलवा उसके पीछे बहने वाले नाले में बहा देने से हर साल इस नाले का पानी पीकर दर्जनों मवेशी मर जाते है। मलवे से नाले का पानी लाल होकर जहरीला हो जाता है। सिंचाई के लिये इस्तेमाल करने पर यह पानी फसलों की जहां पैदावार कम करता है, वहीं इन फसलों से निकले अनाज का सेवन करने पर शरीर में बीमारियां भी घर करने लगती हैं। ग्रामीण हर साल नाले में दूषित मलवा नहीं बहाने के लिये अपनी जुबान खोलते हैं लेकिन खाद कारखाने एवं जिले के आला प्रशासनिक अधिकारियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती ?

वाराणसी में गंगा का प्रवाह सात किमी है। एक समय बृहद बनारस क्षेत्र में बारहमासी वरणा, असी, किरणा और धूतपापा नदियां गंगा में मिलकर इसके जल को प्राकृतिक रूप से प्रांजल बनाए रखने का काम करती थीं। इसके अलावा ब्रह्मनाल, मंदाकिनि और मत्स्योदरी बरसाती नदियां भी गंगा के जल प्रवाह को गातिषील बनाए रखती थीं। किंतु अब ये सब नदियां नालों-परनालों में तब्दील होकर अपना अस्तित्व खों चुकी हैं। इनके व अन्य 23 नालों के जरिए ही गंगा में 300 मीलियन लीटर से ज्यादा मल-मूत्र प्रवाहित हो रहा है। इन वजहों से गंगा जल में जीवाणु-वीषाणुओं की भरमार हो गई है। पेयजल में बायोकेमिकल आॅक्सीजन डिमांड का मानक तीन मिली ग्राम प्रति लीटर होना चाहिए, जो बनारस की गंगा में 5 से 8 मिलीग्राम प्रति लीटर है। तय है,गंगा में बड़ी मात्रा में जहर बह रहा है। जाहिर है, नदी का इस स्तर पर खराब हुआ स्वास्थ्य  मनुष्य  जाति को भी स्वस्थ्य नहीं रहने देगा। इसलिए यह तो अच्छी बात की देश के उर्जावान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस में गंगा का कायापलट करने पर आमादा हैं,लेकिन गंगा का अवरिल प्रवाह बना रहे इस दृष्टि से माननीय प्रधानमंत्री जी को देहरादून में दिए उस बयान पर पुनर्विचार करना होगा, जिसमें उन्होंने उर्जा के लिए पहाड़ी नदियों और पहाड़ो के पानी के दोहन की बात कही थी ? अन्यथा गंगा तो दूषित  रहेगी ही,पहाड़ भी वृक्षों से निर्मूल हो जाएंगे।

 

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