समाजवादी अब महागठबंधन के सहारे

bsp-spमृत्युंजय दीक्षित
यह सत्ता से चिपके रहने का नशा ही कहा जायेगा कि अब जो समाजवादी पहले अकेले चलो की जिद पर अड़े थे वही समाजवादी अब महागठबंधन के रास्ते पर निकल पड़े हैं।सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को अच्छी तरह से पता चल गया है कि विगत हदिनों समाजवादी पार्टी व परिवार में जिस प्रकार से कलह जनता के सामने आ गयी है व लगातारकसी न किसी प्रकार से सामने आ रही है उसके कारण समाजवाद की छवि को आम जनता के बीच में गहरा आघात लग चुका हैं। समाजवादी विकास रथयात्रा व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की ओर से जो नित नयी घोषणायें की जा रही हैं उसके सहारे जनता के बीच प्रचार के बिना ही आगामी चुनावों मेें फतह हासिल करने के लिए जो मनौवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने की जरूरत थी उससे अब सपा काफी पीछे निकल चुकी है। समाजवादी मुखिया को आज सबसे बड़ी चिंता मुस्लिम समाज व मतदाता की है। वह अच्छी तरह से जानते हैं कि इस समय मुस्लिम मतदाता के मनमस्तिष्क में सपा की कलह अवश्य छा गयी है। वह लाख न चाहकर बसपा सहित अन्य दूसरे मुस्लिम मत पर जीवित रहने वाले दलों की ओर झुक सकते हैं । साथ ही वह यह भी जानते हैं कि यदि सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल अलग- अलग होकर पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ते हैं तो इससे धर्मनिरपेक्ष दलों के मतों का जबर्दस्त विभाजन होगा और जिसका लाभ साम्प्रदायिक ताकतें बड़ी आसानी से उठा ले जायेंगी। वह यही नहीं होने देना चाहते , फिर चाहे भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए चाहे कितनी बड़ी कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़ जाये।
महागठबंधन की बात को आगे बढ़ाने का सिलसिला सबसे पहले कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने सपा मुखिया मुलायम सिंह से मुलाकात करके दे दिया। सपा के रजत जयंती समारोह में भी महागठबंधन के आकार का छोटा स्वरूप दिखलायी पड़ा। इस बार समाजवादी दल के साथ महागठबंधन करने के लिए सबसे अधिक रालोद नेता अजित सिंह उत्साहित हैं तथा इसके लिए उन्होंने सपा नेता मुलायम सिंह को अपना नेता भी मान लिया है। रजत जयंती समारोह के दौरान राजद नेता लालू प्रसाद ने भाजपा के खिलाफ खूब जमकर जहर उगला और दावा किया कि उप्र में भी बिहार की तर्ज पर महागठबंधन ही चुनाव जीतेगा। लालू यादव ने इस अवसर पर उप्र में चुनाव नहीं लड़ने और केवल सपा के पक्ष में ही चुनाव प्रचार करने का ऐलान भी कर दिया। वैसे भी उप्र में वोटों के समीकरण के हिसाब से राजद का कोई अस्तित्व भी नहीं हैं। बसपा फिलहाल अकेले ही चुनाव मैदान में जा रही है। पूर्वांचल से कौमी एकता दल का विलय समाजवादी दल में हो ही चुका है। बिहार से जनता दल (यू) के नेता शरद यादव और के सी त्यागी समारोह में शामिल हुए लेकिन मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की दूरी की वजह से अभी महागठबंधन की बिसात सिरे नहीं चढ़ सकी है। महागठबंधन को लेकर सियासी बैठकों का दौर और गुणाभाग तो चालू हो गया है लेकिन अभी कई चिंताएं और दुश्वारियां बरकरार हैं।
उप्र की राजनीति में महागठबंधन तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कांग्रेस पूरी तरह से इसे स्वीकार न कर ले। अभी महागठबंधन को लेकर कांग्रेस में ही संशय केे बादल पैदा हो गये हंैे। उप्र कांग्रेस के अधिकांश बड़े नेता प्रशांत किशोर की सपा मुखिया के साथ मुलाकात को पचा नहीं पा रहे हैें। कांग्रेस के अंदरखाने से चर्चा है कि उप्र कांग्रेस के कई बड़े दिग्गज नेता पीके की इस पहल से काफी असहज व नाराज हो गये हैं। वह पीके को कांग्रेस से निकलवाना भी चाह रहे हैं। उप्र में कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद की दावेदार श्रीमती शीला दीक्षित को पीके ओर सपा मुखिया की मुलाकात से काफी हैरानी हो रही है। वहीं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजबब्बर, प्रदेश प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने भी खुला विरोध दर्ज कराया है।महागठबंधन की चर्चा के बीच यह भी खबरें हैं कि पीके कांग्रेस को कम से कम 129 सीटें दिलवाना चाह रहे हैं जबकि सपा ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। यह भी खबरें हैं कि सपा के नेता कांग्रेस को 60 से अधिक सीटें देने के पक्ष में नहीं दिखलायी पड़ रहे हैं।
