योग बनाम सभ्यताओं का संघर्ष

(21 जून योग दिवस पर विशेष)
वीरेन्द्र सिंह परिहार
तमाम बाधाओं को पारकर पूर्ण बहुमत से प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने की सलाह दी थी। इसका समर्थन 177 से अधिक देशों ने किया, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और कनाडा जैसे देश थे। फिर 21 जून 2015 को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को पूरी दुनिया ने पुरजोर तरीके से मनाया, जिसमें 46 मुस्लिम देशों समेत विश्व के 192 देशों के दो अरब लोगों ने इस दिन योगासन किया। उन्मुक्त भोगवाद, आई.एस.आई. और तमाम मजहबी आतंकवादियों से त्रस्त दुनिया के बीच यह कुछ ऐसा ही था, जैसे घोर अमावस की रात में पूर्णिमा का चाॅद अचानक उग गया हो। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इराक में आतंकी धमकियों के बावजूद लोग योगासन करने एकत्र हुए तो मालदीव के लोगों ने नमाज को ही योगासन का रूप दे दिया। अमेरिका के टाईम्स स्कवायर पर 30 हजार लोगों ने एक साथ योग किया। इस प्रकार योग के माध्यम से पूरी दुनिया कहीं-न-कहीं एकजुट हुई। हिंसा और अशांति से भरी दुनिया में जब सभी भौतिक सुविधाओं के होते हुए भी मनुष्य तनावग्रस्त हों, उनमें संतोष और सुख की अनुभूति नहीं, परिवार और समाज बिखर रहे, मानवीय संबंध दूर छूटते जा रहे हों, भारत की यह देन निश्चित रूप से एक सार्थक परिवर्तन लाएगी। योग केवल शरीर को स्वस्थ्य रखने का माध्यम भर नहीं है, यह मानसिक स्थिरता और शांति पाने का सर्वोत्तम और अचूक तरीका है। इस वर्ष भी यमन और लीबिया छोड़कर पूरे विश्व के सभी देश पूरी सिद्दत के साथ योग दिवस मनाने जा रहे हैं।
दुनिया ने चाहे जितनी भौतिक प्रगति की हो, पर इससे उत्पन्न अशांति के कारण ही पिछले कई दशकों से दुनिया में भारत के योग गुरुओं की पूछ-परख काफी बेलता आ रहा है। फिर भी दुनिया की बहुत सी महान सभ्यताएँ जहां नष्ट हो गईं, वहीं भारतीय सभ्यता बनी रही। अंग्रेजों ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को कालवाह्य, सभ्यता से परे ही नहीं, मानवीय मापदण्डो के प्रतिकूल घोषित करना शुरू किया, भारतीय शास्त्रों, परंपराओं और विज्ञान को घटिया और अवैज्ञानिक प्रचारित करना शुरू किया और इस तरह से भारतीयता को कमजोर करने का भरपूर प्रयास किया।
अंग्रेजों के जाने के बाद भी दुर्भाग्य से वही अंग्रेजों की मानसिकता वाले लोग चूंकि अधिक संख्या समय देश में हावी रहे। इसी के चलते योग दिवस और सूर्य नमस्कार का विरोध हो रहा है। इन्होंने कुछ ऐसी मानसिकता बनाई है कि जो कुछ प्राचीन भारत का है, वह रहा है। उसे भी अपने अतीत में झांकना पड़ा रहा है। आखिर अरब जब दुनिया के सामुद्रिक-व्यापारिक मार्गों पर राज करते थे, तो भारत के ज्ञान-विज्ञान के बल पर ही। दुनिया में घूमने के लिए जो तकनीकें और विज्ञान चाहिए था, वह उन्होंने भारत से ही हांसिल किया था। इसलिए वे आज भी अपना बर्चस्व बनाए रखने की विफल चेष्टा में भांति-भांति के उपक्रम कर रहे हैं। ओम् के उच्चारण और सूर्य नमस्कार का निरर्थक विरोध भी उसमें से ही उपजा है। दुर्भाग्य यह कि आयुर्वेद की आवश्यकता तो सभी को है, परन्तु ईसाईयों को यह हर्बल नाम से और मुसलमानों को यूनानी नाम से चाहिए, उन्हें योग भी चाहिए, परन्तु किसी और नाम से चाहिए, ताकि उसे भारत की विरासत के साथ न जोड़ा जा सके। उन्हें हमारे अंक और बांकी अनुसंधान भी चाहिए, परन्तु उसके अनुसंधानकर्ता उनके लोग होने चाहिए। असलियत में सभ्यताओं का संघर्ष होनेवाला नहीं, हो रहा है।
योग दिवस इस संघर्ष को भारत को एक कदम आगे ले जाता है। योग की वैज्ञानिकता में ही उसकी श्रेष्ठता और स्वीकार्यता दोनों ही निहित है। मानव मात्र ही नहीं प्राणी मात्र का चिंतन करने वाली एकमात्र सभ्यता- भारतीय सभ्यता ही है। वसुधैव कुटुम्बकम में यही लक्ष्य है, सर्वेभवन्तु सुखिनः यहीं का आदर्श है, इसलिए मानवता का कल्याण भी इसमें निहित है। इसलिए आज योग दिवस के अवसर पर हम सब योग करें और किसी एक मत-पंथ में न बंधकर सम्पूर्ण मानवता का कल्याण करते हुए स्वस्थ्य तन, स्वस्थ्य मन के स्वामी तो बने ही। विश्व की तमाम विषमता, कटुता, हिंसा, वैमनस्यता को पीछे छोड़कर हम सब एक परिवार हैं- ऐसी धारणा की ओर प्रवृत्ति हो।

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