कहो कौन्तेय-२५ (महाभारत पर आधारित उपन्यास)

(खाण्डववन-दाह)

विपिन किशोर सिन्हा

खाण्डववन दाह! संरक्षक देवराज इन्द्र की सत्ता को सीधे चुनौती देने का यह कार्य था। स्वीकार करना सरल था, पूरा करना अत्यन्त कठिन। इन्द्र के वज्र का प्रत्युत्तर मेरे पास नहीं था। श्रीकृष्ण कुछ कर सकते थे। उन्होंने गोकुल में गोवर्धन पर्वत को तर्जनी पर धारण कर इन्द्र का दर्प चूर्ण किया था लेकिन वे तो कुछ बोल ही नहीं रहे थे। समीप खड़े हो, सिर्फ मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे। मैंने अग्निदेव को अपनी विवशता बताई –

“हे अग्निदेव! खाण्डववन-दाह के लिए मेरे पास आपकी कृपा से युक्त आग्नेयास्त्र तो है लेकिन उसका प्रयोग करते ही देवराज इन्द्र तक्षक नाग की रक्षा हेतु स्वयं उपस्थित हो, युद्ध करेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं। मेरे पास अन्य दिव्यास्त्रों की भी कमी नहीं है। मैं युद्ध में देवराज को भ्रम में डाल सकता हूं लेकिन इस समय मेरे बाहुबल को संभाल सकनेवाला धनुष नहीं है। दिव्यास्त्रों के संधान के उपयुक्त बाणों का भी अभाव है। श्रीकृष्ण के पास भी इस समय ऐसा कोई अस्त्र नहीं जिससे वे नागों और पिशाचों का विनाश कर सकें। खाण्डववन के दहन के समय, इन्द्र के साथ प्रत्यक्ष युद्ध की संभावना है। बल और कौशल हमारे पास है परन्तु उपयुक्त युद्ध सामग्री का अभाव है।”

मेरी वाणी ने सीधे लक्ष्य पर प्रहार किया। श्रीकृष्ण की मधुर मुस्कान और आंखें मेरा समर्थन कर रही थीं। अग्निदेव ने अविलंब जलाधिपति लोकपाल वरुण का स्मरण किया। क्षण भर में वे साक्षात उपस्थित थे। अग्निदेव ने उनसे मेरे लिए गांडीव धनुष, अक्षय तूणीर और वानरचिह्न युक्त केसरिया ध्वजा से मण्डित दिव्य रथ की व्यवस्था करने का निवेदन किया। वरुण देव ने तत्क्षण गांडीव, तूणीर और दिव्य रथ मुझे प्रदान किए। मुझे सफलता का आशीर्वाद देते हुए बोले –

“पुत्र अर्जुन! धर्म की रक्षा हेतु तुम्हारा और कृष्ण का आविर्भाव इस पृथ्वी पर हुआ है। गाण्डीव धनुष, अक्षय तूणीर और दिव्य रथ सदा के लिए तुम्हें प्रदान किया। धर्म की रक्षा और आतताइयों के विनाश के लिए इनके प्रयोग हेतु तुम अधिकृत हो। यह गाण्डीव धनुष देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। इसकी महिमा अद्भुत है, यह अकेले ही लाखों धनुषों के समान है। यह क्षतरहित है। तीनों लोकों में पूजित तथा प्रशंसित है। यह किसी भी अस्त्र-शस्त्र से कट नहीं सकता लेकिन सभी शस्त्रों को काट सकता है। इससे योद्धा का यश, कान्ति और बल बढ़ता है।

यह अजेय सूर्य के समान देदीप्यमान रथ, नन्दिघोष नाम से विख्यात है। यह देवराज इन्द्र के रथ से भी उत्तम है। इसमें मन की गति से चलनेवाले श्वेत चमकीले हारों से सुसज्जित गंधर्व देश के अश्व जुते हुए हैं। इसके स्वर्ण-दण्ड में वानर के चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा रही है। स्वयं रामभक्त हनुमान इसकी रक्षा में तत्पर रहते हैं। इसपर बैठकर युद्ध करते समय सदैव विजयश्री ही तुम्हारा वरण करेगी।”

