किसी जंगल में शिकार का दौर चलता है, तब आम तर पर कुछ लोग जानवर के पीछे आवाज लगाते चलते है। ये लोग जानवर को एक दिशा में धकेलते है ताकि असली शिकारी उसकी शिकार कर सकें। फिलहाल देश में पुरस्कार वापसी का जो दौर चला है, वह इसी प्रथा की याद दिलाता है। अपने आप को साहित्यकार और बुद्धिजीवी कहलानेवाले ये लोग एक स्वर में चिल्ला रहे है जिससे शोर बनें और सरकार एक दिशा में भागे जिसके बाद उसकी शिकार करना आसान हो।
पुरस्कार वापसी का तमाशा करनेवाले लोगों का कहना है, कि देश में फासीवाद चरम पर है और अभिव्यक्ति का गला घोंटा जा रहा है। अगर उनकी व्यंजना में प्रामाणिकता होती,तो उनकी बात पर गौर की जा सकती थी और लोगों की उन्हें सहानुभूति भी मिलती। लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। जो लोग ताल ठोक के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दम भर रहे है, उनके दोगलेपन पर प्रश्नचिन्ह उठ रहे है। और ये सवाल कोई और नहीं, वो लोग उठा रहे है जिनकी अभिव्यक्ति का दमन करने में इन लोगों ने छह दशकों तक कोई कसर नहीं छोड़ी।
“अभिव्यक्ति का वास्ता देकर जो आज आवाज़ उठा रहे है, उन्हीं लोगों ने वैचारिकता और शिक्षा के क्षेत्र पर अपना एकाधिकार जमा रखा था। अपने से भिन्न किसी भी विचार को कुचलने को ही उन्होंने अपना जीवनकार्य बनाया। तब उनकी यह अभिव्यक्तिप्रियता कहां गई थी,” यह सीधा सवाल पूछा है प्रसिद्ध कन्नड लेखक एस. एल. भैरप्पा ने। खुद को विवेक के ठेकेदार कहलानेवालों के पास क्या इसका कोई उत्तर है?
भैरप्पा कोई आम रचनाकार नहीं है। आधुनिक कन्नड साहित्य के सर्वोच्च शिखरों में से वो एक है। कर्नाटक के सांस्कृतिक क्षेत्र में उन्हें दैत्य प्रतिभावाला लेखक अर्थात् विराट प्रतिभा धारण करनेवाला लेखक कहा जाता है। केवल कन्नड ही नहीं, अपितु भारतीय साहित्य में लोकप्रियता, बिक्री तथा समीक्षकों की मान्यता इन निकषों पर उनके उपन्यासों ने कीर्तिमान बनाए है। ऐसे लेखक को सरकारी स्तर पर कोई मान-सम्मान न मिलें, इसके लिए तरह तरह की गंदी राजनीति का सहारा लिया गया।
पाटील पुटप्पा कन्नड भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार है। चार वर्षों पूर्व भैरप्पा को दरकिनार करते हुए डा. चंद्रशेखर कंबार को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया, उस समय पुटप्पा ने जाहीर आरोप किया था, कि ‘विशिष्ट विचारों के लोगों ने लॉबिंग करते हुए भैरप्पा को ज्ञानपीठ से वंचित रखने के लिए प्रयास किए गए।’
तीन वर्षों पूर्व गिरीश कार्नाड जब पुणे में आए थे, तब भैरप्पा के बारे में उनसे प्रश्न पूछा गया था। उस समय उन्होंने कहा था, “भैरप्पा अच्छा लिखते है, लेकिन वे हिंदुत्ववाद के अनुयायी बने।“ इसका मतलब यह, कि साहित्यकार लिखता कैसे है, वह कहता क्या है यह महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि वह किस विचार का अनुसरण करता है, यह महत्त्वपूर्ण है।
यही कारण है, कि जब भैरप्पा कहते है, कि वामपंथियों द्वारा दमन का मैं भी शिकार हूं, इन लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में बोलने का कोई अधिकार नहीं है, तब उनका कथन और भी तेजधार हो जाता है।
