व्यंग्य/ दाल बंद, मुर्गा शुरु

0
158

मैं उनसे पहली दफा बाजार में मदिरालय की परछाई में मिला था तो उन्होंने राम-राम कहते मदिरालय की परछाई से किनारे होने को कहा था। उन दिनों मैं तो परिस्थितियों के चलते शुद्ध वैष्‍णव था ही पर वे सरकारी नौकरी में होने के बाद भी इतने वैष्‍णव! मन उनके दर्शन कर आह्लादित हो उठा था। ये संसार बेकार निस्सार लगने लगा था। दोस्त की घरवाली से लंबी उनकी चोटी, माथे पर दस ग्राम खालिस चंदन का इस छोर से लेकर उस छोर तक लेप। कुरते के ऊपर से चार चार जनेऊ! हाथ में माला। मुंह में राम-राम! बगल में छुरी उस वक्त मुझे नहीं दिखी। उन्हें देखा तो लगा सरकारी दफ्तरों में धर्म अभी भी जैसे ऐसे ही सज्जनों के कारण बचा है। मन किया उनके चरणों की धूलि लेकर माथे पर अपने तो लगा ही लूं अपनी आने वाली संतानों को भी बचा कर रखूं। मन किया कि घर से भगवान का फोटो निकाल उनकी जगह बंदे का फोटो लगा दूं। पर डरा! अगर भगवान नाराज हो गए तो….

भगवान को सरकारी नौकरी दिलाने के लिए उस रोज भी मंदिर गया था सवा रुपये के लड्डू लेकर। बेराजगार बंदा किलो भर लड्डू चढ़ाने से तो रहा। ये काम तो पद का सदुपयोग करने वाले ही कर सकते हैं कि चोरी छिपे चढ़ा आए मंदिर में लाखों रूपए की पोटली और हो गए देश के महान दानी। जैसे ही मैंने रोते हुए भगवान के चरणों में ललचाए मन से वे लड्डू रख मन ही मन्नत की कि अगर अबके मैं सलैक्ट हो गया तो पांच किलो देसी घी में बने लड्डू चढ़ाऊं कि तभी पीछे से किसी ने मेरा कंधा झिंझोड़ा, ‘कौन??’ मैं घुटने टेके पीछे को हुआ तो पीछे खड़े ने कहा, ‘भगवान!’

‘पर भगवान तुम?? मेरे पीछे? मैं तो हमेशा सोचता रहा कि भगवान बंदे के आगे होते हैं।’

‘हां, मैं भगवान! यार! आजकल भक्तों के आगे आने से डर सा लग रहा है। क्यों, कोई शक?? ‘

‘कंगाली में तो गधे पर भी शक नहीं करना पड़ता भले ही वह अपने को घोड़ा कह रहा हो और आप तो भगवान हो।’ कह मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए, गिड़गिड़ाया, ‘प्रभु! अबके बस इंटरव्यू में पार लगा दो। बस, फिर आप से कुछ मांगू तो नरक देना। देखो न,ओवरेज हो रहा हूं। षादी की उम्र तो निकल ही गई है। अब तो घरवाले लड़का होने के बाद भी मुझे अपने पर लड़की से अधिक भार समझने लगे हैं। प्रभु! अबकी बार मुझे अपने कंधों पर चढ़ा इंटरव्यू रूपी भवसागर पार करा दो। उसके बाद आप जो कहोगे करूंगा। ‘मैं जितना गिड़गिड़ा सकता था उनके आगे गिड़गिड़ाया तो उन्होंने इधर उधर देखा। उस वक्त पुजारी भी बाहर गया था। चारों ओर से निष्चिंत हो उन्होंने थके मन से कहा, ‘यार! नौकरी किसके चरणों में पड़कर मांग रहे हो? उठो और इस तरह गलत दरवाजे पर झोली फैलाना छोड़ो! ‘फिर अपनेपन से समझाते बोले, ‘सुनो जो सच कह रहा हूं। मेरे यहां आकर समय बरबाद मत करो नहीं तो अबके भी इंटरव्यू में रह जाओगे।’

‘तो किसके द्वारे जाऊं भगवन ! आपने तो बड़ों बड़ों को तारा तो अब मेरी बारी में हाथ खड़े क्यों?साफ क्यों नहीं कहते कि महंगाई के इस दौर में सवा रूपए के लड्डू कोई मायने नहीं रखते। आज आस्था मन से नहीं जेब से जुड़ गई है।’

