कला-संस्कृति गीता : जीवन का ज्ञान April 1, 2025 / April 1, 2025 by डॉ. नीरज भारद्वाज | Leave a Comment डॉ. नीरज भारद्वाज गीता ज्ञान, भक्ति, कर्म, साधना योग आदि सभी का भंडार है। गीता को जिसने समझ लिया उसका यह जीवन अर्थात इहलोक और परलोक दोनों ही संवर जायेगें। गीता गहन चिंतन-मनन और जीवन में उतारे का विषय है। इसमें रचा बसा एक-एक शब्द रूपी मोती जीवन को बदल देता है। भारतीय ज्ञान परंपरा […] Read more » Geeta : Knowledge of Life गीता
कला-संस्कृति धर्म-अध्यात्म हर समस्या का समाधान है गीता December 12, 2024 / December 12, 2024 by डा. विनोद बब्बर | Leave a Comment डा. विनोद बब्बर विश्व के श्रेष्ठ ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित गीता महाभारत के भीष्मपर्व का एक अंश है। किन्तु इसका प्रभाव भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में है। विश्व की अधिकांश प्रमुख भाषाओं के साहित्य को प्रभावित करने वाली गीता के महत्व को इसी बात से जाना जा सकता है कि श्रीकृष्ण जैसे प्रबंध शास्त्री का सर्वाेत्तम शोध-ग्रंथ है। कारागार में जन्म से एक ग्वालो के बीच पलने वाले श्रीकृष्ण ने अपने प्रबंधन कौशल के बल पर ही सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र को संगठित करने में सफलता हासिल की। यह श्रीकृष्ण का प्रबंधन कौशल ही था कि कंस के राज्य में रहते हुए भी समस्त संसाधनों के बल पर कंस की शक्ति को कमजोर करते रहे। बिना गद्दी पर बैठे महाभारत जैसे युद्ध के सूत्रधार बने। हम कृष्ण को एक विचारक व प्रबंध शास्त्री मानते हुए अपने कर्तव्यों का निर्धारण करें ताकि हम किसी भी प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ न हों। त्यजेद् एकं कुलंस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेद्।ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेद्।।अर्थात हमें कुल या परिवार के हित के लिए अपने हित का त्याग करने, ग्राम के हित के लिए कुल के हित का त्याग करने व जनपद के हित के लिए ग्राम के हित का त्याग करने व आत्मा अर्थात समस्त प्राणी-मात्र के हित के लिए पृथ्वी का त्याग करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।वर्तमान को ज्ञान और प्रबंधन का युग माना जाता है। प्रबंधन की न्यूनता, अव्यवस्था, भ्रम, बर्बादी, अपव्यय, विलंब ध्वंस तथा हताशा को जन्म देती है। सफल प्रबंधन हेतु मानव, धन, पदार्थ, उपकरण आदि संसाधनों का उपस्थित परिस्थितियों तथा वातावरण में सर्वाेत्तम संभव उपयोग किया जाना अनिवार्य है। किसी प्रबंधन योजना में मनुष्य सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक होता है। अतः, मानव प्रबंधन को सर्वाेत्तम रणनीति माना जाता है।वैज्ञानिक, सूचना प्रोद्यौगिकी, सेवा ही नहीं, आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्ञान और उसके प्रसार के नित्य नये साधन सामने आ रहे हैं। परंतु बढ़ती भौतिक सुविधाओं के बावजूद जीवन लगातार बहुआयामी व जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। कहीं भी शान्ति एवं संतुष्टि दिखाई नहीं देती। कारण प्रबंधन की अनुपस्थिति अथवा कमजोर प्रबंधन। प्रबंधन केवल बाहरी ही नहीं आतंरिक भी। हम प्रबंधन को आधुनिकता की देन माना जाता हैं जबकि राम और कृष्ण साहित्य प्रबंधन के श्रेष्ठ स्रोत हैं। आवश्यकता है इस तथ्य कोे जानने और व्यवहार में लाने की कि स्नेह और सद्भाव की बांसुरी से काम चलाने की हरसंभव कोशिश करो। और मजबूरी में बांसुरी को छोड़ ‘बांस’ भी घुमाना पड़े तो उसके लिए भी स्वयं को सक्षम बनाओं।