स्वामी दयानन्द : दलितों के सच्चे स्नेही एवं विकासवाद को चुनौती देने वाले विश्व के प्रथम विचारक’

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aaryमहर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) के जीवन काल में हमारा देश भारत अनेक अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों में जकड़ा हुआ था। देश भर में जन्म पर अधारित जाति प्रथा जन्मना जातिप्रथा प्रचलित थी जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों व जातियों द्वारा एक-दूसरे व परस्पर छुआछूत व अस्पर्शयता का व्यवहार किया जाता था। ऐसा लगता है कि यह प्रथा पहले मध्यकाल में आरम्भ हुई और बाबर व बाद के मुस्लिम शासकों के काल में सामाजिक असमानता, विषमता तथा छुआछूत आदि में विस्तार हुआ। मध्यकाल में हमारे पण्डितों ने स्त्री व शूद्रों को एक संस्कृत का वाक्य स्त्री शूद्रो नाधीयताम् अर्थात् स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है, अध्ययन व अध्यापन से वंचित कर दिया था। जो व्यक्ति अध्ययन नहीं करेगा उसका व्यक्तिगत व सामाजिक पतन होना निश्चित है। अतः ऐसा मनुष्य या वर्ग श्रमिक बन कर ही रहेगा। यह व्यवस्था अनुचित, पक्षपातपूर्ण एवं भेदभाव वाली थी। इसने न केवल हमारे दलित बन्धुओं को ही दुःख पहुंचाया अपितु सारा आर्य हिन्दू समाज ही इससे कमजोर व अवनत हुआ। जिन लोगों ने यह प्रथा उत्पन्न की उन्हें समाज का शत्रु ही कह सकते हैं। यदि समाज में इस प्रकार अनुचित व्यवस्थायें, अन्धविश्वास व कुरीतियां न होतीं तो देश का इतना पतन न होता जो मध्यकाल से महर्षि दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थापना तक के काल सन् 1875 तक हुआ था। महर्षि दयानन्द के समय में जन्मना जाति व दलित बन्धुओं के प्रति अन्य वर्णों का व्यवहार अत्यन्त असम्मानजनक व छुआछूत आदि से पूर्ण था। इससे क्षुब्ध होकर उन्हें वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था तक कह डाला। महर्षि दयानन्द ने 25 जुलाई, सन् 1878 से 21 अगस्त, सन् 1878 तक रूड़की-उत्तराखण्ड में वैदिक मान्यताओं व धर्म का प्रचार किया था। वह धार्मिक व सामाजिक सुधारक थे और छुआछूत के कट्टर विरोधी थे। इसका प्रमाण उनके सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ एवं देश भर में स्थान स्थान पर दिए गये उपदेश हैं। यहां हम महर्षि दयानन्द के द्वारा रूड़की में उपदेश के दौरान घटी एक महत्वपूर्ण घटना को आगामी पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहें हैं जो पूर्णतया सत्य व प्रामाणिक है। इस घटना को महर्षि दयानन्द के जीवनी लेखक पं. लक्ष्मण आर्योपदेशक ने अपने ग्रन्थ स्वामी दयानन्द का मुकम्मिल जीवन चरित् में प्रस्तुत किया है।

जीवनी लेखक ने लिखा है कि ‘‘सफरमैना की पल्टन का एक मजहबी सिख (दलित सिख) जो श्वेत वस्त्र पहने हुए था तथा सभा में बहुत सावधानी से बैठा हुआ था स्वामी जी की प्रत्येक बात को दत्तचित्त होकर सुन रहा था कि अकस्मात् उसी समय छावनी का पोस्टमैन मुनीर खां स्वामी जी की डाक लेकर आया। वह पोस्टमैन उस मजहबी सिख को देखकर शोर मचाने लगा। यहां तक कि वह उसे मारने पर उतारू हो गया तथा चिल्लाकर कहा–रे मजहूस नापाक (गन्दे अशुभ) तू ऐसे महान् पुरूष तथा युग प्रसिद्ध व्यक्तित्व की सेवा में इतनी अशिष्टता से आकर बैठ गया है। तूने अपनी जाति की उन्हें जानकारी नहीं दी। उस समय पता करने पर ज्ञात हुआ कि वह मजहबी सिख था। वह बहुत लज्जित होकर पृथक् जा बैठा। मुनीरखां ने प्रयास किया कि उसे निकाल दिया जाए।

