संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा (Part 1)

राकेश कुमार आर्य

महाराणा प्रतापसिंह का पवित्र स्मारक स्थल है कुम्भलगढ़

महाराणा का व्यक्तित्व चित्रण
महाराणा प्रताप भारतीय स्वातंत्रय समर के इतिहास के एक दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। प्रताप एक ऐसा नाम है जिसको सुनकर हर व्यक्ति संसार के ताप-संताप, प्रलाप और विलाप छोडक़र केवल प्रताप से भर जाना चाहता है, एक ऐसा नाम जो राष्ट्र का ‘प्रताप’ भी है और ‘सिंह’ भी है। एक ऐसा नाम जिसे सुनकर एक ऐसे राष्ट्रभक्त का चित्र व्यक्ति के मानस में अनायास ही उभर आता है जिसने अपना पूरा जीवन ही राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया, एक ऐसे स्वाभिमानी व्यक्ति का चित्र हमारे दृष्टिपटल पर आता है-जिसने जंगलों की धूल खानी तो पसंद की, परंतु विदेशी आततायी और भारत में अवैध सत्ता सुख भोग रहे अकबर के समक्ष जाकर शीश नही झुकाया, उनके व्यक्तित्व का स्मरण कर एक ऐसे संस्कृति रक्षक का चित्र हमारे समक्ष आता है-जिसने एक भी कन्या अकबर के वासनालय में भेजना उचित नही समझा। एक ऐसे धर्मरक्षक का चित्र उभरकर सामने आता है-जिसने धर्म की रथार्थ अनेकों कष्ट सहे और सदा अपने वैदिक-क्षात्रधर्म के प्रति हृदय से समर्पित रहा, और एक ऐसे इतिहास रक्षक का चित्र उभरता है जिसने बप्पा रावल के काल से लेकर राणा सांगा तक के अपने वीर पूर्वजों के रक्त को और नाम को लज्जित न होने देने की सौगंध उठा ली और इतना ही नही वह राम और कृष्ण का साक्षात अवतार बन गया-रावण और कंस को समाप्त करने के लिए उसने चौदह वर्ष का वनवास भोगा तो द्वारिका बनी चित्तौड़ से दूर रहकर देश और हिंदू जाति में नई चेतना फूंकने का प्रशंसनीय, अनुकरणीय और मननीय कार्य किया।

महाराणा प्रताप का बचपन
महाराणा प्रताप अपने पिता उदयसिंह के सबसे बड़े पुत्र थे। इनका जन्म 1540 ई. में उस समय हुआ था जब राणा उदयसिंह मेवाड़ के शासक बन रहे थे। वीर पन्नाधात्री ने तब राणा उदयसिंह को राज्यारोहण के समय एक अनुपम धरोहर के रूप में राणा को उनका एक माह का नवजात शिशु गोद में दिया था। सारे उपस्थित महानुभावों ने इसे शकुन मानकर हर्ष से करतल ध्वनि की थी। तब किसने सोचा होगा कि यही वह बच्चा है जो इस सदियों पुराने राज्य परिवार को यश और कीर्ति दिलाकर इतिहास में सम्मानपूर्ण स्थान दिलाएगा।

राणा उदयसिंह की कई रानियां थीं, जिनसे उसे कुल 22 पुत्र उत्पन्न हुए। राणा स्वाभाविक रूप से अपनी छोटी रानी पर अधिक आसक्त रहता था, इसलिए छोटी रानी के पुत्र जगमाल में उसका स्नेह अधिक था। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था, मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उन्हें अक्सर इसी नाम से संबोधित किया है। महाराणा प्रताप अपने पिता की पहली संतान तो थे ही साथ ही मेवाड़ को बड़े कठिन काल से निकलकर उनके रूप में अपना एक उत्तराधिकारी मिला था इसलिए प्रताप को अपने राज परिवार के लोगों का तथा सरदारों व सामंतों का भी असीम प्रेम और स्नेह मिला। इसलिए उनका बचपन बहुत ही अच्छे परिवेश में बीतने लगा था। इनकी माता जैवंता बाई बड़े लाड़-प्यार से बच्चे का लालन-पालन कर रही थी।