जनसामान्य गीता को धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रंथ मानता है। अधिकांश घरों में गीता तो है पर अलमारी की शोभा बढ़ाने के लिए। पढ़ी बहुत कम जाती है। जितना पढ़ी जाती है, समझी उससे भी कम जाती है। जितनी समझी जाती है आचरण में उससे भी कम दिखाई देती है। इसीलिए किसी शोकसभा में पंडित जी को ‘आत्मा की अमरता और संसार की नश्वरता’ पर गीता के श्लोक बोलते देख अक्सर यह मान लिया जाता हैं कि गीता शोक को दूर भगाने वाला ग्रन्थ है। जबकि योगीराज श्रीकृष्ण ‘क्लैव्यं मा स्म गमः’ (कायरता और दुर्बलता का त्याग करा)े का उदघोष करते हुए आत्मविश्वास जगाते हैं कि ‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परंतप’ (हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता संभव नहीं है) वास्तविक में गीता केवल धार्मिक ग्रन्थ मात्र नहीं, बल्कि कालजयी प्रबंधन ग्रन्थ हैं। जिसकी उपादेयता आचरण में ढालने पर ही सिद्ध हो सकती है।आज के युग में हर क्षेत्र में प्रबंधन का महत्व बढ़ता जा रहा है। सामान्यतः प्रबंधन व्यवसाय से ही जोड़ा जाता है परंतु जीवन का भी प्रबंधन किया जाना चाहिए। जीवन प्रबंधन का विशद ज्ञान देने वाले समसामयिक प्रबंधक व युग प्रवर्तक प्रबंधशास्त्री श्रीकृष्ण को रासलीला तक सीमित कर स्वयं को ज्ञान से वंचित करने जैसा है। हालांकि गीता पर दुनिया भर के विद्वानों ने टीका लिखी है। यह गीता की विशेषता है कि सभी को उसमें कुछ विशिष्ट प्राप्त होता है। यदि हम महाभारत के महानायक द्वारा कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को दिये संदेश के निहितार्थ को सीमित अर्थो में ग्रहण करते हैं तो हम अप्रतिम ज्ञान से स्वयं को पृथक करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं करते।अनुभव साक्षी हैं कि हम अपनी क्षमताओं का सम्पूर्णता के साथ सदुपयोग नहीं कर पाते। वास्तव में कोई भी अवतार अपने समय की विसंगतियों को दूर करने के लिए ही आते हैं जैसाकि गीता के चतुर्थ अध्याय के 7वें और 8वें श्लोक में योगीराज श्रीकृष्ण उद्घोष करते हैं-यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। (हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ) मैंनेजमेंट अर्थात् प्रबंधन की दृष्टि से कहे तो, ‘जब -जब मेरे मार्गदर्शन की आवश्यकता होगी, मैं उपलब्ध रहूंगा।’परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ) यहां इसका अर्थ यह भी है, ‘व्यवस्था की बाधाओं को हटाने और उसे सुचारु बनाने के लिए मैं हर समय उपलब्ध हूं।’श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे दोनों महानायकों की एक समान विशेषता है कि वे अपने विरोधी से सुलह-समझौते की आखिरी कोशिश करते हैं। लेकिन रावण की तरह ही दुर्याेधन भी न माना। मात्र पांच गांव देकर सारा विवाद खत्म करने की बजाय दुर्याेधन श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने की तैयारी करने लगा। श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनो अपने विरोधी के गुणों का सम्मान भी करते हैं। श्रीराम ने लक्ष्मण को रावण से सीखने के लिए प्रेरित किया तो श्रीकृष्ण लगातार पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और अंगराज कर्ण के गुणों के प्रशंसक रहे। अच्छा काम करने के लिए हमें अपने दुर्बल अहं को दूर करना होगा। कृष्ण कहते हैं -मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, ईर्ष्यालु, पुण्यात्मा और पापात्मा -इन सभी के लिए जिसकी समबुद्धि हो, उसे उत्तम मानना चाहिए। हमें दोनों तरह के लोग मिलेंगे, शायद पापात्मा ज्यादा मिलें, पर जो नापसंद हैं, उनसे नफरत करने की जगह उनके प्रति समबुद्धि रखने से बेहतर काम किया जा सकेगा।