राष्ट्र निर्माण के काम आएं साधु

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संदर्भ :  अखाड़ा द्वारा संत घोषित करने से पूर्व होगी जांच।

प्रमोद भार्गव

अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् ने शायद आजादी के बाद पहली बार यह कठोर निर्णय लिया है कि किसी व्यक्ति को साधु या संत घोषित करने से पहले उसके आध्यात्मिक ज्ञान की जांच पड़ताल होगी। साथ ही उसके संन्यासी के रूप में किए गए त्याग का भी परीक्षण होगा। अखाड़ा परिषद् ने पहली बार ऐसे दुराचारी साधुओं की भी सूची जारी कि है जो महिलाओं के साथ दुष्कर्म के अलावा हत्या जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त हैं। इस सूची में आसाराम बापू उर्फ आशुमल शिरमलानी, सुखविंदर कौर उर्फ राधे मां, गुरमीत सिंह उर्फ राम रहीम, निर्मल बाबा उर्फ निर्मलप्रीत सिंह, रामपाल, सच्चिदानंद गिरि उर्फ सचिन दत्ता, ओम बाबा उर्फ विवेकानंद झा, इच्छाधारी भीमानंद उर्फ शिवमूर्ति द्विवेदी, स्वामी असीमानंद उर्फ ऊँ नमः शिवाय, नारायण साईं उर्फ खुषी मुनि, आचार्य कुषमुनि, बृहस्पिति गिरी और मलखान सिंह के नाम शामिल हैं। यदि वास्तव में साधु समाज से जुड़े चंद चमत्कारी एवं दुराचारी साधु दूर हो जाएं तो साधु समाज की शक्ति राष्ट्र के निर्माण में अहम् योगदान दे सकती है।

परिषद् के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी ने संत की उपाधि देने के लिए सख्त प्रक्रिया करने का फैसला किया है। गिरी ने कहा, ‘गहन पड़ताल करने और आकलन करने के बाद ही किसी को संत की उपाधि प्रदान की जाएगी। उपाधि देने से पहले अखाड़ा परिषद् यह देखेगी कि व्यक्ति की जीवनषैली कैसी है। यह भी देखा जाएगा कि संबंधित व्यक्ति के पास नकदी या उसके नाम से कोई संपत्ति तो नहीं है। इसके बाद यह सूची केंद्र और राज्य सरकारों, चारों शंकराचार्यों और 13 अखाड़ों के पीठाधीष्वरों को भेजकर इनके बहिष्कार की मांग की जाएगी। हमारी कोशिश होगी कि इन्हें कुंभ और अर्द्धकुंभ समेत दूसरे समागमों में आमंत्रित नहीं किया जाए।‘ अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् में देश के सभी 13 अखाड़ें शामिल हैं। जिसमें लाखों की संख्या में साधु-संत हैं। अखाड़ों का ऐसा विश्वास है कि 7 अखाडों की स्थापना आदि-शंकराचार्य के द्वारा की गई थी, जिनमें महानिर्वाणी, निरंजनी, जूना, अटल, आवाहन, अग्नि और आनंद अखाड़ा शामिल हैं।

भारत के हर परिवर्तनकारी युग में मठ, मंदिरों और साधुओं ने सांस्कृतिक चेतना का नवजागरण कर राष्ट्र निर्माण को नया मोड़ देते हुए समय-समय पर उदात्ता का प्रतिपादन किया है। जिससे धर्म दीर्घकालिक सत्ताधारियों के राजनीतिक लाभ का हित पोषक न बना रहे। यही कारण है कि विश्वामित्र, चाणक्य, महावीर, बुद्ध, जगतगुरू, शंकराचार्य, गुरूनानक देव, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी दयानंद सरस्वती, महर्षि अरविन्द स्वामी, विवेकानंद और ज्योतिबा फुले जैसे राजमोह तथा गृहत्यागी स्वप्न दृश्टाओं ने इस देश को आततायी विदेशी आक्रमणकरियों से लड़ने की शक्ति देने के साथ अज्ञान, भूख अराजकता और असमान सामाजिक ढांचे से जूझने की भी चुनौती व प्रेरणा आम जनमानस को दी। मध्ययुग के अंधकार से भारतीय जनमानस को कबीर, तुलसी, सूर, रैदास, दादू, मलूकदास और नानकदेव जैसे संत कवियों ने ही उबारकर नवयुग के निर्माण की आधारशिला रखी। स्वतंत्रता आंदोलन में भी साधु-संतों का बड़ा योगदान रहा है।

स्वतंत्रता पूर्व भारत में करीब 60 लाख साधु थे, लेकिन वर्तमान में इनकी संख्या बढ़कर एक करोड़ के ऊपर पहुंच गई हैं। हालांकि साधु-समाज की इस गणना में रोगी-भिखारी, बाजीगर-सपेरे, नट-मदारी, लावारिस और अपाहिज भी शुमार हैं। इनकी संख्या 80 प्रतिषत है। पहुंचा हुआ साधु इन्हें साधु नहीं मानता। ऐसे ही साधुओं की बदौलत धर्म और नैतिकता का मूलमंत्र खंडित हो रहा है। ये साधु ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से पैठ बनाकर ग्रामीणों को गांजा, भांग, बीड़ी, सिगरेट जैसे व्यसनों का आदि बना लेते हैं। यही साधु वेशधारी हत्या, बलात्कार, ठगी और अपहरण जैसे गंभीर मामलों के आरोपी निकलते हैं। दरअसल इन साधुओं को जब अनपेक्षित मान सम्मान मिलने लगता है तो ये बौरा जाते हैं। नतीजतन ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने और भौतिक सुविधाएं जुटाने में लग जाते हैं। ऐसे साधुओं की जहां जनता द्वारा उपेक्षा की जाने की जरूरत है वहीं साधु-समाज इन्हें शिक्षित कर समाज के लिए हितकारी साधु भी बना सकता है। जिससे ये साधु समाज को मद्य-निशेध एवं सदाचारी के संस्कार तो दें ही रालेगांव (महाराष्ट्र) की तर्ज पर ग्रामीण स्तर पर साक्षरता, पर्यावरण संरक्षण जल, संग्रह मवेषी पालन व गोबर गैस संयंत्रों से बिजली उत्पादन के कार्यों की संपन्नता के लिए सहकार की सामुदायिक भावना भी पैदा करें। यदि ऐसा होता है तो ग्रामों में जातीय विद्वेष कम होगा और स्थानीय स्तर पर रोजगार की उपलब्धता के चलते शहरों की ओर युवा वर्ग का पलायन भी बाधित होगा।

हालांकि साधु-जीवन पर अब ‘रमता जोगी बहता पानी‘ की कहावत पूरी चरितार्थ नहीं हो रही है। मोक्ष के प्रचारक यह साधु भौतिकवाद के शिकार होकर राम रहीम की तरह वैभव व प्रदर्शन की प्रवृत्तियों के आदि हो गए हैं। कारों का काफिला इनके इर्द-गिर्द मंडरा रहा है। सूचना तकनीक के चलते तमाम साधुओं का भू-मण्डलीकरण तो हुआ ही, बाज़ारवाद की गिरफ्त में भी ये आ गए। लिहाजा धर्म-अरबों-खरबों के उद्योग में परिवर्तित हो गया। देखते-देखते बीते दो दशकों के भीतर हरिद्वार, ऋषिकेष, अयोध्या, उज्जैन, शिरडी, त्र्यंबकेश्वर जैसी धार्मिक नगरियों में साधु संतों की घास फूस की झोपड़ियां आलीशान अट्टालिकाओं में तब्दील हो गईं है। इसी कारण साधु समाज पर सवाल दागे जाने लगे कि मोह माया और भौतिक सुखों से ऊपर उठने का दावा करने वाले जो सिद्ध पुरुष, स्वयं भोग विलास में संलग्न हो गए हैं वे अध्यात्म का उपदेश देकर क्या समाज को भौतिकवादी बुराईयों से उबार पाएंगे  ?

