‘समाज में बढ़ता पाखण्ड व ठगी और अन्धकारनाशक वेदविद्या’

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 VEDAS      हमारे देश के पतन के कारणों में मुख्य कारण था विद्या का ह्रास तथा अन्धविश्वासों व पाखण्डों की वृद्धि। वर्तमान में देश में जो उन्नति देखी जा रही है वह विद्या की कुछ उन्नति व अन्धविश्वासों व पाखण्डों में कुछ कमी के कारण है। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने देश की अवनति के कारणों को जाना था। इसी कारण उन्होंने विद्या अर्जित कर अज्ञान, पाखण्ड व अन्धविश्वासों का खण्डन किया। अन्धविश्वास, पाखण्ड व अज्ञान का सम्बन्ध हमारी हृदयस्थ भावनाओं से है। यह मन व हृदय का स्वाभाविक गुण है कि विद्याहीन हृदय, ज्ञान व विवेक के अभाव में, शीघ्र ही अज्ञान व अन्धविश्वासों से ग्रस्त हो जाता है। ऐसा ही हमारे देश में महाभारत काल के बाद हुआ। स्थितियां बिगड़ती चली गईं। यहां तक कि हम परतन्त्र हो गये और अपना सर्वस्व गवां बैठे। ईश्वर की कृपा से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द का भारत भूमि पर आगमन हुआ। उन्होंने अज्ञान व अन्धविश्वास के स्वरूप तथा उसके मूल कारणों को समझा और योगबल व वेदज्ञान से सम्पन्न होने के कारण अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द सरस्वती की आज्ञा व प्रेरणा से इनका खण्डन किया जिससे इन अन्धविश्वासों का नामो-निशान देश से ही नहीं अपितु अखिल विश्व से मिट जाये। वह आंशिक रूप से अपने कार्यों में सफल हुए। इसका कारण यह भी है कि विद्या के प्रकाश से सम्पन्न सुधारक व्यक्ति सभी के दिलों तक पहुंच कर उनको अपनी नेक नियती का परिचय नहीं दे सकता। इसके विपरीत जो स्वार्थी लोग होते हैं वह ऐसे सच्चे देशहितैषी समाज सुधारकों का विरोध कर लोगों को गुमराह करने में सफल होते हैं। यही हमें महर्षि दयानन्द के जीवन व उनके बाद के समय में देखने को मिल रहा है। आज भी बहुतायत लोग अज्ञान व अन्धविश्वासों से ग्रस्त हैं व नई पीढ़ी भी निरन्तर अविद्या, अज्ञान व अधंविश्वासों से ग्रसित हो रही है। नये-नये भगवान व अवतार पैदा हो रहे हैं जिनकी मूर्तियां स्थापित कर व बड़े-बड़े मन्दिर बनाकर पूजा की जा रही है। आर्यसमाज व हम चाह कर भी इसके निवारण में सफल नहीं हो पा रहे हैं। महर्षि दयानन्द ने शायद कहीं लिखा भी है कि यह तो ईश्वर का कार्य है। हमें तो हमसे जहां तक बन पड़़े, मनसा, वाचा व कर्मणा सत्य ज्ञान व सत्य व्यवहार का प्रचार करना है। यही ईश्वर व वेदों की आज्ञा भी है और यही धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का आधार भी है। उन्होंने स्वयं विश्व को इसकी राह प्रदर्शित की है।

 

आज हम सत्यार्थप्रकाश के एकादश समुललास का पाखण्ड व अन्धविश्वास का एक प्रेरणादाय व प्रभावशाली प्रसंग ले रहे हैं। ग्रन्थ लेकर महर्षि दयानन्द एक स्थान पर लिखते हैं कि देखो ! तुम्हारे सामने पाखण्ड मत बढ़ते जाते हैं, (जन्मना हिन्दू) ईसाई, मुसलमान तक होते जाते हैं। तनिक भी तुम से अपने घर की रक्षा और दूसरों का मिलाना नहीं बन सकता। बने तो तब जब तुम करना चाहो। जब तक कि वर्तमान और भविष्यत् में संन्यासी उन्नतिशील नहीं होते तब तक आर्यावर्त्त और अन्य देशस्थ मनुष्यों की उन्नति वृद्धि नहीं होती। जब विद्या वृद्धि के कारण वेदादि सत्यशास्त्रों का पठनपाठन, ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान सत्योपदेश होते हैं तभी देशोन्नति होती है। बहुत सी पाखण्ड की बातें तुम को सचमुच दीख पड़़ती हैं। जैसे कोई साधु, दुकानदार पुत्रादि देने की सिद्धियां बतलाता है तब उस के पास बहुत सी स्त्रियां जाती हैं और हाथ जोड़कर पुत्र मांगती हैं और बाबा जी सब को पुत्र होने का आशीर्वाद देतं हैं। उन में से जिसजिस के पुत्र होता है, उनमें वहवह स्त्रियां समझती हैं कि बाबा जी के वचन से ऐसा हुआ। जब उन से कोई पूंछे कि सूअरी, कुत्ती, गधी और कुक्कटी आदि के कच्चेबच्चे किस बाबा जी के वचन से होते हैं, तब कुछ भी उत्तर दे सकेगीं। जो कोई कहे कि मैं लड़के को जीवित रख सकता हूं तो आप ही क्यों मर जाता है?