अग्निदेव ने श्रीकृष्ण को दिव्य सुदर्शन चक्र और आग्नेयास्त्र प्रदान किये। उन दिव्य अस्त्रों की महत्ता बताई –

“मधुसूदन! यह सुदर्शन चक्र पूर्ण रूप से आपके वश में रहेगा। आपकी इच्छा मात्र से यह प्रकट होगा और कार्यसिद्धि के पश्चात आपकी अनुमति से अन्तर्ध्यान होगा। यह आपकी इच्छानुसार आपके किसी भी शत्रु का पल भर में संहार कर सकता है। इस चक्र के प्रभाव के सामने देवता, दानव, राक्षस, पिशाच, नाग और मनुष्यों की शक्ति कुछ भी नहीं।”

वरुणदेव ने भी श्रीकृष्ण को शत्रुओं का दिल दहलाने वाली कौमोदकी गदा अर्पित की।

हम दोनों सखा, अग्निदेव और वरुणदेव से अनमोल और दिव्य भेंट पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। श्रीकृष्ण ने अग्निदेव को खाण्डववन-दहन की अनुमति प्रदान कर दी। हम दोनों अग्निदेव की रक्षा हेतु एक ही रथ पर अस्त्र-शस्त्रों के साथ किसी भी आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए तत्पर हो गए।

अग्निदेव ने दावानल का प्रदीप्त रूप धारण किया और देखते ही देखते पूरा वन धू-धू कर जलने लगा। मानव जाति को कष्ट पहुंचाने वाले जीव प्राण बचाने हेतु बाहर आने का प्रयास करने लगे। मैंने निरन्तर बाण-वर्षा कर उन्हें वन के भीतर ही रहने के लिए विवश किया। चारो ओर प्रलयवत् दृश्य उपस्थित हो गया। यह वन देवराज इन्द्र द्वारा संरक्षित था, अतः रक्षार्थ उन्हें आना ही था। आते ही उन्होंने असंख्य मेघों की सहायता से जल-वर्षण आरंभ किया। मैंने आकाश को बाणों से पूर्ण रूपेण आच्छादित कर दिया। जलवृष्टि प्रभावहीन रही। इन्द्र ने क्रुद्ध होकर पवनदेव को आमन्त्रित किया। आकाश पुनः बादलों से भर गया, बिजली चमकने लगी – चारो ओर तूफान ही तूफान। इन्द्र ने वज्रास्त्र का प्रयोग किया था। मैंने वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। मेघ छिन्न-भिन्न हो गए। जलधाराएं सूख गईं। अंधेरा छंट गया। श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र के प्रयोग से इन्द्र के सारे अस्त्रों को प्रभावहीन कर दिया। इन्द्र के क्रोध की अब सीमा न थी। ऐरावत पर आरुढ़ हो वे सम्मुख युद्ध के लिए तत्पर हुए। उनकी सहायता के लिए यमराज ने कालदण्ड, कुबेर ने गदा और वरुण ने पाश एवं विचित्र वज्र से हम दोनों पर आक्रमण किया। इन्द्र ने पुनः वज्र-प्रहार किया। मैंने भी दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया। श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र सभी अस्त्रों पर भारी सिद्ध हुआ। देवता विवश थे। इन्द्र मेरे पिता थे, अतः मैंने किसी घातक अस्त्र का प्रयोग नहीं किया। अबतक मैंने और श्रीकृष्ण ने युद्ध प्रतिरक्षात्मक होकर किया। देवताओं के अस्त्र-शस्त्रों का हमपर कोई प्रभाव नहीं पड़ रह था। इन्द्र की क्रोधाग्नि खाण्डववन की दावाग्नि की भांति बढ़ती जा रही थी। अन्त में उन्होंने मन्दराचल पर्वत का एक शिखर मेरे उपर दे मारा। यह प्राणघातक था। मैंने पलक झपकते दिव्य बाणों से प्रहार किया। पर्वत खंड सहस्रों खण्डों में विभाजित हो वन में जा गिरा। असंख्य जीव-जन्तु उसके प्रहार से अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। अपनी कोई भी युक्ति सफल न होते देख, देवताओं ने पराजय स्वीकार की। खाण्डववन अनाथ के घर की भांति धू-धू कर जलने लगा।

क्रमशः 

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