नदियों का सूखना

0
228

संदर्भ- कनाडा की स्लिम्स नदी का सूखना

प्रमोद भार्गव

किसी नदी का महज चार दिन के भीतर सूख जाना हैरानी में डालने वाली सच्चाई है। इसीलिए कनाडा की स्लिम्स नदी के सूखने के घटनाक्रम एवं नाटकीय बदलाव को भू-विज्ञानियों ने ‘नदी के चोरी हो जाने‘ की उपमा दी है। ऐसा इसलिए कहा गया, क्योंकि नदियों के सूखने अथवा मार्ग बदलने में हजारों साल लगते है।  नदी के विलुप्त हो जाने का कारण जलवायु परिवर्तन माना जा रहा है। इस कारण तापमान बढ़ा और कास्कावुल्ष नामक जिस हिमखंड से इस नदी का उद्गम स्रोत है, वह तेजी से पिघलने लगा। नतीजतन 300 साल पुरानी स्लिम्स नदी 26 से 29 मई 2016 के बीच सूख गई। जबकि 150 किमी लंबी इस नदी का जलभराव क्षेत्र 150 मीटर चौड़ा था।

आधुनिक इतिहास में इस तरह से नदी का सूखना विश्व में पहला मामला है। प्राकृतिक संपदा के दोहन के बूते औद्योगिक विकास में लगे मनुष्य को यह चेतावनी भी है कि यदि विकास का स्वरूप नहीं बदला गया तो मनुष्य समेत संपूर्ण जीव-जगत का संकट में आना तय है। वाशिंगटन विवि के भू-गर्भशास्त्री डेनियल शुगर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं का एक दल सिलम्स नदी की पड़ताल करने मौके पर पहुंचा था। लेकिन उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अब वहां कोई नदी थी ही नहीं। न केवल नदी का पानी गायब हुआ था, बल्कि भौगोलिक स्थिति भी पूरी तरह बदल गई थी। इन विशेषज्ञों ने नदी के विलुप्त होने की यह रिपोर्ट ‘रिवर पायरेसी‘  शीर्षक से शोध-पत्रिका ‘नेचर‘ में प्रकाशित की है। रिपोर्ट के मुताबिक ज्यादा गर्मी की वजह से कास्कावुल्ष हिमखंड पर जमी बर्फ तेजी से पिघलने लगी और इस कारण पानी का बहाव काफी तेज हो गया। जल के इस तेज प्रवाह ने हजारों साल से बह रही स्लिम्स नदी के पारंपरिक रास्तों से दूर अपना अलग रास्ता बना लिया। अब नई स्लिम्स नदी विपरीत दिशा में अलास्का की खाड़ी की और बह रही है। जबकि पहले यह नदी प्रशांत महासागर में जाकर गिरती थी।

इलेनाॅय विवि के भू-विज्ञानी जेम्स बेस्ट ने भी इस नदी की पुरानी धारा और जलभराव क्षेत्र का मौका मुआयना किया। उन्होंने पाया कि इस क्षेत्र में केवल पत्थर और नदी की पुरानी धारा का मार्ग ही देखा जा सकता है। उनका कहना है कि समान्य तौर पर ऐसा एक लंबे बदलाव के दौरान होता है, लेकिन यहां सब कुछ एकाएक घट गया। दूसरी तरफ जहां अब ग्लेशियर का पानी एल्सेक नदी में जा रहा है, वह 60 से 70 गुना बड़ी हो गई है। जबकि ये दोनों नदियां पहले करीब-करीब एक जैसी थीं।

जिस तरह से स्लिम्स नदी सूखी है, उसी तरह से हमारे यहां सरस्वती नदी के विलुप्त होने की कहानी संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में दर्ज है। इस नदी के धार्मिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक साक्ष्य मौजूद होने के बावजूद तमाम इतिहास और साहित्य से जुड़े बुद्धिजीवी इसे एक काल्पनिक नदी मानते रहे हैं। लेकिन अब इन कथित बुद्धिजीवियों की स्लिम्स का हश्र देखकर आंखें खुलनी  चाहिए ? अभी हाल ही में गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के द्वार खुलने के बाद जो ताजा रिपोर्ट सामने आई है, उससे पता चला है कि गंगोत्री का जिस हिमखंड से उद्गम स्रोत है, उसका आगे का 50 मीटर व्यास का हिस्सा भागीरथी के मुहाने पर गिरा हुआ है। हालांकि गोमुख पर तापमान कम होने के कारण यह हिमखंड अभी पिघलना शुरू नहीं हुआ है। यही वह गंगोत्री का गोमुख है, जहां से भारत की सबसे पवित्र नदी गंगा निकलती है।

