सुकुमार सी मोहन हँसी,
है श्याम सखि जब दे चली;
वसुधा की मृदुता मधुरता,
उनके हृदय थी बस चली !
करि कृतार्थ परमार्थ चित,
हो समाहित संयत विधृत;
वह सौम्य आत्मा प्रमित गति,
दे साधना की सुभग द्युति !
है झलक अप्रतिम दे गई,
पलकों से मुस्काए गई;
संवित सुशोभित मन रही,
चेतन चितेरी च्युत रही !
भूलत न भोले कृष्ण मन,
वह सहजपन अभिनव थिरन;
बृह्मत्व की जैसे किरण,
विकिरण किए रहती धरणि !
वह धवलता सुकुमारिता,
ब्रज वालिका की गहनता;
हर आत्म की सहभागिता,
‘मधु’ के प्रभु की ज्यों खुशी !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’