भारत के पुनरुत्थान की सुबुगाहट का आख्यान

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मनोज ज्वाला
खबर है कि आगामी अप्रेल महीने में महाकाल की नगरी उज्जैन में एक ऐसा अद्भूत कार्यक्रम सम्पन्न होने जा रहा है, जिससे देश-दुनिया के लोग पृथवी के सर्वाधिक पुरातन-सनातन राष्ट्र ‘भारतवर्ष’ को ‘परम वैभव’ का अभीष्ट सिद्ध करने के निमित्त भारतीय पैरों पर पुनः खडा हो उठने का बौद्धिक उद्यम करते देख सकेंगे । भारत के पुनरुत्थान हेतु आयोजित होने वाले उस तीन दिवसीय बौद्धिक उद्यम की सुगबुगाहट सुनाई पडने लगी है , जो वास्तव में भारत की भवितव्यता के आकार लेने की आहट है । जी हां ! वही भवितव्यता, जिसे महर्षि अरविन्द व युग-ऋषि श्रीराम शर्मा आचार्य ने चेतना के सर्वोच्च स्तर पर जा कर अपनी-अपनी दिव्य-दृष्टि से काल के भावी प्रवाह का अवलोकन कर वर्षों पूर्व ही उदघाटित कर रखा है कि २१वीं सदी का प्रथम दशक बीतने के साथ ही भारतीय ज्ञान-विज्ञान का नवोन्मेष आरम्भ हो जाएगा और फिर आने वाले दशकों में भारत अपनी समस्त सांस्कृतिक-आध्यात्मिक समग्रता के साथ सारी दुनिया पर छा जाएगा तथा सम्पूर्ण विश्व-वसुधा का नेतृत्व करेगा । तो भारतीय ज्ञान-विज्ञान के उत्त्कर्ष-उन्नयन के जो मूल स्रोत पिछले दो सौ वर्षों से अंग्रेजों की षड्यंत्रकारी मैकाले शिक्षा-पद्धति की भीषण व्याप्ति और स्वातन्त्र्योत्तर भारत-सरकार की पश्चिमोन्मुख शिक्षा-नीति के कारण मृतप्राय हो कर तथाकथित आधुनिकता के गर्द-गुबार में ओझल हो चुके हैं, उन ‘स्रोतों’ के पुनर्जीवन एवं देश की चालू शिक्षा-पद्धति के भारतीयकरण हेतु एक अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन उज्जैन की धरती पर होने जा रहा है । भारत सरकार के केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संरक्षण में होने वाला वह आयोजन है- देश-दुनिया में अब तक बचे-खुचे अथवा नये खुले भारतीय गुरुकुलों का महा-सम्मेलन, जिसमें भारत की उस महान प्राचीन शिक्षा-पद्धति के आधुनिकीकरण, वैधानिकीकरण व वैश्वीकरण के बावत शासनिक सूत्र-समीकरण तैयार किये जाएंगे ,जो पद्धति अंग्रेजों द्वारा अवैध करार दिए जाने के कारण निस्तेज हो कर अप्रासांगिक हो चुकी थीं । इस हेतु उस कार्यक्रम में लगभग १२०० गुरुकुलों के संचालक, विद्यार्थी व उनके अभिभावक और गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति के चिन्तक-विचारक-विद्वत लोग भाग लेने वाले हैं । है न अद्भूत कार्यक्रम ! अद्भूत ही नहीं , ऐतिहासिक भी है वह आयोजन ; क्योंकि उससे भारत की नयी पीढियों की दशा-दिशा तय करने के बावत शिक्षा की उस भारतीय रीति-नीति-पद्धति को शासनिक आकार दिए जाने का प्रारुप निर्धारित होगा, जिसकी अपेक्षा १५ अगस्त १९४७ के बाद से ही देश के राष्ट्रवादी चिन्तकों व सांस्कृतिक संगठनों की ओर से की जाती रही है, किन्तु सरकार द्वारा इसकी उपेक्षा ही होती रही थी ।