धायमात्री पन्ना गूजरी का आशीर्वाद और प्रताप
जिस समय राणा उदयसिंह राजसिंहासन पर बैठा था, उस समय प्रताप की अवस्था एक माह की थी। जब उसे पन्ना ने शासक बने अपने पिता उदयसिंह की गोद में दिया तो उस वीरांगना ने जो कुछ उस समय कहा था उसे महाराणा ने अपने जीवन में सत्य करके दिखा दिया था। पन्ना ने तब कहा था-‘‘हे मेवाड़ कुल के गौरव, क्षत्रिय कुल पालक धर्मरक्षक! आज मैं तुम्हें पूर्वजों के राजसिंहासन पर बैठा देखकर भावविभोर हो गयी हूं, लो अपनी धायमाता का एक और नजराना (प्रताप को महाराणा उदयसिंह की गोद में रखते हुए) स्वीकार करें। इस मां ने उस रात्रि तुम्हारे लिए अपने पुत्र चंदन का बलिदान किया था, परंतु आज मैं उससे भी अधिक प्राणप्रिय के रूप में कीका प्रताप को तुम्हें सौंप रही हूं। यह मेरा आशीर्वाद है कि तुम्हारा यह पुत्र कभी पराजित नही होगा और धर्म व धरती की सदा रक्षा करता रहेगा।’’

इतिहास इस बात का साक्षी है कि धायमाता के हृदय से निकला एक-एक शब्द आशीर्वाद के रूप में किस प्रकार फलीभूत हुआ।

विमाता धीर कुंवर की डाह
कीका राणा प्रताप को बचपन में एक और कष्ट था, और वह था अपनी विमाता धीर कुंवर की ओर से। यह राणा उदयसिंह की छोटी रानी थी और वह राणा उदयसिंह के पश्चात अपने पुत्र जगमल (कहीं-कहीं इसका नाम जगमाल भी दिया गया है) को मेवाड़ का शासक बना देखना चाहती थी। अपनी इस बात के लिए रानी ने चुपचाप राणा उदयसिंह को तैयार कर लिया था, परंतु सरदारों में रानी का या उसके पुत्र जगमल का कोई प्रभाव नही था और सरदार लोग जगमाल को नही राणा प्रताप को राणा उदयसिंह का उत्तराधिकारी मानते थे। इससे रानी धीर कुंवर को बहुत पीड़ा और डाह होती थी, इस पीड़ा और डाह का परिणाम ये निकला कि राणा उदयसिंह अपने पुत्र प्रताप के प्रति उदासीन रहने लगे। उनकी उपेक्षा राणा प्रताप को भी कुछ समयोपरांत अखरने लगी।

पिता-पुत्र में बन गयीं दूरियां
पिता-पुत्र के संबंधों में स्वाभाविक वात्सल्य और श्रद्घा सम्मान का भाव न रहकर कटुता उत्पन्न होने लगी। यह कटुता जितनी बढ़ती जाती थी, राणा उदयसिंह उतना ही राणा प्रताप से दूर और जगमाल के निकट होता जाता था। इधर राणा प्रतापसिंह पिता से क्षुब्ध होकर भी उसके विरूद्घ विद्रोही होना नही चाहते थे। राणा प्रतापसिंह शासन और राज्यसिंहासन को लेकर भाईयों में भी किसी प्रकार का तनाव या कलह उत्पन्न करना धर्मविरूद्घ मानते थे।

प्रताप ने ले लिया था संन्यास का निर्णय
भारत तो राम का देश है, देवव्रत भीष्म का देश है-जहां पिता की इच्छा मात्र से एक पुत्र अपने राज्य को लात मार देता है तो दूसरा पिता की इच्छा को पूर्ण करने के लिए आजीवन ब्रहमचारी तो रहता ही है साथ ही शासन सत्ता को भी लात मार देता है। सत्ता सुंदरी यहां कितने ही ‘राम’ और देवव्रत ‘भीष्मों’ को आकर्षित नही कर पायी। यह भारत का इतिहास है, जिसे यदि आज का संसार समझ ले तो धनसंपत्ति, पद-प्रतिष्ठा के लिए होने वाले नित्य प्रति के संघर्षों से मुक्ति मिल सकती है।

राणा प्रताप ने भी राम और देवव्रत भीष्म का अनुकरण किया। उन्होंने संन्यास लेने का मन बना लिया और सोच लिया कि पिता की मृत्यु के उपरांत सत्ता-संघर्ष से दूर रहकर आत्मोत्कर्ष के लिए वनों में चलकर तपस्या करेंगे।

राणा का आदर्श जीवन
कितना बड़ा आदर्श था राणा। विशेषत: तब जबकि सदियों से भारत में सल्तनत काल और अब मुगल काल में सत्ता संघर्ष में कितने ही लोगों को वह नित्य मरते देख रहे थे। तब राणा अपनी संस्कृति के महान संस्कार के प्रति समर्पित होकर उसे खाद-पानी दे रहे थे, और समकालीन इतिहास के लिए एक अनुकरणीय कीर्तिमान स्थापित कर रहे थे। इतिहास में यह घटना एक आदर्श के रूप में स्थापित होनी चाहिए, जिससे कि भारत की नई पीढ़ी को एक संदेश मिले कि भारत का वास्तविक इतिहास कैसा रहा है?

पिता ने किया घोर तिरस्कार
कैकेयी बनी धीर कुंवर ने ऐसा षडयंत्र रचा कि महाराणा उदयसिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र प्रतापसिंह को अपने दुर्ग में प्रवेश पाने तक से निषिद्घ कर दिया। राणा उदयसिंह ने पुत्र प्रतापसिंह को दुर्ग की तलहटी में बसे एक गांव में ही रहने के लिए बाध्य कर दिया था, वहीं उसके लिए भोजनादि चलता जाता था।

राणा उदयसिंह के ऐसे व्यवहार ने राणा प्रताप के हृदय में एक घाव उत्पन्न कर दिया, जिससे वह जीवन भर दुखी रहे और वह अक्सर कह दिया करते थे कि मेरे और राणा संग्रामसिंह के मध्य में यदि उदयसिंह ना होते तो मेवाड़ का इतिहास ही कुछ और होता।

विषमताओं में भी महाराणा को मिला लाभ
किले की तलहटी में एक गांव में रहकर जीवन व्यतीत करने से राणा प्रतापसिंह को अनजाने में ही एक लाभ मिल गया कि उनकी मित्रता भीलों से हो गयी। इन भीलों ने अपनी इस मित्रता का प्रतिकार जीवन पर चुकाने का प्रयत्न किया। राणा के लिए ये दिन निश्चित रूप से कष्टकारी थे परंतु इन कष्टों की भट्टी में पडक़र ही राणा प्रतापसिंह नाम का सेाना कुंदन बन रहा था। राणा ने अपने भील साथियों के साथ मिलकर अपनी एक सेना बना ली थी। राणा प्रतापसिंह के द्वारा कुंवर प्रतापसिंह के रूप में कई युद्घ लड़े गये, बागड़ छप्पन और गौड वाड़ा पर अपनी विजय का ध्वज उन्होंने लहरा दिया। इन युद्घों में मिली सफलता में राणा प्रतापसिंह को संभवत: अपने पिता का भी आशीर्वाद मिला।

राणा की महानता का एक अन्य उदाहरण
कुछ भी हो, राणा उदयसिंह के लिए यह बात अतीव प्रसन्नता दायक थी कि उसका पुत्र स्वतंत्र रूप से विजय प्राप्त करके भी और दुर्ग से बाहर रहकर भी उसके प्रति विद्रोही ना होकर पूर्णत: निष्ठावान था। प्रताप की महानता का एक और उदाहरण है यह।

जिससे स्पष्ट होता है कि राणा प्रतापसिंह को अहंकार छू भी नही गया था। वह अहंकार शून्यता और संतोषी स्वभाव को अपने जीवन का श्रंगार बनाकर जीवन पथ पर निरंतर बढ़ते रहे। पर इन गुणों ने राणा प्रतापसिंह को अपने सरदारों और सामंतों का प्रिय अवश्य बना दिया था।

राणा उदयसिंह की मृत्यु समय का दृश्य
28 फरवरी 1572 ई. को राणा उदयसिंह का देहांत हो गया। राणा उदयसिंह की इच्छा थी कि उनकी मृत्यु के उपरांत जगमाल को राज्यसिंहासन दिया जाए। राणा परिवार की परंपरा थी कि जो राजकुमार राज्यारोहण करने वाला होता था-उसे राजा के अंतिम संस्कार की सारी क्रियाओं से अलग रखा जाता था। अत: जगमाल अपने पिता के अंतिम संस्कार की क्रियाओं से दूर था।

इस स्थिति पर महाराणा प्रतापसिंह के शुभचिंतक सरदारों में परस्पर चर्चा होने लगी कि जगमाल का यहां उपस्थित ना होने का कारण क्या है?

