विनोद सिल्ला
वो
भिगो लेता है शब्दों को
स्वार्थ की चाशनी में
रंग जाता है अक्सर
अवसरवादिता के रंग में
वो धार लेता है
मौकाप्रसती के आभूषण
ओढ़ लेता है आवरण
आडम्बरों का
नहीं होता विचलित
रोज नया रंग बदलने में
आगे बढ़ने के लिए
रख सकता है पाँव
अपने से अगले के गले पर
सहयोगी उसके साथी नहीं
संसाधन मात्र हैं
उपयोग के बाद
जो किसी काम के नहीं
बड़ा हुनरमंद है वो