मालूम हो कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय रहने के पश्चात भारत की राष्ट्रीय चेतना को उभारने-झकझोरने की तपश्चर्या में प्रवृत हो ब्रह्म-सत्ता से साक्षात्कार कर लेने के कारण महर्षि कहे जाने वाले अरविन्द घोष और युग-ऋषि कहे गए श्रीराम शर्मा आचार्य ने विभिन्न अध्यात्मिक प्रयोगों से यह प्रतिपादित किया हुआ है कि अन्न, मन, प्राण, विज्ञान, आनन्द, चित् व सत् नामक सात कोषों से निर्मित मानव-शरीर का मस्तिष्क, चेतना के विभिन्न आयामों से, जो हमारी भौतिक दुनिया की सीमाओं से परे हैं, जुड सकता है । पश्चिम का विज्ञान तो आर्थिक लाभ के लिए सिर्फ भौतिक जगत के उपयोग पर अत्यधिक जोर देता रहा है , जिसके कारण आध्यात्मिक जगत की सम्भाव्यता जो मानव शरीर तथा मस्तिष्क से गहराई के साथ जुडी है, लगभग पूरी तरह से उपेक्षित रही । पश्चिमी भौतिक विकासवाद से मनुष्य ने प्रथम चार कोषों को चेतन करने में सफलता पा ली है, किन्तु अन्तिम तीन कोषों को वह किस प्रकार चेतन करेगा, इस पर पश्चिम का पदार्थ विज्ञान मौन ही है । किन्तु भारत के योग-अध्यात्म विज्ञान से मनुष्य अपनी चेतना का श्री कृष्ण के अधिमानसिक स्तर तक विकास कर के सभी कोषों पर विजय प्राप्त कर सकता है । ऋषि-द्वय ने उपरोक्त सातों कोषों के पूर्ण विकास को लक्ष्य कर वेद-विदित ज्ञान के आलोक में “धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-लक्षी चतुष्पदी शिक्षा” का वैज्ञानिक दर्शन प्रस्तुत कर बताया कि इस प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति से व्यक्ति अपनी चेतना के विकास की ‘सुपर माइण्ड’ व ‘सुपर मैन’ अथवा ‘सुपरचेतन’ अवस्था प्राप्त कर न केवल तमाम भौतिक उपलब्धियां हासिल कर सकता है, बल्कि दैवीय शक्तियों से भी ओत-प्रोत हो सकता है । इन दोनों ऋषियों ने चेतना के सर्वोच्च स्तर से देश-दुनिया की भवितव्यताओं को अपनी-अपनी दिव्य-दृष्टि द्वारा देख रामकृष्ण परमहंस के जन्मोपरान्त १७५ साल की अवधि को युगसंधि-काल बताते हुए उसके समाप्त होते ही परमात्म-सत्ता की योजनानुसार भारत के सर्वांगीण पुनरुत्थान की बहुविध गतिविधियों के परिणाम आने और आगामी कुछ ही दशकों के पश्चात सनातन धर्म-आधारित भारतीय ज्ञान-विज्ञान को वैश्विक विस्तार मिलने की घोषणा कर रखी है ।
इसी परिप्रेक्ष्य में यह ध्यातव्य है कि वर्ष २०११ में उस संधि-काल की वह अवधि समाप्त हो चुकी है, जिसके बाद से भारत में राजनीतिक और विविध-विषयक परिवर्तनों का अभियान सा चल पडा है । यहां की ‘योग-विद्या’ के वैश्विक विस्तार को गति मिलने के बाद अब अभारतीय औपनिवेशिक शिक्षा-पद्धति की विदाई के लिए प्राचीन भारतीय गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति की पुनर्प्रतिष्ठा का आयोजन होने जा रहा है । आगामी २८ से ३० अप्रेल तक उज्जैन के ‘महर्षि सांदीपनि वेद-विद्या प्रतिष्ठान’ में प्रस्तावित उस कार्यक्रम का आयोजन भारतीय शिक्षण मण्डल नागपुर और संस्कृति मंत्रालय मध्यप्रदेश सरकार के द्वारा संयुक्त रुप से होने वाला है । तीन दिनों के उस पूरे कार्यक्रम की रचना इस तरह से की गई है कि उसमें आधुनिक भारत की राज-सत्ता से अब तक उपेक्षित रही प्राचीन भारतीय गुरुकुलीय शिक्षा को भारत की मुख्य धारा की शिक्षा-पद्धति में तब्दील करने की पूर्व-पीठिका तैयार हो जाए ताकि उसके आधार पर केन्द्र व राज्य की सरकारें नयी शिक्षा नीति का निर्धारण कर सकें । भारत के पुनरुत्थान को शासनिक आकार देने के बावत सुनियोजित उस गुरुकुल-सम्मेलन के सफल आयोजन हेतु वेद-विदित शिक्षा-दर्शन से युक्त देश-विदेश के १५ गुरुकुलों की एक समिति बनायी गई है । किन्तु उस पूरे कार्यक्रम का उत्प्रेरक आख्यान अहमदाबाद