अंत में जब सभी सरदारों को यह ज्ञात हुआ कि जगमाल राणा की अन्त्येष्टि में इसलिए अनुपस्थित है कि उसे राणा अपना उत्तराधिकारी बना गये हैं, तो सरदारों में गंभीर चिंतन की प्रक्रिया चली कि चित्तौड़ के भविष्य के दृष्टिगत जगमाल को राजा बनाया जाना उचित होगा या महाराणा प्रतापसिंह को।

गंभीर चिंतन-मनन और कुछ वाद-विवाद के उपरांत निर्णय लिया गया कि चित्तौड़ के हित में राणा प्रतापसिंह को ही राजा बनाया जाएगा। इससे पूर्व राणा प्रतापसिंह पिता की इच्छा का पता चलने पर चित्तौड़ छोडक़र वनवास पर जाने की इच्छा व्यक्त कर चुके थे। परंतु उनके शुभचिंतक सरदारों ने कह दिया कि मेवाड़ का भविष्य निर्धारण करने की परंपरा सरदारों के हाथ में रही है, इसे कोई राणा निर्धारित नही कर सकता। इसलिए तुम राणा का अंतिम संस्कार होने तक प्रतीक्षा करो, तब हम स्वयं निर्णय लेंगे कि तुम्हें वनवासी होना है या राणा का उत्तराधिकारी बनकर चित्तौड़ की सुरक्षा का भार संभालना है?

महाराणा प्रतापसिंह का राज्यारोहण
कहते हैं कि जब राणा उदय सिंह का अंतिम संस्कार करके सभी लोग लौटे तो दरबार में राणा के आसन पर बैठे जगमाल को देखकर उन्हें अत्यंत पीड़ा हुई और दो प्रमुख सरदारों ने उठकर राणा के सिंहासन पर विराजमान जगमाल को उठाकर अलग बैठा दिया और राणा प्रतापसिंह को सिंहासन पर विराजमान कर दिया। इस प्रकार महाराणा प्रतापसिंह के लिए सिंहासनरूढ़ होने की प्रक्रिया शांतिपूर्वक संपन्न हो गयी।
‘वीर विनोद’ में इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया गया है-‘‘जिस समय राणा उदयसिंह का दाह संस्कार हो रहा था उस समय ग्वालियर के राजा रामसिंह ने जगमाल के छोटे भाई सगर से सहज भाव से यह पूछ लिया कि कुंवर जगमाल कहां है? तब कुंवर सगर ने बताया कि स्वर्गीय महाराणा उन्हें अपना उत्तराधिकारी बना गये हैं, इसलिए उनका अब यहां उपस्थित होना संभव नही है। इस बात को सुनकर कुछ सरदार तो बहुत ही बिगड़े और कहने लगे-महाराणा ये क्या कर गये हैं अनीति है, यह राजवंश की परंपरा के विरूद्घ है। इससे घर में ही बखेड़ा हो जाएगा। फिर ऐसे समय में जब अकबर जैसा प्रबल शत्रु सामने हो जगमाल क्या उससे निपट लेगा? नही….नही…हम ऐसा अन्याय कभी नही होने देंगे। दाह क्रिया संस्कार पूर्ण होने के पश्चात राव किशनदास ने कुछ सरदारों के सहयोग से राणा जगमाल को हाथ पकडक़र सिंहासन से उतार दिया, तथा उसी समय 28 फरवरी 1572 ई. को प्रताप को मेवाड़ के राज्यसिंहासन पर बैठा दिया। उपस्थित सभी सरदारों ने नये महाराणा बने प्रताप सिंह को नजराने पेश कर अपना शासक स्वीकार कर लिया।’’