अल्मोड़ा स्थित पंडित गोविंद बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमखंड का जो अगला हिस्सा टूटकर गिरा है, उसमें 2014 से बदलाव नजर आ रहे हैं। वैज्ञानिक इसका मुख्य कारण चतुरंगी और रक्तवर्ण हिमखंड का गोमुख हिमखंड पर बढ़ता दबाव मान रहे हैं। यह संस्था वर्ष 2000 से गोमुख हिमखंड का अध्ययन कर रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार 28 किमी लंबा और 2 से 4 किमी चौड़ा गोमुख हिमखंड 3 अन्य हिमखंडों से घिरा है। इसके दाईं ओर कीर्ति और बाईं और चतुरंगी व रक्तवर्णी हिमखंड है। इस संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डाॅ कीर्ति कुमार ने बताया है कि हिमखंड की जो ताजा तस्वीरें और वीडियो देखने में आए हैं, उनसे पता चलता है कि गोमुख हिमखंड के दाईं ओर का हिस्सा आगे से टूटकर गिर पड़ा है। इसके कारण गाय के मुख (गोमुख) की आकृति वाला हिस्सा दब गया है। इसका बदलाव जलवायु परिवर्तन का कारण भी हो सकता है, लेकिन सामान्य तौर से भी हिमखंड टूटकर गिरते रहते है। साफ है, इस तरह से यदि गंगा के उद्गम स्रोतों के हिमखंडों के टूटने का सिलसिला बना रहता है तो कालांतर में गंगा की अविरलता तो प्रभावित होगी ही, गंगा के विलुप्ता का खतरा भी बढ़ता चला जाएगा।

 

गंगा का संकट टूटते हिमखंड ही नहीं हैं, बल्कि औद्योगिक विकास भी है। कुछ समय पूर्व अखिल भारतीय किसान मजदूर संगठन की तरफ से बुलाई गई जल संसद में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए जलस्रोतों के दुरूपयोग और इसकी छूट दिए जाने का भी विरोध किया था। कानपुर में गंगा के लिए चमड़ा, जूट और निजी वोटलिंग प्लांट संकट बने हुए है। टिहरी बांध बना तो सिंचाई परियोजना के लिए था, लेकिन इसका पानी दिल्ली जैसे महानगरों में पेयजल आपूर्ति के लिए कंपनियों को दिया जा रहा है। गंगा के जलभराव क्षेत्र में खेतों के बीचो-बीच पेप्सी व काॅक जैसी निजी कंपनियां बोतलबंद पानी के लिए बड़े-बड़े नलकूपों से पानी खींचकर एक ओर तो मोटा मुनाफा कमा रही हैं, वहीं खेतों में खड़ी फसल सुखाने का काम कर रही है।

यमुना नदी से जेपी समूह के दो ताप बिजली घर 97 लाख लीटर पानी प्रतिघंटा खींच रहे है। इससे जहां दिल्ली में जमुना पार इलाके के 10 लाख लोगों का जीवन प्रभावित होने का अंदेशा है, वहीं यमुना का जलभराव क्षेत्र तेजी से छींछ रहा है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अनुभव चंबल नदी पर भी किया जा रहा है। इस नदी के बहने की रफ्तार लगातार धीमी हो रही है। केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 20 वर्ष पहले की तुलना में नदी की चाल कम होकर एक तिहाई रह गई है। पानी की औसत मात्रा भी कम हो रही है। स्थिति यह है कि वर्ष 2002 के बाद चंबल में पानी का न्यूनतम बहाव 33.85 मीटर क्यूबिक प्रति सेकेण्ड तक नहीं पहुंच सका है। इस कारण पानी की गति में जो ठहराव आ रहा है, उससे चंबल में प्रदुषण का खतरा बढ़ेगा। दो दशक पहले तक चंबल में पानी की चाल 10 मीटर प्रति सेकेण्ड थी, जो वर्तमान में गिरकर 3 मीटर प्रति सेकेण्ड रह गई है। पानी की चाल में 7 मीटर प्रति सेकेण्ड की गिरावट को प्रदुषण और जलीय जीवों के जीवन के लिए गंभीर माना जा रहा है। ये संकेत नदियों के अस्तित्व के लिए खतरा है।

ब्रिटिश अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर की किताब ‘स्माॅल इज ब्यूटीफूल‘ 1973 में प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने बड़े उद्योगों की बजाय छोटे उद्योग लगाने की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा था। उनका सुझाव था कि प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम उपयोग और ज्यादा से ज्यादा उत्पादन होना चाहिए। शूमाकर का मानना था कि प्रदुषण को झेलने की प्रकृति की भी एक सीमा होती है। किंतु 70 के दशक में उनकी इस चेतावनी का मजाक उड़ाया गया। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी संगठन शूमाकर की चेतावनी को स्वीकार रहे हैं। वैश्विक मौसम जिस तरह से करवट ले रहा है, उसका असर अब पूरी दुनिया पर दिखाई देने लगा है। भविष्य में इसका सबसे त्यादा खतरा एशियाई देशों पर पड़ेगा। एशिया में गरम दिन बढ़ सकते है या फिर सर्दी के दिनों की संख्या बढ़ सकती है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएं हो सकती है या फिर अचानक बादल फटने की घटनाएं घट सकती है। मसलन न्यूनतम और अधिकतम दोनों तरह के तापमानों में खासा परिवर्तन देखने में आ सकता है। इसका असर परिस्थितिकी तंत्र पर तो पड़ेगा ही, मानव समेत तमाम जंतुओं और पेड़-पौधों की जिंदगी पर भी पड़ेगा। लिहाजा समय रहते चेतने की जरूरत है। स्लिम्स नउी का लुप्त होना और गंगोत्री हिमखंड का टूटना इस बात के संकेत है कि हम जल्दी नहीं चेते तो अनेक नदियों के सूखने में देर नहीं लगेगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,759 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress