सभी प्रबुद्ध टिप्पणीकार पाठकों की उत्साह-जनक टिप्पणियों के कारण ही, इस विषय को और आगे बढाने का विचार दृढ हुआ। पर यह मैं भी अनुभव करता रहता था, कि, अनेक भारतीय़, तमिल भाषा की ओर, कोई परदेशी भाषा की दृष्टि से, जैसे कि वह कोई हवाईयन भाषा ना हो, देखा करते हैं। इस लिए भी, इसी विषय पर और अधिक लिखकर कुछ मात्रा में भ्रम-निरास करने का प्रयास आवश्यक समझ कर, विषय को और आगे बढाने का विचार किया।
(२) हमारी फूट का कारण:
ऐसे भ्रम का कारण कुछ मात्रा में मिशनरी काल्डवेल महाशय का षड यन्त्रकारी काम भी है। उन के विषय में कुछ जानकारी ”मानसिक जातियाँ” नामक मेरे द्वारा लिखे गए तीन लेखों में प्रस्तुत की जा चुकी है। इसी लेख के अंत में, संदर्भित लेख की कडी दी है। इसी विषय पर, विद्वान डॉ. एच. बालसुब्रह्मण्यम जो, सुप्रसिद्ध तमिल-हिन्दी अनुवादक और लेखक हैं, उनका भी मत इसी सच्चाई की पुष्टि करता है।
(३)शब्दों की सादृश्यता
सूचि के, शब्दों की सादृश्यता परखते परखते, एक पहेली सुलझाने जैसा, रंजक अनुभव भी, माँ वीणा वादिनी की कृपासे, अनुभव कर रहा हूँ। आप को भी ऐसा ही रंजक अनुभव हो।
हिन्दी और तमिल के बीच एक सेतु है , ”संस्कृत के शब्द ”, जो राष्ट्रीय एकता में, रामसेतु ही सिद्ध होंगे, ऐसा विश्वास हो रहा है। वैसे, जोडने वाले शब्द जो संस्कृत कहे जा रहें हैं, वे तमिल (द्रविड) मूल के भी हो सकते हैं। पर, इस आलेख में, हमें उस की ,समान कडी का शोध ही, लक्ष्य है।
(४) तमिल के, संस्कृत शब्द
तमिल के संस्कृत मूलक शब्द परखने में कुछ कठिन लगते हैं। कारण है, उन शब्दों का तद्भव, या बदला हुआ रूप। और दूसरा कारण है, तमिल भाषियों का (ऍक्सेन्ट) स्वराघात।
सरल शुद्ध संस्कृत का शब्द ”संन्यास” —>सन्नियासमं बन जाता है। सत्याग्रह —–> सत्तियागिरहम्, और समुद्र —–> समुद्दिरम्, हो जाते हैं, और यह भ्रांत मान्यता कि तमिल भाषा अलग ही है, तो समझने का प्रयास भी नहीं होता। कठिनाई दोनों ओर है। सोचने पर, आप को ऐसे और कारण भी, निश्चित दृष्टिगोचर होते चलेंगे।
वैसे हमारी उत्तरी भाषाओं में भी स्नान का नहाना, क्षत्रिय का खत्री, आचार्य का आयरियाणं, ऐसे ऐसे परिवर्तन हो चुके हैं। क्या नहाना सुनने पर अहिंदी भाषी भांप सकता है, कि नहाना स्नान का प्राकृत रूप होगा ? या आयरियाणं सुनकर अनुमान कर लेगा, कि उस शब्द का मूल शुद्ध आचार्य है? लगता नहीं है। एक और कारण है, तमिल लिपि की उच्चारण विशेषता, जो अगले परिच्छेद में स्पष्ट की जाएगी।
(५)तमिल लिपि की उच्चारण विशेषता
तमिल लिपि की उच्चारण विशेषता , उस लिपि में कम वर्ण होने के कारण है।
