क्यों भारत खुशहाल देशों में नीचे हैं?

3
285

-ललित गर्ग-
संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट 2019 में भारत का स्थान 140वां है जबकि पिछले साल वह 133वें स्थान पर था। इस तरह यह गंभीर चिंता की बात है कि हम प्रसन्न समाजों की सूची में पहले की तुलना और नीचे आ गये हैं। आगामी लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों एवं शोरशराबे के बीच इस रिपोर्ट का आना जहां सत्ता के शीर्ष नेतृत्व को आत्ममंथन करने का अवसर दे रहा है, वहीं नीति-निर्माताओं को भी सोचना होगा कि कहां समाज निर्माण में त्रुटि हो रही है कि हम लगातार खुशहाल देशों की सूची में नीचे खिसक रहे हैं। खुशी एवं प्रसन्नता हम सबकी जरूरत है, लेकिन प्रश्न है कि क्या हमारी यह जरूरत पूरी हो पा रही है, ताजा आकलन से तो यही सिद्ध हो रहा है कि हम खुशी एवं प्रसन्नता के मामले में लगातार पिछड़ रहे हैं। विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि हमारा भारतीय समाज एवं यहां के लोग पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित अपने ज्यादातर पड़ोसी समाजों से कम खुश है। रिपोर्ट में फिनलैंड को लगातार दूसरे साल सबसे खुशहाल देश का तमगा मिला, इसके बाद नॉर्वे और डेनमार्क का नाम है। खुशहाली के मामले में सबसे अंतिम पायदान पर बुरुंडी का नाम है। इस सूचकांक के लिए अर्थशास्त्रियों की एक टीम समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, भरोसा, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता और उदारता आदि को आधार बनाती है। रिपोर्ट का मकसद विभिन्न देशों के शासकों को आईना दिखाना है कि उनकी नीतियां लोगों की जिंदगी खुशहाल बनाने में कोई भूमिका निभा रही हैं या नहीं। हमारा शीर्ष नेतृत्व निरन्तर आदर्शवाद और अच्छाई का झूठ रचते हुए सच्चे आदर्शवाद के प्रकट होने की असंभव कामना करता रहा है, इसी से जीवन की समस्याएं सघन होती जा रही है, नकारात्मकता का व्यूह मजबूत होता जा रहा है, खुशी एवं प्रसन्न जीवन का लक्ष्य अधूरा ही रह रहा है,  इनसे बाहर निकलना असंभव-सा होता जा रहा है।

दूषित और दमघोंटू वातावरण में आदमी अपने आपको टूटा-टूटा सा अनुभव कर रहा है। आर्थिक असंतुलन, बढ़ती महंगाई, बिगड़ी कानून व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार उसकी धमनियों में कुत्सित विचारों का रक्त संचरित कर रहा है। ऐसे जटिल हालातों में इंसान कैसे खुशहाल जीवन जी सकता है? यहां प्रश्न यह भी है कि आखिर हम खुशी और प्रसन्नता के मामलें क्यों पीछेे हैं, जबकि पिछले कुछ समय से भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी को पूरी दुनिया ने स्वीकार किया है। अनेक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों ने इस मामले में हमारी पीठ ठोकी है। यही नहीं, खुद संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास के क्षेत्र में भारतीय उपलब्धियों को रेखांकित किया है। बावजूद इसके, खुशहाली में हमारा मुकाम इतना नीचे होना आश्चर्यकारी है। दरअसल पिछले दो-ढाई दशकों में भारत में विकास प्रक्रिया अपने साथ हर मामले में बहुत ज्यादा विषमता लेकर आई है। जो पहले से समर्थ थे, वे इस प्रक्रिया में और ताकतवर हो गए हैं। यानी लखपति करोड़पति हो गए और करोड़पति अरबपति बन गए। एकदम साधारण आदमी का जीवन भी बदला है लेकिन कई तरह की नई समस्याएं उसके सामने आ खड़ी हुई हैं। नौकरी-रोजगार, अर्थव्यवस्था, महंगाई, पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम, रुपया का अवमूल्यन, किसानों की दुर्दशा, अयोध्या का मसला, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था, महिलाओं पर बढ़ते अपराध, शिक्षा, चिकित्सा ऐसे अनेक ज्वलंत मुद्दे हंै जिनका सामना करते हुए व्यक्ति निश्चित ही तनाव में आया है, उसकी खुशियां कम हुई है, जीवन में एक अंधेरा व्याप्त हुआ है।

