—विनय कुमार विनायक
आत्मा ही अपना है बाकी बेगाना
आत्मा ‘मैं हूं’ नहीं है
मैं तो अहं है अहंकार का सृजनकर्ता
आत्मा का अर्थ आत्मन स्वयं होता
अस्तु ‘मैं’ का अहं त्याग कर
सिर्फ ‘हूं’ होना होता आत्म चेतना
यह ‘हूं’ ही है परम चेतना परमात्मा
ये ‘मैं’ के आवरण से घिरी आत्मा
मैं के अहंकार भाव से मुक्त होकर
आत्मा ही परमात्मा को प्राप्त होती
‘मैं’ और ‘मेरा’ भाव से मुक्त होना
वस्तुत: आत्म चेतना प्राप्त करना है
ये मैं कर्मबंधन जन्म-जन्म से मिला
वासना और कामना का संचयन है
वासना में वास ना करना भाव रखना
कामना काम ना करना कर्म त्यागना
कर्मफल से मुक्त होना मोक्ष पाना है
संचित ज्ञान बंधन के कारण जीवात्मा
जीव यानि पशु योनि ग्रहण करता
अपनी संचित वासना कामना के अनुसार
पूर्व से इच्छित मातृ कोख पा लेता
ये एक योनि त्याग की अंतिम घड़ी में
आत्मा जिस योनि की मनोकामना करती
वैसे इच्छित माता पिता द्वारा सिंचित
मातृगर्भ में जीव का जीवन पा लेना है
कोई मां-पिता की इच्छा से देह नहीं पाता
बल्कि अपनी वासना कामना से कोख चुनता
यानि जीवात्मा अपने माता पिता की
आत्मा से पृथक आत्मा की सत्ता होती
अस्तु प्रत्येक आत्मा निपट अकेली होती
कर्मफल भोगने हेतु देह कारा में बंधकर
कर्मफल भोगकर चैतन्य होकर आत्मा
परम तत्व परमात्मा में विलीन हो जाती!
—विनय कुमार विनायक