यह तो जग जाहिर है कि प्रकारांतर से दुनिया का हर जागरूक शख्स अपनी सेहत के प्रति खुद ही सचेत हुआ करता है।चूँकि यह योगाभ्यास मानवीय सेहत के लिए एक बेहतरीन’योग क्रिया’ है साथ ही विभिन्न रूपों में यह पहले से ही सारे संसार में प्रचलित है ,इसलिए इसको एक खास दिन आधा -एक घंटा करने पर या रोज करने पर भी कहीं कोई विरोध नहीं है। जहाँ तक ‘ॐ ‘ के उच्चारण का सवाल है, तो यह भी केवल कुछ हिन्दुओं की थाती नहीं है। वह तो भारतीय उपमहाद्वीप में सदियों से पुरातन- प्राकृत शब्द ब्रह्म का द्वेतक रहा है। इसे जैन,बौद्ध सिख और शैव -शाक्त सभी ने अपनी सुविधानुसार अपनाया है। दरसल ॐ एक धर्मनिरपेक्ष ‘शब्द ‘ है। यह अल्लाह के उद्घोष या उच्चारण जैसा ही है। यह ‘शब्दब्रह्म’ ‘हिन्दू’ शब्द की व्युत्पत्ति से बहुत पूर्व का है। यह आर्यों से भी पूर्व का है।यह विश्व की धरोहर है। इसलिए जो लोग इसका विरोध या मजाक उड़ाते हैं वे भीसही नहीं हैं ।
वास्तव में कुछ लोग सोते-जागते ,उठते बैठते केवल विरोध की अपावन राजनीति के सिंड्रोम से पीड़ित हैं। इसी के वशीभूत वे इस बहुमूल्य योग का भी मजाक उड़ाते हैं । इसी तरह जो लोग योग को करने – कराने पर पागलपन की हद तक व्याकुल हैं वे भी पाखंडी हैं। क्योंकि उनके लिए योग महत्वपूर्ण नहीं बल्कि उसके बहाने अपनी कीर्ति और प्रचार ही महत्वपूर्ण है।ये लोग यह तो बखान करेंगे कि द्वारकाधीश भगवान कृष्ण बड़े योगी थे। किन्तु उनका निर्धन मित्र सुदामा क्यों योगी नहीं भिखारी था ? शायद इसका उत्तर इनके पास नहीं है ! खुद कौरव -पांडव भी योगी नहीं थे। यदि वे योगी होते तो कृष्ण को गीता में अर्जुन से यह नहीं कहना पड़ता कि हे अर्जुन ! ‘यह योग जो मैंने तेरे से कहा है वह बड़ा पुरातन और सीक्रेट है चूँकि तूँ मेरा अनन्य है इसीलिये मैंने तुझे ये योगविद्या प्रदान की है। इसीलिए -‘तस्मात् योगी भवार्जुन ‘!
देश और दुनिया में करोड़ों ऐंसे हैं जो अपने बचपन से ही योगाभ्यास करते आ रहे हैं। मैं खुद भी अपने स्कूली बचपन से ही योग -अभ्यास और शारीरिक व्यायाम करता आ रहा हूँ। इक्कीस जून हो या वाईस या कोई और दिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे तो यह आवश्यक रूप से करना ही है। जब रामदेव पैदा नहीं हुए होंगे तब भी मैं यह योगाभ्यास करता था।जब मोदी सरकार नहीं थी तब भी मैं यह बिलानागा करता था । वनाच्छादित गाँवों के खेतों में – खलिहानों में ,जंगलों में , ठंड-बरसात या गर्मीमें , कोई भी मौसम हो , कोई भी काल हो या कोई भी अवस्था हो ,मैं तो अल सुबह एक घंटा इस योगाभ्यास को करने की कोशिस अवश्य करता रहा । अब यदि केंद्र की मोदी सरकार यह योग करवा रही है तो भी मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि किसी कारण से इस सामूहिक आयोजन वे निरस्त भी करते [जैसे कि पता चला है कि खुद मोदी जी इस योगाभ्यास से पीछे हट गए हैं ] तो भी मुझे कोई समस्या नहीं है । मैं तब भी नित्य की भाँति इस फिर भी करता। क्योंकि यह मेरी निजी दिनचर्या का आवश्यक हिस्सा है। मुझे इस प्रयोजन के लिए किसी प्रकार के राजनीतिक पाखंड की जरुरत नहीं है ।
वे चाहे ‘योगी’ आदित्यनाथ जैसे बड़बोले नेता बनाम साधु हों ,योग में साम्प्रदायिकता ढूंढने वाले पक्ष-विपक्ष के पैरोकार हों या किसी खास नेता के चमचे हों, अपने योगाभ्यास के लिए मुझे किसी की दरकार नहीं।दुनिया के अधिकांस गैर राजनैतिक खाते -पीते ‘योगियों’ का मानना है कि प्रत्येक मनुष्य के बेहतरीन जीवन के लिए ‘योग क्रिया’ एक अचूक वैज्ञानिक उपादान है। यह योग-अभ्यास एक आदर्श जीवन शैली का उत्प्रेरक जैसा है। इसलिए भी मैं नित्य ही उसका यथा संभव अभ्यास करता हूँ। आइन्दा आजीवन यथासम्भव करता भी रहूँगा। यह महज इसलिए नहीं कि किसी नेता , बाबा या शासक का तुगलकी फरमान है ! यह सिर्फ इसलिए ही नहीं कि इक्कीस जून को कैमरों के सामने किये जाने का इंतजाम है। गरीबी ,भुखमरी ,शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों को तो यह योग अवश्य ही करना चाहिए। यह योगाभ्यास बल-विवेक और आरोग्यता का खजाना है।
हालाँकि मैं उनका भी विरोधी नहीं जो योग -ध्यान या प्राणायाम इत्यादि नहीं करते। मैं उनका भी विरोधी नहीं जिन्होंने २१ जून वाले आयोजन का बहिष्कार किया है । दरअसल इसमें समर्थन या विरोध का तो सवाल नहीं है। यह तो नितांत निजी अभिरुचि है।कुछ लोगों को गलतफहमी है कि इस योगाभ्यास को वैश्विक पहचान दिलाने और प्रतीकात्मक प्रदर्शन की शुरुआत के लिए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ,उनके प्रेरणा स्त्रोत स्वामी रामदेव जिम्मेदार हैं। लेकिन भले ही इस योग आयोजन के सार्वजनिक प्रदर्शन के पीछे किसी की कोई भी मनसा रही हो किन्तु अब तो वे बधाई के पात्र तो अवश्य हैं। क्योंकि दुनिया भर में इस भारतीय ‘योग’ का मान तो अवश्य ही बढ़ा है। इस योग ने खान-पान की शैली पर भी कुछ शोध भी किया है। इसीलिये अब खाते -पीते उच्च मध्यम वर्ग की चटोरी जुबाँ पर कुछ तो लगाम लगेगी। इसके अलावा योग करने वाला व्यक्ति मानवीय श्रम का कुछ महत्व भी समझेगा। चूँकि कि योग की पहली शर्त है शौच संतोष स्वाध्याय ,अतएव यदि वह पूँजीपति है या अपराधी है तो मेहनतकश इंसान के पसींने का कुछ तो सम्मान अवश्य करेगा !