तब स्वामी जी ने अत्यन्त कोमलता सौम्यता से कहा निःसन्देह उसके यहां बैठकर सुनने में कोई हानि नहीं और उस पर कोई आपत्ति नहीं करनी चाहिए। तिरस्कृत किये उस व्यक्ति ने नयनों में अश्रु भरकर तथा हाथ जोड़कर कहा कि मैंने किसी को कुछ हानि नहीं पहुंचाईं। सबसे पीछे जूतियों के स्थान पर पृथक बैठा हूं। स्वामी जी ने डाकिए को कहा कि इतना कठोर व्यवहार तुम्हारे लिए अनुचित है और समझाया कि परमेश्वर की सृष्टि में सब मनुष्य समान हैं। (स्वामीजी ने) उस दलित को कहा तुम नित्यप्रति आकर यहां उपदेश सुनो। तुमको यहां कोई घृणा की दृष्टि से नहीं देखता। मुसलमानों के निकट भले ही तुम कैसे हो। स्वामी जी के ऐसा कहने से वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और फिर प्रतिदिन व्याख्यान सुनने आता रहा।

रूड़की में ही स्वामीजी ने डार्विन के विकासवाद पर अपने चैथे दिन के उपदेश में विचार व्यक्त किए। इस उपदेश में डार्विन का विकासवाद, अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव तथा साथ ही ईसाई व मुसलमानी दर्शन एवं पुराणों की भी सृष्टि-नियम विरूद्ध निरर्थक बातों की समीक्षा की गई। पाश्चात्य दर्शन को स्वामी जी अपने शब्दों में कीट पीट की फिलास्फी कहा करते थे। शिक्षा के लाभ क्या हैं? और शिक्षा-विधियों का भी अपने उपदेश में उन्होंने विवेचन किया। अंग्रेजी राज की विशेषताओं तथा जो स्वतन्त्रता (धर्म प्रचार की) सरकार ने देशवासियों को प्रदान की है, उसके विषय में भी बहुत कुछ कहा। आपने डार्विन के इस मत का प्रतिवाद किया कि बन्दर से ही मनुष्य योनि का विकास हुआ है। आपने इसका प्रतिवाद करते हुए बड़ी प्रबल अकाट्य युक्तियां दीं जिनमें से एक यह भी थी कि यदि बन्दर से ही मनुष्य का जन्म हुआ है तो क्या कारण है कि अब सहस्रों वर्षों के बीत जाने पर भी किसी बन्दर का बच्चा मनुष्य के रूप में उत्पन्न नहीं होता। यदि पहले कभी बन्दर मछली के रूप होकर विचित्र प्रकार का बच्चा उत्पन्न करता था और फिर यह विचित्र प्रकार से होते होते इसी क्रम का अन्तिम रूप मनुष्य हो गया तो अब इस क्रमिक विकास के बन्द हो जाने का क्या कारण हैं? विकासवाद से सम्बन्धित महर्षि दयानन्द के इन विचारों पर टिप्पणी करते हुए ग्रन्थ के अनुवादक आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने कहा है कि हमने इस प्रसंग को कुछ संक्षेप से दिया है। डार्विन मत की धज्जियां उड़ाने वाले विश्व के प्रथम विचारक ऋषि दयानन्द थे। बीसवीं शताब्दी में डार्विन मत की दुहाई देना एक वैचारिक फैशन बन गया था। विकासवाद को न मानने वालों की कालेजों, विश्वविद्यालयों में खिल्ली उड़ाई जाती थी। अब वह बात नहीं है।