महागठबंधन से कांग्रेसी नेताओं को सबसे अधिक चिंता होनी ही चहिये। कांग्रेस के नेता अभी तक जनता के बीच राजा बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे अब उन्हें केवल सहयोगी बनने के लिए कहा जा रहा है। सबसे बड़ा धर्मसंकट कांग्रेस के समक्ष पैदा होने जा रहा है कि उसने 27 साल यूपी बेहाल का जो नारा दिया था उसका क्या होगा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जो रोड शो और खाट चर्चा के माध्यम से समा बांधने का काम किया था उसका क्या होगा। महागठबंधन में शामिल होने के लिए जो दल चर्चा कर रहे हैं उनके सामने सबसे बड़ी समस्या जिताऊ उम्मीदवारों की सामने आने वाली हैं। जो कार्यकर्ता व नेता टिकट की लालसा में अपने दलों के हित में अच्छा काम रहे थे वे भी निराश होकर पीछे बैठ गये हैं। तथा कुछ ने तो अपना नया रास्ता भी खोजना शुरू कर दिया है। कांग्रेस के नेता पी एल पुनिया भी अकेले चलने की ही वकालत कर रहे हैं।
समाजवादी दल की ओर से महागठबंधन के प्रयासों पर बसपा नेत्री मायावती हमलावार हैं और वह कहती हैं कि सपा ने चुनाव से पहले ही हार मान ली है। उनका कहना है कि सपा मुखिया की ओर से महागठबंधन की बात करना छलावा है। वर्ष 2012 में सपा ने अकेले चुनाव लड़ा था और बहुमत की सरकार बनायी थी। अब 5 साल की सरकार चलाने के बाद सपा अपनी हार को निश्चित देख रही है इसलिए महागठबंधन की बात कह रही है। परिवर्तन यात्रा पर निकले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी महागठबंधन का मजाक बना रहे हैं तथा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दावा कर रहे हैं कि यदि सब लोग मिलकर चुनाव लड़ जाये तब भी इस बार भाजपा की ही सरकार बनेगी। वास्तव में यह महागठबंधन किसी मजाक से कम नजर भी नहीं आ रहा है। अभी तो समाजवादी दल और परिवार में यह तय होना बाकी है कि यह गठबंधन भाजपा के खिलाफ है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के खिलाफ है। महागठबंधन में शामिल बहुत से दलों का चुनावी गणित बहुत मजबूत नहीं है। महागठबंधन का दूसरा सबसे बड़ा पैरोकार जद यू का तो एक फीसदी वोट भी नहीं रह गया है। वहीं रालेाद नेता अजित सिंह केवल इसके सहारे अपनी वंशवाद की परम्परा वाली राजनीति को ही जीवित रखना चाह रहे हैं। वह कमसे कम 50 सीटों की उम्मीद लगाकर बैठे हैं लेकिन अंतिम घोषणा होने पर उन्हें भी केवल 15 सीटों पर ही संतोष करना पड़ सकता है। आज महागठबंधन में शामिल होने वाले सभी नेता अपनी राजनीति के सुनहरे पायदान से काफी नीचे जा चुके हैं । यह सभी नेता जनता की ओर से नकारे जा चुके हैं। लेकिन सत्ता का नशा कुछ ऐसा होता है कि वह कभी नहीं उतरता। महागठबंधन के सभी बुजुर्ग नेता अभी भी प्रधानमंत्री बनने चाहत रख रहे है। जिसमें सबसे आगे स्वयं सपा मुखिया मुलायम सिंह हैं। उनके पस पूर्व में कम से कम दो बार पीएम बनने का अवसर आया लेकिन वह उनके हाथ से निकल गया। वहीं उन्होनें 2014 में जबर्दस्त आस लगा रखी थी लेकिन वह आस भी धूलधूसरित हो गयी। अब वह 2017 में महागठबंधन के सहारे फिर से सत्ता में वापसी का मार्ग खोज रहे हैं तथा फिर आगे चलकर 2019 में इसी गठबंधन के सहारे फिर से पीएम पद की दावेदारी करने की योजना बना रहे हैं। इस बीच सपा मुखिया के समाजवाद की कलई पूरी तरह से खुल गयी है। यह साफ पता चल गया है कि वह समाजवादी नहीं अपितु साम, दाम, दंड, भेद के सहारे सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं। उनके भाई शिवपाल यादव कह भी चुके हैं कि वह भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए हरसंभव कदम उठाने से परहेज नहीं करेंगे। क्या लोहिया जी से समाजवादियों ने यही सीखा है। राजनैतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि यह महागठबंधन स्वयं सपा के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता हैं। यह उप्र हैं।
एक ओर जहां समाजवादी महागठबंधन का प्रयास तेज कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर छह वामपंथी दलोें ने अपना गठबंधन बना भी लिया है लेकिन यह दल सपा, बसपा के साथ नहीं जायेंगे। यह सभी दल मिलकर अब इन सभी दलों के खिलाफ हुंकार भरने जा रहे हैं। एक प्रकार से इस बार उप्र की राजनीति का वातावरण सतरंगी होने जा रहा है। प्रदेश की राजनीति पल- पल बदल रही है। पीके की पैरवी के कारण राहुल संदेश यात्राएं ठंडी पड़ चुकी हैंे। अभी कई मुददांे पर रूख साफ नहीं हो पा रहा है। अभी तो सपा में बसे बड़ी बात यह है कि टिकट कौन बांटेंगा? चुनाव घोषणा पत्रों का स्वरूप कैसा होगा? चुनावों के बाद नेता कौन बनेगा? वैसे भी गठबंधन के प्रयासों में काफी देरी हो चुकी है। मनोवैज्ञानिक प्रचार में सपा पीछे चली गयी है। यही चिंता सपा मुखिया के चेहरे पर साफ दिखलायी पड़ रही है। सपा मुखिया के राजनैतिक दावपेंच के चलते मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की ईमानदार छवि को भी आघात पहुंचा हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,676 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress