कौन तोड़ना चाहता है जातिवाद?

2
179

castबिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के द्वारा लोहिया जी की प्रतिमा का माल्यार्पण करने के बाद ‘लोहिया विचार मंच’ के एक युवक के द्वारा उस प्रतिमा को गंगाजल से धोने की निहायत शर्मनाक घटना सामने आई है. जातिवाद और छूत-अछूत की यही सोच हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी कमजोरी रहा है. जातिवाद की सोच का ही परिणाम है कि आज हिन्दुओं के एक वर्ग खुद को बौद्ध धर्म या इसाई धर्म से जोड़ने में भी संकोच नहीं कर रहा है. परन्तु इस घटना की व्याख्या सिर्फ जातिवाद के आधार पर ही नहीं हो सकती.

अति दलित जाति से आने वाले जीतनराम मांझी के कार्यक्रम के बाद जिस युवक ने मूर्ति को धुलने का काम किया था, उसे गिरफ्तार कर लिया गया है और उसपर कानूनी कार्रवाई की जा रही है. परन्तु यहां सवाल यह है कि उस युवा ने इस तरह का निंदनीय काम क्यों किया.

इस सवाल का जवाब हमारे देश की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था और इस राजनीति को दिशा दे रहे राजनीतिज्ञों की सोच में मिल जाता है. हमारे देश, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार, की राजनीतिक परिस्थिति जातिवाद के इर्दगिर्द ही घूमती है. यहां बड़े कद के नेता भी कुछ खास जातियों पर अपना प्रभुत्व जमाकर उनका तारनहार बनने की कोशिश करते हैं जिससे चुनाव के समय वोटों की फसल काटी जा सके. इस तरह उस युवा ने वही काम किया जिसके बाद पार्टी के बड़े नेताओं की निगाह में उसका वजूद बढ़े और भविष्य में उसका लाभ उठाया जा सके. यानी उसने जातिवाद के उसी कारक को भुनाने की कोशिश की जिसे बिहार की राजनीति में सफलता का गारंटी माना जाता है.

यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि मूर्ति को धुलने का जितना फायदा उस युवा नेता को हुआ होगा उससे ज्यादा फायदा खुद जीतन मांझी को होने वाला है. कई दशकों तक नीतीश कुमार के साथ राजनीति कर चुके मांझी इसी तरह के मामले उछालकर खुद को महादलित जातियों का एक मात्र नेता साबित करने की फिराक में हैं. जाहिर है कि रामविलास पासवान जैसे नेताओं के होते हुए अगर आगामी बिहार के चुनावों में उन्हें खुद को महादलित जातियों का मसीहा साबित करना है तो उन्हें इस तरह के टोटके करने ही पड़ेंगे. इस आधार पर अब ये कहना मुश्किल है कि ऊपरी तौर पर जो घटना जातिवाद और छुआछूत की दिखती है और मांझी पीड़ित दीखते हैं, उसका असली पीड़ित कौन है.

इसे देश के साथ-साथ हिन्दू समाज का भी दुर्भाग्य कह सकते हैं कि इन्ही कारणों से हिन्दुओं का एकीकरण आज भी मुकम्मल नहीं हो पा रहा है. निम्न वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नेताओं की पूरी राजनीति ही उंची जातियों के प्रति निम्न वर्ग के आक्रोश पर आधारित है. इसीलिए वे जब भी मौका पाते हैं, इन मुद्दों को उछालने में लगे रहते हैं. इन घटनाओं से उत्त्पन्न सोच का परिणाम है कि आरएसएस जैसे संगठन द्वारा सम्पूर्ण हिन्दू समाज को एक करने का प्रयास सफल नहीं हो पा रहा है. इसलिए समय को देखते हुए अब ये समझना पड़ेगा कि इस देश से जातिवाद का खात्मा कौन करना चाहता है.

आप किसी भी पिछड़े-दलित वर्ग के युवा से बात करके देख लें, आप पाएंगे कि बिना किसी ठोस आधार के भी उनके मन में राष्ट्रीय सेवक संघ के कार्यक्रमों को लेकर संदेह बरकरार है. संघ के समाज को जोड़ने के कार्यक्रमों की आलोचना ऐसे लोगों के द्वारा हो रही है जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में आरएसएस को मार्क्सवादी मीडिया के मुंह से जाना समझा. व्यक्तिगत रूप से वे न तो संघ से जुड़े, न ही उन्होंने संघ पर कोई विशेष अध्ययन करने की कोशिश की. ये विचार उनके वर्ग विशेष के नेताओं के बयानों पर आधारित होते हैं जो अपने फायदे के हिसाब से हर घटना की व्याख्या करते हैं.

मामले का आश्चर्यजनक पहलू यह है कि जातिव्यवस्था को तोड़ने का जो भी प्रयास हो रहा है वह संघ जैसे संगठनों की तरफ से ही हो रहा है, इस तरह का एक भी कार्यक्रम पिछड़े-दलित-महादलित वर्ग के नेताओं की तरफ से नहीं किया जा रहा है. आखिर जिस जातिवादी ज़हर पर निम्न वर्ग के नेताओं की राजनीतिक फसल लहलहा रही है, उसे वे अपने ही हाथों क्यों उजाड़ना चाहेंगे?

-अमित शर्मा

 

 

2 COMMENTS

  1. बिहार और उ. प्र के नेताओं की राजनीती जातिवाद और वंशवाद पर आधरित है. अब तो और सुविधा हो गयी है. लालुजी और मुलायमजी सम्बन्धी बन गए हैं. अब तो वंश और अधिक शक्तिशाली हो चूका है. लालूजी,मुलायमजी,मायावतीजी , प्रकाशसिंघजी बादल ,रामविलासजी ,और छटे बड़े नेता क्या करते हैं चुनाव के समय मतदाताओं की जाती का ही तो गणित बैठते हैं. कौन जाती कितनी प्रतिशत है ,इसका हिसाब चुनावी पंडित लगाते हैं ,और टिकट वितरण करते हैं। यह बात हिन्दुओं में ही है ऐसा नही है. रतलाम (म. प्र ०) के नगर निगम चुनाव में मुसलमानो की एक ही जाती के दो समूह आपस में एक दूसरे के विरोधी हो गए थे। चुनाव राजनीती का आधार हैं. यमन ,मिस्र,इराक, सीरिया टर्की , में तो केवल और केवल मुस्लमान हैं फिर भी वो क्यों युद्धरत हैं. मात्र सत्ता की लड़ाई है. इसी को हमारे शास्त्रों में ”यादवी युद्ध ” कहा है। जब सत्ता सर पर चढ़ जाती है तो धर्म ,सिद्धांत , कायदे ,का सहारा लेकर व्यक्ति अपने पिता को भी जेल में डाल देता देता है. औरंगजेब,कंस, और महान अशोक के बाद के एक राजा इसके उदहारण हैं /यह जातिवादी राजनीती चलती रहेगी.

    • धन्यवाद suresh karmarkar जी….आपने बिल्कुल सही कहा…अब हमारी जनता को इस सच्चाई को समझना होगा और सिर्फ और सिर्फ विकास के मुद्दे को केंद्र में रखकर वोट करना पड़ेगा. तभी देश और समाज कि स्थिति सुधरेगी और हमारी आने वाली पीढी सुकून की जिंदगी बसर कर सकेगी…फिलहाल अभी तो ये बात दूर कि कौड़ी ही लगती है…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here