विकासवाद पर बोलते हुए स्वामीजी ने आगे कहा कि क्या अन्तिम विचित्र प्रकार के प्राणी ने कोई वसीयत कर दी थी कि जैसी चेष्टाकुचेष्टा मेरे पहले पूर्वज करते आए हैं, भविष्य में कोई पशु, विशेष रूप से बन्दर करे। इस प्रकार से यह भी कहा कि विभिन्न जातियों के पशुओं के संसर्ग से बच्चे उत्पन्न नहीं हो सकते। ऋषि की इन युक्तियों को सुनकर सुपठित, अंग्रेजी शिक्षित लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। ऐसी युक्तियां उन्होंने कभी सुनी ही नहीं थीं। वे तो सकल ज्ञानविज्ञान का आविष्कारक गोरों को ही समझते थे। अंग्रेजी पठित वर्ग यही जानता-मानता था कि पहले किसी को इनका ज्ञान ही नहीं था। श्री स्वामी जी ने विज्ञान की इन खोजों के विषय में बहुत तार्किक ढंग से क्रमबद्ध विचार व्यक्त किये जो ऐसा लगा कि जैसे कोई दर्शन विषय का ग्रन्थ पढ़ रहे हों। इससे श्रोताओं को और भी आश्चर्य हुआ। जब किसी ने आपसे यह कहा कि हम इन सब विषयों को आधुनिक काल की देन समझते थे। यह सुनकर श्री स्वामी जी ने देश की वर्तमान अवस्था पर अत्यन्त खेद व्यक्त किया और कहा कि आप किसी भी नवीन समझे जाने वाले आविष्कार का नाम लो, मैं उसका प्रमाण प्राचीन ग्रन्थों से दूंगा। तब कई सज्जनों ने पृथ्वी की गति, ग्रहों, उपग्रहों, नक्षत्रों, वर्षा, मेघों, भूकम्प, अमरीका के सम्बन्ध में कई प्रश्न पूछे। स्वामी जी प्राचीन शास्त्रों के अकाट्य प्रमाणों से उनका उत्तर देते थे। सुनने वालों को फिर कोई शंका ही शेष नहीं रहती थी। क्योंकि इधर प्रश्न किया तो उधर से साथ के साथ उत्तर रूप में कोई श्लोक आदि से सप्रमाण समाधान कर देते। श्लोकों मन्त्रों के शाब्दिक अर्थों से ही उनकी पूरी सन्तुष्टि हो जाती और सत्य शास्त्रों की गौरव गरिमा हृदयों पर अंकित हो जाती थी। श्री पं. उमरावसिंह ने आक्षेप किया कि पृथ्वी के गुरूत्व आकर्षण का नियम तो न्यूटन का आविष्कार है। यह पहले नहीं था। स्वामीजी ने कहा–सारी कहानी सुनाओ। उन्होंने न्यूटन द्वारा सेब के गिरने का अनुभव बताया। तब श्री स्वामी जी ने एक श्लोक पढ़ा तथा उसके अर्थ सुनाए। श्लोक सुस्पष्ट था और उसके एक-एक शब्द का अनुवाद सब की समझ में आता था, अतः उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि श्लोक के रचयिता का पृथ्वी के गुरूत्व आकर्षण के नियम पर विश्वास था। स्वामी जी ने इसकी पुष्टि में कई वेदमन्त्र भी सुनाए। उनके अनुवाद से मूल विषय पूरा-पूरा स्पष्ट हो गया।

हम आशा करते हैं कि महर्षि दयानन्द के इन जन्मा जातिवाद विरोधी, समाज सुधार विषयक विचारों एवं विकासवाद के मिथ्या सिद्धान्त को सर्वप्रथम चुनौती देने वाले विचारों को जानकर पाठक लाभान्वित होंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

 

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