के सबरमति-स्थित हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नामक ‘गुरूकुलम’ से जुडा हुआ है, जो प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति की एक ऐसी अभिव्यक्ति है , जहां बच्चों को ‘महामानव’ और ‘अतिमानव’ बनाने का प्रयोग चल रहा है । उसके संचालक उत्तमभाई के अनुसार वहां बच्चों को ‘डिग्री-मुक्त’ शिक्षा के साथ जीवन जीने की विविध कलाओं और आत्मा के उच्चतर विकास की विशिष्ट विधाओं का प्रशिक्षण दिया जाता है । शुद्ध-अन्न-जल-दूध-घृत-वनस्पति- औषधि-युक्त सात्विक भोजन से निर्मल चित्त, शुद्ध मन व प्रखर बुद्धि-विवेक-विचार-सम्पन्न व्यक्तित्व-निर्माण का एक ऐसा प्रकल्प है वह गुरुकुलम, जिसके समक्ष हमारे देश की पश्चिमी अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति अत्यंत खोखली व एकांगी प्रतीत होती है । वहां बच्चे भाषा-साहित्य गणित-फलित-इतिहास-भूगोल व विज्ञान में ही नहीं, बल्कि वेद-उपनिषद, स्मृति-पुराण, योग-सांख्य, गीता-वेदांत, ज्योतिष-वास्तु, कृषि-गोपालन, संगीत-नृत्य, भाषण-प्रबंधन में भी पारंगत हैं । वहां के बच्चों को पढाया नहीं जाता है, बल्कि उनके भीतर की प्रतिभा-क्षमता-चेतना को उभारा जाता है । शिक्षा की यही सर्वोत्त्कृष्ट पद्धति है कि बच्चों के मन-मस्तिष्क पर ऊपर से ज्ञान थोपा न जाए , उनके भीतर भरे-पडे ज्ञान के बीज को पल्लवित-पुष्पित होने दिया जाए । वहां यही होता है- योग-व्यायाम, खेल-मलभम्ब, घुडसवारी-तीरंदाजी विषयक विविध विस्मयकारी करतब करते रहने वाले और गणित की अनेक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगितायें जीतने का कीर्तिमान स्थापित कर लेने वाले उन बच्चों का मानस ‘परा-मेधा’ अथवा ‘मिड-माइण्ड’ के स्तर से आगे बढता हुआ महर्षि अरविन्द और युग-ऋषि श्रीराम-प्रणीत ‘अतिमानस’ की ओर अग्रसर प्रतीत होता है ।
तो भारत की ऐसी प्राचीन गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति को अब राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति के तौर पर स्थापित करने सम्बन्धी नीतिगत शासनिक रुपरेखा तैयार करने के बावत आयोजित होने वाले उस कार्यक्रम की तैयारियां जोरों पर हैं । इस हेतु भारतीय शिक्षण मण्डल के संगठन मंत्री- मुकुल कानिटकर देश भर में प्रवास कर रहे हैं, तो साबरमति गुरुकुलम के आचार्य दीप कोइराला तत्सम्बन्धी संयोजन-सूत्रों को समन्वित करने में लगे हैं । उक्त कार्यक्रम में गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति को शासनिक मान्यता देने-दिलाने के बावत एक सरकारी निकाय के गठन का प्रारुप तैयार किये जाने की पूरी सम्भावना है । बहरहाल उस ऐतिहासिक आयोजन का परिणाम चाहे जो भी हो , किन्तु इतना तो तय है कि उससे भारत के उस प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के उन्नयन-संवर्धन का मार्ग प्रशस्त होगा, जिस पर चलते हुए यह राष्ट्र कभी परम वैभव को प्राप्त किया हुआ था और आगे भी उसी मार्ग से उस अवस्था को प्राप्त कर सकता है । साथ ही यह भी कि उपरोक्त ‘ऋषि-द्वय’ की उदघोषाओं के अनुसार भारत के पुनरुत्थान की सूक्ष्म योजनाओं को स्थूल आकार देना , हमारे देश के राजनीति-नियंताओं की प्राथमिकताओं में शामिल हो कर रहेगा ।

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