वे अपने आप ही अपने चमचों से मालाएं छीन-छीन कर गले में डाले जा रहे थे, धड़ाधड़-धड़धड़। यह दूसरी बात थी कि अभी भी उन्हें अपनी जीत पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। मुझे भी नहीं हो रहा था कि अपना बिल्लू, बिल्लू राम से बी आर हो गये। गले में पड़ी मालाओं से उनका गला पूरी तरह भर चुका था पर एक जनता थी कि रूकने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसी अनहोनी पर रूकने का नाम लेता ही कौन है? जो कभी उनसे अपने पांव छुआने तक में भी अपनी बेइज्जती समझते थे वे ही उस क्षण उनके चरण छूकर उनकी चरण रज ले कृतार्थ होना चाह रहे थे। वाह रे लोकतंत्र! आह रे लोकतंत्र!!वे मेरे नजदीक आए। मंद मंद मुस्काए। रौब से बोले, ‘और मास्साब! कैसी रही?’
‘बधाई हो बी आर जी।’ मेरे हाथ न चाहते हुए भी बंध गए। लगा गले में जैसे कोई अंगूठा दे रहा हो। कल तक मुहल्ले वाले जिसका मुंह तक देखना नहीं चाहते थे आज मुहल्ले वाले थे कि एक दूसरे को पछाड़ते हुए उसे अपना थोबड़ा दिखाने के लिए एक दूसरे को धूल चटा रहे थे।
‘कोई काम हो तो एकदम कहना, मुर्गा नहीं बनाऊंगा।’ लगा अब सारे हिसाब बराबर करके रहेगा। मास्टर, बड़ा पीटा है तूने इसे पढ़ने के पीछे, पर बंदे ने भी न पढ़ने की कसम खा रखी थी, इसलिए नहीं पढ़ा तो नहीं पढ़ा। पढ़ता भी कैसे? झोले में किताबों के बदले बीड़ी के बंडल भरे रखता। सारा सारा दिन मुर्गा बना कर रखता था मैं भी तब इसको, सोचता था सुधर जाता। तब बेटे नहीं पता था कि यहां लोकतंत्र है, अपने समाज में एक दिन घूरे के दिन भी फिरते हैं और ये तो बिल्लू है।
हे भगवान! यही दिन देखने को रह गया था। ये दिन देखने से पहले उठा लेता तो भी तुझसे कोई शिकायत न करता। इस बहाने चार साल से लफंगई करते डाक्टरेट बेटे को करूणामूलक आधार पर नौकरी तो मिल जाती। मेरा क्या! मेरे तो भूखों रह कर न मुंह में दांत रहे न पेट में आंत। इसके तो बेचारे के अभी जवानी के दिन हैं।
जिन पुलिस वालों से वह पिछले कल तक छिपता फिरता था आज उन्हीं के कंधों पर हाथ धरे वह चीना चौड़ा किए मुस्कराता हुआ चले जा रहा था। और वे उसे सुरक्षा दे खुद को कृतार्थ करते दिन में ही प्रोमोशन के तारे देख रहे थे।
आगे अखबार वाले खड़े थे। कैमरे-पेन संभाले। जिसकी बातों पर उसके घरवालों तक को कभी विश्वास नहीं होता था उसी की बातों को छापने के लिए वे पेन कागज लिए सांसें रोके।
प्रेस वालों को देख उनके खासमखासों पलक झपकते घोड़े बन उनके लिए अपनी पीठ का मंच तैयार किया, वे उस पर खंखारते हुए यों चढ़े ज्यों सूरज अपने घोडो के रथ पर चढ़ता है। अपनी सदरी ठीक की, लफंगई चेहरे पर नेताई भाव लाए और शुरू हो गए, ‘हे मेरे शुभचिंतको! हे मेरे वोटरों! हे मेरे सपोर्टरों! ये जीत मेरी और केवल मेरी नहीं। लोकतंत्र की तो कतई भी नहीं। झूठे हैं जो जीतने के बाद यह कहते फिर रहे हैं कि उनकी जीत लोकतंत्र की जीत है। अवाम की जीत है। असल में ये जीत बांटे गए नोटों की जीत है। आपको नोटों की जरूरत थी तो मुझे वोटों की। पर फिर भी मैं आपका तहदिल से आभारी हूं कि नोट लेकर ही सही, आपने मुझे वोट तो दिया। नोट लेकर ही सही, आपने मुझे अपने काबिल तो समझा। कइयों के तो यहां जनता नोट भी मजे से डकार गई और वोट फिर भी नहीं दिया। मैं शुक्रगुजार हूं आप लोगों में बांटे गए कंबलों का, शुक्रगुजार हूं बांटी गई घड़ियों का, शुक्रगुजार हूं आप लोगों में बांटे आश्वासनों का। मैं शुक्रगुजार हूं बेचारी आचार संहिता का। यह जीत मेरी नहीं, मेरे द्वारा तोड़ी गई आचार संहिता की जीत है। आपने उसके आश्वासनों पर विश्वास किया जिसे खुद ही अपने पर विश्वास नहीं। मैं शुक्रगुजार हूं आप लोगों को पिलाई गई दारू का कि इसने मेरी लाज रख ली। वरन् आज तक तो साली ने बदनाम ही करवाया। अगर मैं झूठ बोल रहा होऊं तो वह शख्स सामने आए जो केवल और केवल ईमानदारी से जीता हो। जिसने जनता को पटाने के लिए झूठे आश्वासनों, कंबलों, दारू की बोतलों प्रेशर कुक्करों, घडियों वैगरह का सहारा न लिया हो। ईमानदारी के सहारे, समाज सेवा के सहारे, देशभक्ति के सहारे, जनता की सेवा के सहारे इस देश में हमें तो छोड़ो भगवान भी नहीं जीत सकता। विश्वास नहीं तो शर्त हो जाए। झूठे आश्वासनों के बिना, कंबलों, दारू की बोतलों के बिना, प्रेशर कुक्करों के बिना, घडियों वैगरह के बिना अगर भगवान यहां पर पंचायत का चुनाव लड़ने को भी तैयार हो जाए तो आपके जूते पानी पीऊं। इसलिए अब हम आपसे पांच साल बाद मिलेंगे। जय हिंद! जय भारत!! कह उन्होंने गले से सारी की सारी मालाएं निकाल कलुआ के गले में डालीं और बेताल हो लिए।
– डॉ. अशोक गौतम
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मजेदार व्यंग्य . आनंद आ गया . धन्यवाद.