शायद ही किसी के मन में संदेह हो कि श्रीराम हनुमान से और श्रीकृष्ण अर्जुन से बेहतर कर सकते थे। परंतु दोनांे ने ही उन्हें तथा कुछ अन्यों को प्रेरित किया। आखिर यही तो प्रबंधन है। प्रबंधन की सर्वाधिक स्वीकार्य परिभाषा के अनुसार ज्व हमज ूवता कवदम इल वजीमते पे बंससमक उंदमहउमदज. कई लोग प्रबंधन से जुड़े होने के बावजूद परिस्थिति के अनुसार व्यवहार नहीं करते। वे हर समय अपने ही प्रभाव में होते हैं। परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करना, अपनी भूमिका को समझना और सामने वाले से कोई काम निकलवाना। ये प्रबंधन (मैनेजमेंट) के गुर (खास नुस्खे) हैं, जो हर व्यक्ति नहीं जानता।‘मैं’ एक हूं लेकिन परिस्थिति के अनुसार ‘मेरी’ भूमिकाएं बदलती रहती है, ‘मुझे’ अपनी भूमिका के अनुसार व्यवहार सीखना चाहिए। गीता प्रमाण है कि अर्जुन के मन में अनेक प्रकार की शंकाएं थीं। अनेकानेक प्रश्न थे। एक योग्य प्रबंधक अपने अधीनस्थों की शंकाओं का निराकरण किये बिना अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण एक श्रेष्ठ प्रबंधक, शिक्षक की तरह इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। उन्होंने अर्जुन को समझाया- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। अर्थात् तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल पर नहीं। अनेक बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि कार्य करने वाले योजना के सफल होने में संदेह जताते हैं। ऐसी स्थिति में योग्य प्रबंधक हर जिम्मेवारी अपने ऊपर लेते हुए कहता है, ‘तुम घबराओ मत। हर तरह के तनाव और शंकाओं को त्याग कर, जैसे मैं कहता हूं वैसा करो। मैं सब संभाल लूंगा।’ गीता के 18 वें अध्याय के 66 वें श्लोक में यही बात कही गई है-सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज।अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।एक अन्य श्लोक में कहा गया , ‘तू अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।’ यहां एक बात विशेष ध्यान देने की है कि धर्म का अर्थ कर्तव्य है। परिस्थितियों द्वारा सौंपे गए कर्तव्य का शुद्ध अंतकरण से पालन करना धर्म है न कि केवल कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों जाने को धर्म मानना। यथा विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक का धर्म और कर्म है देश की रक्षा करना। एक पिता का धर्म अपनी संतान को योग्य बनाना। एक पुत्र का धर्म अपने पूर्वजों की कीर्ति बढाना। आदि आदि।गीताकार कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं। विपरीत परिणामों की आशंका के कारण जिम्मेदारी से भागना मूर्खता है। अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए।महाभारत के महानायक ने गीता के रूप में जो प्रबंधन का शास्त्र हमें सौंपा है उससे हमें अनन्त सूत्र मिलने हैं जिनमें दो अति महत्वपूर्ण हैं- एक- श्रेष्ठ पुरुष (उच्चाधिकारी) अपने पद व गरिमा के अनुसार व्यवहार करे तो सामान्यजन (अधीनस्थ कर्मचारी अथवा कार्यकर्ता) उसी का अनुसरण करते हैं। यदि वे अनुशासित रहते हुुए मेहनत और निष्ठा से काम करे तो संस्था का उच्च शिखर को स्पर्श तय है। विपरीत आचरण पर उसे डूबने से बचाया नहीं जा सकता। दूसरा- प्रतिस्पर्धा के दौर में कुछ चतुर लोग अपना काम तो निकालने के लिए अपने साथियों को हतोत्साहित करते हैं। लेकिन प्रबंधन की दृष्टि से अनुकरणीय और अभिनन्दनीय वही है जो वर्तमान में दूसरो का प्रेरणा स्रोत होते हुए भविष्य का उदाहरण रूपी उज्ज्वल नक्षत्र बनता है। गत दिवस गीता प्राकट्य नगरी कुरुक्षेत्र में अपने एक सप्ताह के प्रवास के दौरान विदेशी यात्रियों के दल से संवाद हुआ। उन्होंने पूछा, ‘गीता क्यों जरूरी है?’ तो मैंने उनसे पश्चिमी देशों में तेजी से बढ़ रहे अवसाद और अवसाद के कारण वहां करोड़ो डालर/ यूरो की दवाओं का व्यापार होने की चर्चा करते हुए कहा, ‘आपके देशों में परीक्षा अथवा प्रेम में असफलता पर आत्महत्या के मामले भी बहुत होते हैं क्योंकि वहां प्रतिकूल परिस्थितियों को सहज स्वीकार करने का अभ्यास नहीं है। जबकि गीता ने हमें सिखाया है कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं। यदि किसी कारण से कर्म फल आपेक्षा से कम अथवा शून्य हो तो भी हम बहुत विचलित नहीं होते। आंसू पोंछ कर आगे बढ़ना हमारे डीएनए में हैं जो हमें गीता ने सिखाया है। आज गीता प्राकट्य स्थली पर आप चिंतन-मनन करें कि आपको एक ‘गीता’ चाहिए या हजारों अस्पताल और टनों अवसाद की दवाएं चाहिए।’ कहना न होगा, दुनिया भर के लोग भारतीय संस्कृति के उन्नायक हमारे देवालयों का महत्व जानकर अभिभूत हो ‘हरे कृष्णा, हरे रामा’ गाते- झूमते दिखाई देते है। डा. विनोद बब्बर Read more » Geeta is the solution to every problem गीता
राजनीति ‘गीता’ बने राष्ट्रीय ग्रंथ January 4, 2021 / January 4, 2021 by प्रमोद भार्गव | Leave a Comment प्रमोद भार्गवदुनिया के अनेक देशों में राष्ट्रीय झंडा, चिन्ह, पक्षी और पशु की तरह राष्ट्रीय ग्रंथ भी हैं। अलबत्ता हमारे यहां ‘धर्मनिरपेक्ष’ एक ऐसा विचित्र शब्द है, जो राष्ट्र-बोध की भावना पैदा करने में अक्सर रोड़ा अटकाने का काम करता है। गोया गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बना देने की घोषणाएं जरूर होती रही हैं लेकिन […] Read more » Gita became national book गीता गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ तीन तलाक धारा 370 एवं 35-ए राममंदिर राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय शिक्षा नीति समान नागरिक संहिता समान शिक्षा
धर्म-अध्यात्म गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-91 April 16, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य   गीता का अठारहवां अध्याय योगीराज श्रीकृष्णजी अर्जुन को बताते हैं कि किसी भी देहधारी के लिए कर्मों का पूर्ण त्याग सम्भव नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई व्यक्ति कर्मों का पूर्ण त्याग कर दे। कर्म तो लगा रहता है, चलता रहता है। गीता की एक ही शर्त […] Read more » Featured अर्जुन आध्यात्मिक गीता युद्ध श्रीकृष्णजी संसार
धर्म-अध्यात्म गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-92 April 16, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य गीता का अठारहवां अध्याय अंग्रेजों के कानून ने किसी ‘डायर’ को फांसी न देकर और हर किसी ‘भगतसिंह’ को फांसी देकर मानवता के विरुद्ध अपराध किया। यह न्याय नहीं अन्याय था। यद्यपि अंग्रेज अपने आपको न्यायप्रिय जाति सिद्घ करने का एड़ी चोटी का प्रयास आज भी करते हैं। इसके विपरीत गीता दुष्ट […] Read more » Featured अंग्रेजों अर्जुन कानून कृष्ण गीता परमपिता परमात्मा भगत सिंह
धर्म-अध्यात्म गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-90 April 13, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य    गीता का अठारहवां अध्याय अठारहवें अध्याय में गीता समाप्त हो जाती है। इसे एक प्रकार से ‘गीता’ का उपसंहार कहा जा सकता है। जिन-जिन गूढ़ बातों पर या ज्ञान की गहरी बातों पर पूर्व अध्याय में प्रकाश डाला गया है, उन सबका निचोड़ इस अध्याय में दिया गया है। […] Read more » Featured अठारहवें अध्याय अर्जुन गीता गृहस्थियों धर्मग्रंथों महाभारत ब्रह्मचारियों वानप्रस्थियों श्रीकृष्णजी समन्वयात्मक दृष्टि