तेलुगु, कन्नड, और मल्ल्याळम की ऐसी समस्या नहीं है, वे लिपियाँ देवनागरी की प्रतिकृतियाँ ही मानी जाएगी। ऐसी समस्या और किसी भी भाषा की नहीं है। माना जाता है, कि मल्ल्याळम, तेलुगु, और कन्नड तीनों में संस्कृत शब्द ७० से ८० % है।केवल तमिल में यह प्रतिशत ४० से ५० % तक माना जाता है।शब्द कोश के कुछ प्रतिनिधिक पॄष्ठोंपर छपे हुए, शब्दों की गिनती कर, भाषा वैज्ञानिक ऐसा सांख्यिकी निष्कर्ष निकालते हैं।
इस भूमिका से सज्ज होकर, आप निम्न सूचि का, एक चित्त होकर, अवलोकन करें।
आप को अनुभव करने में कठिन नहीं होगा, कि तमिल में भी काफी संस्कृत मूल के शब्द है।
(६) स से प्रारंभ होने वाले शब्द
स से प्रारंभ होने वाले शब्दों की ही सूचि लेते हैं। निम्न सारणी में बाईं ओर हिन्दी/संस्कृत शब्द देकर —> की दाहिनी ओर तमिल शब्द, और कोष्ठक में (पर्याय वाची हिन्दी/संस्कृत) शब्द दिये हैं।
शब्द सूचि में, जो शब्द संस्कृतजन्य , प्रतीत हुआ, उसी का चयन किया गया है। ४० से ५० % का अनुमान भाषा वैज्ञानिकों का है। मैं मेरी अपनी जानकारी के लिए, कुछ ठोस प्रमाण चाहता था, जो मिला, उसी को आप के समक्ष रख रहा हूँ। तत्सम और तद्भव दोनों प्रकारके शब्द लिए हैं।
(७) हिंदी/संस्कृत ——>तमिल (हिंदी/संस्कृत)
संकट —> संकड़म्,
संगीत —–> संगीदम्,
संग्राम (युद्ध,) —> युद्दम्,
संचार — –> संचरित्तल
संतति —-> संतति, कुऴन्दै (कुल में जन्में )
संताप — > मनक्कष्टम्,(मन-कष्ट), वेदनै (वेदना)
संतुष्टि —–>तिरुप्ति (तृप्ति)
संतोष —–>तिरुप्ति( तृप्ति)
संदर्भ —–> सन्दर्बम,
संदेश —->समाचरं (समाचार)
संन्यास —>सन्नियासमं; सन्यासम्।
संन्यासी —-> सन्नियासि।
संप्रदाय —–> परम्परै (परम्परा ), सम्प्रदायम्,
संबंध —–> संबंदम्,
संरक्षक —–>पोषकर,
संरक्षण —-> पोषणै, संरक्षणै; संरक्षणै
संवारना —–> अलंगरिक्क;
संवेदना —–> अनुताबम्; (अनुताप)
संशय —-> संदेहम्,
संस्कार —–> शुद्दिकरित्तल्;(शुद्धिकर)
संस्था —–> स्तापनम्,(स्थापनं)।
संस्थापक —–> स्तापकर; (स्थापकर)
आरंबिप्पवर् (आरंभ प्रवर?)
सख्त (कठोर) —>कडिनमान (कठिनमान?)
सच्चा –> योग्गियमान;(योग्य) असलान (असल)
सज़ा —–> दंडनै
सजाना —->अलंगरिक्क
सजावट —–> अलंगारम्
सतर्क — —> जाग्गिरदैयान (जागृतिवान)
सतर्कता — >जाक्किरदै (जागृति? )
सत्कार —–> उपचारम्; (औपचारिक व्यवहार)
सत्ता —-> आदिगारम्, (अधिकारं)
सत्तू —–> सत्तु मावु
सत्याग्रह —–> सत्तियागिरहम्,
सत्संग –>भजनै गोष्ठि, (भजन गोष्ठी ) कताकालक्षेपम्,(कथा काल क्षेपं)
सदुपयोग —–> नल्ल(अच्छा) उपयोगम्
सफ़र —>यात्तिरै,(यात्रा) पिरयाणम् (प्रयाणं)
सभा –(परिषद्, समिति )—>सबै,
सभ्य —–> नागरीगमान,(नागरिकमान)
सभ्यता —->(सिविलिज़ेशन) —> नागरीगम्.
