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कविता

प्रकाश धरा आ नज़र आता

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गोपाल बघेल ‘मधु’ प्रकाश धरा आ नज़र आता, अंधेरा छाया आसमान होता; रात्रि में चमकता शहर होता, धीर आकाश कुछ है कब कहता ! गहरा गहमा प्रचुर गगन होता, गुणों से परे गमन वह करता; निर्गुणी लगता पर द्रढी होता, कड़ी हर जोड़ता वही चलता ! दूरियाँ शून्य में हैं घट जातीं, विपद बाधाएँ व्यथा ना देतीं; घटाएँ राह से हैं छट जातीं, रहनुमा कितने वहाँ मिलवातीं ! भूमि गोदी में जब लिये चलती, तब भी टकराव कहाँ करवाती; ठहर ना पाती चले नित चलती, फिर भी आभास कहाँ करवाती ! संभाले सृष्टा सब ही करवाते, समझ फिर भी हैं हम कहाँ पाते; हज़म ‘मधु’ अहं को हैं जब करते, द्वार कितने हैं चक्र खुलवाते !

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