चित्तौड़ को थी महाराणा प्रतापसिंह की आवश्यकता
स्वामी आनंद बोध सरस्वती अपनी पुस्तक महाराणा प्रताप में लिखते हैं-‘‘राज्यारोहण के समय चारों ओर से स्वागतम हर्ष ध्वनि, महाराणा प्रताप सिंह की जय आदि की शीर्ष ध्वनि से आकाश गूंज उठा। तोपों की सलामी हुई। शहनाईयां बजने लगीं। उदयपुर के राजमहल की ऊंची अटारी के शिखर पर राजपूतों की विजय ध्वजा सूर्य पताका फहराने लगी। अत: चूड़ावत सरदार कृष्णसिंह या किशनसिंह ने नये राणा के सिर पर राजछत्र की छाया की तथा अन्य सरदारों ने चंवर हिलाया। यह सब काम देखकर जगमल चुप ही रहा। उसने चूं तक भी नही की। राज्य के अमीर उमरावों ने यह बड़ी ही बुद्घिमानी का काम किया कि बिना किसी लड़ाई-झगड़े या रक्तपात के जगमल को गद्दी से उतार कर प्रतापसिंह को बैठा दिया। सचमुच ही मे मेवाड़ के लिए राणा प्रताप सिंह की आवश्यकता थी।’’

राणा प्रताप सिंह अपने वंश की महान परंपराओं से भली प्रकार परिचित थे, और वह यह भी भली ्रप्रकार जानते थे कि मेवाड़ का मुकुट पहनने का इस समय अर्थ क्या है? कदाचित उनके इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर उनकी इच्छा ना होते हुए भी उन्हें ‘मेवाड़ मुकुट’ माना गया।

उस समय सारा मेवाड़ चित्तौड़ की स्थिति को लेकर तो चिंतित था ही, साथ ही राजपूतों के स्वाभिमान की रक्षा को लेकर तो और भी अधिक चिंतित था।

राणा प्रताप उन राजपूत राजवंशों को अत्यंत घृणा की दृष्टि से देखते थे जिन्होंने अकबर को अपनी कन्याएं देकर उससे संधि समझौते कर हिंदू स्वाभिमान को ही बेच दिया था।

राणा के इस स्वाभिमानी स्वभाव से उस समय के मेवाड़ की जनता भी भली प्रकार परिचित थी। इसलिए सरदारों ने भी यह भली प्रकार समझ लिया था कि इस समय मेवाड़ को महाराणा की आवश्यकता है।

महाराणा का ओजस्वी सम्बोधन
महाराणा प्रताप ने अपने द्वारा राज्यभार संभालने के उपरांत सभी उपस्थित लोगों को बड़े ओजस्वी शब्दों में संबोधित किया। महाराणा ने लोगों को हिंदू की आन-बान और शान की हर स्थिति में सुरक्षा करने की बात कही। उनकी प्रतिज्ञा को कुछ लोगों ने बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है कि मैं शैया पर सोऊंगा नही, रेशमी कपड़े नही पहनूंगा, मिष्ठान पकवान खाऊंगा नही-जब तक कि चित्तौडग़ढ़ को पुन: अधिकार में नही ले लूंगा। इन बातों को आधुनिक शोधों से काल्पनिक माना जा चुका है। बस, इतना कहना ही पर्याप्त है कि महाराणा ने उस समय चित्तौड़ और देश की स्वतंत्रता की तथा हिंदू राजपूती गौरव की रक्षा हेतु हर संभव प्रयास करने का विश्वास लोगों को दिलाया। जिसे सुनकर लोगों ने महाराणा के प्रति और भी अधिक निष्ठा का प्रदर्शन किया। उन्होंने स्पष्ट कर दिया-‘‘श्रीमान! हम सब परमात्मा को साक्षी मानकर सच्चे मन से प्रतिज्ञा करते हैं कि अपने देश को परतंत्रता की बेड़ी से मुक्त करने के लिए हम अपना सर्वस्व-यहां तक कि स्त्री पुत्र तक भेंट करने को तैयार हैं। जब तक मातृभूमि को स्वतंत्र न करा लेंगे, जब तक दिल्ली से यवनों की जड़ें न उखाड़ फेंकेंगे-तब तक सारे सुख भोग हमारे लिए हराम हैं। हमें पूरा-पूरा विश्वास है कि आप ऐसे योग्य वीर साहसी राजा की आधीनता में हम लोग अवश्य सफल मनोरथ होंगे।’’