समता — (सादृश्य, बराबरी, संतुलन )—> समत्तुवम्,(समत्वं)
समय —–> समयम्, तरुणम्
समर —–> युद्दम,
समर्थ —–> समर्तियमुळ्ळ (सामर्थ्य मूलक)
संमातर (समानांतर) —–> समानान्तरमान
समाचार —–> समाचारम्
समाज — –> समूगम् (समूहं) ,समाजम्;
समाधान —–> समाधानं,
समालोकच —–> विमरिशकर्
समिति —-> कुळु; (कुल),कमिट्टि (कमेटी)
समुदाय –> समूगम्, (समूह) समुदायम्
समुद्र —–> समुद्दिरम्,
समूह –> कूट (ढेर)
सम्मान —–> मरियादै (मर्यादा)
सम्मेलन —–> सम्मेळनम्,
सम्राट —–> चक्करवर्त्ति (चक्रवर्ती)
सरकार —–> सर्क्कार्,
सरल — —> सुलबमान, (सुलभमान)
सरोकार —–> संबन्दम् (संबन्धम)
सर्जन — —> शिरुष्टि (सृष्टि), आक्कल (सर्जन की प्रतिभा)
सर्प — —> सर्पम्,
सर्वांगीण ——> पूरणमान
सहानुभूति —–> अनुताबम् (अनुताप)
सहृदयता —–> कनिन्दमनम्, करुणै (करूणा)
साजन — —>ऎजमान्; (यजमान)
सादर —–> मरियादैयुडन् (मर्यादा युक्त?)
सादा —-> सादा
साधना — —> उपासनै,
साधारण —–> सादारणमान;
साधु —–> सादु, महात्मा;
साध्य —–> साद्दियमान;
साफ़ —-> शुद्दमान;
साबुन –(सोप) —> सोप्पु
सामर्थ्य —–> सामर्त्तियम्
सामर्थ्यशाली —>सामर्तिय-शालियान (सामर्थ्य शाली)
सामाजिक — समूगत्तिय (सामुहिक)
सामान्य — सादारणमान;
साम्राज्य — >साम्राज्यम्
साम्राज्यवाद —–> एकादिपत्तियम् (एकाधिपत्यं)
सामूहिक —-> समूगत्तिय
सार — —> सारु; सारांशम्
सारांश — —> सारांशम्,
सार्थक —–> अर्त्तमुळ्ळ (अर्थ मूलक )
साहूकार —–> पेरिय वियापारी,(बडा व्यापारी) लेवादेविक्कारन् (लेन देन कार)
सिंगार (श्रृंगार) —–>अलंगारम्
सिंदूर —–> कुंगुमम् (कुम कुम )
सिंहनाद —–> शिंगत्तिन् गर्जनै; (सिंघ की गर्जना)
सिंहासन — >शिंगासनम्;
सितारा —–> नक्षत्तिरम्,
सिद्धान्त –(थीअरी) —> तत्तुवम् (तत्वं)
सीधा = कपडमट॒ट॒; (कपटहीन )सुलबमान (सुलभमान)
मट्ट का अर्थ हीन होता है।
सुख —-> सुगम्, सौकरियम् (सौकर्य)
सुझाव —>योशनै, शूचने;
सुधा —–>अमिर्दम्, (अमृतम्) अमुदम्
सुधीर —–> दैरियशालि (धैर्यशाली)
सुर —–> स्वरम्;
सुराही —–> कूजा
सुविधा —–> सुलबम्; (सुलभम्)
सूत्र —–> सूत्तिरम्;
सूराख —–> दुवारम्,( द्वारं)
सूर्य —–> सूरियन् (सूर्यन)
सेठ — —> दनवान्, (धनवान)
सेना —–> सेनै,
सेनापति —–> सेनापति,
सैनिक —–> सेनै संबन्दमान;(सेना से संबधित) शिप्पाय (सिपाही?)
