डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेताजी सुभाष बोस संबंधी सभी गुप्त दस्तावेजों को प्रकाशित करके नरेंद्र मोदी सरकार ने साहस का परिचय दिया है। इसमें साहस की कोई खास बात नहीं है लेकिन फिर भी मैं इसे साहस की बात क्यों कह रहा हूं? इसलिए कि पिछली सभी सरकारों ने सुभाष बाबू के मामले में दब्बूपन का परिचय दिया है। वे सुभाष बाबू की लोकप्रियता से डरी हुई थीं। उन्हें लगा कि यदि इन दस्तावेजों से यह सिद्ध हो गया कि 1945 में सुभाष बाबू का देहांत हो गया था तो उनकी शामत आ जाएगी, क्योंकि भारत की जनता में यह भ्रम फैला दिया गया था कि सुभाष बोस जिंदा हैं और जवाहरलाल नेहरु नहीं चाहते थे कि जीवित सुभाषचंद्र बोस भारत आ जाएं। यदि सुभाष बाबू आ गए तो भारत की जनता नेहरु को हटाकर उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी में बिठा देगी। सुभाष बाबू जिंदा हैं लेकिन वे गुमनामी में कहीं रह रहे हैं। सुभाष बाबू के रिश्तेदार अभी भी इस भ्रम में जी रहे हैं। वे 119 साल क्या, 200 साल बाद भी उनके नाम को भुनाते रहेंगे। दो जांच कमीशनों ने दो-टूक शब्दों में इस बात की पुष्टि की थी कि 1945 में एक हवाई दुर्घटना में सुभाष बाबू की मृत्यु हो गई थी।
लेकिन भारत सरकारें इतनी डरी हुई थीं कि वे सुभाष बाबू के अस्थि-कलश को भारत लाने के लिए तैयार नहीं थीं। उन्हें ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा के बावजूद इसलिए वह नहीं दिया गया कि उसे ‘मरणोपरांत’ कहा जाए या नहीं? अब इन दस्तावेज़ों ने इस तरह के सभी डरों को निरस्त कर दिया है। जहां तक नेहरु और सुभाष की आपसी प्रतिद्वंदिता का सवाल है, वही रही है लेकिन नेहरु की उदारता देखिए कि आज से साठ साल पहले वे सुभाष बाबू की बेटी अनिता शेंकल के लिए लगातार 6000 रु. प्रतिवर्ष भिजवाते रहे, जो आज के हिसाब से एक लाख रु. से भी ज्यादा है। जब अनिता पहली बार भारत आईं तो वे नेहरुजी के निवास, तीन मूर्ति हाउस, में रहीं। इसी प्रकार 1969 में जब मैंने काबुल के ‘हिंदू गूजर’ में सुभाष बाबू के गुप्त रुप से रहने की जगह खोज निकाली और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा तो उन्होंने बहुत खुशी जाहिर की और कहा कि वे स्वयं वहां जाकर उस मकान को स्मारक बनवाना चाहेंगी।
सुभाष बाबू के दस्तावेज़ों को राजनीति के दलदल में घसीटना बिल्कुल अनुचित है। मोदी पर यह आरोप लगाना गलत है कि इन दस्तावेज़ों को उन्होंने इसलिए खोला है कि नेहरु और गांधी को बदनाम किया जाए। सुभाष बाबू को नेहरु ने ‘युद्ध अपराधी’ कहा है, इस आशय का एक झूठा दस्तावेज भी प्रचारित किया जा रहा है। यदि नेहरु और इंदिरा सुभाष के विरोधी थे तो मैं पूछता हूं कि चौधरी चरणसिंह, मोरारजी देसाई, अटलबिहारी वाजपेयी ने उनके दस्तावेज क्यों नही प्रकट कर दिए? उनकी तो सुभाष बाबू से केाई प्रतिद्वंद्विता नहीं थी। इसका असली कारण यही रहा कि सरकारें डरी हुई थीं। मोदी को बधाई कि उन्होंने साहस किया। ये बात दूसरी है कि इसका लाभ प. बंगाल के चुनाव में मोदी को थोड़ा बहुत मिल सकता है।