‘यार उठो! बेकार में अपना और मेरा समय खराब न करो। जो कह रहा हूं ध्यान से सुनो! तुम्हारे ही नहीं तुम्हारे बाल बच्चों के भी काम आएगा जो विवाह हो गया तो। मैं तो आज की डेट में खुद असहाय हो गया हूं। मेरे से पावरफुल तो नेता लोग हैं। उनको पटाओ तो काम बने। मैं खुद उनको पटाने के चक्कर में हूं ताकि मुझे इस जेल से छुटकारा मिले। यहां तो मुझे चौबीसों घंटे धूर्त पुजारी यूज करने में जुटा है। तंग आ गया हूं इस पुजारी से। जब पुजारी कहे उठो। जब तक पुजारी कहे बैठे रहो, चुपचाप बैठे रहना पड़ता है। मेरा अपना अस्तित्व तो जैसे है ही नहीं। इससे बेहतर तो लगता है किसीके यहां बरतन मांज लूं। स्वतंत्रता तो होगी। यहां तो पुजारी का गुलाम बनकर रह गया हूं। इसलिए मेरी मानो तो किसी नेता को पटाओ और अपने ये सवा रूपए के लड्डू उठा भाग लो जबतक पुजारी लघु षंका से निवृत होकर आए। ये पुजारी सारा दिन मुझे भक्तों के सामने नचाता रहता है और रात को बोतल मेरे सामने ही गटक मुझे चिढ़ाता है। कई बार तो उसके घरवाले मुझे गालियां देते हुए उसे उठा कर ले जाते हैं। अब तो मन करता है सुसाइड कर लूं।’

भगवान के आदेशों का पालन करने के तत्काल बाद मैं सरकारी विभाग में फंस गया। बेरोजगार आत्मा को मुक्ति मिली। काश! भगवान ये पहले बता देते तो आज को पांच सात साल की नौकरी भी हो गई होती।

वे कल षाम अचानक ही फिर मिले। बाजार में उसी जगह। बिल्कुल मांसाहारी से। उन्हें मदिरालय की परछाई से किनारे ले जाने लगा पर वे वहीं डटे रहे। मन उन्हें देख कुछ दुखी हुआ। बढ़ी हुई तोंद। पूरा बदन यों जैसे चार सूअरों की चर्बी उठाए हों। हो सकता है बेचारों को कोई रोग लग गया हो। सरकारी नौकरी में कोई न कोई रोग तो लग ही जाता है। ये रोग भी न, शरीफों को ही रगड़ता है। मैंने उनके पांव छुए, ‘और कैसे हो?’

‘ठीक हूं सर! मैं सरकारी भी नौकर हो गया।’

‘तो बधाई!’ उनसे अपने किराए के कमरे में पधार उसे पवित्र करने के लिए गुहार लगाई तो सहज मान गए। सोचा मंहगाई के दौर में इन्हें अपने घर ले पुण्य भी कमा जाएगा और किराए का कमरा भी शुध्द हो जाएगा। बातों ही बातों में बातों का सिलसिला शुरू हुआ, ‘और भगवन! कैसे चली ही नौकरी?’

‘मेरी प्रमोशन हो गई है!’

‘तो बहुत बहुत बधाई! मैं मन कठोर कर मलका की दाल साफ करने लगा तो उन्होंने पूछा, ‘ये क्या कर रहे हो?’

‘आपके लिए वैष्‍णवी भोजन…’

‘ये दाल शाल परे करो यार! क्या मरीजों का खाना खिला रहे हो। कुछ मुर्गा शुर्गा हो यार!’ कह वे अपने होंठ चबाने लगे।

‘मतलब???? मुझे काटो तो खून नहीं।’

‘यार! तब वैश्णव होना पदीय विवशता थी। अब अफसर हो गया हूं। वह भी ऐसे विभाग में जहां कब्ज के चलते मुंह लाख बंद भी रखो पर लोग हैं कि तब भी मुंह में कुछ न कुछ घुसेड़ ही जाते हैं। ये देखो! चार महीने में ही चौथी बार दांत बदलने पड़े हैं। दांत मुश्किल से बीस दिन भी निकाल पाते।’

-अशोक गौतम

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here