अहिंसक मत्यु दंड और अहिंसक आत्मघात
इधर भीमसेन अत्यन्त प्रचण्ड वेग से कौरव सेना को रौंदते हुए आगे बढ़ रहे थे। उनके प्रचण्ड वेग को सह सकने में कोई भी धृतराष्ट्र पुत्र समर्थ नहीं था। वे ऊंचे स्वर में दुर्योधन को पुकार रहे थे। अचानक संदेशवाहक ने कर्ण के हाथों युधिष्ठिर के पराजय की सूचना उन्हें दी। वे अब कहां रुकने वाले थे।
क्रोध में भरे भीम ने कर्ण को आगे से घेरा। अपने सिंहनाद से दसों दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए भीम ने कर्ण की छाती में नाराच से भीषण प्रहार किया। कर्ण की आंखों के सामने संपूर्ण भूमण्डल चक्कर खाने लगा। लेकिन उसने अत्यन्त शीघ्रता से स्वयं को नियंत्रित किया और पलक झपकते भीम के धनुष को काट डाला। भीम ने पल के दसांश में दूसरा धनुष लिया और हुंकार भरते हुए कर्ण के मर्मस्थलों को बींध डाला। कर्ण को शिथिल पड़ता देख, पर्वतों को विदीर्ण करनेवाला एक मर्मभेदी बाण धनुष पर चढ़ाया और उसकी छाती को लक्ष्य कर छोड़ दिया। उस वज्र के समान वेगशाली बाण का प्रहार कर्ण सह नहीं सका। कौरव सेना का सेनापति अचेत होकर रथ की बैठक में गिर पड़ा। राजा से सारथि बने मामा शल्य ने उसके रथ को रणभूमि से दूर हटा उसकी प्राण रक्षा की। भीमसेन ने मेरी प्रतिज्ञा को याद कर कर्ण पर निर्णायक प्राणघातक हमला नहीं किया। कर्ण के युद्धभूमि से हटने के बाद भी भीम ने सेना का संहार जारी रखा।
मुझे ऐसा लगता है, युद्ध के पूर्व हमें भयंकर प्रतिज्ञाएं नहीं करनी चाहिए थीं। प्रतिज्ञाओं के अवरोध ने हाथ आए कई अवसरों पर हमारे हाथ बांध दिए थे और युद्ध लंबा खींच दिया था। अगर मैंने कर्णवध की प्रतिज्ञा न की होती, तो अभिमन्यु, भीम, सात्यकि या युधिष्ठिर ने कब का उसका अन्त कर दिया होता। अगर भीम ने समस्त धृतराष्ट्र पुत्रों के वध की प्रतिज्ञा न की होती तो दुर्योधन और दुशासन मेरे हाथों कब के गतप्राण हो चुके होते। महासमर में अवसर बहुत कठिनाई से प्राप्त होते हैं। लेकिन प्रतिज्ञाओं की वाध्यता ने हाथ आए अवसरों को गंवा देने के लिए हमें विवश कर दिया था।
संशप्तक योद्धाओं ने दिन के तीसरे प्रहर तक मुझसे भीषण युद्ध किया। आज मैं उनके संपूर्ण विनाश के संकल्प के साथ युद्ध कर रहा था। एक बार तो प्राणों की बाजी लगाकर कुछ आत्मघाती योद्धा हमारे रथ पर चढ़ आए – कुछ ने श्रीकृष्ण की बांहें पकड़ लीं, तो कुछ ने मेरा धनुष पकड़ लिया। सैकड़ों योद्धा रथ को पकड़कर हिलाने लगे। श्रीकृष्ण ने अपनी बाहें झटककर उन्हें नीचे गिराया, मैंने बलपूर्वक धक्का देकर स्वयं को मुक्त किया, फिर निकट से युद्ध करने में उपयोगी बाण मारकर उनका संहार किया।
संशप्तक वीरों का पूर्ण संहार करके मैं मुख्य युद्धभूमि में लौट रहा था कि अश्वत्थामा ने मुझे आगे से रोका। न चाहते हुए भी अपने गुरुपुत्र पर मुझे ‘वत्सदन्त’ नामक संहारक बाण का प्रयोग करना पड़ा। मूर्च्छित अश्वत्थामा को उसका सारथि रणभूमि से बाहर ले गया।
युद्धभूमि में युधिष्ठिर के रथ की ध्वजा दृष्टिगत नहीं हो रही थी। उनका जयघोष भी सुनाई नहीं पड़ रहा था। मेरे तो प्राण सूख गए। उनको रणभूमि में न पाकर मन में तरह-तरह की आशंकाओं ने जन्म ले लिया, मेरे बाण लक्ष्य से चूकने लगे।