पराधीनता भावपरक इतिहास हमारा इतिहास नही
सुबुद्घ पाठकवृन्द! यह है हमारा इतिहास जिसमें स्वतंत्रता की रक्षा की सौगंध उठायी जाती है। जबकि हमें वह इतिहास पढ़ाया गया है जिसमें मानसिंह अकबर की चाटुकारिता कर रहा दिखता है, या रणथम्भौर का राव सुरजन सिंह अकबर की जूठन उठाने के लिए लालायित दिखता है। उस इतिहास में पराधीनता की सौगंध उठायी जाती है कि-‘‘जहांपनाह अकबर! आपको पाकर हम कृत कृत्य हो गये हैं। अहोभाग्य हमारा कि जो आप हमसे आ मिले, अब तो हम आपसे यह सौगंध उठाते हैं कि आप चाहे भले ही हमें छोड़ दें, पर हम तुम्हें नही छोड़ेंगे।’’

इस पराधीनता के भावपरक इतिहास को पढक़र हमारे भीतर हीनता काभाव उत्पन्न हुआ और हमने इसे जितनी बार पढ़ा उतने ही हम हीनभाव से ग्रस्त होते गये। इसी हीनभाव के नीचे हमारा महाराणा कहीं दब गया, हमसे कहीं पीछे छूट गया।

संभवत: वहां -जहां स्वतंत्रता को लेकर ओजस्वी भाषण हो रहे थे, संस्कृति और धर्म की रक्षा को लेकर लोग सौगंध उठा रहे थे, उन भवनों को और उन मंचों को मिटाने और विनष्ट करने के प्रयास किये गये और उन प्रयासों को हमारे इतिहास ने पूर्णत: न्यायसंगत सिद्घ करने का प्रयास किया। दुख की बात ये रही कि इतिहास के ऐसे प्रयासों को हमने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। इसलिए महाराणा प्रतापसिंह का वह सभास्थल जहां उन्हें राज्यसिंहासन पर बैठाया गया था, वह कुम्भलगढ़ आज तक हमारी दृष्टि से ओझल है। यदि हम अपने इतिहास, ऐतिहासिकता और पवित्रता को संभालकर सुरक्षित रखने का प्रयास करते, तो ऐसी कृतघ्नता कभी नही होती। तब कुंभलगढ़ हमारी स्वतंत्रता का तीर्थ होता और इस देश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उठायी जाने वाली हर सौगंध में जिन पवित्र धामों का नाम लिया जाता उनमें कुंभलगढ़ भी एक होता।

इतिहास का अंतिम लक्ष्य
इतिहास का अंतिम लक्ष्य राष्ट्र के नौजवानों की रगों में स्वतंत्रता का भाव उत्पन्न करना होता है। यदि किसी देश की पीढ़ी अपने लक्ष्य से भटकती है तो उस समय भी इतिहास ही उसे संभालता है, और उसका सही मार्गदर्शन करता है। इसलिए इतिहास का उसके पवित्र स्थलों से लगाव होता है, और ये पवित्र स्थल इतिहास पर पड़ी किसी भी प्रकार की धूल का परिमार्जन करने में भी सहायक होते हैं, इसलिए हर देश का पवित्र कत्र्तव्य होता है कि वह अपने इतिहास के स्मारक स्थलों का सदा सम्मान करें।

हमारा मानना है कि पर भारत में कुम्भलगढ़ का सम्मान तब तक नही हो सकता जब तक ‘अकबर महान’ है, इसलिए हमारा पवित्र राष्ट्रीय कत्र्तव्य है कि देशहित में महानता का पद हम अकबर से छीनकर यथाशीघ्र अपने महाराणा प्रतापसिंह को प्रदान कर दें।
क्रमश:

1 COMMENT

  1. राकेश जी, यह संयोग कहे कि आपका उक्त लेख और डॉक्टर सुरेद्र कुमार शर्मा “अज्ञात ” द्वारा लिखित पुस्तक हिन्दू इतिहास :हारों की दास्तान पढने का समय एक ही दिन में मिला |मेरी राय है आप भी उक्त पुस्तक को पढ़े इसमें वास्तविक धरातल और कटु सच्चाईयों को बहुत ही सरल भाषा में वर्णित किया है |अकबर महान था उसका भारत के लगभग सम्पूर्ण भारत पर अधिकार था जबकि राणा प्रताप आज के दो जिलों के भी मालिक नहीं थे |राजपूत अकबर के शिकारी कुतों के तरह महाराणा प्रताप के पीछे लगे थे और सही मायने में भील मीणा प्रताप की सुरक्षा दीवार बने हुए थे |अत:इतिहास को दुराग्रह की भावना से नहीं देखे |

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