वैसे भी पुरातन मनीषियों ने योगविद्द्या के रूप में संसार के शोषक वर्ग को तो अनेक बेहतरीन तोहफे दिये हैं किन्तु श्रम के सम्मान बाबत कुछ ख़ास नहीं कहा -सुना गया ! वेशक उनकी मंशा शायद यही रही होगी कि इस धरा पर जो चालू किस्म के मनुष्य होते हैं यदि वे योगाभ्यास करते हैं या करेंगे तो वे एक दिन नेक और अच्छे इंसान जरूर बनेंगे ! वशर्ते ‘योग’ की सही तश्वीर संसार के सामने हो। हालाँकि भारतीय उप महाद्वीप की अधिकांस मेधाशक्ति इसी क्षेत्र में भटकती रही है। भारतीय चिंतकों और अन्वेषकों की बिडंबना रही है कि ज्ञान-ध्यान-योग जैसी आध्यात्मिक उड़ानों में तो बेजोड़ रहे हैं। किन्तु मेहनतकश आवाम-के लिए ,किसानों के लिए और आर्थिक -सामाजिक विषमता के भुक्तभोगियों के लिए उनके पास एक शब्द नहीं था। यही वजह रही है कि हजारों सालों से भारत की आवाम के लिए केवल हल-बैल और मानसून ही जीवन के आधार बने रहे हैं। जब अंग्रेज -डच -फ्रेंच और यूरोपियन भारत आये तब ही यहाँ की जनता ने जाना कि संविधान क्या चीज है ? ‘लोकतंत्र’ किस चिड़िया का नाम है ? वरना योग और भोग तो इस देश की शोषणकारी ताकतों का क्रूरतम इतिहास रहा है।
भारत में रेल ,मोटर,एरोप्लेन,कम्प्यूटर ,इंटरनेट,टीवी,मोबाईल ,टेलीफोन ,स्कूटर ,कार ,पेट्रोलियम ,,इंजन से लेकर सिलाई मशीन -सब कुछ इन विदेशी आक्रान्ताओं और व्यापारियों की तिजारत का कमाल है। वरना हम भारतीयों के लिए रुद्राक्ष की माला ,त्रिशूल ,कमंडल और योग क्रिया ही शुद्ध देशी है । बाकी जो कुछ भी हमारे बदन पर है ,हमारे घर में है वो सब विदेशी है। हमारे अतीत के वैज्ञानिक चमत्कार तो केवल पुराणों और शाश्त्रों में पूजा के लिए सुरक्षित हैं। इसीलिये योगी आदित्यनाथ को याद रखना चाहिए कि उनके मतानुसार ‘यह सन्सार माया है -ये तमाम भौतिक संसाधन और वैज्ञानिक उपकरण मृगतृष्णा है’। अतः उन्हें इनके साथ -साथ राजनीति से भी सन्यास ले लेना चाहिये। उन्हें तो मृगछाला और दंड -कमंडल सहित योग-ध्यान में लींन रहना चाहिए। वे नाहक ही सांसारिक मायामोह में अपना तथाकथित परलोक बर्बाद कर रहे हैं।
जिस तरह मानव सभ्यता के इतिहास में पश्चिमी राष्ट्रों के चिंतकों – वैज्ञानिकों ने, न केवल राष्ट्र राज्यों की अवधारणा का आविष्कार किया ,अपितु कृषि,विज्ञान,रसायन,चिकित्सा,रणकौशल, तोप ,बन्दूक , बारूद सूचना एवं संचार ,अंतरिक्ष विज्ञान और स्थापत्यकला में चहुमुखी विकास किया है। ठीक उसी तरह दुनिया की हर कौम ने , हर कबीले ने , हर देश ने, हर समाज ने -अपने ‘जन समूह’ को अजेय ,स्वश्थ और पराक्रमी बनाने के लिए भी कुछ न कुछ सार्थक शारीरिक व्यायामों का भी विकाश भी किया है। भारत ,चीन और पूर्व के देशों के मध्य पुरातनकाल से ही इस शरीर सौष्ठव प्रक्रिया का उन्नत योग के रूप में आदान-प्रदान होता रहा है। चीन ,जापान ,कोरिया ,थाइलैंड इत्यादि में शारीरिक पौरुष को मार्शल आर्ट- कुंग-फु- जूड़ो -कराते- ताइक्वांडो और सूमो इत्यादि में निरंतर निखार होता रहा है।इसे ही बाद में आत्म रक्षार्थ बौद्ध भिक्षुओं ने परवान चढ़ाया।
om ki dhrmnirpekshta ka taatpry uski sravmanyta men nihit hai .