साधु का प्रमुख गुण समष्टिगत होता है। इसलिए वह धर्म का प्रतिनधि है। साधु के सदाचरण, संयमी, असंचयी और सात्विक होने का प्रभाव जितना समाज पर पड़ता है उतना जनबल तथा धनबल का नहीं पड़ता। इसीलिए इन दिव्य पुरुशों के एक इशारे पर लोग करोड़ों लुटा देते हैं। यही कारण है कि अपेक्षाकृत कम प्रसिद्धी पाए साधु अथवा मठ-मंदिर के पास भी करोड़ों की नकद और अचल परिसंपत्तियां हैं। इनका डाकघरों व बैकों में लाखों-करोड़ों रुपए जमा हैं। ऐसे में इन साधुओं के आत्मलीन होने के बाद यह धन लावारिस घोषित कर दिया जाता है। आखिर इस धन को साधु समाज के सुपुर्द कर स्थानीय विकास कार्यों में क्यों नहीं लगाया जा रहा ? इस तरह की मांग अयोध्या के राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी कई मर्तबा उठा भी चुके हैं। इनका दावा है कि अयोध्या के बैंक व डाकघरों में बाबाओं का इतना लावारिस धन जमा है कि यदि इसे निकालकर विकास कार्यों में ईमानदारी से लगा दिया जाए तो अयोध्या का कायाकल्प हो जाएगा।

साधु समाज भारतीय वेद, उपनिषद और पुराण इतिहास के पुनर्लेखन के सिलसिले में भी उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं। क्योंकि हमारे प्राचीन साहित्य को धार्मिक पाखण्ड, कर्मकाण्ड  और अंधविश्वास का प्रचारक मानकर खिल्ली उड़ाई जाती है। यहां तक कि राम और कृष्ण जैसे विराट व्यक्तित्व वाले राष्ट्र नायकों तक को पुरातत्व जैसा जिम्मेदार विभाग मिथक कहकर विवाद का विषय बना देता है। हमारी सांस्कृकित, आध्यात्मिक विरासत और प्राचीन संस्कृत साहित्य को कपोल-कल्पना करार देकर हमारे प्रगतिषील बुद्धिजीवी इतिहासकारों तक नकारने का काम किया है। जबकि वास्तविकता यह है कि हामरे पौराणिक आख्यानों में प्रणय प्रसंगों की भरमार है। राजनीति, दण्डनीति, अर्थनीति, जल और शिक्षा प्रबंधन की संरचना के सूत्र व सिद्धांत हैं। युद्धशास्त्र, विमानशास्त्र, वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद और कामशास्त्र विशयक हमारी प्राचीन उपलब्धियां चमत्कृत करने वाली हैं। भाशा, व्याकरण और योग में के क्षेत्रों में भी हम अनुपम हैं। जरूरत है, इनके गूढ़ सूत्रों के रहस्यों को खोलकर मानव-उपयोगी बनाना। इस संदर्भ में हम बाबा रामदेव से उत्प्रेरित हो सकते हैं, जिन्होंने पतंजलि योग सूत्र के रहस्यों को लाइलाज बीमारियों से मुक्ति का साध्य बनाकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को ही चुनौती दे डाली ? दरअसल हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों के यथार्थ को ठीक से समझने की आवष्यकता है, लेकिन इस संदर्भ में पूर्वग्रह व दुराग्रह सांस्कृतिक अराजकता पैदा करने के कारण बन रहे हैं।

बहरहाल साधु समाज अपने जनबल और अर्थबल से बुनियादी समस्याओं के निदान में शिरडी के साईंबाबा न्यास की तरह  जुट जाए तो उससे समाज के लिए जो रचनात्मक वातावरण निर्मित होगा, उससे युवा शक्ति ईमानदारी से काम करने की इच्छुक होगी। उसका राष्ट्र को अद्वितीय व अपेक्षित योगदान मिलेगा। लाल फीताशाही के चलते जो प्रतिभाएं पलायन कर दूसरे देशों में अपनी मेधा का परचम फहरा रही हैं, उनकी पलायन प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगेगा। ये ट्रस्ट विद्युत, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क निर्माण जैसे क्षेत्रों में तो पूंजी निवेश कर इनकी दशा बदल ही सकते हैं, वहीं साधुओं की विशाल संख्या के रूप में जो इस समाज के पास मनुज शक्ति है, वह जहां भी है, वहीं रहकर नदी और तालाबों का कायाकल्प कर जल स्त्रोतों के अक्षय भण्डारों का पुनरुद्धार कर सकते हैं।

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