स्तंभ —–> तूण्,(स्थूणा) कंबम्; (खंबा)
स्तब्ध –> बिरमित्त (विरमित-रूका हुआ)
स्तुति —–>तोत्तिरम्,(स्तोत्रं)
स्तोत्र –>तोत्तिरम
स्थायी –>शासुवदमान्,(शाश्वतमान)
स्थिर — >स्तिरमान,
स्मृति —> ञापग शक्ति, स्मृति
स्रष्टा —–> शिरुष्टिकर्ता, (सृष्टिकर्ता) बिरम्म देवर् (ब्रह्म देव)
संक्रान्ति —> संकिरान्ति, परुवकालम्, (पर्वकालम), दक्षिणायन/उत्तरायण/आरंबम् (आरंभं)।स्वतंत्रता —–> सुदन्दिरम्।
स्वभाव — —> सुबावम्।
स्वर्ग — >सोर्ग लोगम्।
स्वस्थ — —> आरोग्गियमान,
स्वाद — —> रुचि
स्वादिष्ट — >रुचिकरमान,
स्वामित्व —>आदिक्कम् (आधिक्यम्, प्रभुता, आधिपत्य सभी के लिए प्रयुक्त)
स्वामी –>ऎजमान, (यजमान)
स्वास्थ्य —-> आरोग्गियम्,(आरोग्यम्)
Why no one praises Brahmi script?
https://www.omniglot.com/writing/brahmi.htm
https://en.wikipedia.org/wiki/Br%C4%81hm%C4%AB_script
https://www.ancientscripts.com/brahmi.html
May be we are heading back to Brahmi script via Roman script converter.
Why not adopt a simple script in writing Hindi?
Sounds are universal but not the symbols.May be the beauty is in the eyes of beholder
અ આ ઇ ઈ ઉ ઊ ઋ એ ઐ ઓ ઔ અં અઃ
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ अं अः
অ আ ই ঈ উ ঊ ঋ এ ঐ ও ঔ অং অঃ
অ আ ই ঈ উ ঊ ঋ এ ঐ ও ঔ অং অঃ
ಅ ಆ ಇ ಈ ಉ ಊ ಋ ಏ ಐ ಓ ಔ ಅಂ ಅಃ
അ ആ ഇ ഈ ഉ ഊ ഋ ഏ ഐ ഓ ഔ അം അഃ
ਅ ਆ ਇ ਈ ਉ ਊ ਰੁ ਏ ਐ ਓ ਔ ਅੰ ਅਃ
அ ஆ இ ஈ உ ஊ ருʼ ஏ ஐ ஓ ஔ அம்ʼ அ:
అ ఆ ఇ ఈ ఉ ఊ ఋ ఏ ఐ ఓ ఔ అం అః
a ā i ī u ū ṛ e ai o au aṁ aḥ
Why impose a script on others when they can learn Hindi in their mother language script via script converter?
राष्ट्र भाषा भारती or Hamari Boli ? in what script?
https://hamariboli.wikia.com/wiki/Hamari_Boli
https://en.wikipedia.org/wiki/Roman_Urdu
फिर वे हिंदी पढेंगे कैसे?
