समतामूलक समाज के अग्रदूत डा0 लोहिया

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अरविंद जयतिलक

राष्ट्र व्यवस्था में बेहतर बदलाव के लिए डा0 लोहिया ने सामाजिक संरचना में आमूलचूल परिवर्तन की बात कही थी। उनका स्पष्ट कहना था कि गैर-बराबरी को खत्म किए बिना समतामूलक समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर समाजवाद की स्थापना पर बल दिया। उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना करते हुए कहा था कि ‘पूंजीवाद कम्युनिज्म की तरह ही जुआ, अपव्यय और बुराई है और दो तिहाई विश्व में पूंजीवाद पूंजी का निर्माण नहीं कर सकता। वह केवल खरीद-फरोख्त ही कर सकता है जो हमारी स्थितियों में महज मुनाफाखोरी और कालाबाजारी है।’ डा0 लोहिया ने यह भी कहा था कि ‘मैं फोर्ड और स्टालिन में कोई फर्क नहीं देखता। दोनों बड़े पैमाने के उत्पादन, बड़े पैमाने के प्रौद्योगिकी और केंद्रीकरण पर विश्वास करते हैं जिसका मतलब है दोनों एक ही सभ्यता के पुजारी हैं।’ लोहिया ने गरीबी और युद्ध को पूंजीवाद की दो संतानें कहा। साम्यवाद पर कटाक्ष करते हुए कहा कि ‘साम्यवाद दो-तिहाई दुनिया को रोटी नहीं दे सकता।’ उन्होंने आदर्श समाज व राष्ट्र के लिए एक तीसरा रास्ता सुझाया-वह है समाजवाद का। उन्होंने देश के सामने समाजवाद का सगुण और ठोस रुप प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि ‘समाजवाद गरीबी के समान बंटवारें का नाम नहीं बल्कि समृद्धि के अधिकाधिक वितरण का नाम है। बिना समता के समृद्धि असंभव है और बिना समृद्धि के समता व्यर्थ है।’ डा0 लोहिया का स्पष्ट मानना था कि आर्थिक बराबरी होने पर जाति व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी और सामाजिक बराबरी स्थापित होगी। उन्होंने सुझाव दिया कि जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए सामाजिक समता पर आधारित दुष्टिकोण अपनाना होगा। सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए जाति व्यवस्था के विरुद्ध लड़ाई द्वेष के वातावरण में नहीं, विश्वास के वातावरण में होनी चाहिए। उन्होंने जाति व्यवस्था पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘जाति प्रणाली परिवर्तन के खिलाफ स्थिरता की जबर्दस्त शक्ति है। यह शक्ति वर्ततान क्षुद्रता और झुठ को स्थिरता प्रदान करती है।’ लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज इक्कीसवीं सदी में भारत की राजनीति जाति व्यवस्था पर केंद्रीत है। डा0 लोहिया अक्सर चिंतित रहा करते थे कि आजादी के उपरांत भारतीय समाज का स्वरुप क्या होगा। उन्हें आशंका थी कि सामाजिक-राजनीतिक ढांचे में समाज के वंचित, दलित और पिछड़े तबके को समुचित भागीदारी मिलेगी या नहीं। उनकी उत्कट आकांक्षा हाशिए पर खड़े लोगों को राष्ट्र की मुख्य धारा में सम्मिलित करना था। वे समाज के अंतिम पांत के अंतिम व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों के हिमायती थे। आजादी के बाद पंडित नेहरु के नेतृत्व में गठित सरकार के खिलाफ वे आम जनता की आवाज बनते देखे गए। उन्होंने नेहरु सरकार की समाजनीति की जमकर आलोचना की। नेहरु सरकार को जाति-परस्ती और कुनबा-परस्ती का पोषक बताया। लोहिया ने नाइंसाफी और गैर-बराबरी खत्म करने के लिए देश के समक्ष सप्तक्रांति का दर्शन प्रस्तुत किया। नर-नारी समानता, रंगभेद पर आधारित विषमता की समाप्ति, जन्म तथा जाति पर आधारित समानता का अंत, विदेशी जुल्म का खात्मा तथा विश्व सरकार का निर्माण, निजी संपत्ति से जुड़ी आर्थिक असमानता का नाश तथा संभव बराबरी की प्राप्ति, हथियारों के इस्तेमाल पर रोक और सिविल नाफरमानी के सिद्धांत की प्रतिष्ठापना तथा निजी स्वतंत्रताओं पर होने वाले अतिक्रमण का मुकाबला। इस सप्तक्रांति में लोहिया के वैचारिक और दार्शनिक तत्वों का पुट है। साथ ही भारत को वर्तमान संकट से उबरने का मूलमंत्र भी। लोहिया स्त्री-पुरुष की बराबरी और समानता के प्रबल हिमायती थे। वे अक्सर स्त्रियों को पुरुष पराधीनता के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत देते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देकर ही एक स्वस्थ और सुव्यवस्थित समाज का निर्माण किया जा सकता है। स्त्री-पुरुष, अमीरी-गरीबी और सामाजिक भेदभाव के लिए वे सिर्फ सरकारों को ही जिम्मेदार ठहराते थे। वे सरकारों द्वारा आम आदमी की उपेक्षा पर अक्सर कहा करते थे कि ’सत्ता सदैव जड़ता की ओर बढ़ती है और निरंतर निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचारों को पनपाती है। विदेशी सत्ता भी यही करती है। अंतर केवल इतना है कि वह विदेशी होती है, इसलिए उसके शोषण के तरीके अलग होते हैं। किंतु जहां तक चरित्र का सवाल है, चाहे विदेशी शासन हो या देशी शासन, दोनों की प्रवृत्ति भ्रष्टाचार को विकसित करने में व्यक्त होती है।’ उन्होंने जनता का आह्नान करते हुए कहा था कि ‘देशी शासन को निरंतर जागरुक और चैकस बनाना है तो प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह अपने राजनीतिक अधिकारों को समझे और जहां कहीं भी उस पर चोट होती हो, या हमले होते हों उसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाए।‘ गौर करें तो डा0 लोहिया की कही बातें वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था पर सटीक बैठती है। आज देश में गैर-बराबरी, भ्रष्टाचार, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, कुपोषण, जातिवाद, क्षेत्रवाद और आतंकवाद जैसी समस्याएं गहरायी हैं। यह सही है कि देश तरक्की का आसमान छू रहा है। लेकिन नैतिक और राष्ट्रीय मूल्यों में व्यापक गिरावट के कारण अमीरी-गरीबी की खाई लगातार चैड़ी होती जा रही है। जनवादी होने का मुखैटा चढ़ा रखी सरकारें बुनियादी कसौटी पर विफल हैं। और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से निपटने में नाकाम हैं। नागरिक समाज के प्रति रवैया संवेदहीन है। लोहिया ने बेहतरीन समाज निर्माण के लिए सत्तातंत्र को चरित्रवान होना जरुरी बताया था। उनका निष्कर्ष था कि सत्यनिष्ठा और न्यायप्रियता पर आधारित शासनतंत्र ही लोक व्यवस्था के लिए श्रेयस्कर साबित हो सकता है। लोहिया भारतीय भाषाओं को समृद्ध होते देखना चाहते थे। उन्हें विश्वास था कि भारतीय भाषाओं के समृद्ध होने से देश में एकता मजबूत होगी। लोहिया का दृष्टिकोण विश्वव्यापी था। उन्होंने भारत पाकिस्तान के बीच रिश्ते सुधारने के लिए महासंघ बनाने का सुझाव दिया। आज भी यदा-कदा उस पर बहस चलती रहती है। वे भारत की सुरक्षा को लेकर हिमालय नीति बनाई जिसका उद्देश्य था नेपाल, भूटान, सिक्किम आदि उत्तर-पूर्व के छोटे-छोटे देशों में बसने वाली आबादी के साथ भाईचारे के संबंध बनाना तथा भारत की उत्तर सीमा पर स्थित प्रदेशों में लोकतांत्रिक आंदोलनों को मजबूत कर भारतीय सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना। उन्होंने चीन द्वारा तिब्बत पर आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में लेने की घटना को ‘शिशु हत्या’ करार दिया। नागरिक अधिकारों को लेकर लोहिया का दृष्टिकोण साफ था। उन्होंने कहा है कि ‘लोकतंत्र में सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा को अनुचित मानने का मतलब होगा भक्त प्रहलाद, चार्वाक, सुकरात, थोरो और गंाधी जैसे महान सत्याग्रहियों की परंपरा को नकारना। सिविल नाफरमानी को न मानना सशस्त्र विद्रोह को आमंत्रित करना।’ लेकिन बिडंबना यह है कि भारत की मौजूदा सरकारें लोहिया के उच्च आदर्शो को अपनाने के बजाए तानाशाही पर आमादा हैं। आजादी के बाद से ही नागरिक अधिकारों का पुलिसिया दमन जारी है। सत्ता की रक्षा के लिए देश, समाज और संविधान से घात कर रही हैं। लोहिया ने राजनीति में तिकड़म और तात्कालिक स्वार्थ को हेय बताया। जबकि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में यह नीतियां सत्ता प्राप्ति की आधार बन रही हैं। सत्तातंत्र द्वारा जनता की गाढ़ी कमाई की बर्बादी पर लोहिया ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘जिस गति से हम लोग अपने प्रधानमंत्रियों के लिए समाधि-स्थल बना रहे है, यह शहर जल्दी ही, जिंदा लोगों के बजाए मुर्दों का शहर हो जाएगा। भविष्य की पीढ़ियों को इन मूर्तियों, संग्रहालयों और चबूतरों में से बहुतेरों को हटाना पड़ेगा।’ उन्होंने यह भी कहा कि जब कोई आदमी मरे तो तौन सौ बरस तक उसका सिक्का या स्मारक मत बनाओं और तब फैसला हो जाएगा कि वह आदमी वक्ती था या इतिहास का था। लेकिन दुर्भाग्य है कि देश के रहनुमा यह समझने को तैयार नहीं हैं। वे अपने-अपने राजनीतिक पुरोधाओं की मूर्तियों और स्मारकों के निर्माण पर जनता की गाढ़ी कमाई खर्च कर रहे हैं। सार्वजनिक हित की योजनाओं का नामकरण भी राजनेता विशेष के नाम पर किया जा रहा है। यह लोकतंत्र की प्रवृत्ति के अनुरुप नहीं है। इससे समाज व राष्ट्र की एकता-अखण्डता और पंथनिरपेक्षता प्रभावित होगी। समस्याओं के निराकरण के बजाए अराजकता बढ़ेगी। भारत के वर्तमान संकट का हल लोहिया के सिद्धांतो में तलाशा जा सकता है।

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