राष्ट्रपति चुनावः पसोपेश में विपक्ष

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प्रमोद भार्गव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की युगल जोड़ी ने एक बार फिर पूरी राजनीतिक जमाद और मीडिया को चैंकाया है। क्योंकि न तो विपक्ष और न ही पल-पल की खबर रखने वाला मीडिया यह अंदाजा लगा पाया कि भाजपा के दलित चेहरा और बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद राजग के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होंगे। एक अप्रत्याशित दलित चेहरा चुनकर भाजपा ने संपूर्ण विपक्ष को पसोपेश में डाल दिया है। कमोवेश ऐसी ही रणनीतिक चाल चलकर भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर आश्चर्य में डाला था। दरअसल इस समय भाजपा पशु हिंसा के परिप्रेक्ष्य में दलित अत्याचार से घिरी हुई है। नतीजतन विपक्ष भाजपा को दलित और मुस्लिम विरोधी होने के आरोप लगाकर सड़क से संसद तक घेरता रहा है। अब राष्ट्रपति जैसे पद के लिए दलित चेहरा उतारकर भाजपा ने विपक्ष का कमोवेश मुंह सिल देने का उपाय कर दिया है। राष्ट्रपति केआर नारायण के बाद कोविंद देश के दूसरे दलित राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं। भाजपा ने अब प्रमुख पदो के उम्मीदवार बनाने के लिए ऐसी रणनीति बना ली है, जो अनुमान और अटकलों से परे है। यदि ऐसा नहीं होता तो मोहन भागवत, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, थावरचंद गहलोत, सुषमा स्वराज, सुमित्रा महाजन और झारखंड की राज्यपाल द्रोपदी मुर्मु में से कोई एक होता। इनमें गहलोत दलित और मुर्मु आदिवासी हैं। शिवसेना के उद्धव ठाकरे ने मोहन भागवत और कृषि विज्ञानी एमएस स्वामीनाथन के नाम इस शर्त पर उछाले थे, कि यदि राजग इनमें से कोई एक व्यक्ति को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाता है तो शिवसेना का समर्थन रहेगा। लेकिन भाजपा ने घटक दल की इस शर्त को नकारते हुए कोविंद की उम्मीदवारी तय कर दी है। शिवसेना के अब क्या तेवर दिखाई देते हैं, यह मतदान के वक्त दिखाई देगा। हालांकि कोविंद की उम्मीदवारी तय होते ही वाईएसआर कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र समिति ने कोविंद को समर्थन देने की घोषणा कर दी है। जबकि टीआरएस तेलंगाना में भाजपा से टकराव लेती रही है। इस उम्मीदवारी के बाद कई राजनीतिक दलों की गति सांप-छछुंदर जैसी हो गई है। इसीलिए बसपा प्रमुख मायावती को कहना पड़ा है कि दलित उम्मीदवार का चयन अच्छा है, लेकिन उम्मीदवार गैर-राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए था। मायावती फिलहाल राजग को समर्थन के फैसले पर विचार कर रही हैं, उन्हें एनडीए के फैसले का इंतजार है। यूपीए ने यदि कोविंद से ज्यादा काबिल प्रत्याशी उतारा तो उनका समर्थन यूपीए को मिल सकता है। हालांकि सोनिया गांधी दलित या आदिवासी उम्मीदवार सामने लाकर कोई करिश्मा दिखा पाएंगी, ऐसा मुश्किल ही है। ले देकर उनके पास दलित चेहरे के रूप में दलित नेता जगजीवन राम की पुत्री और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार का नाम है। मीरा कुमार नौकरशाह रही हैं और उनके पति ब्राह्मण हैं। इस लिहाज से वे जन्म से दलित जरूर हैं, लेकिन सवर्ण प्रभाव से अछूती नहीं रह गई हैं। मीरा कुमार के अलावा कोई और प्रभुत्वशाली नाम आता है, तो यह और बात होगी ?  कोविंद की उम्मीदवारी से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कशमकश हैं। चूंकि नितीश कुमार रामनाथ कोविंद के बिहार के राज्यपाल होने के कारण उनकी कार्य संस्कृति से परिचित हैं, शायद इसीलिए उन्होंने उनकी उम्मीदवारी पर खुशी जताई है। बावजूद उनका कहना है कि समर्थन देने के मुद्दे पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राजग प्रमुख लालू प्रसाद यादव को राय बता दी है। यूपीए के घटक दल होने की बाध्यता के चलते ही नितीश ने समर्थन के मुद्दे पर कुछ स्पष्ट नहीं कहा है। वहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोविंद की उम्मीदवारी पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि कोविंद को सिर्फ इसलिए चुना गया, क्योंकि वे भाजपा दलित मोर्चा के अध्यक्ष रह चुके हैं। इसके मायने से लगता है कि यदि राजग यदि गैर-राजनीतिक दलित व्यक्ति को प्रत्याशी बनाता तो वह समर्थन दे सकती थी।

कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद इस फैसले को इकतरफा मानकर चल रहे है। ऐसी ही राय सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी की है। दरअसल देरी से उम्मीदवारी की घोषणा करना भाजपा की रणनीति का हिस्सा है, ताकि अंतिम दिनों में विपक्ष अपना प्रत्याशी चुनने की हड़बड़ी में कमजोर प्रत्याशी उतार दें। इसीलिए जब राजनाथ सिंह और वेंकैया नायडू ने सोनिया गांधी और येचुरी से राष्ट्रपति चुनाव पर आम सहमति बनाने की कवायद की थी, तब किसी नाम पर कोई चर्चा नहीं हुई थी। इसलिए आम सहमति विपक्ष को भ्रम में रखने की महज एक रस्म-अदायगी थी। पिछले दिनों विपक्ष ने राष्ट्रपति उम्मीदवार के मुद्दे पर जो एकजुटता दिखाने की कोशिश की थी, उसपर भाजपा ने दलित कार्ड खेलकर पानी फेर दिया है। 71 वर्षीय कोविंद राजनीति की उर्वरा भूमि रहे उत्तर प्रदेश के कानपुर-देहात के गांव परौंख से है। 1945 में जन्में कोविंद वाणिज्य एवं विधि स्नातक हैं। उन्होंने तीन बार भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा भी दी। तीसरे प्रयास में उन्हें सफलता भी मिली, लेकिन सरकारी आधिकारी बनकर एक सीमा में रहकर काम करना उन्हें रास नहीं आया। गोया, नौकरी नहीं की। करीब 5 दषक तक उच्च न्यायालय दिल्ली और सर्वोच्च न्यायालय में वकालात की है। केंद्र में जनता पार्टी की सरकार में 1977 से 1979 तक वे सरकारी वकील भी रहे हैं। इसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई के ओएसडी भी रहे। 1991 में कोविंद भाजपा में शामिल हुए और लोकसभा का चुनाव भी लड़ा लेकिन हार गए। उन्होंने 1998 से 2002 तक कोविंद भाजपा के दलित मोर्चा और अखिल भारतीय के अध्यक्ष भी रहे हैं। वे पार्टी के प्रवक्ता भी रहे, लेकिन सामाचार चैनलों की अनर्गल बहसों का कभी हिस्सा नहीं बने। 1994 से 2006 तक दो बार उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गए। 12 साल तक उच्च सदन के सदस्य एवं कई संसदीय समितियों के सदस्य भी रहे। इनमें अनुसूचित जाति, जनजाति कल्याण, सामाजिक न्याय एवं अधिकारता, कानून एवं न्याय और गृह मामलों की समितियां प्रमुख है। साफ है, कोविंद के पास संवैधानिक ज्ञान व अनुभव होने के साथ व्यापक सामाजिक समझ भी है। इसलिए भाजपा ने उन्हें उम्मीदवार बनाकर अवाम को ये संदेश दिया है कि भाजपा वंचित समाजों की पक्षधर पार्टी है। इस उम्मीदवारी में यह संदेश भी छिपा है कि भाजपा दलित आदिवासी और पिछड़े समाजों को लेकर संपूर्ण हिंदू समुदायों को अपने पक्ष में खड़ा करने की कोशिष में लगी है। हिंदू समाज का सवर्ण तबका ब्राह्मण, वैष्य, क्षत्रीय और कायस्थ तो कमोवेश उसके साथ है ही। ऐसे में समूचे विपक्ष के समक्ष ये चुनौती भी पेश आ रही है, कि वह मुस्लिमों के साथ किस हिंदू जाति से गठजोड़ करे कि उसे भविष्य में चुनावी सफलता हासिल हो ?  कोविंद की जीत में संशय कम ही है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए राजग के पास 47.5 प्रतिशत वोट हैं। इन मतों की संख्या 5.27 लाख बैठती है। जबकि प्रमुख विपक्ष संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और अन्य भाजपा विरोधी दलों के पास कुल 4.34 लाख वोट हैं। इस नाते राजग को बहुमत के लिए करीब 1 लाख अतिरिक्त मतों की जरूरत है। राजग प्रत्याशी की घोषणा होने के बाद वाईएसआर कांग्रेस और टीआरएस ने भाजपा को समर्थन की घोषणा कर दी है। इनके वोट राजग को मिल जाते है, तो कोविंद के मतों की संख्या 5,70,915 हो जाएगी। जबकि जीतने के लिए मतसंख्या 5,49,442 जरूरी है। राजग को अन्नाद्रमुक का भी समर्थन मिलने की उम्मीद हैं। इन मतों की संख्या 59,224 है। मत विभाजन के इन संभावित आंकड़ों से साफ है कि भाजपा ने जो तीर दागा है, वह ठिकाने पर बैठने जा रहा है।

 

 

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