मेरा दृढ़ विश्वास है कि भारतीय श्रमिक की जितनी क्षति अथवा उनका जितना शोषण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की देखरेख में जनवादी साहित्यकारों, ट्रेड यूनियन संगठकों एवं वाम-पंथी कार्यकर्ताओं द्वारा हुआ है उतना संभवतः इनसे दूर रहते श्रम-जीवियों को कभी नहीं सहना पड़ता| आज जब योग जैसे उपक्रमों द्वारा भारतीय जनसमूह में श्रमिक अपने शारीरिक और मानसिक संतुलन को बनाए स्वस्थ रहना चाहते हैं तो वाम-पंथी यहाँ भी अपनी रोटियां सेंकने आ पहुंचे हैं भारतीय श्रमिकों के लिए यह लेख केवल जनवादी साहित्यकारों, ट्रेड यूनियन संगठकों एवं वाम-पंथी कार्यकर्ताओं की विफलताओं का प्रत्यक्ष उदाहरण है|
sahmat.
thanks…..to all ……!
Thanks Singh Sahib for auspicious comments !
एक संतुलित आलेख.
Thank you singh sahib … me or koshish karunga ki ‘saapeksh satya’ ke kareeb bana rahun ..!
आदरणीय़ —एक दृष्टिकोण उजागर करूंगा।
(१) इस अवसर को, सारे संसार में भारत के प्रति सद्भावना जगाने के अवसर के, रूप में देखा जाए।
(२) हमारी संस्कृति, संस्कृत, योगासन, ध्यानयोग, समन्वयी विचारधारा, इत्यादि के प्रशिक्षित और अनासक्त दूत भेजने का सर्वोत्तम अवसर यही है।
जो काम ऐसे सांस्कृतिक दूत कर सकते हैं, भारत के दूतावास भी नहीं कर सकते।
(३) भारत का सर्वोच्च योगदान यही है।
(४) अभियान्त्रिकी का प्रोफ़ेसर होते हुए, मुझे जिन व्याख्यानों के लिए बुलाया जाता है; वे प्रायः (अधिकाधिक) विषय, सांस्कृतिक होते हैं।
(५) परमात्मा की कृपासे सच्चा भारतीय शासन दिल्लीमें आ चुका है।
(६) जलनेवाले तो होंगे ही। विरोध भी होगा ही। बिना विरोध इस काम का सकारात्मक पक्ष भी उजागर कैसे होगा?
आज सांस्कृतिक प्रचारकों की तीव्र आवश्यकता है।
संसार को (क)योग (ख)ध्यान (ग)दर्शन (घ) संस्कृत (च) भारतीय संस्कृति ….. इत्यादि में लाभ दिखाई दे रहा है। (छ) संस्कृत के व्याकरण पर कंप्युटर चलता है।
(७) हमें संसार से निर्लिप्त हो, कट कर बैठना नहीं चाहिए। यह अवसर “न भूतो न भविष्यति” सिद्ध होगा।
आलेख की क्षमता वाली इस टिप्पणी की ओर भारत हितैषियों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
Aadrneey madhusoodan ji se sahmat hun …!
‘ ऊं ‘ धर्मनिरपेक्ष शब्द है तो वेद पुराण उपनिषद को मानने वाले लोग क्या हैं साहब ? श्रीराम जी से आग्रह है कि वे यह मान लें कि सम्पूर्ण सृष्टि में कुछ भी और कोई भी धर्मनिरपेक्ष नहीं है, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष तो हुआ ही नहीं जा सकता है / अपने देश में जिसे धर्मनिरपेक्षता कहा जाता रहा है, सो तो वास्तव में छद्म-साम्प्रदायिकता है साहब / -मनोज ज्वाला