सात्यकि दूर से रथ दौड़ाता हुआ मेरे पास आया, कर्ण-युधिष्ठिर संग्राम का विवरण दिया और महाराज युधिष्ठिर के कुशल-क्षेम से अवगत कराया। मैं और श्रीकृष्ण शीघ्रता से उनके शिविर में उपस्थित हुए।
घनघोर युद्ध के समय अचानक हम दोनों को एक साथ अपने शिविर में आया देख उन्हें लगा कि हम कर्ण-वध की सूचना देने उनके पास आए हैं। हमलोग कुछ बोलते, इसके पूर्व ही हर्षविभोर हो वे बोल पड़े –
“कृष्ण और धनंजय! तुम दोनों का स्वागत है। आज कर्ण ने मेरा जो अपमान किया है, तुमने उसका बदला ले लिया। वह दुष्ट जो दुर्योधन को सदा अधर्म और अनीति की शिक्षा देता रहा, मुझे क्षत्रिय-धर्म की शिक्षा दे रहा था। जब मैं उसके बाणों से घायल हुआ, तो अर्जुन, मैं तुम्हें ही याद कर रहा था। मेरा अपमान करने वाले मनुष्य को तुम जीवित नहीं छोड़ सकते, ऐसी तुम्हारी प्रतिज्ञा है। तुम मुझे विस्तार से बताओ कि उस महान धनुर्धर का वध तुमने कैसे किया?
मैं और श्रीकृष्ण अवाक् एक-दूसरे का मुख देखने लगे। मैंने उन्हें बताया कि आज के युद्ध में अभी तक कर्ण से मेरा सामना नहीं हुआ था। संशप्तक वीरों का संहार कर मैं उनकी कुशलता जानने के लिए उनके शिविर में आया था। मैं अभी कुछ और बोलता कि सदा शान्त और संयम में रहने वाले युधिष्ठिर उबल पड़े। उनकी क्रोधाग्नि – जिसकी अनुभूति मुझे पहली बार हुई थी, भड़क उठी, “तात! तुम जब कर्ण का वध नहीं कर सके, तो भयभीत होकर भीम को अकेला छोड़ यहां भाग आए। वाह! क्या भ्रातृ धर्म निभाया! तुम्हारे कारण आज मुझे सूतपुत्र से अपमानित होना पड़ा। धिक्कार है मेरे जीवन को, तुम्हारे पराक्रम को और तुम्हारे गाण्डीव को। यदि तुम कर्ण का सामना करने की शक्ति नहीं रखते, तो जो योद्धा अस्त्र-बल में तुमसे बड़ा हो, उसे ही अपना गाण्डीव दे दो।”
घोर निराशा और सार्वजनिक अपमान के समय विवेकशील पुरुष भी अपना संयम खो बैठता है। जहां प्रतिकार करना था, वहां तो सहनशील बन गए और जहां स्नेह था, वहां प्रतिकार कर बैठे। महाराज युधिष्ठिर ने क्षण भर के लिए अपना विवेक खो दिया था। मेरे विवेक ने भी मेरा साथ छोड़ दिया। मेरे अंग-अंग कठोर होने लगे, आंखें क्रोध से लाल हो उठीं। पलक झपकते दायां हाथ अनावृत खड्ग की मूठ पर चला गया। मैं कुछ अप्रिय करने का निर्णय ले चुका था। भुजाएं बार-बार फड़क रही थीं, तलवार उठते-उठते रुक जाती थी। मेरी ललवार का लक्ष्य युधिष्ठिर की ग्रीवा थी।
श्रीकृष्ण की आंखें सबकुछ भांप गईं। कुछ अनिष्ट हो, इसके पूर्व ही मेरा दाहिना हाथ पकड़ चन्द्रिका सी शीतल वाणी में मुझे संबोधित किया –
“किरीटी! तुम्हारे हाथ में तलवार क्यों? यहां तो मेरे और अग्रज युधिष्ठिर के अतिरिक्त कोई दूसरा दृष्टिगत नहीं हो रहा। हम दोनों तुम्हें उतने ही प्रिय हैं, जितना तुम हम दोनों के हो। कोई शत्रु दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा, फिर इस खड्ग का क्या प्रयोजन? तुम्हारे मुखमण्डल के चढ़ते-उतरते भाव यह इंगित कर रहे हैं कि अवश्य ही तुमने कोई अप्रिय निर्णय लिया है। स्पष्ट बताओ कि तुम्हारे क्या विचार हैं?”