https://www.pravakta.com/bisvi-century-appearance-of-the-vedas
यदि संयुक्त प्रयास हो और हम इन तथ्यों को अत्यधिक प्रचारित कर सकें तो सांस्कृतिक झगड़े सदैव के लिए मिट जायेंगे|
हिंदी हो, तमिल हो या मराठी, सब के नाम पर राजनीति चालू है और इन भाषाओँ पर उसका बुरा असर भी पड़ा है| राजनीति के झगड़ों को भ्रमवश भाषाओँ का झगड़ा मान लिया गया|
(१) राजनीतिज्ञों को बाहर रखा जाय।(प्रधान मन्त्री को भी)
(२) हिन्दी के वर्चस्व वादियों को भी बाहर रखें।
(३) अपनी अपनी भाषा का ढोल बजाने वाले भी बाहर।
पर विशुद्ध राष्ट्रीयवादी दृष्टिकोण रखने वाले, तर्काधारित== “राष्ट्र(परराष्ट्र नहीं)भाषा”== का स्वीकार करनेवाले,और किसी भी भाषाका अनुनय नहीं। नाम –“राष्ट्र भाषा भारती” —
आज तक यही मुझे लगता है।
अन्यों का विचार भी सुनना चाहता हूँ।
इस विषय पर आगे बढ़ा जा सकता है|
विरोध की सम्भावनायें न्यून हैं| हिन्दी के वर्चस्व वादियों ने ही हिंदी का सबसे ज्यादा नुकसान किया है|
”राष्ट्र भाषा भारती” – नाम अच्छा लगा|
मधुसुदन जी के प्रयास भारत से भाषा के झगड़ों को पूरी तरह से मिटा सकते है | जब से मैंने मधुसुदन जी को पढना शुरू किया तब से मुझे समझ आया की संस्कृत जैसी इतनी समृद्ध भाषा के होते हुए भी हम इसीलिए पिछड़े हुए है क्योंकि हम एक अविकसित भाषा अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहे है | हालाँकि इसका सबसे बड़ा कारण हमारी अपनी हीन भावना और सरकारों और निजी उद्योगपतियों द्वारा भारत में रोज़गार की और कार्यालय की भाषा अंग्रेजी को बनाए रखना है | यदि हम संस्कृत को पूरी तरह से अपना सके तो वेदों में छिपे वैज्ञानिक तथ्यों को भी उजागर कर पायंगे | कल ही मेरी मुलाकात एक आचार्य जी से हुई जो की वेदों के द्वारा खगोल विज्ञान में बताये गए तथ्यों पर शोध कर रहे है | उनके अनुसार वेदों में ये बताया गया है की सूर्य के भीतर की परिधि बहुत ही ठोस है जो की इतनी ठोस है की उस से किसी भी प्रकार की किरणे जैसे एक्स रे या उन जैसा कोई भी रेडियेशन पार नहीं हो सकता | हालाँकि आधुनिक विज्ञान को इसके बारे में कोई भी जानकारी नहीं है और कुछ आई आई टी के वैज्ञानिको ने उनसे बहस के आधार पर इस बात को मानने से इनकार कर दिया | उन आचार्य जी ने ये भी बताया की पिछले वर्ष बेंगलुरु में हुए अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान सम्मलेन में उन्होंने वेदों के आधार पर बिग बैंग थ्योरी को भी गलत सिद्ध किया है | इसीलिए आज के समय में वेदों के ज्ञान को स्थापित करने के लिए संस्कृत को सीखना अति आवश्यक है |
मुकुल जी। बहुत धन्यवाद।
मैं मानता हूँ, कि, सैद्धान्तिक रूप से संस्कृत का उपयोग शब्दावली की रचना के लिए किया जाए।
ध्यान रहे, कि, (१) बोलना बोलकर ही सीखा जाता है। संस्कृत भारती की १० दिन (प्रति दिन २ घंटे) की शिक्षा आपको प्राथमिक बोलना सीखा सकती है। आप को वार्तालाप में पहले दिन से डुबा देती है। जैसे बालक परिवार में मातृभाषा सीखता है। सुन सुन के बोलता है। (लिपि भी आवश्यक नहीं है)
ऐसे १०-१० दिनके प्रायः चार या पांच शिक्षाक्रम करने होते हैं।
संस्कृत भारती का कार्यालय प्रत्येक बडे नगर में है। उनका जाल स्तल भी है।