लेख गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-86 April 9, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य   गीता का सत्रहवां अध्याय मनुष्य के पतन का कारण कामवासना होती है। बड़े-बड़े सन्त महात्मा और सम्राटों का आत्मिक पतन इसी कामवासना के कारण हो गया। जिसने काम को जीत लिया वह ‘जगजीत’ हो जाता है। सारा जग उसके चरणों में आ जाता है। ऐसे उदाहरण भी हमारे इतिहास में […] Read more » Featured geeta karmayoga of geeta आज का विश्व गीता गीता का कर्मयोग गीता का सत्रहवां अध्याय
लेख साहित्य गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-85 April 9, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य   गीता का सोलहवां अध्याय काम, क्रोध और लोभ इन तीनों को गीता नरक के द्वार रहती है। आज के संसार को गीता से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वह जिन तीन विकारों (काम, क्रोध और लोभ) में जल रहा है-इनसे शीघ्र मुक्ति पाएगा। आज के संससार में गीता से दूरी […] Read more » Featured karmayoga of geeta आज का विश्व गीता गीता का कर्मयोग गीता का सोलहवां अध्याय
लेख गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-84 April 7, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य   गीता का सोलहवां अध्याय श्रीकृष्णजी की यह सोच वर्तमान विश्व के लिए हजारों वर्ष पूर्व की गयी उनकी भविष्यवाणी कही जा सकती है जो कि आज अक्षरश: चरितार्थ हो रही है। स्वार्थपूर्ण मनोवृत्ति के लोगों ने जगत के शत्रु बनकर इसके सारे सम्बन्धों को ही विनाशकारी और विषयुक्त बना दिया […] Read more » Featured geeta karmayoga of geeta आज का विश्व गीता गीता का कर्मयोग गीता का सोलहवां अध्याय
लेख साहित्य गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-83 April 7, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य   गीता का सोलहवां अध्याय माना कि अर्जुन तू और तेरे अन्य चार भाई दुर्योधन और उसके भाइयों के रक्त के प्यासे नहीं हो, पर तुम्हारा यह कत्र्तव्य है कि संसार में ‘दैवीय सम्पद’ लोगों की सुरक्षा की जाए और ‘आसुरी सम्पद’ लोगों की गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए उनके […] Read more » Featured geeta karmayoga of geeta आज का विश्व गीता गीता का कर्मयोग गीता का सोलहवां अध्याय
लेख साहित्य गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-82 April 3, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य    गीता का सोलहवां अध्याय गीता के 15वें अध्याय में प्रकृति, जीव तथा परमेश्वर का वर्णन किया गया है तो 16वें अध्याय में अब श्रीकृष्णजी मनुष्यों में पाई जाने वाली दैवी और आसुरी प्रकृतियों का वर्णन करने लगे हैं। इन प्रकृतियों के आधार पर मानव समाज को दैवीय मानव समाज […] Read more » Featured geeta karmayoga of geeta आज का विश्व गीता गीता का कर्मयोग
लेख साहित्य गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-81 April 3, 2018 by राकेश कुमार आर्य | Leave a Comment राकेश कुमार आर्य  गीता का पन्द्रहवां अध्याय गीता में ईश्वर का वर्णन गीता का मत है कि सूर्य में जो हमें तेज दिखायी देता है वह ईश्वर का ही तेज है। ‘गीताकार’ का कथन है कि जो तेज चन्द्रमा में और अग्नि में विद्यमान है, वह मेरा ही तेज है, ऐसा जान। किसी कवि […] Read more » Featured geeta karmayoga of geeta आज का विश्व गीता गीता का कर्मयोग