अत्यधिक तनाव के कारण मेरी वाणी स्पष्ट नहीं हो पा रही थी परन्तु अपने उपर संयम रखते हुए मैंने उत्तर दिया –
“माधव! मैंने यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि जो भी व्यक्ति मेरे गाण्डीव का अपमान करेगा, मैं उसका सिर काट लूंगा। ज्येष्ठ भ्राताश्री ने अज्ञानतावश या ज्ञात होने पर भी, चाहे जैसे हो, मेरे गाण्डीव का अपमान किया है। मैं इन्हें क्षमा नहीं कर सकता।”
एक अजीब सा सूनापन पूरे शिविर में पसर गया। तनाव और क्रोध के वशीभूत हो मैंने अपने अप्रिय निर्णय की घोषणा तो कर दी लेकिन अन्तर्मन व्यथित हो उठा। एक अजीब सिहरन पूरे शरीर में व्याप गई। नियति भी कैसे-कैसे खेल कराती है? एक भाई अपने सहोदर का ही वध करेगा। इससे तो अच्छा था, हम वन में ही रहते।
युधिष्ठिर स्तब्ध थे और मैं मौन। श्रीकृष्ण ने वातावरण की नीरवता भंग करते हुए ओजपूर्ण वाणी में मुझे संबोधित किया –
“पार्थ! समझ में नहीं आता कि तुमने इतना अप्रिय निर्णय क्यों लिया? तुम जो प्रतिज्ञा-धर्म की रक्षा करने चले हो, उसमें निष्पाप जीव हिन्सा का पाप है। यह बात तुम्हारे जैसे धार्मिक व्यक्ति की समझ में क्यों नहीं आती? जो युद्ध न करता हो, शत्रुता न रखता हो, रण से विमुख होकर भागा जा रहा हो, शरण में आया हो, हाथ जोड़कर खड़ा हो या असावधान हो – ऐसे मनुष्य का वध करना घोर अधर्म है। किसी को मृत्युदण्ड देने की, हिंसा के अतिरिक्त और भी शास्त्रसम्मत युक्तियां हैं। मुझे खेद है कि उच्च कुल में जन्म लेने के बाद भी, इस क्षेत्र में तुम्हारा ज्ञान शून्य है।”
मृत्युदण्ड! वह भी बिना हिंसा के! धर्मराज भी ऐसे दण्ड से अनभिज्ञ थे। महर्षि व्यास और महात्मा विदुर ने भी कभी इसकी चर्चा नहीं की थी। पता नहीं कैसी अबूझ बातें कह जाते हैं, यशोदानन्दन। उनकी गूढ़ बातों का रहस्य समझने में असमर्थ मैंने उन्हीं से आग्रह किया –
“केशव! अपने अग्रज को मारने के पूर्व मैं सौ बार स्वयं मरना पसंद करूंगा। अल्पज्ञान और प्रतिज्ञा के वशीभूत हो जो अप्रिय निर्णय लिया, उसके लिए जीवन भर खेद और कष्ट रहेगा। कृपाकर ऐसी युक्ति बताएं जिससे मेरी प्रतिज्ञा भी झूठी न हो और धर्मराज के जीवन पर आंच भी न आए।”
“पार्थ! सम्माननीय पुरुष संसार में जबतक सम्मान पाता है, तबतक ही उसका जीवित रहना माना जाता है। जिस दिन उसकी अपनी गलती से उसके छोटे द्वारा उसका बहुत बड़ा अपमान हो जाय, उस दिन उसकी जीते जी मृत्यु हो जाती है। अपने से श्रेष्ठ जन को उसकी स्थापित भूल के कारण ‘आप’ के स्थान पर ‘तू’ कहकर संबोधित करना, बिना हिंसा के मृत्युदण्ड देने के समतुल्य है। अतः उनके लिए ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो। इस तरह तुम्हारी प्रतिज्ञा भी पूरी हो जाएगी और धर्मराज का अहिंसक वध भी हो जाएगा। पश्चात तुम महाराज से क्षमा मांग लेना। युधिष्ठिर चूंकि अत्यन्त क्षामाशील हैं, अतः तुम्हें निश्चय ही क्षमा कर देंगे।”
मेरा स्वर लड़खड़ा रहा था। धर्मराज के लिए ‘तू’ शब्द का प्रयोग करने में कितनी यंत्रणा हो रही थी मुझे, यह मैं ही अनुभव कर सकता था। मेरी दृष्टि पृथ्वी पर टिकी रह गई। ‘तू’ संबोधन के साथ दुहरा दिए मैंने वही वाक्य जो कुछ समय पूर्व कर्ण ने कहे थे। उस पल युधिष्ठिर मर्माहत हुए थे और इस पल कितने शान्त और अविचल थे! मैंने छिपी दृष्टि से देखा, वे मुस्कुराते हुए मुझे देख रहे थे। मानव मन भी विचित्र है – सबके लिए अलग-अलग मापदण्ड रखता है।
मैंने प्रतिज्ञा की रक्षा हेतु ज्येष्ठ भ्राता का अपमान तो कर दिया, लेकिन आत्मग्लानि का बोझ सहा नहीं जा रहा था। जिस भाई को गुरु, पिता और साक्षात धर्म के अवतार के रूप में सदैव पूजा, आज उसी का प्रयासपूर्वक अपमान! ‘तू’ शब्द का प्रयोग तो कभी दुर्योधन ने भी युधिष्ठिर के लिए नहीं किया था।
मैं दारुण मानसिक यंत्रणा से गुजर रहा था। मुझे अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा। मैं अब एक पल भी जीवित रहना नहीं चाह रहा था। मेरा दाहिना हाथ पुनः खड्ग की मूठ पर गया। मैं आत्म हनन करने को उद्यत हुआ।
श्रीकृष्ण ने पुनः लक्ष्य किया, आगत अनर्थ को। शीघ्रता से मेरा हाथ पकड़ नए निर्णय का कारण पूछा।
“मैं एक पल भी जीना नहीं चाहता। देवता स्वरूप अपने अग्रज का अपमान करने के बाद, मुझे जीवित रहने का अधिकार रहा ही नहीं। अपने इस शरीर को नष्ट कर डालूंगा। महाराज युधिष्ठिर का अपमान करने वाले को जीवित न रहने देने की प्रतिज्ञा मैंने पूर्व में कर रखी है। मुझे अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने दें, केशव।” मैंने रुदन के स्वर में कहा।
मेरी आंखों में आखें डाल श्रीकृष्ण ने पुनः व्यवस्था दी –
“पार्थ! ज्येष्ठ भ्राता का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें आत्मघात करने से मिलेगा। आत्मश्लाघा, आत्मघात से भी बड़ी होती है। जो पाप आत्महत्या करने से होता है, उससे भी बड़ा पाप अपनी ही प्रशंसा करने से होता है। तुम अपने मुख से अपने गुणों का बखान करो। ऐसा करने से यह समझा जाएगा कि अपने हाथों से अपना वध स्वयं तुमने कर लिया।”
मैंने जीवन में पहली बार वह कृत्य किया जो इसके पूर्व कभी नहीं किया था – आत्मश्लाघा यानि आत्मघात।
“पिनाकधारी भगवान शंकर को छोड़, दूसरा कोई मेरे समान धनुर्धर नहीं। मेरी वीरता का अनुमोदन उन्होंने भी किया है। यदि मैं चाहूं, तो चराचर जगत को एक ही क्षण में नष्ट कर डालूं। मुझे युद्ध में कोई जीत नहीं सकता। सभी दिशाओं के राजाओं का संहार मैंने किया है।”
मैं बिना किसी उत्साह के आत्मश्लाघा कर रहा था। लेकिन युधिष्ठिर को यह अमृत वाणी लग रही थी। उनकी आंखों की चमक बढ़ती जा रही थी। लेकिन मैं आत्मग्लानि के बोझ तले दबा जा रहा था। मैंने उनके चरण पकड़ लिए, अपने मुख से निकले कटु वचनों को क्षमा करने के लिए विनती की।
जिन नेत्रों में अभिमन्यु की मृत्यु पर भी कुछ ही अश्रु छलके, आज उन्हीं से सावन भादों की झड़ी! युधिष्ठिर ने मुझे सीने से लगा लिया। उनके तप्त अश्रुकण मेरे ललाट को गीला कर रहे थे। मुझे हृदय से क्षमादान दिया। दोनों भुजाएं उठाकर श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर के सम्मुख मैंने प्रतिज्ञा की –
“आज सूर्यास्त के पूर्व महारथी कर्ण का वध अवश्य करूंगा। अगर मैं ऐसा नहीं करूं तो महाराज युधिष्ठिर का अनुज होने की पात्रता खो दूं।”
“तथास्तु,” श्रीकृष्ण ने कहा।
दारुक ने अश्वचर्या करके नन्दिघोष के चारों अश्वों को स्वस्थ कर दिया था। उसने रथ के पार्श्व भाग में श्रीकृष्ण के भी दिव्यास्त्र रखे। हमारे प्रस्थान के पूर्व ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया। महाराज युधिष्ठिर से आज्ञा और आशिर्वाद ले हमने युद्धभूमि को प्रस्थान किया।
क्रमशः