स्पर्धा में खेल भावना हर हाल में बनी रहने दें

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भारत और पाकिस्तान के बीच रविवार, दिनांक 18 जून, 2017 को सम्पन्न चैम्पियन्स ट्राॅफी के फाईनल मुकाबले का सीधा प्रसारण टेलीविजन पर करोडों की संख्या में देखा गया । जैसा कि साफ तौर पर पूर्व में एकतरफा कयास लगाये जा रहे थे कि भारत ने अपने पुराने प्रतिद्धंदी पाकिस्तान को अक्सर पराजित किया है तो इस बार भी हरायेगा ही । अपनी टीम की सफलता के प्रति संभवतः अति-आत्ममुग्धता लिये हमारी क्रिकेट टीम ने अंततः पराजय का स्वाद चख ही लिया ।
जहाॅं तक मीडिया की उत्साहिता और उपयोगिता का सवाल है, उसने भी रोजमर्रा के सारे कामकाज को तिलांजलि देकर तथा चीख-चीखकर ऐसा प्रचारित किया कि मानो यह खेल न होकर एक खूनी जंग हो । लगभग सभी न्यूज चैनलों ने ऐसा प्रचारित किया, जैसे कि एक युद्ध छिड गया और आपातकाल लागू होने ही वाला है तथा उस आपातकाल के लागू होने के पूर्व ही उस पर काबू पा लिया गया है । ऐसा एक सप्ताह पूर्व से ही एहसास कराया जाता रहा । खैरियत तो इस बात की रही कि इस आत्ममुग्ध और स्व-जीत का श्रेय लेने के लिये कोई आगे नहीं आ पाया जो ताल ठोंककर यह कह सकता हो कि मेरी वजह से ही भारतीय क्रिकेट टीम विजयी होगी । यदि ऐसा कोई हीरो होता भी तो वह निस्संदेह अगले दिन जीरो हो ही जाता और बडी हास्यास्पद स्थिति बनती ।
वहीं दूसरी ओर एक तबका इस आस में अपनी जुबान की धार तेज करने में लगा था कि कोई तो मिले जो पाकिस्तान के पक्ष में जीत की बात अपनी हलक से बाहर निकाले और तत्काल उसका गला घोंटा जाय और इसी बहाने सुर्खियाॅं बटोरी जाएॅं । जुबानी जंग को तत्पर ऐसा तबका पाकिस्तानी जीत की उम्मीद लिये लोगों को घर-घर खोज रहा था ।
खेल प्रारंभ होते ही पहली पारी में पाकिस्तान की बैटिंग देखकर लोग तो चैंक गये तथा उनकी पारी समाप्त होते ही चंद लोग बाजी पलटती देख खेल के परिणाम की अटकलें लगाने लगे । भारत की पारी प्रारंभ होने के कुछ ओवरों बाद ही स्थिति साफ होने लगी और धडाधड टेलीविजन सेट बंद होने लगे । हमारे धुरंधर बल्लेधारी कागजी सिपाही मैदान पर एक के बाद एक ढेर होते चले गये ।
और अंत में जैसा कि नियम ही है, जो अच्छा खेलेगा वही जीतेगा, की तर्ज पर पाकिस्तान जीत गया । भारत का नागरिक होने के नाते हमारी क्रिकेट टीम के पराजित होने का दुख मुझे भी है, लेकिन खेल तो खेल है, उसमें हार-जीत लगी रहती है । लेकिन जिस स्तर की बैटिंग के लिये टीम इंडिया जानी जाती है, उस स्तर की बैटिंग ग्यारह में से मात्र एक खिलाडी ही दिखा पाया, यह बात बडी विस्मयकारी, खेदजनक, निंदनीय और अकल्पनीय है । इसका वह कारण हमें ढूंढना होगा, जिसे हममें से बहुत लोग जानते भी हैं ।
भारत में क्रिकेट की दीवानगी का अंदाजा अनेक उदाहरणों को देखकर लगाया जा सकता है । इसी प्रकार के उदाहरणों में सामाजिक मीडिया में घूम रहे एक वीडियो ने पूरे भारत का ध्यान अपनी ओर खींचा जिसमें 18 जून को लंदन में में भारत और पाकिस्तान के बीच खेले गये चैम्पियन्स ट्राॅफी के फाईनल मुकाबले में भारत का पलडा हल्का होते देख एक मासूम बच्चे की आॅंखों से गिरते आॅंसू और उस पर उसकी माॅं द्वारा किस तरह उसका उलाहना-मिश्रित मजाक उडाया गया । ऐसा इसलिये कि भारत में क्रिकेट को एक पर्व की तरह मनाया जाता है । जनता इन मुकाबलों को देखने के लिये अपनी दिनचर्या के अनेक महत्वपूर्ण कामकाज का त्याग और बलिदान भी करती है । यदि मुकाबला चित-परिचित टीमों के साथ हो तो उसका रोमांच कई गुना बढ जाता है ।
वास्तव में खेल में हार का दुख मनाना तब औचित्यपूर्ण होता है जब आपका खेल प्रतिद्धंदी की तुलना में बेहतर हो । जब आपका स्वयं का खेल स्तरीय न हो, उस पर केवल इसलिये हार का दुख मनाया जा रहा है, जैसे उस मुकाबले के खिताब पर आपका मौलिक अधिकार हो, बहुत हास्यास्पद है । उस पर औचित्य की छाप ऐसी लगाई जा रही है जैसे आप अधिकतर विजयी होते आये हैं तो इस बार भी पारंपरिक तौर पर ट्राॅफी आपको ही मिलेगी । आत्ममुग्धता के इस मिथक से बाहर आना बहुत जरूरी है । यदि टीमों को भावनात्मक आधार पर जीत मिलती तो भारत के पक्ष में ओलंपिक के पदकों का अंबार लग चुका होता ।

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