यह अलग बात है कि इन बुनियादी मसलों के खड़े रहने पर भी जिन्दगी तो चलती ही रही है मगर यह जीना भी कोई जीना है! ये सवाल ऐसे हैं जिनका सामना करते हुए व्यक्ति की खुशहाली में कमी आयी है। भारत के आम आदमी की खुशहाली में कमी होने का बड़ा कारण यह है कि सरकार ने गरीबों के लिये योजनाएं बनायी हंै, लेकिन वे योजनाएं राजनीतिक लाभ लेने तक सीमित हैं। यही कारण है कि  अत्यंत निर्धनों के लिए जो योजनाएं बनी हैं, उनका जोर उस वर्ग को किसी तरह जिंदा रखने पर है। उनको उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की कोई कोशिश नहीं हो रही है। वह वर्ग भुखमरी से तो उबर गया है मगर शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय उसकी पहुंच से बाहर है। इससे ठीक ऊपर वाले बड़े तबके यानी मध्यम वर्ग को तो सरकारी मदद लायक भी नहीं माना जाता। यह वर्ग तो सर्वाधिक पीड़ित एवं परेशान है। ऐसे लोगों के जीवन में खुशी भला कहां से आएगी?विकास की सार्थकता इस बात में है कि देश का आम नागरिक खुद को संतुष्ट और आशावान महसूस करे। स्वयं आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ बने, कम-से-कम कानूनी एवं प्रशासनिक औपचारिकताओं का सामना करना पड़े, तभी वह खुशहाल हो सकेगा। नोटबंदी जैसी घटनाओं ने आम आदमी को अधिक परेशानी एवं कंकाली दी है। उससे गरीब अधिक गरीब हुआ है। आम आदमी की समस्याएं कम होने की बजाय अधिक बढ़ी है। समस्याओं के घनघोर अंधेरों के बीच उनका चेहरा बुझा-बुझा है। न कुछ उनमें जोश है न होश। अपने ही विचारों में खोए-खोए, निष्क्रिय ओर खाली-खाली से, निराश और नकारात्मक तथा ऊर्जा विहीन। हाँ सचमुच ऐसे लोग पूरी नींद लेने के बावजूद सुबह उठने पर खुद को थका महसूस करते हैं, कार्य के प्रति उनमें उत्साह नहीं होता। ऊर्जा का स्तर उनमें गिरावट पर होता है। क्यों होता है ऐसा? कभी महसूस किया आपने?

यह स्थितियां एक असंतुलित एवं अराजक समाज व्यवस्था की निष्पत्ति है। ऐसे माहौल में व्यक्ति खुशहाल नहीं हो सकता।एक महान विद्वान ने कहा था कि जब हम स्वार्थ से उठकर अपने समय को देखते हुए दूसरों के लिए कुछ करने को तैयार होते हैं तो हम सकारात्मक हो जाते हैं। सरकार एवं सत्ताशीर्ष पर बैठे लोगों को निस्वार्थ होना जरूरी है। उनके निस्वार्थ होने पर ही आम आदमी के खुशहाली के रास्ते उद्घाटित हो सकते हैं। तभी आम आदमी को ऊर्जा एवं सकारात्मकता से समृद्ध किया जा सकता है, और तभी जीवन को आनंदित बनाया जा सकता हैं। यही आनन्द एवं खुशहाली समाज और राष्ट्र के लिए भी ज्यादा उपयोगी साबित हो सकती है। कामना हमें शुभ, सुखमय एवं खुशहाल जीवन की करनी होगी। लेकिन इसके लिये अवसरवादी, अनैतिक एवं गलत मूल्यों के खिलाफ आवाज भी तो उठानी ही होगी। अगर हमने कुछ लोगों को भी अपराध और भ्रष्टाचार के विरोध में जागृत कर सके तो हम खुशहाल जीवन के सपने को साकार कर सकेंगे। राजनीति की दूषित हवाओं ने भारत की चेतना को प्रदूषित कर दिया है। हम सरकार के बदलते चेहरों को देखने के अभ्यस्त हो गए हैं, सत्ता के गलियारों में स्वार्थों की धमाचैकड़ी ने ही आम आदमी की खुशियों को छीन लिया है। बुराइयां तभी छूटती है जब उनके गलत परिणामों का सही ज्ञान होता है और अच्छाइयां जीवन में स्थायित्व तभी पाती है जब उनके साथ निष्ठा, संकल्प एवं प्रयत्न की गतिशीलता और निरन्तरता जुड़ जाती है।खुशहाल भारत को निर्मित करने के लिये आइये! अतीत को हम सीख बनायें। उन भूलों को न दोहरायें जिनसे हमारी रचनाधर्मिता जख्मी हुई है। जो सबूत बनी हैं हमारे असफल प्रयत्नों की, अधकचरी योजनाओं की, जल्दबाजी में लिये गये निर्णयों की, सही सोच और सही कर्म के अभाव में मिलने वाले अर्थहीन परिणामों की। एक सार्थक एवं सफल कोशिश करें खुशहाली को पहचानने की, पकड़ने की और पूर्णता से जी लेने की। 

ललित गर्ग

3 COMMENTS

  1. The writer is a congress-yes man, trying to speak the agenda of congress as a independent writer. Shame Shame.

  2. Undoubtedly the Hindu society has been befooled by the politicians, after independence and now the so called self-made intellectuals who were been fed by the previous governments and being awarded to not eligible persons are not in problem because not the Hindu Society is awaken for their fundamental rights and not ready to accept the fake secularism. For last 60 years, in the name of secularism, one community was being giving all benefits, and and major community was completely ignored. Now the so called intellectuals are trying to teach history destroyed by the erstwhile governments. The are having lot of problem from awakened Hindu Society.

  3. गर्ग साहब लिखा तो आपने अच्छा है और आपने उनलोगों को आइना दिखाने की कोशिश भी की है, जो अपनी पीठ ठोकनें में माहिर हैं, पर मेरे विचार से यह नकारखाने में तूती की आवाज है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here