उनका शुल्क भी विशेष नहीं होता। सारे प्रचारक कक्षा के या समर्पित कार्यकर्ता होते हैं।
सभी संस्कृत सीखने का कडा प्रयास करें।
मुझे सन्देह नहीं, हूँ, कि, संस्कृत बहुल हिन्दी दक्षिण में भी स्वीकार होगी। तेलुगु,कन्नड, मल्ल्याळम ७० से ८० % संस्कृत शब्द रखती है। अन्य सभी प्रादेशिक भाषाएं भी ७० से ८० % संस्कृत शब्द रखती है। केवल तमिळ ४० से ५०%।{इस लिए तमिळ पर अधिक लिखने का विचार किया था। }
ऐसी हिन्दी जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है, समस्त भारत में स्वीकृत हो जाती।
पर राजनीतिज्ञ, अपनी भाषा का शंख बजाने वाले, और हिन्दी के लठ्ठमार वर्चस्ववादी लोगों से दूर रहकर राष्ट्र भाषा की समस्या भी न्यूनतम विरोधसे सुलझ जाती। (कभी आलेख सोचूंगा)
पर संस्कृत का अध्ययन करना ही चाहिए।छोटे छोटे गट बनाकर स्वाधाय प्रारंभ करें, या संस्कृत भारती की सहायता लें।
शुभस्य शीघ्रम्॥
आपके इस सुझाव के लिए बहुत बहुत धन्यवाद | मै अवश्य ही आपके इस सुझाव को अमल में लाने का जल्दी से जल्दी प्रयास करूँगा | मुझे लगातार आपके लेख की प्रतीक्षा रहती है और आपकी प्रतिक्रिया पढ़ कर मुझे अपार हर्ष हुआ है | आपके लेख मुझे अपने देश भाषा और संस्कृति के बारे में गौरव प्रदान करने में बहुत सहायक होते है और आपके लेखों को मै अपने सभी मित्रों को मेल भी करता हूं | आपके लेख पढने से पहले तक मैंने केवल सुना भर ही था की संस्कृत विश्व की बहुत सारी भाषाओँ की जननी है पर जब आपका लेख पढ़ा तो प्रमाण भी मिले | अब जब भी मै किसी से संस्कृत की विशेषताओ के बारे में आपके लेखों की सहयता से उदाहरण के साथ बोलता हूं तो उसका असर ही कुछ और होता है | इस ज्ञान को ऐसे ही बाँटते रहिये और हो सके तो थोडा अपनी व्यस्तताओं के बीच जल्दी जल्दी अपने लेख हम सब तक पहुंचाइये | आपको बहुत सारा आभार |
“मम नाम अन्किता” आप के प्रश्न से ही प्रेरित हो कर डाला है| अवश्य पढ़ें|
धन्यवाद|
साथ प्रतिभा सक्सेना जी का लिखा “तमिल संस्कृत अन्तः सम्बन्ध” दर्शाता आलेख भी अवश्य पढ़ें.
सूर्य के भीतर की परिधि ठोस होना, वैज्ञानिक अनुमान से भी सही प्रतीत होता है.
क्यों?
(१) ऐसा होना इसा लिए मैं संभवित मानता हूँ, की जैसे जैसे आप केंद्र के पास पहुंचते हैं, —-
वैसे वैसे गुरुत्वाकर्षण बढ़ते जाता है. और इसके कारण घनत्व भी बहुत बहुत बढेगा ही.
केंद्र के पास तो अनंत गुना बढ़ जाएगा.
(२) इसीका परिणाम वहां ठोस परिधि की संभावना निश्चित है.
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ज्ञान पाने के दो मार्ग सुने हैं.
एक: विज्ञान का बाह्य मार्ग.
दो: ध्यानका अंतरमार्ग.
प्रतीत होता है, कि हमारे पुरखों नें इस आतंरिक मार्ग कि विधि को सही सही जाना था.
पतंजलि का योग दर्शन भी इसीका साक्षी है.
आप मेरे द्वारा लिखा गया बीसवी शताब्दी में वेड का अवतरण नामक आलेख देख लें.
१५ दिन तक ऋषि देवरत को, ध्यान में, — १९१७ में ४५० नवीन वेदों की ऋचाएं सतत अवतरित होती गयी. उनके गुरु –शंकराचार्य श्री गणपति मुनि ने उन ऋचा ओं को उतार लिया था. भारतीय विद्या भवन ने पुस्तक प्रकाशित की थी-“छंदोंSदर्शन”. अगली टिपण्णी में मैं कड़ी देता हूँ.
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