संविधान में अपरिभाषित है धर्मनिरपेक्षता

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धर्मनिरपेक्षता

 

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 धर्मनिरपेक्षता

प्रमोद भार्गव

 

भारतीय समाज के बहुलतावादी धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप को ध्यान में रखकर संविधान में धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की नींव रखी गई थी, लेकिन उसमें अलग-अलग पहचानों को मिटाकर सबको एकरूप करने का उल्लेख नहीं है। हालांकि न्यायपालिका ने इस बारे में स्थिति साफ कि है, बावजूद उसके फैसले की भिन्न-भिन्न तरह से की जा रही व्यख्या से और अस्पष्टता आ गई है। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जम्मू विष्वविद्यालय के 16वें दीक्षांत समारोह में इस आशय के विचार व्यक्त करते हुए देश की सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया है कि वह धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावादी संस्कृति को स्पष्ट करे। उपराष्ट्रपति ने ठीक ही कहा है कि धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है। क्योंकि इस परिप्रेक्ष्य में समय-समय पर न्यायमूर्तियों की विरोधाभासी टिप्पणियां आती रही हैं,जो किसी एक निश्चित निष्कर्श पर जाकर नहीं ठहरतीं।

यह सही है कि भारत का धर्मरिपेक्षस्वरूप भारतीय संविधान का बुनियादी आधार है। लेकिन इस अभिव्यक्ति की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है। इसलिए जब भी गीता या रामायण के नैतिक मूल्यों और चारित्रिक शुचिता से जुड़े अंशों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात आती है तो वामपंथी दल व अन्य बुद्धिजीवी इन पहलों को लोकतंत्र के मूलभूत संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के विरूद्ध बताने लगते हैं। दरअसल स्वतंत्रता के बाद से ही केवल हिंदू और हिंदुओं से जुड़े प्रतिरोध को ही धर्मनिरपेक्षता मान लेने की परंपरा सी चल निकली है। जबकि वास्तविकता तो यह है कि मूल संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द था ही नहीं। यह शब्द तो आपातकाल के दौरान 42वां संविधान संशोधन लाकर ‘समाजवादी धर्मनिरपेक्ष संविधान अधिनियम 1976’ के माध्यम से जोड़ा गया था।

आपातकाल के बाद जब जनता दल की केंद्र में सरकार बनी तो यह सरकार 43वां संशोधन विधेयक लाकर सेक्युलरिज्म मसलन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या स्पष्ट करना चाहती थी, प्रस्तावित प्रारूप में इसे स्पष्ट करते हुए वाक्य जोड़ा गया था, ‘गणतंत्र शब्द जिसका विशेषण ‘धर्मनिरपेक्ष’ है का अर्थ है, ऐसा गणतंत्र जिसमें सब धर्मो के लिए समान आदर हो, ’ लेकिन लोकसभा से इस प्रस्ताव के पारित हो जाने के बावजूद कांग्रेस ने इसे राज्यसभा में गिरा दिया था। अब यह स्पष्ट उस समय के कांग्रेसी ही कर सकते हैं कि धर्मों का समान रूप से आदर करना धर्मनिरपेक्षता क्यों नहीं है ? गोया, इसके लाक्षणिक महत्व को दरकिनार कर दिया गया। शायद ऐसा इसलिए किया गया जिससे देश में सांप्रदायिक सद्भाव स्थिर न होने पाए और सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता को अनंतकाल तक वोट की राजनीति के चलते तुष्टिकरण के उपायों के जरिए भुनाया जाता रहे। साथ ही इसका मनमाने ढंग से उपयोग व दुरूपयोग करने की छूट सत्ता-तंत्र को मिली रहे।    जहां तक गणतंत्र शब्द का प्रश्न है तो विक्टर ह्यूगो ने इसे यूं परिभाषित किया है, ‘जिस तरह व्यक्ति का अस्तित्व उसके जीने की इच्छा की लगातार पुष्टि है, उसी तरह देश का अस्तित्व उसमें रहने वालों का परस्पर तालमेल नित्य होने वाला जनमत संग्रह है।’ दुर्भाग्य से हमारे यहां परस्पर तालमेल खंडित हो रहा है। अलगाव और आतंकवाद की अवधारणाएं निरंतर देश की संप्रभुता व अखण्डता के समक्ष खतरा बनकर उभर रही हैं। राष्ट्रवाद और भारत माता की जय को भी संकीर्ण और अल्प-धार्मिक दृष्टि से देखा जा रहा है। जवाहरलाल नेहरू विवि में जिस तरह से देश के हजार टुकड़े करने के नारे लगाए गए और उन्हें अभीव्यक्ति की आजादी के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक ठहराने की कोशिशें हुईं,उस संदर्भ में लगता है कि धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आजादी के मायने राष्ट्रद्रोह को उकसाने और उन्हें सरंक्षित करने के उपाय साबित हो रहे हैं। लिहाजा इनकी परिभाषाएं स्पष्ट होना प्रासंगिक है।