 

कितने ही धूर्त लोग ऐसी माया रचते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान भी धोखा खा जाते हैं, जैसे धनसारी के ठग। ये लोग पांच-सात मिल के दूर-दूर देश में जाते हैं। जो शरीर से डीलडाल में अच्छा होता है उस को सिद्ध बना लेते हैं। जिस नगर वा ग्राम में धनाढ्य होते हैं उस के समीप जंगल में उस सिद्ध को बैठाते हैं। उसके साधक नगर में जाके अनजान बनके जिस किसी को पूछते हैं – तुमने ऐसे महात्मा को यहां कहीं देखा वा नहीं, वे ऐसा सुनकर पूछते हैं कि वह महात्मा कौन और कैसा है? साधक कहता हैबड़ा सिद्ध पुरूष है। मन की बातें बतला देता है। जो मुख से कहता है वह हो जाता है। बड़ा योगीराज है, उसके दर्शन के लिए हम अपने घर द्वार छोड़कर देखते फिरते हैं। मैंने किसी से सुना था कि वे महात्मा इधर की ओर आये हैं। गृहस्थ कहता है – जब वह महात्मा तुम को मिले तो हम को भी कहना। दर्शन करेंगे और मन की बातें पूछेंगे। इसी प्रकार दिन भर नगर में फिरते और प्रत्येक को उस सिद्ध की बात कहकर रात्रि को इकट्ठे सिद्ध-साधक होकर खाते पीते और सो रहते हैं। फिर भी प्रातःकाल नगर वा ग्राम में जाके उसी प्रकार दो तीन दिन कहकर फिर चारों साधक किसी एक-एक धनाढ्य से बोलते हैं कि वह महात्मा मिल गये। तुम को दर्शन करना हो तो चलो। वे जब तैयार होते हैं तब साधक उन से पूछते हैं कि तुम क्या बात पूछना चाहते हो? हमसे कहो। कोई पुत्र की इच्छा करता, कोई धन की, कोई रोगनिवारण की और कोई शत्रु के जीतने की। उन को साधक ले जाते हैं। सिद्ध साधकों ने जैसा संकेत किया होता है अर्थात् जिस को धन की इच्छा हो उस को दाहिनी ओर, जिस को पुत्र की इच्छा हो उसको सम्मुख और जिस को रोग-निवारण की इच्छा हो उस को बाईं ओर और जिस को शत्रु जीतने की इच्छा हो उस को पीछे से ले जा के सामने वाले के बीच में बैठाते हैं। जब नमस्कार करते हैं उसी समय वह सिद्ध अपनी सिद्धाई की झपट से उच्च स्वर से बोलता है क्या वहां हमारे पास पुत्र रक्खे हैं जो तू पुत्र की इच्छा करके आया है?’ इसी प्रकार धन की इच्छा वाले से क्या यहां थैलियां रक्खी हैं जो धन की इच्छा करके आया है? फकीरों के पास धन कहां धरा है?’ रोगवाले से क्या हम वैद्य हैं जो तू रोग छुड़ाने की इच्छा से आया? हम वैद्य नहीं जो तेरा रोग छुड़ावें, जा किसी वैद्य के पास परन्तु जब उस का पिता रोगी हो तो उस का साधक अंगूठा, जो माता रोगी हो तो तर्जनी, जो भाई रोगी हो मध्यमा, जो स्त्री रोगी हो तो अनामिका, जो कन्या रोगी हो तो कनिष्ठिका अंगुली चला देता है। उसको देख वह सिद्ध कहता है कि तेरा पिता रोगी है। तेरी माता, तेरा भाई, तेरी स्त्री, और तेरी कन्या रोगी है। तब तो वे चारों के चारों बड़े मोहित हो जाते हैं। साधक लोग उन से कहते हैं, देखो ! हम ने कहा था वैसे ही हैं या नहीं?

 

गृहस्थ कहते हैं – हां जैसा तुमने कहा था वैसे ही हैं। तुम ने हमारा बड़ा उपकार किया और हमारा भी बड़ा भाग्योदय था जो ऐसे महात्मा मिले। जिस के दर्शन करके हम कृतार्थ हुए।  साधकसुनो भाई ! ये महात्मा मनोगामी हैं। यहां बहुत दिन रहने वाले नहीं। जो कुछ इनका आशीर्वाद लेना हो तो अपनीअपनी सामर्थ्य के अनुकूल इन को तन, मन, धन से सेवा करो, क्योंकि सेवा से मेवा मिलती है। जो किसी पर प्रसन्न हो गये तो जाने क्या वर दे दें। सन्तों की गति अपार है। गृहस्थ ऐसे लल्लो-पत्तो की बातें सुनकर बड़े हर्ष से उनकी प्रशंसा करते हुए घर की ओर जाते हैं। साधक भी उनके साथ ही चले जाते हैं क्योंकि मार्ग में कोई उन का पाखण्ड खोल न देवे। उन धनाढ्यों का जो कोई मित्र मिला, उस से प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार से-जो साधकों के साथ जाते हैं उन-उन का वृतान्त सब कह देते हैं। जब नगर में हल्ला मचता है कि अमुक ठौर एक बड़े भारी सिद्ध आये हैं, चलो उन के पास। जब मेला का मेला जाकर बहुत से लोग पूछने लगते हैं कि महाराज ! मेरे मन का वृतान्त कहिये। तब तो व्यवस्था के बिगड़ जाने से चुपचाप होकर मौन साध जाता है और कहता है कि हम को बहुत मत सताओ। तब तो झट उसके साधक भी कहने लग जाते हैं कि जो तुम इन को बहुत सताओगे तो ये चले जायेंगे और जो कोई बड़ा धनाढ्य होता है वह साधक को अलग बुला कर पूछता है कि हमारे मन की बात कहला दो तो हम सच मानें। साधक ने पूछा कि क्या बात है? धनाढ्य ने उससे कह दी। तब उसकी उसी प्रकार के संकेत से ले जा के बैठा देता है। उसे सिद्ध ने समझ के झट कह दिया, तब तो सब मेला भर ने सुन ली कि अहो ! बड़े ही सिद्ध पुरूष हैं। कोई मिठाई, कोई पैसा, कोई रूपया, कोई अशर्फी, कोई कपड़ा और कोई सीधा सामग्री भेंट करता है। फिर जब तक उस तथाकथित सिद्ध पुरूष की मान्ता बहुत सी रहती है तब तक यथेष्ट लूट करते हैं और किन्ही-किन्हीं आंख के अन्धे गांठ के पूरों दो-एक को पुत्र होने का आशीर्वाद वा राख उठा के दे देता है और उस से सहस्रों रूपये लेकर कह देता है कि तेरी सच्ची भक्ति होगी तो तेरा पुत्र हो जायगा। इस प्रकार के बहुत से ठग होते हैं जिनकी विद्वान ही परीक्षा कर सकते हैं और कोई नहीं। 

 

इसलिए वेदादि सत्य विद्याओं का पढ़ना व सत्संग आदि करना होता है कि जिससे कोई किसी व्यक्ति को ठगाई में न फंसा सके तथा वह औरों को भी बचा सके। क्योंकि मनुष्य का मुख्य नेत्र विद्या ही है। बिना विद्या व शिक्षा के ज्ञान नहीं होता। जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाते हैं वे ही मनुष्य और विद्वान होते हैं। जिन को कुसंग है, वे दुष्ट पापी महामूर्ख होकर बड़े दुःख पाते हैं। इसी लिये ज्ञान को विशेष कहा है कि जो जानता है वही मानता है। वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षं तस्य निन्दां सततं करोति। यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य बिभर्ति गुंजाः।। यह किसी कवि का श्लोक है। जो जिस का गुण नहीं जानता वह उस की निन्दा निरन्तर करता है। जैसे जंगली भील गजमुक्ताओं को छोड़ गुंजा का हार पहिन लेता है वैसे ही जो पुरुष विद्वान, ज्ञानी, धार्मिक सत्पुरुषों का संगी, योगी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय व सुशील होता है वही धर्मार्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होकर इस जन्म और परजन्म में सदा आनन्द में रहता है।

 

हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द जी की उपर्युक्त पंक्तियों में निहित उनकी मानव हित की भावनाओं को जानकर स्वयं को स्वार्थी व पाखण्डी ठग साधुओं से न केवल स्वयं को बचायेंगे अपितु अपने निकटवर्ती अन्यों को भी बचायेंगे। हम पाठको को सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ पढ़ने की सलाह देंगे जिसमें सभी धार्मिक पाखण्डों की ज्ञान, युक्ति, तर्क व प्रमाणों सहित पोल खोली गई है तथा जिसको जानकर न केवल मनुष्यमात्र का हित होता है अपितु हमारा समाज व देश भी लाभान्वित होता है। जीवन में उन्नति का मन्त्र है – ‘‘असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय मृत्र्योमा अमृतं गमय।। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

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