वामपंथियों की एकपक्षीय अभिव्यक्तिप्रियता पर यह पहला प्रहार नहीं है। इससे पूर्व सितंबर में ऐसी ही एक आवाज़ उठी थी। खुलेपन की दुहाई देकर सुनियोजित पुरस्कार वापसी का दौर चलने से पहले की यह बात है।
यह आवाज़ थी प्रो. शेषराव मोरे की जो पिछले चालीस साल से ऐतिहासिक शोधकार्य में संलग्न है। खासकर वीर सावरकर पर उनकी पुस्तकों द्वारा उस महान क्रांतिकारी के संबंध में स्थापित अवधारणाओं को उन्होंने चुनौती दी और बाद में काश्मीर, 1857 की विद्रोह (जिसे वे जिहाद कहते है, वह भी सप्रमाण), 1947 में भारत का विभाजन जैसे अनेकों मह्त्वपूर्ण और विवाद्य विषयों पर उन्होंने पुस्तकें लिखी है। उनके शोधकार्य और विद्वत्ता का आलम यह है, कि भारत के विभाजन पर उनकी पुस्तक के समय उन्होंने आह्नान किया था, कि इस पुस्तक का खंडन कोई प्रस्तुत करें, तो उसकी भी पुस्तक प्रकाशित की जाएगी।
लेकिन अफसोस, चूंकि प्रो. मोरे नेहरू को नायक और वामपंथियों को मसीहा मानने से इन्कार करते है, इसलिए महाराष्ट्र के विचारकों ने उन्हें जैसे बहिष्कृत ही कर दिया। लेकिन पिछले महिने अंदमान में हुए विश्व मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रुप में प्रो. मोरे चुने गए और अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने इसी सेक्युलर दोगलेपन पर निशना साधा।
अपने आपको विवेकवादी कहलानेवालों पर हमला करते हुए उन्होंने इसे प्रागतिक आंतकवाद का नाम दे दिया जिससे प्रागतिक खेमा बौखला गया। उसके बाद या तो प्रो. मोरे को दुर्लक्षित किया गया अथवा उन्हें छद्म हिंदुत्ववादी कहा गया। लेकिन जो बात भैरप्पा कह रहे है, वही मोरे भी कह रहे थे और उनसे पूर्व कई सारे लोगों ने यही कही बात कही थी, कि वामपंथियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरंकुश नहीं है। वह तभी जागती है जब उसकी अपनी बोलती बंद होती है।
महाराष्ट्र की ही बात करें तो पु. भा. भावे एक जानामाना नाम है। मराठी कथा में नवयुग का संचार लाने का श्रेय जिन चार लेखकों को दिया जाता है, उनमें से वे एक है। लेकिन भावे को उनकी योग्यता के अनुसार सम्मान कभी नहीं दिया गया। इतना ही नहीं, 1977 में जब वे मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने, तब यह सम्मेलन ही ठीक ढंग से होने नहीं दिया गया। यह सब इसलिए क्योंकि वे हिंदुत्ववादी थे, वीर सावरकर के अनुयायी थे। उस समय भी किसी रचनाकार को, किसी लेखक को अभिव्यक्ति के दमन की सुगबुगाहट तक नहीं हुई। बस, पिछले साल नरेंद्र मोदी क्या प्रधानमंत्री बने, ईन लोगों को लगने लगा, कि देश में दमन की आंधी बहनी लगी है।
यह कुछ ऐसा ही है, जैसे कि कुरुक्षेत्र में युद्ध के दौरान कर्ण को धर्मसंगत व्यवहार उनके रथ का पहिया फंसने के बाद ही याद आया था। उस समय कृष्ण और अर्जुन ने जो प्रश्न कर्ण से पूछा था, वही प्रश्न आज वामपंथियों, समाजवादियों और स्वघोषित विचारकों से पूछा जा सकता है – तब तुम्हारा धर्म कहा था, मित्र?
देविदास देशपांडे