इन हालातों से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान जिस नागरिकता को मान्यता देता है, वह एक भ्रम है। सच्चाई यह है कि हमारी नागरिकता भी खासतौर से अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक समुदायों में बंटी हुई है। लिहाजा इसका चरित्र उत्तरोत्तर सांप्रदायिक हो रहा है। हिंदु, मुसलमान और ईसाई भारतीय नागरिक होने का दंभ बढ़ रहा है। जबकि नागरिकता केवल देशीय मसलन भारतीय होनी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है,क्योंकि भारत में 4635 कुल समुदाय हैं। जिनमें से 78 प्रतिशत समुदायों की न सिर्फ भाषाई एवं सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक श्रेणियां भी हैं। इन समुदायों में 19.4 प्रतिशत धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। गोया,धर्मनिरपेक्षता की स्पष्ट व्याख्या जरूरी है। हालांकि आजादी के ठीक बाद प्रगतिशील बौद्धिकों ने भारतीय नागरिकता को मूल अर्थ में स्थापित करने का प्रयास किया था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के फेर में मूल अर्थ सांप्रदायिक खानों में विभाजित होता चला जा रहा है,जिसका संकट अब कुछ ज्यादा ही गहरा गया है।

वर्तमान में हमारे यहां धर्म निरपेक्ष शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के शब्द ‘सेक्युलर’ के अर्थ में हो रहा है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध आॅक्सफोर्ड शब्द-कोष में इसका अर्थ ‘ईश्वर’ विरोधी दिया है। भारत और इस्लामिक देश ईश्वर विरोधी कतई नहीं हैं। ज्यादातर क्रिश्चियन देश भी ईसाई धर्मावलंबी हैं। हां, बौद्ध धर्मावलंबी चीन और जापान जरूर ऐसे देश हैं, जो धार्मिक आस्था से पहले राष्ट्रप्रेम को प्रमुखता देते हैं। हमारे संविधान की मुश्किल यह भी है कि उसमें धर्म की भी व्याख्या नहीं हुई है। इस बाबत न्यायमूर्ति राजगोपाल आयंगर ने जरूर इतना कहा है, ‘मैं यह जोड़ना चाहता हूं कि अनुच्छेद 25 और 26 में धार्मिक सहिष्णुता का वह सिद्धांत शामिल है, जो इतिहास के प्रारंभ से ही भारतीय सभ्यता की विशेषता रहा है।’ इसी क्रम में उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘धर्म शब्द की व्याख्या लोकतंत्र में नहीं हुई है और यह ऐसा शब्द है, जिसकी निश्चित व्याख्या संभव नहीं है।’ संभवतः इसीलिए न्यायालय को कहना पड़ा कि ‘गणतंत्र का धर्मनिरपेक्ष स्वभाव राष्ट्रनिर्माताओं की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए और इसे ही संविधान का आधार माना जाना चाहिए।’ अब यहां संकट यह भी है कि भारत राष्ट्र का निर्माता कोई एक नायक नहीं रहा। गरम और नरम दोनों ही दलों के विद्रोह से विभाजित स्वतंत्रता संभव हुई। नतीजतन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को किसी एक इबारत में बांधना असंभव है। इसीलिए श्रीमद्भागवत गीता में जब यक्ष धर्म को जानने की दृष्टि से प्रश्न करते हैं तो धर्मराज युधिष्ठिर का उत्तर होता है, ‘तर्क कहीं स्थिर नहीं हैं, श्रुतियां भी भिन्न-भिन्न हैं। एक ही ऋषि नहीं है, जिसका प्रमाण माना जाए और धर्म का तत्व गुफा में निहित है। अतः जहां से महापुरूष जाएं, वही सही धर्म या मार्ग है।’

