-मनमोहन कुमार आर्य
ईश्वर क्या है? ईश्वर एक सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और निराकार सत्ता है जिसने इस सृष्टि को बनाकर धारण किया हुआ है। वह ईश्वर अनादि, सनातन व अविनाशी जीवात्माओं को अनादि काल से उनके जन्म-जन्मान्तर के कर्मों के अनुसार सुख व दुःख रूपी फल देने के लिए इस सृष्टि का निर्माण व पालन करता चला आ रहा है। ईश्वर ही जीवात्माओं के कर्मानसार भिन्न-भिन्न योनियों में उनके जन्म-मरण की व्यवस्था करता है। ईश्वर को जानने का सरल उपाय व साधन क्या है? इसका उत्तर हमें यह लगता है कि हम ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश और अन्य ग्रन्थों सहित दर्शन, उपनिषद व वेदों के भाष्यों को पढ़े। ऐसा करने से हम ईश्वर को जान सकते हैं। ईश्वर का ज्ञान हो जाने पर हम उसकी प्राप्ति के साधनों पर भी विचार कर सकते हैं। ईश्वर का ज्ञान हो जाने पर उसे प्राप्त करना सुगम हो जाता है। हमें केवल अपने कर्मों व आचरण को सुधारना होता है और ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधना करनी हाती है। साधना यही है कि हमें सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हुए ईश्वर के स्वरूप व उसके गुण, कर्म, स्वभाव पर अधिक से अधिक विचार व चिन्तन करना होगा। इसके साथ ही हमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी होगी जिसके लिए ऋषि दयानन्द ने सन्ध्या पद्धति की रचना की है। हम ऋषि के वेद भाष्य की सहायता से मन्त्रों के अर्थों को जान सकते हैं। सन्ध्या का अभ्यास करते हुए सन्ध्या के मन्त्रों के अर्थों को पढ़कर सन्ध्या कर सकते हैं। निरन्तर सन्ध्या का अभ्यास करने से हमें मन्त्र व उनके अर्थ कण्ठ हो जाते हैं और ईश्वर के सान्निध्य में बैठने से हमारे गुण, कर्म व स्वभाव भी सुधरने लगते हैं। हमें यह अनुभव होने लगता है कि ईश्वर हर पल व हर क्षण हमें व हमारे सभी कर्मो सहित हमारे मन के विचारों को भी देखता व जानता है। इसलिए हमें दुष्ट विचारों व दुष्ट कर्मों का त्याग करना पड़ता है। आरम्भ में कुछ कठिनाई हो सकती है परन्तु संकल्प के धनी लोगों को कुछ ही काल बाद इस कार्य में सफलता मिलने लगती है।
सन्ध्योपासना व ध्यान आदि साधनों को करते हुए हमें विद्वानों व दूसरे मनुष्यों से संगति का भी ध्यान रखना होता है। हमें ऐसे लोगों की ही संगति करनी चाहिये जो सच्चे आस्तिक व ईश्वरोपासक हों। जो लोग ईश्वरोपासक नहीं होते, उनकी संगति करने से हानि हो सकती है। हमें ईश्वरोपासना व स्वाध्याय आदि साधनायें करते हुए दूसरे अज्ञानी व धर्म से अपरिचित व्यक्तियों को भी ईश्वर के स्वरूप, गुण, कर्म, स्वभाव व उसकी उपासना की सही विधि का ज्ञान कराना होता है। यदि हम स्वयं ज्ञान प्राप्त कर लें परन्तु उसके अनुरूप उसका प्रचार न करें तो हमारा ज्ञान प्राप्त करना अर्थहीन सा हो जाता है। यह ऐसा ही होता है कि जैसे एक व्यक्ति चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन कर वैद्य या डाक्टर बन जाता है परन्तु वह रोगियों व दुःखयों को अपने ज्ञान का लाभ नहीं पहुंचाता। इससे उसका चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त करना न करने जैसा ही होता है। हम उपासना व ध्यान आदि के विषय में जितना भी जानते