कहो कौन्तेय-७१

विपिन किशोर सिन्हा

(जयद्रथ-वध)

कर्ण के निर्देश पर दुर्योधन, वृषसेन, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, शल्य और स्वयं कर्ण ने अपने-अपने रथों को सटाकर मेरे सामने एक अर्द्ध मण्डलाकार घेरे का निर्माण कर दिया। जयद्रथ पुनः उनके पीछे छिप गया। अर्द्धमंडल के मध्य में स्थित कर्ण ने बाण-वर्षा कर दी। अन्य महारथी भी बड़ी कुशलता से युद्ध कर रहे थे। हम लोगों की गति रुक गई। कर्ण को बिना पीछे हटाए जयद्रथ तक पहुंचना संभव नहीं था। सात्यकि और भीम ने कृपाचार्य, शल्य आदि महारथियों को बलपूर्वक पीछे हटाना आरंभ किया। मैंने कर्ण को लक्ष्य कर अनगिनत बाण मारे। कर्ण यद्यपि घायल था, तथापि उसने पीछे हटना स्वीकार नहीं किया – हजारों बाणों का प्रहार कर मेरे रथ को चारो ओर से आच्छादित कर दिया। मैं यथाशीघ्र उसके बाणों के जाल को काटते हुए उसका धनुष काटा, वक्षस्थल बींध डाला, घोड़े और सारथि को मारकर उसे रथहीन कर दिया। वह उछलकर अश्वत्थामा के रथ पर चढ़ गया और पुनः मुझसे भिड़ गया। उसे विश्राम देने के लिए अश्वत्थामा स्वयं आगे आया। अपने मातुल कृपाचार्य के साथ अपनी पूरी शक्ति के साथ उसने मुझपर आक्रमण किया। उसके आक्रमण को विफल करते हुए मैंने आगे बढ़ने का मार्ग बनाया लेकिन सामने वृषसेन, दुर्योधन और शल्य आ गए।

दिन भर तीव्रता से चमकने वाले अंशुमालि अब आग के एक लाल गोले के समान दिखाई दे रहे थे। उनकी किरणें पृथ्वी को दस-पंद्रह अंश का कोण बनाते हुए स्पर्श कर रही थीं। मैं तो युद्ध में व्यस्त था लेकिन श्रीकृष्ण की दृष्टि उस ओर बरबस चली गई। चिन्ताग्रस्त गोविन्द ने धीरे से कहा –

“पार्थ! इस समय जयद्रथ को छः महारथियों ने अपने पार्श्व में छिपा रखा है। इन छहों को निर्णायक ढंग से परास्त किए बिना उस तक पहुंचना संभव नहीं है। हमारे पास समय बहुत कम है। सूर्य अस्ताचल को जाने को उद्यत है। मैं अपनी योगशक्ति से सूर्य को छिपा रहा हूं। अपनी प्रतिज्ञा-भंग का प्रायश्चित करने के लिए तुम स्वाभाविक ढंग से चिता पर बैठ जाना। जयद्रथ इस दुर्लभ दृश्य को देखने के लिए निश्चित रूप से निश्चिन्त होकर तुम्हारे सामने आएगा। उसी समय तुम उसपर प्रहार करके उसका वध कर देना। मेरे निर्देश पर किसी प्रकार का तर्क करने का अब समय नहीं है। तुम सदैव मेरी तर्जनी की ओर दृष्टि रखना। मेरा संकेत मिलते ही जयद्रथ का वध होना चाहिए। सूर्य अस्त हो गया है, यह सोचकर तुम मेरे संकेत की उपेक्षा मत करना। जयद्रथ पर प्रहार के समय, पश्चिम के क्षितिज पर सूर्य चमकता हुआ दिखाई पड़ेगा।”

युद्धभूमि में अब श्रीकृष्ण की लीला की बारी थी। उनकी योगशक्ति के सम्मुख सूर्य भी विवश थे। चारो ओर अचानक अंधेरा फैल गया। सबने समझा सूर्यास्त हो गया। युद्ध रोक दिया गया। दुर्योधन अपने सभी महारथियों के साथ गले मिल रहा था। उसके निर्देश पर टूटे रथों को एकत्रित कर कुछ ही क्षणों मे चिता तैयार कर दी गई। मैंने गांडीव के साथ चिता में प्रवेश किया। वी्रासन में बैठ श्रीकृष्ण की तर्जनी पर ध्यान केन्द्रित कर दिया।

कौरव सेना के सभी योद्धा प्रफुल्लित थे। दस्यु की तरह छिपा जयद्रथ अचानक प्रकट हुआ। बिना किसी रक्षक के वह मेरे सामने था। उचक-उचक कर कभी मुझे और कभी लुप्त हो चुके सूर्य को देखने का प्रयास कर रहा था।

श्रीकृष्ण के दाएं हाथ की तर्जनी में आए कंपन को मैंने लक्ष्य किया। उनकी तर्जनी की दिशा जयद्रथ की ग्रीवा की ओर थी। सूर्य एकबार पुनः प्रकट हुआ परन्तु जयद्रथ के जीवन का सूर्य सदा के लिए अस्त हो चुका था – मेरे गाण्डीव से प्रक्षेपित वज्रतुल्य चन्द्रमुख बाण उसका शिरच्छेद कर चुका था। दोनों पक्ष की सेनाएं स्तंभित थीं। दुर्योधन मूर्च्छित हो गिर पड़ा। हमारी सेना ने विजय की दुंदुभि बजाई। रोमंचक जयनाद को सुनते ही चौदहवें दिन का सूर्य अस्त हुआ। हमारे पक्ष के सभी योद्धा यही मान रहे थे कि मैंने जयद्रथ का वध किया था। सबने अपनी आंखों से देखा था – मेरे चन्द्रमुख बाण ने ही उसका सिर उसके धड़ से पृथक किया था। लेकिन मुझे ज्ञात था, मैंने उसका वध कैसे किया। लाल गोले में परिवर्तित हो रहे सूरज की ओर अगर श्रीकृष्ण की दृष्टि नहीं गई होती, उन्होंने अपनी योगशक्ति का चुपके से प्रयोग न किया होता, तो क्या होता? जयद्रथ खड़ा मुस्कुर रहा होता, दुर्योधन अट्टहास कर रहा होता और मैं स्वर्गलोक में अभिमन्यु को ढूंढ़ रहा होता।

मैंने श्रीकृष्ण के चरणों में अचानक मस्तक टिका दिया। मैं बुदबुदा रहा था –

“कृष्ण! तुम एक आदर्श हो – पूर्णत्व का आदर्श। ईश्वर के विषय में मनुष्य जाति ने भिन्न-भिन्न काल तथा प्रदेशों में जो कल्पनाएं की है, उन कल्पनाओं का मूर्त रूप तुम्हीं हो श्रीकृष्ण, तुम्हीं हो।”:

श्रीकृष्ण ने सजल नेत्रों से मुझे उठाकर अपने वक्षस्थल से लगा लिया।

क्रमशः

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