वैसे भारतीय परंपरा में धर्म कर्तव्य के अर्थ में प्रचलित है। यानी मां का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, स्वामी का धर्म और सेवक का धर्म, इस संदर्भ में कर्तव्य से निरपेक्ष कैसे रहा जा सकता है। सेक्युलर के लिए शब्द-कोश में पंथनिरपेक्ष शब्द भी दिया गया है, पर इसे प्रचलन में नहीं लिया गया। कर्तव्य के उपर्युक्त पालन के निहितार्थ ही संविधान के 42वें संशोधित अधिनियम 1976 के अंतर्गत ‘बुनियादी कर्तव्य के परिप्रेक्ष्य में एक परिच्छेद संविधान में जोड़ा गया है। अनुच्छेद 51ए (ई) में कहा गया है, ‘ धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय और भेदों से ऊपर उठकर सौहार्द्र और भाईचारे की भावनाएं बनाए रखना और स्त्रियों की गरिमा की सुरक्षा करना हरेक भारतीय नागरिक का दायित्व होगा।‘

1973 में न्यायमूर्ति एच.आर.खन्ना ने भी धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए कहा था ‘राज्य, धर्म के आधार पर किसी नागरिक के साथ पक्षपात नहीं कर सकता।‘ न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया की परिभाषा उपरोक्त परिभाषाओं से पृथक है। उन्होंने कहा था, ‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध नहीं हो सकता।’ जाहिर है, धर्मनिरपेक्षता को हथियार मानते हुए जो लोग इसका दुरूपयोग बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध करते हैं, उन पर नियंत्रण का संकेत इस टिप्पणी में परिलक्षित है। संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर ने भी संविधान को धर्मनिरपेक्ष नहीं माना था, क्योंकि वे जानते थे कि एक बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुभाषीय देश के चरित्र में ये प्रवृत्तियां उदार एवं एकरूप नहीं हो सकती हैं। नतीजतन धर्म, जातीय, भाषाई और क्षेत्रीय पहचानों को मिटाना एकाएक संभव नहीं है।

फिर हमारे यहां सामंतशाही और विदेशी हमलावरों के सत्ता पर काबिज हो जाने के चलते स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता की भी एक सुदीर्घ परंपरा रही है, जो सामान्य से लेकर विशिष्ट नागरिकों को भी चंचल व विचलित बनाए रखने का काम करती है। फलस्वरूप धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में राजनीतिक दलों ने भी अपनी-अपनी परिभाषाएं गढ़ लीं। कांग्रेस की परिभाषा है, ‘सर्व-धर्म, समभाव’ और भाजपा की है, ‘न्याय सबको, पक्षपात किसी को नहीं।’ इसी तर्ज पर नरेंद्र मोदी ने चुनावी नारा दिया, ‘सबका साथ, सबका विकास।’ लेकिन इन परिभाषाओं के भावार्थ राजनेताओं के चरित्र में शुमार दिखाई नहीं देते। इसीलिए गांधी जी ने कहा था, ‘वास्तव में धर्म आपके प्रत्येक क्रियाकलाप में अंतर्निहित होना चाहिए।’ ऐसा होगा तो एक साझा उद्देश्य, साझा लक्ष्य और साझा भाईचारा दिखाई देगा। देश में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए इन्हीं उपायों की जरूरत है। लेकिन विधि सम्मत दायरे में धर्मनिरपेक्षता को एक निश्चित इबारत में परिभाषित करना जरूरी है। क्योंकि इसका लचीलापन दुरूपयोग का सबब बन रहा है। वैसे भी न्यायालय का आदेश दो टूक होना चाहिए। आदेश में यदि ऐसे विकल्प या पर्याय छोड़ दिए जाएंगे, तो उनका लचीलापन आदेश को सही अर्थों में परिभाषित ही नहीं होने देगा ? लिहाजा अपरिभाषित चले आ रहे धर्मनिरपेक्ष शब्द को परिभाषित करना जरूरी है।

 

 

1 COMMENT

  1. देश का कोई धर्म नहीं होता. और सभी धर्मावलम्बियों को देश से उतना ही प्रेम करना चाहिए.

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