हैं, हमें उसका दूसरों में अवश्य प्रचार करना चाहिये। इससे अविद्या का नाश व कमी होने में सहायता मिलती है और ऐसा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। यह कर्तव्यबोध वेदाध्ययन और ऋषि दयानन्द जी के साहित्य को पढ़ने पर विदित होता है। ईश्वर की प्राप्ति में यज्ञ व योग भी साधन हैं। यज्ञ करने से वायु व आकाशस्थ जल की शुद्धि होती है जिससे मनुष्य व प्राणियों को सुख लाभ होता है। यज्ञ में वेदों के जिन मंत्रों का पाठ होता है उनसे हमें यज्ञ के लाभ ज्ञात होते हैं और स्वस्तिवाचन व शान्तिकरण आदि मंत्रों के पाठ से उसमें की जाने वाली प्रार्थनाओं के अनुरूप फल भी हमें ईश्वर से प्राप्त होते हैं। यज्ञ करने से हम स्वस्थ रहते हैं और हमारे रोग यदि कोई हों तो वह भी ठीक हो जाते हैं। अतः इन सभी लाभों को प्राप्त करने के लिए विवेकशील मनुष्यों को यज्ञ अवश्य करना चाहिये इससे हमें ईश्वर की निकटता प्राप्त होगी और यह निकटता ही ईश्वर की प्राप्ति होती है।
योग विधि में ईश्वर का ज्ञान प्राप्त कर नये -नियम आदि का सेवन करने के साथ आसन व प्राणायाम से शरीर को स्वस्थ व निरोग बनाया जाता है। संकल्प पूर्वक हम ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए उसका ध्यान करते हैं जिससे हम दिन प्रतिदिन ईश्वर के निकट पहुंचते जाते हैं। इस प्रक्रिया से मन की शुद्धि हो जाने और सभी एषणायें दूर हो जाने पर हमारा मन ईश्वर के ध्यान में स्थिर होकर रूक जाता है, विषयों की ओर भागता नहीं है। हमें ईश्वर के प्रकाश व ज्ञान सहित उसके गुणों की प्राप्ति होने लगती है। हम यदि ऋषि दयानन्द के आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों सहित योग व सांख्य दर्शनों के भाष्यों का अध्ययन करेंगे और उनसे प्राप्त ज्ञान का उपयोग भी ईश्वर की निकटता प्राप्त करने में करेंगे तो हम निरन्तर उसकी समीपता को प्राप्त करते जायेंगे। अभ्यास में विघ्न व बाधायें आना स्वाभाविक है। इसके लिये हम अपने निकट के उपासक व साधकों से समाधान प्राप्त कर सकते हैं। एक समय ऐसा आ सकता है कि जब हमारी समाधि लग जाये। यही हम सबके जीवन का लक्ष्य है और इसी से हम मोक्ष को प्राप्त करते हैं। समाधि लगना असम्भव नहीं है परन्तु इसके लिए वैराग्य भावों सहित अभ्यास में दृणता की आवश्यकता होती है। जिनके संकल्प दृण होते हैं, वह लाभ प्राप्त करते हैं, ऐसा विद्वानों से सुनते हैं।
हम यदि इन बातों पर ध्यान देंगे तो हम समझते हैं कि इससे ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा व भावना रखने वाले जिज्ञासुओं को कुछ लाभ अवश्य होगा और भावी जीवन में वह सफलतायें एवं कुछ सिद्धियां अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द और पूर्व के अन्य ऋषि व विद्वान इसी विधि से ईश्वर की प्राप्ति और साक्षात्कार किया करते थे। आईये, ईश्वर की उपासना करने का संकल्प लें और जीवन को पाप मार्ग से रोक कर ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर लगायें। ईश्वर भक्ति वा उपासना का मार्ग ऐसा मार्ग है कि इसका लाभ हमें इस जन्म व भावी जन्मों में भी प्राप्त होगा और इससे हमें सुख व शान्ति की प्राप्ति होगी। इस संक्षिप्त चर्चा को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।